बहुत कुछ निरुद्देश्य घूम चुकने पर हम सड़क के किनारे की एक बेंच पर बैठ गए।
नैनीताल की संध्या धीरे-धीरे उतर रही थी। रूई के रेशे-से भाप-से, बादल हमारे सिरों को छू-छूकर बेरोक घूम रहे थे। हल्के प्रकाश और अँधियारी से रंगकर कभी वे नीले दीखते, कभी सफ़ेद और फिर देर में अरुण पड़ जाते। वे जैसे हमारे साथ खेलना चाह रहे थे।
पीछे हमारे पोलो वाला मैदान फैला था। सामने अँग्रेज़ों का एक प्रमोद-गृह था, जहाँ सुहावना- रसीला बाजा बज रहा था और पार्श्व में था वही सुरम्य अनुपम नैनीताल।
ताल में किश्तियाँ अपने सफ़ेद पाल उड़ाती हुई एक-दो अँग्रेज़ यात्रियों को लेकर, इधर से उधर और उधर से इधर खेल रही थीं और कहीं कुछ अँग्रेज़ एक-एक देवी सामने प्रतिस्थापित कर, अपनी सुई-सी शक्ल की डोंगियों को, मानो शर्त बाँधकर सरपट दौड़ा रहे थे। कहीं किनारे पर कुछ साहब अपनी बंसी पानी में डाले, सधैर्य, एकाग्र, एकस्थ, एकनिष्ठ मछली-चिंतन कर रहे थे।
पीछे पोलो-लॉन में बच्चे किलकारियाँ मारते हुए हॉकी खेल रहे थे। शोर, मार-पीट, गाली-गलौच भी जैसे खेल का ही अंश था। इस तमाम खेल को उतने क्षणों का उद्देश्य बना, वे बालक अपना सारा मन, सारी देह, समग्र बल और समूची विधा लगाकर मानों ख़त्म कर देना चाहते थे। उन्हें आगे की चिंता न थी, बीते का ख़्याल न था। वे शुद्ध तत्काल के प्राणी थे। वे शब्द की संपूर्ण सच्चाई के साथ जीवित थे।
सड़क पर से नर-नारियों का अविरल प्रवाह आ रहा था और जा रहा था। उसका न ओर था न छोर। यह प्रवाह कहाँ जा रहा था, और कहाँ से आ रहा था, कौन बता सकता है? सब उम्र के, सब तरह के लोग उसमें थे। मानों मनुष्यता के नमूनों का बाज़ार सजकर सामने से इठलाता निकला चला जा रहा हो।
अधिकार-गर्व में तने अँग्रेज़ उसमें थे और चिथड़ों से सजे घोड़ों की बाग थामे वे पहाड़ी उसमें थे, जिन्होंने अपनी प्रतिष्ठा और सम्मान को कुचलकर शून्य बना लिया है और जो बड़ी तत्परता से दुम हिलाना सीख गए हैं।
भागते, खेलते, हँसते, शरारत करते लाल-लाल अँग्रेज़ बच्चे थे और पीली-पीली आँखें फाड़े, पिता की उँगली पकड़कर चलते हुए अपने हिंदुस्तानी नौनिहाल भी थे।
अँग्रेज़ पिता थे, जो अपने बच्चों के साथ भाग रहे थे, हँस रहे थे और खेल रहे थे। उधर भारतीय पितृदेव भी थे, जो बुज़ुर्गी को अपने चारों तरफ़ लपेटे धन-संपन्नता के लक्षणों का प्रर्दशन करते हुए चल रहे थे।
अँग्रेज़ रमणियाँ थीं, जो धीरे-धीरे नहीं चलती थीं, तेज़ चलती थीं। उन्हें न चलने में थकावट आती थी, न हँसने में लाज आती थी। कसरत के नाम पर घोड़े पर भी बैठ सकती थीं और घोड़े के साथ ही साथ, ज़रा जी होते ही, किसी हिंदुस्तानी पर कोड़े भी फटकार सकती थीं। वे दो-दो, तीन-तीन, चार-चार की टोलियों में, निश्शंक, निरापद इस प्रवाह में मानों अपने स्थान को जानती हुई, सड़क पर चली जा रही थीं।
उधर हमारी भारत की कुल-लक्ष्मियाँ, सड़क के बिल्कुल किनारे-किनारे, दामन बचातीं और सँभालती हुई, साड़ी की कई तहों में सिमट-सिमटकर, लोक-लाज, स्त्रीत्व और भारतीय गरिमा के आदर्श को अपने परिवेष्टनों में छिपाकर, सहमी-सहमी धरती में आँख गाड़े, क़दम-क़दम बढ़ रही थीं।
