Font by Mehr Nastaliq Web

उसकी रोटी

uski roti

मोहन राकेश

मोहन राकेश

उसकी रोटी

मोहन राकेश

और अधिकमोहन राकेश

    बालो को पता था कि अभी बस के आने में बहुत देर है, फिर भी पल्ले से पसीना पोंछते हुए उसकी आँखें बार-बार सड़क की तरफ़ उठ जाती थीं। नकोदर रोड के उस हिस्से में आसपास कोई छायादार पेड़ भी नहीं था। वहाँ की ज़मीन भी बंजर और ऊबड़-खाबड़ थी-खेत वहाँ से तीस-चालीस गज़ के फ़ासले से शुरू होते थे। और खेतों में भी उन दिनों कुछ नहीं था। फ़सल कटने के बाद सिर्फ़ ज़मीन की गोड़ाई ही की गई थी, इसलिए चारों तरफ़ बस मटियालापन ही नज़र आता था। गर्मी से पिघली हुई नकोदर रोड का हल्का सुरमई रंग ही उस मटियालेपन से ज़रा अलग था। जहाँ बालो खड़ी थी वहाँ से थोड़े फ़ासले पर एक लकड़ी का खोखा था। उसमें पानी के दो बड़े-बड़े मटकों के पास बैठा एक अधेड़-सा व्यक्ति ऊँघ रहा था। ऊँघ में वह आगे को गिरने को होता तो सहसा झटका खाकर सँभल जाता। फिर आसपास के वातावरण पर एक उदासी-सी नज़र डालकर, और अँगोछे से गले का पसीना पोंछकर, वैसे ही ऊँघने लगता। एक तरफ़ अढ़ाई-तीन फ़ुट में खोखे की छाया फैली थी और एक भिखमंगा, जिसकी दाढ़ी काफ़ी बढ़ी हुई थी, खोखे से टेक लगाए ललचाई आँखों से बालो के हाथों की तरफ़ देख रहा था। उसके पास ही एक कुत्ता दुबककर बैठा था, और उसकी नज़र भी बालो के हाथों की तरफ़ थी।

    बालो ने हाथ की रोटी को मैले आँचल में लपेट रखा था। वह उसे बद नज़र से बचाए रखना चाहती थी। रोटी वह अपने पति सुच्चा सिंह ड्राइवर के लिए लाई थी, मगर देर हो जाने से सुच्चा सिंह की बस निकल गई थी और वह अब इस इंतिज़ार में खड़ी थी कि बस नकोदर से होकर लौट आए, तो वह उसे रोटी दे दे। वह जानती थी कि उसके वक़्त पर पहुँचने से सुच्चा सिंह को बहुत ग़ुस्सा आया होगा। वैसे ही उसकी बस जालंधर से चलकर दो बजे वहाँ आती थी, और उसे नकोदर पहुँचकर रोटी खाने में तीन-साढ़े तीन बज जाते थे। वह उसकी रात की रोटी भी उसे साथ ही देती थी जो वह आख़िरी फेरे में नकोदर पहुँचकर खाता था। सात दिन में छ: दिन सुच्चा सिंह की ड्यूटी रहती थी, और छहों दिन वही सिलसिला चलता था। बालो एक-सवा एक बजे रोटी लेकर गाँव से चलती थी, और धूप में आधा कोस तय करके दो बजे से पहले सड़क के किनारे पहुँच जाती थी। अगर कभी उसे दो-चार मिनट की देर हो जाती तो सुच्चा सिंह किसी किसी बहाने बस को वहाँ रोके रखता, मगर, उसके आते ही उसे डाँटने लगता कि वह सरकारी नौकर है, उसके बाप का नौकर नहीं कि उसके इंतिज़ार में बस खड़ी रखा करे। वह चुपचाप उसकी डाँट सुन लेती और उसे रोटी दे देती।

    मगर आज वह दो-चार मिनट की नहीं, दो-अढ़ाई घंटे की देर से आई थी। यह जानते हुए भी कि उस समय वहाँ पहुँचने का कोई मतलब नहीं, वह अपनी बेचैनी में घर से चल दी थी-उसे जैसे लग रहा था कि वह जितना वक़्त सड़क के किनारे इंतिज़ार करने में बिताएगी, सुच्चा सिंह की नाराज़गी उतनी ही कम हो जाएगी। यह तो निश्चित ही था कि सुच्चा सिंह ने दिन की रोटी नकोदर के किसी तंदूर में खा ली होगी। मगर उसे रात की रोटी देना ज़रूरी था और साथ ही वह सारी बात बताना भी जिसकी वजह से उसे देर हुई थी। वह पूरी घटना को मन ही मन दोहरा रही थी, और सोच रही थी कि सुच्चा सिंह से बात किस तरह कही जाए कि उसे सब कुछ पता भी चल जाए और वह ख़ामख़ाह तैश में भी आए। वह जानती थी कि सुच्चा सिंह का ग़ुस्सा बहुत ख़राब है और साथ ही यह भी कि जंगी से उलटा-सीधा कुछ कहा जाए तो वह बग़ैर गंड़ासे के बात नहीं करता।

