ख़ानाबदोश
khanabadosh
नोट
प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा ग्यारहवीं के पाठ्यक्रम में शामिल है।
सुकिया के हाथ की पथी कच्ची ईंटें पकने के लिए भट्टे में लगाई जा रही थीं। भट्टे के गलियारे में झरोखेदार कच्ची ईंटों की दीवार देखकर सुकिया आत्मिक सुख से भर गया था। देखते-ही-देखते हज़ारों ईंटें भट्ठे के गलियारे में समा गई थीं। ईंटों के बीच ख़ाली जगह में पत्थर का कोयला, लकड़ी, बुरादा, गन्ने की बाली भर दिए गए थे।
असगर ठेकेदार ने अपनी निगरानी में हर चीज़ तरतीब से लगवाई थी। आग लगाने से पहले भट्ठा-मालिक मुखतार सिंह ने एक-एक चीज़ का मुआयना किया था।
चौबीसों घंटे की ड्यूटी पर मज़दूरों को लगाया गया था, जो मोरियों से भट्टे में कोयला, बुरादा आदि डाल रहे थे। भट्टे का सबसे ख़तरेवाला काम था मोरी पर काम करना। थोड़ी-सी असावधानी भी मौत का कारण बन सकती थी।
भट्टे की चिमनी धुआँ उगलने लगी थी। यह धुआँ मीलों दूर से दिखाई पड़ जाता था। हरे-भरे खेतों के बीच गहरे मटमैले रंग का यह भट्ठा एक धब्बे जैसा दिखाई पड़ता था।
मानो और सुकिया महीनाभर पहले ही इस भट्टे पर आए थे, दिहाड़ी मज़दूर बनकर। हफ़्तेभर का काम देखकर असगर ठेकेदार ने सुकिया से कहा था कि साँचा ले लो और ईंट पाथने का काम शुरू करो। हज़ार ईंट के रेट से अपनी मज़दूरी लो। भट्टे पर लगभग तीस मज़दूर थे जो वहीं काम करते थे। भट्ठा-मालिक मुख्तार सिंह और असगर ठेकेदार साँझ होते ही शहर लौट जाते थे। शहर से दूर, दिनभर की गहमा-गहमी के बाद यह भट्टा अँधेरे की गोद में समा जाता था।
एक क़तार में बनी छोटी-छोटी झोंपड़ियों में टिमटिमाती ढिबरियाँ भी इस अँधेरे से लड़ नहीं पाती थीं। दड़बेनुमा झोंपड़ियों में झुककर घुसना पड़ता था। झुके-झुके ही बाहर आना होता था। भट्टे का काम ख़त्म होते ही औरतें चूल्हा-चौका सँभाल लेती थीं। कहने भर के लिए चूल्हा-चौका था। ईंटों को जोड़कर बनाए चूल्हे में जलती लकड़ियों की चिट-पिट जैसे मन में पसरी दुश्चिंताओं और तकलीफ़ों की प्रतिध्वनियाँ थीं जहाँ सब कुछ अनिश्चित था। मानो अभी तक इस भट्टे की ज़िंदगी से तालमेल नहीं बैठा पाई थी। बस, सुकिया की ज़िद के सामने वह कमज़ोर पड़ गई थी। साँझ होते ही सारा माहौल भाँय-भाँय करने लगता था। दिनभर के थके-हारे मज़दूर अपने-अपने दड़बों में घुस जाते थे। साँप-बिच्छू का डर लगा रहता था। जैसे समूचा जंगल झोपड़ी के दरवाज़े पर आकर खड़ा हो गया है। ऐसे माहौल में मानो का जी घबराने लगता था। लेकिन करे भी तो क्या, न जाने कितनी बार सुकिया से कहा था मानो ने अपने देस की सूखी रोटी भी परदेस के पकवानों से अच्छी होती है।
सुकिया के मन में एक बात बैठ गई थी। नर्क की ज़िंदगी से निकलना है तो कुछ छोड़ना भी पड़ेगा। मानो की हर बात का एक ही जवाब था उसके पास बड़े-बूढ़े कहा करे हैं कि आदमी की औक़ात घर से बाहर क़दम रखणें पे ही पता चले है। घर में तो चूहा भी सूरमा बणा रह। काँधे पर यो लंबा लट्ट धरके चलणें वाले चौधरी सहर (शहर) में सरकारी अफ़सरों के आगे सीधे खड़े न हो सके हैं। बुड्डी बकरियों की तरह मिमियाएँ हैं...और गाँव में किसी ग़रीब कू आदमी भी न समझे हैं...”
