रोज़ सवेरे उसे भेजा जाता था बेकर की दुकान पर। गाँव की बिल्लियों की तरह काली-काली दीवारों में से निकल कर बाहर आ जाते थे वे काले उपनिवेशी फ्रेंच बच्चे जो उसके क़दमों के निशानों पर क़दम रख कर उसका पीछा करते थे। वह यह तो नहीं समझ पाता था कि वे बच्चे क्या बातें करते थे, मगर वह उनकी हँसी को समझ लेता था और मान लेता था कि वे उसे एक अजनबी की तरह देख रहे हैं। घर से निकलते ही, हर गली, हर दरवाज़े, हर पगडंडी पर चलते-चलते, पीछे मुड़कर वह अधडरी मुद्रा में देखता और उन बच्चों की अनचाही उपस्थिति से घबराया डरी-डरी नज़रों से यह भाँपने की कोशिश करता कि आख़िर वे ऐसा क्यों करते हैं? बच्चों ने बेकर की दुकान तक उसका पीछा नहीं किया। शायद बेकर उन बच्चों को अपने तक आने ही नहीं देता था। वे बच्चे बड़े ग़रीब दिखते थे और उन्हें मालूम था कि बेकर उन्हें एक प्रकार का चोर मानता था, ऐसा चोर, जो घर पर पड़े काले नीग्रो शिशुओं के लिए ब्रेड चुराया करते थे। वह अपने दक्षिण अफ़्रीकी घर से कभी बेकरी पर नहीं गया। वहाँ तो एक काला बेकरी वाला साइकिल की घंटी टनटनाता गली के भौंकते कुत्तों से डरता-बचता यार्ड में आता था और एक सफ़ेद और एक ब्राउन ब्रेड किचन की टेबल पर रख कर चला जाता था। ऐसा ही सब्जी वाला, फल वाला और फेरी वाला भी करता था। एक दिन एक भारतीय बूढ़े वल्लभ भाई ने अपने घर के पीछे एक लॉरी रुकवाई। लॉरी वाले के काले नीग्रो नौकर से वल्लभ भाई ने जो-जो ख़रीदा, वह सब ले जाकर घर के अंदर रख दिया।
लेकिन परिवार के लोगों का कहना था कि छोटी-छोटी गलियों में दबी-छुपी दुकानों से सामान लेने में जो मज़ा है, वह फेरी वालों से लेने में नहीं। वे उससे बार-बार फ्रेंच में ब्रेड-ब्रेड पुकारने को कहते, मगर आवाज़ कोई कैसी भी दे एक बार अगर कोई बेकर की दुकान में घुस गया तो वहाँ के लोग उसी ब्रेड की ओर इशारा करते थे जो चाहिए होती थी, वे ब्रेड देते और उसके हाथों में रखे पैसे ले लेते थे। उसे लगता जैसे वह कोई अलग क़िस्म का आदमी हो, शायद कोई गूँगा। अगर किसी दिन उसका मन कोई नई चीज़ ख़रीदने का होता, तो वह चमकदार मुरब्बे से चुपड़ी मीठी ब्रेड की तरफ़ इशारा करता। इस तरह वह दुकानदार का एक पक्का ग्राहक बन गया। जो औरत उसे ब्रेड वगैरा निकाल कर देती, वह उससे बतियाती, मुस्करा कर उसके गाल थपथपाती, सर पर हाथ फेरती, उसकी हथेली पर रखे पैसे उठा लेती और वह गुमसुम इन हरकतों पर खड़ा रहता, कोई जवाब नहीं देता।
एक लड़का और था, जो कभी-कभी अक्सर अपने साथियों के झुँड में दिख जाता था। वह जब भी अपने साथियों को देखता तो गली के पार से चिल्लाकर अभिवादन करता, उनकी ही भाषा में कुछ ख़ुशी ज़ाहिर करता फिर उनके पास जाकर उनसे बातचीत करने लगता। वह लड़का बिल्कुल अलग तरह का था और यह लड़का मानता था कि वह कुछ ज़्यादा मालदार है। वैसे तो वह लड़का कैनवास के जूते और सूती नेकर ही पहनता था, मगर उसके कंधों पर तरह-तरह की लुभावनी चीज़ें लटकी रहती थीं, जैसे कि एक कैमरा और चमड़े के दो ख़ूबसूरत केस। वह भी प्रतिदिन बेकरी में दिखाई देने लगा। वह बेकरी में बिलकुल पास आकर खड़ा हो जाता, कुछ भी नहीं बोलता, भीड़ में एक अदृश्य आदमी की तरह, एक गूँगे आदमी की तरह। वह अपने सुनहरे भूरे बालों की घनी चमक के बीच से बड़ी भाँपने वाली निगाहों से देखता रहता, अहसास ऐसा कराता जैसे वह काउंटर की टॉप पर रखी केक देख कर अपने आप से मज़ाकिया ढंग से बात कर रहा हो, या उस स्त्री से अत्यंत आत्मीय लहज़े में बतिया रहा हो, जैसे वह पहले से परिचित हो। वह अपने साथियों के झुँड के बिना भी कई अन्य जगहों पर दिखाई देता था। एक बार वह एक मेहराबनुमा रास्ते की सुरंग में झुककर देखने लगा, जिसमें से किसी स्कूल के मूत्रालय जैसी बदबू आ रही थी। वह बदबूदार गली, जो जल्दी से ऊपर से नीचे पहुँचने का रास्ता था, वह उस गली को पार कर गया। गली पर एक गुलाबी धारीदार मकान के दरवाज़े से हाथों में अलीबाबा के बर्तन लेकर एक आदमी बाहर निकला। ऐसा लगता था कि वह खिड़की की तरफ़ गौर से देख रहा हो, फिर वह ऊपर टॉप पर खड़ा होकर अपने शरीर का संतुलन करने लगा और दीवार के आर-पार झाँकने लगा। दीवार के पार बेकरी वाला और अन्य लोग एक भारी गेंद से खेलते नज़र आ रहे थे। वह उस दरवाज़े के पास से निकल कर आगे बढ़ गया। कुछ दूरी पर जाकर उस दरवाज़े के सामने पालथी मार कर बैठ गया और कैमरे के अंदर कुछ न कुछ करने लगा। उस आदमी ने घर के बाहर से पूछा—‘क्या तुम अंग्रेज़ हो?’
‘हाँ, मगर सच पूछा जाए तो—नहीं...नहीं। मेरा मतलब मैं अँग्रेज़ी बोलता तो हूँ, मगर मैं रहने वाला दक्षिण अफ़्रीका का हूँ।’
‘अफ़्रीका? तुम अफ़्रीका के रहने वाले? अरे, वह तो एक नर्क है।’
—क़रीब पंद्रह घंटे हो गए। हम एक जेट विमान से आए थे। हमें थोड़ा ज़्यादा वक़्त लगा, क्योंकि शायद एक इंजिन में कुछ ख़राबी आ गई थी। हमें आधी रात को केना में तीन घंटे इंतज़ार करना पड़ा। ‘सुना लड़के! बड़ी गर्मी थी, और आसपास ऊँट मंडरा रहे थे।’ —यह क़िस्सा अचानक ही बंद हो गया। अक्सर ऐसी कहानियाँ परिवार के लोग बढ़ा-चढ़ा कर कहते हैं, जिनसे ऊब पैदा होती है।
मेरे पास कुछ मनोरम और मज़ेदार अनुभव हैं। मेरे माता-पिता सारी दुनिया की सैर करते फिरते हैं। मैं भी उनके साथ जाता हूँ, अधिकांश वक़्त! मैं अपने घर वापस बहुत थोड़े समय के लिए आता हूँ और सिर्फ़ पतझर के मौसम में ही स्कूल जाता हूँ। अफ़्रीका! अद्भुत! हम वहाँ कभी-कभी बाहर निकल पड़ते हैं। आप इन रंगीन पोलोरॉइड फ़ोटोग्राफ़ों को देख रहे हैं न? यह चित्र देखो, यहीं अटक गया है। मैंने तुम्हारे भी कुछ फ़ोटो उतारे हैं। तुम्हें दिखाता हूँ। मैं बहुत साफ़ और बढ़िया फ़ोटो खींचता हूँ। सारी दुनिया में मेरा जवाब नहीं। मेरे पास एक कैमरा और है—मिनॉक्स कैमरा। मगर मैं यही कैमरा काम में लेता हूँ, क्योंकि इसमें अंदर ही प्रिंट अपने आप बन कर बाहर आ जाता है। इससे हम लोगों को फ़ोटो उसी समय दे सकते हैं। यह देखो, यह फ़ोटो हँसने-हँसाने के लिए कितना अच्छा है। मेरे पास कुछ और मज़ेदार फ़ोटो हैं।
‘मैं इस गली में आख़िर हूँ कहाँ?’
‘अरे मैं तो पूरे वक़्त फ़ोटो ही खींचता रहा हूँ। सब जगह के फ़ोटो।’
‘उस दूसरे केस में क्या है?’
‘टेप रिकार्डर, मैं आपकी आवाज़ भी टेप करूँगा। मैं लोगों को ज़िज़ी के शराबघर में इसी तरह टेप कर लेता हूँ। उनको पता भी नहीं चलता कि मैं ऐसा कर रहा हूँ।’
‘अरे! यह कैसी आवाज़ सुनी मैंने। मेरे टेप में एक छोटा-सा बहुत शानदार माइक्रोफ़ोन है। किसी को दिखाई नहीं देता।’
‘और इस केस के अंदर क्या है?’
उसने एक चाँदी का छड़ीनुमा एरियल खींच कर निकाला। ‘मेरा ट्रांजिस्टर-मेरा प्यारा ट्रांजिस्टर! जानते हो इसमें मैंने क्या सुना? ‘हेल्प’ वाले गीत का रेकार्ड। ताज्जुब! बीटल्ज़ (अंग्रेज़ी-अमरीकी संगीतकार लड़कों का प्रसिद्ध समूह) ओह बीटल्ज़! यहाँ अफ़्रीका में भी इतने लोकप्रिय!’
‘हमने उन्हें लंदन में देखा था—एक लाइव कार्यक्रम में। मेरे साथ मेरे भाई-बहन भी थे। मेरी बहन तो ‘हेल्प’ का रेकार्ड ख़रीद भी लाई। मगर यह रेकार्ड यहाँ बजाने का मतलब ही क्या, इसलिए तो हमने बजाया नहीं।’
‘बड़ी अच्छी बात है। कुछ प्रतिभाशाली लड़कों को ज़रा जल्दी ही मौक़े मिल जाते हैं। तुमने तो उनको देखा ही था। मैंने भी अपने बाल उनकी ही तरह कैसे बढ़ा लिए थे। कुछ तो बोलो यार! देखो, मैं अपना पोर्टेबल रेकार्ड-प्लेयर लेकर आता हूँ। तुम्हारी बहन उस पर अपना यह रेकार्ड सुन सकती है।’
‘तुम किस वक़्त आ सकते हो?’
‘आप जब कहें, मैं तो ख़ाली हूँ। सिर्फ़ मुझे अभी अभ्यास के लिए जाना है, मैं दोपहर को आ जाऊँगा, बुजुर्ग मदाम ब्लेंच के बाहर जाने के पहले। वहाँ लंच लेकर, उसके बाद आपसे ज़रूर मिलूँगा। क़रीब दो बजे।’
‘मैं आपका इंतज़ार करूँगा। क्या मेरे फ़ोटो भी लेते आएँगे?’
क्लाइव एक छोटे बरामदे से दौड़ता हुआ आया। उसने वह झूलता पर्दे वाला दरवाज़ा झटके से खोला। घर्र-सी आवाज़ हुई, और उसने दरवाज़ा झूलता छोड़ दिया।
‘हेय! देखो यहाँ एक लड़का है जो अँग्रेज़ी बोल सकता है। अभी-अभी इसने मुझसे अँग्रेज़ी में बात की है। वह वास्तव में एक सही अमरीकन है। थोड़ी देर रुको। देखो उसके पास क्या है? एक कैमरा। उसने मेरे कुछ फ़ोटो भी खींचे, मगर मैं तो उसे जानता तक नहीं। उसके पास एक छोटा-सा टेप-रिकार्डर भी है। उस पर लोगों की आवाज़ इस तरह से ली जाती है कि लोगों को पता भी नहीं चलता। ट्रांजिस्टर तो उसके पास इतना छोटा है कि वैसा मैंने पहले कभी नहीं देखा।’
‘हाँ, तो तुम्हें एक दोस्त मिल गया।’ उसकी माँ ने कहा ‘भगवान भला करे।’ वह सलाद के लिए हरी मिर्च काट रही थी। उसने चाक़ू की नोंक पर सलाद का एक टुकड़ा आगे कर दिया लेकिन उसकी तरफ़ देखा नहीं।
‘वह तो सारी दुनिया में घूमता फिरता है। अब अमरीका जा रहा है। वहाँ वह बहुत कम समय के लिए स्कूल भी जाता है। मैं नहीं जानता, उसने ‘फॉल’ के बारे में कुछ कहा है। वह शायद स्कूल होगा।’
‘अरे मूरख! फॉल कोई किसी जगह का नाम नहीं है। फॉल का मतलब पतझर होता है।’
घर में जो फव्वारा बना था, वह रसोईघर से सटा हुआ था और नहाने की जगह एक अलमारी की तरह थी। उसका दरवाज़ा खिसका कर खोला जाता था। दरवाज़ा अंदर की तरफ़ अपनी फ़्रेम में हमेशा हिलता रहता था।
‘तुम बड़े ही जल्दबाज़ हो। दरवाज़ा इतने झटके से खोलते हो?’ उसकी बहन ने कहा, ‘इससे तुम्हें क्या मिला?’ उसके चेहरे पर बड़ी-बड़ी इच्छाओं, आकाँक्षाओं की चमक थी। प्लास्टिक की छोटी चमकदार टोपी के बीच से झाँकता उसका चेहरा। कितना मासूम!
‘जेन! चलो अब रेकार्ड सुन सकते हैं। वह रेकार्ड-प्लेयर लेकर आ रहा है। जानती हो वह अमरीका का रहने वाला है।’
क्या उम्र होगी?’
‘यही, तकरीबन मेरी उम्र का होगा।’
उसने अपना हैट उतारा। उसके लंबे, घने सीधे केश; चेहरा, पलकों आदि को ढँकते हुए कंधों पर बिखर गए। उसने कहा, ‘बहुत अच्छे! बीटल्ज़ के बालों की तरह।’
उसके पिता डाइनिंग टेबल की कुर्सी पर बैठ कर ‘नाइस मैटिन’ पढ़ने लगे। वह किताब एक ख़ूबसूरत गुड़िया की तरह थी, जिस पर पीला कवर स्कर्ट की तरह था, जो उसकी जिल्द पर फिट था।
जैसे ही लड़का कुछ बोला, उसने एक असफल-सी कोशिश की और बड़े आत्मीय तरीक़े से उसका पैर दबाया। उसे लगा कि लड़का अब कोई मज़ेदार मुद्रा दिखाएगा, यह जताते हुए कि उनकी एक-एक बात सुन रहा है वह पूछने लगा, ‘तुम्हारे दोस्त का नाम क्या है?’
‘अरे—यह तो मुझे पता ही नहीं कि वह अमरीकन है। वह तो अभी एक छोकरा ही है। मगर उसके पास तीन-तीन चमड़े के केस हैं।’
‘तुम्हें वह आज दोपहर को मिल सकता है। उसके बाल बीटल कट में बड़े-बड़े हैं, अच्छे लगते हैं।’ ये शब्द उसने उस छोटी लड़की से कहे। लड़की एकदम मुड़ी और एक पथरीले ज़ीने पर अपने गीले-गीले पैरों के निशान बनाती ज़ीना चढ़ गई।
सच पूछा जाए तो जेनी लड़की की उम्र पार कर गई थी और वयस्कों की तरह मिलती-जुलती थी। वह एकदम से पूछने लगी—‘तो लड़का अमरीकी है।’ ‘कौन?’ उसे एक पूरा जवाब मिला। ‘हाँ’ मैं हूँ वह लड़का। मुझे अक्सर मैट कह कर पुकारते हैं, लेकिन यह तो मेरे बीच के नाम का संक्षिप्त है। वास्तव में तो मेरा नाम निकोलस मैथ्यू रुटेस कैलर है।’
‘बहुत जूनियर, बहुत छोटे हो अभी।’ उसने उसे छेड़ते हुए पूछा, ‘बीच का नाम तो ठीक, अच्छा बताओ तीसरा नाम क्या है?’
