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भैया एक्सप्रेस

bhaiya express

अरुण प्रकाश

अरुण प्रकाश

भैया एक्सप्रेस

अरुण प्रकाश

और अधिकअरुण प्रकाश

    इज़ ही भैया?

    ट्रेन की रफ़्तार तेज़ होती जा रही थी। दरवाज़े से लटके रामदेव के लिए धूल भरी तेज़ हवा में आँख खुली रखना मुश्किल था। कब तक लटका रहेगा बंद दरवाज़े पर? रामदेव ने दरवाज़े पर ज़ोर से थाप मारी। उसके कंधे से लटकता झोला गिरते-गिरते बचा।

    कुछ देर बाद दरवाज़ा खुला। वह सँभलता हुआ अंदर घुसा और दरवाज़ा भिड़ाकर डिब्बे के गलियारे में गमछे से मूँगफली के छिलके और सिगरेट के टोंटों को हटाने लगा। दरवाज़ा खोलने वाले फ़ौजी ने घृणा से मुँह बिचकाया ‘भैणचो..मरने चले आते हैं! ये रिज़र्वेशन का डिब्बा है। तेरा रिज़र्वेशन है?’

    रामदेव चुप! अठारह साल के साँवले, पतले रामदेव के लिए यह पहली लंबी यात्रा थी। अब तक उसने तिलरथ के अगले स्टेशन बरौनी तक ही रेल यात्रा की थी। रिज़र्वेशन से उसका पाला ही नहीं पड़ा था। पहली दफ़ा वह बिहार तो क्या, अपने जिले से भी बाहर निकला था। अपने भाई विशुनदेव से उसने ज़रूर सुन रखा था कि पंजाब जाने में क्या-क्या परेशानी होती है। दिल्ली होकर पंजाब जाने में सुविधा होती है। और, आसाम मेल दिल्ली जाती है। बरौनी स्टेशन पर डिब्बे में लोग बोरे में सूखी मिर्च की तरह ढूंसे जाते थे। आख़िर ट्रेन खुल गई तो जो डिब्बा सामने आया, उसी में दौड़कर लटक गया था।

    ‘टिकट है!’ रामदेव ने बमुश्किल कहा।

    ‘टिकट होने से क्या होता है? यह रिज़र्वेशन का डिब्बा है, समझे?’

    अब रामदेव क्या करे, चुप, डरी आँखों से फ़ौजी को देखता रहा। पुरानी बेडौल पैंट और हैंडलूम की बेरंग शर्ट पहनकर रामदेव अपने मोहल्ले में ही आधुनिक होने का स्वांग कर सकता था। इस नई दुनिया में सारी चीज़ें अचंभे से भरी थीं।

    कुर्ते और शलवार में लिपटी, सामने के बर्थ पर लेटी औरत ने अँग्रेज़ी उपन्यास को आँखों के सामने से हटाया और उस फ़ौजी से पूछा, ‘सिविल कंपार्टमेंट इज़ लाइक धर्मशाला...इज़ ही भैया?’

    ‘हाँ लगता तो है!’ फ़ौजी भुनभुनाकर रामदेव की ओर मुख़ातिब हो गया, ‘तुमको कहाँ जाना है?’

    ‘पंजाब।’

    रामदेव को लगा कि वह यहाँ बैठा रहा तो इन बड़े लोगों की नज़र में चढ़ा रहेगा। वह उठा और बाथरूम के सामने वाले गलियारे में अँगोछा बिछाकर झोले का तकिया बनाकर लेट गया। ट्रेन में घुसने से लेकर पिछले एक सप्ताह तक के दृश्य उसकी आँखों के सामने घूम गए।

    दसवीं का इम्तिहान ख़त्म होते ही माई पंजाब जाने-आने के लिए पैसे का इंतिज़ाम करने लगी थी। गाँव का कोई आदमी मार-काट की वजह से पंजाब जाकर उसके भैया विशुनदेव को ढूँढ़ने को तैयार नहीं था। कई लोगों से मिन्नत करने के बाद, माई रामदेव को ही पंजाब भेजने पर तैयार हो गई। पैसों की समस्या साँप की तरह फ़न काढ़े फुकार रही थी। पुश्तैनी पेशा-अनाज भूनने में क्या रखा है? कनसार में अनाज भुनवाने लोग आते नहीं। मकई की रोटी अशराफ़ लोग खाते नहीं। दाल इतनी महँगी है कि लोग चने की दाल बनवाएँगे कि कनसार में चना भुनवाकर सत्तू बनवाएँगे? उस पर इतनी मेहनत-गाँव के बग़ीचों, बंसवाड़ियों में सूखे पत्ते बटोरकर जमा करो, उन्हें जलाकर अनाज भूनकर पेट की आग ठंडी करो। किसी तरह एक शाम का भोजन जुट पाता। आख़िर माई उपले थापकर, गुल बनाकर बेचने लगी थी। तब किसी तरह भोजन चलने लगा। लेकिन कोई काम पड़ता तो क़र्ज़ लेने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचता था। इस बार भी पंडितजी ने ही पैसों की मदद की। भैया की शादी में क़र्ज़ बढ़ा तो मुश्किल हो गई। मूल तो मूल, सूद सुरसा की भाँति बढ़ने लगा। आख़िर भैया को थाली-लोटा, कंबल, वंशी लेकर कमाने पंजाब जाना पड़ा। वहाँ से वह पैसा भेजता तो माई सीधा पंडितजी को जाकर देती। क़र्ज़ चुकने को ही था कि अचानक सब कुछ बंद।