सुकिया की इन बातों से मानो कमज़ोर पड़ जाती थी। इसीलिए गाँव-देहात छोड़कर वे दोनों एक दिन असगर ठेकेदार के साथ इस भट्टे पर आ गए थे।
पहले ही महीने में सुकिया ने कुछ रुपए बचा लिए थे। कई-कई बार गिनकर तसल्ली कर ली थी। धोती की गाँठ में बाँधकर अंटी में खोस लिए थे। रुपए देखकर मानो भी ख़ुश हो गई थी। उसे लगने लगा था कि वह अपनी ज़िंदगी के ढर्रे को बदल लेगा।
सुकिया और मानो की ज़िंदगी एक निश्चित ढर्रे पर चलने लगी थी। दोनों मिलकर पहले तगारी बनाते, फिर मानो तैयार मिट्टी लाकर देती। इस काम में उनके साथ एक तीसरा मज़दूर भी आ गया था। नाम था जसदेव। छोटी उम्र का लड़का था। असगर ठेकेदार ने उसे भी उनके साथ काम पर लगा दिया था। इससे काम में गति आ गई थी। मानो भी अब फुर्ती से साँचे में ईंटें डालने लगी थी, जिससे उनकी दिहाड़ी बढ़ गई थी।
उस रोज़ मालिक मुखतार सिंह की जगह उनका बेटा सूबेसिंह भट्ठे पर आया था। मालिक कुछ दिनों के लिए कहीं बाहर चले गए थे। उनकी ग़ैरहाज़िरी में सूबेसिंह का रौब-दाब भट्टे का माहौल ही बदल देता था। इन दिनों में असगर ठेकेदार भीगी बिल्ली बन जाता था। दफ़्तर के बाहर एक अर्दली की ड्यूटी लग जाती थी, जो कुर्सी पर उकड़ू बैठकर दिनभर बीड़ी पीता था, आने-जाने वालों पर निगरानी रखता था। उसकी इजाज़त के बग़ैर कोई अंदर नहीं जा सकता था।
एक रोज़ सूबेसिंह की नज़र किसनी पर पड़ गई। तीन महीने पहले ही किसनी और महेश भट्टे पर आए थे। पाँच-छः महीने पहले ही दोनों की शादी हुई थी।
सूबेसिंह ने उसे दफ़्तर की सेवा-टहल का काम दे दिया था। शुरू-शुरू में किसी का ध्यान इस ओर नहीं गया था। लेकिन जब रोज़ ही गारे-मिट्टी का काम छोड़कर वह दफ़्तर में ही रहने लगी तो मज़दूरों में फुसफुसाहटें शुरू हो गई थीं।
तीसरे दिन सुबह जब मज़दूर काम शुरू करने के लिए झोपड़ियों से बाहर निकल रहे थे, किसनी हैंडपंप के नीचे खुले में बैठकर साबुन से रगड़-रगड़कर नहा रही थी। भट्टे पर साबुन किसी के पास नहीं था। साबुन और उससे उठते झाग पर सबकी नज़र पड़ गई थी। लेकिन बोला कोई कुछ भी नहीं था। सभी की आँखों में शंकाओं के गहरे काले बादल घिर आए थे। कानाफूसी हलके-हलके शुरू हो गई थी।
महेश गुमसुम-सा अलग-अलग रहने लगा था। साँवले रंग की भरे-पूरे जिस्म की किसनी का व्यवहार महेश के लिए दुःखदाई हो रहा था। वह दिन-भर दफ़्तर में घुसी रहती थी। उसकी खिलखिलाहटें दफ़्तर से बाहर तक सुनाई पड़ने लगी थीं। महेश ने उसे समझाने की कोशिश की थी। लेकिन वह जिस राह पर चल पड़ी थी वहाँ से लौटना मुश्किल था।
भट्टे की ज़िंदगी भी अजीब थी। गाँव-बस्ती का माहौल बन रहा था। झोंपड़ी के बाहर जलते चूल्हे और पकते खाने की महक़ से भट्ठे की नीरस ज़िंदगी में कुछ देर के लिए ही सही, ताज़गी का अहसास होता था। ज़्यादातर लोग रोटी के साथ गुड़ या फिर लाल मिर्च की चटनी ही खाते थे। दाल सब्ज़ी तो कभी-कभार ही बनती थी।
