तुंदेर्लकि बहनें गिनती में तीन थीं। उनमें से दो इज़्ज़तदार थी, पर तीसरी न थी। इज़्ज़तदार लड़कियों के नाम थे मरिश्का और योलान—जो इज़्ज़तदार नहीं थी वह थी पुत्यि।
पुत्यि कोई अभिनेत्री भी न थी—बस एक तरह की तमाशे वाली थी। वह अनैतिक जीवन बिताती थी, क्योंकि उसका एक मित्र था (निस्संदेह सिर्फ़ एक) जो बहुत अमीर था और उसे रखैल की तरह रखता था। उसने उसके लिए एक बहुत बड़ा घर सजवाया था, उस पर रुपए और हीरे-जवाहरात बरसाता था, और उसके साज-सिंगार के लिए जी खोलकर ख़र्च करता था।
मरिश्का और योलान पुत्यि के साथ रहती थीं। पुत्यि उन्हें कपड़े, गहने, हैट और रुपए दिया करती। क्योंकि पुत्यि भली बहन थी और उनकी इज़्ज़तदारी को ऊँची नज़र से देखती थी। मरिश्का और योलान को भी इस बात का बड़ा गर्व था कि वे इज़्ज़तदार हैं और उन्हें अपने रहने के लिए, अपनी रेशमी जुर्राबों के लिए, पंखदार हैटों और पेटेंट लैदर के जूतों के लिए बदले में कुछ नहीं देना पड़ता है।
इसके अलावा मरिश्का के सिर ऊँचा करके चलने की एक ख़ास वजह थी। वह टीचर बनना चाहती थी। सच तो यह है कि वह डिप्लोमा ले चुकी थी और उसे उम्मीद थी कि किसी भी दिन नौकरी मिल जाएगी, पर न जाने क्यों उसमें देर होती जा रही थी। हालाँकि पुत्यि के मित्र ज़मींदार साहब कृपापूर्वक उसकी तरफ़दारी कर रहे थे, यहाँ तक कि वे इस सम्बन्ध में एल्डरमैनों और काउन्सिलरों से ही नहीं, ख़ुद मेयर साहब से भी मिल चुके थे।
इसके बरक्स योलान दिवा-स्वप्नों में खोई रहने वाली लड़की थी। उसके सपनों का केंद्र था विवाह। इज़्ज़त वाली सचमुच की शादी, जैसी हर संभ्रांत मध्यवर्ग की कुमारियों की किस्मत में होती है। तीन कमरों वाला फ्लैट, अपने हाथों रसोई और महरी से कहा-सुनी।
आह, आह, और फिर आह! सपने उसे आविष्ट कर लेते। उसके अस्तित्व का एकमात्र लक्ष्य यही था। वह सतृष्ण नेत्रों से उस दिन की बाट देखती रहती, जब पुरुष, पति-परमेश्वर आकर उसका उद्धार करेगा।
इस प्रकार वे बाट देखती रहतीं, तीनों की तीनों। मरिश्का अपने नियुक्ति पत्र की, योलान अपने पति की, और पुत्यि अपनी दोनों बहनों के सपने सच होने की।
एक दिन मरिश्का ख़ुशी से दमकती घर आई।
“ओह पुत्यि” वह बोली, “अब की लगता है कि मुझे आख़िरकार नौकरी मिल ही जाएगी। जिस आदमी के हाथ में मेरी नौकरी है, उसने मुझे आज शाम को मिलने के लिए बुलवाया है।”
“चलो, आख़िर यह दिन तो आया!” पुत्यि ने उछलकर कहा।
“खैर, तुम्हारा सितारा तो ऊँचा जा रहा है।” योलान बोली।
और फिर एक आह भरकर जोड़ा, “लेकिन मेरा सितारा न जाने कहाँ जा छिपा है?”
इस पर वे सोच में पड़ गईं।
‘‘मेरा ख़याल है” पुत्यि बोली, “अब मुझे हाथ डालना पड़ेगा। तुम ख़ुद तो कभी कोई पति ख़ोज नहीं पाओगी, इसलिए अब तुम्हारे लिए पति मैं ख़ोजने वाली हूँ।”
“वाह-वाह पुत्यि”, योलान ने उमँगते हुए कहा, “तुम अगर एक बार ठान लो तो क्या नहीं कर सकतीं।’’
पुत्यि विह्वल भाव से उसे निहारने लगी।
“हम भी कितनी मूरख हैं कि पहले कभी इस बात का ध्यान ही न आया। तुम-जैसी बेचारी तो ज़िंदगी-भर अपने राजकुमार की बाट देखती बैठी रह जाएगी। दुनिया में तो रुपये का राज है बहन, और क्वाँरे जवान तुम्हारी तरफ़ आँख नहीं उठाते; क्योंकि वे सोचते हैं कि तुम्हारे पास एक कौड़ी भी नहीं है। पर यह उनकी भूल है, क्योंकि मैंने अभी-अभी तय किया है कि मैं तुम्हारे दहेज के लिए बीस हज़ार रुपए दूँगी।”
योलान ख़ुशी के मारे भौंचक रह गई। आख़िरकार वह अस्फुट स्वर में बोली, “बीस हज़ार रुपए!”
