संध्या का समय था। डॉक्टर चड्ढा गोल्फ़ खेलने के लिए तैयार हो रहे थे। मोटर द्वार के सामने खड़ी थी कि दो कहार एक डोली लिए आते दिखाई दिए। डोली के पीछे एक बूढ़ा लाठी टेकता चला आता था। डोली औषधालय सामने आकर रुक गई। बूढ़े ने धीरे-धीरे आकर द्वार पर पड़ी हुई चिक से झाँका। ऐसी साफ़-सुथरी ज़मीन पर पैर रखते हुए भय हो रहा था कि कोई घुड़क न बैठे। डॉक्टर साहब को मेज़ के सामने खड़े देखकर भी उसे कुछ कहने का साहस न हुआ।
डॉक्टर साहब ने चिक के अंदर से गरजकर कहा—कौन है? क्या चाहता है?
बूढ़े ने हाथ जोड़कर कहा—हुज़ूर, बड़ा ग़रीब आदमी हूँ। मेरा लड़का कई दिन से...
डॉक्टर साहब ने सिगार जलाकर कहा—कल सबेरे आओ, कल सबेरे; हम इस वक़्त मरीज़ों को नहीं देखते।
बूढ़े ने घुटने टेककर ज़मीन पर सिर रख दिया और बोला—दुहाई है सरकार की, लड़का मर जाएगा। हुज़ूर, चार दिन से आँखें नहीं...
डॉक्टर चड्ढा ने कलाई पर नज़र डाली। केवल 10 मिनट समय और बाक़ी था। गोल्फ़-स्टिक खूँटी से उतारते हुए बोले—कल सबेरे आओ, कल सबेरे; यह हमारे खेलने का समय है।
बूढ़े ने पगड़ी उतारकर चौखट पर रख दी और रोकर बोला—हुज़ूर, बस एक निगाह देख लें। बस, एक निगाह! लड़का हाथ से चला जाएगा हुज़ूर, सात लड़कों में यही एक बचा है, हज़ूर! हम दोनों आदमी रो-रोकर मर जाएँगे, सरकार! आपकी बढ़ती होए, दीनबंधु!
ऐसे उजड्ड देहाती यहाँ प्राय: रोज़ आया करते थे। डॉक्टर साहब उनके स्वभाव से ख़ूब परिचित थे। कोई कितना ही कुछ कहे; पर वे अपनी रट लगाते जाएँगे। किसी की सुनेंगे नहीं। धीरे से चिक उठाई और बाहर निकलकर मोटर की तरफ़ चले। बूढ़ा यह कहता हुआ उनके पीछे दौड़ा—सरकार, बड़ा धरम होगा! हज़ूर, दया कीजिए, बड़ा दीन-दुखी हूँ; संसार में कोई और नहीं है, बाबूजी!
मगर साहब ने उसकी ओर से मुँह फेरकर देखा तक नहीं। मोटर में बैठकर बोले—कल सबेरे आना।
मोटर चली गई। बूढ़ा कई मिनट तक मूर्ति की भाँति निश्चल खड़ा रहा। संसार में ऐसे मनुष्य भी होते हैं, जो अपने आमोद-प्रमोद के आगे किसी की जान की भी परवाह नहीं करते, शायद इसका उसे अब भी विश्वास न आता था। सभ्य संसार इतना निर्मम, इतना कठोर है, इसका ऐसा मर्ममेदी अनुभव अब तक न हुआ था। वह उन पुराने ज़माने के जीवों में था, जो लगी हुई आग बुझाने, मुर्दे को कंधा देने, किसी के छप्पर को उठाने और किसी कलह को शांत करने के लिए सदैव तैयार रहते थे। जब तक बूढ़े को मोटर दिखाई दी, वह खड़ा टकटकी लगाए उसी ओर ताकता रहा। शायद उसे अब भी डॉक्टर साहब के लौट आने की आशा थी। फिर उसने कहारों से डोली उठाने को कहा। डोली जिधर से आई थी, उधर ही चली गई। चारों ओर से निराश होकर डॉक्टर चड्ढा के पास आया था। इनकी बड़ी तारीफ़ सुनी थी। यहाँ से निराश होकर वह फिर किसी दूसरे डॉक्टर के पास नहीं गया। किस्मत ठोक ली!
उसी रात को उसका हँसता-खेलता सात साल का बालक अपनी बाल-लीला समाप्त करके इस संसार से सिधार गया। बूढ़े माँ-बाप के जीवन का यही एक आधार था। इसी का मुँह देखकर जीते थे। इस दीपक के बुझते ही जीवन की अँधेरी रात भाँय-भाँय करने लगी। बुढ़ापे की विशाल ममता टूटे हुए हृदय से निकलकर उस अंधकार में आर्त्त-स्वर से रोने लगी।
दो
कई साल गुज़र गए। डॉक्टर चड्ढा ने ख़ूब यश और धन कमाया; लेकिन इसके साथ ही अपने स्वास्थ्य की रक्षा भी की, जो एक असाधारण बात थी। यह उनके नियमित जीवन का आशीर्वाद था कि 50 वर्ष की अवस्था में उनकी चुस्ती और फुर्ती युवकों को भी लज्जित करती थी। उनके हर एक काम का समय नियत था, इस नियम से वह जौ-भर भी न टलते थे। बहुधा लोग स्वास्थ्य के नियमों का पालन उस समय करते हैं, जब रोगी हो जाते हैं।
डॉक्टर चड्ढा उपचार और संयम का रहस्य ख़ूब समझते थे। उनकी संतान-संख्या भी इसी नियम के अधीन थी। उनके केवल दो बच्चे हुए, एक लड़का और एक लड़की। तीसरी संतान न हुई; इसलिए श्रीमती चड्ढा भी अभी जवान मालूम होती थीं। लड़की का तो विवाह हो चुका था। लड़का कॉलेज में पढ़ता था। वही माता-पिता के जीवन का आधार था। शील और विनय का पुतला, बड़ा ही रसिक, बड़ा ही उदार, विद्यालय का गौरव, युवक-समाज की शोभा। मुख-मंडल से तेज़ की छटा-सी निकलती थी। आज भी अच्छा था। आज उसी की बीसवीं सालगिरह थी।
संध्या का समय था। हरी-हरी घास पर कुर्सियाँ बिछी हुई थीं। शहर के रईस और हुक्काम एक तरफ़, कॉलेज के छात्र दूसरी तरफ़ बैठे भोजन कर रहे थे। बिजली के प्रकाश से सारा मैदान जगमगा रहा था। आमोद-प्रमोद का सामान जमा था। छोटा-सा प्रहसन खेलने की तैयारी थी। प्रहसन स्वयं कैलाश नाथ ने लिखा था। वही मुख्य ऐक्टर भी था। इस समय वह एक रेशमी क़मीज़ पहने, नंगे पाँव, इधर-से-उधर मित्रों की आव-भगत में लगा हुआ था। कोई पुकारता—कैलाश, ज़रा इधर आना; कोई उधर से बुलाता—कैलाश, क्या उधर ही रहोगे? सभी उसे छेड़ते थे, चुहलें करते थे। बेचारे को ज़रा दम मारने का भी अवकाश न मिलता था। सहसा एक रमणी ने उसके पास आकर कहा—क्यों कैलाश, तम्हारे साँप कहाँ हैं? ज़रा मुझे दिखा दो।
कैलाश ने उससे हाथ मिलाकर कहा—मृणालिनी, इस वक़्त क्षमा करो, कल दिखा दूँगा।
मृणालिनी ने आग्रह किया—जी नहीं, तुम्हें दिखाना पड़ेगा, मैं आज नहीं मानने की, तुम रोज़ ‘कल-कल’ करते रहते हो।
मृणालिनी और कैलाश दोनों सहपाठी थे और एक दूसरे के प्रेम में पड़े हुए। कैलाश को साँपों के पालने, खेलाने और नचाने का शौक था। तरह-तरह के साँप पाल रखे थे। उनके स्वभाव और चरित्र की परीक्षा करता रहता था। थोड़े दिन हुए, उसने विद्यालय में ‘साँपों’ पर एक मार्के का व्याख्यान दिया था। साँपों को नचाकर दिखाया भी था। प्राणिशास्त्र के बड़े-बड़े पंडित भी यह व्याख्यान सुनकर दंग रह गए थे! यह विद्या उसने एक बूढ़े सँपेरे से सीखी थी। साँपों की जड़ी-बूटियाँ जमा करने का उसे मरन था। इतना पता-भर मिल जाए कि किसी व्यक्ति के पास कोई अच्छी बड़ी है, फिर उसे चैन न आता था। उसे लेकर ही छोड़ता था। यही व्यसन था। इस पर हज़ारों रुपए फूँक चुका था। मृणालिनी कई बार आ चुकी थी; पर कभी साँपों के देखने के लिए इतनी उत्सुक न हुई थी। कह नहीं सकते, आज उसकी उत्सुकता सचमुच जाग गई थी, या वह कैलाश पर अपने अधिकार का प्रदर्शन करना चाहती थी; पर उसका आग्रह बेमौक़ा था। उस कोठरी में कितनी भीड़ लग जाएगी, भीड़ को देखकर साँप कितने चौंकेंगे और रात के समय उन्हें छेड़ा जाना कितना बुरा लगेगा, इन बातों का उसे भरा भी ध्यान न आया।
कैलाश ने कहा—नहीं, कल ज़रूर दिखा दूँगा। इस वक़्त अच्छी तरह दिखा भी तो न सकूँगा, कमरे में तिल रखने की भी जगह न मिलेगी।
एक महाशय ने छेड़कर कहा—दिखा क्यों नहीं देते जी, ज़रा-सी बात के लिए इतना टालमटोल कर रहे हो? मिस गोविंद, हर्गिज़ न मानना। देखें, कैसे नहीं दिखाते!
दूसरे महाशय ने और रद्दा चढ़ाया—मिस गोविंद इतनी सीधी और भोली हैं, तभी आप इतना मिलान करते हैं; दूसरी सुंदरी होती, तो इसी बात पर बिगड़ खड़ी होती।
तीसरे साहब ने मज़ाक उड़ाया—अजी, बोलना छोड़ देती। भला कोई बात है! इसपर आपको दावा है कि मृणालिनी के लिए जान हाज़िर है।
मृणालिनी ने देखा कि ये शोहदे उसे चंग पर चढ़ा रहे हैं, तो बोली—आप लोग मेरी वकालत न करें, मैं ख़ुद अपनी वकालत कर लूँगी। मैं इस वक़्त साँपों का तमाशा नहीं देखना चाहती। चलो, छुट्टी हुई।
इस पर मित्रों ने ठट्ठा लगाया। एक साइब बोले—देखना तो आप सब कुछ चाहें, पर कोई दिखाए भी तो?
कैलाश को मृणालिनी की झँपी हुई सूरत देखकर मालूम हुआ कि इस वक़्त उसका इंकार वास्तव में उसे बुरा लगा है। ज्योंहीं प्रीति भोज समाप्त हुआ और गाना शुरू हुआ, उसने मृणालिनी और अन्य मित्रों को साँपों के दरबे के सामने ले जाकर महुअर बजाना शुरू किया। फिर एक-एक खाना खोलकर एक-एक साँप को निकालने लगा। वाह! क्या कमाल था! ऐसा जान पड़ता था कि ये कीड़े उसकी एक-एक बात, उसके मन का एक-एक भाव समझते हैं। किसी को उठा लिया, किसी को गर्दन में डाल लिया, किसी को हाथ में लपेट लिया। मृणालिनी बार-बार मन करती कि इन्हें गर्दन में न डालो, दूर ही से दिखा दो। बस, ज़रा नचा दो। कैलाश की गर्दन में साँपों को लिपटते देखकर उसकी जान निकल जाती थी। पछता रही थी कि मैंने व्यर्थ ही इनसे साँप दिखाने को; मगर कैलाश एक न सुनता था। प्रेमिका के संमुख अपने सर्प-कला प्रदर्शन का ऐसा अवसर पाकर वह कब चूकता! एक मित्र ने टीका—दाँत तोड़ डाले होंगे?
कैलाश हँसकर बोला—दाँत तोड़ डालना मदारियों का काम है। किसी के दाँत नहीं तोड़ गए। कहिए तो दिखा दूँ? कह कर उसने एक काले साँप को पकड़ लिया और बोला—मेरे पास इससे बड़ा और ज़हरीला साँप दूसरा नहीं है, अगर किसी को काट ले, तो आदमी आनन-फानन में मर जाए। लहर भी न आए। इसके काटे पर मंत्र नहीं। इसके दाँत दिखा दूँ?