    जंगी के बारे में बहुत-सी बातें सुनी जाती थीं। पिछले साल वह साथ के गाँव की एक मेहरी को भगाकर ले गया था और जाने कहाँ ले जाकर बेच आया था। फिर नकोदर के पंडित जीवाराम के साथ उसका झगड़ा हुआ, तो उसे उसने क़त्ल करवा दिया। गाँव के लोग उससे दूर-दूर रहते थे, मगर उससे बिगाड़ नहीं रखते थे। मगर उस आदमी की लाख बुराइयाँ सुनकर भी उसने यह कभी नहीं सोचा था कि वह इतनी गिरी हुई हरकत भी कर सकता है कि चौदह साल की जिंदां को अकेली देखकर उसे छेड़ने की कोशिश करे। वह यूँ भी जिंदां से तिगुनी उम्र का था और अभी साल-भर पहले तक उसे बेटी-बेटी कहकर बुलाया करता था। मगर आज उसकी इतनी हिम्मत पड़ गई कि उसने खेत में से आती जिंदां का हाथ पकड़ लिया?

    उसने जिंदां को नन्ती के यहाँ से उपले माँग लाने को भेजा था। इनका घर खेतों के एक सिरे पर था और गाँव के बाक़ी घर दूसरे सिरे पर थे। वह आटा गूँधकर इंतिज़ार कर रही थी कि जिंदां उपले लेकर आए, तो वह जल्दी से रोटियाँ सेंक ले जिससे बस के वक़्त से पहले सड़क पर पहुँच जाए। मगर जिंदां आई, तो उसके हाथ ख़ाली थे और उसका चेहरा हल्दी की तरह पीला हो रहा था। जब तक जिंदां नहीं आई थी, उसे उस पर ग़ुस्सा रहा था। मगर उसे देखते ही उसका दिल एक अज्ञात आशंका से भर गया।

    हाय री, क्या हुआ है ज़िंदो, ऐसे क्यों हो रही है? उपले क्यों नहीं लाई? उसने ध्यान से उसे देखते हुए पूछा।

    जिंदां चुपचाप उसके पास आकर बैठ गई और बाँहों में सिर डालकर रोने लगी।

    ख़सम खानी, कुछ बताएगी भी, क्या बात हुई है?

    जिंदां कुछ नहीं बोली। सिर्फ़ उसके रोने की आवाज़ तेज़ हो गई।

    बता किसी ने कुछ कहा है? उसने अब नरम स्वर में उसके सिर पर हाथ फेरते हुए पूछा।

    तू मुझे उपले-वुपले लेने मत भेजा कर, जिंदां रोने के बीच उखड़ी-उखड़ी आवाज़ में बोली, मैं आज से घर से बाहर नहीं जाऊँगी। मुआ जंगी आज मुझसे कहता था... और गला रुँध जाने से वह आगे कुछ नहीं कह सकी।

    क्या कहता था जंगी...बता...बोल... वह बोझ के नीचे दबकर बोलीं, ख़सम खानी, अब बोलती क्यों नहीं?

    कहता था, जिंदां ने सिसकती हुए कहा, जिंदां, अंदर चलकर शरबत पी ले। आज तू बहुत सोहणी लग रही है...।

    मुआ कमज़ात! वह सहसा उबल पड़ी, मुए को अपनी माँ रंडी नहीं सोहणी लगती? मुए की नज़र में कीड़े पड़ें। निपूते, तेरे घर में लड़की होती, तो इससे बड़ी होती, तेरे दीदे फटें!...फिर तूने क्या कहा?

    मैंने कहा चाचा, मुझे प्यास नहीं है, जिंदां कुछ स्वस्थ होती हुई बोली।

    फिर?

    कहने लगा प्यास नहीं है, तो भी एक घूँट पीजी जा। चाचा का शरबत पिएगी तो याद करेगी।...और मेरी बाँह पकड़कर खींचने लगा।

    हाय रे मौत-मरे, तेरा कुछ रहे, तेरे घर में आग लगे। आने दे सुच्चा सिंह को। मैं तेरी बोटी-बोटी नुचवाऊँ तो कहना, जल-मरे! तू सोया सो ही जाए।...हाँ, फिर?

    मैं बाँह छुड़ाने लगी, तो मुझे मिठाई का लालच देने लगा। मेरे हाथ से उपले वहीं गिर गए। मैंने उन्हें वैसे ही पड़े रहने दिया और बाँह छुड़ाकर भाग आई।

    उसने ध्यान से जिंदां को सिर से पैर तक देखा और फिर अपने साथ सटा लिया।

    और तो नहीं उसने कुछ कहा?