मरिश्का ने भरे हुए गले से कहा, “दुनिया में तुम-सी बहन और किसी की न होगी।”
पुत्यि बोली, “खैर, जो कहो, मैं अच्छी लड़की तो ज़रूर हूँ। मेरे पास कुल बीस ही हज़ार रुपये हैं, पर वे मैं तुम्हें दे दूँगी।”
खेल शुरू होने में थोड़ी-सी देर थी कि मरिश्का उस आदमी से मिलकर लौटी जिसके हाथ में उसकी नौकरी थी। वह उदास दिखती थी।
“कुछ गड़बड़ है क्या?” पुत्यि ने हमदर्दी से पूछा।
“ऐं, हाँ, यही समझो!” मरिश्का ने कहा।
“बात क्या है?”
“अरे, कुछ नहीं...असल में सब-कुछ तय हो चुका है और अब मुझे फ़ौरन नौकरी मिल सकती है। पर बुड्ढे ने साफ़-साफ़ कह दिया है कि वह मुझे यों ही नौकरी नहीं देगा।”
“तो क्या रुपए माँगता है?”
“नहीं भई। वह...लगता है मैं उसे जँच गई हूँ... और...”
“समझी।”
पुत्यि सोचने लगी। और योलान भी। मरिश्का चुप रही। कुछ देर रुककर पुत्यि ने पूछा—
“तुमने क्या जवाब दिया?”
“मैं क्या कहती?” मरिश्का भड़क उठी। बिगड़कर बोली, “तुम क्या समझती हो मैं ऐसे आदमी को मुँह लगाऊँगी? तुम्हारा क्या ख़याल है मैं कभी ऐसा कर सकती हूँ? तुम तो मेरे उसूल जानती हो...”
पुत्यि घबरा उठी।
“भगवान के लिए मुझे ग़लत मत समझो। मैं जानती हूँ तुम इज़्ज़तदार औरत हो...फिर भी... ख़ैर यह बताओ आख़िर में बात ख़त्म कैसे हुई?”
“मैं पीठ फेरकर उसके दफ़्तर से निकल आई। मैंने साफ़ कह दिया कि अपनी नौकरी अपने पास धर रखो, मैं मर जाऊँगी पर लाज पर आँच न आने दूँगी।”
योलान ने अपनी सहमति प्रकट की। बोली, “तुमने बिलकुल ठीक किया।”
“सोलहों आने” पुत्यि ने साथ दिया, “और फिर वह? उसने क्या कहा?”
बोला, “तुम तो बेवक़ूफ़ हो। ज़रा सोचकर तो देखो, तुम्हारा सारा भविष्य इसी पर टिका है, और मैं तुम्हारी मदद करना चाहता हूँ। बोला, कल फिर आकर मुझसे मिल लेना। पर मैंने कहा, मैं आपके दफ़्तर का मुँह भी न देखूँगी और फूट-फूटकर रो पड़ी। पर लौटते समय मैं रास्ते में सोचने लगी कि कितना बढ़िया मौक़ा हाथ से निकला जा रहा है...तुम्हारा क्या ख़याल है?”
“हाँ, सो तो है”, योलान ने कहा।
“सोलहों आने” पुत्यि ने कहा।
“मेरे मन में आया कि शायद कोई रास्ता निकल आए...”
“कैसा रास्ता?” पुत्यि ने प्रश्न किया।
“असल में मैंने सोचा कि अगर कोई जाकर उससे मिले और उसे समझा दे कि मैं कोई उस तरह की लड़की नहीं हूँ, जो ऐसे-वैसे काम करे। अगर कोई जाकर उससे अपील कर सकता कि कम-से-कम एक बार वह सज्जन बन जाए और अपनी कुर्सी का नाजाएज़ फ़ायदा न उठाए...”
“सो तो ठीक है, पर जाएगा कौन?” योलान ने पूछा।
“पुत्यि कैसी रहेगी...इसका नाम है, बातूनी भी है और लोगों को बस में करना भी जानती है, इसलिए...” मरिश्का ने कुछ हिचकिचाते हुए कहा।
पुत्यि पीली पड़ गई।
“तुम सोचती हो मुझे जाना चाहिए?”
