दान का हिसाब
daan ka hisab
नोट
प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा चौथी के पाठ्यक्रम में शामिल है।
एक था राजा। राजा जी लकदक कपड़े पहनकर यूँ तो हज़ारों रुपए ख़र्च करते रहते थे, पर दान के वक़्त उनकी मुट्ठी बंद हो जाती थी।
राजसभा में एक से एक नामी लोग आते रहते थे, लेकिन ग़रीब, दुखी, विद्वान, सज्जन इनमें से कोई भी नहीं आता था क्योंकि वहाँ पर इनका बिल्कुल सत्कार नहीं होता था।
एक बार उस देश में अकाल पड़ गया। पूर्वी सीमा के लोग भूखे-प्यासे मरने लगे। राजा के पास ख़बर आई। वे बोले, “यह तो भगवान की मार है, इसमें हाथ नहीं है।”
लोगों ने कहा, “महारज, राजभंडार से हमारी सहायता करने की कृपा करें, जिससे हम लोग दूसरे देशों से अनाज ख़रीदकर अपनी जान बचा सकें।”
राजा ने कहा, “आज तुम लोग अकाल से पीड़ित हो, कल पता चलेगा, कहीं भूकंप आया है। परसों सुनूँगा, कहीं के लोग बड़े ग़रीब हैं, दो वक़्त की रोटी नहीं जुटती। इस तरह सभी की सहायता करते-करते जब राजभंडार ख़त्म हो जाएगा तब ख़ुद मैं ही दिवालिया हो जाऊँगा।”
यह सुनकर सभी निराश होकर लौट गए।
इधर अकाल का प्रकोप फैलता ही जा रहा था। न जाने रोज़ कितने ही लोग भूख से मरने लगे। लोग फिर राजा के पास पहुँचे। उन्होंने राजसभा में गुहार लगाई, “दुहाई महाराज! आपसे ज़्यादा कुछ नहीं चाहते, सिर्फ़ दस हज़ार रुपए हमें दे दें तो हम आधा पेट खाकर भी ज़िंदा रह जाएँगे।”
राजा ने कहा, “दस हज़ार रुपए भी क्या तुम्हें बहुत कम लग रहे हैं? और उतने कष्ट से जीवित रहकर लाभ ही क्या है!”
एक व्यक्ति ने कहा, “भगवान की कृपा से लाखों रुपए राजकोष में मौजूद हैं। जैसे धन का सागर हो। उसमें से एक-आध लोटा ले लेने से महाराज का क्या नुक़सान हो जाएगा!”
राजा ने कहा, “राजकोष में अधिक धन है तो क्या उसे दोनों हाथों से लुटा दूँ?”
एक अन्य व्यक्ति ने कहा, “महल में प्रतिदिन हज़ारों रुपए इन सुगंधित वस्त्रों, मनोरंजन और महल की सजावट में ख़र्च होते हैं। यदि इन रुपयों में से ही थोड़ा-सा धन ज़रूरतमंदों को मिल जाए तो उन दुखियों की जान बच जाएगी।”
यह सुनकर राजा को क्रोध आ गया। वह ग़ुस्से से बोला, “ख़ुद भिखारी होकर मुझे उपदेश दे रहे हो? मेरा रुपया है, मैं चाहे उसे उबालकर खाऊँ चाहे तलकर! मेरी मर्ज़ी। तुम अगर इसी तरह बकवास करोगे तो मुश्किल में पड़ जाओगे। इसलिए इसी वक़्त तुम चुपचाप खिसक जाओ।”
राजा का क्रोध देखकर लोग वहाँ से चले गए।
राजा हँसते हुए बोला, “छोटे मुँह बड़ी बात! अगर सौ-दो सौ रुपए होते तो एक बार सोच भी सकता था। पहरेदारों की ख़ुराक दो-चार दिन कम कर देता और यह रक़म पूरी भी हो जाती। मगर सौ-दो सौ से इन लोगों का पेट नहीं भरेगा, एकदम दस हज़ार माँग बैठे। छोटे लोगों के कारण नाक में दम हो गया है।”