इसके साथ ही भारतीयता का एक और नमूना था। अपने कालेपन को खुरच-खुरचकर बहा देने की इच्छा करनेवाला अँग्रेज़ी-दाँ पुरुषोत्तम भी थे, जो नेटिवों को देखकर मुँह फेर लेते थे और अँग्रेज़ को देखकर आँखे बिछा देते थे और दुम हिलाने लगते थे। वैसे वे अकड़कर चलते थे मानों भारतभूमि को इसी अकड़ के साथ कुचल-कुचलकर चलने का उन्हें अधिकार मिला है।
दो
घंटे के घंटे सरक गए। अंधकार गाढ़ा हो गया। बादल सफ़ेद होकर जम गए। मनुष्यों का वह ताँता एक-एक कर क्षीण हो गया। अब इक्का-दुक्का आदमी सड़क पर छतरी लगाकर निकल रहा था। हम वहीं के वहीं बैठे थे। सर्दी-सी मालूम हुई। हमारे ओवरकोट भीग गए थे।
पीछे फिरकर देखा। यह लॉन बर्फ़ की चादर की तरह बिल्कुल स्तब्ध और सुन्न पड़ा था।
सब सन्नाटा था। तल्लीलाल की बिजली की रोशनियाँ दीप-मालिका सी जगमगा रही थीं। वह जगमगाहट दो मील तक फैले हुए प्रकृति के जल-दर्पण पर प्रतिबिंबित हो रही थी। और दर्पण का काँपता हुआ, लहरें लेता हुआ वह जल प्रतिबिंबों को सौ-गुना, हज़ार-गुना करके, उनके प्रकाश को मानों एकत्र और पुंजीभूत करके व्याप्त कर रहा था। पहाड़ों के सिर पर की रोशनियाँ तारों-सी जान पड़ती थीं।
हमारे देखते-देखते एक घने पर्दे ने आकर इन सबको ढँक दिया। रोशनियाँ मानों मर गई। जगमगाहट लुप्त हो गई। वे काले-काले भूत-से पहाड़ भी इस सफ़ेद पर्दे के पीछे छिप गए। पास की वस्तु भी न दीखने लगी। मानो यह घनीभूत प्रलय थी। सब कुछ इस घनी गहरी सफ़ेदी में दब गया। एक शुभ्र महासागर ने फैलकर संस्कृति के सारे अस्तित्व को डुबो दिया। ऊपर-नीचे, चारों तरफ़ वह निर्भेद्य, सफ़ेद शून्यता ही फैली हुई थी।
ऐसा घना कुहरा हमने कभी न देखा था। वह टप-टप टपक रहा था। मार्ग अब बिल्कुल निर्जन, चुप था। वह प्रवाह न जाने किन घोंसलों में जा छिपा था।
उस बृहदाकार शुभ्र शून्य में कहीं से, ग्यारह बार टन्-टन् हो उठा।
जैसे कहीं दूर क़ब्र में से आवाज़ आ रही हो!
हम अपने-अपने होटलों के लिए चल दिए।
तीन
रास्ते में दो मित्रों का होटल मिला। दोनों वकील मित्र छुट्टी लेकर चले गए। हम दोनों आगे बढ़े। हमारा होटल आगे था।
ताल के किनारे-किनारे हम चले जा रहे थे। हमारे ओवरकोट तर हो गए थे। बारिश नहीं मालूम होती थी, पर वहाँ तो ऊपर-नीचे हवा से कण-कण में बारिश थी। सर्दी इतनी थी कि सोचा, कोट पर एक कंबल और होता तो अच्छा होता।
रास्ते में ताल के बिल्कुल किनारे पर बेंच पड़ी थी। मैं जी में बेचैन हो रहा था। झटपट होटल पहुँचकर, इन भीगे कपड़ों से छुट्टी पा, गर्म बिस्तर में छिपकर सो रहना चाहता था। पर साथ के मित्र की सनक कब उठेगी, कब थमेगी—इसका क्या कुछ ठिकाना है! और वह कैसी क्या होगी—इसका भी कुछ अंदाज़ है! उन्होंने कहा—आओ, ज़रा यहाँ बैठें।
हम उस चूते कुहरे में रात के ठीक एक बजे तालाब के किनारे उस भीगी बर्फ़ली, ठंडी हो रही लोहे की बेंच पर बैठ गए।
5-10-15 मिनट हो गए। मित्र के उठने का इरादा न मालूम हुआ। मैंने खिझलाकर कहा—
“चलिए भी...”
“अरे ज़रा बैठो भी...”