मरिश्का ने हिम्मत बाँधी।
“क्यों नहीं पुत्यि? यह कोई ऐसा बड़ा त्याग थोड़े ही है—अपनी बहन के लिए क्या इतना भी नहीं कर सकती? मैं शर्त लगाकर कह सकती हूँ कि तुम्हारे जाकर कहने भर की देर है, और मुझे नौकरी मिल जाएगी।”
पुत्यि ने योलान की ओर देखा, मानो उससे प्रतिवाद की आशा हो। लेकिन योलान बोली—“सच पुत्यि, तुम कितनी अच्छी हो...तुमने मेरा इंतज़ाम तो कर ही दिया है, मैं जानती हूँ तुम बेचारी मरिश्का के लिए भी कुछ-न-कुछ ज़रूर करोगी।”
“लेकिन...लेकिन मान लो वह भला आदमी मेरी बात भी न माने तो? यों ही करने को राज़ी न हो तो?” पुत्यि ने कड़वाहट से प्रश्न किया।
दोनों बहनें एक-दूसरे को देखकर मुसकुराईं और एकसाथ बोल पड़ीं, “अब बनो मत पुत्यि!”
मरिश्का को नौकरी क्या मिली, योलान की तकदीर भी चेत गई। मरिश्का का साथी एक टीचर अक्सर तुंदेर्लकि-परिवार में आने-जाने लगा। उसे योलान से प्यार हो गया। वह भी उस युवक को नापसंद नहीं करती थी। तिस पर जब उस युवक को पता चला कि योलान का मतलब है बीस हज़ार रुपए, तब तो उसके प्रेम का पारा तेज़ी से चढ़ने लगा। मरिश्का आग में ईंधन डालती रही।
“अच्छा हो कि तुम मेरी बहन को अपनाने की बात पुत्यि से कहो!”
“क्या कहा?...क्यों, मिस पुत्यि से क्यों?”
“क्योंकि तुम जानो वही हमारा घर चलाती है। वही तो दे रही है बीस हज़ार रुपए।”
टीचर कुछ पीले पड़ गए।
“ओह, समझा।”
“ठीक, तुम्हें कोई आपत्ति है?”
“ख़ैर...हाँ...कुछ अजीब लग रहा है। तुम मुझे ग़लत मत समझना मिस मरिश्का। तुम्हारी बहन, मिस पुत्यि के बारे में बहुत ऊँची राय है मेरी। लेकिन...तुम सोचो तो सही मैं ज़रा भावुक आदमी हूँ।”
मरिश्का ने उसे बर्फीली नज़र से ताका।
“क्या बकवास करते हो! योलान इतनी अच्छी लड़की है और तुम इतने अच्छे आदमी हो; तुम लोगों की जोड़ी ख़ूब रहेगी। बस और क्या चाहिए। तुम हीले हवाले करके कीमती वक़्त बरबाद कर रहे हो।’
टीचर ने हकलाते हुए कुछ शब्द निकाले। पर बाद में उसने सोचा कि सफलता की कुंजी से अक्ल से काम लेना। बस वह एक दिन बन ठनकर पुत्यि से मिलने गया और योलान से शादी करने की इच्छा प्रकट कर दी।
ख़ुशी के मारे पुत्यि की आँखों में आँसू ही आ गए। उसका वात्सल्य ऐसा उमड़ा कि उसने तुरंत दोनों को आशीर्वाद दे डाला।
योलान और उसका मँगेतर दोनों मानो आनंद की तस्वीर हों। टीचर हर रोज़ अपनी मँगेतर के घर आता, ठाठ से भोजन करता और चौधरी साहब की सिगरेटें और सिगारें उड़ाता। फिर भी, जैसा कि वह ख़ुद ही बता चुका था, वह ज़रा भावुक क़िस्म का आदमी था।
“मुझे इस तरह की बात बिलकुल पसंद नहीं, “वह योलान से मिलते ही प्राय: हर बार यही कहता, “मेरा बस चले, तो मैं तो तुम्हारे दहेज लेने से इंकार कर दूँ।”
योलान बिगड़ उठती।
“क्या बे- सिर-पैर की बातें करते हो! भला इतना रुपया कोई ठुकराता है!!”
“ठीक है, लेकिन आख़िरकार...मैं मानता हूँ, तुम्हारी बहन लाजवाब है, पर सबसे पहले तो इज़्ज़त का ध्यान करना पड़ता है, है कि नहीं?”
“इसमें क्या शक है!’ योलान ने पूरे विश्वास के साथ सहमति प्रकट की।
“बस एक बार हम पति-पत्नी बन जाएँ फिर...”
“फिर क्या?”
“देखो रानी, तुम कुछ और मत समझना, पर मैं सोचता हूँ कि फिर हम उनसे कुछ दूर ही रहें तो अच्छा।”
“जैसी तुम्हारी इच्छा।” योलान ने आज्ञाकारियों की भाँति कहा। उसने अपने मँगेतर की ओर देखा तो उसका चेहरा दमक रहा था।
तुंदेर्लकि बहनें, जैसा कि मैं बता चुका हूँ, गिनती में तीन थीं। उनमें से दो तो इज़्ज़तदार थीं, पर तीसरी न थी।
tunderlaki bahnen ginti mein teen theen. unmen se do izzatdar thi, par tisri na thi. izzatdar laDakiyon ke naam the marishka aur yolan—jo izzatdar nahin thi wo thi putyi.
putyi koi abhinetri bhi na thi—bas ek tarah ki tamashe vali thi. wo anaitik jivan bitati thi, kyonki uska ek mitr tha (nissandeh sirf ek) jo bahut amir tha aur use rakhail ki tarah rakhta tha. usne uske liye ek bahut baDa ghar sajvaya tha, us par rupe aur hire javaharat barsata tha, aur uske saaj singar ke liye ji kholkar kharch karta tha.
marishka aur yolan putyi ke saath rahti theen. putyi unhen kapDe, gahne, hait aur rupe diya karti. kyonki putyi bhali bahan thi aur unki izzatdari ko uunchi nazar se dekhti thi. marishka aur yolan ko bhi is baat ka baDa garv tha ki ve izzatdar hain aur unhen apne rahne ke liye, apni reshmi jurrabon ke liye, pankhdar haiton aur petent laidar ke juton ke liye badle mein kuch nahin dena paDta hai.
iske alava marishka ke sir uncha karke chalne ki ek khaas vajah thi. wo tichar banna chahti thi. sach to ye hai ki wo Diploma le chuki thi aur use ummid thi ki kisi bhi din naukari mil jayegi, par na jane kyon usmen der hoti ja rahi thi. halanki putyi ke mitr zamindar sahab krishapurvak uski tarafdari kar rahe the, yahan tak ki ve is sambandh mein elDaramainon aur kaunsilron se hi nahin, khud meyar sahab se bhi mil chuke the.
iske baraks yolan diva svapnon mein khoi rahne vali laDki thi. uske sapnon ka kendr tha vivah. izzat vali sachmuch ki shadi, jaisi har sambhrant madhyavarg ki kumariyon ki kismat mein hoti hai. teen kamron vala phlait, apne hathon rasoi aur mahri se kaha suni.
aah, aah, aur phir aah! sapne use avisht kar lete. uske astitv ka ekmaatr lakshya yahi tha. wo satrishn netron se us din ki baat dekhti rahti, jab purush, pati parmeshvar aakar uska uddhaar karega.
is prakar ve baat dekhti rahtin, tinon ki tinon. marishka apne niyukti patr ki, yolan apne pati ki, aur putyi apni donon bahnon ke sapne sach hone ki.
ek din marishka khushi se damakti ghar aai.
“oh putyi” wo boli, “ab ki lagta hai ki mujhe akhirkar naukari mil hi jayegi. jis adami ke haath mein meri naukari hai, usne mujhe aaj shaam ko milne ke liye bulvaya hai. ”
“chalo, akhir ye din to aya!” putyi ne uchhalkar kaha.
“khair, tumhara sitara to uncha ja raha hai. ” yolan boli.
aur phir ek aah bharkar joDa, “lekin mera sitara na jane kahan ja chhipa hai?”
is par ve soch mein paD gain.
‘mera khayal hai” putyi boli, “ab mujhe haath Dalna paDega. tum khud to kabhi koi pati khoj nahin paogi, isliye ab tumhare liye pati main khojne vali hoon. ”
“vaah vaah putyi”, yolan ne umangate hue kaha, “tum agar ek baar thaan lo to kya nahin kar saktin. ’
putyi vihval bhaav se use niharne lagi.
“ham bhi kitni murakh hain ki pahle kabhi is baat ka dhyaan hi na aaya.
tum jaisi bechari to zindagi bhar apne rajakumar ki baat dekhti baithi rah jayegi. duniya mein to rupye ka raaj hai bahan, aur kvare javan tumhare taraf ankh nahin uthate; kyonki ve sochte hain ki tumhare paas ek kauDi bhi nahin hai. par ye unki bhool hai, kyonki mainne abhi abhi tay kiya hai ki main tumhare dahej ke liye bees hazar rupe dungi. ”
yolan khushi ke mare bhaunchak rah gai. akhirkar wo asphut svar mein boli, “bees hazar rupe!”
marishka ne bhare hue gale se kaha, “duniya mein tum si bahan aur kisi ki na hogi. ”
putyi boli, “khair, jo kaho, main achchhi laDki to zarur hoon. mere paas kul bees hi hazar rupye hain, par ve main tumhein de dungi. ”
khel shuru hone mein thoDi si der thi ki marishka us adami se milkar lauti jiske haath mein uski naukari thi. wo udaas dikhti thi.
“kuchh gaDbaD hai kyaa?” putyi ne hamdardi se puchha.
“ain, haan, yahi samjho!” marishka ne kaha.
“baat kya hai?”
“are, kuch nahin. . . asal mein sab kuch tay ho chuka hai aur ab mujhe fauran naukari mil sakti hai. par buDDhe ne saaf saaf kah diya hai ki wo mujhe yon hi naukari nahin dega. ”
“to kya rupe mangta hai?”
“nahin bhai. wo. . . lagta hai main use janch gai hoon. . . aur. . . ”
“samjhi. ”
putyi sochne lagi. aur yolan bhi. marishka chup rahi. kuch der rukkar putyi ne puchha—
“tumne kya javab diya?”
“main kya kahti?” marishka bhaDak uthi. bigaDkar boli, “tum kya samajhti ho main aise adami ko munh lagaungi? tumhara kya khayal hai main kabhi ais kar sakti hoon? tum to mere usul janti ho. . . ”
putyi ghabra uthi.
bhagvan ke liye mujhe ghalat mat samjho. main janti hoon tum izzatdar aurat ho. . . phir bhi. . . khair ye batao akhir mein baat khatm kaise hui?”
“main peeth pherkar uske daftar se nikal aai. mainne saaf kah diya ki apni naukari apne paas dhar rakho, main mar jaungi par laaj par anch na aane dungi. ”
yolan ne apni sahamti prakat ki. boli, “tumne bilkul theek kiya. ”
bola, “tum to bevaquf ho. zara sochkar to dekho, tumhara sara bhavishya isi par tika hai, aur main tumhari madad karna chahta hoon. bola, kal phir aakar mujhse mil lena. par mainne kaha, main aapke daftar ka munh bhi na dekhungi aur phoot phutkar ro paDi. par lautte samay main raste mein sochne lagi ki kitna baDhiya mauqa haath se nikla ja raha hai. . . tumhara kya khayal hai?”
“haan, so to hai”, yolan ne kaha.
“solhon aane” putyi ne kaha.
“mainne man mein aaya ki shayad koi rasta nikal aaye. . .
“kaisa rasta?” putyi ne parashn kiya.
“asal mein mainne socha ki agar koi jakar usse mile aur use samjha de ki main koi us tarah ki laDki nahin hoon, jo aise vaise kaam kare. agar koi jakar usse apil kar sakta ki kam se kam ek baar wo sajjan ban jaye aur apni kursi ka najayez fayda na uthaye. . .
“so to theek hai, par jayega kaun?” yolan ne puchha.
“putyi kaisi rahegi. . . iska naam hai, batuni bhi hai aur logon ko bas mein karna bhi janti hai, isliye. . . ” marishka ne kuch hichkichate hue kaha.
putyi pili paD gai.
“tum sochti ho mujhe jana chahiye?”
marishka ne himmat bandhi.
“kyon nahin putyi? ye koi aisa baDa tyaag thoDe hi hai—apni bahan ke liye kya itna bhi nahin kar sakti? main shart lagakar kah sakti hoon ki tumhare jakar kahne bhar ki der hai, aur mujhe naukari mil jayegi. ”
putyi ne yolan ki or dekha, manon usse prativad ki aasha ho. lekin yolan boli—“sach putyi, tum kitni achchhi ho. . . tumne mera intzaam to kar hi diya hai, main janti hoon tum bechari marishka ke liye bhi kuch na kuch zarur karogi. ”
“lekin. . . lekin maan lo wo bhala adami meri baat bhi na mane to? yon hi karne ko razi na ho to?” putyi ne kaDvahat se parashn kiya.
donon bahnen ek dusre ko dekhkar musakurain aur eksaath bol paDin, “ab bano mat putyi!”
marishka ko naukari kya mili, yolan ki takdir bhi chet gai. marishka ka sathi ek tichar aksar tunderlaki parivar mein aane jane laga. use yolan se pyaar ho gaya. wo bhi us yuvak ko napsand nahin karti thi. tis par jab us yuvak ko pata chala ki yolan ka matlab hai bees hazar rupe, tab to uske prem ka para tezi se chaDhne laga. marishka aag mein iindhan Dalti rahi.
“achchha ho ki tum meri bahan ko apnane ki baat putyi se kaho!”
“kya kaha?. . . kyon, mis putyi se kyon?”
“kyonki tum jano vahi hamara ghar chalati hai. vahi to de rahi hai bees hazar rupe. ”
tichar kuch pile paD ge.
“oh, samjha. ”
“theek, tumhein koi apatti hai?”
“khair. . . haan. . . kuch ajib lag raha hai. tum mujhe ghalat mat samajhna mis marishka. tumhari bahan, mis putyi ke bare mein bahut uunchi raay hai meri. lekin. . . tum socho to sahi main zara bhavuk adami hoon. ”
marishka ne use barphili nazar se taka.
“kya bakvas karte ho! yolan itni achchhi laDki hai aur tum itne achchhe adami ho; tum logon ki joDi khoob rahegi. bas aur kya chahiye. tum hile havale karke kimti vaqt barbad kar rahe ho. ’
tichar ne haklate hue kuch shabd nikale. par baad mein usne socha ki saphalta ki kunji se akl se kaam lena. bas wo ek din ban thankar putyi se milne gaya aur yolan se shadi karne ki ichchha prakat kar di.
khushi ke mare putyi ki ankhon mein ansu hi aa ge. uska vatsalya aisa umDa ki usne turant donon ko ashirvad de Dala.
yolan aur uska mangetar donon manon anand ki tasvir hon. tichar har roz apni mangetar ke ghar aata, thaath se bhojan karta aur chaudhari sahab ki sigreten aur sigaren uData. phir bhi, jaisa ki wo khud hi bata chuka tha, wo zara bhavuk qism ka adami tha.
“mujhe is tarah ki baat bilkul pasand nahin, “ wo yolan se milte hi prayah har baar yahi kahta, “mera bas chale, to main to tumhare dahej lene se inkaar kar doon. ”
yolan bigaD uthti.
“kya be sir pair ki baten karte ho! bhala itna rupya koi thukrata hai!!
“theek hai, lekin akhirkar. . . main manata hoon, tumhari bahan lajavab hai, par sabse pahle to ijjat ka dhyaan karna paDta hai, hai ki nahin?”
“ismen kya shak hai!’ yolan ne pure vishvas ke saath sahamti prakat ki.
“bas ek baar hum pati patni ban jayen phir. . . ”
“phir kyaa?”
“dekho rani, tum kuch aur mat samajhna, par main sochta hoon ki phir hum unse kuch door hi rahen to achchha. ”
“jaisi tumhari ichchha. ” yolan ne agyakariyon ki bhanti kaha. usne apne mangetar ki or dekha to uska chehra damak raha tha.
tunderlaki bahnen, jaisa ki main bata chuka hoon, ginti mein teen theen. unmen se do to izzatdar theen, par tisri na thi.
tunderlaki bahnen ginti mein teen theen. unmen se do izzatdar thi, par tisri na thi. izzatdar laDakiyon ke naam the marishka aur yolan—jo izzatdar nahin thi wo thi putyi.
putyi koi abhinetri bhi na thi—bas ek tarah ki tamashe vali thi. wo anaitik jivan bitati thi, kyonki uska ek mitr tha (nissandeh sirf ek) jo bahut amir tha aur use rakhail ki tarah rakhta tha. usne uske liye ek bahut baDa ghar sajvaya tha, us par rupe aur hire javaharat barsata tha, aur uske saaj singar ke liye ji kholkar kharch karta tha.
marishka aur yolan putyi ke saath rahti theen. putyi unhen kapDe, gahne, hait aur rupe diya karti. kyonki putyi bhali bahan thi aur unki izzatdari ko uunchi nazar se dekhti thi. marishka aur yolan ko bhi is baat ka baDa garv tha ki ve izzatdar hain aur unhen apne rahne ke liye, apni reshmi jurrabon ke liye, pankhdar haiton aur petent laidar ke juton ke liye badle mein kuch nahin dena paDta hai.
iske alava marishka ke sir uncha karke chalne ki ek khaas vajah thi. wo tichar banna chahti thi. sach to ye hai ki wo Diploma le chuki thi aur use ummid thi ki kisi bhi din naukari mil jayegi, par na jane kyon usmen der hoti ja rahi thi. halanki putyi ke mitr zamindar sahab krishapurvak uski tarafdari kar rahe the, yahan tak ki ve is sambandh mein elDaramainon aur kaunsilron se hi nahin, khud meyar sahab se bhi mil chuke the.
iske baraks yolan diva svapnon mein khoi rahne vali laDki thi. uske sapnon ka kendr tha vivah. izzat vali sachmuch ki shadi, jaisi har sambhrant madhyavarg ki kumariyon ki kismat mein hoti hai. teen kamron vala phlait, apne hathon rasoi aur mahri se kaha suni.
aah, aah, aur phir aah! sapne use avisht kar lete. uske astitv ka ekmaatr lakshya yahi tha. wo satrishn netron se us din ki baat dekhti rahti, jab purush, pati parmeshvar aakar uska uddhaar karega.
is prakar ve baat dekhti rahtin, tinon ki tinon. marishka apne niyukti patr ki, yolan apne pati ki, aur putyi apni donon bahnon ke sapne sach hone ki.
ek din marishka khushi se damakti ghar aai.
“oh putyi” wo boli, “ab ki lagta hai ki mujhe akhirkar naukari mil hi jayegi. jis adami ke haath mein meri naukari hai, usne mujhe aaj shaam ko milne ke liye bulvaya hai. ”
“chalo, akhir ye din to aya!” putyi ne uchhalkar kaha.
“khair, tumhara sitara to uncha ja raha hai. ” yolan boli.
aur phir ek aah bharkar joDa, “lekin mera sitara na jane kahan ja chhipa hai?”
is par ve soch mein paD gain.
‘mera khayal hai” putyi boli, “ab mujhe haath Dalna paDega. tum khud to kabhi koi pati khoj nahin paogi, isliye ab tumhare liye pati main khojne vali hoon. ”
“vaah vaah putyi”, yolan ne umangate hue kaha, “tum agar ek baar thaan lo to kya nahin kar saktin. ’
putyi vihval bhaav se use niharne lagi.
“ham bhi kitni murakh hain ki pahle kabhi is baat ka dhyaan hi na aaya.
tum jaisi bechari to zindagi bhar apne rajakumar ki baat dekhti baithi rah jayegi. duniya mein to rupye ka raaj hai bahan, aur kvare javan tumhare taraf ankh nahin uthate; kyonki ve sochte hain ki tumhare paas ek kauDi bhi nahin hai. par ye unki bhool hai, kyonki mainne abhi abhi tay kiya hai ki main tumhare dahej ke liye bees hazar rupe dungi. ”
yolan khushi ke mare bhaunchak rah gai. akhirkar wo asphut svar mein boli, “bees hazar rupe!”
marishka ne bhare hue gale se kaha, “duniya mein tum si bahan aur kisi ki na hogi. ”
putyi boli, “khair, jo kaho, main achchhi laDki to zarur hoon. mere paas kul bees hi hazar rupye hain, par ve main tumhein de dungi. ”
khel shuru hone mein thoDi si der thi ki marishka us adami se milkar lauti jiske haath mein uski naukari thi. wo udaas dikhti thi.
“kuchh gaDbaD hai kyaa?” putyi ne hamdardi se puchha.
“ain, haan, yahi samjho!” marishka ne kaha.
“baat kya hai?”
“are, kuch nahin. . . asal mein sab kuch tay ho chuka hai aur ab mujhe fauran naukari mil sakti hai. par buDDhe ne saaf saaf kah diya hai ki wo mujhe yon hi naukari nahin dega. ”
“to kya rupe mangta hai?”
“nahin bhai. wo. . . lagta hai main use janch gai hoon. . . aur. . . ”
“samjhi. ”
putyi sochne lagi. aur yolan bhi. marishka chup rahi. kuch der rukkar putyi ne puchha—
“tumne kya javab diya?”
“main kya kahti?” marishka bhaDak uthi. bigaDkar boli, “tum kya samajhti ho main aise adami ko munh lagaungi? tumhara kya khayal hai main kabhi ais kar sakti hoon? tum to mere usul janti ho. . . ”
putyi ghabra uthi.
bhagvan ke liye mujhe ghalat mat samjho. main janti hoon tum izzatdar aurat ho. . . phir bhi. . . khair ye batao akhir mein baat khatm kaise hui?”
“main peeth pherkar uske daftar se nikal aai. mainne saaf kah diya ki apni naukari apne paas dhar rakho, main mar jaungi par laaj par anch na aane dungi. ”
yolan ne apni sahamti prakat ki. boli, “tumne bilkul theek kiya. ”
bola, “tum to bevaquf ho. zara sochkar to dekho, tumhara sara bhavishya isi par tika hai, aur main tumhari madad karna chahta hoon. bola, kal phir aakar mujhse mil lena. par mainne kaha, main aapke daftar ka munh bhi na dekhungi aur phoot phutkar ro paDi. par lautte samay main raste mein sochne lagi ki kitna baDhiya mauqa haath se nikla ja raha hai. . . tumhara kya khayal hai?”
“haan, so to hai”, yolan ne kaha.
“solhon aane” putyi ne kaha.
“mainne man mein aaya ki shayad koi rasta nikal aaye. . .
“kaisa rasta?” putyi ne parashn kiya.
“asal mein mainne socha ki agar koi jakar usse mile aur use samjha de ki main koi us tarah ki laDki nahin hoon, jo aise vaise kaam kare. agar koi jakar usse apil kar sakta ki kam se kam ek baar wo sajjan ban jaye aur apni kursi ka najayez fayda na uthaye. . .
“so to theek hai, par jayega kaun?” yolan ne puchha.
“putyi kaisi rahegi. . . iska naam hai, batuni bhi hai aur logon ko bas mein karna bhi janti hai, isliye. . . ” marishka ne kuch hichkichate hue kaha.
putyi pili paD gai.
“tum sochti ho mujhe jana chahiye?”
marishka ne himmat bandhi.
“kyon nahin putyi? ye koi aisa baDa tyaag thoDe hi hai—apni bahan ke liye kya itna bhi nahin kar sakti? main shart lagakar kah sakti hoon ki tumhare jakar kahne bhar ki der hai, aur mujhe naukari mil jayegi. ”
putyi ne yolan ki or dekha, manon usse prativad ki aasha ho. lekin yolan boli—“sach putyi, tum kitni achchhi ho. . . tumne mera intzaam to kar hi diya hai, main janti hoon tum bechari marishka ke liye bhi kuch na kuch zarur karogi. ”
“lekin. . . lekin maan lo wo bhala adami meri baat bhi na mane to? yon hi karne ko razi na ho to?” putyi ne kaDvahat se parashn kiya.
donon bahnen ek dusre ko dekhkar musakurain aur eksaath bol paDin, “ab bano mat putyi!”
marishka ko naukari kya mili, yolan ki takdir bhi chet gai. marishka ka sathi ek tichar aksar tunderlaki parivar mein aane jane laga. use yolan se pyaar ho gaya. wo bhi us yuvak ko napsand nahin karti thi. tis par jab us yuvak ko pata chala ki yolan ka matlab hai bees hazar rupe, tab to uske prem ka para tezi se chaDhne laga. marishka aag mein iindhan Dalti rahi.
“achchha ho ki tum meri bahan ko apnane ki baat putyi se kaho!”
“kya kaha?. . . kyon, mis putyi se kyon?”
“kyonki tum jano vahi hamara ghar chalati hai. vahi to de rahi hai bees hazar rupe. ”
tichar kuch pile paD ge.
“oh, samjha. ”
“theek, tumhein koi apatti hai?”
“khair. . . haan. . . kuch ajib lag raha hai. tum mujhe ghalat mat samajhna mis marishka. tumhari bahan, mis putyi ke bare mein bahut uunchi raay hai meri. lekin. . . tum socho to sahi main zara bhavuk adami hoon. ”
marishka ne use barphili nazar se taka.
“kya bakvas karte ho! yolan itni achchhi laDki hai aur tum itne achchhe adami ho; tum logon ki joDi khoob rahegi. bas aur kya chahiye. tum hile havale karke kimti vaqt barbad kar rahe ho. ’
tichar ne haklate hue kuch shabd nikale. par baad mein usne socha ki saphalta ki kunji se akl se kaam lena. bas wo ek din ban thankar putyi se milne gaya aur yolan se shadi karne ki ichchha prakat kar di.
khushi ke mare putyi ki ankhon mein ansu hi aa ge. uska vatsalya aisa umDa ki usne turant donon ko ashirvad de Dala.
yolan aur uska mangetar donon manon anand ki tasvir hon. tichar har roz apni mangetar ke ghar aata, thaath se bhojan karta aur chaudhari sahab ki sigreten aur sigaren uData. phir bhi, jaisa ki wo khud hi bata chuka tha, wo zara bhavuk qism ka adami tha.
“mujhe is tarah ki baat bilkul pasand nahin, “ wo yolan se milte hi prayah har baar yahi kahta, “mera bas chale, to main to tumhare dahej lene se inkaar kar doon. ”
yolan bigaD uthti.
“kya be sir pair ki baten karte ho! bhala itna rupya koi thukrata hai!!
“theek hai, lekin akhirkar. . . main manata hoon, tumhari bahan lajavab hai, par sabse pahle to ijjat ka dhyaan karna paDta hai, hai ki nahin?”
“ismen kya shak hai!’ yolan ne pure vishvas ke saath sahamti prakat ki.
“bas ek baar hum pati patni ban jayen phir. . . ”
“phir kyaa?”
“dekho rani, tum kuch aur mat samajhna, par main sochta hoon ki phir hum unse kuch door hi rahen to achchha. ”
“jaisi tumhari ichchha. ” yolan ne agyakariyon ki bhanti kaha. usne apne mangetar ki or dekha to uska chehra damak raha tha.
tunderlaki bahnen, jaisa ki main bata chuka hoon, ginti mein teen theen. unmen se do to izzatdar theen, par tisri na thi.
स्रोत :
पुस्तक : विश्व की श्रेष्ठ कहानियाँ (खण्ड-2) (पृष्ठ 162)
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