    जब मैं चली तो पीछे से ही-ही करके बोला, 'बेटी, तू बुरा तो नहीं मान गई? अपने उपले तो ले जा। मैं तो तेरे साथ हँसी कर रहा था। तू इतना भी नहीं समझती? इधर। अच्छा नहीं आती, तो आ। मैं आज तेरे घर आकर तेरी बहन से तेरी शिकायत करूँगा कि जिंदां बहुत गुस्ताख़ हो गई है, बड़ों का कहा नहीं मानती।...मगर मैंने उसे जवाब दिया, मुड़कर उसकी तरफ़ देखा। सीधी घर चली आई।

    अच्छा किया। मैं मुए की हड्डी-पसली एक कराकर छोड़ूँगी। तू आने दे सुच्चा सिंह को। मैं अभी जाकर उससे बात करूँगी। इसे यह नहीं पता कि जिंदां सुच्चा सिंह ड्राइवर की साली है, ज़रा सोच-समझकर हाथ लगाऊँ। फिर कुछ सोचकर उसने पूछा, वहाँ तुझे और किसी ने तो नहीं देखा?

    नहीं। खेतों के इस तरफ़ आम के पेड़ के नीचे राधू चाचा बैठा हुक्का पी रहा था। उसने देखकर पूछा कि बेटी, इस वक़्त धूप में कहाँ से रही है, तो मैंने कहा कि बहन के पेट में दर्द था, हकीम जी से चूरन लाने गई थी।

    अच्छा किया। मुआ जंगी तो शोहदा है। उसके साथ अपना नाम लग जाए, तो अपनी ही इज़्ज़त जाएगी। उस सिर-जले का क्या जाना है? लोगों को तो करने को बात चाहिए।

    और उसके बाद उपले लाकर खाना बनाने में उसे काफ़ी देर हो गई। जिस वक़्त उसने कटोरे में आलू की तरकारी और आम का अचार रखकर उसे रोटियों के साथ खद्दर के टुकड़े में लपेटा, उसे पता था कि दो कब के बज चुके हैं और वह दुपहर की रोटी सुच्चा सिंह को नहीं पहुँचा सकती। इसलिए वह रोटी रखकर इधर-उधर के काम करने लगी। मगर जब बिलकुल ख़ाली हो गई, तो उससे यह नहीं हुआ कि बस के अंदाज़े से घर से चले। मुश्किल से साढ़े तीन-चार ही बजे थे कि वह चलने के लिए तैयार हो गई।

    बहन, तू कब तक आएगी? जिंदां ने पूछा।

    दिन ढलने से पहले ही जाऊँगी।

    जल्दी जाना। मुझे अकेले डर लगेगा।

    डर काहे का है री? वह दिखावटी साहस के साथ बोली, किसकी हिम्मत है जो तेरी तरफ़ आँख उठाकर भी देख सके? सुच्चा सिंह को पता चलेगा, तो वह उसे कच्चा ही नहीं चबा जाएगा?...वैसे मुझे ज़्यादा देर नहीं लगेगी। साँझ होते-होते घर पहुँच जाऊँगी। तू ऐसा करना कि अंदर से साँकल लगा लेना। समझी? कोई दरवाज़ा खटखटाए तो पहले नाम पूछ लेना। और फिर उसने ज़रा धीमे स्वर में कहा, और अगर वह आए और बारे में पूछे कि कहाँ गई है, तो कहना कि सुच्चा सिंह को बुलाने गई है। समझी?...या नहीं। तू उससे कुछ नहीं कहना। अंदर से जवाब ही नहीं देना समझी? वैसे मेरा ख़्याल नहीं कि वह आए। पर ख़ैर तू ध्यान से रहना।

    जब वह दहलीज़ के पास पहुँची तो जिंदां ने पीछे से कहा, बहन, मेरा दिल धड़क रहा है।

    पागल हुई है? उसने उसे प्यार के साथ झिड़का, साथ ही गाँव है फिर तुझे डर किस बात का है? और तू आप भी मुटियार है, इस तरह हौसला छोड़ती है?

    मगर जिंदां को दिलासा देकर भी उसकी अपनी तसल्ली नहीं हुई। सड़क के किनारे पहुँचने के क्षण से ही वह चाह रही थी कि किसी तरह बस जल्दी लौट आए जिससे वह रोटी देकर उड़ती हुई जिंदां के पास घर पहुँच जाए।

    वीरा, दो बजे वाली बस को गए कितनी देर हुई है? उसने भिखमंगे को लक्षित करके पूछा जिसकी आँखें अब भी उसके हाथ की रोटी वाली पोटली पर टिकी हुई थीं। धूप की चुभन अभी कम नहीं हुई थी, हालाँकि खोखे की छाया अब पहले से काफ़ी लंबी हो गई थी। कुत्ता प्याऊ के तख़्ते के नीचे जमा पानी को मुँह लगाकर अब उसके आसपास चक्कर काट रहा था।

    पता नहीं भैणा, भिखमंगे ने कहा, कई बसें आती हैं, कई जाती हैं। यहाँ कौन घड़ी का हिसाब है?