हाथ पकड़कर ज़रा बैठने के लिए जब इस ज़ोर से बैठा लिया गया, तो और चारा न रहा—लाचार बैठे रहना पड़ा। सनक से छुटकारा आसान न था, और यह ज़रा बैठना ज़रा न था।
चुप-चुप बैठे तंग हो रहा था, कुढ़ रहा था कि मित्र अचानक बोले—
“देखो, वह क्या है?”
मैंने देखा—कुहरे की सफ़ेदी में कुछ ही हाथ दूर से एक काली सी सूरत हमारी तरफ़ बढ़ी आ रही थी। मैंने कहा—होगा कोई।
तीन गज की दूरी से दीख पड़ा, एक लड़का सिर के बड़े-बड़े बालों को खुजलाता चला आ रहा है। नंगे पैर है, नंगे सिर। एक मैली-सी क़मीज़ लटकाए है।
पैर उसके न जाने कहाँ पड़ रहे थे, और वह न जाने कहाँ जा रहा है—कहाँ जाना चाहता है! उसके क़दमों में जैसे कोई न अगला है, न पिछला है, न दायाँ है, न बायाँ है।
पास ही चुंगी की लालटेन के छोटे-से प्रकाश-वृत्त में देखा—कोई दस बरस का होगा। गोरे रंग का है, पर मैल से काला पड़ गया है। आँखें अच्छी बड़ी पर सूनी हैं। माथा जैसे अभी से झुर्रियाँ खा गया है।
वह हमें न देख पाया। वह जैसे कुछ भी नहीं देख रहा था। न नीचे की धरती, न ऊपर चारों तरफ़ फैला हुआ कुहरा, न सामने का तालाब और न बाक़ी दुनिया। वह बस, अपने विकट वर्तमान को देख रहा था।
मित्र ने आवाज़ दी—ए!
उसने जैसे जागकर देखा और पास आ गया।
“तू कहाँ जा रहा है रे?”
उसने अपनी सूनी आँखें फाड़ दीं।
“दुनिया सो गई, तू ही क्यों घूम रहा है?”
बालक मौन-मूक, फिर भी बोलता हुआ चेहरा लेकर खड़ा रहा।
“कहाँ सोएगा?”
“यहीं कहीं।”
“कल कहाँ सोया था?”
“दुकान पर।”
“आज वहाँ क्यों नहीं?”
“नौकरी से हटा दिया।”
“क्या नौकरी थी?”
“सब काम। एक रुपया और जूठा खाना!”
“फिर नौकरी करेगा?”
“हाँ...”
“बाहर चलेगा?”
“हाँ...”
“आज क्या खाना खाया?”
“कुछ नहीं।”
“अब खाना मिलेगा?”
“नहीं मिलेगा।”
“यों ही सो जाएगा?”
“हाँ...”
“कहाँ?”
“यहीं कहीं।”
“इन्हीं कपड़ों से?”
बालक फिर आँखों से बोलकर मूक खड़ा रहा। आँखें मानो बोलती थीं—‘यह भी कैसा मूर्ख प्रश्न!’
“माँ-बाप हैं?”
“हैं।”
“कहाँ?”
“पंद्रह कोस दूर गाँव में।”
“तू भाग आया?”
“हाँ!”
“क्यों?”
“मेरे कई छोटे भाई-बहिन हैं,—सो भाग आया। वहाँ काम नहीं, रोटी नहीं। बाप भूखा रहता था और मारता था, माँ भूखी रहती थी और रोती थी। सो भाग आया। एक साथी और था। उसी गाँव का था,—मुझसे बड़ा। दोनों साथ यहाँ आए। वह अब नहीं हैं।”
“कहाँ गया?”
“मर गया।”
इस ज़रा-सी उम्र में ही इसकी मौत से पहचान हो गई!—मुझे अचरज हुआ, दर्द हुआ, पूछा—“मर गया?”
“हाँ, साहब ने मारा, मर गया।”
“अच्छा, हमारे साथ चल।”
वह साथ चल दिया। लौटकर हम वकील दोस्तों के होटल में पहुँचे।
“वकील साहब!”
वकील लोग होटल के ऊपर के कमरे से उतरकर आए। कश्मीरी दोशाला लेपेटे थे, मोज़े-चढ़े पैरों में चप्पल थी। स्वर में हल्की-सी झुँझलाहट थी, कुछ लापरवाही थी।
“ओ-हो, फिर आप!—कहिए?”
“आपको नौकर की ज़रूरत थी न? देखिए, यह लड़का है।”
“कहाँ से लाए?—इसे आप जानते हैं?”