मृणालिनी ने उसका हाथ पकड़कर कहा—नहीं-नहीं, कैलाश, ईश्वर के लिए इसे छोड़ दो। तुम्हारे पैरों पड़ती हूँ।
इस पर एक-दूसरे मित्र बोले—मुझे तो विश्वास नहीं आता, लेकिन तुम कहते हो, तो मान लूँगा।
कैलाश ने साँप की गर्दन पकड़कर कहा—नहीं साहब, आप आँखों से देखकर मानिए। दाँत तोड़कर वश में किया, तो क्या। साँप बड़ा समझदार होता हैं! अगर उसे विश्वास हो जाए कि इस आदमी से मुझे कोई हानि न पहुँचेगी, तो वह उसे हर्गिज़ न काटेगा।
मृणालिनी ने जब देखा कि कैलाश पर इस वक़्त भूत सवार है, तो उसने यह तमाशा बंद करने के विचार से कहा—अच्छा भई, अब यहाँ से चलो। देखा, गाना शुरू हो गया है। आज मैं भी कोई चीज़ सुनाऊँगी। यह कहते हुए उसने कैलाश का कंधा पकड़कर चलने का इशारा किया और कमरे से निकल गई; मगर कैलाश विरोधियों का शंका-समाधान करके ही दम लेना चाहता था। उसने साँप की गर्दन पकड़कर ज़ोर से दबाई, इतनी ज़ोर से दबाई कि उसका मुँह लाल हो गया, देह की सारी नसें तन गईं। साँप ने अब तक उसके हाथों ऐसा व्यवहार न देखा था। उसकी समझ में न आता था कि यह मुझसे क्या चाहते हैं। उसे शायद भ्रम हुआ कि मुझे मार डालना चाहते हैं, अतएव वह आत्मरक्षा के लिए तैयार हो गया।
कैलाश ने उसकी गर्दन ख़ूब दबाकर मुँह खोल दिया और उसके ज़हरीले दाँत दिखाते हुए बोला—जिन सज्जनों को शक हो, आकर देख लें। आया विश्वास या अब भी कुछ शक है? मित्रों ने आकर उसके दाँत देखें और चकित हो गए। प्रत्यक्ष प्रमाण के सामने संदेह को स्थान कहाँ। मित्रों का शंका-निवारण करके कैलाश ने साँप की गर्दन ढीली कर दी और उसे ज़मीन पर रखना चाहा; पर वह काला गेहुअन क्रोध से पागल हो रहा था। गर्दन नर्म पड़ते ही उसने सिर उठाकर कैलाश की उँगली में ज़ोर से काटा और वहाँ से भागा। कैलाश की ऊँगली से टप-टप ख़ून टपकने लगा। उसने ज़ोर से उँगली दबा ली और अपने कमरे की तरफ़ दौड़ा। वहाँ मेज़ की दराज़ में एक जड़ी रखी हुई थी, जिसे पीसकर लगा देने से घातक विष भी रफ़ू हो जाता था। मित्रों में हलचल पड़ गई। बाहर महफ़िल में भी ख़बर हुई। डॉक्टर साहब घबराकर दौड़े। फ़ौरन उँगली की जड़ कस कर बाँधी गई और जड़ी पीसने के लिए दी गई। डॉक्टर साहब जड़ी के क़ायल न थे। वह उँगली का डसा भाग नश्तर से काट देना चाहते थे, मगर कैलाश को जड़ी पर पूर्ण विश्वास था। मृणालिनी प्यानों पर बैठी हुई थी। यह ख़बर सुनते ही दौड़ी, और कैलाश की उँगली से टपकते हुए ख़ून को रूमाल से पोंछने लगी। जड़ी पीसी जाने लगी; पर उसी एक मिनट में कैलाश की आँखें झपकने लगीं, होंठों पर पीलापन दौड़ने लगा। यहाँ तक कि वह खड़ा न रह सका। फ़र्श पर बैठ गया। सारे मेहमान कमरे में जमा हो गए। कोई कुछ कहता था। कोई कुछ। इतने में जड़ी पीसकर आ गई। मृणालिनी ने उँगली पर लेप किया। एक मिनट और बीता। कैलाश की आँखें बंद हो गईं। वह लेट गया और हाथ से पंखा झलने का इशारा किया। माँ ने दौड़कर उसका सिर गोद में रख लिया और बिजली का टेबुल-फ़ैन लगा दिया।
डॉक्टर साहब ने झुककर पूछा—कैलाश, कैसी तबीयत है? कैलाश ने धीरे से हाथ उठा दिया; पर कुछ बोल न सका। मृणालिनी ने करुण स्वर में कहा—क्या जड़ी कुछ असर न करेंगी? डॉक्टर साहब ने सिर पकड़कर कहा—क्या बतलाऊँ, मैं इसकी बातों में आ गया। अब तो नश्तर से भी कुछ फ़ायदा न होगा।
आध घंटे तक यही हाल रहा। कैलाश की दशा प्रतिक्षण बिगड़ती जाती थी। यहाँ तक कि उसकी आँखें पथरा गईं, हाथ-पाँव ठंडे हो गए, मुख की कांति मलिन पड़ गई, नाड़ी का कहीं पता नहीं। मौत के सारे लक्षण दिखाई देने लगे। घर में कुहराम मच गया। मृणालिनी एक ओर सिर पीटने लगी; माँ अलग पछाड़े खाने लगी। डॉक्टर चड्ढा को मित्रों ने पकड़ लिया, नहीं तो वह नश्तर अपनी गर्दन पर मार लेते।
एक महाशय बोले—कोई मंत्र झाड़नेवाला मिले, तो संभव है, अब भी जान बच जाए।
एक मुसलमान सज्जन ने इसका समर्थन किया—अरे साहब क़ब्र में पड़ी हुई लाशें ज़िंदा हो गईं हैं। ऐसे-ऐसे बाकमाल पड़े हुए हैं।
डॉक्टर चड्ढा बोले—मेरी अक़्ल पर पत्थर पड़ गया था कि इसकी बातों में आ गया। नश्तर लगा देता, तो यह नौबत ही क्यों आती। बार-बार समझाता रहा कि बेटा, साँप न पालो, मगर कौन सुनता था! बुलाइए, किसी झाड़-फूँक करने वाले ही को बुलाइए। मेरा सब कुछ ले ले, मैं अपनी सारी जायदाद उसके पैरों पर रख दूँगा। लँगोटी बाँधकर घर से निकल जाऊँगा; मगर मेरा कैलाश, मेरा प्यारा कैलाश उठ बैठे। ईश्वर के लिए किसी को बुलवाइए।
एक महाशय का किसी झाड़नेवाले से परिचय था। वह दौड़कर उसे बुला लाए; मगर कैलाश की सूरत देखकर उसे मंत्र चलाने की हिम्मत न पड़ी। बोला—अब क्या हो सकता है, सरकार? जो कुछ होना था, हो चुका।
अरे मूर्ख, यह क्यों नहीं कहता कि जो कुछ न होना था, हो चुका? जो कुछ होना था, वह कहाँ हुआ? माँ-बाप ने बेटे का सेहरा कहाँ देखा? मृणालिनी का कामना-तरू क्या पल्लव और पुष्प से रंजित हो उठा? मन के वह स्वर्ण-स्वप्न जिनसे जीवन आनंद का स्रोत बना हुआ था, क्या पूरे हो गए? जीवन के नृत्यमय तारिका-मंडित सागर में आमोद की बहार लूटते हुए क्या उनकी नौका जलमग्न नहीं हो गई? जो न होना था, वह हो गया!
वही हरा-भरा मैदान था, वही सुनहरी चाँदनी एक नि:शब्द संगीत की भाँति प्रकृति पर छाई हुई थी; वही मित्र-समाज था। वही मनोरंजन के सामान थे। मगर जहाँ हास्य की ध्वनि थी, वहाँ करुण क्रदंन और अश्रु-प्रवाह था।
तीन
शहर से कई मील दूर एक छोटे-से घर में एक बूढ़ा और बुढ़िया अँगीठी के सामने बैठे जाड़े की रात काट रहे थे। बूढ़ा नारियल पीता था और बीच-बीच में खाँसता था। बुढ़िया दोनों घुटनियों में सिर डाले आग की ओर ताक रही थी। एक मिट्टी के तेल की कुप्पी ताक पर जल रही थी। घर में न चारपाई थी, न बिछौना। एक किनारे थोड़ी-सी पुआल पड़ी हुई थी। इसी कोठरी में एक चूल्हा था। बुढ़िया दिन-भर उपले और सूखी लकड़ियाँ बटोरती थी। बूढ़ा रस्सी बटकर बाज़ार में बेच आता था। यही उनकी जीविका थी। उन्हें न किसी ने रोते देखा, न हँसते। उनका सारा समय जीवित रहने में कट जाता था। मौत द्वार पर खड़ी थी, रोने या हँसने की कहाँ फ़ुर्सत! बुढ़िया ने पूछा—कल के लिए सन तो है नहीं, काम क्या करोंगे?
‘जाकर झगड़ू साह से दस सेर सन उधार लाऊँगा?’
‘उसके पहले के पैसे तो दिए ही नहीं, और उधार कैसे देगा?’
‘न देगा न सही। घास तो कहीं नहीं गई है। दुपहर तक क्या दो आने की भी न काटूँगा?’
इतने में एक आदमी ने द्वार पर आवाज़ दी—भगत, भगत, क्या सो गए? ज़रा किवाड़ खोलो।
भगत ने उठकर किवाड़ खोल दिए। एक आदमी ने अंदर आकर कहा—कुछ सुना, डॉक्टर चड्ढा बाबू के लड़के को साँप ने काट लिया।
भगत ने चौंककर कहा—चड्ढा बाबू के लड़के को! वही चड्ढा बाबू हैं न, जो छावनी में बँगले में रहते हैं?
‘हाँ-हाँ वही। शहर में हल्ला मचा हुआ है। जाते हो तो जाओं, आदमी बन जाओंगे।’
बूढ़े ने कठोर भाव से सिर हिलाकर कहा—मैं नहीं जाता! मेरी बला जाए! वही चड्ढा है। ख़ूब जानता हूँ। भैया को लेकर उन्हीं के पास गया था। खेलने जा रहे थे। पैरों पर गिर पड़ा कि एक नज़र देख लीजिए; मगर सीधे मुँह से बात तक न की। भगवान बैठे सुन रहे थे। अब जान पड़ेगा कि बेटे का ग़म कैसा होता है। कई लड़के हैं?
‘नहीं जी, यही तो एक लड़का था। सुना है, सबने जवाब दे दिया है।’
‘भगवान बड़ा कारसाज़ है। उस बखत मेरी आँखों से आँसू निकल पड़े थे, पर उन्हें तनिक भी दया न आई थी। मैं तो उनके द्वार पर होता, तो भी बात न पूछता।’
‘तो न जाओगे? हमने जो सुना था, सो कह दिया।’
‘अच्छा किया—अच्छा किया। कलेजा ठंडा हो गया, आँखें ठंडी हो गईं। लड़का भी ठंडा हो गया होगा! तुम जाओ। आज चैन की नींद सोऊँगा। (बुढ़िया से) ज़रा तमाखू ले ले! एक चिलम और पीऊँगा। अब मालूम होगा लाला को! सारी साहिबी निकल जाएगी, हमारा क्या बिगड़ा। लड़के के मर जाने से कुछ राज तो नहीं चला गया? जहाँ छः बच्चे गए थे, वहाँ एक और चला गया, तुम्हारा तो राज सुना हो जाएगा। उसी के वास्ते सबका गला दबा-दबाकर जोड़ा था न। अब क्या करोंगे? एक बार देखने जाऊँगा; पर कुछ दिन बाद। मिजाज का हाल पूछूँगा।’
आदमी चला गया। भगत ने किवाड़ बंद कर लिए, तब चिलम पर तमाखू रखकर पीने लगा।
बुढ़िया ने कहा—इतनी रात गए जाड़े-पाले में कौन जाएगा?