    बालो चुप कर रही। एक बस थोड़ी देर पहले उसके सामने ही नकोदर की तरफ़ गई थी। धूल के फैलाव के दोनों और उसे लग रहा था कि दो अलग-अलग दुनियाएँ हैं। बसें एक दुनिया से आती हैं और दूसरी दुनिया की तरफ़ चली जाती हैं। कैसी होंगी वे दुनियाएँ जहाँ बड़े-बड़े बाज़ार हैं, हर चीज़ की दुकानें हैं और जहाँ एक ड्राइवर की आमदनी का तीन-चौथाई हिस्सा ख़र्च करके भी तसल्ली नहीं मिलती? देवी एक दिन उससे कहा रहा था कि सुच्चा सिंह ने नकोदर में एक रखैल रख रखी है। उसका कितना मन होता था कि वह एक बार उस औरत को देखे जिससे उसे पता चल जाए कि एक रखेल में क्या होता है जो घर की औरत में नहीं होता, और जिसे पाने के लिए एक आदमी घर-बार की तरफ़ इतना वे परवाह हो सकता है? उसने एक बार सुच्चा सिंह से कहा कि मुझे शहर दिखा ला, तो उसे डाँटकर जवाब दिया, क्यों, तेरे पर निकल रहे हैं? घर में चैन नहीं पड़ता? सुच्चा सिंह वह मर्द नहीं है कि औरत की बाँह पकड़कर उसे सड़कों पर घुमाता फिरे। घूमने का ऐसा ही शौक़ है, तो दूसरा ख़सम कर ले। मेरी तरफ़ से मुझे खुली छुट्टी है।

    उस दिन के बाद वह यह बात ज़बान पर भी नहीं लार्इ थी। सुच्चा सिंह कैसा भी हो, उसके लिए सब कुछ वही था। वह उसे गालियाँ दे लेता था, मार-पीट लेता था, फिर भी उससे इतना प्यार तो करता था कि हर महीने तनख़ाह मिलने पर उसे बीस रुपए दे जाता था। लाख बुरी कहकर भी वह उसे अपनी घरवाली तो समझता था! ज़बान का कड़वा भले ही हो, दिल का बुरा क़तई नहीं था। वह उसके जिंदां को घर में रख लेने पर अक्सर कुढ़ा करता था, मगर आप ही पिछले महीने उसके लिए काँच की चूड़ियाँ और अढ़ाई गज़ मलमल लाकर दे गया था।

    एक बस धूल उड़ाती हुई क्षितिज के उस छोर से इस तरफ़ को रही थी। बालो ने दूर से ही पहचान लिया कि वह सुच्चा सिंह वाली बस नहीं है। फिर भी बस जब तक पास नहीं गई, वह उत्सुक आँखों से उस तरफ़ देखती रही। बस प्याऊ के सामने आकर रुकी। एक आदमी प्याज़ और शलग़म का गट्ठर लिए हुए वहाँ उतरा। कंडक्टर ने ज़ोर से दरवाज़ा बंद किया और बस आगे चल दी। जो आदमी बस से उतरा था, उसने प्याऊ के पास जाकर प्याऊ वाले को जगाया और चुल्लू से दो लोटे पानी पीकर मूँछें साफ़ करता हुआ अपने गट्ठर के पास गया।

    वीरा, नकोदर से अगली बस कितनी देर तक आएगी? बालो ने दो क़दम आगे बढ़कर उस व्यक्ति से पूछा।

    हर घंटे-घंटे के बाद बस चलती है, माई। वह बोला, तुझे कहाँ जाना है?

    जाना नहीं है वीरा, बस की इंतज़ार करनी है। सुच्चा सिंह ड्राइवर मेरा घरवाला है। उसे रोटी देनी है।

    अच्छा सुच्चा स्यों! और उस आदमी के होंठों पर ख़ास तरह की मुस्कुराहट गई।

    तू उसे जानता है?

    उसे नकोदर में कौन नहीं जानता?

    बालो को उसका कहने का ढंग अच्छा नहीं लगा, इसलिए वह चुप हो रही। सुच्चा सिंह के बारे में जि बातों को वह ख़ुद जानती थी, उन्हें दूसरों के मुँह से सुनना उसे गवारा नहीं था। उसकी समझ नहीं आता था कि दूसरों को क्या अधिकार है कि वे उसके बारे में इस तरह से बात करें? जब वह उसकी घरवाली होकर उसे बुरा नहीं समझती तो दूसरों को क्यों उसे देख कर जलन होती है? वह आप कमाता है, अपनी कमाई से जो चाहे करता है, लोगों को उससे मतलब?

    सुच्चा सिंह शायद अगली बस लेकर आएगा, वह आदमी बोला।

    हाँ!

