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मी टाइम

mi taim

रंजना जायसवाल

और अधिकरंजना जायसवाल

    “अभीर यह क्या तरीक़ा है, तुम्हारी मम्मी जब देखो तब किसी किसी बहाने से कमरे में चली आती है।”

    “क्या हुआ टिया तुम इतनी नाराज़ क्यों हो?”

    आज टिया आपे से बाहर थी, “मेरी भी अपनी ज़िंदगी है, सब कुछ तो कर रही हूँ। फिर भी...”

    “साफ़-साफ़ बताओगी, आख़िर हुआ क्या है?”

    अभीर का धैर्य अब जवाब देने लगे था।

    “एक दिन की बात होती तो ठीक थी पर अब तो यह रोज़-रोज़ की बात हो गई है। कभी ब्लड प्रेशर चेक कराने, कभी कफ़ सिरप के ढक्कन खोलने तो कभी कुछ... आज तो हद ही हो गई।”

    “हुआ क्या है साफ़-साफ़ बताओगी या फिर बस पहेलियाँ ही बुझाती रहोगी।”

    अभीर का धैर्य अब ग़ुस्से में बदलने लगा था।

    “घर का काम निपटाकर बस लेटी ही थी कि तुम्हारी मम्मी...”

    “तुम्हारी मम्मी-तुम्हारी मम्मी क्या लगा रखा है वो तुम्हारी भी तो कुछ लगती हैं?”

    अभीर ने चिढ़ कर कहा।

    “वो तुम्हारी ही मम्मी है, मेरी मम्मी होती तो मेरे मी टाइम एक्सपॉयल करने नहीं जाती। क्या वो टीवी के रिमोट की बैट्री भी बदल नहीं सकतीI एक दिन की बात होती तो अलग बात थी पर वो रोज़-रोज़ मेरे मी टाइम को बर्बाद करने के लिए तैयार खड़ी रहती हैI आख़िर मेरी भी तो ज़िंदगी है?”

    टिया की आवाज़ दूसरे कमरे तक रही थी। उम्र के इस पड़ाव पर मंजरी जी को वैसे तो थोड़ा ऊॅंचा ही सुनाई देता था पर आज उन्हें सब कुछ साफ़-साफ़ सुनाई भी दे रहा था और दिखाई भी!

    मी टाइम! कितना अलग-सा शब्द था उनके लिए, कानों के लिए भी शायद अपरिचित ही था। शायद इसीलिए जब भी उनकी बहू यह शब्द बोलती उनके कान आज्ञाकारी बच्चों की तरह खड़े हो जाते। मंजरी जी भी शिक्षित थी मनोविज्ञान से पोस्ट ग्रेजुएशन किया था उन्होंने... पर आजकल की लड़कियों की तरह शब्दों के शार्ट-फ़ॉम उन्हें नहीं आते थे।

    आजकल की लड़कियों की तरह उनकी उंगलियाँ की बोर्ड और माउस पर नहीं बेलन और कलछुल पर चलती थी, शायद इसीलिए उनकी पीढ़ी के लिए उनकी शिक्षा का कोई महत्व नहीं था कितना फ़र्क़ था इस पीढ़ी और उनकी पीढ़ी में।

    “पढ़ाई का मतलब नौकरी करना ही नहीं है, वैसे भी हमारा लड़का इतना पढ़ा-लिखा है, लड़की तो पढ़ी-लिखी होनी ही चाहिए। हमारी दोनों बहुएँ भी पढ़ी-लिखी हैं, कम से कम अपने बच्चों को तो पढ़ा सकेंगी।”

    यही तो कहा था उनके ससुर ने और मंजरी जी ने भी उनकी बात को सर माथे लगा लिया था पर शिक्षित मन को समझा पाना इतना आसान भी नहीं था। एक बार दबे स्वर में उन्होंने अभीर के बाबू जी से कहा भी था।

    “इतनी पढ़ाई की है, उसे यूँ जाया तो नहीं होने दे सकती। किसी स्कूल में...”