‘अरे नहीं, नहीं, आख़िर मुझे ऐसा क्यों होना चाहिए? मेरे पिता का नाम तो डोनल्ड रुटेस कैलर है। मेरा प्रथम नाम तो मेरे नाना के परिवार पर रखा गया है। मेरी माँ का तो बड़ा भारी भरकम परिवार था। उसके पाँच भाइयों ने युद्ध में पाँच-पाँच अलंकरण हासिल किए थे। मेरा मतलब है तीन तो जर्मन युद्धों में और दो कोरियन युद्ध में। मेरे छोटे चाचा का नाम रॉड था, उनकी पीठ में एक छेद था, ठीक पसलियों के पास, उसे हाथ लगा कर महसूस कर सकते थे। मेरा मतलब मेरा हाथ।’ —उसने अपनी छोटी-छोटी मुट्ठी तान कर अपना हाथ बताया, जो किसी वयस्क हाथ जैसा नहीं लगता था। ‘अच्छा यह बताओ, मेरे हाथ को और कितना मोटा होना चाहिए? क्या इतना ही और? ताकि, वह एक पूरे बड़े आदमी के हाथ जैसा लगे?’ उसने अपने हाथों को क्लाइव के हाथों से मिला कर मापा। दो दस-दस साल की मुट्ठियाँ उत्सुकता के साथ उसने क्लाइव की मुट्ठियों से मिला दीं।
‘तुम्हारी और क्लाइव की मुट्ठियाँ मिल कर बड़ी हो जाएँगी—बिलकुल किंग साइज़ की। ठीक किसी बड़े आदमी के पंजे जैसी। अच्छा अब यह कूपन पकड़ो। इसके ऊपरी सिरे पर एक चौखाना चिपकाओ, ठीक उसी से मिलता-जुलता।’
लेकिन बड़े भाई की ललचाई बातों पर किसी ने ध्यान नहीं दिया या फिर उन्होंने ही इन दो छोटे लड़कों को ग़लत समझा। क्लाइव कुछ दबी ज़बान से कहना चाहता था, उस विज्ञान-पत्रिका की शान बघारते हुए वह उसके बारे में अपनी राय दे सकता था, जिससे उसका दोस्त जुड़ा हुआ था। मैट बड़ी मासूमियत के साथ एक ऐसे बच्चे की तरह बोलता चला गया, जिसकी स्वाभाविकता को सबने स्वीकार लिया, ठीक उसी तरह जैसे कोई शिशु माँ की गोद में हो।
वह अक्सर उस दोपहर के बाद से उस निवास (प्लेस) पर आने लगा और उसके रेकार्ड-प्लेयर पर पहली बार हमने बीटल का नया रेकार्ड सुना। जवान लड़कों के पास तो उसकी प्रतीक्षा के सिवा और कोई काम था नहीं, मगर माँ-बाप दोपहर के भोजन के बाद आराम करने चले जाते थे। (घर के आसपास की जगह जहाँ जेनी को शाम को टहलना पसंद था, और जहाँ वह टहलते-टहलते कुछ मनचले लड़कों की नज़रें अपनी ओर खींचती थी, उस दिन बड़ी उदास या मायूस लगी। लड़के नज़रें बचा कर घूरते भर थे, मगर उन्हें उसकी भाषा तो आती नहीं थी)। इसलिए उस समय हाउस के आँगन में बैठ कर वे बार-बार वह रेकार्ड सुनते रहते थे।
वह प्लेस यानी निवास, एक किसान के बड़े मकान में बदलने के पहले सुअरों का बाड़ा था। जब रेकार्ड धीरे-धीरे पूरा हो जाता, तो मैट उन लोगों की आवाज़ें टेप करता, ‘कोई अफ़्रीकी बात कहो’ और मार्क जुलू बोली के कुछ शब्द गड्ड-मड्ड करके बोलने लगता। वे लड़के इसके जुलू में बोले गए कुछ टूटे-फूटे शब्द समझ लेते। कभी-कभी वह कुछ गंदे और जोशीले शब्द बोलता, जो गालियाँ होती थीं या अफ़्रीकन कबीलों के कुछ प्रचलित मुहावरे, या परिचित सड़क-संकेतों के शब्द। जैसे—‘साका बोना, वाएटेसक, हेम्बेकाबल, हो तिक्स मालिंगी-मुशल, व्रायॅस्टाट।’ भाई-बहन कुर्सी की दो टाँगों को उचका कर झूलते और बतियाते। मैट बड़ी बारीक़ नज़रों से देखता और उनकी बातें ऐसे सुनता, जैसे कोई पक्षीशास्त्री किसी दुर्लभ पंछी की आवाज़ सुन रहा हो। ‘बहुत अच्छे, बहुत अच्छे लड़के! शुक्रिया, शुक्रिया! ये सारी बातें, ये सारे शब्द उस डाक्यूमेंट्री में होंगे, जो मैं बनाने वाला हूँ। डाक्यूमेंट्री का कुछ भाग मेरे पिता के मूवी कैमरे से बनेगा और उसमें कुछ मेरे अचल चित्र भी होंगे। अभी तो मैं पटकथा तैयार करने में लगा हूँ। वह घर पर रखी है।’ उसने उन लोगों को यह भी बता दिया कि उसके पिता एक किताब लिख रहे हैं। कई किताबें, एक-एक किताब एक-एक देश पर, उन देशों पर जहाँ-जहाँ वे गए और इस काम में माँ भी मदद कर रही है। वे लोग तो अपना काम बड़ी मुस्तैदी और तन्मयता से करते हैं। वे दोपहर के पहले अपना काम शुरू करके रात को एक बजे तक अपने काम में लगे रहते हैं। यही वजह है कि मुझे भी घर से सुबह बहुत जल्दी बाहर निकल जाना पड़ता है। मैं तब तक घर वापस नहीं आता जब तक वे जाग कर लंच के लिए नहीं उठ बैठते। मैं इस वजह से भी घर से बाहर रहता हूँ कि उनको शांति की ज़रूरत है। सोने के लिए भी और काम के लिए भी।
जेनी बोली, ‘तुमने उसकी नेकर देखी? मद्रासी कपड़े की नेकर? मद्रासी कॉटन जिसके बारे में तुमने पढ़ा है। इसे धोते हैं, तो इसके रंग और चटख उठते हैं। मेरी इच्छा थी काश, ऐसा कपड़ा तुम भी यहाँ ख़रीद पाते।’
‘डेड! वह ट्रांजिस्टर भी गज़ब का है। उधर देखो, मार्क आँगन में झंडे के चबूतरे पर धूप में सर लटकाए इस तरह बैठा है, जैसे उसने पूरे साल अपने घर पर धूप खाई ही न हो। हाँ, फ्रांस में वह धूप सेंकता तो ज़रूर था, मगर इस तरह सूरज की गरम धूप में नहीं बैठता था।’
‘ठीक है। वे लोग अपने बच्चों को बुरी तरह से बिगाड़ देते हैं। इसी का एक नमूना यह है। इसके पास पचास पाउण्ड का एक कैमरा खिलौने की तरह है। बड़े होकर इनके जीवन में किस बात की कमी रहेगी?’
क्लाइव को पूरे समय मैट के बारे में बातचीत करना अच्छा लगता। वह बोला, ‘अमरीका में उसके पास एक जादुई कुटिया है। अभी-अभी उन्होंने उसे बेच दिया है, क्योंकि वे दुनिया भर की सैर करते फिरते हैं और वहाँ तो बहुत ही कम रह पाते हैं।’
माँ बोली, ‘बड़ा ही शैतान है वह बच्चा। गर्दन में दुनिया भर के गंडे ताबीज़ और कबाड़खाना लटकाए फिरता है और अपनी गंदी गली में ही पड़ा रहता है।’
क्लाइव ‘हो...हो’ करके चिल्लाया, ‘हाँ कबाड़ा, कूड़ा-कर्कट, सही तो है।’ उसने अपने कंधे उचकाए और अपनी हथेली मसल कर घुमाई। ‘यक़ीन जानिए, उस कूड़े के मुक़ाबले तो सैकड़ों डॉलर भी कहीं नहीं लगते। जिसे तुम कूड़ा कहती हो, उसके बारे में तुम्हें पता-वता कुछ है नहीं और यों ही बड़बड़ाती हो।’
‘अच्छा मिस्टर बताओ तो ज़रा, एक डॉलर होता कितना है?’ जेनी ने डॉलर को अपनी मुद्रा में बदलने वाली टेबल रट रखी थी। यह टेबल उसे हवाई जहाज़ में चढ़ते वक़्त ट्रेवल एजेंट ने दी थी।
‘मैं नहीं जानता कि कितना होता है। मैं तो अमरीका के बारे में बात कर रहा हूँ।’
क्लाइव के पिता रोज़ उसे समझाते, “देखो बेटा, तुम्हें उस लड़के के साथ गाँव के बाहर नीचे उतर कर नहीं जाना है। घूमना है, तो गाँव में ही घूमो।’
वह परिवार के साथ भी कभी गाँव के बाहर नहीं गया। न उसने आज तक एंटीबीज का अजायबघर जाकर देखा, न वेल्लोरिस की मिट्टी की पॉटरी और यहाँ तक कि मारकेरिलो के महलों, केसिनो (जुआघर) और मछलीघर देखने भी वह कभी नहीं गया। वही पुराना गाँव, चहारदीवारी से घिरा, बेतरतीब गलियों वाला, एक अजीब जगह, जो उतना ही असमंजस और भ्रम पैदा करता है, जितना कि योरप के स्मारकों पर लिखी और लिखकर बार-बार बदल दी गई तारीख़ें। यही उसके और मेरे लिए जाना-पहचाना गाँव का नक़्शा था, जिसके सीमित दायरे में हमें घूमना पड़ता था। गली की बिल्लियाँ भी लोगों के साथ इस नक़्शे पर विचरती रहती थीं। लोग न जाने क्या बड़बड़ाते रहते थे, उनकी भाषा समझ में नहीं आती थी, मार्ट और वे जो काम करते थे वह बड़े गोपनीय ढंग से होता था, क्या गतिविधियाँ होती थीं कुछ भी समझ में नहीं आता था। वे सवेरे से शाम तक किसी गंभीर उद्देश्य से घूमते रहते थे। कई बार वे किसी कोने में दुबक कर छुप जाते थे। वे चाहते थे कि सड़क पार करते उन्हें कोई न देखे, वे दोपहर बाद की किसी भीड़ के लोगों की तरह लगना नहीं चाहते थे।
उन काले बच्चों से एक काम जो जबरन कराया जाता था वह था किसी गिरजाघर से मुर्ग़ाजाली उठाकर ले आने का। अगर कहीं कोई रंगीन काँच के टुकड़े या बदरंग मोज़ेक की पपड़ी मिलती तो उसे उठा लाते और यह काम इस प्रकार करना पड़ता था कि कोई स्कूल के नीचे खिड़कियों से उन्हें देख न ले। यह काम वे सुबह तब करते थे, जब स्कूल चलता था। वह स्कूल एक प्रकार से पत्थरों का घर था। उसमें कोई खेल का मैदान नहीं था। रोज़-रोज़ एक जैसा कोरस बच्चे गा-गा कर ऊब जाते थे। उनकी आवाज़ मुझे अपने देश के काले बच्चों के स्कूलों की याद दिलाती थी। कभी गाँव के बच्चे पूँछ लगा कर जानवरों की नकल करते, और हँसी मज़ाक करते या कभी बेहद चुप्पी धारण कर लेते थे, जिसे तोड़ना लगभग असंभव होता था। लड़कियाँ भी वहाँ होती थीं। जल्दी ही उसने उँगलियों के ज़रिए अपमानजनक इशारे करना सीख लिया था। वह कई शब्द नहीं जानता, उसने एक शब्द फ्रेंच में चिल्लाना भी सीख लिया था। शायद, वह गाली का शब्द ‘मरदे’ था, जिसका मतलब कोई गंदी माँ की गाली होता है।
मैट हमेशा बातें किया करता था। वह फ्रेंच की ही तरह उतार-चढ़ाव से भरी ऊँची और ख़ुशी भरी आवाज़ में ज़रा गोपनीय ढंग से अँग्रेज़ी बोलता था। कई बार वह बड़ी उत्तेजित आवाज़ में लोगों का अभिवादन करता और ऐसा लगता, जैसे उसकी ध्वनि उसके मुँह से उछलकर बाहर आ रही हो। उसकी तेज़ आवाज़ दीवारों से टकराकर वापस जाती और उसकी वह रहस्यमय ढंग से बोली जाने वाली अँग्रेज़ी सुन कर उन लड़कों के सर झुक जाते थे। यहाँ तक कि जब उसकी आवाज़ बिल्कुल धीमी हो जाती थी, और वह मात्र फुसफुसाता तो उसकी गोल-गोल काली आँखों से बाहर निराशा झाँकने लगती थी, उसकी दबी-दबी नाक के ऊपर चालाकी भरी त्यौंरी चढ़ जाती थी, कोष्ठकों की तरह उसकी भौंहे तन कर ऊपर-नीचे होने लगती थीं और जो भी उसके आसपास होते थे, सबके सब चौंक जाते थे। वह अजनबियों का स्वागत भी उसी तरह करता था, जिस तरह अपनों का करता था। कुछ लोग भ्रमण पर आते तो वह उनके पास जाकर खड़ा हो जाता और उनकी ओर देखता रहता और कभी कोई नलकर्मी मेन-होल खोलने आता तो उससे वह बड़े जोशीले ढंग से बातचीत करता। जब वह अपने साथियों के साथ फ्रेंच बोलता, तो उसकी फ्रेंच उन गाँव के बच्चों की फ्रेंच से थोड़ी बेहतर होती थी। मैट कंधे उचकाता और नीचे का होंठ बाहर निकाल-निकाल कर बोलने लगता। अगर कुछ लोग उसके इतना बोलने से तंग आ जाते या ताज्जुब महसूस करते तो वह उनसे प्रश्न करने लगता। (क्लाइव को सुन कर पता चल जाता था कि वे लोग प्रश्न कर रहे हैं)। उसके प्रश्न करने का तरीक़ा बड़ा मज़ेदार होता था। ऐसे प्रश्नों से बच्चों की झेंप मिट जाती थी।
मैट बातूनी था। कभी-कभी वह किसी को बातचीत करते बुलाता तो घर के दरवाज़े के सामने रास्ते पर कुर्सी डाले बैठा व्यक्ति उसकी बात शुरू होने से पहले ही उठकर अंदर चला जाता और दरवाज़ा बंद कर लेता। इस पर वह अँग्रेज़ी में बड़े तेज़ स्वर में कहता ‘इस शहर के लोग सचमुच थोड़े-बहुत सनकी हैं। मैं इन सबकी असलियत जानता हूँ, हर एक की। कोई मज़ाक नहीं कर रहा हूँ।’ पास ही जो झुर्रियों से भरे चेहरे वाली बूढ़ी औरत लंबे काले मोजे, लंबा एप्रन पहने, काला चौड़ा हैट लगाए मकान में बैठी-बैठी ओपन रेस्त्राँ के लिए फलियाँ छीलती दिखाई देती, वह उसकी बात सुन कर, अपना अखरोटी रंग का पके गोश्त-सा चेहरा उठाकर हिस्स की आवाज़ करती, जैसे कोई हँस बोल रहा हो।
मैट उससे जाकर मिला था। ऐसा मेरे पिता ने बताया था। यह उस वक़्त की बात है, जब पेरिस में बाढ़ आई थी। एक विशालकाय औरत ने इसके नाम का एक बड़ा-सा पोस्टर अपने सीने पर लगा कर उसका प्रदर्शन किया। वह पोस्टर पहनकर ऐसी लगती थी, जैसे कि पत्थर की तरह फासिल हो गए पेड़ के तने पर कोई नई टहनी हो और उसमें पत्ती आ गई हो। वह मैट की तरफ़ मुँह बना-बना कर गुर्राई। मेरे पास उसके कुछ फ़ोटो हैं, बड़े ज़बरदस्त और शानदार। सच पूछा जाए तो वह एक वैभवशाली पुरानी महिला थी।
मैट ने एक और फ़ोटो लिया, जिसमें एक आदमी एक बंगले के पीछे पार्किंग की जगह पर एक लड़की का चुम्बन ले रहा था। मैट ने उसका पीछा किया। क्लाइव भी अब उसके आसपास अपना बॉक्स-कैमरा लेकर चल पड़ा, लेकिन उसने केवल बिल्लियों के फ़ोटो खींचे। मैट ने एक बौने का फ़ोटो खींचने का भी क्लाइव को आश्वासन दिया। वह बौना वास्तव में मनुष्य था, किसी सर्कस का बौना नहीं था। वह उस रेस्त्रां में बैरा बन गया था और मेमने का गोश्त ख़ास तरह से पका कर परोसता था। क्लाइव का स्वभाव फ़ोटोग्राफर जैसा नहीं था। वह जल्दी परेशान हो जाता, झेंपता और डर जाता। एक बार स्पेनिश नृत्यांगना का सर बौने के सर से टकरा गया तो क्लाइव का चेहरा झेंप से लाल हो गया था। ऐसी बात तो उसके लिए असह्य थी। पर मैट ने वह दृश्य अपने पोलोरॉइड कैमरे में उतार लिया था। वे अब एक दूसरे दरवाज़े पर चले गए थे, जहाँ प्लास्टिक की पट्टियों वाला एक पर्दा लटक रहा था, ताकि मक्खियाँ अंदर न घुसें। उन्होंने अंदर झाँका। वहाँ उस बौने का सर था, जो इस तरह छोटे से शरीर पर मटक रहा था, जैसे उँगलियों से चलने वाली कोई कठपुतली हो। मैट इतराया तो नहीं, मगर उसके कहने का अंदाज़ ज़रा ऐसा था कि जब उसने अद्भुत या ग़ज़ब कहा तो उससे इतराने की झलक मिली। इससे पहले मैंने इतना अच्छा दृश्य कभी नहीं देखा था। यह सौभाग्य की बात थी और एक संयोग ही था कि हम एक सप्ताह पहले यहाँ नहीं आए, जब वह लगभग पगला ही गया था और उसे अस्पताल ले जाना पड़ा था। वह अभी-अभी ही वापस आया है और अच्छा रहा कि तुमने उसे मिस नहीं किया, इस बीच अगर तुम अफ़्रीका चले जाते, तो उसे देख नहीं पाते।