‘अरे, दुपहर ही होता तो मैं न जाता। सवारी दरवाज़े पर लेने आती, तो भी न जाता। भूल नहीं गया हूँ। पन्ना की सूरत आँखों में फिर रही है। इस निर्दयी ने उसे एक नज़र देखा तक नहीं! क्या मैं न जानता था कि वह न बचेगा? ख़ूब जानता था। चड्ढा भगवान नहीं थे, कि उनके एक निगाह देख लेने से अमृत बरस जाता। नहीं, ख़ाली मन की दौड़ थी। ज़रा तसल्ली हो जाती। बस, इसलिए उनके पास दौड़ा गया था। अब किसी दिन जाऊँगा और कहूँगा—क्यों साहब, कहिए, क्या रंग है? दुनिया बुरा कहेगी, कहे; कोई परवाह नहीं। छोटे आदमियों में तो सब ऐब हैं। बड़ो में कोई ऐब नहीं होता। देवता होते हैं।’
भगत के लिए यह जीवन में पहला अवसर था कि ऐसा समाचार पाकर वह बैठा रह गया हो। 80 वर्ष के जीवन में ऐसा कभी न हुआ था कि साँप की ख़बर पाकर वह दौड़ न गया हो। माघ-पूस की अँधेरी रात, चैत-बैसाख की धूप और लू, सावन-भादों की चढ़ी हुई नदी और नाले, किसी की उसने कभी परवाह न की। वह तुरंत घर से निकल पड़ता था—नि:स्वार्थ, निष्काम! लेन-देन का विचार कभी दिल में आया नहीं। यह सा काम ही न था। जान का मूल्य कौन दे सकता है? यह एक पुण्य-कार्य था। सैकड़ों निराशों को उसके मंत्रों ने जीवन-दान दे दिया था; पर आप वह घर से क़दम नहीं निकाल सका। यह ख़बर सुनकर सोने जा रहा है।
बुढ़िया ने कहा—तमाखू अँगीठी के पास रखी हुई है। उसके भी आज ढाई पैसे हो गए। देती ही न थी।
बुढ़िया यह कहकर लेटी। बूढ़े ने कुप्पी बुझाई, कुछ देर खड़ा रहा, फिर बैठ गया। अंत को लेट गया; पर यह ख़बर उसके हृदय पर बोझे की भाँति रखी हुई थी। उसे मालूम हो रहा था, उसकी कोई चीज़ खो गई है, जैसे सारे कपड़े गीले हो गए है या पैरों में कीचड़ लगा हुआ है, जैसे कोई उसके मन में बैठा हुआ उसे घर से निकलने के लिए कुरेद रहा है। बुढ़िया ज़रा देर में ख़र्राटे लेनी लगी। बूढ़े बातें करते-करते सोते है और ज़रा-सा खटका होते ही जागते हैं। तब भगत उठा, अपनी लकड़ी उठा ली, और धीरे से किवाड़ खोले।
बुढ़िया ने पूछा—कहाँ जाते हो?
‘कहीं नहीं, देखता था कि कितनी रात है।’
‘अभी बहुत रात है, सो जाओ।’
‘नींद, नहीं आतीं।’
‘नींद काहे को आएगी? मन तो चड्ढा के घर पर लगा हुआ है।’
‘चड्ढा ने मेरे साथ कौन-सी नेकी कर दी है, जो वहाँ जाऊँ? वह आकर पैरों पड़े, तो भी न जाऊँ।’
‘उठे तो तुम इसी इरादे से ही?’
‘नहीं री, ऐसा पागल नहीं हूँ कि जो मुझे काँटे बोए, उसके लिए फूल बोता फिरूँ।’
बुढ़िया फिर सो गई। भगत ने किवाड़ लगा दिए और फिर आकर बैठा। पर उसके मन की कुछ ऐसी दशा थी, जो बाजे की आवाज़ कान में पड़ते ही उपदेश सुननेवालों की होती हैं। आँखें चाहे उपदेशक की ओर हों; पर कान बाजे ही की ओर होते हैं। दिल में भी बाजे की ध्वनि गूँजती रहती हे। शर्म के मारे जगह से नहीं उठता। निर्दयी प्रतिघात का भाव भगत के लिए उपदेशक था; पर हृदय उस अभागे युवक की ओर था, जो इस समय मर रहा था, जिसके लिए एक-एक पल का विलंब घातक था।
उसने फिर किवाड़ खोले, इतने धीरे से कि बुढ़िया को ख़बर भी न हुई। बाहर निकल आया। उसी वक़्त गाँव को चौकीदार गश्त लगा रहा था, बोला—कैसे उठे भगत? आज तो बड़ी सर्दी है! कहीं जा रहे हो क्या?
भगत ने कहा—नहीं जी, जाऊँगा कहाँ! देखता था, अभी कितनी रात है। भला, कै बजे होंगे।
चौकीदार बोला—एक बजा होगा और क्या, अभी थाने से आ रहा था, तो डॉक्टर चड्ढा बाबू के बँगले पर बड़ी भड़ लगी हुई थी। उनके लड़के का हाल तो तुमने सुना होगा, कीड़े ने छू लिया है। चाहे मर भी गया हो। तुम चले जाओ तो साइत बच जाए। सुना है, इस हज़ार तक देने को तैयार हैं।
भगत—मैं तो न जाऊँ चाहे वह दस लाख भी दें। मुझे दस हज़ार या दस लाख लेकर करना क्या हैं? कल मर जाऊँगा, फिर कौन भोगनेवाला बैठा हुआ है।
चौकीदार चला गया। भगत ने आगे पैर बढ़ाया। जैसे नशे में आदमी की देह अपने क़ाबू में नहीं रहती, पैर कहीं रखता है, पड़ता कहीं है, कहता कुछ है, ज़बान से निकलता कुछ है, वही हाल इस समय भगत का था। मन में प्रतिकार था; पर कर्म मन के अधीन न था। जिसने कभी तलवार नहीं चलाई, वह इरादा करने पर भी तलवार नहीं चला सकता। उसके हाथ काँपते हैं, उठते ही नहीं।
भगत लाठी खट-खट करता लपका चला जाता था। चेतना रोकती थी, पर उपचेतना ठेलती थी। सेवक स्वामी पर हावी था।
आधी राह निकल जाने के बाद सहसा भगत रुक गया। हिंसा ने क्रिया पर विजय पाई—मै यों ही इतनी दूर चला आया। इस जाड़े पाले में मरने की मुझे क्या पड़ी थी? आराम से सोया क्यों नहीं?नींद न आती, न सही; दो-चार भजन ही गाता। व्यर्थ इतनी दूर दौड़ा आया। चड्ढा का लड़का रहे या मरे, मेरी बला से। मेरे साथ उन्होंने ऐसा कौन-सा सलूक किया था कि मैं उनके लिए मरूँ? दुनियाँ में हज़ारों मरते हैं, हज़ारों जीते हैं। मुझे किसी के मरने-जीने से मतलब!
मगर उपचेतन ने अब एक दूसरा रूप धारण किया, जो हिंसा से बहुत कुछ मिलता-जुलता था—वह झाड़-फूँक करने नहीं जा रहा है; वह देखेगा, कि लोग क्या कर रहे हैं। डॉक्टर साहब का रोना-पीटना देखेगा, किस तरह सिर पीटते हैं, किस तरह पछाड़ें खाते है! वह देखेगा कि बड़े लोग भी छोटों ही की भाँति रोते हैं, या सबर कर जाते हैं। वे लोग तो विद्वान होते हैं, सबर कर जाते होंगे! हिंसा-भाव को यों धीरज देता हुआ वह फिर आगे बढ़ा।
इतने में दो आदमी आते दिखाई दिए। दोनों बाते करते चले आ रहे थे—चड्ढा बाबू का घर उजड़ गया, वही तो एक लड़का था। भगत के कान में यह आवाज़ पड़ी। उसकी चाल और भी तेज़ हो गई। थकान के मारे पाँव न उठते थे। शिरोभाग इतना बढ़ा जाता था, मानों अब मुँह के बल गिर पड़ेगा। इस तरह वह कोई 10 मिनट चला होगा कि डॉक्टर साहब का बँगला नज़र आया। बिजली की बत्तियाँ जल रही थीं; मगर सन्नाटा छाया हुआ था। रोने-पीटने के आवाज़ भी न आती थी। भगत का कलेजा धक्-धक् करने लगा। कहीं मुझे बहुत देर तो नहीं हो गई? वह दौड़ने लगा। अपनी उम्र में वह इतना तेज़ कभी न दौड़ा था। बस, यही मालूम होता था, मानो उसके पीछे मौत दौड़ी आ री है।
चार
दो बज गए थे। मेहमान बिदा हो गए। रोने वालों में केवल आकाश के तारे रह गए थे। और सभी रो-रो कर थक गए थे। बड़ी उत्सुकता के साथ लोग रह-रह आकाश की ओर देखते थे कि किसी तरह सुबह हो और लाश गंगा की गोद में दी जाए।
सहसा भगत ने द्वार पर पहुँच कर आवाज़ दी। डॉक्टर साहब समझे, कोई मरीज़ आया होगा। किसी और दिन उन्होंने उस आदमी को दुत्कार दिया होता; मगर आज बाहर निकल आए। देखा एक बूढ़ा आदमी खड़ा है—कमर झुकी हुई, पोपला मुँह, भौंहैं तक सफ़ेद हो गई थीं। लकड़ी के सहारे काँप रहा था। बड़ी नम्रता से बोले—क्या है भई, आज तो हमारे ऊपर ऐसी मुसीबत पड़ गई है कि कुछ कहते नहीं बनता, फिर कभी आना। इधर एक महीना तक तो शायद मै किसी भी मरीज़ को न देख सकूँगा।
भगत ने कहा—सुन चुका हूँ बाबू जी, इसीलिए आया हूँ। भैया कहाँ है? ज़रा मुझे दिखा दीजिए। भगवान बड़ा कारसाज़ है, मुर्दे को भी जिला सकता है। कौन जाने, अब भी उसे दया आ जाए।
चड्ढा ने व्यथित स्वर से कहा—चलो, देख लो; मगर तीन-चार घंटे हो गए। जो कुछ होना था, हो चुका। बहुतेर झाड़ने-फँकनेवाले देख-देख कर चले गए।
डॉक्टर साहब को आशा तो क्या होती। हाँ बूढ़े पर दया आ गई। अंदर ले गए। भगत ने लाश को एक मिनट तक देखा। तब मुस्करा कर बोला—अभी कुछ नहीं बिगड़ा है, बाबू जी! यह नारायण चाहेंगे, तो आध घंटे में भैया उठ बैठेंगे। आप नाहक दिल छोटा कर रहे है। ज़रा कहारों से कहिए, पानी तो भरें।
कहारों ने पानी भर-भरकर कैलाश को नहलाना शुरू किया पाइप बंद हो गया था। कहारों की संख्या अधिक न थी, इसलिए मेहमानों ने अहाते के बाहर के कुएँ से पानी भर-भरकर कहारों को दिया, मृणालिनी कलसा लिए पानी ला रही थी। बूढ़ा भगत खड़ा मुस्करा-मुस्कराकर मंत्र पढ़ रहा था, मानो विजय उसके सामने खड़ी है। जब एक बार मंत्र समाप्त हो जाता, तब वह एक जड़ी कैलाश के सिर पर डाले गए और न-जाने कितनी बार भगत ने मंत्र फूँका। आख़िर जब उषा ने अपनी लाल-लाल आँखें खोलीं तो कैलाश की भी लाल-लाल आँखें खुल गईं। एक क्षण में उसने अँगड़ाई ली और पानी पीने को माँगा। डॉक्टर चड्ढा ने दौड़कर नारायणी को गले लगा लिया। नारायणी दौड़कर भगत के पैरों पर गिर पड़ी और मणालिनी कैलाश के सामने आँखों में आँसू-भरे पूछने लगी—अब कैसी तबीयत है?
एक क्षण में चारों तरफ ख़बर फैल गई। मित्रगण मुबारकबाद देने आने लगे। डॉक्टर साहब बड़े श्रद्धा-भाव से हर एक के सामने भगत का यश गाते फिरते थे। सभी लोग भगत के दर्शनों के लिए उत्सुक हो उठे; मगर अंदर जाकर देखा, तो भगत का कहीं पता न था। नौकरों ने कहा—अभी तो यहीं बैठे चिलम पी रहे थे। हम लोग तमाखू देने लगे, तो नहीं ली, अपने पास से तमाखू निकालकर भरी।
यहाँ तो भगत की चारों ओर तलाश होने लगी, और भगत लपका हुआ घर चला जा रहा था कि बुढ़िया के उठने से पहले पहुँच जाऊँ!