    “ज़रूरत क्या है नौकरी करने की जब पति ठीक-ठाक कमा रहा है तो... अब क्या इतना बुरा वक़्त गया है कि मैं बीबी के टुकड़ों पर पलूँ। जितना कमा रहा हूँ उसमे रहना सीखों। दुनिया क्या सोचेगी लगता है घर के हालात बेहतर नहीं है इसलिए घर की औरतों को काम करने के लिए बाहर निकलना पड़ रहा है।”

    अभीर के बाबू जी ने कुछ कहने का मौक़ा ही कहाँ दिया था। शब्द गले में अटक कर रह गए। उनकी दुनिया घर की चहारदीवारी और अभीर तक ही सीमित रह गई।

    “अपने ही बच्चे का भविष्य बना सकी तो बाहर के बच्चों का भविष्य बनाकर क्या फ़ायदा?”

    यही तो कहा था अभीर के बाबू जी ने... एक अज़ीब-सा डर उनके मन मे बैठ गया था। सच ही तो कहते हैं अभीर के बाबू जी उनका जो बनना बिगड़ना था वह बन बिगड़ गया अब तो अभीर पर ही ध्यान देना था।

    अभीर की शैतानी दिन भर दिन बढ़ती जा रही थी, एक जगह बैठना तो मानो उसने सीखा ही नहीं था। कोई कोई शिकायत लेकर आता ही रहता था। अब तो घर वाले भी परेशान हो गए थे। एक दिन बाबू जी ने उसके कान उमेठते हुए कहा था, “सुधार जा वरना तुझे हॉस्टल भेज देंगे, सारी बदमाशी ख़त्म हो जाएगी। बुद्धि दुरस्त हो जाएगी तेरी...”

    हॉस्टल के नाम पर अभीर ही नहीं मंजरी भी डर गई थी, मानो हॉस्टल हो काले-पानी की सजा हो।

    पर वक़्त बदला और वक़्त के साथ सोच भी बदली। घर वालों की सोच अचानक से बदल गई थी। पढ़ी-लिखी बहू आज भी सबको चाहिए थी पर अब पढ़े-लिखे होने के साथ-साथ नौकरी करने वाली हो तो अच्छा रहेगा क्योंकि बेटे की कमाई से घर कैसे चल सकता है। महँगाई आसमान पर है, एक आदमी की कमाई से कैसे काम चलेगा। बच्चों का भविष्य भी बनाना है पहले जहाँ बहुएँ इसलिए पढ़ी-लिखी लाई जाती थी कि वह बच्चों को पढ़ा सके। आज वही पीढ़ी अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए ट्यूशन और कोचिंग भेज रही है। अच्छे भविष्य के लिए उन्हें हॉस्टल भी भेजा जाने लगा। बच्चे की जीवन की प्रथम पाठशाला माने जाने वाला परिवार अचानक से जागरूक अभिवावक माना जाने लगा।

    आख़िर इतनी पढ़ी-लिखी बहू लाने का मतलब क्या रहा?

    टिया की बात सुन मंजरी जी का मन दुखी हो गया। कितना अलग था उनका जीवन। पंद्रह लोगों के परिवार में ख़ुद के लिए सोचने का कभी वक़्त ही नहीं मिला। चूल्हे-चौके से कभी फ़ुर्सत ही नहीं मिली, पीठ सीधी करने के लिए कमरे में जाती भर थी कि कोई कोई टपक पड़ता फिर चाय-पानी के दौर में ख़ुद के लिए सोचने जैसी कभी चीज़ ही नहीं रही। शादी के पहले नाचने-गाने का कितना शौक़ था। उन दिनों शहर में कुकिंग-क्लास का सेंटर खुला था दस तरह की पनीर की सब्ज़ी और पाँच सूखी सब्ज़ी सिखाने का तीन सौ रुपए लेते थे।

    “जा बिटिया सीखे ले ससुराल में काम आएगा।”

    अम्मा ने मंजरी पर दबाव बनाया था, “अम्मा तुम जो बनाती हो वही सीख लूँ बहुत है, ये सब बड़े लोग के चोंचले हैं।”