    बड़ा ज़ालिम है जो तुझसे इस तरह इंतज़ार कराता है।

    चल वीरा, अपने रास्ते चल! बालो चिढ़े हुए स्वर में बोली, वह बेचारा क्या इंतज़ार कराएगा? मुझे ही रोटी लाने में देर हो गई थी जिससे बस निकल कर चली गई। वह बेचारा सवेरे से भूखा बैठा होगा।

    भूखा? कौन सुच्चा स्यों? और वह व्यक्ति दाँत निकालकर हँस दिया। बालो ने उसकी ओर से मुँह दूसरी तरफ़ कर लिया। या साईं सच्चे! कहकर उस व्यक्ति ने अपना गट्ठर सिर पर उठा लिया और खेतों की पगडंडी पर चल दिया। बालो की दाईं टाँग सो गई थी। उसने भार दूसरी टाँग पर बदलते हुए एक लंबी साँस ली और दूर तक के वीराने को देखने लगी।

    जाने कितनी देर बाद आकाश के उसी कोने से उसे दूसरी बस अपनी तरफ़ आती नज़र आई। तब तक खड़े-खड़े उसके पैरों की एड़ियाँ दुखने लगी थीं। बस को देखकर वह पोटली का कपड़ा ठीक करने लगी। उसे अफ़सोस हो रहा था कि वह रोटियाँ कुछ और देर से बनाकर क्यों नहीं लाई, जिससे वे रात तक कुछ और ताज़ा रहतीं। सुच्चा सिंह को कड़ाह प्रशाद का इतना शौक़ है, उसे क्यों यह ध्यान नहीं आया कि आज उसके लिए थोड़ा कड़ाह प्रशाद ही बना लाती...ख़ैर कल गुरपरब है, कल वह ज़रूर कड़ाह प्रशाद बनाकर लाएगी।...

    पीछे गर्द की लंबी लकीर छोड़ती हुई बस पास आती जा रही थी। बालो ने बीस गज़ दूर से ही सुच्चा सिंह का चेहरा देखकर समझ लिया कि वह उससे बहुत नाराज़ है। उसे देखकर सुच्चा सिंह की भवें तन गई थीं और निचले होंठ का कोना दाँतों में चला गया था। बालो ने धड़कते दिल से रोटी वाला हाथ ऊपर उठा दिया। मगर बस उसके पास रुककर प्याऊ से ज़रा आगे जाकर रुकी।

    दो-एक लोग वहाँ बस से उतरने वाले थे। कंडक्टर बस की छत पर जाकर एक आदमी की साइकल नीचे उतारने लगा। बालो तेज़ी से चलकर ड्राइवर की सीट के बराबर पहुँच गई।

    सुच्चा स्यां! उसने रोटी वाला हाथ ऊँचा उठाकर खिड़की के अंदर रोटी पहुँचाने की चेष्टा करते हुए कहा, सुच्चा स्यां, रोटी ले ले।

    हट जा, मुझे फुर्सत नहीं है सुच्चा सिंह ने उसका हाथ झटककर पीछे हटा दिया।

    सुच्चा स्यां, पहले एक मिनट नीचे उतरकर मेरी बात सुन ले। आज दुपहर को ख़ास बात हो गई थी, नहीं तो मैं...।

    बक नहीं, हट जा यहाँ से, कहकर सुच्चा सिंह ने कंडक्टर को आवाज़ देकर पूछा कि वहाँ का सारा सामन उतर गया है या नहीं।

    बस एक पेटी है, उतार रहा हूँ, कंडक्टर ने छत से आवाज़ दी।

    सुच्चा स्यां, मैं दो घंटे से यहाँ खड़ी हूँ, बालो ने मिन्नत के लहज़े में कहा, तू नीचे उतरकर मेरी बात तो सुन ले।...बेड़ा गर्क़ हो मुए जंगी का। मुए की वजह से तेरा खाना भी ख़राब हुआ और मुझे भी इतनी मुसीबत झोंकनी पड़ी। और उसने रोटी वाला हाथ फिर ऊँचा उठा दिया।

    उतर गई पेटी? सुच्चा सिंह ने आवाज़ दी।

    हाँ, चलो, कंडक्टर की आवाज़ आई।

    सुच्चा स्यां! बालो ने मिन्नत के साथ हाथ और आगे बढ़ा दिया।

    हट! सुच्चा सिंह ने दुतकार कर उसका हाथ फिर पीछे हटा दिया।

    सुच्चा स्यां! तू मुझ पर नाराज़ हो ले, पर रोटी तो रख ले। तू मंगलवार को घर आएगा तो मैं तुझे सारी बात बताऊँगी।

    मेरा कोई घर नहीं है। मंगलवार को आएगा तेरा... और एक मोटी-सी गाली देकर सुच्चा सिंह ने बस स्टार्ट कर दी।

    “हाय सुच्चा स्यां सुन तो सही!” बालो ने उसे रोकने की हताश चेष्टा की। मगर बस चली गई और वह धूल के बवंडर में घिरी रह गई। उसने धूल की गंध से व्याकुल होकर भी जल्दी से रोटी वाली पोटली को आँचल में छिपा लिया, और तब तक छिपाए रखा जब तक वातावरण में धूल बिल्कुल नहीं बैठ गई।