    पंजाब में ख़ून-ख़राबे की ख़बर मिलती तो माई के साथ-साथ रामदेव का भी दिल डूबता। माई को पड़ोसी ताने मारते। इतना ही दुख था तो ख़ून-ख़राबे में बेटे को कमाने पंजाब काहे भेजा? अगर विशुनदेव पंजाब नहीं जाता तो वे सब बेघर हो जाते। जनार्दन उनके घर की ज़मीन ख़रीदने की ताक में था। पंडितजी का तक़ाज़ा तेज़ हो रहा था। घर ही बचाने-बसाने विशुनदेव को पंजाब जाना पड़ा था। बहू आती तो कहाँ रहती, क्या खाती? नई ज़िंदगी के कोंपल को माई कैसे मसलने देती? भरे मन से माई ने विशुनदेव को पंजाब जाने दिया था। सब ठीक-ठाक होता जा रहा था कि अचानक सब कुछ बंद।

    लेटे-लेटे रामदेव ने क़मीज़ की चोर जेब में हाथ डाला। जेब में रेलवे टिकट, भाई के पते वाला पोस्टकार्ड और पैसों को छूकर उसे इत्मीनान हो आया। झोले का तकिया ठीक से जमाकर आँख बंद कर सोने की कोशिश की। ट्रेन की खटर-पटर, गलियारे में फैली बदबू थी ही। डर भी था और इतना था कि नींद में भी पंजाब-सी उथल-पुथल थी। विशुनदेव! विशुनदेव!

    भैया पंजाब से पिछली दफ़ा लौटा तो वहाँ के क़िस्से ख़ूब सुनाता था। माई भी रोज़ रात उससे पंजाब के बारे में पूछती थी।

    ‘रोटी खाने? भात नई मिलै छौ?’

    ‘माई, लोग सब खाना के रोटी कहै छै! बड़का गिलास में चाह! ओह चाह हिया कहाँ?’

    ‘मर सरधुआ! चाह तो हिमैं बनबे करेई छै!’

    ‘नइगे माई, सब बनिहारवाला चाह में अफ़ीम के पानी मिलाए दै छै, वैइसे थकनी हेठ भे जाइछै! बनिहार लोग ख़ूब काम कइलक।’

    ‘कत्ते देर काम करै छहि?’

    ‘सात बजे भोर सै बजे साँझ तक! बीच में रोटी खाइके छुट्टी-एक घंटा।’

    ‘सब ताश खेललकर, हम्में अपनी बँसुरी-बंजइलौं। हमर मलकिनी ठीक छौ। हाँक पारतौ-ए विशुनदेव! विशुनदेव! मलकिनी कै हमरी बाँसुरी बजेनाई ख़ूब नीक लगैइछै! विद्यापति, चैतावर सुने लेल पागल। पढ़लो छे गे माई बी.ए.पास!’

    ‘ख़ूब सुखितगर मालिक छौ?’

    ‘ख़ूब कि फटफटिया, ट्रैक्टर, जीप महल सन घर। दूगो बेटा। दिल्ली में नौकरी में लागल, टीभी से हो छै!’

    ‘उ कथी?’

    ‘जेना रेडियो में ख़ाली गाने बोलई छै ने, टीभी में गाना के साथ-साथ सिनेमा एहन फोटूओ देखेवई छै!’

    ‘मालिक मारै-पीटे नईं छौ!’

    ‘कखनो-कखनो, गाली हरदम भैनचो...भैनचो बकै छ।’

    ‘की करभी, पैसा कमेनाइ खेल नईं छै। मन नईं लागै होतौ?’

    ‘ग़रीब नईं रहने माई, पंजाब कहियो नईं जैति अइ पैसा...’

    विशुनदेव का गौना सामने था। ख़र्चा जुटाने उसे दूसरी बार भी पंजाब जाना पड़ा। अपने इलाक़े में साल भर मज़दूरी का उपाय, और मज़दूरी भी पंजाब से आधी। विशुनदेव पंजाब से थोड़ा भविष्य लाने गया था।

    रात में कोई गाड़ी पंजाब नहीं जाती।

    नियॉन लाइट से जगमगाती नई दिल्ली स्टेशन के प्लेटफ़ॉर्म पर उतरते ही उसे लगा कि इतने लोगों के समुद्र में वह खो जाएगा। भीड़, धक्कम-मुक्का, अजनबी लोग और इतनी रौशनी! उसने अपने सीने को कसकर दबा लिया ताकि टिकट, पैसा और पते वाला पोस्टकार्ड कोई मार ले। वह ठिठक गया, पता नहीं गेट किधर है। आख़िर भीड़ में वह घुस गया। ओवर ब्रिज पारकर स्टेशन के बाहर गया।

    बाहर टैक्सरी, कार और थ्री व्हीलर की क़तारें। रात का समय। सब कुछ स्वप्न-लोक-सा था जैसा उसने हिंदी फ़िल्मों में देखा था। आसाम मेल रास्ते में ही पाँच घंटे लेट हो गई थी। उसे मालूम था कि दिल्ली से ट्रेन या बस से उसे अमृतसर जाना पड़ेगा। वह मुसाफ़िरख़ाने की ओर बढ़ा। पंजाब जाने वाली गाड़ी के बारे में किससे पूछे, सब तो अफ़सर की तरह लग रहे थे। मुसाफ़िरख़ाने के एक कोने में कुछ साधारण मैले-कुचैले कपड़ों में थकी-बुझी आँखों वाले लोग टिन की बदरंग पेटियों के पास बैठे थे। उन्हीं की तरफ़ बढ़ा।

    ‘ऊ सामने वाली खिड़की पर जाकर पूछो!’