    “बिटिया गुण कभी बेकार नहीं जाता, हम को तो बस वही मटर पनीर, पालक पनीर और मखाना पनीर के सिवाए कुछ भी नहीं आता। सुना है शादी में जो सब्जियाँ खाने को मिलती है वो सब सिखाते हैं। ससुराल वालों के दिल तक पहुँचने का रास्ता पेट से होकर जाता है। सासु माँ का पारा जब गर्म हो तो झट से बढ़िया वाली सब्जी बनाकर खिला देना।”

    मंजरी जी अम्मा को याद कर मुस्कुरा दी, कितनी भोली थी अम्मा कहाँ जानती थी उस घर में सास नहीं ससुर को ख़ुश रखना ज़रूरी था। ससुर जी की इच्छा के बिना एक पत्ता भी नहीं हिलता था। सुबह से शाम तक का मेन्यू ससुर जी ही तय करते थे।

    “रोज़-रोज़ पनीर...घर में भैंस लगती है क्या? वैसे भी रोज़-रोज़ मसालेदार सब्ज़ी सेहत के लिए ठीक नहीं है।”

    हफ़्ते में कभी-कभार पनीर की सब्ज़ी बनती, सबको पसंद भी आती पर घर की औरतों की थालियों तक शायद ही पहुँच पाती। उनकी दुनिया रस्से और अचार तक सीमित थी। वे अचार और चटनी में ही अपने स्वाद को ढूँढ लेती। कितनी अलग थी उन दिनों औरतों की दुनिया...सिंधी कढ़ाई, भरवा कढ़ाई, काथा से कढ़े मेजपोश, थालपोश, पर्दे, साड़ियों और चादरों में रंगीन धागों की लच्छियों से काढ़े गए बेजान कपड़े उनके हाथों की कारीगरी से खिलखिलाने लगती पर उनका जीवन किसी भी रंगीन लच्छी से किसी भी कढ़ाई से ख़ुशगवार नहीं हो सका। उन्होंने अपने जीवन में रंग भरने के लिए फिर ज़ोर मारा और अब वह बाज़ार से दो रंग वाली लच्छियाँ लेने लगी पर उनका यह प्रयास भी विफल रहा। रोज़ कढ़ाई भी उनके जीवन में ख़ुसियों के फूल नहीं खिला सके।

    मन में ख़्वाहिशों को पूरा हो पाने का मलाल एक गाँठ कढ़ाई की तरह रहा, वे ज़िंदगी भर अपने ही सपनों को कंधों पर खींचती रही पर कोई ज़ंजीरा कढ़ाई उनका सहयोग कर सकीI पतियों के बगुले से झक सफ़ेद रुमालों के कोर में लटकती क्रोसिए के सफ़ेद धागे और उनके नाम का पहला अक्षर उनके दिलों और ज़िंदगी में औरतों की वजूद और मौजूदगी को जता नहीं सके। बाएँ हाथ की पहली उंगली में तेजी से लपेटे जाते सफ़ेद धागे देखकर लगता मानो वह अपनी ज़िम्मेदारियों और सपनों को एक साथ लपेट रहे हैं और वे धागे जब परत दर परत खुलते तो एक नई आकृति, एक नई कलाकृति का रूप ले लेती जो उनके बेजान कपड़ों की तरह बेजान पड़ी ज़िंदगियों को सँवारने का निरर्थक प्रयास करती। टिनोपाल से धुले झक्क पेटीकोट के नीचे से झाँकती क्रोशिए की लेस उनकी सुघड़ता को दर्शाती पर उनके जीवन को सहेज और सँवार नहीं पाती।

    क्रोशिए की सलाई की नोंक उनके सपनों में छेद करती रही और उनकी इच्छाओं को लहूलुहान...वक़्त के साथ उंगलियों में लपेटे गए रूई की तरह सफ़ेद धागे के वजन के पीछे पतली होती उंगलियाँ उन हाथों के रंगीन सपनों और अरमानों को भी सफ़ेद करते चले गए। हर चेन के साथ बढ़ती नक़्क़ाशी लोगों की आँखों में उन कुशल हाथों के लिए प्रशंसा से भर देती पर हर घना जाल उनके जीवन को पहले से अधिक उलझन से भर देता पर वह ख़ुश थीं। क्योंकि अपनी ख़ुशी को उन्होनें जाना ही कहाँ था। परिवार की ख़ुशी और उनके चेहरों पर पसरा संतुष्टि का भाव उनके ख़ुश रहने के लिए पर्याप्त था। सबसे बड़ी बात पीहर तक उनकी शिकायतों का पुलिंदा और अम्मा-बाबू जी शर्मिंदगी से झुके हुए चेहरों को देखने की ताकत उनमें अब बिल्कुल भी नहीं थीI हर बार जब भी वह पीहर आती, अम्मा पानी परोसने से पहले सबसे पहले एक ही सवाल पूछती “ससुराल में सब ठीक है ना?