जब मेहमान लोग चले गए, तो डॉक्टर साहब ने नारायणी से कहा—बुड्ढा न-जाने कहाँ चला गया। एक चिलम तमाखू का भी रवादार न हुआ।
नारायणी—मैंने तो सोचा था, इसे कोई बड़ी रक़म दूँगी।
चड्ढा—रात को तो मैंने नहीं पहचाना, पर ज़रा साफ़ हो जाने पर पहचान गया। एक बार यह एक मरीज़ को लेकर आया था। मुझे अब याद आता है कि मैं खेलने जा रहा था और मरीज़ को देखने से इंकार कर दिया था। आप उस दिन की बात याद करके मुझें जितनी ग्लानि हो रही है, उसे प्रकट नहीं कर सकता। मैं उसे अब खोज निकालूँगा और उसके पेरों पर गिरकर अपना अपराध क्षमा कराऊँगा। वह कुछ लेगा नहीं, यह जानता हूँ, उसका जन्म यश की वर्षा करने ही के लिए हुआ है। उसकी सज्जनता ने मुझे ऐसा आदर्श दिखा दिया है, जो अब से जीवन-पर्यंत मेरे सामने रहेगा।
sandhya ka samay tha. Dauktar chaDDha golf khelne ke liye taiyar ho rahe the. motar dvaar ke samne khaDi thi ki do kahar ek Doli liye aate dikhai diye. Doli ke pichhe ek buDha lathi tekta chala aata tha. Doli aushadhalay samne aakar ruk gai. buDhe ne dhire dhire aakar dvaar par paDi hui chik se jhanka. aisi saaf suthari zamin par pair rakhte hue bhay ho raha tha ki koi ghuDak na baithe. Dauktar sahab ko mez ke samne khaDe dekhkar bhi use kuch kahne ka sahas na hua.
Dauktar sahab ne chik ke andar se garajkar kaha—kaun hai? kya chahta hai?
buDhe ne haath joDkar kaha—huzur, baDa gharib adami hoon. mera laDka kai din se. . .
Dauktar sahab ne sigar jalakar kaha—kal sabere aao, kal sabere; hum is vaqt marizon ko nahin dekhte.
buDhe ne ghutne tekkar zamin par sir rakh diya aur bola—duhai hai sarkar ki, laDka mar jayega. huzur, chaar din se ankhen nahin. . .
Dauktar chaDDha ne kalai par nazar Dali. keval 10 minat samay aur baqi tha. golf stik khunti se utarte hue bole—kal sabere aao, kal sabere; ye hamare khelne ka samay hai.
buDhe ne pagDi utarkar chaukhat par rakh di aur rokar bola—huzur, bas ek nigah dekh len. bas, ek nigah! laDka haath se chala jayega huzur, saat laDkon mein yahi ek bacha hai, hazur! hum donon adami ro rokar mar jayenge, sarkar! apaki baDhti hoe, dinbandhu!
aise ujaDD dehati yahan prayah roz aaya karte the. Dauktar sahab unke svbhaav se khoob parichit the. koi kitna hi kuch kahe; par ve apni rat lagate jayenge. kisi ki sunenge nahin. dhire se chik uthai aur bahar nikalkar motar ki taraf chale. buDha ye kahta hua unke pichhe dauDa—sarkar, baDa dharam hoga! hazur, daya kijiye, baDa deen dukhi hoon; sansar mein koi aur nahin hai, babuji!
magar sahab ne uski or se munh pherkar dekha tak nahin. motar mein baithkar bole—kal sabere aana.
motar chali gai. buDha kai minat tak murti ki bhanti nishchal khaDa raha. sansar mein aise manushya bhi hote hain, jo apne aamod pramod ke aage kisi ki jaan ki bhi parvah nahin karte, shayad iska use ab bhi vishvas na aata tha. sabhya sansar itna nirmam, itna kathor hai, iska aisa marmmedi anubhav ab tak na hua tha. wo un purane zamane ke jivon mein tha, jo lagi hui aag bujhane, murde ko kandha dene, kisi ke chhappar ko uthane aur kisi kalah ko shaant karne ke liye sadaiv taiyar rahte the. jab tak buDhe ko motar dikhai di, wo khaDa takatki lagaye usi or takta raha. shayad use ab bhi Dauktar sahab ke laut aane ki aasha thi. phir usne kaharon se Doli uthane ko kaha. Doli jidhar se aai thi, udhar hi chali gai. charon or se nirash hokar Dauktar chaDDha ke paas aaya tha. inki baDi tarif suni thi. yahan se nirash hokar wo phir kisi dusre Dauktar ke paas nahin gaya. kismat thok lee!
usi raat ko uska hansta khelta saat saal ka balak apni baal lila samapt karke is sansar se sidhar gaya. buDhe maan baap ke jivan ka yahi ek adhar tha. isi ka munh dekhkar jite the. is dipak ke bujhte hi jivan ki andheri raat bhanya bhanya karne lagi. buDhape ki vishal mamta tute hue hriday se nikalkar us andhkar mein aartt svar se rone lagi.
do
kai saal guzar ge. Dauktar chaDDha ne khoob yash aur dhan kamaya; lekin iske saath hi apne svasthya ki raksha bhi ki, jo ek asadharan baat thi. ye unke niymit jivan ka ashirvad tha ki 50 varsh ki avastha mein unki chusti aur phurti yuvkon ko bhi lajjit karti thi. unke har ek kaam ka samay niyat tha, is niyam se wo jau bhar bhi na talte the. bahudha log svasthya ke niymon ka palan us samay karte hain, jab rogi ho jate hain.
Dauktar chaDDha upchaar aur sanyam ka rahasya khoob samajhte the. unki santan sankhya bhi isi niyam ke adhin thi. unke keval do bachche hue, ek laDka aur ek laDki. tisri santan na hui; isliye shrimti chaDDha bhi abhi javan malum hoti theen. laDki ka to vivah ho chuka tha. laDka kaulej mein paDhta tha. vahi mata pita ke jivan ka adhar tha. sheel aur vinay ka putla, baDa hi rasik, baDa hi udaar, vidyalay ka gaurav, yuvak samaj ki shobha. mukh manDal se tez ki chhata si nikalti thi. aaj bhi achchha tha. aaj usi ki bisvin salgirah thi.
sandhya ka samay tha. hari hari ghaas par kursiyan bichhi hui theen. shahr ke rais aur hukkam ek taraf, kaulej ke chhaatr dusri taraf baithe bhojan kar rahe the. bijli ke parkash se sara maidan jagmaga raha tha. aamod pramod ka saman jama tha. chhota sa prahsan khelne ki taiyari thi. prahsan svayan kailash naath ne likha tha. vahi mukhya aiktar bhi tha. is samay wo ek reshmi qamiz pahne, nange paanv, idhar se udhar mitron ki aav bhagat mein laga hua tha. koi pukarta—kailash, zara idhar ana; koi udhar se bulata—kailash, kya udhar hi rahoge? sabhi use chheDte the, chuhlen karte the. bechare ko zara dam marne ka bhi avkash na milta tha. sahsa ek ramni ne uske paas aakar kaha—kyon kailash, tamhare saanp kahan hain? zara mujhe dikha do.
kailash ne usse haath milakar kaha—mrinalini, is vaqt kshama karo, kal dikha dunga.
mrinalini ne agrah kiya—ji nahin, tumhein dikhana paDega, main aaj nahin manne ki, tum roz ‘kal kal’ karte rahte ho.
mrinalini aur kailash donon sahpathi the aur ek dusre ke prem mein paDe hue. kailash ko sanpon ke palne, khelane aur nachane ka shauk tha. tarah tarah ke saanp paal rakhe the. unke svbhaav aur charitr ki pariksha karta rahta tha. thoDe din hue, usne vidyalay mein ‘sanpon’ par ek marke ka vyakhyan diya tha. sanpon ko nachakar dikhaya bhi tha. pranishastr ke baDe baDe panDit bhi ye vyakhyan sunkar dang rah ge the! ye vidya usne ek buDhe sanpere se sikhi thi. sanpon ki jaDi butiyan jama karne ka use maran tha. itna pata bhar mil jaye ki kisi vyakti ke paas koi achchhi baDi hai, phir use chain na aata tha. use lekar hi chhoDta tha. yahi vyasan tha. is par hazaron rupe phoonk chuka tha. mrinalini kai baar aa chuki thee; par kabhi sanpon ke dekhne ke liye itni utsuk na hui thi. kah nahin sakte, aaj uski utsukta sachmuch jaag gai thi, ya wo kailash par apne adhikar ka pradarshan karna chahti thee; par uska agrah bemauqa tha. us kothari mein kitni bheeD lag jayegi, bheeD ko dekhkar saanp kitne chaunkenge aur raat ke samay unhen chheDa jana kitna bura lagega, in baton ka use bhara bhi dhyaan na aaya.
kailash ne kaha—nahin, kal zarur dikha dunga. is vaqt achchhi tarah dikha bhi to na sakunga, kamre mein til rakhne ki bhi jagah na milegi.
ek mahashay ne chheDkar kaha—dikha kyon nahin dete ji, zara si baat ke liye itna talamtol kar rahe ho? mis govind, hargiz na manna. dekhen, kaise nahin dikhate!
dusre mahashay ne aur radda chaDhaya—mis govind itni sidhi aur bholi hain, tabhi aap itna milan karte hain; dusri sundri hoti, to isi baat par bigaD khaDi hoti.
tisre sahab ne mazak uDaya—aji, bolna chhoD deti. bhala koi baat hai! ispar aapko dava hai ki mrinalini ke liye jaan hazir hai.
mrinalini ne dekha ki ye shohde use chang par chaDha rahe hain, to boli—ap log meri vakalat na karen, main khud apni vakalat kar lungi. main is vaqt sanpon ka tamasha nahin dekhana chahti. chalo, chhutti hui.
is par mitron ne thattha lagaya. ek saib bole—dekhana to aap sab kuch chahen, par koi dikhaye bhi to?
kailash ko mrinalini ki jhanpi hui surat dekhkar malum hua ki is vaqt uska inkaar vastav mein use bura laga hai. jyonhin priti bhoj samapt hua aur gana shuru hua, usne mrinalini aur anya mitron ko sanpon ke darbe ke samne le jakar mahuar bajana shuru kiya. phir ek ek khana kholkar ek ek saanp ko nikalne laga. vaah! kya kamal tha! aisa jaan paDta tha ki ye kiDe uski ek ek baat, uske man ka ek ek bhaav samajhte hain. kisi ko utha liya, kisi ko gardan mein Daal liya, kisi ko haath mein lapet liya. mrinalini baar baar man karti ki inhen gardan mein na Dalo, door hi se dikha do. bas, zara nacha do. kailash ki gardan mein sanpon ko lipatte dekhkar uski jaan nikal jati thi. pachhta rahi thi ki mainne vyarth hi inse saanp dikhane ko; magar kailash ek na sunta tha. premika ke sanmukh apne sarp kala pradarshan ka aisa avsar pakar wo kab chukta! ek mitr ne tika—dant toD Dale honge?
kailash hansakar bola—dant toD Dalna madariyon ka kaam hai. kisi ke daant nahin toD ge. kahiye to dikha doon? kah kar usne ek kale saanp ko pakaD liya aur bola—mere paas isse baDa aur zahrila saanp dusra nahin hai, agar kisi ko kaat le, to adami aanan phanan mein mar jaye. lahr bhi na aaye. iske kate par mantr nahin. iske daant dikha doon?
mrinalini ne uska haath pakaDkar kaha—nahin nahin, kailash, iishvar ke liye ise chhoD do. tumhare pairon paDti hoon.
is par ek dusre mitr bole—mujhe to vishvas nahin aata, lekin tum kahte ho, to maan lunga.
kailash ne saanp ki gardan pakaDkar kaha—nahin sahab, aap ankhon se dekhkar maniye. daant toDkar vash mein kiya, to kya. saanp baDa samajhdar hota hain! agar use vishvas ho jaye ki is adami se mujhe koi hani na pahunchegi, to wo use hargiz na katega.
mrinalini ne jab dekha ki kailash par is vaqt bhoot savar hai, to usne ye tamasha band karne ke vichar se kaha—achchha bhai, ab yahan se chalo. dekha, gana shuru ho gaya hai. aaj main bhi koi cheez sunaungi. ye kahte hue usne kailash ka kandha pakaDkar chalne ka ishara kiya aur kamre se nikal gai; magar kailash virodhiyon ka shanka samadhan karke hi dam lena chahta tha. usne saanp ki gardan pakaDkar zor se dabai, itni zor se dabai ki uska munh laal ho gaya, deh ki sari nasen tan gain. saanp ne ab tak uske hathon aisa vyvahar na dekha tha. uski samajh mein na aata tha ki ye mujhse kya chahte hain. use shayad bhram hua ki mujhe maar Dalna chahte hain, atev wo atmaraksha ke liye taiyar ho gaya.
kailash ne uski gardan khoob dabakar munh khol diya aur uske zahrile daant dikhate hue bola—jin sajjnon ko shak ho, aakar dekh len. aaya vishvas ya ab bhi kuch shak hai? mitron ne aakar uske daant dekhen aur chakit ho ge. pratyaksh prmaan ke samne sandeh ko sthaan kahan. mitron ka shanka nivaran karke kailash ne saanp ki gardan Dhili kar di aur use zamin par rakhna chaha; par wo kala gehuan krodh se pagal ho raha tha. gardan narm paDte hi usne sir uthakar kailash ki ungli mein zor se kata aur vahan se bhaga. kailash ki uungali se tap tap khoon tapakne laga. usne zor se ungli daba li aur apne kamre ki taraf dauDa. vahan mez ki daraz mein ek jaDi rakhi hui thi, jise piskar laga dene se ghatak vish bhi rafu ho jata tha. mitron mein halchal paD gai. bahar mahfil mein bhi khabar hui. Dauktar sahab ghabrakar dauDe. fauran ungli ki jaD kas kar bandhi gai aur jaDi pisne ke liye di gai. Dauktar sahab jaDi ke qayal na the. wo ungli ka Dasa bhaag nashtar se kaat dena chahte the, magar kailash ko jaDi par poorn vishvas tha. mrinalini pyanon par baithi hui thi. ye khabar sunte hi dauDi, aur kailash ki ungli se tapakte hue khoon ko rumal se ponchhne lagi. jaDi pisi jane lagi; par usi ek minat mein kailash ki ankhen jhapakne lagin, honthon par pilapan dauDne laga. yahan tak ki wo khaDa na rah saka. farsh par baith gaya. sare mehman kamre mein jama ho ge. koi kuch kahta tha. koi kuch. itne mein jaDi piskar aa gai. mrinalini ne ungli par lep kiya. ek minat aur bita. kailash ki ankhen band ho gain. wo let gaya aur haath se pankha jhalne ka ishara kiya. maan ne dauDkar uska sir god mein rakh liya aur bijli ka tebul fain laga diya.