“जानता हूँ—यह बेईमान नहीं हो सकता।”
“अजी ये पहाड़ी बड़े शैतान होते हैं। बच्चे-बच्चे में गुन छिपे रहते हैं। आप भी क्या अजीब हैं—उठा लाए कहीं से—‘लो जी, यह नौकर लो’।”
“मानिए तो, यह लड़का अच्छा निकलेगा।”
“आप भी…जी, बस ख़ूब है। ऐरे-गैरे को नौकर बना लिया जाए, अगले दिन वह न जाने क्या-क्या लेकर चंपत हो जाए!”
“आप मानते ही नहीं, मैं क्या करूँ!”
“मानें क्या, ख़ाक?—आप भी… जी अच्छा मज़ाक़ करते हैं।
…अच्छा, अब हम सोने जाते हैं।”
और वे चार रुपए रोज़ के किराए वाले कमरे में सजी मसहरी पर सोने झटपट चले गए।
चार
वकील साहब के चले जाने पर, होटल के बाहर आकर मित्र ने अपनी जेब में हाथ डालकर कुछ टटोला। पर झट कुछ निराश भाव से हाथ बाहर कर मेरी ओर देखने लगे।
“क्या है?”—मैंने पूछा।
“इसे खाने के लिए कुछ देना चाहता था”, अँग्रेज़ी में मित्र ने कहा—“मगर, दस-दस के नोट हैं।”
“नोट ही शायद मेरे पास हैं;—देखूँ?”
सचमुच मेरे जेब में भी नोट ही थे। हम फिर अँग्रेज़ी में बोलने लगे। लड़के के दाँत बीच-बीच में कटकटा उठते थे।—कड़ाके की सर्दी थी।
मित्र ने पूछा—“तब?”
मैंने कहा—“दस का नोट ही दे दो।” सकपकाकर मित्र मेरा मुँह देखने लगे—“अरे यार, बजट बिगड़ जाएगा। हृदय में जितनी दया है, पास में उतने पैसे तो नहीं हैं।”
“तो जाने दो; यह दया ही इस ज़माने में बहुत है।”—मैंने कहा।
मित्र चुप रहे। जैसे कुछ सोचते रहे। फिर लड़के से बोले—
“अब आज तो कुछ नहीं हो सकता। कल मिलना। वह ‘होटल—डी पव’ जानता है? वहीं कल 10 बजे मिलेगा?”
“हाँ...कुछ काम देंगे हुज़ूर?”
“हाँ, हाँ, ढूँढ़ दूँगा।”
“तो जाऊँ?”—लड़के ने निराश आशा से पूँछा।
“हाँ,” ठंडी साँस खींचकर मित्र ने कहा—“कहाँ सोएगा?”
“यहीं-कहीं; बेंच पर, पेड़ के नीचे—किसी दुकान की भट्ठी में।”
बालक कुछ ठहरा। मैं असमंजस में रहा। तब वह प्रेत-गति से एक ओर बढ़ा और कुहरे में मिल गया। हम भी होटल की ओर बढ़े। हवा तीखी थी—हमारे कोटों को पार कर बदन में तीर-सी लगती थी।
सिकुड़ते हुए मित्र ने कहा—“भयानक शीत है। उसके पास कम—बहुत कम कपड़े…!”
“यह संसार है यार!” मैंने स्वार्थ की फिलासफ़ी सुनाई—“चलो, पहले बिस्तर में गर्म हो लो, फिर किसी और की चिंता करना।”
उदास होकर मित्र ने कहा—“स्वार्थ!—जो कहो, लाचारी कहो, निठुराई कहो—या बेहयाई!”
***
दूसरे दिन नैनीताल-स्वर्ग के किसी काले ग़ुलाम पशु के दुलारे का वह बेटा—वह बालक, निश्चित समय पर हमारे ‘होटल-डी पव’ में नहीं आया। हम अपनी नैनीताली सैर ख़ुशी-ख़ुशी ख़त्म कर चलने को हुए। उस लड़के की आस लगाते बैठे रहने की ज़रूरत हमने न समझी।
मोटर में सवार होते ही थे कि यह समाचार मिला—कि पिछली रात, एक पहाड़ी बालक सड़क के किनारे, पेड़ के नीचे, ठिठुरकर मर गया।
मरने के लिए उसे वही जगह, वही दस बरस की उम्र और वही काले चिथड़ों की क़मीज़ मिली! आदमियों की दुनिया ने बस यही उपहार उसके पास छोड़ा था।
पर बताने वालों ने बताया कि ग़रीब के मुँह पर, छाती मुट्ठी और पैरों पर बर्फ़ की हल्की-सी चादर चिपक गई थी। मानों दुनिया की बेहयाई ढकने के लिए प्रकृति ने शव के लिए सफ़ेद और ठंडे कफ़न का प्रबंध कर दिया था!