    सूर्य के साथ-साथ आकाश का रंग अब बदलने लगा था। गाहे बगाहे एकाध पक्षी उड़ता हुआ आकाश को पार कर जाता था। खेतों में कहीं-कहीं रंगीन पगड़ियाँ दिखाई देने लगी थीं। बालो ने प्याऊ से पानी पिया और फिर आँखों पर छींटे मारकर आँचल से मुँह पोंछ लिया। फिर प्याऊ से कुछ फ़ासले पर जाकर खड़ी हो गर्इ। वह जानती थी, अब सुच्चा सिंह की बस जालंधर से आठ-नौ बजे तक लौटेगी। क्या उसे तब तक उसका इंतिज़ार करना चाहिए? सुच्चा सिंह को ऐसे नहीं करना चाहिए, कम से कम उसकी बात तो सुन लेता। घर में जिंदां अकेली डर रही होगी। अगर मुआ जंगी पीछे किसी बहाने से घर गया तो क्या होगा? सुच्चा सिंह रोटी ले लेता तो वह आध घंटे में घर पहुँच जाती। अब सुच्चा सिंह की रोटी का क्या होगा? रोटी तो ख़ैर वह बाहर कहीं कहीं खा ही लेगा मगर उसके ग़ुस्सा किस तरह दूर होगा? उसने कहा कि वह मंगलवार को घर नहीं आएगा। अगर वह सचमुच नहीं आया?... उसे उसकी और मिन्नत करनी चाहिए थी। सुच्चा सिंह का ग़ुस्सा ठीक है। उसे क्या पता कि रोटी में क्यों देर हुई है? उसका मेहनती शरीर है और उसे कसकर भूख लगती है। वक़्त पर खाना मिले तो उसे ग़ुस्सा भी आए? वह ज़्यादा मिन्नत करती तो वह ज़रूर मान जाता। अब?

    प्याऊ वाला प्याऊ बंद कर रहा था। भिखमंगा भी जाने कब का उठकर वहाँ से चला गया था। हाँ, कुत्ता अब भी उसके आसपास घूम रहा था। धूप ढल रही थी और आकाश में उड़ते चिड़ियों के गिरोह सोने के पंखों से जड़े हुए लग रहे थे। हर चीज़ की थाया लंबी हो गई थी और बालो को अपनी सड़क के पार तक फैली हुई छाया बहुत अजीब लग रही थी। पास के खेत में कोई गभरू जवान खुले गले से ‘माहिया’ गा रहा था :

    बोलण दी थां कोई नां

    जिहड़ा सानूँ ला दे दित्ता

    उस रोग दा नां कोई नां।

    माहिया की लय बालो की रग-रग में बसी हुई थी। बचपन में गर्मियों की शाम को जब वह और बच्चों के साथ मिलकर रहट के पानी की मोटी के नीचे नाच-नाचकर नहाया करती थी, तब भी माहिया की लय इसी तरह वातावरण में मँडराया करती थी। साँझ के झुटपुटे वातावरण के साथ उस लय का कुछ ख़ास ही संबंध था। ज्यों-ज्यों वह बड़ी होती गई, जीवन के साथ उस लय का संबंध गहरा होता गया। उनके गाँव का युवक लाली बड़ी लोच के साथ माहिया गाया करता था। उसने कितनी बार उसे गाँव के बाहर पीपल के पेड़ के नीचे कान पर हाथ रखकर गाते सुना था। वह पुष्पा और पारो के साथ देर-देर तक उस पीपल के पास खड़ी रहती थी। फिर एक दिन आया जब उसकी माँ कहने लगी कि वह अब मुटियार हो गई है इसलिए अब उसे इस तरह देर-देर तक पीपल के पास नहीं खड़ा रहना चाहिए। उन्हीं दिनों उसकी सगाई की भी चर्चा होने लगी। जिस दिन सुच्चा सिंह के साथ उसकी सगाई हुई, उस दिन पारो आधी रात तक ढोलक के साथ गीत गाती रही। गाते-गाते पारो का गला बुरी तरह थक गया था फिर भी वह ढोलक बजाना छोड़कर उसे बाँहों में लपेटे हुए गाती रही :

    बीबी, चंनण दे ओहले ओहले किऊँ खड़ी,

    नीं लाडो किऊँ खड़ी?

    मैं ताँ खड़ी साँ बाबल जी दे बार,

    मैं कंनिआ कँवार,

    बाबल वर लोडि़ए।

    नीं जाइए, किहो जिहा वह लोड़िए?

    जिऊँ-तारिआँ विचों चंद,

    चंदां विचों नंद,

    नंदां विचों कान्ह-कन्हैया वर लीड़िए...

    वह नहीं जानती थी कि उसका वर कौन है, कैसा है, फिर भी उसका मन कहता था कि उसके वर वैसा ही सुंदर होगा जैसा कि गीत की कड़ियाँ सुनकर आँखों के सामने आता हैं। सुहागरात को जब सुच्चा सिंह ने उसके चेहरे से घूँघट हटाया तो उसे देखकर उसे लगा कि वह सचमुच अपनी कल्पना का कान्ह-कन्हैया वर पा गर्इ है। जब सुच्चा सिंह ने उसकी ठोड़ी को उठाया तो जाने कितनी लहरें उसके सिर से उठकर शरीर में से होती हुई पैरों के नाख़ूनों में जा समाईं। वह स्पर्श चाँद और चंदन के स्पर्श से कहीं अधिक ठंडा और सिहरा देने वाला था। उसे लगा कि ज़िंदगी जाने ऐसी कितनी सिहरनों से भरी हुई है जिन्हें वह अब रोज़-रोज़ अनुभव करेगी और अपनी याद में सँजोकर रखती जाएगी।

    तू हीरे की कणी है, हीरे की कणी, सुच्चा सिंह ने उसे बाँहों में भरकर कहा।

    उसका मन हुआ कि कहे कि यह हीरे की कणी तेरे पैर की धूल के बराबर भी नहीं है, मगर वह शरमाकर चुप रह गई...