    खिड़की पर कई लोग जमे थे। जब लोग हटे तो उसने बाबू से पूछा।

    ‘बाबू, अमृतसरवाली चली गई?’

    ‘हाँ!’

    ‘अब दूसरी गाड़ी कब जाएगी!’

    ‘अब तो भैया, कल जाएगी!’

    ‘इ तो बड़ा स्टेशन है?’

    आजकल रात में कोई गाड़ी पंजाब नहीं जाती।’

    वह मुड़ा, तो बाबू भी अपने दोस्त से बात करने लगा।

    ‘सारे हिंदुस्तान को पता है, रात में कोई ट्रेन पंजाब नहीं जाती फिर भी पूछ रहा था!’ बाबू के दोस्त के स्वर में उपहास था।

    ‘बिहारी भैया था!’ बाबू फिस्स से हँस पड़ा।

    ‘जलंधर, लुधियाने, सारे पंजाब में ये लोग भरे हैं।’

    ‘अरे बिहार से आने वाली गाड़ी को पंजाब में भैया एक्सप्रेस कहते हैं! उस तरफ़ हर गाड़ी में ये लोग ठूँसे रहेंगे।’

    ‘वहाँ इन्हें काम नहीं मिलता?’

    ‘काम मिलता तो पंजाब थोड़े ही मरने जाते! भूख थोड़े ही रुकती है, इसलिए भैया एक्सप्रेस चलती रहेगी...सरकार की पटरी, सरकार की गाड़ी सब है ही!’

    घर पंजाब हो गया है

    ‘आजकल’ रामदेव के लिए बड़ा शब्द है।

    पिछले चार महीने-सोते-जागते पहाड़ की तरह गुज़रे। भैया कैसा होगा? पंजाब में बहा ख़ून का हर क़तरा, वहाँ चली हर गोली माई को लगती। रेडियो विशुनदेव का हाल-चाल थोड़े ही बोलेगा। माई फिर भी पंडित जी के यहाँ रेडियो सुन आती। वह भी चाय की दुकान पर अख़बार पढ़ आता। रजिस्ट्री चिट्ठी लौट आई तो माई रात-भर रोती रही। बेगूसराय जाकर उसी पते पर तार भिजवाया लेकिन कुछ नहीं पता चला। माई मन्नतें माँगती, पंडित जी के पंचाँग से शगुन निकलवाती, रो-धोकर उपले-गुल बेचने फूटलाइज़र टाउनशिप निकल जाती। इतनी मेहनत पर मौसी टोकती तो माई का एक ही जवाब होता, ‘एगो बेटा पंजाब में, रमुआ पढ़ लिए जे एकरा पंजाब नईं जाए पड़ैय।’

    भौजी के यहाँ से अक्सर पूछवाया जाता—कोई ख़बर मिली? माई को लगता—शादी टूट जाएगी। कोई कब तक जवान बेटी को घर बिठाए रखेगा। माई को लगता, बेटे का पता नहीं, पतोहू छूट रही है। कोशिश करती कि किसी तरह बिखरते घर को आँचल में समेटे रहे।

    ‘रमुआ से पुतोहू के बियाह के देबैई’, माई से यह सुनते ही रामदेव शर्म से काठ हो गया था। भौजी की साँवली, निर्दोष, बड़ी-बड़ी आँखों वाला चेहरा उसके सामने घूम गया था। अशराफ़ के घर में ऐसा होगा? शादी के बाद भैया पंजाब से लौट आया तो? माई पागल है!

    लेकिन माई ने हारना नहीं सीखा था। जो कुछ बचा था, उसे छाती से चिपकाए रहना चाहती थी। एक चक्कर डाक बाबू के यहाँ लगा लेती। लोभ में बेटे को पंजाब भेज दिया, अब काहे को रोज़ चिट्ठी के लिए पूछती हो?’ पोस्टमैन उसे झिड़क देता।

    माई का सूखा शरीर, पंडित जी का सूद, जनार्दन का मंसूबा, भौजी की उदासी, भाई के जीवन का संशय, रोज़ की किचकिच, माई का रुदन...रामदेव को लगता—घर पंजाब हो गया है। रात-रातभर सो नहीं पाता। पढ़ता-लिखता क्या ख़ाक! बस एक चीज़ क़ाबिज़ थी— पंजाब!

    ख़ून की तरह जमा शहर।

    अमृतसर आते-आते बस में यात्रियों की बातचीत सुनते-सुनते मन में ऐसा डर बैठ गया कि वह बस से भी डरने लगा।

    बस से उतरते-उतरते फ़ैसला ले लिया—जो भी हो, जैसे-तैसे रात अमृतसर के बस अड्डे पर काट लेगा लेकिन बस से अटारी नहीं जाएगा। साढ़े छह बजे शाम से ही बस अड्डे पर हड़बोंग मची थी। सबको ऐसी जल्दी थी कि जैसे बाढ़ में बाँध टूट गया हो और सब जान बचाने के लिए भाग रहे हों। दुकानें फटाफट बंद हो रही थीं। ठेलेवाले अपनी दुकानें बढ़ा रहे थे। ख़ाली बसों के ड्राइवर-ख़लासी पास के ढाबों में जल्दी-जल्दी खाना खा रहे थे। ढाबे के मालिकों को भी जल्दी थी। इसलिए उनके नौकर भी रेस के घोड़ों की तरह हाँफ़ रहे थे। सबको एक ही डर था...सात बजे कर्फ़्यू लगने वाला था।