शाम होते ही हैंडपंप पर भीड़ लग जाती थी। जिस्म पर चिपकी मिट्टी को जितना उतारने की कोशिश करते, वह और उतना ही भीतर उतर जाती थी। नस-नस में कच्ची मिट्टी की महक़ बस गई थी। इस महक़ से अलग भट्टे का कोई अस्तित्व नहीं था।
किसनी और सूबेसिंह की कहानी अब काफ़ी आगे बढ़ गई थी। सूबेसिंह के अर्दली ने महेश को नशे की लत डाल दी थी। नशा करके महेश झोपड़ी में पड़ा रहता था। किसनी के पास एक ट्रांज़िस्टर भी आ गया था। सुबह-शाम भट्ठे की ख़ामोशी में ट्रांज़िस्टर की आवाज़ गूँजने लगी थी। ट्रांज़िस्टर वह इतने ज़ोर से बजाती थी कि भट्टे का वातावरण फ़िल्मी गानों की आवाज़ से गमक उठता था। शांत माहौल में संगीत-लहरियों ने खनक पैदा कर दी थी।
कड़ी मेहनत और दिन-रात भट्ठे में जलती आग के बाद जब भट्ठा खुलता था तो मज़दूर से लेकर मालिक तक की बेचैन साँसों को राहत मिलती थी। भट्टे से पकी ईंटों को बाहर निकालने का काम शुरू हो गया था। लाल-लाल पक्की ईंटों को देखकर सुकिया और मानो की ख़ुशी की इंतहा नहीं थी। ख़ासकर मानो तो ईंटों को उलट-पुलटकर देख रही थी। ख़ुद के हाथ की पथी ईंटों का रंग ही बदल गया था। उस दिन ईंटों को देखते-देखते ही मानो के मन में बिजली की तरह एक ख़याल कौंधा था। इस ख़याल के आते ही उसके भीतर जैसे एक साथ कई-कई भट्ट जल रहे थे। उसने सुकिया से पूछा था, “एक घर में कितनी ईंटें लग जाती हैं?
बहुत...कई हज़ार...लोहा, सीमेंट, लकड़ी, रेत अलग से। उसके मन में ख़याल उभरा था। उसे तत्काल कोई आधार नहीं मिल पा रहा था। वह बेचैन हो उठी थी।
उसे ख़ामोश देखकर सुकिया ने कहा, चलो, काम शुरू करना है। जसदेव बाट देख रहा होगा। सुकिया के पीछे-पीछे अनमनी ही चल दी थी मानो, लेकिन उसके दिलो-दिमाग़ पर ईंटों का लाल रंग कुछ ऐसे छा गया था कि वह उसी में उलझकर रह गई थी।
झींगुरों की झिन-झिन और बीच-बीच में सियारों की आवाज़ें रात के सन्नाटे में स्याहपन घोल रही थीं। थके-हारे मज़दूर नींद की गहरी खाइयों में लुढ़क गए थे। मानो के ख़यालों में अभी भी लाल-लाल ईंटें घूम रही थीं। इन ईंटों से बना हुआ एक छोटा-सा घर उसके ज़ेहन में बस गया था। यह ख़याल जिस शिद्दत से पुख़्ता हुआ था, नींद उतनी ही दूर चली गई थी।
दूर किसी बस्ती से हलके-हलके छनकर आती मुर्ग़े की बाँग, रात के आख़िरी पहर के अहसास के साथ ही मानो की पलकें नींद से भारी होने लगी थीं।
सुबह के ज़रूरी कामों से निबटकर जब सुकिया ने झोंपड़ी में झाँका तो वह हैरान रह गया था। इतनी देर तक मानो कभी नहीं सोती। वह परेशान हो गया था। गहरी नींद में सोई मानों का माथा उसने छूकर देखा, माथा ठंडा था। उसने राहत की साँस ली। मानो को जगाया, “इतना दिन चढ़ गया है...उठने का मन नहीं है?
मानो अनमनी सी उठी। कुछ देर यूँ ही चुपचाप बैठी रही। मानो का इस तरह बैठना सुकिया को अखरने लगा था, आज क्या बात है?...जी तो ठीक है?
मानो अपने ख़यालों में गुम थी। मन की बात बाहर आने के लिए छटपटा रही थी। उसने सुकिया की ओर देखते हुए पूछा, क्यों जी... क्या हम इन पक्की ईंटो पर घर नहीं बणा सके हैं?