जो-परिवार मद्रासी कपड़े की नेकर पहने, साथ में अपना सुंदर-सा ट्रांजिस्टर दिखाते हुए लोगों से मिलता था और क्लाइव के जिस दोस्त के रेकार्ड-प्लेयर पर रेकार्ड सुन कर जिनको बड़ा मज़ा आता था, उन्होंने देखा कि वह लड़का बहुत ही वाचाल और बातूनी हो गया है, कुछ ज़्यादा ही घर आने लगा है और अक्सर गलियों में ही घूमता रहता है। क्लाइव को परिवार वालों ने हिदायत दी कि वह परिवार के साथ ही बाहर जाए। वे क़रीब 20 मील दूर गाड़ी चला कर गए सिर्फ़ इसलिए कि वहाँ सूप में पकाई मछली खाने की इच्छा थी। उन्होंने पूरी दोपहर फ़ोटो देखने में ही गुज़ार दी। वह गली से एकदम निकल कर आया और पूछने लगा कि ‘कि हम किस वक़्त वापस चलेंगे।’ ‘मैं नहीं जानता, यही कोई दोपहर बाद।’ ‘क्या हम दो बजे तक वापस नहीं चल सकते? आख़िर हम इस धरती पर समय से बँधे ही क्यों हैं? आज तो हमारा छुट्टी है, फिर वह वापस गली में दौड़कर चला गया और वहाँ भी इस तरह की असंतोषजनक सूचना देता रहा।
जब परिवार घर वापस आ गया तो वह दुबला-छरहरा लड़का सड़क के मोड़ पर खड़ा होकर हाथ हिलाने लगा। एक बार वे उसे अंधेरे से गलियों की रोशनी में लाए थे तो उसका सपाट चेहरा ऐसा लगा था, जैसे वह अधपगला हो, उसका कुत्ता और वह दोनों उदास लगे। उसने बातचीत करते हुए सर ऊपर उठाया तो ऐसा लगा, जैसे वह ऐसी ट्रेन का इंतज़ार कर रहा था जो ठीक समय पर आने वाली हो। दूसरे दिन आँगन के एक कोने से दूसरे कोने तक एक संदेश लिखा था ‘मैट! तुमसे पुन: फिर कभी मिलेंगे।’
‘आख़िर उन लोगों के साथ समस्या क्या है? यहाँ तक कि वे तो अपने बच्चे को समुद्र तट पर तैराने तक नहीं ले जाते’, माँ ने कहा। क्लाइव ने यह बात सुनी पर उसमें कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। वह इस गुलाबी घर में कभी अलीबाबा पॉट्स के साथ नहीं गया था। मैट वहाँ से एक बिल्ली की तरह उदित हुआ था। उसके पास हमेशा ही पैसा रहता था। उन्होंने एक ऐसी जगह का पता लगा लिया था, जहाँ बबलगम बेचे जाते थे, कभी-कभी वे वहाँ से रोटी भी ख़रीद लेते। जब मैट क्लाइव से कहता कि चलो कुछ करारी-रोटी और मुरब्बा लेंगे। (जो क्लाइव को भी पसंद थे) तो क्लाइव को यह पता नहीं रहता था कि मैट उसे कहाँ ले जाने वाला है। वहीं उसकी डाक्यूमेंट्री फिल्म बनती थी और इसी तरह वह अपनी किताब भी लिख रहा था। कई बार बच्चों की ऐसी किताबों से काफ़ी पैसा मिलता है, जो बच्चों द्वारा ही लिखी जाती हैं। यह बात मैट ने उस परिवार को समझाई। उसने कहा कि उसकी किताब एक जासूसी कहानी है। उसे उम्मीद थी कि उसकी किताब अच्छी चल निकलेगी और जो फ़ोटो उसने लिए हैं, वे भी वह ‘टाइम’ और ‘लाइफ’ मैगज़ीन्स को बेच सकेगा।
एक प्यारी-सी सुबह क्लाइव की माँ ने पूछा कि ‘अगर हम लोग मैट को हवाई जहाज़ पर विदा करने चलें तो मैट मना तो नहीं करेगा। बच्चे बड़े-बड़े जेट विमान उतरते देख सकेंगे और बड़े अपना काम-काज या रिज़र्वेशन आदि कराते रहेंगे।’ पिता ने कहा कि ‘अगर तुम चाहो तो अपने लिए लेमनेड का आर्डर कर दो।’ उसका मतलब था कि वापस आकर वह लेमनेड के लिए पैसे दे देंगे। फिर उन्होंने लेमनेड पिया और आइसक्रीम खाई और फिर मैट ने कहा कि मैं इन चीज़ों का असर कम करने के लिए एक ब्लैक कॉफ़ी लेना चाहूँगा। मैट और क्लाइव दोनों ने ब्लैक कॉफ़ी पी और जब बिल आया तो पिता चिढ़ गए, क्योंकि फ्राँस में कॉफ़ी बहुत महँगी थी, जबकि उनके देश में तो गिलास भर कॉफ़ी पानी के मोल मिल जाती है।
मैट ने कहा मैं दिन भर में पाँच-छह कॉफ़ी पी सकता हूँ और मेरा लीवर वगैरह कभी ख़राब नहीं होता। नाइस में तो प्लेस यानी घर आसपास ही था, बाद में वहाँ मेसीना और जेनी भी पीछे से आ गई जो चाहती थीं कि वे वैसे ही पोलो शर्ट ख़रीदें, जैसे फ्रेंच लड़कियाँ पहनती हैं, मगर लड़कों को नाइस जाने की इजाज़त नहीं दी गई, इस डर से कि कहीं वे वहाँ उन लड़कियों के साथ भीड़-भाड़ में खो न जाएँ। इसी कारण उन्हें वहाँ का बड़ा फ़व्वारा भी देखने नहीं जाने दिया गया। मैट ने क्लाइव के कान में कुछ फुसफुसा कर कहा। मगर वह उसे समझ नहीं सका। अब तो मैट भी परिवार का ही एक ऐसा लड़का बन गया था, जैसा कोई भी छोटा लड़का परिवार में हो सकता था।
शनिवार का दिन था। जब वे सीधी सड़क से घर के लिए ड्राइव करते हुए रवाना हुए तो वह अधपगला, और कुत्ता नई-नई ट्रैफ़िक लाइट के पास बैठे हुए थे। मैट ने जब उस अधपगले की आवाज़ सुनी तो खिड़की से बाहर झाँक कर फ्रेंच में उससे नमस्ते कहा। गाँव में सप्ताहांत पर आने वाले सैलानियों की भीड़ बढ़ चुकी थी। लंच नीचे उपलब्ध था और लड़के उस पट्टिका की तरफ़ तेज़ी से लपके, जहाँ ज़ेवियर ड्यूवल 20 अक्टूबर, 1944 को विरोध प्रदर्शन करते हुए मारे गए थे और जिनकी यादगार में यह पट्टिका लगाकर समारोह मनाया जा रहा था। क्लाइव वहाँ पहले से ही मौजूद था और अपने दोस्त मैट का उदाहरण और उसकी सारी तकनीकी बड़ी वफ़ादारी से इस तरह आज़मा रहा था कि जब वह मौक़े के फ़ोटो ले रहा था तो मैट को भी यह पता नहीं चला कि उस पर भी किसी की निगाह है। वास्तव में वह दोपहर उस दिन की सबसे शानदार दोपहर थी। मैट ने कहा था कि ‘शनिवार के दिन हमेशा ही अच्छे दिन होते हैं। तमाम क़िस्म के भयभीत और मनमर्ज़ी करने वाले लोग यहाँ मँडराने लगते हैं। मेरे भाई, ज़रा अपनी आँख खुली रखो, मैंने लंच के वक़्त तक अपनी किताब का चौदहवाँ अध्याय पूरा कर लिया है, वह मेरे कमरे में एक ट्रे में रखा हुआ है।’ वे आज सुबह चार बजे के पहले ही निकल गए थे, पहले तो वे उठ ही नहीं रहे थे। ‘इस एयरपोर्ट पर यह सब पहले से ही तय है, याद रखो तुमने देखा होगा मेरा मुँह किस तरह घूम रहा था और जब जहाज़ ने उड़ान भरी तो ज़रा-सी भी आवाज़ तक यहाँ नहीं आई। पास ही कॉफ़ी पीते-पीते किसी की हत्या हो गई, मगर उसकी आवाज़ और चीख़-पुकार किसी ने नहीं सुनी। आदमी की मौत पर किसी का ध्यान नहीं, सबके सब हवाई जहाज़ की उड़ान की आवाज़ पर थमे हुए।’
वे कार पार्क में से गुज़र रहे थे और स्पोर्ट्स मॉडलों के मोती जैसे चमकदार टोप पर हाथ घुमा रहे थे। पास ही गड्ढे में लड़ रहे झबरीले कुत्तों के दंगल से वे बेख़बर से थे और उस आदमी से भी जो प्लेस के मूत्रालय में धक्का-मुक्की करता प्रवेश कर रहा था। मैट बोला, ‘मेरे पास तो इन अपराधियों के अब काफ़ी फ़ोटो हो गए हैं।’ फिर वे फूलदार पैंट पहने खड़ी उस लड़की के पास से गुज़रे जो रो रही थी, अपने उस झबरीले कुत्ते को लेकर जो संघर्ष कर रहा था। प्लेस के ज़रा ऊपर की ओर स्थानीय लोगों की भीड़ जमा थी, पार्क की तंग गलियाँ कारों से पट गई थीं, फ्रेंच और अलजीरियन लड़के अरबी संगीत बजा रहे थे, जो बहुत ही उत्तेजक और भद्दा था और वह संगीत रियाने के बारे में था, उस मकान वाली बूढ़ी औरत के चेज़ रियाने के बारे में। बौना भी वहाँ था। वह एक अमरीकन सुंदरी को निहार रहा था और दाँत दबा-दबा कर इस तरह बातें कर रहा था, जैसे उसे चबा जाएगा। उसके दोस्तों का हँसते-हँसते दम निकला जा रहा था, लेकिन वे उसकी ओर बड़ी नरमाई दिखा रहे थे। बूढ़ी औरतों ने बड़े काले हैट लगा कर और अपने पेट पर एप्रन बाँध कर बेंच पर जगह बना ली। वहाँ और भी झबरीले कुत्ते थे, एक इटेलियन ग्रेहाउंण्ड चमकीले बारीक़ तारों के जेवर से सजा हुआ खड़ा था, जो इस कुत्ता-दंगल में भाग लेने आया था। परस्पर मित्र औरतें बाहर की टेबलों पर जम गई थीं और मित्र लोग बैंगनी जीन्स और गुलाबी क़मीज़ में सिगरेट का धुआँ उड़ाते ज़िजी बार के सामने बैठ गए। आदमी-औरत समुद्रतटीय कपड़े पहने हाथ में हाथ डाले दूकानों और शराबघरों के दरवाज़ों में झाँकते। जैसे ही कुत्ते अपने मालिकों की डोरियाँ तुड़ा कर भागते, औरतें एक-दूसरे का हाथ पकड़ कर खींचने लगतीं। मैट ने क्लाइव के परिवार की ओर इशारा किया, जो अपनी पसंदीदा रोटी, देसी शराब के साथ खा रहा था, मगर क्लाइव ने उसे झटक दिया।
उन्होंने वह श्वान दंगल कुछ देर तक देखा और वह खेल भी जो एक कसाई और कोई एक स्थानीय चैम्पियन मिल कर गेलरी पर खेल रहे थे। उसने गुलाबी रंग की जालीदार बनियान पहनी थी, जिसके सामने के भाग पर बर्र के आकार और बेल-बूटे बने हुए थे। एक काली लंबी टोपी और बड़ी-बड़ी मूँछों वाला आदमी आया और उसने हलचल मचा दी। हे मेरे भगवान! कई सप्ताहों से मैं इसे ख़ोज रहा हूँ। मैट ने उसे चकमा दिया और क्लाइव भी पीछे हो लिया और जो लोग खेल देख रहे थे, उनके पास से आड़े-टेढ़े ढंग से वे भाग खड़े हुए। वह आदमी एक छोटी-सी स्पोर्ट्स कार से उनका पीछा करते हुए प्लेस तक पहुँचा। जगह ख़ाली हो गई थी, वहाँ एक पुलिस वाला शनिवारी वर्दी में खड़ा था, जो उस आदमी पर चिल्ला रहा था, मगर वह आदमी रुक नहीं पाया, न उन लड़कों को पकड़ सका। क्योंकि जैसे ही वह आगे बढ़ता, लोगों का ताज़ा रेला आ जाता, उससे उसका रास्ता रुक जाता। मैट ने कहा, यह आदमी एक पेंटर है। तुम जानते ही हो उस छोटे से दड़बे के ऊपर मोची की दुकान के ऊपरी हिस्से में वह रहता है। वह शनिवार और इतवार को छोड़ कर कभी बाहर नहीं निकलता। मैंने उसके भी कुछ फ़ोटो खींचे हैं। वह आदमी अपना यश चाहने वाला लगा। बड़ा ख़ब्ती-सा, यार! पेंटर के साथ एक सुंदर, घमंडी लड़की भी है, जो शरलॉक होम्स की तरह कपड़े पहनती है, जो मर्दाने ट्वीड और हिरण की खाल के बने होते हैं। मार्क ने कहा कि यह कार भी उसकी होगी। उसने अपनी पूरी फिल्म ही ख़र्च कर डाली थी। आधुनिक कलाकारों के फ़ोटो कुछ नए तरीक़ों से लेने पड़ते हैं।
मैट ख़ासकर बड़ा बातूनी था, ज़िज़ी के शराबखाने में जब वह उस लड़की के पति से हैलो करने गया तो भी एमिली से बात करता रहा। वहाँ बेल-बूटेदार कुटिया में उसके परिवार के लोग बैठे थे। पिता ने क्लाइव की ओर इशारा करके उसे बुलाया। पहले तो उसने ध्यान नहीं दिया, फिर वह जाकर टेबलों की बीच खड़ा हो गया—‘हाँ, क्या बात है?’
‘तुम्हें कुछ पैसों की तो ज़रूरत नहीं है?’
इसके पहले कि वह जवाब देता, मैट उसे अँगूठा हिला कर दिखाने लगा। वह दौड़ा, मगर उसके पिता ने चिल्लाकर कहा, रुको और वह रुक गया। मगर मैट तो वहाँ से उड़ लिया, उस औरत को लाँघकर जो दम तोड़ रही थी, या तोड़ चुकी थी।
क्लाइव बोला ‘हमें तो जाना ही है।’
माँ ने पूछा ‘किसलिए?’
जेनी बोली ‘हे सर्वशक्तिमान!’
वह मैट के साथ चला गया। वे लड़ते-झगड़ते, उस शून्य में समा गए। शून्य का वह रास्ता उन्होंने ही तो अपने लिए बनाया था। सीढ़ियों के पास एक भारी-भरकम औरत पड़ी हुई थी। उसके कपड़े मुड़े-कुचले हुए से हो गए थे। उसके मुँह से झाग उठ रहे थे। लोग तर्क-वितर्क कर रहे थे और उस स्त्री के लिए कुछ न कुछ करने के लिए इधर से उधर लपक रहे थे। जो लोग उसे वहाँ से उठाना चाहते थे, उन्हें उन लोगों ने धकिया कर अलग कर दिया था, जो चाहते थे कि वह वहीं पड़ी रहे। किसी ने उसके जूते उतार दिए। कुछ लोग चेज़ रियेने के रेस्तराँ से पानी लेने दौड़े, लेकिन औरत पानी पी नहीं सकी। एक दिन इन लड़कों ने एक कारीगर को उसके नीले कपड़ों और सिलेटी रंग के जूतों में टेबक बार के सामने पड़े-खड़े ख़र्राटे भरते देखा था। वहाँ लोग पी रहे थे। मैट ने उस आदमी को भी पहचान लिया। ख़राब से ख़राब हालत में भी तुम एक लाश का फ़ोटो ले सकते हो। मगर यह जो फ़ोटो मैंने उतारा है, वह तो आज तक के सारे फ़ोटो में सबसे अच्छा है। मैट ने पूरी रील ख़त्म कर दी उस पेंटर के फ़ोटो उतारने पर और नई रील डाल दी। औरत अभी भी वहाँ पड़ी थी और भीड़ की आवाज़ के पीछे एम्बुलेंस की गाड़ी की आने की आवाज़ सुनाई दे रही थी, जो नीचे के पोर्ट से उस गाँव की तरफ़ दौड़ रही थी। एम्बुलेंस प्लेस तक तो नहीं पहुँच पाई, मगर उसके अंदर से लोगों ने स्ट्रेचर निकाला और उस औरत को उठा लिया। उसका चेहरा बैंगनी रंग का हो गया था। हाथ सर्दी की सुबह के समान ठंडे पड़ गए थे और टाँगे चौड़ी हो गई थीं। लड़के उन लोगों में से थे, जो उस एम्बुलेंस के पीछे-पीछे जा रहे थे। मैट घुटनों पर फुदक-फुदक कर चल रहा था इस तरह जैसे कोई रूसी नर्तक हो, ताकि वह उस शांत क्रियाहीन देह का फ़ोटो नए-नए एंगल से निकाल सके।
जब यह सब ख़त्म हो गया, तो वे उस क्रेपरी यानी बेल-बूटेदार झोंपड़ी में परिवार को यह सब सनसनीखेज कहानी सुनाने पहुँचे, मगर वे वहाँ क़तई रुकना नहीं चाहते थे। वे वहाँ से अपने गाँव के घर चल दिए। वास्तव में यह घटना और इसके चित्र ऐसे हैं, जिन्हें तुम अफ़्रीका में दिखा सकते हो, मैट ने कहा। वह उस दोपहर को अपना मिनॉक्स कैमरा काम में ला रहा था और उसने कहा कि जब फिल्म धुल जाएगी तो फ़ोटो की प्रतियाँ वह उसे ज़रूर भेजेगा। इसे बंद कर लो, हमें तब तक इंतज़ार करना पड़ेगा, जब तक हमारे माता-पिता नाइस नहीं पहुँचते, क्योंकि फिल्म यहाँ धुल नहीं सकती। और वे नाइस सिर्फ़ बुधवारों को ही जाते हैं।
क्लाइव एक़दम बोला, ‘मगर मैं भी उनके साथ चला जाऊँगा।’
‘चले जाओगे? वापस अफ़्रीका!’ यह सोचते ही उसे वह लंबी दूरी जो उस जगह और अफ़्रीका के बीच थी, याद आ गई। दूरियों के साथ वे सारी सदियाँ याद आ गईं और उस महाद्वीप का ख़ाली नक़्शा, मीलों में दर्शाई दूरियाँ, लोग वहाँ के गाँव आदि सब कुछ याद आ गया, ‘इसका मतलब यह हुआ कि तुम वापस अफ़्रीका चले जाओगे?”