    रामदेव ने मूँगफली वाले का अक्षरश: अनुसरण किया। अपना सत्तू घोलकर पी गया और उसी के साथ लेट गया। मूँगफली वाला राँची का ईसाई आदिवासी था। तीन साल पहले घर से भागकर यहाँ आया था। चेहरे पर बढ़ी दाढ़ी और सिर पर गमछे के मुरैठा से उसके सरदार होने का भ्रम होता था। हँसता तो चमकीले दाँत मोतियों की तरह जगमगा उठते। निष्पाप आँखें छलछला आतीं। जेम्स ‘अपने देस’ के रामदेव जैसे आदमी से मिलकर ख़ुश हो गया था। दोनों गठरी की तरह कोने में दुबके थे। और भी बहुत गठरियाँ थीं। गुमसुम!

    कर्फ़्यू लग चुका था।

    चादर की ओट में रामदेव ने झाँककर देखा। बाहर सब कुछ थमा था। इंजन की तरह दहाड़ता बस अड्डा लाश की तरह ख़ामोश था। पंछी, हवा, कोई पत्ता हरकत कर रहा था। चीख़ भी निकलती तो डर से बर्फ़ हो जाती। चलती गोली हवा में थम जाती। पृथ्वी का घूमना जैसे बंद हो गया था। साँसें बे-आवाज़ चल रही थीं। मच्छर थे कि ग़लीज़ में बेफ़िक्री से भिनभिना रहे थे।

    सन्नाटे में ही वर्दीवालों से भरी एक जीप गुज़र गई। रामदेव को लगा कि गर्दन पर से कोई धारदार चाकू गुज़र गया। इधर में ऐसा ही होता है। ‘जेम्स फुसफुसाया, ‘चुप सो जाओ, पेशाब करने भी मत जाना।’ रामदेव सोने की कोशिश करने लगा। दिन-भर की थकान के बावजूद उसे नींद नहीं रही थी।

    रात के कोई ग्यारह बजे बस अड्डे पर जैसे कहर टूट पड़ा। वर्दी वाले सबों को बूट की ठोकरों से जगा रहे थे। पचास सवाल। कहाँ से आए हो? क्या मतलब है? डर से कोई हकलाया तो लात, घूसे, बंदूक़ के कुंदे से ठुकाई। तीन नौजवान सरदारों को घसीटते हुए ले गए। बिहार का नाम सुनकर वे आगे बढ़ गए थे। रामदेव फिर भी थर-थर काँपता रहा। जेम्स फिर सो गया जैसे कुछ हुआ ही नहीं हो। लेकिन रामदेव के कानों में उन तीन नौजवानों की चीख़ ज़िद्दी मधुमक्खी की तरह भनभनाती रही। रफ़्ता-रफ़्ता सब चीज़ो की आदत हो जाती है। सो धीरे-धीरे शहर भी ख़ून की तरह जम गया।

    अग्गे पाकिस्तान है!

    स्टेशन पर टिकट लेकर बैठा तो उसे इत्मीनान आया। उसने अपनी जेब से मुड़ा-तुड़ा, बदरंग पोस्टकार्ड निकाला, और पता पढ़ने लगा—विशुनदेव, इंदर सिंह का फ़ार्म, गाँव रानीके, भाया अटारी, जिला अमृतसर (पंजाब)। पढ़कर उसने सामने बैठे बुज़ुर्ग सरदार की ओर बढ़ा दिया ताकि वे रानीके जाने का रास्ता बता दें।

    सरदार जी ने अफ़सोस में सिर हिलाया और कहने लगे, ‘मैं हिंदी पढ़ना नहीं जानता। सारी उम्र उर्दू पढ़ी है। बस हिंदी समझ लेता हूँ। बता क्या है?’

    ‘मुझे रानी के अटारी गाँव जाना है। अनजान आदमी हूँ। बिहार से आया हूँ।’ रामदेव का संकोच सरदार जी की आत्मीयता से घुल गया और उसने पूरा पता पढ़ लिया।

    ‘संतोख सिंह वाला रानी के? अग्गे अटारी स्टेशन आऊँगा, तू उत्थे उतर जाणा। बाहर टाँगेवाले नूँ पुच्छ लईं। तू तो मुंडा-खुंडा है, पजदा-पजदा दो मील चला जाएगा। अच्छा सुण, अंबरसर दे बाहर बुर्जावालियाँ दी बस जांदी ए, तू सीधा रानीके उतर जाणा सी। गां दे बाहर की संतोख सिंह दी दो मंज़िली कोठी नज़र आउगी। उत्थे पुच्छ लेणा। सामने इंदर सिंह दा फ़ार्म है।’

    रामदेव इतना ही समझ पाया कि अटारी स्टेशन से दो मील पर रानीके गाँव है। गाँव के बाहर संतोख सिंह की दो मंज़िली कोठी है। उसके सामने इंदर सिंह का फ़ार्म है।

    ‘एन्नी दुरो कल्ला किंदा गया? बिहार के हो कि यू.पी. के?’