मानो की बात सुनकर सुकिया आश्चर्य से उसे ताकने लगा। कल की बात वह भूल चुका था। सुकिया ने गहरे अवसाद से भरकर कहा, “पक्की ईंटों का घर दो-चार रुपए में ना बणता है।...इत्ते ढेर-से नोट लगे हैं घर बणाने में। गाँठ में नहीं है पैसा, चले हाथी ख़रीदने।
महीनेभर में जो हमने इत्ती ईंटें बणा दी है...क्या अपने लिए हम ईटें ना बणा सके हैं। मानो ने मासूमियत से कहा।
यह भट्ठा मालिक का है। हम ईंटें उनके लिए बणाते हैं। हम तो मज़दूर हैं। इन ईंटों पर अपना कोई हक़ ना है। सुकिया ने अपने मन में उठते दबाव को महसूस किया।
इन ईंटों पर म्हारा कोई भी हक़ ना है...क्यूँ..., मानो ने ताज्जुब भरी कड़ुवाहट से कहा। उसके अंदर बवंडर मचल रहा था। कुछ देर की ख़ामोशी के बाद मानो बोली, “हर महीने कुछ और बचत करें...ज़्यादा ईंटें बनाएँ...तब?...तब भी अपणा घर नहीं बणा सकते? अपने भीतर कुलबुलाते सवालों को बाहर लाना चाहती थी मानो।
“इतनी मज़दूरी मिलती कहाँ है? पूरे महीने हाड़-गोड़ तोड़ के भी कितने रुपए बचे! कुल अस्सी। एक साल में एक हज़ार ईंटों के दाम अगर हमने बच्चा भी लिए तो घर बणाने लायक़ रुपया जोड़ते-जोड़ते उम्र निकल जागी। फेर भी घर ना बण पावेगा। सुकिया ने दुखी मन से कहा।
“अगर हम रात-दिन काम करें तो भी नहीं? मानो ने उत्साह में भरकर कहा।
बावली हो गई है क्या?...चल उठ...चल, काम पे जाणा है। टेम ज़्यादा हो रहा है। ठेकेदार आता ही होगा। आज पूरब की टाँग काटनी है लगार के लिए। सुकिया मानो के सवालों से घबरा गया था। उठकर बाहर जाने लगा।
कुछ भी करो...तुम चाहो तो मैं रात-दिन काम करूँगी...मुझे एक पक्की ईंटों का घर चाहिए। अपने गाँव में...लाल-सुर्ख ईंटों का घर। मानों के भीतर मन में हज़ार-हज़ार वसंत खिल उठे थे।
सुकिया और मानो को एक लक्ष्य मिल गया था। पक्की ईंटों का घर बनाना है...अपने ही हाथ की पकी ईंटों से। सुबह होते ही काम पर लग जाते हैं और शाम को भी अँधेरा होने तक जुटे रहते हैं। ठेकेदार असगर से लेकर मालिक तक उनके काम से ख़ुश थे।
सुबेसिंह किसनी को शहर भी लेकर जाने लगा था। किसनी के रंग-ढंग में बदलाव आ गया था। अब वह भट्टे पर गारे-मिट्टी का काम नहीं करती थी। महेश रोज़ रात में नशा करके मन की भड़ास निकालता था। दिन में भी अपनी झोंपड़ी में पड़ा रहता था या इधर-उधर बैठा रहता था। किसनी कई-कई दिनों तक शहर से लौटती नहीं थी। जब लौटती—थकी, निढाल और मुरझाई हुई। कपड़ों-लत्तों की अब कमी नहीं थी।
उस रोज़ सूबेसिंह ने भट्ठे पर आते ही असगर ठेकेदार से कहा था, मानो को दफ़्तर में बुलाओ, आज किसनी की तबीयत ठीक नहीं है।
असगर ठेकेदार ने रोकना चाहा था, छोटे बाबू मानो को...