    माई, अँधेरा हो रहा है, अब घर जा। यहाँ खड़ी क्या कर रही है? प्याऊ वाले ने चलते-चलते उसके पास रुककर कहा।

    वीरा, यह बस जालंधर से कब लौटकर आएगी? बालो ने जैसे जाग कर अपनी स्थिति की व्याख्या करते हुए पूछा।

    क्या पता कब आए? तू उतनी देर यहाँ खड़ी रहेगी?

    वीरा, रोटी जो देनी है।

    उसे रोटी लेनी होती तो इस बार लेता? उसका तो दिमाग़ ही आसमान पर चढ़ा हुआ है।

    वीरा, मर्द कभी नाराज़ हो ही जाता है। ऐसी क्या बात है?

    अच्छा खड़ी रह तेरी मर्ज़ी। बस आठ नौ से पहले क्या आएगी?

    चल, जब भी आवे।

    प्याऊ वाले से बात करके वह निश्चय अपने आप ही हो गया जो वह अभी तक नहीं कर पाई थी। उसे बस के जालंधर से लौटने तक वहाँ रुकी रहना चाहिए। जिंदां थोड़ी देर डर लेगी तो क्या हुआ। जंगी की अब दुबारा कुछ कहने की हिम्मत नहीं पड़ेगी। आख़िर गाँव की पंचायत भी तो कोई चीज़ है। वह पंचों तक मामला पहुँचा कर उसे गाँव के बाहर निकलवा सकती है। दूसरे की बहन-बेटी पर बुरी नज़र रखना मामूली बात है? सुच्चा सिंह को पता चले तो वह उसे केसों से पकड़कर मैदान में घसीट लाए? मगर सुच्चा सिंह को बात बताना ही ठीक है। क्या पता ख़ामख़ाह सिर-फुटव्वल हो जाए? सुच्चा सिंह पहले ही घर के झंझटों से घबराता है, उसे और झंझट में डालना ठीक नहीं। अच्छा ही हुआ जो उस वक़्त सुच्चा सिंह ने उसकी बात नहीं सुनी। वह कहता था कि मैं मंगलवार को घर नहीं आऊँगा। अगर वह सचमुच आया तो? और अगर उसने घर आना बिलकुल छोड़ दिया? नहीं, वह उसे कभी कोई परेशानी की ख़बर नहीं देगी। सुच्चा सिंह ख़ुश रहे, घर को वह ख़ुद सँभाल सकती है। सुच्चा सिंह के साथ ही तो घर की बरकत है। वह आता रहे तो घर में सब कुछ है और वह आए तो...

    बालो ज़रा सिहर गई। गाँव का लोटूसिंह अपनी बीबी को छोड़कर भाग गया था। उसके पीछे वह टुकड़े-टुकड़े को तरस गई थी। अंत में उसने कुएँ में छलाँग लगाकर आत्महत्या कर ली थी। पानी से फूलकर उसकी देह कितनी भयानक हो गई थी?

    बालो को थकान महसूस हो रही थी, इसलिए वह प्याऊ के तख़्ते पर जाकर उकड़ू होकर बैठ गई। अँधेरा होने के साथ-साथ खेतों की हलचल फिर शांत होती जा रही थी। माहिया के गीत का स्थान अब झींगुरों के गीत ने ले लिया था। एक बस जालंधर की तरफ़ से और एक नकोदर की तरफ़ से आकर निकल गई। सुच्चा सिंह जालंधर से आख़िरी बस लेकर आता था। उसने पिछली बस के ड्राइवर से पता कर लिया था कि अब जालंधर से एक ही बस आनी है। अब जिस बस की बत्तियाँ दिखाई देंगी, वह सुच्चा सिंह की ही बस होगी। थकान के मारे उसकी आँखें मुँदी जा रही थीं। वह बार-बार चेष्टा से आँखें खोलकर उन्हें दूर तक के अँधेरे और उन काली-काली छायाओं पर केंद्रित करती थी जो धीरे-धीरे गहरी होती जा रही थीं। ज़रा-सी भी आवाज़ होती, तो उसे भ्रम होता कि बस रही है और वह सावधान हो जाती। परंतु बत्तियों की रोशनी देखकर ठंडी साँस भरकर फिर से शिथिल ही रहती। दो-एक बार मुँदी हुई आँखों से जैसे बस की बत्तियाँ आती देखकर वह चौंक उठी—मगर बस अभी नहीं रही थी। फिर वह देखने लगी कि कोई ज़ोर-ज़ोर से घर के किवाड़ खटखटा रहा है। जिंदां अंदर सहमकर बैठी हुई है। उसका चेहरा हल्दी की तरह पीला हो रहा है।...रहट के बैल लगातार घूम रहे हैं। उनकी घंटियों की आवाज़ रही है और पीपल के पेड़ को नीचे बैठा एक युवक कान पर हाथ रखे माहिया गा रहा है।...ज़ोर की धूल उड़ रही है जो धरती और आकाश की हर चीज़ को लीलती जा रही है। पर वह अपनी रोटीवाली पोटली को सँभालने की चेष्टा कर रही है पर वह उसके हाथ से निकलती जा रही है।...प्याऊ पर सूखे मटके रखे हैं जिनमें एक बूँद भी पानी नहीं है। वह बार-बार लोटा मटके में डालती है पर उन्हें ख़ाली पाकर निराश हो जाती है।...उसके पैरों में बिवाइयाँ फूट रही हैं। वह हाथ की उँगली से उन पर तेल लगाती है पर लगाते-लगाते ही तेल सूख जाता है।...जिंदां अपने खुले बाल घुटनों पर डाले रो रही है, और कह रही है, मुझे छोड़कर क्यों गई थी? क्यों गई थी मुझे छोड़कर? हाय, मेरी चोटी, हाय मेरी चोटी...