क्लाइव ने अपना बॉक्स कैमरा अलमारी के हवाले कर दिया और उसके साथ योरप की सारी यादें भी, ताकि वह जब भी अलमारी खोले वहाँ की यादें उन्हें देख कर फिर ताज़ा हो उठें और वह वहाँ के लिए लालायित हो जाए। उसका उन चीज़ें से गहरा रिश्ता बन गया था।
पहले दिन स्कूल में उसने एक नए शब्द के साथ डींग हाँकी और उस नई जगह का वर्णन किया, जहाँ वह गया था। लेकिन कुछ ही सप्ताह में उसने जो शहर, जो महल वगैरा देखे थे, उनके ही बारे में इतिहास और भूगोल की कक्षा में भी वर्णन सुना। वह सब पढ़ते समय उसने यह नहीं बताया कि ये सब जगहें उसने देख रखी हैं। वास्तव में पाठ्य-पुस्तकों में उन जगहों के जो चित्र बने थे और जो वर्णन था, वह सब वैसा था ही नहीं, जैसा उसने स्वयं देखा था।
एक दिन उसने अपना कैमरा उठाया और वह एक खेल मीटिंग में गया। वहाँ उसने पाया कि उसके कैमरे में खींची हुई फिल्म लगी है। जब वह फिल्म उसने धुलवाई तो उसमें बिल्लियों के फ़ोटो थे। उसने उन चित्रों को इधर-उधर घुमाकर आर्चवे के काले-काले पत्थरों पर कभी मंदी रोशनी में तो कभी तेज़ में दिखाया, उसमें अमरीकी लड़के मैट के भी फ़ोटो थे। एक छरहरा लड़का जिसके घुटने कुछ आउट ऑफ फोकस होकर बड़े लग रहे थे, जो एकदम शंकालु मगर तेज़ बुद्धि का लगता था, और उसके बाल लंबे-लंबे थे।
परिवार एकसाथ एकत्रित हुआ। छुट्टियों में क्या-क्या दुख-दर्द बाहर जाकर झेला और कितना मज़ा आया, यह सब हँसते-मुस्कुराते आपस में बताने लगे। ‘यह ‘टाइम’, ‘लाइफ’ मैगज़ीनों का आदमी ख़ुद है, बिचारा बूढ़ा आदमी, जानते हो उसका दूसरा नाम क्या था? माँ ने कहा ‘यह फ़ोटो तुमको उस बूढ़े के पास भेजना चाहिए। तुम्हारे पास उसका पता तो होगा ही? क्या तुम्हारा उससे अब कोई संपर्क नहीं है?’
हाँ, मगर उसका पता तो मेरे पास था ही नहीं। मैट की कोई गली नहीं थी, मकान नहीं था, गली में मकान नहीं था, न मकान में कमरा था; न गली, न मकान, न मकान में कमरा, कुछ भी नहीं था उसका। क्लाइव ने कहा, ठीक वैसा जैसा अमरीका में उसके पास कुछ नहीं था, मगर वह अब अमरीका में है जैसे वे पहले भी अमरीका में थे। वे वहाँ के शून्य से आए थे और यहाँ के शून्य से मिल कर वापस अपने शून्य में लौट गए।
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‘haan, magar sach puchha jaye to—’nahin. . . nahin’. mera matlab main angrezi bolta to hoon, magar main rahne vala dakshin afrika ka hoon. ’
‘afrika? tum afrika ke rahne vale? are, wo to ek nark hai. ’
—qarib pandrah ghante ho ge. hum ek jet viman se aaye the. hamein thoDa zyada vaqt laga, kyonki shayad ek injin mein kuch kharabi aa gai thi. hamein aadhi raat ko kena mein teen ghante intzaar karna paDa. ‘suna laDke! baDi garmi thi, aur asapas uunt manDra rahe the. ’ —yah qissa achanak hi band ho gaya. aksar aisi kahaniyan parivar ke log baDha chaDha kar kahte hain, jinse uub paida hoti hai.
mere paas kuch manoram aur mazedar anubhav hain. mere mata pita sari duniya ki sair karte phirte hain. main bhi unke saath jata hoon, adhikansh vaqt! main apne ghar vapas bahut thoDe samay ke liye aata hoon aur sirf patjhar ke mausam mein hi skool jata hoon. afrika! adbhut! hum vahan kabhi kabhi bahar nikal paDte hain. aap in rangin poloraiD fotografon ko dekh rahe hain na? ye chitr dekho, yahin atak gaya hai. mainne tumhare bhi kuch foto utare hain. tumhein dikhata hoon. main bahut saaf aur baDhiya foto khinchta hoon. sari duniya mein mera javab nahin. mere paas ek kaimra aur hai—minauks kaimra. magar main yahi kaimra kaam mein leta hoon, kyonki ismen andar hi print apne aap ban kar bahar aa jata hai. isse hum logon ko foto usi samay de sakte hain. ye dekho, ye foto hansne hansane ke liye kitna achchha hai. mere paas kuch aur mazedar foto hain.
‘main is gali mein akhir hoon kahan?’
‘are main to pure vaqt foto hi khinchta raha hoon. sab jagah ke foto. ’
‘us dusre kes mein kya hai?’
‘tep rikarDar, main apaki avaz bhi tep karunga. main logon ko zizi ke sharabghar mein isi tarah tep kar leta hoon. unko pata bhi nahin chalta ki main aisa kar raha hoon. ’
‘are! ye kaisi avaz suni mainne. mere tep mein ek chhota sa bahut shanadar maikrofon hai. kisi ko dikhai nahin deta. ’
‘aur is kes ke andar kya hai?’
usne ek chandi ka chhaDinuma eriyal kheench kar nikala. ‘mera tranjistar mera pyara tranjistar! jante ho ismen mainne kya suna? ‘help’ vale geet ka rekarD. tajjub! bitalz (angrezi amriki sangitkar laDkon ka prasiddh samuh) oh bitalz! yahan afrika mein bhi itne lokapriy!’
‘hamne unhen landan mein dekha tha—ek laiv karyakram mein. mere saath mere bhai bahan bhi the. meri bahan to ‘help’ ka rekarD kharid bhi lai. magar ye rekarD yahan bajane ka matlab hi kya, isliye to hamne bajaya nahin. ’
‘baDi achchhi baat hai. kuch pratibhashali laDkon ko zara jaldi hi mauqe mil jate hain. tumne to unko dekha hi tha. mainne bhi apne baal unki hi tarah kaise baDha liye the. kuch to bolo yaar! dekho, main apna portebal rekarD pleyar lekar aata hoon. tumhari bahan us par apna ye rekarD sun sakti hai. ’
‘tum kis vaqt aa sakte ho?’
‘aap jab kahen, main to khali hoon. sirf mujhe abhi abhyas ke liye jana hai, main dopahar ko aa jaunga, bujurg madam blench ke bahar jane ke pahle. vahan lanch lekar, uske baad aapse zarur milunga. qarib do baje. ’
‘main aapka intzaar karunga. kya mere foto bhi lete ayenge?’
klaiv ek chhote baramde se dauDta hua aaya. usne wo jhulta parde vala darvaza jhatke se khola. ghar si avaz hui, aur usne darvaza jhulta chhoD diya.
‘hey! dekho yahan ek laDka hai jo angreji bol sakta hai. abhi abhi isne mujhse angrezi mein baat ki hai. wo vastav mein ek sahi amrikan hai. thoDi der ruko. dekho uske paas kya hai? ek kaimra. usne mere kuch foto bhi khinche, magar main to use janta tak nahin. uske paas ek chhota sa tep rikarDar bhi hai. us par logon ki avaz is tarah se li jati hai ki logon ko pata bhi nahin chalta. tranjistar to uske paas itna chhota hai ki vaisa mainne pahle kabhi nahin dekha. ’
‘haan, to tumhein ek dost mil gaya. ’ uski maan ne kaha ‘bhagvan bhala kare. ’ wo salad ke liye hari mirch kaat rahi thi. usne chaqu ki nonk par salad ka ek tukDa aage kar diya lekin uski taraf dekha nahin.
‘vah to sari duniya mein ghumta phirta hai. ab amrika ja raha hai. vahan wo bahut kam samay ke liye skool bhi jata hai. main nahin janta, usne ‘phaul’ ke bare mein kuch kaha hai. wo shayad skool hoga. ’
‘are murakh! phaul koi kisi jagah ka naam nahin hai. phaul ka matlab patjhar hota hai. ’
ghar mein jo phavvara bana tha, wo rasoighar se sata hua tha aur nahane ki jagah ek almari ki tarah thi. uska darvaza khiskakar khola jata tha. darvaza andar ki taraf apni frem mein hamesha hilta rahta tha.
‘tum baDe hi jaldbaz ho. darvaza itne jhatke se kholte ho?’ uski bahan ne kaha, ‘isse tumhein kya mila?’ uske chehre par baDi baDi ichchhaon, akankshaon ki chamak thi. plastik ki chhoti chamakdar topi ke beech se jhankta uska chehra. kitna masum!
‘jen! chalo ab rekarD sun sakte hain. wo rekarD pleyar lekar aa raha hai. janti ho wo amrika ka rahne vala hai. ’
kya umr hogi?’
‘yahi, taqriban meri umr ka hoga. ’
usne apna hait utara. uske lambe, ghane sidhe kesh; chehra, palkon aadi ko Dhankte hue kandhon par bikhar ge. usne kaha, ‘bahut achchhe! bitalz ke balon ki tarah. ’
uske pita Daining tebal ki kursi par baith kar ‘nais maitin’ paDhne lage. wo kitab ek khubsurat guDiya ki tarah thi, jis par pila kavar skart ki tarah tha, jo uski jild par phit tha.
jaise hi laDka kuch bola, usne ek asaphal si koshish ki aur baDe atmiy tariqe se uska pair dabaya. use laga ki laDka ab koi mazedar mudra dikhayega, ye jatate hue ki unki ek ek baat sun raha hai wo puchhne laga, ‘tumhare dost ka naam kya hai?’
‘are—yah to mujhe pata hi nahin ki wo amrikan hai. wo to abhi ek chhokra hi hai. magar uske paas teen teen chamDe ke kes hain. ’
‘tumhen wo aaj dopahar ko mil sakta hai. uske baal bital kat mein baDe baDe hain, achchhe lagte hain. ’ ye shabd usne us chhoti laDki se kahe. laDki ekdam muDi aur ek pathrile jine par apne gile gile pairon ke nishan banati jina chaDh gai.
sach puchha jaye to jeni laDki ki umr paar kar gai thi aur vayaskon ki tarah milti julti thi. wo ekdam se puchhne lagi—’to laDka amriki hai. ’ ‘kaun?’ use ek pura javab mila. ‘haan’ main hoon wo laDka. mujhe aksar mait kah kar pukarte hain, lekin ye to mere beech ke naam ka sankshipt hai. vastav mein to mera naam nikolas maithyu stes kailar hai. ’
‘bahut juniyar, bahut chhote ho abhi. ’ usne use chheDte hue puchha, ‘beech ka naam to theek, achchha batao tisra naam kya hai?’
‘are nahin, nahin, akhir mujhe aisa kyon hona chahiye? mere pita ka naam to DonalD rutes kailar hai. mera pratham naam to mere nana ke parivar par rakha gaya hai. meri maan ka to baDa bhari bharkam parivar tha. uske paanch bhaiyon ne yuddh mein paanch paanch alankran hasil kiye the. mera matlab hai teen to jarman yuddhon mein aur do koriyan yuddh mein. mere chhote chacha ka naam rauD tha, unki peeth mein ek chhed tha, theek pasaliyon ke paas, use haath laga kar mahsus kar sakte the. mera matlab mera haath. ’ —usne apni chhoti chhoti mutthi taan kar apna haath bataya, jo kisi vayask haath jaisa nahin lagta tha. ‘achchha ye batao, mere haath ko aur kitna mota hona chahiye? kya itna hi aur? taki, wo ek pure baDe adami ke haath jaisa lage?’ usne apne hathon ko klaiv ke hathon se mila kar mapa. do das das saal ki mutthiyan utsukta ke saath usne klaiv ki mutthiyon se mila deen.
‘tumhari aur klaiv ki mutthiyan mil kar baDi ho jayengi—bilkul king saiz ki. theek kisi baDe adami ke panje jaisi. achchha ab ye kupan pakDo. iske uupri sire par ek chaukhana chipkao, theek usi se milta julta. ’
lekin baDe bhai ki lalchai baton par kisi ne dhyaan nahin diya ya phir unhonne hi in do chhote laDkon ko ghalat samjha. klaiv kuch dabi zaban se kahna chahta tha, us vigyan patrika ki shaan bagharte hue wo uske bare mein apni raay de sakta tha, jisse uska dost juDa hua tha. mait baDi masumiyat ke saath ek aise bachche ki tarah bolta chala gaya, jiski svabhavikta ko sabne svikar liya, theek usi tarah jaise koi shishu maan ki god mein ho.
wo aksar us dopahar ke baad se us nivas (ples) par aane laga aur uske rekarD pleyar par pahli baar hamne bital ka naya rekarD suna. javan laDkon ke paas to uski prtiksha ke siva aur koi kaam tha nahin, magar maan baap dopahar ke bhojan ke baad aram karne chale jate the. (ghar ke asapas ki jagah jahan jeni ko shaam ko tahalna pasand tha, aur jahan wo tahalte tahalte kuch manchale laDkon ki nazren apni or khinchti thi, us din baDi udaas ya mayus lagi. laDke nazren bacha kar ghurte bhar the, magar unhen uski bhasha to aati nahin thee). isliye us samay haus ke angan mein baith kar ve baar baar wo rekarD sunte rahte the.
wo ples yani nivas, ek kisan ke baDe makan mein badalne ke pahle suaron ka baDa tha. jab rekarD dhire dhire pura ho jata, to mait un logon ki avazen tep karta, ‘koi afriki baat kaho’ aur maark julu boli ke kuch shabd gaDD maDD karke bolne lagta. ve laDke iske julu mein bole ge kuch tute phute shabd samajh lete. kabhi kabhi wo kuch gande aur joshile shabd bolta, jo galiyan hoti theen ya afrikan kabilon ke kuch prachalit muhavare, ya parichit saDak sanketon ke shabd. jaise—’saka bona, vayetesak, hembekabal, ho tiks malingi mushal, vrayestat. ’ bhai bahan kursi ki do tangon ko uchka kar jhulte aur batiyate. mait baDi barik nazron se dekhta aur unki baten aise sunta, jaise koi pakshishastri kisi durlabh panchhi ki avaz sun raha ho. ‘bahut achchhe, bahut achchhe laDke! shukriya, shukriya! ye sari baten, ye sare shabd us Dakyumentri mein honge, jo main banane vala hoon. Dakyumentri ka kuch bhaag mere pita ke muvi kaimre se banega aur usmen kuch mere achal chitr bhi honge. abhi to main pataktha taiyar karne mein laga hoon. wo ghar par rakhi hai. ’ usne un logon ko ye bhi bata diya ki uske pita ek kitab likh rahe hain. kai kitaben, ek ek kitab ek ek desh par, un deshon par jahan jahan ve ge aur is kaam mein maan bhi madad kar rahi hai. ve log to apna kaam baDi mustaidi aur tanmayta se karte hain. ve dopahar ke pahle apna kaam shuru karke raat ko ek baje tak apne kaam mein lage rahte hain. yahi vajah hai ki mujhe bhi ghar se subah bahut jaldi bahar nikal jana paDta hai. main tab tak ghar vapas nahin aata jab tak ve jaag kar lanch ke liye nahin uth baithte. main is vajah se bhi ghar se bahar rahta hoon ki unko shanti ki zarurat hai. sone ke liye bhi aur kaam ke liye bhi.
jeni boli, ‘tumne uski nekar dekhi? madrasi kapDe ki nekar? madrasi kautan jiske bare mein tumne paDha hai. ise dhote hain, to iske rang aur chatakh uthte hain. meri ichchha thi kaash, aisa kapDa tum bhi yahan kharid pate. ’
‘DeD! wo tranjistar bhi gazab ka hai. udhar dekho, maark angan mein jhanDe ke chabutre par dhoop mein sar latkaye is tarah baitha hai, jaise usne pure saal apne ghar par dhoop khai hi na ho. haan, phraans mein wo dhoop senkta to zarur tha, magar is tarah suraj ki garam dhoop mein nahin baithta tha. ’
‘theek hai. ve log apne bachchon ko buri tarah se bigaD dete hain. isi ka ek namuna ye hai. iske paas pachas paunD ka ek kaimra khilaune ki tarah hai. baDe hokar inke jivan mein kis baat ki kami rahegi?’
klaiv ko pure samay mait ke bare mein batachit karna achchha lagta. wo bola, ‘amerika mein uske paas ek jadui kutiya hai. abhi abhi unhonne use bech diya hai, kyonki ve duniya bhar ki sair karte phirte hain aur vahan to bahut hi kam rah pate hain. ’
maan boli, ‘baDa hi shaitan hai wo bachcha gardan mein duniya bhar ke ganDe tabiz aur kabaDkhana latkaye phirta hai aur apni gandi gali mein hi paDa rahta hai. ’
klaiv ‘ho. . . ho’ karke chillaya, ‘haan kabaDa, kuDa karkat, sahi to hai. ’ usne apne kandhe uchkaye aur apni hatheli masal kar ghumai. ‘yaqin janiye, us kuDe ke muqable to saikDon Daular bhi kahin nahin lagte. jise tum kuDa kahti ho, uske bare mein tumhein pata vata kuch hai nahin aur yon hi baDbaDati ho. ’
‘achchha mistar batao to zara, ek Daular hota kitna hai?’ jeni ne Daular ko apni mudra mein badalne vali tebal rat rakhi thi. ye tebal use havai jahaz mein chaDhte vaqt treval ejent ne di thi.