बात पूरी होने से पहले ही सूबेसिंह ने उसे फटकार दिया था, तुमसे जो कहा गया है, वही करो। राय देने की कोशिश मत करो। तुम इस भट्ठे पर मुंशी हो। मुंशी ही रहो, मालिक बनने की कोशिश करोगे तो अंजाम बुरा होगा।
असगर ठेकेदार की घिघ्घी बँध गई थी। वह चुपचाप मानो को बुलाने चल दिया था। असगर ठेकेदार ने आवाज़ देकर कहा था, मानो, छोटे बाबू बुला रहे हैं दफ़्तर में।
मानो ने सुकिया की ओर देखा। उसकी आँखों में भय से उत्पन्न कातरता थी। सुकिया भी इस बुलावे पर हड़बड़ा गया था। वह जानता था। मछली को फँसाने के लिए जाल फेंका जा रहा है। ग़ुस्से और आक्रोश से नसें खिंचने लगी थीं। जसदेव ने भी सुकिया की मनःस्थिति को भाँप लिया था। वह फुर्ती से उठा। हाथ-पाँव पर लगी गीली मिट्टी छुड़ाते हुए बोला “तुम यहाँ ठहरो...मैं देखता हूँ। चलो चाचा असगर के पीछे-पीछे चल दिया।
असगर ठेकेदार जानता था कि सूबेसिंह शैतान है। लेकिन चुप रहना उसकी मज़बूरी बन गई थी। ज़िंदगी का ख़ास हिस्सा उसने भट्टे पर गुज़ारा था। भट्टे से अलग उसका कोई वजूद ही नहीं था।
असगर ठेकेदार के साथ जसदेव को आता देखकर सूबेसिंह बिफर पड़ा था। तुझे किसने बुलाया है?
जी...जो भी काम हो बताइए...मैं कर दूँगा।... जसदेव ने विनम्रता से कहा।
क्यों? तू उसका ख़सम है...या उसकी (...पर चर्बी चढ़ गई है)।” सूबेसिंह ने अपशब्दों का इस्तेमाल किया।
“बाबू जी... आप किस तरह बोल रहे हैं... जसदेव के बात पूरी करने से पहले ही एक झन्नाटेदार थप्पड़ उसके गाल पर पड़ा।
“जानता नहीं...भट्टे की आग में झोंक दूँगा...किसी को पता भी नहीं चलेगा। हड्डियाँ तक नहीं मिलेगी राख से...समझा। सूबेसिंह ने उसे धकिया दिया। जसदेव गिर पड़ा था।
जब तक वह सँभल पाता। लात-घूँसो से सूबेसिंह ने उसे अधमरा कर दिया था। चीख़-पुकार सुनकर मज़दूर उनकी और दौड़ पड़े थे। मज़दूरों को एक साथ आता देखकर सूबेसिंह जीप में बैठ गया था। देखते-ही-देखते जीप शहर की ओर दौड़ गई थी। असगर ठेकेदार दफ़्तर में जा घुसा था।
सुकिया और मानो जसदेव को उठाकर झोंपड़ी में ले गए थे। वह दर्द से कराह रहा था। मानो ने उसकी चोटों पर हल्दी लगा दी थी। सुकिया ग़ुस्से में काँप रहा था। मानो के अवचेतन में असंख्य अँधेरे नाच रहे थे। वह किसनी नहीं बनना चाहती थी। इज़्ज़त की ज़िंदगी जीने की अदम्य लालसा उसमें भरी हुई थी। उसे एक घर चाहिए था—पक्की ईंटों का, जहाँ वह अपनी गृहस्थी और परिवार के सपने देखती थी।
समूचा दिन अदृश्य भय और दहशत में बीता था। जसदेव को हलका बुख़ार हो गया था। वह अपनी झोंपड़ी में पड़ा था। सुकिया उसके पास बैठा था। आज की घटना से मज़दूर डर गए थे। उन्हें लग रहा था कि सूबेसिंह किसी भी वक़्त लौटकर आ सकता है। शाम होते ही भट्टे पर सन्नाटा छा गया था। सब अपने-अपने खोल में सिमट गए थे। बूढ़ा बिलसिया जो अकसर बाहर पेड़ के नीचे देर रात तक बैठा रहता था, आज शाम होते ही अपनी झोंपड़ी में जाकर लेट गया था। उसके खाँसने की आवाज़ भी आज कुछ धीमी हो गई थी। किसनी की झोंपड़ी से ट्रांज़िस्टर की आवाज़ भी नहीं आ रही थी।