    ‘बिहार। रानी के गाँव भाई को खोजने जा रहा हूँ।’

    ‘तेरी तो मूँछे भी नहीं फूटी हैं? पुत्तर हिम्मत ही इंसान दा नाम है।’

    गाड़ी रुकते ही ‘अच्छा’ कहकर बुज़ुर्ग उतर गए। रामदेव उन्हें जाते, खिड़की से देखता रहा। गाड़ी खिसकी तो टिकट-चेकर सामने था।

    ‘टिकट?’ चेकर ने यांत्रिक लहजे में पूछा।

    ‘अटारी कितने स्टेशन है?’ रामदेव टिकट थमाते हुए पूछ बैठा।

    ‘पहली बाराँ आया तू?’ अगला स्टेशन है। उत्थे उतर जाणा, अग्गे पाकिस्तान है! चेकर टिकट पंच कर आगे बढ़ गया।

    रामदेव सन्न! कहाँ गया? पाकिस्तान!

    स्वेरे देखेंगे

    क्रीच...क्री...च। गाड़ी रुक गई। उतरकर स्टेशन के गेट की तरफ़ बढ़ा। बाहर निकलते ही ताँगेवाले ने उससे पूछा, ‘पाकिस्तानी गाड़ी है जी? टेम तो उसी का है।’ उसने भी पलटकर पूछ लिया, ‘रानी के गाँव कौन-सी सड़क जाती है?’

    ‘सीधी सड़क जाती है...आगे भी पुच्छ लेणा।’

    सूरज सर पर चढ़ गया था। तेज़ चलने की वजह से वह पसीने-पसीने हो रहा था। पर मंज़िल पर पहुँचने की ख़ुशी ने उसे बेफ़िक्र कर दिया था। सड़क के किनारे गेहूँ के कटे, नंगे खेत थे। उसके गाँव की तरह ही थोड़ा तिरछा, औंधा, साफ़ आसमान था। हवा सोई हुई थी, गर्म बगूले सीधा उड़ते और सूखे पत्तों, धूल को ले उड़ते। सुनसान सड़क पर दूर-दूर तक कोई राही नहीं था। चारों तरफ़ तापमान का राज था। रामदेव का ध्यान भाई विशुनदेव की तरफ़ था। रोज़-रोज़ के कर्फ़्यू में चिट्ठी कैसे पहुँचती। भैया भी चिट्ठी का इंतिज़ार करता होगा। भैया उसे देखते ही लिपट जाएगा। वह भी आँसू नहीं रोक सकेगा। भैया तिल का लड्डू देखते ही खिल जाएगा। लेकिन भैया...उससे पहले खाने-पीने को पूछेगा। भैया घुमा-फिराकर भौजी के बारे में भी पूछेगा। वह भाई से जनार्दन से बदला लेने के लिए ज़रूर कहेगा...

    उसे सामने सड़क के किनारे दो मंज़िला मकान दिख गया। एक सरदार जी आगे-आगे जा रहे थे। उसने अपनी चाल तेज़ कर दी।

    ‘भाई साहब, इंदर सिंह का फ़ार्म किधर है?’ उसने पास पहुँचकर पूछा।

    ‘किसनू मिलना? तू आया कित्थों?’ सरदार जी ने ख़ुलासा ही पूछ लिया। पर रामदेव की समझ में ठीक से पाया।

    ‘बिशुनदेव, बिहारी।’ रामदेव अटपटाकर बोला।

    ‘बात तो पल्ले पैंदी नई, चल सरपंच सरूप को चल, उत्थे जाके गल करी?’ सरदार जी ने उसे पीछे-पीछे आने का इशारा किया।

    परेशान रामदेव उनके पीछे-पीछे बढ़ता गया। कुछ दूर जाकर, पुरानी ईंटों वाले महलनुमा घर के सामने जाकर दोनों रुक गए। रास्ते में सरदार जी ने उसका नाम पूछ लिया, अपना नाम भी बता दिया—किरपाल सिंह। किरपाल सिंह ने आवाज़ दी।

    ‘सरपंच जी, सरपंच जी, थल्ले आओ! एक परदेशी बंदा आया सी!’ कुर्ता-पजामा पहने एक लंबा-तगड़ा गोरा-चिट्टा आदमी बाहर आया। उसके चेहरे पर हल्की नुकीली काली पूँछे सज रही थीं। किरपाल सिंह को देखकर मुस्कुराया और उसका हाथ पकड़कर अपनी ओर खींचने लगा।

    ‘किरपाल्या, बंदा कोनी? इनु कित्थों फड़के ले आया?’

    ‘सरपंच जी, मैं कित्थों ले आऊगा?’ बंदा किसी दी खोज विच आया सी। हिंदी बोल्दा सी, तुसी समझ लो! गल-बात कर लो!’

    सरपंच सरूप रामदेव की ओर मुड़ा, उसे गहरी नज़रों से देखा।

    ‘काका, क्या बात है?’

    ‘मेरा भाई विशुनदेव इंदर सिंह के फ़ार्म पर काम करता है, बहुत दूर बिहार से आया हूँ। ये चिट्ठी है।’ रामदेव ने कार्ड सरपंच सरूप के हाथ में थमा दिया। सरपंच सरूप ने पोस्टकार्ड उलट-पुलटकर पढ़ा और रामदेव को वापस थमाते हुए बोला, ‘पता तो ठीक है।’

    ‘किरपाल्या, देख पाई दी खिंच एन्नी दूर ले आई...अरे याद आया सी। एक बिहारी मुडा इंदर दे फ़ार्म ते देख्या सी...चल तुझे इंदर सिंह के पास ले चलता हूँ।’ सरपंच सरूप आगे बढ़ा।

    रामदेव उसके पीछे चला। किरपाल सिंह ‘अच्छा’ कहकर अपनी राह चला गया। तेज़ धूप में चलते दोनों पास ही इंदर सिंह के फ़ार्म पर पहुँचे।

    ‘स-सिरी अकाल जी!’ एक महिला ने शालीनता से कहा।

    सरपंच ने सिर हिलाया।

    ‘स-सिरी अकाल! इंदर सिंह कहाँ गया?’