‘main nahin janta ki kitna hota hai. main to amerika ke bare mein baat kar raha hoon. ’
klaiv ke pita roz use samjhate, “dekho beta, tumhein us laDke ke saath gaanv ke bahar niche utar kar nahin jana hai. ghumna hai, to gaanv mein hi ghumo. ’
wo parivar ke saath bhi kabhi gaanv ke bahar nahin gaya. na usne aaj tak entibij ka ajayebghar jakar dekha, na velloris ki mitti ki pautri aur yahan tak ki markerilo ke mahlon, kesino (juaghar) aur machhlighar dekhne bhi wo kabhi nahin gaya. vahi purana gaanv, chaharadivari se ghira, betartib galiyon vala, ek ajib jagah, jo utna hi asmanjas aur bhram paida karta hai, jitna ki yorap ke smarkon par likhi aur likhkar baar baar badal di gai tarikhen. yahi uske aur mere liye jana pahchana gaanv ka naqsha tha, jiske simit dayre mein hamein ghumna paDta tha. gali ki billiyan bhi logon ke saath is naqshe par vicharti rahti theen. log na jane kya baDbaDate rahte the, unki bhasha samajh mein nahin aati thi, maart aur ve jo kaam karte the wo baDe gopaniy Dhang se hota tha, kya gatividhiyan hoti theen kuch bhi samajh mein nahin aata tha. ve savere se shaam tak kisi gambhir uddeshya se ghumte rahte the. kai baar ve kisi kone mein dubak kar chhup jate the. ve chahte the ki saDak paar karte unhen koi na dekhe, ve dopahar baad ki kisi bheeD ke logon ki tarah lagna nahin chahte the.
un kale bachchon se ek kaam jo jabran karaya jata tha wo tha kisi girjaghar se murghajali uthakar le aane ka. agar kahin koi rangin kaanch ke tukDe ya badrang mozek ki papDi milti to use utha late aur ye kaam is prakar karna paDta tha ki koi skool ke niche khiDakiyon se unhen dekh na le. ye kaam ve subah tab karte the, jab skool chalta tha. wo skool ek prakar se patthron ka ghar tha. usmen koi khel ka maidan nahin tha. roz roz ek jaisa koras bachche ga ga kar uub jate the. unki avaz mujhe apne desh ke kale bachchon ke skulon ki yaad dilati thi. kabhi gaanv ke bachche poonchh laga kar janavron ki nakal karte, aur hansi mazak karte ya kabhi behad chuppi dharan kar lete the, jise toDna lagbhag asambhav hota tha. laDkiyan bhi vahan hoti theen. jaldi hi usne ungliyon ke zariye apmanajnak ishare karna seekh liya tha. wo kai shabd nahin janta, usne ek shabd phrench mein chillana bhi seekh liya tha. shayad, wo gali ka shabd ‘marde’ tha, jiska matlab koi gandi maan ki gali hota hai.
mait hamesha baten kiya karta tha. wo phrench ki hi tarah utaar chaDhav se bhari uunchi aur khushi bhari avaz mein zara gopaniy Dhang se angrezi bolta tha. kai baar wo baDi uttejit avaz mein logon ka abhivadan karta aur aisa lagta, jaise uski dhvani uske munh se uchhalkar bahar aa rahi ho. uski tez avaz divaron se takrakar vapas jati aur uski wo rahasyamay Dhang se boli jane vali angrezi sun kar un laDkon ke sar jhuk jate the. yahan tak ki jab uski avaz bilkul dhimi ho jati thi, aur wo maatr phusaphusata to uski gol gol kali ankhon se bahar nirasha jhankne lagti thi, uski dabi dabi naak ke uupar chalaki bhari tyaunri chaDh jati thi, koshthkon ki tarah uski bhaunhe tan kar uupar niche hone lagti theen aur jo bhi uske asapas hote the, sabke sab chaunk jate the. wo ajanabiyon ka svagat bhi usi tarah karta tha, jis tarah apnon ka karta tha. kuch log bhrman par aate to wo unke paas jakar khaDa ho jata aur unki or dekhta rahta aur kabhi koi nalkarmi men hol kholne aata to usse wo baDe joshile Dhang se batachit karta. jab wo apne sathiyon ke saath phrench bolta, to uski phrench un gaanv ke bachchon ki phrench se thoDi behtar hoti thi. mait kandhe uchkata aur niche ka honth bahar nikal nikal kar bolne lagta. agar kuch log uske itna bolne se tang aa jate ya tajjub mahsus karte to wo unse parashn karne lagta. (klaiv ko sun kar pata chal jata tha ki ve log parashn kar rahe hain). uske parashn karne ka tarika baDa mazedar hota tha. aise prashnon se bachchon ki jhemp mit jati thi.
mait batuni tha. kabhi kabhi wo kisi ko batachit karte bulata to ghar ke darvaze ke samne raste par kursi Dale baitha vyakti uski baat shuru hone sa pahle hi uthkar andar chala jata aur darvaza band kar leta. is par wo angrezi mein baDe tez svar mein kahta ‘is shahr ke log sachmuch thoDe bahut sanki hain. main in sabki asliyat janta hoon, har ek ki. koi mazak nahin kar raha hoon. ’ paas hi jo jhurriyon se bhare chehre vali buDhi aurat lambe kale moje, lamba epran pahne, kala chauDa hait lagaye makan mein baithi baithi opan restran ke liye phaliyan chhilti dikhai deti, wo uski baat sun kar, apna akhroti rang ka pake gosht sa chehra uthakar hiss ki avaz karti, jaise koi hans bol raha ho.
mait usse jakar mila tha. aisa mere pita ne bataya tha. ye us vaqt ki baat hai, jab peris mein baaDh aai thi. ek vishalakay aurat ne iske naam ka ek baDa sa postar apne sine par laga kar uska pradarshan kiya. wo postar pahankar aisi lagti thi, jaise ki patthar ki tarah phasil ho ge peD ke tane par koi nai tahni ho aur usmen patti aa gai ho. wo mait ki taraf munh bana bana kar gurrai. mere paas uske kuch foto hain, baDe zabardast aur shanadar. sach puchha jaye to wo ek vaibhavshali purani mahila thi.
mait ne ek aur foto liya, jismen ek adami ek bangle ke pichhe parking ki jagah par ek laDki ka chumban le raha tha. mait ne uska pichha kiya. klaiv bhi ab uske asapas apna bauks kaimra lekar chal paDa, lekin usne keval billiyon ke foto khinche. mait ne ek baune ka foto khinchne ka bhi klaiv ko ashvasan diya. wo bauna vastav mein manushya tha, kisi sarkas ka bauna nahin tha. wo us restran mein baira ban gaya tha aur memne ka gosht khaas tarah se paka kar parosta tha. klaiv ka svbhaav fotographar jaisa nahin tha. wo jaldi pareshan ho jata, jhempta aur Dar jata. ek baar spenish nrityangna ka sar baune ke sar se takra gaya to klaiv ka chehra jhemp se laal ho gaya tha. aisi baat to uske liye asahya thi. par mait ne wo drishya apne poloraiD kaimre mein utaar liya tha. ve ab ek dusre darvaze par chale ge the, jahan plastik ki pattiyon vala ek parda latak raha tha, taki makkhiyan andar na ghusen. unhonne andar jhanka. vahan us baune ka sar tha, jo is tarah chhote se sharir par matak raha tha, jaise ungliyon se chalne vali koi kathputli ho. mait itraya to nahin, magar uske kahne ka andaz zara aisa tha ki jab usne adbhut ya ghajab kaha to usse itrane ki jhalak mili. isse pahle mainne itna achchha drishya kabhi nahin dekha tha. ye saubhagya ki baat thi aur ek sanyog hi tha ki hum ek saptah pahle yahan nahin aaye, jab wo lagbhag pagla hi gaya tha aur use aspatal le jana paDa tha. wo abhi abhi hi vapas aaya hai aur achchha raha ki tumne use mis nahin kiya, is beech agar tum afrika chale jate, to use dekh nahin pate.
jo parivar madrasi kapDe ki nekar pahne, saath mein apna sundar sa tranjistar dikhate hue logon se milta tha aur klaiv ke jis dost ke rekarD pleyar par rekarD sun kar jinko baDa maza aata tha, unhonne dekha ki wo laDka bahut hi vachal aur batuni ho gaya hai, kuch zyada hi ghar aane laga hai aur aksar galiyon mein hi ghumta rahta hai. klaiv ko parivar valon ne hidayat di ki wo parivar ke saath hi bahar jaye. ve qarib 20 meel door gaDi chala kar ge sirf isliye ki vahan soop mein pakai machhli khane ki ichchha thi. unhonne puri dopahar foto dekhne mein hi guzar di. wo gali se ekdam nikal kar aaya aur puchhne laga ki ‘ki hum kis vaqt vapas chalenge. ’ ‘main nahin janta, yahi koi dopahar baad. ’ ‘kya hum do baje tak vapas nahin chal sakte? akhir hum is dharti par samay se bandhe hi kyon hain? aaj to hamara chhutti hai, phir wo vapas gali mein dauDkar chala gaya aur vahan bhi is tarah ki asantoshajnak suchana deta raha.
jab parivar ghar vapas aa gaya to wo dubla chharahra laDka saDak moD par khaDa hokar haath hilane laga. ek baar ve use andhere se galiyon ki roshni mein laye the to uska sapat chehra aisa laga tha, jaise wo adhpagla ho, uska kutta aur wo donon udaas lage. usne batachit karte hue sar uupar uthaya to aisa laga, jaise wo aisi tren ka intzaar kar raha tha jo theek samay par aane vali ho. dusre din angan ke ek kone se dusre kone tak ek sandesh likha tha ‘mait! tumse punah phir kabhi milenge. ’
‘akhir un logon ke saath samasya kya hai? yahan tak ki ve to apne bachche ko samudr tat par tairane tak nahin le jate’, maan ne kaha. klaiv ne ye baat suni par usmen koi dilchaspi nahin dikhai. wo is gulabi ghar mein kabhi alibaba pauts ke saath nahin gaya tha. mait vahan se ek billi ki tarah udit hua tha. uske paas hamesha hi paisa rahta tha. unhonne ek aisi jagah ka pata laga liya tha, jahan babalgam beche jate the, kabhi kabhi ve vahan se roti bhi kharid lete. jab mait klaiv se kahta ki chalo kuch karari roti aur murabba lenge. (jo klaiv ko bhi pasand the) to klaiv ko ye pata nahin rahta tha ki mait use kahan le jane vala hai. vahin uski Dakyumentri philm banti thi aur isi tarah wo apni kitab bhi likh raha tha. kai baar bachchon ki aisi kitabon se kafi paisa milta hai, jo bachchon dvara hi likhi jati hain. ye baat mait ne us parivar ko samjhai. usne kaha ki uski kitab ek jasusi kahani hai. use ummid thi ki uski kitab achchhi chal niklegi aur jo foto usne liye hain, ve bhi wo ‘taim’ aur ‘laiph’ maigzins ko bech sakega.
ek pyari si subah klaiv ki maan ne puchha ki ‘agar hum log mait ko havai jahaz par vida karne chalen to mait mana to nahin karega. bachche baDe baDe jet viman utarte dekh sakenge aur baDe apna kaam kaaj ya rizarveshan aadi karate rahenge. ’ pita ne kaha ki ‘agar tum chaho to apne liye lemaneD ka arDar kar do. ’ uska matlab tha ki vapas aakar wo lemaneD ke liye paise de denge. phir unhonne lemaneD piya aur aisakrim khai aur phir mait ne kaha ki main in chizon ka asar kam karne ke liye ek blaik kaufi lena chahunga. mait aur klaiv donon ne blaik kaufi pi aur jab bil aaya to pita chiDh ge, kyonki phraans mein kaufi bahut mahngi thi, jabki unke desh mein to gilas bhar kaufi pani ke mol mil jati hai.
mait ne kaha main din bhar mein paanch chhah kaufi pi sakta hoon aur mera livar vagairah kabhi kharab nahin hota. nais mein to ples yani ghar asapas hi tha, baad mein vahan mesina aur jeni bhi pichhe se aa gai jo chahti theen ki ve vaise hi polo shart khariden, jaise phrench laDkiyan pahanti hain, magar laDkon ko nais jane ki ijazat nahin di gai, is Dar se ki kahin ve vahan un laDakiyon ke saath bheeD bhaaD mein kho na jayen. isi karan unhen vahan ka baDa favvara bhi dekhne nahin jane diya gaya. mait ne klaiv ke kaan mein kuch phusphusa kar kaha. magar wo use samajh nahin saka. ab to mait bhi parivar ka hi ek aisa laDka ban gaya tha, jaisa koi bhi chhota laDka parivar mein ho sakta tha.
shanivar ka din tha. jab ve sidhi saDak se ghar ke liye Draiv karte hue ravana hue to wo adhpagla, aur kutta nai nai traifik lait ke paas baithe hue the. mait ne jab us adhapagle ki avaz suni to khiDki se bahar jhankakar phrench mein usse namaste kaha. gaanv mein saptahant par aane vale sailaniyon ki bheeD baDh chuki thi. lanch niche uplabdh tha aur laDke us pattika ki taraf tezi se lapke, jahan zeviyar Dyuval 20 aktubar, 1944 ko virodh pradarshan karte hue mare ge the aur jinki yadgar mein ye pattika lagakar samaroh manaya ja raha tha. klaiv vahan pahle se hi maujud tha aur apne dost mait ka udahran aur uski sari takniki baDi vafadari se is tarah aazma raha tha ki jab wo mauqe ke foto le raha tha to mait ko bhi ye pata nahin chala ki us par bhi kisi ki nigah hai. vastav mein wo dopahar us din ki sabse shanadar dopahar thi. mait ne kaha tha ki ‘shanivar ke din hamesha hi achchhe din hote hain. tamam qism ke bhaybhit aur manmarzi karne vale log yahan manDrane lagte hain. mere bhai, zara apni ankh khuli rakho, mainne lanch ke vaqt tak apni kitab ka chaudahvan adhyay pura kar liya hai, wo mere kamre mein ek tre mein rakha hua hai. ’ ve aaj subah chaar baje ke pahle hi nikal ge the, pahle to ve uth hi nahin rahe the. ‘is eyarport par ye sab pahle se hi tay hai, yaad rakho tumne dekha hoga mera munh kis tarah ghoom raha tha aur jab jahaz ne uDaan bhari to zara si bhi avaz tak yahan nahin aai. paas hi kaufi pite pite kisi ki hatya ho gai, magar uski avaz aur cheekh pukar kisi ne nahin suni. adami ki maut par kisi ka dhyaan nahin, sabke sab havai jahaz ki uDaan ki avaz par thame hue. ’
ve kaar park mein se guzar rahe the aur sports mauDlon ke moti jaise chamakdar top par haath ghuma rahe the. paas hi gaDDhe mein laD rahe jhabrile kutton ke dangal se ve bekhbar se the aur us adami se bhi jo ples ke mutralay mein dhakka mukki karta pravesh kar raha tha. mait bola, ‘mere paas to in apradhiyon ke ab kafi foto ho ge hain. ’ phir ve phuladar paint pahne khaDi us laDki ke paas se guzre jo ro rahi thi, apne us jhabrile kutte ko lekar jo sangharsh kar raha tha. ples ke zara uupar ki or sthaniy logon ki bheeD jama thi, park ki tang galiyan karon se pat gai theen, phrench aur aljiriyan laDke arbi sangit baja rahe the, jo bahut hi uttejak aur bhadda tha aur wo sangit riyane ke bare mein tha, us makan vali buDhi aurat ke chez riyane ke bare mein. bauna bhi vahan tha. wo ek amerikan sundri ko nihar raha tha aur daant daba daba kar is tarah baten kar raha tha, jaise use chaba jayega. uske doston ka hanste hanste dam nikla ja raha tha, lekin ve uski or baDi narmai dikha rahe the. buDhi aurton ne baDe kale hait laga kar aur apne pet par epran baandh kar bench par jagah bana li. vahan aur bhi jhabrile kutte the, ek iteliyan grehaunnD chamkile barik taron ke jevar se saja hua khaDa tha, jo is kutta dangal mein bhaag lene aaya tha. paraspar mitr aurten bahar ki teblon par jam gai theen aur mitr log baingni jeens aur gulabi qamiz mein sigret ka dhuan uDate ziji baar ke samne baith ge. adami aurat samudrattiy kapDe pahne haath mein haath Dale dukanon aur sharabaghron ke darvazon mein jhankte. jaise hi kutte apne malikon ki Doriyan tuDa kar bhagte, aurten ek dusre ka haath pakaD kar khinchne lagtin. mait ne klaiv ke parivar ki or ishara kiya, jo apni pasandida roti, desi sharab ke saath kha raha tha, magar klaiv ne use jhatak diya.
unhonne wo shvaan dangal kuch der tak dekha aur wo khel bhi jo ek kasai aur koi ek sthaniy chaimpiyan mil kar gelri par khel rahe the. usne gulabi rang ki jalidar baniyan pahni thi, jiske samne ke bhaag par barr ke akar aur bel bute bane hue the. ek kali lambi topi aur baDi baDi munchhon vala adami aaya aur usne halchal macha di. he mere bhagvan! kai saptahon se main ise khoj raha hoon. mait ne use chakma diya aur klaiv bhi pichhe ho liya aur jo log khel dekh rahe the, unke paas se aaDe teDhe Dhang se ve bhaag khaDe hue. wo adami ek chhoti si sports kaar se unka pichha karte hue ples tak pahuncha. jagah khali ho gai thi, vahan ek pulis vala shanivari vardi mein khaDa tha, jo us adami par chilla raha tha, magar wo adami ruk nahin paya, na un laDkon ko pakaD saka. kyonki jaise hi wo aage baDhta, logon ka taza rela aa jata, usse uska rasta ruk jata. mait ne kaha, ye adami ek pentar hai. tum jante hi ho us chhote se daDbe ke uupar mochi ki dukan ke uupri hisse mein wo rahta hai. wo shanivar aur itvaar ko chhoD kar kabhi bahar nahin nikalta. mainne uske bhi kuch foto khinche hain. wo adami apna yash chahne vala laga. baDa khabti sa, yaar! pentar ke saath ek sundar, ghamanDi laDki bhi hai, jo sharlauk homs ki tarah kapDe pahanti hai, jo mardane tveeD aur hiran ki khaal ke bane hote hain. maark ne kaha ki ye kaar bhi uski hogi. usne apni puri philm hi kharch kar Dali thi. adhunik kalakaron ke foto kuch ne tariqon se lene paDte hain.
mait khaskar baDa batuni tha, zizi ke sharabkhane mein jab wo us laDki ke pati se hailo karne gaya to bhi emili se baat karta raha. vahan bel butedar kutiya mein uske parivar ke log baithe the. pita ne klaiv ki or ishara karke use bulaya. pahle to usne dhyaan nahin diya, phir wo jakar teblon ki beech khaDa ho gaya—’han, kya baat hai?’