    शायद बेटी से ज़्यादा उन्हें ससुराल की चिंता थी I क्योंकि ससुराल का सुखी और संतुष्ट होना बेटी के सुखी होने की निशानी थी। यह डर वक़्त के साथ कम तो ज़रूर हुआ था पर ख़त्म नहीं हुआ था। पीढ़ियाँ बदली पर डर अभी भी क़ायम था शायद इसीलिए अभीर की शादी के वक़्त टिया की माँ ने विदाई के समय उनका हाथ पकड़ते हुए कहा था, “टिया नादान है, इसकी ग़लतियाँ बेटी समझकर माफ़कर दीजिएगा, आपकी बेटी की तरह ही है।”

    जाने मंजरी जी को ऐसा क्यों लगा था मानो वह पूछना चाहती हो, “बेटी है न?”

    कितना फ़र्क़ था दोनों पीढ़ियों में...मंजरी जी ने कितनी रातें तकिया भिगो कर आँखों में काटी थी। जानती थी विकल्प नहीं थे उनके पास...जिस युग मे डोली और अर्थी एक ही दहलीज़ से उठने की बात कही जाती थी वहाँ विकल्प के रास्ते स्वतः ही बंद हो जाते थे। कभी-कभी लगता घर के दरवाज़े भले ही बंद हो पर मन के कपाट हमेशा खुले होने चाहिए पर चाहिए और होने में हमेशा फ़र्क़ रहा है।

    अम्मा ने हमेशा यही समझाया था, “आँसुओं को या तो पी जाना या फिर बहा देना पर उस खारे पानी के कारणों को कभी ज़ाहिर नहीं करना।”

    यह दर्द उनके अकेले का तो नहीं था। कितनी बार बड़ी भाभी जी तो कभी देवरानी तो कभी-कभी सासु जी के चेहरे पर पसरे भी देखा था। सूजी आँखों के नीचे स्याह घेरे रात के फ़लसफ़े को बयाँ कर देती और हम सब एक-दूसरे के दर्द को जानकर भी अनजान बने रहते। एक छत के नीचे साँस लेते थे, एक साथ सुख भी बाँट लेते थे पर दुःख?

    आज टिया को अपने पति से उनकी शिकायत करता देख जाने क्यों उन्हें अजीब लगा था...हाँ अपने पति...क्योंकि अभीर उनके बेटे के साथ-साथ अब टिया का पति भी था, वो लड़ रही थी ख़ुद के समय के लिए जिसमें वह खुल कर साँस ले सके, सोच सके अपने बारे में, बुन सके अपने सपनों को, सँवार सके ख़ुद को और एक नींद ले सके अपने थके हुए शरीर के साथ...कितना फ़र्क़ था उनकी ज़िंदगियों में वह तीन लोगों के परिवार में ख़ुद के लिए समय ढूँढ रही थी और मंजरी पंद्रह लोगों के परिवार में मैं, मेरा, मुझे जैसा शब्द कब का भूल चुकी थी।

    वक़्त के साथ परिवार बिखर गया था। एक थाली में खाना खाने वाले भाई-बहन चचेरे हो गए थे, जेठानी-देवरानी पट्टीदार बन चुके थे। मंजरी जी भी पति की मृत्यु के बाद इकलौती बेटे-बहू के साथ रहने मुंबई गई थी। वक़्त के साथ आदतें भी बदल जाए ये ज़रूरी तो नहीं...सबसे अंत में टाट पट्टी बिछाकर एक साथ खाना खाने वाली बहुएँ आज अलग-अलग शहरों में डाइनिंग टेबल पर अकेले खा रही थी। आज उनकी थालियों में अचार चटनी के साथ पनीर भी बराबर परोसा जा रहा था पर अब उस पनीर की सब्जी में तो स्वाद महसूस होता था उन्हें खाने की इच्छा शायद जीभ ने भी स्वाद के साथ समझौता करना सीख लिया था।