सब सुना और सोचा—अपना-अपना भाग्य!
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5 10 15 minat ho ge. mitr ke uthne ka irada na malum hua. mainne khijhlakar kaha—
“chaliye bhi. . . ”
“are zara baitho bhi. . . ”
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“dekho, wo kya hai?”
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“maan baap hain?”
“hain. ”
“kahan?”
“pandrah kos door gaanv mein. ”
“tu bhaag aya?”
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“kyon?”
“mere kai chhote bhai bahin hain,—so bhaag aaya. vahan kaam nahin, roti nahin. baap bhukha rahta tha aur marta tha, maan bhukhi rahti thi aur roti thi. so bhaag aaya. ek sathi aur tha. usi gaanv ka tha,—mujhse baDa. donon saath yahan aaye. wo ab nahin hain. ”
“kahan gaya?”
“mar gaya. ”
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“haan, sahab ne mara, mar gaya. ”
“achchha, hamare saath chal. ”
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“vakil sahab!”
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“apko naukar ki zarurat thi na? dekhiye, ye laDka hai. ”
“kahan se laye?—ise aap jante hain?”
“janta hun—yah beiman nahin ho sakta. ”
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“maniye to, ye laDka achchha niklega. ”
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“manen kya, khak?—ap bhee… ji achchha mazaq karte hain.
…achchha, ab hum sone jate hain. ”
aur ve chaar rupe roz ke kiraye vale kamre mein saji masahri par sone jhatpat chale ge.
chaar
vakil sahab ke chale jane par, hotal ke bahar aakar mitr ne apni jeb mein haath Dalkar kuch tatola. par jhat kuch nirash bhaav se haath bahar kar meri or dekhne lage.
“kya hai?”—mainne puchha.
“ise khane ke liye kuch dena chahta tha”, angrezi mein mitr ne kaha—“magar, das das ke not hain. ”
“not hi shayad mere paas hain;—dekhun?”
sachmuch mere jeb mein bhi not hi the. hum phir angrezi mein bolne lage. laDke ke daant beech beech mein katakta uthte the. —kaDake ki sardi thi.
mitr ne puchha—“tab?”
mainne kaha—“das ka not hi de do. ” sakapkakar mitr mera munh dekhne lage—“are yaar, bajat bigaD jayega. hriday mein jitni daya hai, paas mein utne paise to nahin hain. ”
“to jane do; ye daya hi is zamane mein bahut hai. ”—mainne kaha.
mitr chup rahe. jaise kuch sochte rahe. phir laDke se bole—
“ab aaj to kuch nahin ho sakta. kal milna. wo ‘hotal—Di pav’ janta hai? vahin kal 10 baje milega?”
“haan. . . kuch kaam denge huzur?”
“haan, haan, DhoonDh dunga. ”
“to jaun?”—laDke ne nirash aasha se punchha.
“haan,” thanDi saans khinchkar mitr ne kaha—“kahan soega?”
“yahin kahin; bench par, peD ke niche—kisi dukan ki bhatthi mein. ”
balak kuch thahra. main asmanjas mein raha. tab wo pret gati se ek or baDha aur kuhre mein mil gaya. hum bhi hotal ki or baDhe. hava tikhi thi—hamare koton ko paar kar badan mein teer si lagti thi.
sikuDte hue mitr ne kaha—“bhayanak sheet hai. uske paas kam—bahut kam kapDe…!”
“yah sansar hai yaar!” mainne svaarth ki philasfi sunai—“chalo, pahle bistar mein garm ho lo, phir kisi aur ki chinta karna. ”
dusre din nainital svarg ke kisi kale ghulam pashu ke dulare ka wo beta—vah balak, nishchit samay par hamare ‘hotal Di pav’ mein nahin aaya. hum apni nainitali sair khushi khushi khatm kar chalne ko hue. us laDke ki aas lagate baithe rahne ki zarurat hamne na samjhi.
motar mein savar hote hi the ki ye samachar mila—ki pichhli raat, ek pahaDi balak saDak ke kinare, peD ke niche, thithurkar mar gaya.
marne ke liye use vahi jagah, vahi das baras ki umr aur vahi kale chithDon ki qamiz mili! adamiyon ki duniya ne bas yahi uphaar uske paas chhoDa tha.
par batane valon ne bataya ki gharib ke munh par, chhati mutthi aur pairon par barf ki halki si chadar chipak gai thi. manon duniya ki behayai Dhakne ke liye prkriti ne shav ke liye safed aur thanDe kafan ka prbandh kar diya tha!
sab suna aur socha—apna apna bhagya!