‘tumhen kuch paison ki to zarurat nahin hai?’
iske pahle ki wo javab deta, mait use angutha hila kar dikhane laga. wo dauDa, magar uske pita ne chillakar kaha, ruko aur wo ruk gaya. magar mait to vahan se uD liya, us aurat ko langhakar jo dam toD rahi thi, ya toD chuki thi.
klaiv bola ‘hamen to jana hi hai. ’
maan ne puchha ‘kisaliye?’
jaini boli ‘he sarvashaktiman!’
wo mait ke saath chala gaya. ve laDte jhagaDte, us shunya mein sama ge. shunya ka wo rasta unhonne hi to apne liye banaya tha. siDhiyon ke paas ek bhari bharkam aurat paDi hui thi. uske kapDe muDe kuchle hue se ho ge the. uske munh se jhaag uth rahe the. log tark vitark kar rahe the aur us stri ke liye kuch na kuch karne ke liye idhar se udhar lapak rahe the. jo log use vahan se uthana chahte the, unhen un logon ne dhakiya kar alag kar diya tha, jo chahte the ki wo vahin paDi rahe. kisi ne uske jute utaar diye. kuch log chez riyene ke restaran se pani lene dauDe, lekin aurat pani pi nahin saki. ek din in laDkon ne ek karigar ko uske nile kapDon aur sileti rang ke juton mein tebak baar ke samne paDe khaDe kharrate bharte dekha tha. vahan log pi rahe the. mait ne us adami ko bhi pahchan liya. kharab se kharab haalat mein bhi tum ek laash ka foto le sakte ho. magar ye jo foto mainne utara hai, wo to aaj tak ke sare foto mein sabse achchha hai. mait ne puri reel khatm kar di us pentar ke foto utarne par aur nai reel Daal di. aurat abhi bhi vahan paDi thi aur bheeD ki avaz ke pichhe embulens ki gaDi ki aane ki avaz sunai de rahi thi, jo niche ke port se us gaanv ki taraf dauD rahi thi. embulens ples tak to nahin pahunch pai, magar uske andar se logon ne strechar nikala aur us aurat ko utha liya. uska chehra baingni rang ka ho gaya tha. haath sardi ki subah ke saman thanDe paD ge the aur tange chauDi ho gai theen. laDke un logon mein se the, jo us embulens ke pichhe pichhe ja rahe the. mait ghutnon par phudak phudak kar chal raha tha is tarah jaise koi rusi nartak ho, taki wo us shaant kriyahin deh ka foto ne ne engal se nikal sake.
jab ye sab khatm ho gaya, to ve us krepri yani bel butedar jhopDi mein parivar ko ye sab sanasnikhej kahani sunane pahunche, magar ve vahan qatii rukna nahin chahte the. ve vahan se apne gaanv ke ghar chal diye. vastav mein ye ghatna aur iske chitr aise hain, jinhen tum afrika mein dikha sakte ho, mait ne kaha. wo us dopahar ko apna minaks kaimra kaam mein la raha tha aur usne kaha ki jab philm dhul jayegi. jo foto ki pratiyan wo use zarur bhejega. ise band kar lo, hamein tab tak intzaar karna paDega, jab tak hamare mata pita nais nahin pahunchte, kyonki philm yahan dhul nahin sakti. aur ve nais sirf budhvaron ko hi jate hain.
‘chale jaoge? vapas afrika!’ ye sochte hi use wo lambi duri jo us jagah aur afrika ke beech thi, yaad aa gai. duriyon ke saath ve sari sadiyan yaad aa gain aur us mahadvip ka khali naksha, milon mein darshai duriyan, log vahan ke gaanv aadi sab kuch yaad aa gaya, ‘iska matlab ye hua ki tum vapas afrika chale jaoge?”
klaiv ne apna baaks kaimra almari ke havale kar diya aur uske saath yorap ki sari yaden bhi, taki wo jab bhi almari khole vahan ki yaden unhen dekh kar phir taza ho uthen aur wo vahan ke liye lalayit ho jaye. uska un chizen se gahra rishta ban gaya tha.
pahle din skool mein usne ek ne shabd ke saath Deeng hanki aur us nai jagah ka varnan kiya, jahan wo gaya tha. lekin kuch hi saptah mein usne jo shahr, jo mahl vagaira dekhe the, unke hi bare mein itihas aur bhugol ki kaksha mein bhi varnan suna. wo sab paDhte samay usne ye nahin bataya ki ye sab jaghen usne dekh rakhi hain. vastav mein pathya pustkon mein un jaghon ke jo chitr bane the aur jo varnan tha, wo sab vaisa tha hi nahin, jaisa usne svayan dekha tha.
ek din usne apna kaimra uthaya aur wo ek khel miting mein gaya. vahan usne paya ki uske kaimre mein khinchi hui philm lagi hai. jab wo philm usne dhulvai to usmen billiyon ke foto the. usne un chitron ko idhar udhar ghumakar archve ke kale kale patthron par kabhi mandi roshni mein to kabhi tez mein dikhaya, usmen amriki laDke mait ke bhi foto the. ek chharahra laDka jiske ghutne kuch aaut auph phokas hokar baDe lag rahe the, jo eqdam shankalu magar tez buddhi ka lagta tha, aur uske baal lambe lambe the.
parivar eksaath ekatrit hua. chhuttiyon mein kya kya dukh dard bahar jakar jhela aur kitna maza aaya, ye sab hanste muskurate aapas mein batane lage. ‘yah ‘taim’, ‘laiph’ maigzinon ka adami khud hai, bichara buDha adami, jante ho uska dusra naam kya tha? maan ne kaha ‘yah foto tumko us buDhe ke paas bhejna chahiye. tumhare paas uska pata to hoga hee? kya tumhara usse ab koi sampark nahin hai?’
haan, magar uska pata to mere paas tha hi nahin. mait ki koi gali nahin thi, makan nahin tha, gali mein makan nahin tha, na makan mein kamra tha; na gali, na makan, na makan mein kamra, kuch bhi nahin tha uska. klaiv ne kaha, theek vaisa jaisa amerika mein uske paas kuch nahin tha, magar wo ab amerika mein hai jaise ve pahle bhi amerika mein the. ve vahan ke shunya se aaye the aur yahan ke shunya se mil kar vapas apne shunya mein laut ge.
roz savere use bheja jata tha bekar ki dukan par. gaanv ki billiyon ki tarah kali kali divaron mein se nikal kar bahar aa jate the ve kale upaniveshi phrench bachche jo uske kadmon ke nishanon par qadam rakh kar uska pichha karte the. wo ye to nahin samajh pata tha ki ve bachche kya baten karte the, magar wo unki hansi ko samajh leta tha aur maan leta tha ki ve use ek azanbi ki tarah dekh rahe hain. ghar se nikalte hi, har gali, har darvaze, har pagDanDi par chalte chalte, pichhe muDkar wo adhaDri mudra mein dekhta aur un bachchon ki anchahi upasthiti se ghabraya Dari Dari nazron se ye bhanpne ki koshish karta ki akhir ve aisa kyon karte hain? bachchon ne bekar ki dukan tak uska pichha nahin kiya. shayad bekar un bachchon ko apne tak aane hi nahin deta tha. ve bachche baDe gharib dikhte the aur unhen malum tha ki bekar unhen ek prakar ka chor manata tha, aisa chor, jo ghar par paDe kale nigro shishuon ke liye breD churaya karte the. wo apne dakshin afriki ghar se kabhi bekri par nahin gaya. vahan to ek kala bekri vala saikil ki ghanti tanatnata gali ke bhaunkte kutton se Darta bachta yaarD mein aata tha aur ek safed aur ek braun breD kichan ki tebal par rakh kar chala jata tha. aisa hi sabji vala, phal vala aur pheri vala bhi karta tha. ek din ek bharatiy buDhe vallabh bhai ne apne ghar ke pichhe ek lauri rukvai. lanri vale ke kale nigro naukar se vallabh bhai ne jo jo kharida, wo sab le jakar ghar ke andar rakh diya.
lekin parivar ke logon ka kahna tha ki chhoti chhoti galiyon mein dabi chhupi dukanon se saman lene mein jo maza hai, wo pheri valon se lene mein nahin. ve usse baar baar phrench mein breD breD pukarne ko kahte, magar avaz koi kaisi bhi de ek baar agar koi bekar ki dukan mein ghus gaya to vahan ke log usi breD ki or ishara karte the jo chahiye hoti thi, ve breD dete aur uske hathon mein rakhe paise le lete the. use lagta jaise wo koi alag qism ka adami ho, shayad koi gunga. agar kisi din uska man koi nai cheez kharidne ka hota, to wo chamakdar murabbe se chupDi mithi breD ki taraf ishara karta. is tarah wo dukandar ka ek pakka grahak ban gaya. jo aurat use breD vagaira nikal kar deti, wo usse batiyati, muskrakar uske gaal thapthapati, sar par haath pherti, uski hatheli par rakhe paise utha leti aur wo gumsum in harakton par khaDa rahta, koi javab nahin deta.
ek laDka aur tha, jo kabhi kabhi aksar apne sathiyon ke jhunD mein dikh jata tha. wo jab bhi apne sathiyon ko dekhta to gali ke paar se chillakar abhivadan karta, unki hi bhasha mein kuch khushi zahir karta phir unke paas jakar unse batachit karne lagta. wo laDka bilkul alag tarah ka tha aur ye laDka manata tha ki wo kuch zyada maldar hai. vaise to wo laDka kainvas ke jute aur suti nekar hi pahanta tha, magar uske kandhon par tarah tarah ki lubhavni chizen latki rahti theen, jaise ki ek kaimra aur chamDe ke do khubsurat kes. wo bhi pratidin bekri mein dikhai dene laga. wo bekri mein bilkul paas aakar khaDa ho jata, kuch bhi nahin bolta, bheeD mein ek adrishya adami ki tarah, ek gunge adami ki tarah. wo apne sunahre bhure balon ki ghani chamak ke beech se baDi bhanpne vali nigahon se dekhta rahta, ahsas aisa karata jaise wo kauntar ki taup par rakhi kek dekh kar apne aap se mazakiya Dhang se baat kar raha ho, ya us stri se atyant atmiy lahze mein batiya raha ho, jaise wo pahle se parichit ho. wo apne sathiyon ke jhunD ke bina bhi kai anya jaghon par dikhai deta tha. ek baar wo ek mehrabanuma raste ki surang mein jhukkar dekhne laga, jismen se kisi skool ke mutralay jaisi badbu aa rahi thi. wo badbudar gali, jo jaldi se uupar se niche pahunchne ka rasta tha. wo us gali ko paar kar gaya. gali par ek gulabi dharidar makan ke darvaze se hathon mein alibaba ke bartan lekar ek adami bahar nikla. aisa lagta tha ki wo khiDki ki taraf gaur se dekh raha ho, phir wo uupar taup par khaDa hokar apne sharir ka santulan karne laga aur divar ke aar paar jhankne laga. divar ke paar bekri vala aur anya log ek bhari gend se khelte nazar aa rahe the. wo us darvaze ke paas se nikal kar aage baDh gaya. kuch duri par jakar us darvaze ke samne palathi maar kar baith gaya aur kaimre ke andar kuch na kuch karne laga. us adami ne ghar ke bahar se puchha—’kya tum angrez ho?”
‘haan, magar sach puchha jaye to—’nahin. . . nahin’. mera matlab main angrezi bolta to hoon, magar main rahne vala dakshin afrika ka hoon. ’
‘afrika? tum afrika ke rahne vale? are, wo to ek nark hai. ’
—qarib pandrah ghante ho ge. hum ek jet viman se aaye the. hamein thoDa zyada vaqt laga, kyonki shayad ek injin mein kuch kharabi aa gai thi. hamein aadhi raat ko kena mein teen ghante intzaar karna paDa. ‘suna laDke! baDi garmi thi, aur asapas uunt manDra rahe the. ’ —yah qissa achanak hi band ho gaya. aksar aisi kahaniyan parivar ke log baDha chaDha kar kahte hain, jinse uub paida hoti hai.
mere paas kuch manoram aur mazedar anubhav hain. mere mata pita sari duniya ki sair karte phirte hain. main bhi unke saath jata hoon, adhikansh vaqt! main apne ghar vapas bahut thoDe samay ke liye aata hoon aur sirf patjhar ke mausam mein hi skool jata hoon. afrika! adbhut! hum vahan kabhi kabhi bahar nikal paDte hain. aap in rangin poloraiD fotografon ko dekh rahe hain na? ye chitr dekho, yahin atak gaya hai. mainne tumhare bhi kuch foto utare hain. tumhein dikhata hoon. main bahut saaf aur baDhiya foto khinchta hoon. sari duniya mein mera javab nahin. mere paas ek kaimra aur hai—minauks kaimra. magar main yahi kaimra kaam mein leta hoon, kyonki ismen andar hi print apne aap ban kar bahar aa jata hai. isse hum logon ko foto usi samay de sakte hain. ye dekho, ye foto hansne hansane ke liye kitna achchha hai. mere paas kuch aur mazedar foto hain.
‘main is gali mein akhir hoon kahan?’
‘are main to pure vaqt foto hi khinchta raha hoon. sab jagah ke foto. ’
‘us dusre kes mein kya hai?’
‘tep rikarDar, main apaki avaz bhi tep karunga. main logon ko zizi ke sharabghar mein isi tarah tep kar leta hoon. unko pata bhi nahin chalta ki main aisa kar raha hoon. ’
‘are! ye kaisi avaz suni mainne. mere tep mein ek chhota sa bahut shanadar maikrofon hai. kisi ko dikhai nahin deta. ’
‘aur is kes ke andar kya hai?’
usne ek chandi ka chhaDinuma eriyal kheench kar nikala. ‘mera tranjistar mera pyara tranjistar! jante ho ismen mainne kya suna? ‘help’ vale geet ka rekarD. tajjub! bitalz (angrezi amriki sangitkar laDkon ka prasiddh samuh) oh bitalz! yahan afrika mein bhi itne lokapriy!’
‘hamne unhen landan mein dekha tha—ek laiv karyakram mein. mere saath mere bhai bahan bhi the. meri bahan to ‘help’ ka rekarD kharid bhi lai. magar ye rekarD yahan bajane ka matlab hi kya, isliye to hamne bajaya nahin. ’
‘baDi achchhi baat hai. kuch pratibhashali laDkon ko zara jaldi hi mauqe mil jate hain. tumne to unko dekha hi tha. mainne bhi apne baal unki hi tarah kaise baDha liye the. kuch to bolo yaar! dekho, main apna portebal rekarD pleyar lekar aata hoon. tumhari bahan us par apna ye rekarD sun sakti hai. ’
‘tum kis vaqt aa sakte ho?’
‘aap jab kahen, main to khali hoon. sirf mujhe abhi abhyas ke liye jana hai, main dopahar ko aa jaunga, bujurg madam blench ke bahar jane ke pahle. vahan lanch lekar, uske baad aapse zarur milunga. qarib do baje. ’
‘main aapka intzaar karunga. kya mere foto bhi lete ayenge?’
klaiv ek chhote baramde se dauDta hua aaya. usne wo jhulta parde vala darvaza jhatke se khola. ghar si avaz hui, aur usne darvaza jhulta chhoD diya.
‘hey! dekho yahan ek laDka hai jo angreji bol sakta hai. abhi abhi isne mujhse angrezi mein baat ki hai. wo vastav mein ek sahi amrikan hai. thoDi der ruko. dekho uske paas kya hai? ek kaimra. usne mere kuch foto bhi khinche, magar main to use janta tak nahin. uske paas ek chhota sa tep rikarDar bhi hai. us par logon ki avaz is tarah se li jati hai ki logon ko pata bhi nahin chalta. tranjistar to uske paas itna chhota hai ki vaisa mainne pahle kabhi nahin dekha. ’
‘haan, to tumhein ek dost mil gaya. ’ uski maan ne kaha ‘bhagvan bhala kare. ’ wo salad ke liye hari mirch kaat rahi thi. usne chaqu ki nonk par salad ka ek tukDa aage kar diya lekin uski taraf dekha nahin.