बीच-बीच में हैंडपंप की खंच-खंच ध्वनि इस ख़ामोशी में विघ्न डाल रही थी। पंप जसदेव की झोंपड़ी के ठीक सामने था। सभी को पानी के लिए इस पंप पर आना पड़ता था।
भट्टे पर दवा-दारू का कोई इंतज़ाम नहीं था। कटने-फटने पर घाव पर मिट्टी लगा देना था। कपड़ा जलाकर राख भर देना ही दवाई की जगह काम आते थे।
मानो ने अधूरे मन से चूल्हा जलाया था। रोटियाँ सेंककर सुकिया के सामने रख दी थी। सुकिया ने भी अनिच्छा से एक रोटी हलक के नीचे उतारी थी। उसकी भूख जैसे अचानक मर गई थी। मानो को लेकर उसकी चिंता बढ़ गई थी। उसने निश्चय कर लिया था वह मानो को किसनी नहीं बनने देगा।
मानो भी गुमसुम अपने आपसे ही लड़ रही थी। बार-बार उसे लग रहा था कि वह सुरक्षित नहीं है। एक सवाल उसे खाए जा रहा था—क्या औरत होने की यही सज़ा है। वह जानती थी कि सुकिया ऐसा-वैसा कुछ नहीं होने देगा। वह महेश की तरह नहीं है। भले ही यह भट्ठा छोड़ना पड़े। भट्ठा छोड़ने के ख़याल से ही वह सिहर उठी। नहीं...भट्ठा नहीं छोड़ना है। उसने अपने आपको आश्वस्त किया, अभी तो पक्की ईंटों का घर बनाना है।
मानो रोटियाँ लेकर बाहर जाने लगी तो सुकिया ने टोका, कहाँ जा रही है?
“जसदेव भूखा-प्यासा पड़ा है। उसे रोट्टी देणे जा रही हूँ। मानो ने सहज भाव से कहा।
बामन तेरे हाथ की रोट्टी खावेगा।...अक्ल मारी गई तेरी सुकिया ने उसे रोकना चाहा।
क्यों मेरे हाथ की रोट्टी में ज़हर लगा है? मानो ने सवाल किया। पल-भर रुककर बोली, बामन नहीं भट्ठा मज़दूर है वह...म्हारे जैसा।
चारों तरफ़ सन्नाटा था। जसदेव की झोंपड़ी में ढिबरी जल रही थी। मानो ने झोंपड़ी का दरवाज़ा ठेला जी कैसा है? भीतर जाते हुए मानो ने पूछा। जसदेव ने उठने की कोशिश की। उसके मुँह से दर्द की आह निकली।
कमबख़्त कीड़े पड़के मरेगा। हाथ-पाँव टूट-टूटकर गिरेंगे...आदमी नहीं जंगली जिनावर है। मानो ने सूबेसिंह को कोसते हुए कहा।
जसदेव चुपचाप उसे देख रहा था।
यह ले...रोट्टी खा ले। सुबे से भूखा है। दो कौर पेट में जाएँगे तो ताक़त तो आवेगी बदन में, मानो ने रोटी और गुड़ उसके आगे रख दिया था। जसदेव कुछ अनमना-सा हो गया था। भूख तो उसे लगी थी। लेकिन मन के भीतर कहीं हिचक थी। घर-परिवार से बाहर निकले ज़्यादा समय नहीं हुआ था। ख़ुद वह कुछ भी बना नहीं पाया था। शरीर का पोर-पोर टूट रहा था।
भूख नहीं है। जसदेव ने बहाना किया।
“भूख नहीं है या कोई और बात है... मानो ने जैसे उसे रंगे हाथों पकड़ लिया था।
“और क्या बात हो सकती है?... जसदेव ने सवाल किया।
तुम्हारे भइया कह रहे थे कि तुम बामन हो...इसीलिए मेरे हाथ की रोटी नहीं खाओगे। अगर यो बात है तो मैं ज़ोर ना डालूँगी...थारी मर्ज़ी...औरत हूँ...पास में कोई भूखा हो...तो रोटी का कौर गले से नीचे नहीं उतरता है।...फिर तुम तो दिन-रात साथ काम करते हो..., मेरी ख़ातिर पिटे...फिर यह बामन म्हारे बीच कहाँ से आ गया...? मानो रुआँसी हो गई थी। उसका गला रुँध गया था।
रोटी लेकर वापस लौटने के लिए मुड़ी। जसदेव में साहस नहीं था उसे रोक लेने के लिए। उनके बीच जुड़े तमाम सूत्र जैसे अचानक बिखर गए थे।
अपनी झोंपड़ी में आकर चुपचाप लेट गई थी मानो। बिना कुछ खाए। दिन-भर की घटनाएँ उसके दिमाग़ में खलबली मचा रही थीं। जसदेव