bahut kuch niruddeshya ghoom chukne par hum saDak ke kinare ki ek bench par baith ge.
nainital ki sandhya dhire dhire utar rahi thi. rui ke reshe se bhaap se, badal hamare siron ko chhu chhukar berok ghoom rahe the. halke parkash aur andhiyari se rangkar kabhi ve nile dikhte, kabhi safed aur phir der mein arun paD jate. ve jaise hamare saath khelna chaah rahe the.
pichhe hamare polo vala maidan phaila tha. samne angrezon ka ek pramod grih tha, jahan suhavna rasila baja baj raha tha aur paarshv mein tha vahi suramya anupam nainital.
taal mein kishtiyan apne safed paal uDati hui ek do angrez yatriyon ko lekar, idhar se udhar aur udhar se idhar khel rahi theen aur kahin kuch angrez ek ek devi samne pratisthapit kar, apni sui si shakl ki Dongiyon ko, mano shart bandhakar sarpat dauDa rahe the. kahin kinare par kuch sahab apni bansi pani mein Dale, sadhairya, ekaagr, ekasth, eknishth machhli chintan kar rahe the.
pichhe polo laun mein bachche kilkariyan marte hue hauki khel rahe the. shor, maar peet, gali galauch bhi jaise khel ka hi ansh tha. is tamam khel ko utne kshnon ka uddeshya bana, ve balak apna sara man, sari deh, samagr bal aur samuchi vidha lagakar manon khatm kar dena chahte the. unhen aage ki chinta na thi, bite ka khyaal na tha. ve shuddh tatkal ke prani the. ve shabd ki sampurn sachchai ke saath jivit the.
saDak par se nar nariyon ka aviral pravah aa raha tha aur ja raha tha. uska na or tha na chhor. ye pravah kahan ja raha tha, aur kahan se aa raha tha, kaun bata sakta hai? sab umr ke, sab tarah ke log usmen the. manon manushyata ke namunon ka bazar sajkar samne se ithlata nikla chala ja raha ho.
adhikar garv mein tane angrez usmen the aur chithDon se saje ghoDon ki baag thame ve pahaDi usmen the, jinhonne apni pratishtha aur samman ko kuchalkar shunya bana liya hai aur jo baDi tatparta se dum hilana seekh ge hain.
bhagte, khelte, hanste, shararat karte laal laal angrez bachche the aur pili pili ankhen phaDe, pita ki ungli pakaDkar chalte hue apne hindustani naunihal bhi the.
angrez pita the, jo apne bachchon ke saath bhaag rahe the, hans rahe the aur khel rahe the. udhar bharatiy pitridev bhi the, jo buzurgi ko apne charon taraf lapete dhan sampannta ke lakshnon ka prardshan karte hue chal rahe the.
angrez ramaniyan theen, jo dhire dhire nahin chalti theen, tez chalti theen. unhen na chalne mein thakavat aati thi, na hansne mein laaj aati thi. kasrat ke naam par ghoDe par bhi baith sakti theen aur ghoDe ke saath hi saath, zara ji hote hi, kisi hindustani par koDe bhi phatkar sakti theen. ve do do, teen teen, chaar chaar ki toliyon mein, nishshank, nirapad is pravah mein manon apne sthaan ko janti hui, saDak par chali ja rahi theen.
udhar hamari bharat ki kul lakshmiyan, saDak ke bilkul kinare kinare, daman bachatin aur sanbhalati hui, saDi ki kai tahon mein simat simatkar, lok laaj, streetv aur bharatiy garima ke adarsh ko apne pariveshtnon mein chhipakar, sahmi sahmi dharti mein ankh gaDe, qadam qadam baDh rahi theen.
iske saath hi bharatiyata ka ek aur namuna tha. apne kalepan ko khurach khurachkar baha dene ki ichchha karnevala angrezi daan purushottam bhi the, jo netivon ko dekhkar munh pher lete the aur angrez ko dekhkar ankhe bichha dete the aur dum hilane lagte the. vaise ve akaDkar chalte the manon bharatbhumi ko isi akaD ke saath kuchal kuchalkar chalne ka unhen adhikar mila hai.
do
ghante ke ghante sarak ge. andhkar gaDha ho gaya. badal safed hokar jam ge. manushyon ka wo tanta ek ek kar ksheen ho gaya. ab ikka dukka adami saDak par chhatri lagakar nikal raha tha. hum vahin ke vahin baithe the. sardi si malum hui. hamare ovarkot bheeg ge the.
pichhe phirkar dekha. ye laun barf ki chadar ki tarah bilkul stabdh aur sunn paDa tha.