    ‘वो तो कल सवेरे आएँगे जी। अंबरसर में कुछ काम था।’

    ‘ये मुंडा अपने भाई से मिलने आया है। इसका भाई तेरे फ़ार्म दा काम करता है...क्या नाम बताया?’

    ‘विशुनदेव’, रामदेव ने साफ़-साफ़ लहज़े में कहा। उसके चेहरे से उत्सुकता का लावा जैसे फूट पड़ना चाहता था। महिला ने उसे ग़ौर से देखा।

    ‘विशुनदेव! इस नाम का एक भैया तो था जी, तीन महीने पहले कपूरथले लौट गया। पिछले साल उसे हम अपने मामा जी के पास से लाए थे...इस साल भी बिहार से आया, पर बोलता था—दिल नईं लगता, तीन महीने पहले कपूरथले लौट गया।’

    सरपंच सरूप ने रामदेव की ओर देखा। उसे लगा कि अब रामदेव रो देगा।

    ‘देख मनजीत कौर!’ सरपंच सरूप ने आजिजी से कहा, ‘लड़का बिहार से आया है, परेशान है...इसके पास तेरा ही पता है।’

    ‘सरदार जी के आने पर बात कर लेणा जी, ज़्यादा वही बतलाएँगे!’ कहकर मनजीत कौर मुड़ गई।

    चल मुंड्या! मेरे यहाँ ही रोटी-पानी कर लेना। स्वेरे देखेंगे!’ बाँसुरी क्या बोलती है?

    रात धमक आई थी। दालान में किरपाल सिंह और सरपंच सरूप बातें कर रहे थे। घूम-फिरकर बात पंजाब के हालात पर ही चलती। अख़बार, रेडियो के हवाले अफ़वाहों का विश्लेषण चल रहा था।

    दालान के किनारे वाले तख़्त पर चादर से मुँह ढंके लेटा, रामदेव के सामने विशुनदेव का चेहरा बार-बार कौंध रहा था। उसे रह-रहकर रुलाई रही थी। सरदारनी पहले तो अच्छे से बोली पर विशुनदेव का ज़िक्र आते ही साफ़ मुकर गई—सरदार जी से बात कर लेना। अगर विशुनदेव तीन महीने पहले कपूरथले चला गया तो वहाँ से चिट्ठी ज़रूर लिखता। जेल में भी होता तो वहीं से लिखता। दो सौ रुपए में वह अपने भाई को कहाँ-कहाँ खोज पाएगा? कहीं भैया...आख़िर रुलाई फूट पड़ी। हिचकियाँ, नाक से बहते पानी और खाँसी ने भेद खोल दिया।

    किरपाल सिंह लपका और रामदेव को झकझोरकर पूछने लगा, ‘ए मुंड्या, मुंड्या...सरपंच जी देखो!

    सरपंच सरूप भाँप गया। वह उठकर रामदेव के पास आया और दिलासा देने लगा, देख भाई, कल इंदर सिंह से साफ़-साफ़ तेरे भाई का पता पूछ लेंगे। रुपए-पैसे की ज़रूरत हुई तो दे देंगे! तू कपूरथले जाकर भाई से मिल लेना। क्यों किरपाल सिंह?’

    ‘हंजी, मुंडे नू मदद ज़रूर करनी चाहिए। जे ग्रीब लोग हैं...’

    कब रात गुज़र गई, सोचते-सोचते रामदेव को पता ही नहीं चला।

    सरपंच सरूप को देखते ही इंदर सिंह चिल्लाया, ‘आओ महाराज! मनजीत कौर कह रही थी उस बिहारी मुंडे के बारे में। मैं अंबरसर चला गया था। दोनों पुत्तरों पर दिल लगा रहता है। रात जाकर टेलीफ़ोन से बात हुई। जी को चैन आया। स्वेरे वहाँ से चला। बस समझो अभी ही रहा हूँ...मैं भी मूरख! चलो अंदर बैठते हैं...कुछ चाय-साय भिजवाना, कह कर इंदर सिंह शुरू हो गया, ‘हंजी, लड़का बड़ा भला था। पिछले साल भी मेरे पास था। इस साल आया तो उखड़ा-उखड़ा रहता था। दिल नहीं लगता था। टिक नहीं पाया। चल दिया। कपूरथले मनजीत के मामा के यहाँ गया होगा। ऐसा ही बोल रहा था। दो महीने हो गए...अब आप कहो तो इस मुंडे को ख़र्चा-पानी दे दूँ।’

    इंदर सिंह की वाचालता से सरपंच सरूप शक में पड़ गया। कल मनजीत कौर कह रही थी, लड़के को गए तीन महीने हुए। यह कहता है दो महीने हुए। और यह ख़र्चा-पानी क्यों देना चाहता है?

    ‘इंदर सिंह, लड़का ज़िंदा है या नहीं?’ सरपंच ने सधी आवाज़ में पूछा।

    इंदर सिंह के चेहरे पर जैसे स्याही पुत गई। रामदेव का जी धक्क! इंदर सिंह जबरन अपने चेहरे पर कांइयाँ मुस्कुराहट लाता बोला, ‘मरने की बात कहाँ से गई?’