Dauktar sahab ne jhukkar puchha—kailash, kaisi tabiyat hai? kailash ne dhire se haath utha diya; par kuch bol na saka. mrinalini ne karun svar mein kaha—kya jaDi kuch asar na karengi? Dauktar sahab ne sir pakaDkar kaha—kya batlaun, main iski baton mein aa gaya. ab to nashtar se bhi kuch fayda na hoga.
aadh ghante tak yahi haal raha. kailash ki dasha prtikshan bigaDti jati thi. yahan tak ki uski ankhen pathra gain, haath paanv thanDe ho ge, mukh ki kanti malin paD gai, naDi ka kahin pata nahin. maut ke sare lakshan dikhai dene lage. ghar mein kuhram mach gaya. mrinalini ek or sir pitne lagi; maan alag pachhaDe khane lagi. Dauktar chaDDha ko mitron ne pakaD liya, nahin to wo nashtar apni gardan par maar lete.
ek mahashay bole—koi mantr jhaDnevala mile, to sambhav hai, ab bhi jaan bach jaye.
ek musalman sajjan ne iska samarthan kiya—are sahab qabr mein paDi hui lashen zinda ho gain hain. aise aise bakamal paDe hue hain.
Dauktar chaDDha bole—meri aql par patthar paD gaya tha ki iski baton mein aa gaya. nashtar laga deta, to ye naubat hi kyon aati. baar baar samjhata raha ki beta, saanp na palo, magar kaun sunta tha! bulaiye, kisi jhaaD phoonk karne vale hi ko bulaiye. mera sab kuch le le, main apni sari jayadad uske pairon par rakh dunga. langoti bandhakar ghar se nikal jaunga; magar mera kailash, mera pyara kailash uth baithe. iishvar ke liye kisi ko bulvaiye.
ek mahashay ka kisi jhaDnevale se parichay tha. wo dauDkar use bula laye; magar kailash ki surat dekhkar use mantr chalane ki himmat na paDi. bola—ab kya ho sakta hai, sarkar? jo kuch hona tha, ho chuka.
are moorkh, ye kyon nahin kahta ki jo kuch na hona tha, ho chuka? jo kuch hona tha, wo kahan hua? maan baap ne bete ka sehra kahan dekha? mrinalini ka kamna taru kya pallav aur pushp se ranjit ho uthaa? man ke wo svarn svapn jinse jivan anand ka srot bana hua tha, kya pure ho ge? jivan ke nrityamay tarika manDit sagar mein aamod ki bahar lutte hue kya unki nauka jalmagn nahin ho gai? jo na hona tha, wo ho gaya!
vahi hara bhara maidan tha, vahi sunahri chandni ek nihshabd sangit ki bhanti prkriti par chhai hui thee; vahi mitr samaj tha. vahi manoranjan ke saman the. magar jahan hasya ki dhvani thi, vahan karun krdann aur ashru pravah tha.
teen
shahr se kai meel door ek chhote se ghar mein ek buDha aur buDhiya angithi ke samne baithe jaDe ki raat kaat rahe the. buDha nariyal pita tha aur beech beech mein khansata tha. buDhiya donon ghutaniyon mein sir Dale aag ki or taak rahi thi. ek mitti ke tel ki kuppi taak par jal rahi thi. ghar mein na charpai thi, na bichhauna. ek kinare thoDi si pual paDi hui thi. isi kothari mein ek chulha tha. buDhiya din bhar uple aur sukhi lakDiyan batorti thi. buDha rassi batkar bazar mein bech aata tha. yahi unki jivika thi. unhen na kisi ne rote dekha, na hanste. unka sara samay jivit rahne mein kat jata tha. maut dvaar par khaDi thi, rone ya hansne ki kahan fursat! buDhiya ne puchha—kal ke liye san to hai nahin, kaam kya karonge?
‘jakar jhagDu saah se das ser san udhaar launga?’
‘uske pahle ke paise to diye hi nahin, aur udhaar kaise dega?’
‘na dega na sahi. ghaas to kahin nahin gai hai. duphar tak kya do aane ki bhi na katunga?’
itne mein ek adami ne dvaar par avaz di—bhagat, bhagat, kya so ge? zara kivaD kholo.
bhagat ne uthkar kivaD khol diye. ek adami ne andar aakar kaha—kuchh suna, Dauktar chaDDha babu ke laDke ko saanp ne kaat liya.
bhagat ne chaunkkar kaha—chaDDha babu ke laDke ko! vahi chaDDha babu hain na, jo chhavani mein bangale mein rahte hain?
‘haan haan vahi. shahr mein halla macha hua hai. jate ho to jaon, adami ban jaonge. ’
buDhe ne kathor bhaav se sir hilakar kaha—main nahin jata! meri bala jaye! vahi chaDDha hai. khoob janta hoon. bhaiya ko lekar unhin ke paas gaya tha. khelne ja rahe the. pairon par gir paDa ki ek nazar dekh lijiye; magar sidhe munh se baat tak na ki. bhagvan baithe sun rahe the. ab jaan paDega ki bete ka gham kaisa hota hai. kai laDke hain?
‘nahin ji, yahi to ek laDka tha. suna hai, sabne javab de diya hai. ’
‘bhagvan baDa karasaz hai. us bakhat meri ankhon se ansu nikal paDe the, par unhen tanik bhi daya na aai thi. main to unke dvaar par hota, to bhi baat na puchhta. ’
‘to na jaoge? hamne jo suna tha, so kah diya. ’
‘achchha kiya—achchha kiya. kaleja thanDa ho gaya, ankhen thanDi ho gain. laDka bhi thanDa ho gaya hoga! tum jao. aaj chain ki neend sounga. (buDhiya se) zara tamakhu le le! ek chilam aur piunga. ab malum hoga lala ko! sari sahibi nikal jayegi, hamara kya bigDa. laDke ke mar jane se kuch raaj to nahin chala gaya? jahan chhः bachche ge the, vahan ek aur chala gaya, tumhara to raaj suna ho jayega. usi ke vaste sabka gala daba dabakar joDa tha na. ab kya karonge? ek baar dekhne jaunga; par kuch din baad. mijaj ka haal puchhunga. ’
adami chala gaya. bhagat ne kivaD band kar liye, tab chilam par tamakhu rakhkar pine laga.
buDhiya ne kaha—itni raat ge jaDe pale mein kaun jayega?
‘are, duphar hi hota to main na jata. savari darvaze par lene aati, to bhi na jata. bhool nahin gaya hoon. panna ki surat ankhon mein phir rahi hai. is nirdayi ne use ek nazar dekha tak nahin! kya main na janta tha ki wo na bachega? khoob janta tha. chaDDha bhagvan nahin the, ki unke ek nigah dekh lene se amrit baras jata. nahin, khali man ki dauD thi. zara tasalli ho jati. bas, isliye unke paas dauDa gaya tha. ab kisi din jaunga aur kahunga—kyon sahab, kahiye, kya rang hai? duniya bura kahegi, kahe; koi parvah nahin. chhote adamiyon mein to sab aib hain. baDo mein koi aib nahin hota. devta hote hain. ’
bhagat ke liye ye jivan mein pahla avsar tha ki aisa samachar pakar wo baitha rah gaya ho. 80 varsh ke jivan mein aisa kabhi na hua tha ki saanp ki khabar pakar wo dauD na gaya ho. maagh poos ki andheri raat, chait baisakh ki dhoop aur lu, savan bhadon ki chaDhi hui nadi aur nale, kisi ki usne kabhi parvah na ki. wo turant ghar se nikal paDta tha—nihasvarth, nishkam! len den ka vichar kabhi dil mein aaya nahin. ye sa kaam hi na tha. jaan ka mulya kaun de sakta hai? ye ek punya karya tha. saikDon nirashon ko uske mantron ne jivan daan de diya tha; par aap wo ghar se qadam nahin nikal saka. ye khabar sunkar sone ja raha hai.
buDhiya ne kaha—tamakhu angithi ke paas rakhi hui hai. uske bhi aaj Dhai paise ho ge. deti hi na thi.
buDhiya ye kahkar leti. buDhe ne kuppi bujhai, kuch der khaDa raha, phir baith gaya. ant ko let gaya; par ye khabar uske hriday par bojhe ki bhanti rakhi hui thi. use malum ho raha tha, uski koi cheez kho gai hai, jaise sare kapDe gile ho ge hai ya pairon mein kichaD laga hua hai, jaise koi uske man mein baitha hua use ghar se nikalne ke liye kured raha hai. buDhiya zara der mein kharrate leni lagi. buDhe baten karte karte sote hai aur zara sa khatka hote hi jagte hain. tab bhagat utha, apni lakDi utha li, aur dhire se kivaD khole.
buDhiya ne puchha—kahan jate ho?
‘kahin nahin, dekhta tha ki kitni raat hai. ’
‘abhi bahut raat hai, so jao. ’
‘neend, nahin atin. ’
‘neend kahe ko ayegi? man to chaDDha ke ghar par laga hua hai. ’
‘chaDDha ne mere saath kaun si neki kar di hai, jo vahan jaun? wo aakar pairon paDe, to bhi na jaun. ’
‘uthe to tum isi irade se hee?’
‘nahin ri, aisa pagal nahin hoon ki jo mujhe kante boe, uske liye phool bota phirun. ’
buDhiya phir so gai. bhagat ne kivaD laga diye aur phir aakar baitha. par uske man ki kuch aisi dasha thi, jo baje ki avaz kaan mein paDte hi updesh sunnevalon ki hoti hain. ankhen chahe updeshak ki or hon; par kaan baje hi ki or hote hain. dil mein bhi baje ki dhvani gunjti rahti he. sharm ke mare jagah se nahin uthta. nirdayi pratighat ka bhaav bhagat ke liye updeshak tha; par hriday us abhage yuvak ki or tha, jo is samay mar raha tha, jiske liye ek ek pal ka vilamb ghatak tha.
usne phir kivaD khole, itne dhire se ki buDhiya ko khabar bhi na hui. bahar nikal aaya. usi vaqt gaanv ko chaukidar gasht laga raha tha, bola—kaise uthe bhagat? aaj to baDi sardi hai! kahin ja rahe ho kyaa?
bhagat ne kaha—nahin ji, jaunga kahan! dekhta tha, abhi kitni raat hai. bhala, kai baje honge.
chaukidar bola—ek baja hoga aur kya, abhi thane se aa raha tha, to Dauktar chaDDha babu ke bangale par baDi bhaD lagi hui thi. unke laDke ka haal to tumne suna hoga, kiDe ne chhu liya hai. chahe mar bhi gaya ho. tum chale jao to sait bach jaye. suna hai, is hazar tak dene ko taiyar hain.
bhagat—main to na jaun chahe wo das laakh bhi den. mujhe das hazar ya das laakh lekar karna kya hain? kal mar jaunga, phir kaun bhognevala baitha hua hai.
chaukidar chala gaya. bhagat ne aage pair baDhaya. jaise nashe mein adami ki deh apne qabu mein nahin rahti, pair kahin rakhta hai, paDta kahin hai, kahta kuch hai, zaban se nikalta kuch hai, vahi haal is samay bhagat ka tha. man mein pratikar tha; par karm man ke adhin na tha. jisne kabhi talvar nahin chalai, wo irada karne par bhi talvar nahin chala sakta. uske haath kanpte hain, uthte hi nahin.
bhagat lathi khat khat karta lapka chala jata tha. chetna rokti thi, par upchetna thelti thi. sevak svami par havi tha.
aadhi raah nikal jane ke baad sahsa bhagat ruk gaya. hinsa ne kriya par vijay pai—mai yon hi itni door chala aaya. is jaDe pale mein marne ki mujhe kya paDi thee? aram se soya kyon nahin?nind na aati, na sahi; do chaar bhajan hi gata. vyarth itni door dauDa aaya. chaDDha ka laDka rahe ya mare, meri bala se. mere saath unhonne aisa kaun sa saluk kiya tha ki main unke liye marun? duniyan mein hazaron marte hain, hazaron jite hain. mujhe kisi ke marne jine se matlab!
magar upchetan ne ab ek dusra roop dharan kiya, jo hinsa se bahut kuch milta julta tha—vah jhaaD phoonk karne nahin ja raha hai; wo dekhega, ki log kya kar rahe hain. Dauktar sahab ka rona pitna dekhega, kis tarah sir pitte hain, kis tarah pachhaDen khate hai! wo dekhega ki baDe log bhi chhoton hi ki bhanti rote hain, ya sabar kar jate hain. ve log to vidvan hote hain, sabar kar jate honge! hinsa bhaav ko yon dhiraj deta hua wo phir aage baDha.
itne mein do adami aate dikhai diye. donon bate karte chale aa rahe the—chaDDha babu ka ghar ujaD gaya, vahi to ek laDka tha. bhagat ke kaan mein ye avaz paDi. uski chaal aur bhi tez ho gai. thakan ke mare paanv na uthte the. shirobhag itna baDha jata tha, manon ab munh ke bal gir paDega. is tarah wo koi 10 minat chala hoga ki Dauktar sahab ka bangla nazar aaya. bijli ki battiyan jal rahi theen; magar sannata chhaya hua tha. rone pitne ke avaz bhi na aati thi. bhagat ka kaleja dhak dhak karne laga. kahin mujhe bahut der to nahin ho gai? wo dauDne laga. apni umr mein wo itna tez kabhi na dauDa tha. bas, yahi malum hota tha, mano uske pichhe maut dauDi aa ri hai.
chaar
do baj ge the. mehman bida ho ge. rone valon mein keval akash ke tare rah ge the. aur sabhi ro ro kar thak ge the. baDi utsukta ke saath log rah rah akash ki or dekhte the ki kisi tarah subah ho aur laash ganga ki god mein di jaye.
sahsa bhagat ne dvaar par pahunch kar avaz di. Dauktar sahab samjhe, koi mariz aaya hoga. kisi aur din unhonne us adami ko dutkar diya hota; magar aaj bahar nikal aaye. dekha ek buDha adami khaDa hai—kamar jhuki hui, popala munh, bhaunhain tak safed ho gai theen. lakDi ke sahare kaanp raha tha. baDi namrata se bole—kya hai bhai, aaj to hamare uupar aisi musibat paD gai hai ki kuch kahte nahin banta, phir kabhi aana. idhar ek mahina tak to shayad mai kisi bhi mariz ko na dekh sakunga.
bhagat ne kaha—sun chuka hoon babu ji, isiliye aaya hoon. bhaiya kahan hai? zara mujhe dikha dijiye. bhagvan baDa karasaz hai, murde ko bhi jila sakta hai. kaun jane, ab bhi use daya aa jaye.
chaDDha ne vyathit svar se kaha—chalo, dekh lo; magar teen chaar ghante ho ge. jo kuch hona tha, ho chuka. bahuter jhaDne phanknevale dekh dekh kar chale ge.
Dauktar sahab ko aasha to kya hoti. haan buDhe par daya aa gai. andar le ge. bhagat ne laash ko ek minat tak dekha. tab muskra kar bola—abhi kuch nahin bigDa hai, babu jee! ye narayan chahenge, to aadh ghante mein bhaiya uth baithenge. aap nahak dil chhota kar rahe hai. zara kaharon se kahiye, pani to bharen.
kaharon ne pani bhar bharkar kailash ko nahlana shuru kiya paip band ho gaya tha. kaharon ki sankhya adhik na thi, isliye mehmanon ne ahate ke bahar ke kuen se pani bhar bharkar kaharon ko diya, mrinalini kalsa liye pani la rahi thi. buDha bhagat khaDa muskra muskrakar mantr paDh raha tha, mano vijay uske samne khaDi hai. jab ek baar mantr samapt ho jata, tab wo ek jaDi kailash ke sir par Dale ge aur na jane kitni baar bhagat ne mantr phunka. akhir jab usha ne apni laal laal ankhen kholin to kailash ki bhi laal laal ankhen khul gain. ek kshan mein usne angDai li aur pani pine ko manga. Dauktar chaDDha ne dauDkar narayni ko gale laga liya. narayni dauDkar bhagat ke pairon par gir paDi aur manalini kailash ke samne ankhon mein ansu bhare puchhne lagi—ab kaisi tabiyat hai?
ek kshan mein charon taraph khabar phail gai. mitrgan mubarakbad dene aane lage. Dauktar sahab baDe shraddha bhaav se har ek ke samne bhagat ka yash gate phirte the. sabhi log bhagat ke darshnon ke liye utsuk ho uthe; magar andar jakar dekha, to bhagat ka kahin pata na tha. naukron ne kaha—abhi to yahin baithe chilam pi rahe the. hum log tamakhu dene lage, to nahin li, apne paas se tamakhu nikalkar bhari.
yahan to bhagat ki charon or talash hone lagi, aur bhagat lapka hua ghar chala ja raha tha ki buDhiya ke uthne se pahle pahunch jaun!
jab mehman log chale ge, to Dauktar sahab ne narayni se kaha—buDDha na jane kahan chala gaya. ek chilam tamakhu ka bhi ravadar na hua.
narayni—mainne to socha tha, ise koi baDi raqam dungi.
chaDDha—rat ko to mainne nahin pahchana, par zara saaf ho jane par pahchan gaya. ek baar ye ek mariz ko lekar aaya tha. mujhe ab yaad aata hai ki main khelne ja raha tha aur mariz ko dekhne se inkaar kar diya tha. aap us din ki baat yaad karke mujhen jitni glani ho rahi hai, use prakat nahin kar sakta. main use ab khoj nikalunga aur uske peron par girkar apna apradh kshama karaunga. wo kuch lega nahin, ye janta hoon, uska janm yash ki varsha karne hi ke liye hua hai. uski sajjanta ne mujhe aisa adarsh dikha diya hai, jo ab se jivan paryant mere samne rahega.
sandhya ka samay tha. Dauktar chaDDha golf khelne ke liye taiyar ho rahe the. motar dvaar ke samne khaDi thi ki do kahar ek Doli liye aate dikhai diye. Doli ke pichhe ek buDha lathi tekta chala aata tha. Doli aushadhalay samne aakar ruk gai. buDhe ne dhire dhire aakar dvaar par paDi hui chik se jhanka. aisi saaf suthari zamin par pair rakhte hue bhay ho raha tha ki koi ghuDak na baithe. Dauktar sahab ko mez ke samne khaDe dekhkar bhi use kuch kahne ka sahas na hua.
Dauktar sahab ne chik ke andar se garajkar kaha—kaun hai? kya chahta hai?
buDhe ne haath joDkar kaha—huzur, baDa gharib adami hoon. mera laDka kai din se. . .
Dauktar sahab ne sigar jalakar kaha—kal sabere aao, kal sabere; hum is vaqt marizon ko nahin dekhte.
buDhe ne ghutne tekkar zamin par sir rakh diya aur bola—duhai hai sarkar ki, laDka mar jayega. huzur, chaar din se ankhen nahin. . .
Dauktar chaDDha ne kalai par nazar Dali. keval 10 minat samay aur baqi tha. golf stik khunti se utarte hue bole—kal sabere aao, kal sabere; ye hamare khelne ka samay hai.
buDhe ne pagDi utarkar chaukhat par rakh di aur rokar bola—huzur, bas ek nigah dekh len. bas, ek nigah! laDka haath se chala jayega huzur, saat laDkon mein yahi ek bacha hai, hazur! hum donon adami ro rokar mar jayenge, sarkar! apaki baDhti hoe, dinbandhu!
aise ujaDD dehati yahan prayah roz aaya karte the. Dauktar sahab unke svbhaav se khoob parichit the. koi kitna hi kuch kahe; par ve apni rat lagate jayenge. kisi ki sunenge nahin. dhire se chik uthai aur bahar nikalkar motar ki taraf chale. buDha ye kahta hua unke pichhe dauDa—sarkar, baDa dharam hoga! hazur, daya kijiye, baDa deen dukhi hoon; sansar mein koi aur nahin hai, babuji!
magar sahab ne uski or se munh pherkar dekha tak nahin. motar mein baithkar bole—kal sabere aana.
motar chali gai. buDha kai minat tak murti ki bhanti nishchal khaDa raha. sansar mein aise manushya bhi hote hain, jo apne aamod pramod ke aage kisi ki jaan ki bhi parvah nahin karte, shayad iska use ab bhi vishvas na aata tha. sabhya sansar itna nirmam, itna kathor hai, iska aisa marmmedi anubhav ab tak na hua tha. wo un purane zamane ke jivon mein tha, jo lagi hui aag bujhane, murde ko kandha dene, kisi ke chhappar ko uthane aur kisi kalah ko shaant karne ke liye sadaiv taiyar rahte the. jab tak buDhe ko motar dikhai di, wo khaDa takatki lagaye usi or takta raha. shayad use ab bhi Dauktar sahab ke laut aane ki aasha thi. phir usne kaharon se Doli uthane ko kaha. Doli jidhar se aai thi, udhar hi chali gai. charon or se nirash hokar Dauktar chaDDha ke paas aaya tha. inki baDi tarif suni thi. yahan se nirash hokar wo phir kisi dusre Dauktar ke paas nahin gaya. kismat thok lee!
usi raat ko uska hansta khelta saat saal ka balak apni baal lila samapt karke is sansar se sidhar gaya. buDhe maan baap ke jivan ka yahi ek adhar tha. isi ka munh dekhkar jite the. is dipak ke bujhte hi jivan ki andheri raat bhanya bhanya karne lagi. buDhape ki vishal mamta tute hue hriday se nikalkar us andhkar mein aartt svar se rone lagi.
do
kai saal guzar ge. Dauktar chaDDha ne khoob yash aur dhan kamaya; lekin iske saath hi apne svasthya ki raksha bhi ki, jo ek asadharan baat thi. ye unke niymit jivan ka ashirvad tha ki 50 varsh ki avastha mein unki chusti aur phurti yuvkon ko bhi lajjit karti thi. unke har ek kaam ka samay niyat tha, is niyam se wo jau bhar bhi na talte the. bahudha log svasthya ke niymon ka palan us samay karte hain, jab rogi ho jate hain.
Dauktar chaDDha upchaar aur sanyam ka rahasya khoob samajhte the. unki santan sankhya bhi isi niyam ke adhin thi. unke keval do bachche hue, ek laDka aur ek laDki. tisri santan na hui; isliye shrimti chaDDha bhi abhi javan malum hoti theen. laDki ka to vivah ho chuka tha. laDka kaulej mein paDhta tha. vahi mata pita ke jivan ka adhar tha. sheel aur vinay ka putla, baDa hi rasik, baDa hi udaar, vidyalay ka gaurav, yuvak samaj ki shobha. mukh manDal se tez ki chhata si nikalti thi. aaj bhi achchha tha. aaj usi ki bisvin salgirah thi.
sandhya ka samay tha. hari hari ghaas par kursiyan bichhi hui theen. shahr ke rais aur hukkam ek taraf, kaulej ke chhaatr dusri taraf baithe bhojan kar rahe the. bijli ke parkash se sara maidan jagmaga raha tha. aamod pramod ka saman jama tha. chhota sa prahsan khelne ki taiyari thi. prahsan svayan kailash naath ne likha tha. vahi mukhya aiktar bhi tha. is samay wo ek reshmi qamiz pahne, nange paanv, idhar se udhar mitron ki aav bhagat mein laga hua tha. koi pukarta—kailash, zara idhar ana; koi udhar se bulata—kailash, kya udhar hi rahoge? sabhi use chheDte the, chuhlen karte the. bechare ko zara dam marne ka bhi avkash na milta tha. sahsa ek ramni ne uske paas aakar kaha—kyon kailash, tamhare saanp kahan hain? zara mujhe dikha do.
kailash ne usse haath milakar kaha—mrinalini, is vaqt kshama karo, kal dikha dunga.
mrinalini ne agrah kiya—ji nahin, tumhein dikhana paDega, main aaj nahin manne ki, tum roz ‘kal kal’ karte rahte ho.
mrinalini aur kailash donon sahpathi the aur ek dusre ke prem mein paDe hue. kailash ko sanpon ke palne, khelane aur nachane ka shauk tha. tarah tarah ke saanp paal rakhe the. unke svbhaav aur charitr ki pariksha karta rahta tha. thoDe din hue, usne vidyalay mein ‘sanpon’ par ek marke ka vyakhyan diya tha. sanpon ko nachakar dikhaya bhi tha. pranishastr ke baDe baDe panDit bhi ye vyakhyan sunkar dang rah ge the! ye vidya usne ek buDhe sanpere se sikhi thi. sanpon ki jaDi butiyan jama karne ka use maran tha. itna pata bhar mil jaye ki kisi vyakti ke paas koi achchhi baDi hai, phir use chain na aata tha. use lekar hi chhoDta tha. yahi vyasan tha. is par hazaron rupe phoonk chuka tha. mrinalini kai baar aa chuki thee; par kabhi sanpon ke dekhne ke liye itni utsuk na hui thi. kah nahin sakte, aaj uski utsukta sachmuch jaag gai thi, ya wo kailash par apne adhikar ka pradarshan karna chahti thee; par uska agrah bemauqa tha. us kothari mein kitni bheeD lag jayegi, bheeD ko dekhkar saanp kitne chaunkenge aur raat ke samay unhen chheDa jana kitna bura lagega, in baton ka use bhara bhi dhyaan na aaya.
kailash ne kaha—nahin, kal zarur dikha dunga. is vaqt achchhi tarah dikha bhi to na sakunga, kamre mein til rakhne ki bhi jagah na milegi.
ek mahashay ne chheDkar kaha—dikha kyon nahin dete ji, zara si baat ke liye itna talamtol kar rahe ho? mis govind, hargiz na manna. dekhen, kaise nahin dikhate!
dusre mahashay ne aur radda chaDhaya—mis govind itni sidhi aur bholi hain, tabhi aap itna milan karte hain; dusri sundri hoti, to isi baat par bigaD khaDi hoti.
tisre sahab ne mazak uDaya—aji, bolna chhoD deti. bhala koi baat hai! ispar aapko dava hai ki mrinalini ke liye jaan hazir hai.
mrinalini ne dekha ki ye shohde use chang par chaDha rahe hain, to boli—ap log meri vakalat na karen, main khud apni vakalat kar lungi. main is vaqt sanpon ka tamasha nahin dekhana chahti. chalo, chhutti hui.
is par mitron ne thattha lagaya. ek saib bole—dekhana to aap sab kuch chahen, par koi dikhaye bhi to?
kailash ko mrinalini ki jhanpi hui surat dekhkar malum hua ki is vaqt uska inkaar vastav mein use bura laga hai. jyonhin priti bhoj samapt hua aur gana shuru hua, usne mrinalini aur anya mitron ko sanpon ke darbe ke samne le jakar mahuar bajana shuru kiya. phir ek ek khana kholkar ek ek saanp ko nikalne laga. vaah! kya kamal tha! aisa jaan paDta tha ki ye kiDe uski ek ek baat, uske man ka ek ek bhaav samajhte hain. kisi ko utha liya, kisi ko gardan mein Daal liya, kisi ko haath mein lapet liya. mrinalini baar baar man karti ki inhen gardan mein na Dalo, door hi se dikha do. bas, zara nacha do. kailash ki gardan mein sanpon ko lipatte dekhkar uski jaan nikal jati thi. pachhta rahi thi ki mainne vyarth hi inse saanp dikhane ko; magar kailash ek na sunta tha. premika ke sanmukh apne sarp kala pradarshan ka aisa avsar pakar wo kab chukta! ek mitr ne tika—dant toD Dale honge?
kailash hansakar bola—dant toD Dalna madariyon ka kaam hai. kisi ke daant nahin toD ge. kahiye to dikha doon? kah kar usne ek kale saanp ko pakaD liya aur bola—mere paas isse baDa aur zahrila saanp dusra nahin hai, agar kisi ko kaat le, to adami aanan phanan mein mar jaye. lahr bhi na aaye. iske kate par mantr nahin. iske daant dikha doon?
mrinalini ne uska haath pakaDkar kaha—nahin nahin, kailash, iishvar ke liye ise chhoD do. tumhare pairon paDti hoon.
is par ek dusre mitr bole—mujhe to vishvas nahin aata, lekin tum kahte ho, to maan lunga.
kailash ne saanp ki gardan pakaDkar kaha—nahin sahab, aap ankhon se dekhkar maniye. daant toDkar vash mein kiya, to kya. saanp baDa samajhdar hota hain! agar use vishvas ho jaye ki is adami se mujhe koi hani na pahunchegi, to wo use hargiz na katega.
mrinalini ne jab dekha ki kailash par is vaqt bhoot savar hai, to usne ye tamasha band karne ke vichar se kaha—achchha bhai, ab yahan se chalo. dekha, gana shuru ho gaya hai. aaj main bhi koi cheez sunaungi. ye kahte hue usne kailash ka kandha pakaDkar chalne ka ishara kiya aur kamre se nikal gai; magar kailash virodhiyon ka shanka samadhan karke hi dam lena chahta tha. usne saanp ki gardan pakaDkar zor se dabai, itni zor se dabai ki uska munh laal ho gaya, deh ki sari nasen tan gain. saanp ne ab tak uske hathon aisa vyvahar na dekha tha. uski samajh mein na aata tha ki ye mujhse kya chahte hain. use shayad bhram hua ki mujhe maar Dalna chahte hain, atev wo atmaraksha ke liye taiyar ho gaya.
kailash ne uski gardan khoob dabakar munh khol diya aur uske zahrile daant dikhate hue bola—jin sajjnon ko shak ho, aakar dekh len. aaya vishvas ya ab bhi kuch shak hai? mitron ne aakar uske daant dekhen aur chakit ho ge. pratyaksh prmaan ke samne sandeh ko sthaan kahan. mitron ka shanka nivaran karke kailash ne saanp ki gardan Dhili kar di aur use zamin par rakhna chaha; par wo kala gehuan krodh se pagal ho raha tha. gardan narm paDte hi usne sir uthakar kailash ki ungli mein zor se kata aur vahan se bhaga. kailash ki uungali se tap tap khoon tapakne laga. usne zor se ungli daba li aur apne kamre ki taraf dauDa. vahan mez ki daraz mein ek jaDi rakhi hui thi, jise piskar laga dene se ghatak vish bhi rafu ho jata tha. mitron mein halchal paD gai. bahar mahfil mein bhi khabar hui. Dauktar sahab ghabrakar dauDe. fauran ungli ki jaD kas kar bandhi gai aur jaDi pisne ke liye di gai. Dauktar sahab jaDi ke qayal na the. wo ungli ka Dasa bhaag nashtar se kaat dena chahte the, magar kailash ko jaDi par poorn vishvas tha. mrinalini pyanon par baithi hui thi. ye khabar sunte hi dauDi, aur kailash ki ungli se tapakte hue khoon ko rumal se ponchhne lagi. jaDi pisi jane lagi; par usi ek minat mein kailash ki ankhen jhapakne lagin, honthon par pilapan dauDne laga. yahan tak ki wo khaDa na rah saka. farsh par baith gaya. sare mehman kamre mein jama ho ge. koi kuch kahta tha. koi kuch. itne mein jaDi piskar aa gai. mrinalini ne ungli par lep kiya. ek minat aur bita. kailash ki ankhen band ho gain. wo let gaya aur haath se pankha jhalne ka ishara kiya. maan ne dauDkar uska sir god mein rakh liya aur bijli ka tebul fain laga diya.
Dauktar sahab ne jhukkar puchha—kailash, kaisi tabiyat hai? kailash ne dhire se haath utha diya; par kuch bol na saka. mrinalini ne karun svar mein kaha—kya jaDi kuch asar na karengi? Dauktar sahab ne sir pakaDkar kaha—kya batlaun, main iski baton mein aa gaya. ab to nashtar se bhi kuch fayda na hoga.
aadh ghante tak yahi haal raha. kailash ki dasha prtikshan bigaDti jati thi. yahan tak ki uski ankhen pathra gain, haath paanv thanDe ho ge, mukh ki kanti malin paD gai, naDi ka kahin pata nahin. maut ke sare lakshan dikhai dene lage. ghar mein kuhram mach gaya. mrinalini ek or sir pitne lagi; maan alag pachhaDe khane lagi. Dauktar chaDDha ko mitron ne pakaD liya, nahin to wo nashtar apni gardan par maar lete.
ek mahashay bole—koi mantr jhaDnevala mile, to sambhav hai, ab bhi jaan bach jaye.
ek musalman sajjan ne iska samarthan kiya—are sahab qabr mein paDi hui lashen zinda ho gain hain. aise aise bakamal paDe hue hain.
Dauktar chaDDha bole—meri aql par patthar paD gaya tha ki iski baton mein aa gaya. nashtar laga deta, to ye naubat hi kyon aati. baar baar samjhata raha ki beta, saanp na palo, magar kaun sunta tha! bulaiye, kisi jhaaD phoonk karne vale hi ko bulaiye. mera sab kuch le le, main apni sari jayadad uske pairon par rakh dunga. langoti bandhakar ghar se nikal jaunga; magar mera kailash, mera pyara kailash uth baithe. iishvar ke liye kisi ko bulvaiye.
ek mahashay ka kisi jhaDnevale se parichay tha. wo dauDkar use bula laye; magar kailash ki surat dekhkar use mantr chalane ki himmat na paDi. bola—ab kya ho sakta hai, sarkar? jo kuch hona tha, ho chuka.
are moorkh, ye kyon nahin kahta ki jo kuch na hona tha, ho chuka? jo kuch hona tha, wo kahan hua? maan baap ne bete ka sehra kahan dekha? mrinalini ka kamna taru kya pallav aur pushp se ranjit ho uthaa? man ke wo svarn svapn jinse jivan anand ka srot bana hua tha, kya pure ho ge? jivan ke nrityamay tarika manDit sagar mein aamod ki bahar lutte hue kya unki nauka jalmagn nahin ho gai? jo na hona tha, wo ho gaya!
vahi hara bhara maidan tha, vahi sunahri chandni ek nihshabd sangit ki bhanti prkriti par chhai hui thee; vahi mitr samaj tha. vahi manoranjan ke saman the. magar jahan hasya ki dhvani thi, vahan karun krdann aur ashru pravah tha.
teen
shahr se kai meel door ek chhote se ghar mein ek buDha aur buDhiya angithi ke samne baithe jaDe ki raat kaat rahe the. buDha nariyal pita tha aur beech beech mein khansata tha. buDhiya donon ghutaniyon mein sir Dale aag ki or taak rahi thi. ek mitti ke tel ki kuppi taak par jal rahi thi. ghar mein na charpai thi, na bichhauna. ek kinare thoDi si pual paDi hui thi. isi kothari mein ek chulha tha. buDhiya din bhar uple aur sukhi lakDiyan batorti thi. buDha rassi batkar bazar mein bech aata tha. yahi unki jivika thi. unhen na kisi ne rote dekha, na hanste. unka sara samay jivit rahne mein kat jata tha. maut dvaar par khaDi thi, rone ya hansne ki kahan fursat! buDhiya ne puchha—kal ke liye san to hai nahin, kaam kya karonge?
‘jakar jhagDu saah se das ser san udhaar launga?’
‘uske pahle ke paise to diye hi nahin, aur udhaar kaise dega?’
‘na dega na sahi. ghaas to kahin nahin gai hai. duphar tak kya do aane ki bhi na katunga?’
itne mein ek adami ne dvaar par avaz di—bhagat, bhagat, kya so ge? zara kivaD kholo.
bhagat ne uthkar kivaD khol diye. ek adami ne andar aakar kaha—kuchh suna, Dauktar chaDDha babu ke laDke ko saanp ne kaat liya.
bhagat ne chaunkkar kaha—chaDDha babu ke laDke ko! vahi chaDDha babu hain na, jo chhavani mein bangale mein rahte hain?
‘haan haan vahi. shahr mein halla macha hua hai. jate ho to jaon, adami ban jaonge. ’
buDhe ne kathor bhaav se sir hilakar kaha—main nahin jata! meri bala jaye! vahi chaDDha hai. khoob janta hoon. bhaiya ko lekar unhin ke paas gaya tha. khelne ja rahe the. pairon par gir paDa ki ek nazar dekh lijiye; magar sidhe munh se baat tak na ki. bhagvan baithe sun rahe the. ab jaan paDega ki bete ka gham kaisa hota hai. kai laDke hain?