यह सुनकर वहाँ उपस्थित लोग हाँ हूँ कह कर रह गए। मगर मन ही मन उन्होंने भी सोचा, “राजा ने यह ठीक नहीं किया। ज़रूरतमंदों की सहायता करना तो राजा का कर्त्तव्य है।”
दो दिन बाद न जाने कहाँ से एक बूढ़ा संन्यासी राजसभा में आया। उसने राजा को आशीर्वाद देते हुए कहा, “दाता कर्ण महाराज! बड़ी दूर से आपकी प्रसिद्धि सुनकर आया हूँ। संन्यासी की इच्छा भी पूरी कर दें।”
अपनी प्रशंसा सुनकर राजा बोला, “ज़रा पता तो चले तुम्हें क्या चाहिए? यदि थोड़ा कम माँगो तो शायद मिल भी जाए।”
संन्यासी ने कहा, “मैं तो संन्यासी हूँ। मैं अधिक धन का क्या करूँगा! मैं राजकोष से बीस दिन तक बहुत मामूली भिक्षा प्रतिदिन लेना चाहता हूँ। मेरा भिक्षा लेने का नियम इस प्रकार है, मैं पहले दिन जो लेता हूँ, दूसरे दिन उसका दुगुना, फिर तीसरे दिन उसका दुगुना, फिर चौथे दिन तीसरे दिन का दुगुना। इसी तरह से प्रतिदिन दुगुना लेता जाता हूँ। भिक्षा लेने का मेरा यही तरीक़ा है।”
राजा बोला, “तरीक़ा तो समझ गया। मगर पहले दिन कितना लेंगे, यही असली बात है। दो-चार रुपयों से पेट भर जाए तो अच्छी बात है, मगर एकदम से बीस-पचास माँगने लगे, तब तो बीस दिन में काफ़ी बड़ी रक़म हो जाएगी।”
संन्यासी ने हँसते हुए कहा, “महाराज, मैं लोभी नहीं हूँ। आज मुझे एक रुपया दीजिए, फिर बीस दिन तक दुगुने करके देते रहने का हुक्म दे दीजिए।”
यह सुनकर राजा, मंत्री और दरबारी सभी की जान में जान आई। राजा ने हुक्म दे दिया कि संन्यासी के कहे अनुसार बीस दिन तक राजकोष से उन्हें भिक्षा दी जाती रहे।
संन्यासी राजा की जय-जयकार करते हुए घर लौट गए।
राजा के आदेश के अनुसार राजभंडारी प्रतिदिन हिसाब करके संन्यासी को भिक्षा देने लगा। इस तरह दो दिन बीते दस दिन बीते। दो सप्ताह तक भिक्षा देने के बाद भंडारी ने हिसाब करके देखा कि दान में काफ़ी धन निकला जा रहा है। यह देखकर उन्हें उलझन महसूस होने लगी। महाराज तो कभी किसी को इतना दान नहीं देते थे। उसने यह बात मंत्री को बताई।
मंत्री ने कुछ सोचते हुए कहा, “वाक़ई, यह बात तो पहले ध्यान में ही नहीं आई थी। मगर अब कोई उपाय भी नहीं है। महाराज का हुक्म बदला नहीं जा सकता।”
इसके बाद फिर कुछ दिन बीते। भंडारी फिर हड़बड़ाता हुआ मंत्री के पास पूरा हिसाब लेकर आ गया। हिसाब देखकर मंत्री का चेहरा फीका पड़ गया।
वह अपना पसीना पोंछकर, सिर खुजलाकर, दाढ़ी में हाथ फेरते हुए बोला, “यह क्या कह रहे हो! अभी से इतना धन चला गया है! तो फिर बीस दिनों के अंत में कितने रुपए होंगे?
भंडारी बोला, “जी, पूरा हिसाब तो नहीं किया है।”
मंत्री ने कहा, “तो तुरंत बैठकर, अभी पूरा हिसाब करो।”
भंडारी हिसाब करने बैठ गया। मंत्री महाशय अपने माथे पर बर्फ़ की पट्टी लगाकर तेज़ी से पंखा झलवाने लगे।
कुछ ही देर में भंडारी ने पूरा हिसाब कर लिया।
मंत्री ने पूछा, “कुल मिलाकर कितना हुआ?”