    ...लड़का ज़रूर ज़िंदा होगा जी। कपूरथले होगा या और कहीं चला गया होगा! भैया लोगों का क्या ठिकाना? आज यहाँ काम किया, कल वहाँ...’

    सरपंच सरूप के पीछे खड़ा रामदेव सिसकियाँ लेने लगा। मनजीत कौर चाय की ट्रे लेकर कमरे में घुसी। रामदेव को रोता देखकर, पल-भर के लिए ठिठक गई। मनजीत कौर ने गहरी नजरों से पति को देखा और उसके होंठ भिंच गए। यंत्रवत ट्रे को सेंटर टेबल पर रख, तेज़ी से मुड़कर अंदर चली गई।

    सरपंच को साफ़ लगा कि इंदर सिंह झूठ बोल रहा है। मनजीत कौर भी छिपा रही थी। ऐसे झूठ बोलने की ज़रूरत क्या है? विशुनदेव ज़िंदा नहीं है। सरपंच की आत्मा पर ठक से हथौड़े जैसी चोट लगी, वह ग़ुस्से से तिलमिला उठा।

    ‘साफ़ बता इंदर सिंह, विशुनदेव ज़िंदा है या नहीं? ज़िंदा है तो उसका पता दे!’

    ‘कह तो दिया, वह यहाँ से चला गया। ज़िंदा ही होगा।’

    ‘इस लड़के पर रहम कर। इतनी दूर से आया है। झूठ बोलने से क्या फ़ायदा?’

    ‘ओय सरूपे, तू मुझे झूठा कहेगा?’ इंदर सिंह भड़क उठा, ‘सरपंच से हार गया तब भी अकड़ नहीं गई। तू होता कौन है जो मुझसे पूछने चला आया? मैं तुझे कुछ नहीं बताऊँगा! बड़ा आया है लड़के की तरफ़दारी करने वाला!’

    सरूप अवाक! रामदेव बुक्का मारकर रो पड़ा। अचानक रामदेव उठा और इंदर सिंह के पाँव पर गिर पड़ा!

    ‘मालिक!’ रोता रामदेव चीख़ने लगा, ‘बता दीजिए मालिक, मेरा भैया कहाँ हैं?...बहुत उपकार होगा मालिक! बता दीजिए मालिक...मालिक...’

    ‘तू पत्थर है...इंदर सिंह!’ सरपंच सरूप घृणा से उफन उठा, लंबा-चौड़ा फ़ार्म, इतना पैसा, पर इंसानियत ज़रा भी नहीं...परदेशी की तू मदद नहीं कर सकता...ख़ैर चल मुंडे!’

    सरपंच सरूप उठ खड़ा आगे बढ़कर रामदेव को झकझोरकर उठाया।

    ‘भाई साहब, रुकना!’

    अंदर से मनजीत कौर की तेज़ आवाज़ आई। दरवाज़े से ही मनजीत कौर ने एक झोला सपरंच के पाँव के पास फेंका! उफनती मनजीत कौर पर जैसे दौरा पड़ गया हो!

    ‘ये विशुनदेव का सामान है...वह दुनिया में नहीं है!’ कहते-कहते मनजीत कौर फूट-फूटकर रोने लगी। हिचकियों के बीच उसने कहा, ‘मुझसे बोलकर गया था कि अंबरसर से घरवालों के लिए कपड़े लेने जा रहा हूँ, देस जाना है। अंबरसर से लौटकर आता तो यहाँ से पैसे लेकर जाता...तीन बजे दिन में गया। बस बिगड़ने से शाम हो गई। छेड़हट्टा के पास रोककर मार-काट हुई...उसी में...’

    गूँगे रामदेव की आँखों से आँसू लुढ़क रहे थे। सरपंच सरूप मनजीत कौर की बात सुनकर स्तब्ध था और अपराधी की तरह इंदर सिंह की आँखें फ़र्श में गड़ी हुई थीं।

    ‘मैं तीन दिनों तक रोती रही...मेरे भी बेटे हैं...ये फँस जाने के डर से बात छिपा रहे थे। कल रात-भर हम दोनों झगड़ते रहे—छिपाना क्या, वह भी किसी का बेटा है, भाई है...कल मैं भी झूठ बोली...हमें माफ़ करो सरपंच जी!’ मनजीत कौर के अंदर बैठी माँ ने उफान मारा। उसने आगे बढ़कर रामदेव को छाती से लगा लिया। अपनी ओढ़नी से उसके आँसू पोंछने लगी।

    बीच में पड़े विशुनदेव के झोले से उसकी बाँसुरी झाँक रही थी। सब चुप थे। आँसू की तरह बाँसुरी भी जैसे कुछ बोल रही थी। बाँसुरी क्या बोल रही थी, कोई समझ नहीं पाया...

    तू यहाँ कब तक भुगतता रहेगा?

    देर तक उस दिन नहर के किनारे बैठा रहा। नहर का कलकल पानी, आज़ाद हवा...सब बेकार! सरपंच के घर की तरफ़ चल पड़ा। कल उसे रुपए मिल जाएँगे— दो हज़ार। सरपंच साहब उसे अमृतसर में दिल्ली वाली बस में बिठा देंगे। अमृतसर के लिए आज उनको याद दिला देनी चाहिए। वह सोचता आगे बढ़ा जा रहा था कि फ़ौज की तीन जीपें गुज़रीं। लाउड स्पीकर से पंजाबी में कुछ घोषणा की जा रही थी। थोड़ी दूर और गया कि और तीन जीपें गुज़री। रामदेव घबरा गया। जल्दी-जल्दी सरपंच के घर की ओर बढ़ने लगा।

    सरपंच के घर के पास पहुँचकर वह हाँफ़ रहा था।

    ‘सरपंच साहब, पाकिस्तानी फ़ौज घुस आई क्या?’