‘nahin ji, yahi to ek laDka tha. suna hai, sabne javab de diya hai. ’
‘bhagvan baDa karasaz hai. us bakhat meri ankhon se ansu nikal paDe the, par unhen tanik bhi daya na aai thi. main to unke dvaar par hota, to bhi baat na puchhta. ’
‘to na jaoge? hamne jo suna tha, so kah diya. ’
‘achchha kiya—achchha kiya. kaleja thanDa ho gaya, ankhen thanDi ho gain. laDka bhi thanDa ho gaya hoga! tum jao. aaj chain ki neend sounga. (buDhiya se) zara tamakhu le le! ek chilam aur piunga. ab malum hoga lala ko! sari sahibi nikal jayegi, hamara kya bigDa. laDke ke mar jane se kuch raaj to nahin chala gaya? jahan chhः bachche ge the, vahan ek aur chala gaya, tumhara to raaj suna ho jayega. usi ke vaste sabka gala daba dabakar joDa tha na. ab kya karonge? ek baar dekhne jaunga; par kuch din baad. mijaj ka haal puchhunga. ’
adami chala gaya. bhagat ne kivaD band kar liye, tab chilam par tamakhu rakhkar pine laga.
buDhiya ne kaha—itni raat ge jaDe pale mein kaun jayega?
‘are, duphar hi hota to main na jata. savari darvaze par lene aati, to bhi na jata. bhool nahin gaya hoon. panna ki surat ankhon mein phir rahi hai. is nirdayi ne use ek nazar dekha tak nahin! kya main na janta tha ki wo na bachega? khoob janta tha. chaDDha bhagvan nahin the, ki unke ek nigah dekh lene se amrit baras jata. nahin, khali man ki dauD thi. zara tasalli ho jati. bas, isliye unke paas dauDa gaya tha. ab kisi din jaunga aur kahunga—kyon sahab, kahiye, kya rang hai? duniya bura kahegi, kahe; koi parvah nahin. chhote adamiyon mein to sab aib hain. baDo mein koi aib nahin hota. devta hote hain. ’
bhagat ke liye ye jivan mein pahla avsar tha ki aisa samachar pakar wo baitha rah gaya ho. 80 varsh ke jivan mein aisa kabhi na hua tha ki saanp ki khabar pakar wo dauD na gaya ho. maagh poos ki andheri raat, chait baisakh ki dhoop aur lu, savan bhadon ki chaDhi hui nadi aur nale, kisi ki usne kabhi parvah na ki. wo turant ghar se nikal paDta tha—nihasvarth, nishkam! len den ka vichar kabhi dil mein aaya nahin. ye sa kaam hi na tha. jaan ka mulya kaun de sakta hai? ye ek punya karya tha. saikDon nirashon ko uske mantron ne jivan daan de diya tha; par aap wo ghar se qadam nahin nikal saka. ye khabar sunkar sone ja raha hai.
buDhiya ne kaha—tamakhu angithi ke paas rakhi hui hai. uske bhi aaj Dhai paise ho ge. deti hi na thi.
buDhiya ye kahkar leti. buDhe ne kuppi bujhai, kuch der khaDa raha, phir baith gaya. ant ko let gaya; par ye khabar uske hriday par bojhe ki bhanti rakhi hui thi. use malum ho raha tha, uski koi cheez kho gai hai, jaise sare kapDe gile ho ge hai ya pairon mein kichaD laga hua hai, jaise koi uske man mein baitha hua use ghar se nikalne ke liye kured raha hai. buDhiya zara der mein kharrate leni lagi. buDhe baten karte karte sote hai aur zara sa khatka hote hi jagte hain. tab bhagat utha, apni lakDi utha li, aur dhire se kivaD khole.
buDhiya ne puchha—kahan jate ho?
‘kahin nahin, dekhta tha ki kitni raat hai. ’
‘abhi bahut raat hai, so jao. ’
‘neend, nahin atin. ’
‘neend kahe ko ayegi? man to chaDDha ke ghar par laga hua hai. ’
‘chaDDha ne mere saath kaun si neki kar di hai, jo vahan jaun? wo aakar pairon paDe, to bhi na jaun. ’
‘uthe to tum isi irade se hee?’
‘nahin ri, aisa pagal nahin hoon ki jo mujhe kante boe, uske liye phool bota phirun. ’
buDhiya phir so gai. bhagat ne kivaD laga diye aur phir aakar baitha. par uske man ki kuch aisi dasha thi, jo baje ki avaz kaan mein paDte hi updesh sunnevalon ki hoti hain. ankhen chahe updeshak ki or hon; par kaan baje hi ki or hote hain. dil mein bhi baje ki dhvani gunjti rahti he. sharm ke mare jagah se nahin uthta. nirdayi pratighat ka bhaav bhagat ke liye updeshak tha; par hriday us abhage yuvak ki or tha, jo is samay mar raha tha, jiske liye ek ek pal ka vilamb ghatak tha.
usne phir kivaD khole, itne dhire se ki buDhiya ko khabar bhi na hui. bahar nikal aaya. usi vaqt gaanv ko chaukidar gasht laga raha tha, bola—kaise uthe bhagat? aaj to baDi sardi hai! kahin ja rahe ho kyaa?
bhagat ne kaha—nahin ji, jaunga kahan! dekhta tha, abhi kitni raat hai. bhala, kai baje honge.
chaukidar bola—ek baja hoga aur kya, abhi thane se aa raha tha, to Dauktar chaDDha babu ke bangale par baDi bhaD lagi hui thi. unke laDke ka haal to tumne suna hoga, kiDe ne chhu liya hai. chahe mar bhi gaya ho. tum chale jao to sait bach jaye. suna hai, is hazar tak dene ko taiyar hain.
bhagat—main to na jaun chahe wo das laakh bhi den. mujhe das hazar ya das laakh lekar karna kya hain? kal mar jaunga, phir kaun bhognevala baitha hua hai.
chaukidar chala gaya. bhagat ne aage pair baDhaya. jaise nashe mein adami ki deh apne qabu mein nahin rahti, pair kahin rakhta hai, paDta kahin hai, kahta kuch hai, zaban se nikalta kuch hai, vahi haal is samay bhagat ka tha. man mein pratikar tha; par karm man ke adhin na tha. jisne kabhi talvar nahin chalai, wo irada karne par bhi talvar nahin chala sakta. uske haath kanpte hain, uthte hi nahin.
bhagat lathi khat khat karta lapka chala jata tha. chetna rokti thi, par upchetna thelti thi. sevak svami par havi tha.
aadhi raah nikal jane ke baad sahsa bhagat ruk gaya. hinsa ne kriya par vijay pai—mai yon hi itni door chala aaya. is jaDe pale mein marne ki mujhe kya paDi thee? aram se soya kyon nahin?nind na aati, na sahi; do chaar bhajan hi gata. vyarth itni door dauDa aaya. chaDDha ka laDka rahe ya mare, meri bala se. mere saath unhonne aisa kaun sa saluk kiya tha ki main unke liye marun? duniyan mein hazaron marte hain, hazaron jite hain. mujhe kisi ke marne jine se matlab!
magar upchetan ne ab ek dusra roop dharan kiya, jo hinsa se bahut kuch milta julta tha—vah jhaaD phoonk karne nahin ja raha hai; wo dekhega, ki log kya kar rahe hain. Dauktar sahab ka rona pitna dekhega, kis tarah sir pitte hain, kis tarah pachhaDen khate hai! wo dekhega ki baDe log bhi chhoton hi ki bhanti rote hain, ya sabar kar jate hain. ve log to vidvan hote hain, sabar kar jate honge! hinsa bhaav ko yon dhiraj deta hua wo phir aage baDha.
itne mein do adami aate dikhai diye. donon bate karte chale aa rahe the—chaDDha babu ka ghar ujaD gaya, vahi to ek laDka tha. bhagat ke kaan mein ye avaz paDi. uski chaal aur bhi tez ho gai. thakan ke mare paanv na uthte the. shirobhag itna baDha jata tha, manon ab munh ke bal gir paDega. is tarah wo koi 10 minat chala hoga ki Dauktar sahab ka bangla nazar aaya. bijli ki battiyan jal rahi theen; magar sannata chhaya hua tha. rone pitne ke avaz bhi na aati thi. bhagat ka kaleja dhak dhak karne laga. kahin mujhe bahut der to nahin ho gai? wo dauDne laga. apni umr mein wo itna tez kabhi na dauDa tha. bas, yahi malum hota tha, mano uske pichhe maut dauDi aa ri hai.
chaar
do baj ge the. mehman bida ho ge. rone valon mein keval akash ke tare rah ge the. aur sabhi ro ro kar thak ge the. baDi utsukta ke saath log rah rah akash ki or dekhte the ki kisi tarah subah ho aur laash ganga ki god mein di jaye.
sahsa bhagat ne dvaar par pahunch kar avaz di. Dauktar sahab samjhe, koi mariz aaya hoga. kisi aur din unhonne us adami ko dutkar diya hota; magar aaj bahar nikal aaye. dekha ek buDha adami khaDa hai—kamar jhuki hui, popala munh, bhaunhain tak safed ho gai theen. lakDi ke sahare kaanp raha tha. baDi namrata se bole—kya hai bhai, aaj to hamare uupar aisi musibat paD gai hai ki kuch kahte nahin banta, phir kabhi aana. idhar ek mahina tak to shayad mai kisi bhi mariz ko na dekh sakunga.
bhagat ne kaha—sun chuka hoon babu ji, isiliye aaya hoon. bhaiya kahan hai? zara mujhe dikha dijiye. bhagvan baDa karasaz hai, murde ko bhi jila sakta hai. kaun jane, ab bhi use daya aa jaye.
chaDDha ne vyathit svar se kaha—chalo, dekh lo; magar teen chaar ghante ho ge. jo kuch hona tha, ho chuka. bahuter jhaDne phanknevale dekh dekh kar chale ge.
Dauktar sahab ko aasha to kya hoti. haan buDhe par daya aa gai. andar le ge. bhagat ne laash ko ek minat tak dekha. tab muskra kar bola—abhi kuch nahin bigDa hai, babu jee! ye narayan chahenge, to aadh ghante mein bhaiya uth baithenge. aap nahak dil chhota kar rahe hai. zara kaharon se kahiye, pani to bharen.
kaharon ne pani bhar bharkar kailash ko nahlana shuru kiya paip band ho gaya tha. kaharon ki sankhya adhik na thi, isliye mehmanon ne ahate ke bahar ke kuen se pani bhar bharkar kaharon ko diya, mrinalini kalsa liye pani la rahi thi. buDha bhagat khaDa muskra muskrakar mantr paDh raha tha, mano vijay uske samne khaDi hai. jab ek baar mantr samapt ho jata, tab wo ek jaDi kailash ke sir par Dale ge aur na jane kitni baar bhagat ne mantr phunka. akhir jab usha ne apni laal laal ankhen kholin to kailash ki bhi laal laal ankhen khul gain. ek kshan mein usne angDai li aur pani pine ko manga. Dauktar chaDDha ne dauDkar narayni ko gale laga liya. narayni dauDkar bhagat ke pairon par gir paDi aur manalini kailash ke samne ankhon mein ansu bhare puchhne lagi—ab kaisi tabiyat hai?
ek kshan mein charon taraph khabar phail gai. mitrgan mubarakbad dene aane lage. Dauktar sahab baDe shraddha bhaav se har ek ke samne bhagat ka yash gate phirte the. sabhi log bhagat ke darshnon ke liye utsuk ho uthe; magar andar jakar dekha, to bhagat ka kahin pata na tha. naukron ne kaha—abhi to yahin baithe chilam pi rahe the. hum log tamakhu dene lage, to nahin li, apne paas se tamakhu nikalkar bhari.
yahan to bhagat ki charon or talash hone lagi, aur bhagat lapka hua ghar chala ja raha tha ki buDhiya ke uthne se pahle pahunch jaun!
jab mehman log chale ge, to Dauktar sahab ne narayni se kaha—buDDha na jane kahan chala gaya. ek chilam tamakhu ka bhi ravadar na hua.
narayni—mainne to socha tha, ise koi baDi raqam dungi.
chaDDha—rat ko to mainne nahin pahchana, par zara saaf ho jane par pahchan gaya. ek baar ye ek mariz ko lekar aaya tha. mujhe ab yaad aata hai ki main khelne ja raha tha aur mariz ko dekhne se inkaar kar diya tha. aap us din ki baat yaad karke mujhen jitni glani ho rahi hai, use prakat nahin kar sakta. main use ab khoj nikalunga aur uske peron par girkar apna apradh kshama karaunga. wo kuch lega nahin, ye janta hoon, uska janm yash ki varsha karne hi ke liye hua hai. uski sajjanta ne mujhe aisa adarsh dikha diya hai, jo ab se jivan paryant mere samne rahega.
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।