sab sannata tha. tallilal ki bijli ki roshaniyan deep malika si jagmaga rahi theen. wo jagmagahat do meel tak phaile hue prkriti ke jal darpan par pratibimbit ho rahi thi. aur darpan ka kanpta hua, lahren leta hua wo jal pratibimbon ko sau guna, hazar guna karke, unke parkash ko manon ekatr aur punjibhut karke vyaapt kar raha tha. pahaDon ke sir par ki roshaniyan taron si jaan paDti theen.
hamare dekhte dekhte ek ghane parde ne aakar in sabko Dhank diya. roshaniyan manon mar gai. jagmagahat lupt ho gai. ve kale kale bhoot se pahaD bhi is safed parde ke pichhe chhip ge. paas ki vastu bhi na dikhne lagi. mano ye ghanibhut prlay thi. sab kuch is ghani gahri safedi mein dab gaya. ek shubhr mahasagar ne phailkar sanskriti ke sare astitv ko Dubo diya. uupar niche, charon taraf wo nirbhedya, safed shunyata hi phaili hui thi.
aisa ghana kuhra hamne kabhi na dekha tha. wo tap tap tapak raha tha. maarg ab bilkul nirjan, chup tha. wo pravah na jane kin ghonslon mein ja chhipa tha.
us brihdakar shubhr shunya mein kahin se, gyarah baar tan tan ho utha.
jaise kahin door qabr mein se avaz aa rahi ho!
hum apne apne hotlon ke liye chal diye.
teen
raste mein do mitron ka hotal mila. donon vakil mitr chhutti lekar chale ge. hum donon aage baDhe. hamara hotal aage tha.
taal ke kinare kinare hum chale ja rahe the. hamare ovarkot tar ho ge the. barish nahin malum hoti thi, par vahan to uupar niche hava se kan kan mein barish thi. sardi itni thi ki socha, kot par ek kambal aur hota to achchha hota.
raste mein taal ke bilkul kinare par bench paDi thi. main ji mein bechain ho raha tha. jhatpat hotal pahunchakar, in bhige kapDon se chhutti pa, garm bistar mein chhipkar so rahna chahta tha. par saath ke mitr ki sanak kab uthegi, kab thamegi—iska kya kuch thikana hai! aur wo kaisi kya hogi—iska bhi kuch andaz hai! unhonne kaha—ao, zara yahan baithen.
hum us chute kuhre mein raat ke theek ek baje talab ke kinare us bhigi barfli, thanDi ho rahi lohe ki bench par baith ge.
5 10 15 minat ho ge. mitr ke uthne ka irada na malum hua. mainne khijhlakar kaha—
“chaliye bhi. . . ”
“are zara baitho bhi. . . ”
haath pakaDkar zara baithne ke liye jab is zor se baitha liya gaya, to aur chara na raha—lachar baithe rahna paDa. sanak se chhutkara asan na tha, aur ye zara baithna zara na tha.
chup chup baithe tang ho raha tha, kuDh raha tha ki mitr achanak bole—
“dekho, wo kya hai?”
mainne dekha—kuhre ki safedi mein kuch hi haath door se ek kali si surat hamari taraf baDhi aa rahi thi. mainne kaha—hoga koi.
teen gaj ki duri se deekh paDa, ek laDka sir ke baDe baDe balon ko khujlata chala aa raha hai. nange pair hai, nange sir. ek maili si qamiz latkaye hai.
pair uske na jane kahan paD rahe the, aur wo na jane kahan ja raha hai—kahan jana chahta hai! uske qadmon mein jaise koi na agla hai, na pichhla hai, na dayan hai, na bayan hai.
paas hi chungi ki lalten ke chhote se parkash vritt mein dekha—koi das baras ka hoga. gore rang ka hai, par mail se kala paD gaya hai. ankhen achchhi baDi par suni hain. matha jaise abhi se jhurriyan kha gaya hai.
wo hamein na dekh paya. wo jaise kuch bhi nahin dekh raha tha. na niche ki dharti, na uupar charon taraf phaila hua kuhra, na samne ka talab aur na baqi duniya. wo bas, apne vikat vartaman ko dekh raha tha.
balak phir ankhon se bolkar mook khaDa raha. ankhen mano bolti thin—‘yah bhi kaisa moorkh parashn!’
“maan baap hain?”
“hain. ”
“kahan?”
“pandrah kos door gaanv mein. ”
“tu bhaag aya?”
“haan!”
“kyon?”
“mere kai chhote bhai bahin hain,—so bhaag aaya. vahan kaam nahin, roti nahin. baap bhukha rahta tha aur marta tha, maan bhukhi rahti thi aur roti thi. so bhaag aaya. ek sathi aur tha. usi gaanv ka tha,—mujhse baDa. donon saath yahan aaye. wo ab nahin hain. ”
“kahan gaya?”