भंडारी ने हाथ जोड़कर कहा, “जी, दस लाख अड़तालीस हज़ार पाँच सौ पिचहत्तर रुपए।”
मंत्री को ग़ुस्सा आ गया वह बोला, “मज़ाक कर रहे हो?” यदि संन्यासी को इतने रुपए दे दिए तब तो राजकोष ख़ाली हो जाएगा।”
भंडारी ने कहा, “मज़ाक क्यों करूँगा? आप ही हिसाब देख लीजिए।”
यह कहकर उसने हिसाब का काग़ज़ मंत्री जी को दे दिया। हिसाब देखकर मंत्री जी को चक्कर आ गया। सभी उन्हें सँभालकर बड़ी मुश्किलों से राजा के पास ले गए।
राजा ने पूछा, “क्या बात है?” मंत्री बोले, “महाराज, राजकोष ख़ाली होने जा रहा है।”
राजा ने पूछा, “वह कैसे?”
मंत्री बोले, “महाराज, संन्यासी को आपने भिक्षा देने का हुक्म दिया है।
मगर अब पता चला है कि उन्होंने इस तरह राजकोष से क़रीब दस लाख रुपए झटकने का उपाय कर लिया है।”
राजा ने ग़ुस्से से कहा, “मैंने इतने रुपए देने का आदेश तो नहीं दिया था। फिर इतने रुपए क्यों दिए जा रहे हैं? भंडारी को बुलाओ।”
मंत्री ने कहा, “जी सब कुछ आपके हुक्म के अनुसार ही हुआ है। आप खुद ही दान का हिसाब देख लीजिए।”
राजा ने उसे एक बार देखा, दो बार देखा, इसके बाद वह बेहोश हो गया। सब परेशान हो गए। काफ़ी कोशिशों के बाद उनके होश में आ जाने पर लोग संन्यासी को बुलाने दौड़े।
संन्यासी के आते ही राजा रोते हुए उनके पैरों पर गिर पड़ा। बोला, “दुहाई है संन्यासी महाराज, मुझे इस तरह जान-माल से मत मारिए। जैसे भी हो एक समझौता करके मुझे वचन से मुक्त कर दीजिए।
अगर आपको बीस दिन तक भिक्षा दी गई तो राजकोष ख़ाली हो जाएगा। फिर राज-काज कैसे चलेगा!”
संन्यासी ने गंभीर होकर कहा, “इस राज्य में लोग अकाल से मर रहे हैं। मुझे उनके लिए केवल पचास हज़ार रुपए चाहिए। वह रुपया मिलते ही मैं समझूँगा मुझे मेरी पूरी भिक्षा मिल गई है। बस मुझे कुछ और नहीं चाहिए।”
राजा ने कहा, “परंतु उस दिन एक आदमी ने मुझसे कहा था कि लोगों के लिए दस हज़ार रुपए ही बहुत होंगे।” संन्यासी ने कहा, “मगर आज मैं कहता हूँ कि पचास हज़ार से एक पैसा कम नहीं लूँगा।”
राजा गिड़गिड़ाया, मंत्री गिड़गिड़ाए, सभी गिड़गिड़ाए। मगर संन्यासी अपने वचन पर डटा रहा। आख़िरकार लाचार होकर राजकोष से पचास हज़ार रुपए संन्यासी को देने के बाद ही राजा की जान बची।
पूरे देश में ख़बर फैल गई कि अकाल के कारण राजकोष से पचास हज़ार रुपए राहत में दिए गए हैं। सभी ने कहा, “हमारे महाराज कर्ण जैसे ही दानी हैं।”
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दान का हिसाब
पहला दिन 1 रुपया
दूसरा दिन 2 रुपए
तीसरा दिन 4 रुपए
चौथा दिन 8 रुपए
पाँचवाँ दिन 16 रुपए
छठा दिन 32 रुपए
सातवाँ दिन 64 रुपए
आठवाँ दिन 128 रुपए
नवाँ दिन 256 रुपए
दसवाँ दिन 512 रुपए
ग्यारवाँ दिन 1024 रुपए
बारहवाँ दिन 2048 रुपए
तेरहवाँ दिन 4096 रुपए
चौदवहाँ दिन 8192 रुपए
पंद्रहवाँ दिन 16384 रुपए
सोलहवाँ दिन 32768 रुपए
सत्रहवाँ दिन 65536 रुपए
अठारहवाँ दिन 131072 रुपए
उन्नीसवाँ दिन 262144 रुपए
बीसवाँ दिन 524288 रुपए
कुल 1048575 रुपए
- पुस्तक : रिमझिम (पृष्ठ 51)
- रचनाकार : सुकुमार राय
- प्रकाशन : एनसीईआरटी
- संस्करण : 2022
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