    सहसा कंधे पर एक हाथ के स्पर्श से वह चौंक गई।

    सुच्चा स्यां! उसने जल्दी से मुँदी हुई पलको को मल लिया।

    अभी घर नहीं गई? सुच्चा सिंह उसके पास ही तख़्ते पर बैठ गया। बस ठीक प्याऊ के सामने खड़ी थी। उस समय उसमें एक भी सवारी नहीं थी। केवल कंडक्टर पीछे की सीट पर आँख मूँद कर बैठा था।

    मैंने कहा कि रोटी देकर ही घर जाऊँगी। बैठे-बैठे झपकी गई। हाय, तुझे बहुत देर तो नहीं हो गई?

    नहीं बस अभी खड़ी ही की है। मैंने तुझे दूर से ही देख लिया था। तू इतनी पागल है कि तब से अब तक रोटी देने के लिए बैठी है?

    क्या करती? तू जो कह गया था कि मैं घर नहीं आऊँगा! और उसने पलकें झपककर अपने उमड़ते आँसुओं को सुखा देने की चेष्टा की।

    अच्छा ला रोटी, और घर जा! जिंदां वहाँ अकेली डर रही होगी। सुच्चा सिंह ने उसकी बाँह थपथपा कर कहा और उठ खड़ा हुआ।

    झपकी जाने से कटोरा बालो के हाथ से नीचे सरक गया था। उसने उसे उठाया तो उसे काफ़ी हल्का लगा। उसने देखा कि कटोरे में रोटी साग कुछ भी नहीं है। तख़्ते के नीचे कुत्ता निश्चिंत होकर गुर्रा रहा था

    हाय मुए! बालो जल्दी से तख़्ते से उठी।

    “कुत्ता खा गया?” सुच्चा सिंह हँस कर बोला, “सत नाम सिरी वाह गुरू!”

    बालो की आँखों में फिर पानी गया। वह ख़ाली कटोरो को छाती के साथ सटाए निरीह दृष्टि से सुच्चा सिंह की ओर देखती खड़ी रही।

    रोटीवाला कटोरा उससे लेकर सुच्चा सिंह उसकी पीठ पर हाथ रखे हुए उसे बस के पास तक ले आया। फिर वह उचककर अपनी सीट पर बैठ गया। बस स्टार्ट करने लगा, तो वह जैसे डरते-डरते बोली, सुच्चा स्यां, तू मंगल को घर आएगा न?

    हाँ, तुझे शहर से कुछ मँगवाना हो तो बता दे।

    नहीं, मँगवाना कुछ नहीं है।

    बस चलने के लिए घरघराने लगी तो वह दो क़दम पीछे हट गई। सुच्चा सिंह ने दाढ़ी-मूँछ पर हाथ फेरा, एक डकार लिया और उसकी तरफ़ देखकर पूछ लिया, तू उस वक़्त जंगी की क्या बात कहती थी?

    नहीं, कोई ख़ास बात नहीं थी। तू मंगल को घर आएगा ही...

    अच्छा, अब जल्दी चली जा, देर कर, एक मील बाट है...!

    ...सुच्चा स्यां, कल गुरपरब का दिन है। कल मैं तेरे लिए कड़ाह प्रशाद बनाकर लाऊँगी...।

    अच्छा!

    बस चल दी। बालो के चारों ओर गर्द फैल गई। उसने पल्ले से आँखें पोंछ लीं और तब तक बस के पीछे की लाल बत्ती को देखती रही जब तक वह आँखों से ओझल नहीं हो गई।

    स्रोत :
    • पुस्तक : नये बादल (पृष्ठ 20)
    • रचनाकार : मोहन राकेश
    • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ
    • संस्करण : 1957

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY