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सफ़ेद कबूतर

safed kabutar

न्गूयेन क्वांग थान

न्गूयेन क्वांग थान

सफ़ेद कबूतर

न्गूयेन क्वांग थान

और अधिकन्गूयेन क्वांग थान

    जब वह अपने गाँव लौटा तो वही आठ साल पुराना फ़ौजी झोला उसकी पीठ पर कसा था।

    उसे याद आया कि फ़ौज की ओर से मिलने वाला यह उसका पहला झोला था। जिला हेडक्वाटर्स से उसे वर्दी, बेल्ट, सितारों वाली हेलमेट और कैनवस के जूतों के साथ यह झोला दिया गया था। आने वाले सिपाही जीवन की सारी ज़रूरतों को उस झोले में भर चुकने के बाद उसने अपने अफ़सर से कुछ देर की छुट्टी माँगी थी, ताकि जाने से पहले आख़िरी बार वह घर का चक्कर लगाकर सके। घर नज़दीक ही था, लेकिन वहाँ पहुँचते ही सबसे पहले उसका ध्यान सुअरबाड़े की ओर गया था, जहाँ बाँस की छत से एक लकड़ी खुल गई थी। झोले को वहीं दरवाज़े पर छोड़ उसने जल्दी-जल्दी, बहुत एहतियात के साथ उस लकड़ी को रस्सी से कसकर यूँ बाँधा था, जैसे उसे सदियों तक खुलने की मज़बूती दे रहा हो, और उसके बाद वह वापस अपने दो कमरों के छोटे से घर की ओर दौड़ गया था।

    रसोईघर के दरवाज़े से होता हुआ वह कमरे में घुसा तो भीतर के नज़ारे ने उसे स्तंभित कर दिया। उसने देखा...पत्नी ने साजो-सामान से लैस उस झोले को अपनी पीठ पर कस लिया था और अब वह दीवार पर लगे आईने में अपनी इस फ़ौजी छवि का जाएजा ले रही थी। उसने इससे पहले कभी अपनी पत्नी को इतनी शरारती मुद्रा में नहीं देखा था।

    कुछ देर तक वहीं चुपचाप खड़ा वह पत्नी के मूक अभिनय को देखता रहा था। उसने सिर पर उसकी लाल बिल्ले वाली वह टोपी भी लगा ली थी। जब वह कमर में बेल्ट बाँधने को झुकी थी तो आगे बढ़कर उसने पीछे से अपनी पत्नी को बाँहों में भर लिया था।

    पत्नी का कोमल जिस्म उसकी बाँहों के दबाव तले पिघलता हुआ-सा महसूस हुआ था। फिर दूसरे ही क्षण वह शरमाकर उसकी गिरफ़्त से बाहर निकली थी और पीठ पर फँसे उस झोले को उतारने की कोशिश करने लगी थी। बिस्तर के कोने पर बैठा वह पत्नी की इस चंचलता पर धीरे-धीरे मुस्कुराता रहा था।

    उन्होंने साथ-साथ खाना खाया था। फिर उसके कुछ ही देर बाद वह जिला हेडक्वाटर्स की ओर लौट गया था, जहाँ लाम की ओर जाने वाली बस उसका इंतज़ार कर रही थी।

    गाँव की हवा के आख़िरी झोंकों का स्पर्श पाने के लिए उसके साथियों ने बस की खिड़कियों के शीशे-खोल दिए थे और उनमें से कई एक तो दबे-दबे स्वरों में अपना प्रिय गीत भी गुनगुनाने लगे थे...

    यह आठ बरस पहले की बात थी और अब इतने अरसे के बाद, उसी पुराने झोले को पीठ पर कसे वह फिर से घर लौट रहा था। घिसकर तार-तार हो चुके झोले के स्ट्रैपों की मज़बूती बरकरार रखने के लिए लगाए गए लोहे के सख्त तार लगातार उसके कन्धे में गड़ रहे थे, लेकिन उसे इसकी परवाह नहीं थी। उसकी आँखों के सामने बार-बार पीठ पर झोला कसे, आईने में अपने-आपको निहारती पत्नी की वह आठ साल पुरानी छवि उभर जाती। बचपन से ही उसे पुरानी चीज़ों को संभालने और उनका ख़याल रखने की आदत थी और शायद यह इसी आदत का परिणाम था कि वह पुराना झोला अब तक उसके काम रहा था।

    पिछले आठ सालों में सिर्फ़ एक बार वह उस झोले से अलग हुआ था। तब उसे चोरी-छिपे सैगोन शहर में घुसना था। शहर के बाहर एक भरोसेमंद बुढ़िया को थैला सौंप वह स्वयं भेस बदलकर शहर में घुस गया था। सैगोन में कई महीने उसने छिप-छिपकर गुजारे थे, कभी सड़क पर फेरी लगाते हुए तो कभी रिक्शा चालक या गोदी मज़दूर की पोशाक पहनकर। महीनों उसे फुटपाथ पर या पुलों के नीचे या होटलों के बाहर सोना पड़ा था। और एक पूरा हफ़्ता तो उसने तान सोन न्हात के बारूद डिपो में बमों के ढेर के नीचे छिपकर तफ़रीही अंदाज़ में बमों के पलीते को दाँतों के बीच चबाते हुए गुज़ारा था। लेकिन इन सारे कठिन अनुभवों के बीच भी आईने में अपने-आपको निहारती पत्नी और उसकी पीठ पर कसे झोले की वह तस्वीर लगातार उसके साथ बनी रही थी।

    बाद में जब उनका दस्ता सैगोन से पीछे हट गया था तो उसने उस बुढ़िया माँ से अपना झोला वापस ले लिया था। फ़ौजी ट्रक में बैठकर जब वे विंच की ओर रवाना हुए थे तो उसने अपने झोले के साथ एक छोटी-सी गुड़िया बाँध ली थी (अपने दूसरे साथियों की तरह उसके मन में भी यह उम्मीद थी कि पत्नी के साथ आख़िरी सहवास का कोई सुखद परिणाम ज़रूर निकला होगा!)। इसके अलावा उसने झोले में कुछ मीटर लम्बे कपड़े का एक टुकड़ा और एक छोटा-सा पाना या स्पैनर भी डाल लिया था। गाँव की ज़िंदगी में कपड़े की अपनी उपयोगिता थी और स्पैनर से उसने जाने कितने अमरीकी बमों के ‘डिटोनेटरों’ का पलीता निकाला था। झोले में कुछ दूसरा फुटकर सामान भी था। छोटे हत्थे वाला एक अमरीकी डिज़ाइन का फ़ौजी खुरपा, जो बाग़वानी में या मेढ़क पकड़ने के लिए काम में सकता था; पैराशूट के सफ़ेद कपड़े का एक टुकड़ा, जिसे वह अपने घर के सामने टाँगने की सोच रहा था, और एक भारी छुरी, जिसके बारे में उसके साथियों की राय थी कि यह ज़रूर किसी-न-किसी समय अमरीकी राजदूत मार्टिन के रसोईघर में इस्तेमाल की जाती रही होगी।

    इतने बरसों बाद अपने झोले को पीठ पर लादकर गाँव की ओर लौटते हुए उसे काफ़ी गर्व महसूस हुआ कि वह झोला अब भी उसके साथ है। देखा जाए तो उसके लिए वह झोला उसमें रखे सामान से भी ज़्यादा क़ीमती था। उस झोले के साथ उसकी पत्नी की पुरानी यादें जुड़ी थी।

    अपने गाँव की ज़िंदगी के बारे में सोचते हुए उसके मन में एक अनकही उत्सुकता छलकने लगी। शायद अब वह अपने इलाके के ‘उत्पादन दस्ते’ का सरदार चुन लिया जाए। यदि ऐसा भी हुआ तो भी उसकी ज़िंदगी कम से कम पहले से बेहतर होगी, ऐसा उसे विश्वास था, क्योंकि लड़ाई में उनकी जीत हुई थी। उसके खेतों में अब ख़ूब धान उगेगा और वे लोग मज़े में गुज़र कर सकेंगे।

    ऐसा नहीं कि लड़ाई के मोर्चे पर उसे अपनी पत्नी के बारे में सोचते हुए कभी कोई चिंता ही नहीं हुई थी। लौटते समय जब वह ट्रेन में विन्ह से थान होआ रहा था तो उसके सामने बैठी औरतें किसी स्त्री से बात कर रही थीं, जिसने पति के लौटने का इंतज़ार नहीं किया और दुबारा शादी कर ली। उनकी बातों को सुनते हुए वह असहज हो उठा था और उसे अपनी पत्नी की बेसाख्ता याद आई थी। साथ ही अपने पर ग़ुस्सा भी महसूस हुआ था कि इन आठ वर्षों में उसने ‘अपनी पत्नी को ख़त क्यों नहीं लिखा। लेकिन सारी असहजता के बावजूद उसे विश्वास था कि पत्नी उसकी आठ वर्षों की ख़ामोशी के बावजूद उसी तरह उसका इंतज़ार कर रही होगी।

    अपने घर के बाहर फैले पेड़ों के झुरमुट को तो वह पहचान ही नहीं पाया। जब वह गया था तो पपीते का वह पौधा हाथ भर का भी नहीं था। अब वही पौधा पेड़ बन गया था और ऊपर से नीचे तक फलों से लदा था। बाक़ी पेड़ भी बड़े हो गए थे। जब वह गया था तो उसकी पत्नी ने मज़ाक में कहा था कि काश, वह जल्दी से गर्भवती होकर उन खट्टी इमलियों का भरपूर मज़ा ले सके! उसी पेड़ से अब सुनहरी रंग की लंबी-लंबी, पकी हुई इमलियाँ लटक रही थीं। उसने नज़र उठाकर अपने घर की ओर देखा तो दीवारों पर पुता पीले रंग का चूना उसे बहुत साफ़-सुथरा लगा। उसने अन्दाज़ा लगाया कि यह चूना उसकी पत्नी ने ज़रूर महीने में एक बार जिले के शहर में लगने वाले हाट में ख़रीदा होगा।

    दरवाज़े को धकेलकर वह घर के अंदर घुस गया। अभी नौ ही बजे थे और कमरों में ठंडक थी। अपनी पत्नी को चौंकाने के इरादे से वह केलों के झुरमुट के बीच से दौड़ता चला आया था और अब उसका पूरा जिस्म पसीने से तर-ब-तर था। ख़ाली कमरे में ठंडे बिस्तर पर बैठते हुए उसे अचानक एक गहरे अकेलेपन का अहसास हुआ। कमरे की हर चीज़ पहले से काफ़ी बड़ी और व्यवस्थित दिखाई दे रही थी।

    धान के बड़े पिटारे पर पुराना पुश्तैनी ताला लटक रहा था। उसे पता था कि उसकी पत्नी पिटारे की चाबी कहाँ रखती है, लेकिन उसने भीतर के धान का अंदाज़ लेने के लिए उसे सिर्फ़ ठकठका कर देखा। नवंबर में ताज़ा फसल कटती थी और यह फसल से पहले का आख़िरी अक्तूबर का महीना था। इस हिसाब से पिटारे में अब भी काफ़ी धान था।

    पीछे तार पर कपड़े सूख रहे थे। उसने अपनी पत्नी के पुराने ब्लाउज़ पहचान लिए। एक नया स्वेटर भी था। शादी के समय वाला स्वेटर शायद घिसकर फट गया होगा।

    अचानक उसकी नज़र तार पर सूखते, बच्चों के नए-नए पाजामों पर गई तो उसका दिल बल्लियों उछल पड़ा। काँपते हाथों से उसने एक पाजामा उतारा और उससे बच्चे की ऊँचाई का अंदाज़ लगाने की कोशिश करने लगा। ठीक उसी वक़्त हाथ में गुलेल थामे वह लड़का स्वयं कमरे में दाख़िल हुआ और एक अजनबी को अपना पाजामा टटोलते देखकर ठिठक गया।

    वे दोनों काफ़ी देर तक नि:शब्द एक-दूसरे की ओर देखते रहे। लड़का घबराकर चिल्लाने को हुआ था, फिर अचानक रुक गया था, क्योंकि उसके सामने खड़ा अजनबी शायद चोर नहीं था। कुछ क्षणों तक सोचने के बाद उसने अंदाज़ा लगाया था कि यह व्यक्ति कहीं उसका पिता तो नहीं! उसे मालूम था कि उसकी माँ उसके पिता को बहुत याद करती है। एक बार तो उसने पिता की वर्दी भी पहन ली थी और फिर आईने में अपने-आपको देखते हुए उससे पूछा था कि वह पिता जैसी लगती है या नहीं। लड़के ने समर्थन में सिर हिला दिया था, क्योंकि उस वर्दी में माँ उसे किसी सिपाही जितनी ही चुस्त और सजीली नज़र आई थी।

    ठिठककर उस अजनबी की ओर देखते हुए लड़के को लगा कि अगर वह उसका पिता ही है तो उसे सबसे पहले अपनी माँ को बुला लाना चाहिए। यह सोचकर वह बिना कुछ भी बोले तेज़ी से मुड़ा और वहाँ से बेतहाशा भाग निकला।

    अचम्भे में खड़ा पिता दौड़कर जाते उस लड़के को देखता रह गया। उसे देखते उसे उस सफ़ेद कबूतर की याद हो आई, जिसे उसने सुबह ही नहर के ऊपर से उड़कर जाते देखा था। फिर अचानक उसे डर-सा महसूस हुआ कि यह सब किसी गहरी निराशा का पूर्व-संकेत तो नहीं है। हड़बड़ाहट में बाहर निकलते हुए उसका पैर दहलीज़ से टकराया, लेकिन सारी जल्दबाज़ी के बावजूद उसे केले के पेड़ों के पीछे गुम होते उस लड़के की एक झलक मात्र ही दिखाई दी।

    “सुनो... सुनो...!” वह लड़के का नाम लेकर चिल्लाना चाहता था, लेकिन नाम उसे मालूम कहाँ था?

    वह लौटकर बिस्तर पर बैठ गया। बैठते-बैठते उसे दीवार पर टँगे टेढ़े आईने में अपना सकपकाया चेहरा दिखाई दिया तो सारी घबराहट के बावजूद उसके चेहरे पर मुस्कुराहट उभर आई।

    बिस्तर पर फैले कंबल और तकिये में से एक हलकी-हलकी ख़ुशबू उठ रही थी। नीचे पैरों तले ठंडी ज़मीन थी। उस ठंडक को पैरों से महसूस करते हुए उसे यक़ीन आया कि यह सब सपना नहीं, बल्कि वह सचमुच अपने घर में, अपने ही बिस्तर पर बैठा है। कनखियों से आईने में अपने-आपको देखते हुए उसने एक राहत की साँस ली। इस क्षण को अपनी कल्पनाओं में वह इससे पहले भी जाने कितनी बार जी चुका था।

    उसे लगा कि पिछले आठ वर्षों में उसने जो कुछ खोया था, वह सब उसे मिल गया है। और इस सबके ऊपर वह लड़का था, आठ वर्षों की लंबाई तक फैले आसमान पर किसी सफ़ेद कबूतर की तरह उड़ता हुआ। उसका नाम उसे मालूम नहीं था, लेकिन फिर भी उसके चेहरे का एक-एक नक्श जैसे उसका पहचाना हुआ था।

    इस बीच बाहर खेतों में दूसरी औरतों के बीच खड़ी उसकी पत्नी को किसी ने ख़बर दी थी कि एक सिपाही उसके घर की ओर जाता देखा गया है। वह उलझन में पड़ गई थी कि यह सिपाही कौन हो सकता था? उसका पति या फिर कोई और? अगर वह सिपाही उसका पति नहीं था, तब भी तो उससे उसका मिलना ज़रूरी था। हो सकता था वह बुरी ख़बर या मृत्यु का संदेश लाया हो, क्योंकि पिछले आठ वर्षों में पति का एक भी ख़त उसे नहीं मिला था।

    सिपाही के बारे में सोचते हुए उसे कुछ घबराहट-सी हुई, लेकिन फिर भी उस वक़्त सब-कुछ छोड़कर घर लौटना उसके लिए नामुमकिन था। दरअसल जिस जगह पर वह अन्य औरतों के साथ काम कर रही थी, उसी के नज़दीक मिट्टी में सुबह एक अमरीकी बम निकला था, जिसके फटने से एक सिपाही के साथ दो औरतें ज़ख्मी हो गई थीं। धमाके से पहले किसी का ध्यान बम की ओर नहीं गया था, लेकिन बम के फटते ही चारों ओर भगदड़ मच गई थी। ज़ख्मियों को अस्पताल पहुँचाया गया था और खुदाई का काम फिर से शुरू हुआ ही था कि कुछ मज़दूरों ने चिल्लाकर उसे अपनी ओर बुलाया था। वह उस टोली की अगुआ थी और खुदाई का काम उसी की देखरेख में चल रहा था। चिल्लाते हुए मज़दूरों ने बताया था कि खुदाई के मलबे के पास अभी-अभी उन्हें पहले से भी बड़ा एक और अनफटा बम मिला है।

    लोगों में फिर से भगदड़ मची थी तो उसने भोंपू की मदद से सबको शांत करने की कोशिश की थी। उसके प्रति आदर और सहानुभूति का भाव महसूस करते हुए लोग जहाँ-के-तहाँ खड़े हो गए थे। क्या ज़िंदगी है बेचारी की, वे सब शायद सोच रहे थे। पति की आठ सालों से कोई ख़बर नहीं, हालाँकि अब सैगोन को आज़ाद हुए भी छ: महीने होने को आए। लेकिन अब भी बेचारी कितनी लगन से काम कर रही है! भागने वाले मज़दूरों के गिरोह भी भोंपू पर उसकी आवाज़ सुनकर वापस लौट आए थे।

    लोगों को शांत करने के बाद वह तेज़ी से बम की ओर बढ़ी थी। उसे पता था कि सबकी निगाहें उसी पर टिकी हुई हैं। बम की ऊपरी सतह से मिट्टी साफ़ करते हुए उसे ज़रा भी डर महसूस नहीं हुआ, हालाँकि उसे समझ में नहीं रहा था कि इतने बड़े बम का सामना कैसे क्या किया जाए?

    तभी उसने बम पर लिखे अक्षर पढ़े थे तो उसका दिल दहल गया था। वह दो डिटोनेटरों वाला एम के 52 था, जिसे सुरंगें बिछाकर पीछे हटती अमरीकी फ़ौज ने ज़मीन में गाड़ दिया था। इसी बम की मार ने उसके गाँव के कई हिस्सों को उजाड़ डाला था। दोनों सिरों पर लगे डिटोनेटरों में से किसी एक के भी दबने से बम फटकर चारों तरफ़ मौत की तबाही फैला सकता था।

    ठीक यही वह क्षण था, जब उसका बेटा दौड़ा चला आया था और टीले पर खड़ा होकर हाथ के इशारे से उसे बुलाने लगा था। वह अपनी जगह से हिल नहीं पाई थी, लेकिन बम की उपस्थिति से बेख़बर लड़का सीधा उसकी ओर दौड़ता चला रहा था। शायद वह अपनी माँ को सब कुछ बताने के बाद ही चैन से साँस ले सकता था।

    बेटे की बदहवासी को भाँपते हुए किसी भी अन्य माँ की तरह वह हड़बड़ाई थी और उसे एक निश्चित दूरी पर रोक देने के इरादे से वह बम को वहीं छोड़कर लड़के के पास तक दौड़ गई थी।

    “माँ...माँ!” लड़के ने बमुश्किल हकलाते हुए कहा था, “पापा लौट आए हैं!”

    ज़रा देर के लिए उसे समूची दुनिया चक्कर खाती हुई सी लगी थी, लेकिन फिर दूसरे ही क्षण उसने अपने-आपको संभाल लिया था और संतुलित स्वर में लड़के से कहा था, “अच्छा!...तब तुम वापस जाओ। तुम्हारे पापा तुम्हारे लिए कोई-न-कोई तोहफ़ा ज़रूर लाए होंगे!”

    पति हो या कोई और, वह इस हालत में उस जगह को छोड़कर नहीं जा सकती थी। लेकिन घर में पति के लिए अब एक मिनट का इंतज़ार करना भी असंभव हो गया था। पता नहीं लाम पर पिछले आठ वर्ष उसने कैसे गुज़ारे थे! ज़रा देर रुककर उसने कुछ सोचा था और फिर कंधे पर उसी झोले को कसकर वह पत्नी को ढूँढ़ने के इरादे से घर से बाहर निकल आया था। खेतों के पास जमी भीड़ को देखकर वह भी उसी ओर गया। एक बूढ़े ने उसे देखकर ‘कौन है?’ पुकारा, और फिर ज़रा देर में ही सबने उसे पहचान लिया था। आठ सालों की विस्मृति के बावजूद वे उसे उसके प्यार के नाम से पुकारने लगे थे। सबकी निगाहें फ़ौजी लिबास पर टिकी थीं और वे हँस रहे थे, उसका कंधा थपथपा रहे थे और उससे तरह-तरह के सवाल पूछ रहे थे। फिर उसकी पत्नी की ओर इशारा कर उन्होंने ज़ोर-ज़ोर की आवाज़ें देकर उसे बुलाने की कोशिश की।

    एक मिनट गुज़र गया।

    उसने अपना झोला नीचे रखकर पत्नी के नज़दीक जाने का उपक्रम किया, लेकिन इससे पहले ही वह दौड़कर उसके पास चली आई।

    “वहाँ एक एम के 52 है!” पत्नी के पहले शब्द थे।

    “तो?...” वह कुछ हिचकिचाया, “उसे ठंडा करना है?”

    “लेकिन हमें पहली बार इस तरह का बम मिला है...” पत्नी का स्वर डरा हुआ था।

    “तो क्या हुआ!...बहुत आसान है उसे ठंडा करना। जैसे टिन का डिब्बा खोलते हैं, बिल्कुल वैसे ही। बस, स्पैनर को छ: बार घुमाओ...” उसने हँसकर दाँत दिखाए।

    इन आठ बरसों में उसकी बोली में दक्षिणी प्रांतों वाला लहजा साफ़ झलकने लगा था। लेकिन उसकी पत्नी को समझने में कोई दिक़्क़त नहीं हुई, बल्कि वह उसकी ख़ामोशी तक को समझ पा रही थी।

    “तो चलो फिर...”

    पत्नी के उत्तर देने से पहले ही उसने अपना झोला खोल लिया था और उसमें से पहले खुरपा, फिर छुरी और आख़िरकार वह स्पैनर बाहर निकाला था। स्पैनर को हाथ में लेकर झोला बंद करते-करते वह बोला, “ज़रा भी अंदाज़ा नहीं था कि फ़ौजी ट्रेनिंग यहाँ भी काम आएगी!”

    ख़तरे के घेरे के बाहर, खोदी जाने वाली नहर के दोनों ओर लोगों की भीड़ जमा हो गई थी। उसे लगा कि सबकी निगाहें उसी पर जमी हुई हैं।

    जैसे ही उसने उस जानलेवा बम के डिटोनेटर के पेच में अपना स्पैनर फँसाया (वामको नदी पर उसके तीन साथी इसी एम के 52 के डिटोनेटर को खोलते हुए मारे गए थे) उसका मन हुआ कि पत्नी से पूछे, “लड़के का नाम क्या है?”

    अक्तूबर की उजली धूप में पंख फड़फड़ाता वही सफ़ेद कबूतर फिर एक बार उसके ज़ेहन में कौंध गया। उसे पहले ही पत्नी से लड़के का नाम पूछ लेना चाहिए था, लेकिन पत्नी ने इस एम के 52 के चक्कर में उसे गड़बड़ा दिया था। ख़ैर, अब तो उसे नाम मालूम हो ही जाएगा।

    बहुत सावधानी के साथ वह पहले डिटोनेटर का पेंच घुमाने लगा।

    स्रोत :
    • पुस्तक : विश्व की श्रेष्ठ कहानियाँ (खण्ड-2) (पृष्ठ 359)
    • संपादक : ममता कालिया
    • रचनाकार : न्यूगेन क्वांग थांग
    • प्रकाशन : लोकभारती प्रकाशन
    • संस्करण : 2005
    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

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