    ‘नहीं, काका,’ सरपंच सरूप ने लंबी साँस ली, ‘अपनी फ़ौज है...यह बहुत बुरा हुआ!’

    ‘क्यों?’ रामदेव ने हौले से पूछा।

    ‘तुम क्या समझो? हम बॉर्डर के लोग समझते हैं! फ़ौज आती है, जाती है...पर जो ख़लिश छोड़ जाती है, उसका कोई इलाज नहीं,...चल इंदर सिंह के पास चलते हैं!’

    फँसे रामदेव के लिए कोई उपाय नहीं था। टी.वी. पर जालंधर, लाहौर की ख़बरें सुनते-देखते रहो। कुछ मालूम नहीं, कहाँ क्या हो रहा है। पूरे पंजाब को जैसे सुनबहरी हो गया हो। वाघा, अटारी जैसे फ़ौजी छावनी बनी थीं। घरों में चीख़ डर से दुबकी पड़ी थी। हवा की भी तलाशी चल रही थी। घृणा के अंधड़ में मौन ही पत्तियों की भाषा थी। परिंदे की तरह अफ़वाहें उड़तीं। मौत की ख़बर चीख़ भी नहीं बन सकती थी। लोग कबूतरों की तरह दुबके रहते। रात भी जगी रहती। हरी वर्दी में लोग सन्नाटे को कुचलते रहते।

    तलाशियों ने मालकिन को तोड़ दिया था। इंदर सिंह टी.वी. के पास बैठे रहते। बीच-बीच में रेडियो पर भी ख़बरें सुनते। रामदेव रसोई में जाकर मालकिन की मदद कर देता। रोना एक सिलसिला बन गया था। सरपंच जी ढांढ़स देने आए।

    ‘किरपाल का भाई अंबरसर में सेवादार था...किरपाल सब्र कर सकता है! दिल्ली में सब ठीक-ठाक है, आख़िर राजधानी है। तू नाहक़ परेशान है, मनजीत कौर! हिम्मत रख!’

    ‘कैसे चुप हो जाऊँ! एक फूल टूटता है तो हर पत्ता रोएगा...उस पार के गोले दगते थे तो हमारे में जोश होता था। अब तो इधर से ही...कोई इस बार उन्हें बेटों की तरह कलेजे में क्यों नहीं लगाता?... जिनको देख हिम्मत होती थी, वही हमें डराते हैं। बस अब तो वाहे गुरु का आसरा है!’ रामदेव को रोती-कलपती मनजीत कौर माई की तरह लगी। दिल्ली में बसे उनके दोनों बेटों का क्या हुआ होगा?

    तूफ़ान की तरह गुज़रे वे दिन। बारह दिन बाद कर्फ़्यू खुला तो आशंका की तेज़ बयार थी। किसका, कौन मरा, कहाँ चला गया? आख़िर इंदर सिंह ने कहा, ‘अंबरसर जाना है, तू यहाँ कब तक भुगतता रहेगा?’

    सफ़र तमाम नहीं...

    मलवे के शहर अमृतसर में आतंक का तना हुआ छाता था। आँखों के दिए बुझे-बुझे थे। मरघट-सा सन्नाटा। बस की आरामदेह सीट पर बैठा रामदेव खिड़की से चेहरा सटाए देख रहा था। इंदर सिंह और सरपंच सरूप नीचे खड़े थे। हचके के साथ बस आगे बढ़ी। रामदेव ने झट हाथ जोड़ दिए।

    उनके ओझल होते ही उसने लंबी साँस ली। आँखें बंद करते ही जैसे माई सामने खड़ी हो गई। वह झूठ बोलना चाहता है—भैया का पता नहीं चला। पर दो हज़ार का रुपए क्या करेगा! गोद में पड़ा विशुनदेव का झोला भारी लगने लगा। बाँसुरी झोले से बाहर झाँक रही थी। विशुनदेव का चेहरा उसके सामने घूम गया। अचानक उसका माथा घूमने लगा—आँसुओं में तब मनजीत कौर का चेहरा, किरपाल सिंह, इंदर सिंह का झुर्रियों की तरह लटकता चेहरा सामने आता और ओझल हो जाता...फिर दहाड़ मारकर रोती माई...बिस्तर पर मुँह देकर रोती भौजी...

    उसे ज़ोर से कंपकंपी आई। रोम-रोम खरखरा उठा। ‘नहीं!’ वह धीरे से बुदबुदाया। आगे की सीट का हैंडिल उसने मज़बूती से पकड़ लिया। गुर्राती बस आगे बढ़ती गई। आगे बढ़ना ही था, भैया एक्सप्रेस का सफ़र तमाम नहीं हुआ था।

    स्रोत :
    • पुस्तक : श्रेष्ठ हिन्दी कहानियाँ (1980-1990) (पृष्ठ 1)
    • संपादक : लीलाधार मंडलोई
    • रचनाकार : अरुण प्रकाश
    • प्रकाशन : पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस प्रा. लिमिटेड
    • संस्करण : 2010

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