“mar gaya. ”
is zara si umr mein hi iski maut se pahchan ho gai!—mujhe achraj hua, dard hua, puchha—“mar gaya?”
“haan, sahab ne mara, mar gaya. ”
“achchha, hamare saath chal. ”
wo saath chal diya. lautkar hum vakil doston ke hotal mein pahunche.
“vakil sahab!”
vakil log hotal ke uupar ke kamre se utarkar aaye. kashmiri doshala lepete the, moze chaDhe pairon mein chappal thi. svar mein halki si jhunjhlahat thi, kuch laparvahi thi.
“o ho, phir ap!—kahiye?”
“apko naukar ki zarurat thi na? dekhiye, ye laDka hai. ”
“kahan se laye?—ise aap jante hain?”
“janta hun—yah beiman nahin ho sakta. ”
“aji ye pahaDi baDe shaitan hote hain. bachche bachche mein gun chhipe rahte hain. aap bhi kya ajib hain—utha laye kahin se—‘lo ji, ye naukar lo’. ”
“maniye to, ye laDka achchha niklega. ”
“aap bhi…ji, bas khoob hai. aire gaire ko naukar bana liya jaye, agle din wo na jane kya kya lekar champat ho jaye!”
“aap mante hi nahin, main kya karun!”
“manen kya, khak?—ap bhee… ji achchha mazaq karte hain.
…achchha, ab hum sone jate hain. ”
aur ve chaar rupe roz ke kiraye vale kamre mein saji masahri par sone jhatpat chale ge.
chaar
vakil sahab ke chale jane par, hotal ke bahar aakar mitr ne apni jeb mein haath Dalkar kuch tatola. par jhat kuch nirash bhaav se haath bahar kar meri or dekhne lage.
“kya hai?”—mainne puchha.
“ise khane ke liye kuch dena chahta tha”, angrezi mein mitr ne kaha—“magar, das das ke not hain. ”
“not hi shayad mere paas hain;—dekhun?”
sachmuch mere jeb mein bhi not hi the. hum phir angrezi mein bolne lage. laDke ke daant beech beech mein katakta uthte the. —kaDake ki sardi thi.
mitr ne puchha—“tab?”
mainne kaha—“das ka not hi de do. ” sakapkakar mitr mera munh dekhne lage—“are yaar, bajat bigaD jayega. hriday mein jitni daya hai, paas mein utne paise to nahin hain. ”
“to jane do; ye daya hi is zamane mein bahut hai. ”—mainne kaha.
mitr chup rahe. jaise kuch sochte rahe. phir laDke se bole—
“ab aaj to kuch nahin ho sakta. kal milna. wo ‘hotal—Di pav’ janta hai? vahin kal 10 baje milega?”
“haan. . . kuch kaam denge huzur?”
“haan, haan, DhoonDh dunga. ”
“to jaun?”—laDke ne nirash aasha se punchha.
“haan,” thanDi saans khinchkar mitr ne kaha—“kahan soega?”
“yahin kahin; bench par, peD ke niche—kisi dukan ki bhatthi mein. ”
balak kuch thahra. main asmanjas mein raha. tab wo pret gati se ek or baDha aur kuhre mein mil gaya. hum bhi hotal ki or baDhe. hava tikhi thi—hamare koton ko paar kar badan mein teer si lagti thi.
sikuDte hue mitr ne kaha—“bhayanak sheet hai. uske paas kam—bahut kam kapDe…!”
“yah sansar hai yaar!” mainne svaarth ki philasfi sunai—“chalo, pahle bistar mein garm ho lo, phir kisi aur ki chinta karna. ”
dusre din nainital svarg ke kisi kale ghulam pashu ke dulare ka wo beta—vah balak, nishchit samay par hamare ‘hotal Di pav’ mein nahin aaya. hum apni nainitali sair khushi khushi khatm kar chalne ko hue. us laDke ki aas lagate baithe rahne ki zarurat hamne na samjhi.
motar mein savar hote hi the ki ye samachar mila—ki pichhli raat, ek pahaDi balak saDak ke kinare, peD ke niche, thithurkar mar gaya.
marne ke liye use vahi jagah, vahi das baras ki umr aur vahi kale chithDon ki qamiz mili! adamiyon ki duniya ne bas yahi uphaar uske paas chhoDa tha.
par batane valon ne bataya ki gharib ke munh par, chhati mutthi aur pairon par barf ki halki si chadar chipak gai thi. manon duniya ki behayai Dhakne ke liye prkriti ne shav ke liye safed aur thanDe kafan ka prbandh kar diya tha!
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।