‘vah to sari duniya mein ghumta phirta hai. ab amrika ja raha hai. vahan wo bahut kam samay ke liye skool bhi jata hai. main nahin janta, usne ‘phaul’ ke bare mein kuch kaha hai. wo shayad skool hoga. ’
‘are murakh! phaul koi kisi jagah ka naam nahin hai. phaul ka matlab patjhar hota hai. ’
ghar mein jo phavvara bana tha, wo rasoighar se sata hua tha aur nahane ki jagah ek almari ki tarah thi. uska darvaza khiskakar khola jata tha. darvaza andar ki taraf apni frem mein hamesha hilta rahta tha.
‘tum baDe hi jaldbaz ho. darvaza itne jhatke se kholte ho?’ uski bahan ne kaha, ‘isse tumhein kya mila?’ uske chehre par baDi baDi ichchhaon, akankshaon ki chamak thi. plastik ki chhoti chamakdar topi ke beech se jhankta uska chehra. kitna masum!
‘jen! chalo ab rekarD sun sakte hain. wo rekarD pleyar lekar aa raha hai. janti ho wo amrika ka rahne vala hai. ’
kya umr hogi?’
‘yahi, taqriban meri umr ka hoga. ’
usne apna hait utara. uske lambe, ghane sidhe kesh; chehra, palkon aadi ko Dhankte hue kandhon par bikhar ge. usne kaha, ‘bahut achchhe! bitalz ke balon ki tarah. ’
uske pita Daining tebal ki kursi par baith kar ‘nais maitin’ paDhne lage. wo kitab ek khubsurat guDiya ki tarah thi, jis par pila kavar skart ki tarah tha, jo uski jild par phit tha.
jaise hi laDka kuch bola, usne ek asaphal si koshish ki aur baDe atmiy tariqe se uska pair dabaya. use laga ki laDka ab koi mazedar mudra dikhayega, ye jatate hue ki unki ek ek baat sun raha hai wo puchhne laga, ‘tumhare dost ka naam kya hai?’
‘are—yah to mujhe pata hi nahin ki wo amrikan hai. wo to abhi ek chhokra hi hai. magar uske paas teen teen chamDe ke kes hain. ’
‘tumhen wo aaj dopahar ko mil sakta hai. uske baal bital kat mein baDe baDe hain, achchhe lagte hain. ’ ye shabd usne us chhoti laDki se kahe. laDki ekdam muDi aur ek pathrile jine par apne gile gile pairon ke nishan banati jina chaDh gai.
sach puchha jaye to jeni laDki ki umr paar kar gai thi aur vayaskon ki tarah milti julti thi. wo ekdam se puchhne lagi—’to laDka amriki hai. ’ ‘kaun?’ use ek pura javab mila. ‘haan’ main hoon wo laDka. mujhe aksar mait kah kar pukarte hain, lekin ye to mere beech ke naam ka sankshipt hai. vastav mein to mera naam nikolas maithyu stes kailar hai. ’
‘bahut juniyar, bahut chhote ho abhi. ’ usne use chheDte hue puchha, ‘beech ka naam to theek, achchha batao tisra naam kya hai?’
‘are nahin, nahin, akhir mujhe aisa kyon hona chahiye? mere pita ka naam to DonalD rutes kailar hai. mera pratham naam to mere nana ke parivar par rakha gaya hai. meri maan ka to baDa bhari bharkam parivar tha. uske paanch bhaiyon ne yuddh mein paanch paanch alankran hasil kiye the. mera matlab hai teen to jarman yuddhon mein aur do koriyan yuddh mein. mere chhote chacha ka naam rauD tha, unki peeth mein ek chhed tha, theek pasaliyon ke paas, use haath laga kar mahsus kar sakte the. mera matlab mera haath. ’ —usne apni chhoti chhoti mutthi taan kar apna haath bataya, jo kisi vayask haath jaisa nahin lagta tha. ‘achchha ye batao, mere haath ko aur kitna mota hona chahiye? kya itna hi aur? taki, wo ek pure baDe adami ke haath jaisa lage?’ usne apne hathon ko klaiv ke hathon se mila kar mapa. do das das saal ki mutthiyan utsukta ke saath usne klaiv ki mutthiyon se mila deen.
‘tumhari aur klaiv ki mutthiyan mil kar baDi ho jayengi—bilkul king saiz ki. theek kisi baDe adami ke panje jaisi. achchha ab ye kupan pakDo. iske uupri sire par ek chaukhana chipkao, theek usi se milta julta. ’
lekin baDe bhai ki lalchai baton par kisi ne dhyaan nahin diya ya phir unhonne hi in do chhote laDkon ko ghalat samjha. klaiv kuch dabi zaban se kahna chahta tha, us vigyan patrika ki shaan bagharte hue wo uske bare mein apni raay de sakta tha, jisse uska dost juDa hua tha. mait baDi masumiyat ke saath ek aise bachche ki tarah bolta chala gaya, jiski svabhavikta ko sabne svikar liya, theek usi tarah jaise koi shishu maan ki god mein ho.
wo aksar us dopahar ke baad se us nivas (ples) par aane laga aur uske rekarD pleyar par pahli baar hamne bital ka naya rekarD suna. javan laDkon ke paas to uski prtiksha ke siva aur koi kaam tha nahin, magar maan baap dopahar ke bhojan ke baad aram karne chale jate the. (ghar ke asapas ki jagah jahan jeni ko shaam ko tahalna pasand tha, aur jahan wo tahalte tahalte kuch manchale laDkon ki nazren apni or khinchti thi, us din baDi udaas ya mayus lagi. laDke nazren bacha kar ghurte bhar the, magar unhen uski bhasha to aati nahin thee). isliye us samay haus ke angan mein baith kar ve baar baar wo rekarD sunte rahte the.
wo ples yani nivas, ek kisan ke baDe makan mein badalne ke pahle suaron ka baDa tha. jab rekarD dhire dhire pura ho jata, to mait un logon ki avazen tep karta, ‘koi afriki baat kaho’ aur maark julu boli ke kuch shabd gaDD maDD karke bolne lagta. ve laDke iske julu mein bole ge kuch tute phute shabd samajh lete. kabhi kabhi wo kuch gande aur joshile shabd bolta, jo galiyan hoti theen ya afrikan kabilon ke kuch prachalit muhavare, ya parichit saDak sanketon ke shabd. jaise—’saka bona, vayetesak, hembekabal, ho tiks malingi mushal, vrayestat. ’ bhai bahan kursi ki do tangon ko uchka kar jhulte aur batiyate. mait baDi barik nazron se dekhta aur unki baten aise sunta, jaise koi pakshishastri kisi durlabh panchhi ki avaz sun raha ho. ‘bahut achchhe, bahut achchhe laDke! shukriya, shukriya! ye sari baten, ye sare shabd us Dakyumentri mein honge, jo main banane vala hoon. Dakyumentri ka kuch bhaag mere pita ke muvi kaimre se banega aur usmen kuch mere achal chitr bhi honge. abhi to main pataktha taiyar karne mein laga hoon. wo ghar par rakhi hai. ’ usne un logon ko ye bhi bata diya ki uske pita ek kitab likh rahe hain. kai kitaben, ek ek kitab ek ek desh par, un deshon par jahan jahan ve ge aur is kaam mein maan bhi madad kar rahi hai. ve log to apna kaam baDi mustaidi aur tanmayta se karte hain. ve dopahar ke pahle apna kaam shuru karke raat ko ek baje tak apne kaam mein lage rahte hain. yahi vajah hai ki mujhe bhi ghar se subah bahut jaldi bahar nikal jana paDta hai. main tab tak ghar vapas nahin aata jab tak ve jaag kar lanch ke liye nahin uth baithte. main is vajah se bhi ghar se bahar rahta hoon ki unko shanti ki zarurat hai. sone ke liye bhi aur kaam ke liye bhi.
jeni boli, ‘tumne uski nekar dekhi? madrasi kapDe ki nekar? madrasi kautan jiske bare mein tumne paDha hai. ise dhote hain, to iske rang aur chatakh uthte hain. meri ichchha thi kaash, aisa kapDa tum bhi yahan kharid pate. ’
‘DeD! wo tranjistar bhi gazab ka hai. udhar dekho, maark angan mein jhanDe ke chabutre par dhoop mein sar latkaye is tarah baitha hai, jaise usne pure saal apne ghar par dhoop khai hi na ho. haan, phraans mein wo dhoop senkta to zarur tha, magar is tarah suraj ki garam dhoop mein nahin baithta tha. ’
‘theek hai. ve log apne bachchon ko buri tarah se bigaD dete hain. isi ka ek namuna ye hai. iske paas pachas paunD ka ek kaimra khilaune ki tarah hai. baDe hokar inke jivan mein kis baat ki kami rahegi?’
klaiv ko pure samay mait ke bare mein batachit karna achchha lagta. wo bola, ‘amerika mein uske paas ek jadui kutiya hai. abhi abhi unhonne use bech diya hai, kyonki ve duniya bhar ki sair karte phirte hain aur vahan to bahut hi kam rah pate hain. ’
maan boli, ‘baDa hi shaitan hai wo bachcha gardan mein duniya bhar ke ganDe tabiz aur kabaDkhana latkaye phirta hai aur apni gandi gali mein hi paDa rahta hai. ’
klaiv ‘ho. . . ho’ karke chillaya, ‘haan kabaDa, kuDa karkat, sahi to hai. ’ usne apne kandhe uchkaye aur apni hatheli masal kar ghumai. ‘yaqin janiye, us kuDe ke muqable to saikDon Daular bhi kahin nahin lagte. jise tum kuDa kahti ho, uske bare mein tumhein pata vata kuch hai nahin aur yon hi baDbaDati ho. ’
‘achchha mistar batao to zara, ek Daular hota kitna hai?’ jeni ne Daular ko apni mudra mein badalne vali tebal rat rakhi thi. ye tebal use havai jahaz mein chaDhte vaqt treval ejent ne di thi.
‘main nahin janta ki kitna hota hai. main to amerika ke bare mein baat kar raha hoon. ’
klaiv ke pita roz use samjhate, “dekho beta, tumhein us laDke ke saath gaanv ke bahar niche utar kar nahin jana hai. ghumna hai, to gaanv mein hi ghumo. ’
wo parivar ke saath bhi kabhi gaanv ke bahar nahin gaya. na usne aaj tak entibij ka ajayebghar jakar dekha, na velloris ki mitti ki pautri aur yahan tak ki markerilo ke mahlon, kesino (juaghar) aur machhlighar dekhne bhi wo kabhi nahin gaya. vahi purana gaanv, chaharadivari se ghira, betartib galiyon vala, ek ajib jagah, jo utna hi asmanjas aur bhram paida karta hai, jitna ki yorap ke smarkon par likhi aur likhkar baar baar badal di gai tarikhen. yahi uske aur mere liye jana pahchana gaanv ka naqsha tha, jiske simit dayre mein hamein ghumna paDta tha. gali ki billiyan bhi logon ke saath is naqshe par vicharti rahti theen. log na jane kya baDbaDate rahte the, unki bhasha samajh mein nahin aati thi, maart aur ve jo kaam karte the wo baDe gopaniy Dhang se hota tha, kya gatividhiyan hoti theen kuch bhi samajh mein nahin aata tha. ve savere se shaam tak kisi gambhir uddeshya se ghumte rahte the. kai baar ve kisi kone mein dubak kar chhup jate the. ve chahte the ki saDak paar karte unhen koi na dekhe, ve dopahar baad ki kisi bheeD ke logon ki tarah lagna nahin chahte the.
un kale bachchon se ek kaam jo jabran karaya jata tha wo tha kisi girjaghar se murghajali uthakar le aane ka. agar kahin koi rangin kaanch ke tukDe ya badrang mozek ki papDi milti to use utha late aur ye kaam is prakar karna paDta tha ki koi skool ke niche khiDakiyon se unhen dekh na le. ye kaam ve subah tab karte the, jab skool chalta tha. wo skool ek prakar se patthron ka ghar tha. usmen koi khel ka maidan nahin tha. roz roz ek jaisa koras bachche ga ga kar uub jate the. unki avaz mujhe apne desh ke kale bachchon ke skulon ki yaad dilati thi. kabhi gaanv ke bachche poonchh laga kar janavron ki nakal karte, aur hansi mazak karte ya kabhi behad chuppi dharan kar lete the, jise toDna lagbhag asambhav hota tha. laDkiyan bhi vahan hoti theen. jaldi hi usne ungliyon ke zariye apmanajnak ishare karna seekh liya tha. wo kai shabd nahin janta, usne ek shabd phrench mein chillana bhi seekh liya tha. shayad, wo gali ka shabd ‘marde’ tha, jiska matlab koi gandi maan ki gali hota hai.
mait hamesha baten kiya karta tha. wo phrench ki hi tarah utaar chaDhav se bhari uunchi aur khushi bhari avaz mein zara gopaniy Dhang se angrezi bolta tha. kai baar wo baDi uttejit avaz mein logon ka abhivadan karta aur aisa lagta, jaise uski dhvani uske munh se uchhalkar bahar aa rahi ho. uski tez avaz divaron se takrakar vapas jati aur uski wo rahasyamay Dhang se boli jane vali angrezi sun kar un laDkon ke sar jhuk jate the. yahan tak ki jab uski avaz bilkul dhimi ho jati thi, aur wo maatr phusaphusata to uski gol gol kali ankhon se bahar nirasha jhankne lagti thi, uski dabi dabi naak ke uupar chalaki bhari tyaunri chaDh jati thi, koshthkon ki tarah uski bhaunhe tan kar uupar niche hone lagti theen aur jo bhi uske asapas hote the, sabke sab chaunk jate the. wo ajanabiyon ka svagat bhi usi tarah karta tha, jis tarah apnon ka karta tha. kuch log bhrman par aate to wo unke paas jakar khaDa ho jata aur unki or dekhta rahta aur kabhi koi nalkarmi men hol kholne aata to usse wo baDe joshile Dhang se batachit karta. jab wo apne sathiyon ke saath phrench bolta, to uski phrench un gaanv ke bachchon ki phrench se thoDi behtar hoti thi. mait kandhe uchkata aur niche ka honth bahar nikal nikal kar bolne lagta. agar kuch log uske itna bolne se tang aa jate ya tajjub mahsus karte to wo unse parashn karne lagta. (klaiv ko sun kar pata chal jata tha ki ve log parashn kar rahe hain). uske parashn karne ka tarika baDa mazedar hota tha. aise prashnon se bachchon ki jhemp mit jati thi.
mait batuni tha. kabhi kabhi wo kisi ko batachit karte bulata to ghar ke darvaze ke samne raste par kursi Dale baitha vyakti uski baat shuru hone sa pahle hi uthkar andar chala jata aur darvaza band kar leta. is par wo angrezi mein baDe tez svar mein kahta ‘is shahr ke log sachmuch thoDe bahut sanki hain. main in sabki asliyat janta hoon, har ek ki. koi mazak nahin kar raha hoon. ’ paas hi jo jhurriyon se bhare chehre vali buDhi aurat lambe kale moje, lamba epran pahne, kala chauDa hait lagaye makan mein baithi baithi opan restran ke liye phaliyan chhilti dikhai deti, wo uski baat sun kar, apna akhroti rang ka pake gosht sa chehra uthakar hiss ki avaz karti, jaise koi hans bol raha ho.
mait usse jakar mila tha. aisa mere pita ne bataya tha. ye us vaqt ki baat hai, jab peris mein baaDh aai thi. ek vishalakay aurat ne iske naam ka ek baDa sa postar apne sine par laga kar uska pradarshan kiya. wo postar pahankar aisi lagti thi, jaise ki patthar ki tarah phasil ho ge peD ke tane par koi nai tahni ho aur usmen patti aa gai ho. wo mait ki taraf munh bana bana kar gurrai. mere paas uske kuch foto hain, baDe zabardast aur shanadar. sach puchha jaye to wo ek vaibhavshali purani mahila thi.
mait ne ek aur foto liya, jismen ek adami ek bangle ke pichhe parking ki jagah par ek laDki ka chumban le raha tha. mait ne uska pichha kiya. klaiv bhi ab uske asapas apna bauks kaimra lekar chal paDa, lekin usne keval billiyon ke foto khinche. mait ne ek baune ka foto khinchne ka bhi klaiv ko ashvasan diya. wo bauna vastav mein manushya tha, kisi sarkas ka bauna nahin tha. wo us restran mein baira ban gaya tha aur memne ka gosht khaas tarah se paka kar parosta tha. klaiv ka svbhaav fotographar jaisa nahin tha. wo jaldi pareshan ho jata, jhempta aur Dar jata. ek baar spenish nrityangna ka sar baune ke sar se takra gaya to klaiv ka chehra jhemp se laal ho gaya tha. aisi baat to uske liye asahya thi. par mait ne wo drishya apne poloraiD kaimre mein utaar liya tha. ve ab ek dusre darvaze par chale ge the, jahan plastik ki pattiyon vala ek parda latak raha tha, taki makkhiyan andar na ghusen. unhonne andar jhanka. vahan us baune ka sar tha, jo is tarah chhote se sharir par matak raha tha, jaise ungliyon se chalne vali koi kathputli ho. mait itraya to nahin, magar uske kahne ka andaz zara aisa tha ki jab usne adbhut ya ghajab kaha to usse itrane ki jhalak mili. isse pahle mainne itna achchha drishya kabhi nahin dekha tha. ye saubhagya ki baat thi aur ek sanyog hi tha ki hum ek saptah pahle yahan nahin aaye, jab wo lagbhag pagla hi gaya tha aur use aspatal le jana paDa tha. wo abhi abhi hi vapas aaya hai aur achchha raha ki tumne use mis nahin kiya, is beech agar tum afrika chale jate, to use dekh nahin pate.
jo parivar madrasi kapDe ki nekar pahne, saath mein apna sundar sa tranjistar dikhate hue logon se milta tha aur klaiv ke jis dost ke rekarD pleyar par rekarD sun kar jinko baDa maza aata tha, unhonne dekha ki wo laDka bahut hi vachal aur batuni ho gaya hai, kuch zyada hi ghar aane laga hai aur aksar galiyon mein hi ghumta rahta hai. klaiv ko parivar valon ne hidayat di ki wo parivar ke saath hi bahar jaye. ve qarib 20 meel door gaDi chala kar ge sirf isliye ki vahan soop mein pakai machhli khane ki ichchha thi. unhonne puri dopahar foto dekhne mein hi guzar di. wo gali se ekdam nikal kar aaya aur puchhne laga ki ‘ki hum kis vaqt vapas chalenge. ’ ‘main nahin janta, yahi koi dopahar baad. ’ ‘kya hum do baje tak vapas nahin chal sakte? akhir hum is dharti par samay se bandhe hi kyon hain? aaj to hamara chhutti hai, phir wo vapas gali mein dauDkar chala gaya aur vahan bhi is tarah ki asantoshajnak suchana deta raha.
jab parivar ghar vapas aa gaya to wo dubla chharahra laDka saDak moD par khaDa hokar haath hilane laga. ek baar ve use andhere se galiyon ki roshni mein laye the to uska sapat chehra aisa laga tha, jaise wo adhpagla ho, uska kutta aur wo donon udaas lage. usne batachit karte hue sar uupar uthaya to aisa laga, jaise wo aisi tren ka intzaar kar raha tha jo theek samay par aane vali ho. dusre din angan ke ek kone se dusre kone tak ek sandesh likha tha ‘mait! tumse punah phir kabhi milenge. ’
‘akhir un logon ke saath samasya kya hai? yahan tak ki ve to apne bachche ko samudr tat par tairane tak nahin le jate’, maan ne kaha. klaiv ne ye baat suni par usmen koi dilchaspi nahin dikhai. wo is gulabi ghar mein kabhi alibaba pauts ke saath nahin gaya tha. mait vahan se ek billi ki tarah udit hua tha. uske paas hamesha hi paisa rahta tha. unhonne ek aisi jagah ka pata laga liya tha, jahan babalgam beche jate the, kabhi kabhi ve vahan se roti bhi kharid lete. jab mait klaiv se kahta ki chalo kuch karari roti aur murabba lenge. (jo klaiv ko bhi pasand the) to klaiv ko ye pata nahin rahta tha ki mait use kahan le jane vala hai. vahin uski Dakyumentri philm banti thi aur isi tarah wo apni kitab bhi likh raha tha. kai baar bachchon ki aisi kitabon se kafi paisa milta hai, jo bachchon dvara hi likhi jati hain. ye baat mait ne us parivar ko samjhai. usne kaha ki uski kitab ek jasusi kahani hai. use ummid thi ki uski kitab achchhi chal niklegi aur jo foto usne liye hain, ve bhi wo ‘taim’ aur ‘laiph’ maigzins ko bech sakega.
ek pyari si subah klaiv ki maan ne puchha ki ‘agar hum log mait ko havai jahaz par vida karne chalen to mait mana to nahin karega. bachche baDe baDe jet viman utarte dekh sakenge aur baDe apna kaam kaaj ya rizarveshan aadi karate rahenge. ’ pita ne kaha ki ‘agar tum chaho to apne liye lemaneD ka arDar kar do. ’ uska matlab tha ki vapas aakar wo lemaneD ke liye paise de denge. phir unhonne lemaneD piya aur aisakrim khai aur phir mait ne kaha ki main in chizon ka asar kam karne ke liye ek blaik kaufi lena chahunga. mait aur klaiv donon ne blaik kaufi pi aur jab bil aaya to pita chiDh ge, kyonki phraans mein kaufi bahut mahngi thi, jabki unke desh mein to gilas bhar kaufi pani ke mol mil jati hai.
mait ne kaha main din bhar mein paanch chhah kaufi pi sakta hoon aur mera livar vagairah kabhi kharab nahin hota. nais mein to ples yani ghar asapas hi tha, baad mein vahan mesina aur jeni bhi pichhe se aa gai jo chahti theen ki ve vaise hi polo shart khariden, jaise phrench laDkiyan pahanti hain, magar laDkon ko nais jane ki ijazat nahin di gai, is Dar se ki kahin ve vahan un laDakiyon ke saath bheeD bhaaD mein kho na jayen. isi karan unhen vahan ka baDa favvara bhi dekhne nahin jane diya gaya. mait ne klaiv ke kaan mein kuch phusphusa kar kaha. magar wo use samajh nahin saka. ab to mait bhi parivar ka hi ek aisa laDka ban gaya tha, jaisa koi bhi chhota laDka parivar mein ho sakta tha.
shanivar ka din tha. jab ve sidhi saDak se ghar ke liye Draiv karte hue ravana hue to wo adhpagla, aur kutta nai nai traifik lait ke paas baithe hue the. mait ne jab us adhapagle ki avaz suni to khiDki se bahar jhankakar phrench mein usse namaste kaha. gaanv mein saptahant par aane vale sailaniyon ki bheeD baDh chuki thi. lanch niche uplabdh tha aur laDke us pattika ki taraf tezi se lapke, jahan zeviyar Dyuval 20 aktubar, 1944 ko virodh pradarshan karte hue mare ge the aur jinki yadgar mein ye pattika lagakar samaroh manaya ja raha tha. klaiv vahan pahle se hi maujud tha aur apne dost mait ka udahran aur uski sari takniki baDi vafadari se is tarah aazma raha tha ki jab wo mauqe ke foto le raha tha to mait ko bhi ye pata nahin chala ki us par bhi kisi ki nigah hai. vastav mein wo dopahar us din ki sabse shanadar dopahar thi. mait ne kaha tha ki ‘shanivar ke din hamesha hi achchhe din hote hain. tamam qism ke bhaybhit aur manmarzi karne vale log yahan manDrane lagte hain. mere bhai, zara apni ankh khuli rakho, mainne lanch ke vaqt tak apni kitab ka chaudahvan adhyay pura kar liya hai, wo mere kamre mein ek tre mein rakha hua hai. ’ ve aaj subah chaar baje ke pahle hi nikal ge the, pahle to ve uth hi nahin rahe the. ‘is eyarport par ye sab pahle se hi tay hai, yaad rakho tumne dekha hoga mera munh kis tarah ghoom raha tha aur jab jahaz ne uDaan bhari to zara si bhi avaz tak yahan nahin aai. paas hi kaufi pite pite kisi ki hatya ho gai, magar uski avaz aur cheekh pukar kisi ne nahin suni. adami ki maut par kisi ka dhyaan nahin, sabke sab havai jahaz ki uDaan ki avaz par thame hue. ’
ve kaar park mein se guzar rahe the aur sports mauDlon ke moti jaise chamakdar top par haath ghuma rahe the. paas hi gaDDhe mein laD rahe jhabrile kutton ke dangal se ve bekhbar se the aur us adami se bhi jo ples ke mutralay mein dhakka mukki karta pravesh kar raha tha. mait bola, ‘mere paas to in apradhiyon ke ab kafi foto ho ge hain. ’ phir ve phuladar paint pahne khaDi us laDki ke paas se guzre jo ro rahi thi, apne us jhabrile kutte ko lekar jo sangharsh kar raha tha. ples ke zara uupar ki or sthaniy logon ki bheeD jama thi, park ki tang galiyan karon se pat gai theen, phrench aur aljiriyan laDke arbi sangit baja rahe the, jo bahut hi uttejak aur bhadda tha aur wo sangit riyane ke bare mein tha, us makan vali buDhi aurat ke chez riyane ke bare mein. bauna bhi vahan tha. wo ek amerikan sundri ko nihar raha tha aur daant daba daba kar is tarah baten kar raha tha, jaise use chaba jayega. uske doston ka hanste hanste dam nikla ja raha tha, lekin ve uski or baDi narmai dikha rahe the. buDhi aurton ne baDe kale hait laga kar aur apne pet par epran baandh kar bench par jagah bana li. vahan aur bhi jhabrile kutte the, ek iteliyan grehaunnD chamkile barik taron ke jevar se saja hua khaDa tha, jo is kutta dangal mein bhaag lene aaya tha. paraspar mitr aurten bahar ki teblon par jam gai theen aur mitr log baingni jeens aur gulabi qamiz mein sigret ka dhuan uDate ziji baar ke samne baith ge. adami aurat samudrattiy kapDe pahne haath mein haath Dale dukanon aur sharabaghron ke darvazon mein jhankte. jaise hi kutte apne malikon ki Doriyan tuDa kar bhagte, aurten ek dusre ka haath pakaD kar khinchne lagtin. mait ne klaiv ke parivar ki or ishara kiya, jo apni pasandida roti, desi sharab ke saath kha raha tha, magar klaiv ne use jhatak diya.
unhonne wo shvaan dangal kuch der tak dekha aur wo khel bhi jo ek kasai aur koi ek sthaniy chaimpiyan mil kar gelri par khel rahe the. usne gulabi rang ki jalidar baniyan pahni thi, jiske samne ke bhaag par barr ke akar aur bel bute bane hue the. ek kali lambi topi aur baDi baDi munchhon vala adami aaya aur usne halchal macha di. he mere bhagvan! kai saptahon se main ise khoj raha hoon. mait ne use chakma diya aur klaiv bhi pichhe ho liya aur jo log khel dekh rahe the, unke paas se aaDe teDhe Dhang se ve bhaag khaDe hue. wo adami ek chhoti si sports kaar se unka pichha karte hue ples tak pahuncha. jagah khali ho gai thi, vahan ek pulis vala shanivari vardi mein khaDa tha, jo us adami par chilla raha tha, magar wo adami ruk nahin paya, na un laDkon ko pakaD saka. kyonki jaise hi wo aage baDhta, logon ka taza rela aa jata, usse uska rasta ruk jata. mait ne kaha, ye adami ek pentar hai. tum jante hi ho us chhote se daDbe ke uupar mochi ki dukan ke uupri hisse mein wo rahta hai. wo shanivar aur itvaar ko chhoD kar kabhi bahar nahin nikalta. mainne uske bhi kuch foto khinche hain. wo adami apna yash chahne vala laga. baDa khabti sa, yaar! pentar ke saath ek sundar, ghamanDi laDki bhi hai, jo sharlauk homs ki tarah kapDe pahanti hai, jo mardane tveeD aur hiran ki khaal ke bane hote hain. maark ne kaha ki ye kaar bhi uski hogi. usne apni puri philm hi kharch kar Dali thi. adhunik kalakaron ke foto kuch ne tariqon se lene paDte hain.
mait khaskar baDa batuni tha, zizi ke sharabkhane mein jab wo us laDki ke pati se hailo karne gaya to bhi emili se baat karta raha. vahan bel butedar kutiya mein uske parivar ke log baithe the. pita ne klaiv ki or ishara karke use bulaya. pahle to usne dhyaan nahin diya, phir wo jakar teblon ki beech khaDa ho gaya—’han, kya baat hai?’
‘tumhen kuch paison ki to zarurat nahin hai?’
iske pahle ki wo javab deta, mait use angutha hila kar dikhane laga. wo dauDa, magar uske pita ne chillakar kaha, ruko aur wo ruk gaya. magar mait to vahan se uD liya, us aurat ko langhakar jo dam toD rahi thi, ya toD chuki thi.
klaiv bola ‘hamen to jana hi hai. ’
maan ne puchha ‘kisaliye?’
jaini boli ‘he sarvashaktiman!’
wo mait ke saath chala gaya. ve laDte jhagaDte, us shunya mein sama ge. shunya ka wo rasta unhonne hi to apne liye banaya tha. siDhiyon ke paas ek bhari bharkam aurat paDi hui thi. uske kapDe muDe kuchle hue se ho ge the. uske munh se jhaag uth rahe the. log tark vitark kar rahe the aur us stri ke liye kuch na kuch karne ke liye idhar se udhar lapak rahe the. jo log use vahan se uthana chahte the, unhen un logon ne dhakiya kar alag kar diya tha, jo chahte the ki wo vahin paDi rahe. kisi ne uske jute utaar diye. kuch log chez riyene ke restaran se pani lene dauDe, lekin aurat pani pi nahin saki. ek din in laDkon ne ek karigar ko uske nile kapDon aur sileti rang ke juton mein tebak baar ke samne paDe khaDe kharrate bharte dekha tha. vahan log pi rahe the. mait ne us adami ko bhi pahchan liya. kharab se kharab haalat mein bhi tum ek laash ka foto le sakte ho. magar ye jo foto mainne utara hai, wo to aaj tak ke sare foto mein sabse achchha hai. mait ne puri reel khatm kar di us pentar ke foto utarne par aur nai reel Daal di. aurat abhi bhi vahan paDi thi aur bheeD ki avaz ke pichhe embulens ki gaDi ki aane ki avaz sunai de rahi thi, jo niche ke port se us gaanv ki taraf dauD rahi thi. embulens ples tak to nahin pahunch pai, magar uske andar se logon ne strechar nikala aur us aurat ko utha liya. uska chehra baingni rang ka ho gaya tha. haath sardi ki subah ke saman thanDe paD ge the aur tange chauDi ho gai theen. laDke un logon mein se the, jo us embulens ke pichhe pichhe ja rahe the. mait ghutnon par phudak phudak kar chal raha tha is tarah jaise koi rusi nartak ho, taki wo us shaant kriyahin deh ka foto ne ne engal se nikal sake.
jab ye sab khatm ho gaya, to ve us krepri yani bel butedar jhopDi mein parivar ko ye sab sanasnikhej kahani sunane pahunche, magar ve vahan qatii rukna nahin chahte the. ve vahan se apne gaanv ke ghar chal diye. vastav mein ye ghatna aur iske chitr aise hain, jinhen tum afrika mein dikha sakte ho, mait ne kaha. wo us dopahar ko apna minaks kaimra kaam mein la raha tha aur usne kaha ki jab philm dhul jayegi. jo foto ki pratiyan wo use zarur bhejega. ise band kar lo, hamein tab tak intzaar karna paDega, jab tak hamare mata pita nais nahin pahunchte, kyonki philm yahan dhul nahin sakti. aur ve nais sirf budhvaron ko hi jate hain.
‘chale jaoge? vapas afrika!’ ye sochte hi use wo lambi duri jo us jagah aur afrika ke beech thi, yaad aa gai. duriyon ke saath ve sari sadiyan yaad aa gain aur us mahadvip ka khali naksha, milon mein darshai duriyan, log vahan ke gaanv aadi sab kuch yaad aa gaya, ‘iska matlab ye hua ki tum vapas afrika chale jaoge?”
klaiv ne apna baaks kaimra almari ke havale kar diya aur uske saath yorap ki sari yaden bhi, taki wo jab bhi almari khole vahan ki yaden unhen dekh kar phir taza ho uthen aur wo vahan ke liye lalayit ho jaye. uska un chizen se gahra rishta ban gaya tha.
pahle din skool mein usne ek ne shabd ke saath Deeng hanki aur us nai jagah ka varnan kiya, jahan wo gaya tha. lekin kuch hi saptah mein usne jo shahr, jo mahl vagaira dekhe the, unke hi bare mein itihas aur bhugol ki kaksha mein bhi varnan suna. wo sab paDhte samay usne ye nahin bataya ki ye sab jaghen usne dekh rakhi hain. vastav mein pathya pustkon mein un jaghon ke jo chitr bane the aur jo varnan tha, wo sab vaisa tha hi nahin, jaisa usne svayan dekha tha.
ek din usne apna kaimra uthaya aur wo ek khel miting mein gaya. vahan usne paya ki uske kaimre mein khinchi hui philm lagi hai. jab wo philm usne dhulvai to usmen billiyon ke foto the. usne un chitron ko idhar udhar ghumakar archve ke kale kale patthron par kabhi mandi roshni mein to kabhi tez mein dikhaya, usmen amriki laDke mait ke bhi foto the. ek chharahra laDka jiske ghutne kuch aaut auph phokas hokar baDe lag rahe the, jo eqdam shankalu magar tez buddhi ka lagta tha, aur uske baal lambe lambe the.
parivar eksaath ekatrit hua. chhuttiyon mein kya kya dukh dard bahar jakar jhela aur kitna maza aaya, ye sab hanste muskurate aapas mein batane lage. ‘yah ‘taim’, ‘laiph’ maigzinon ka adami khud hai, bichara buDha adami, jante ho uska dusra naam kya tha? maan ne kaha ‘yah foto tumko us buDhe ke paas bhejna chahiye. tumhare paas uska pata to hoga hee? kya tumhara usse ab koi sampark nahin hai?’
haan, magar uska pata to mere paas tha hi nahin. mait ki koi gali nahin thi, makan nahin tha, gali mein makan nahin tha, na makan mein kamra tha; na gali, na makan, na makan mein kamra, kuch bhi nahin tha uska. klaiv ne kaha, theek vaisa jaisa amerika mein uske paas kuch nahin tha, magar wo ab amerika mein hai jaise ve pahle bhi amerika mein the. ve vahan ke shunya se aaye the aur yahan ke shunya se mil kar vapas apne shunya mein laut ge.
स्रोत :
पुस्तक : विश्व की श्रेष्ठ कहानियाँ (खण्ड-2) (पृष्ठ 245)
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।
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