    मंजरी जी का मन जाने कैसा-कैसा हो गया। बरसों की आदत यूँ ही तो नहीं जाती। तीन लोगों के परिवार में तीन लोग तीन समय पर खाना खाते थे। इस उम्र में खाना पचता नहीं था। टिया उनके हिस्से का खाना डाइनिंग टेबल पर रख देती थी। मंजरी जी दिन में कई बार टिया के कमरे में झाँक आती, इस उम्मीद के साथ शायद कुछ पहर वह उनके साथ बिता ले। अकेले तो सुख भी नहीं पचता खाना भला कैसे पचता। बात किए बिना उन्हें नींद नहीं आती थी पर उन्हें क्या पता था शहरों के घर के कमरे ही नहीं बल्कि उन घरों में रहने वालों के दिल भी छोटे होते हैं।

    टिया अपनी जगह सही थी, कम से कम उसे यह कहने की हिम्मत तो थी। वह जीवन भर अपने लिए अपना समय ढूँढती रही पर वह समय कभी ना मिला। वह तो यह बात भूल भी चुकी थी ख़ुद के लिए भी समय होता है। कम से कम इस पीढ़ी ने अपने लिए समय माँगना और उसके लिए लड़ना तो शुरू किया पर...एक दिन टिया अभीर से अपनी सहेली के बारे में बात कर रही थी। घर में दो प्राणी है, उसके पति सुबह नौ बजे ही ऑफ़िस के लिए निकल जाते हैं और देर रात तक लौटते हैं। घर में रहते-रहते वह बोर हो जाती है। अकेलेपन की वजह से उसे डिप्रेशन की प्रॉब्लम हो गई है। यह पीढ़ी शायद ख़ुद भी नहीं जानती उन्हें क्या चाहिए। अकेलापन से जूझता मन डिप्रेशन का शिकार हो रहा और इन्हें ख़ुद के लिए मी टाइम भी चाहिए।

    मंजरी जी निराश होकर कमरे में चली गई। रात करवटे बदलते बीत गई, नींद जाने कब लगी। अभीर उन्हें ढूँढता हुआ कमरे में गया, उसने कमरे का पर्दा खोला सूरज की तेज रोशनी उनके चेहरे पर पड़ रही थी। आँखों पर चश्मा चढ़ा हुआ था और सीने पर किताब रखी हुई थी। शायद किताब पढ़ते-पढ़ते उन्हें नींद लग गई थी। मंजरी जी का चेहरा एकदम शांत था जैसे कोई बड़ा बोझ उनके दिल से उतर गया हो। अभीर ने आवाज़ दी, “माँ उठो सर सूरज सर पर चढ़ा आया है और आप अभी तक सो रही है।”

    मंजरी जी वैसे ही पड़ी रही। मंजरी जी इतनी देर तक कभी नहीं सोती थी। कहीं उनकी तबीयत तो ख़राब नहीं, अभीर ने उनके माथे पर हाथ रखकर उन्हें जगाने का प्रयास किया। वह वैसी ही पड़ी रही। शरीर एकदम ठंडा था। अभीर के चेहरे पर पसीने की बूँदें चूह-चूहा गई। उसने घबरा कर टिया को आवाज़ दी।

    “टिया-टिया!”

    टिया किचेन में चाय चढ़ा रही थी, अभीर की आवाज़ सुन वह भी घबरा गई, वह घबराकर मंजरी जी के कमरे की तरफ़ दौड़ी। अभीर की आँखों से आँसू बह रहे थे और मंजरी जी का निर्जीव शरीर बिस्तर पर पड़ा हुआ था। मंजरी जी इस संसार से जा चुकी थी शायद अपने मी टाइम की तलाश में जो उन्हें जीते जी कभी ना मिला।

    ऊपर जाती सीढ़ियाँ

    एक...दो...तीन...चार...पाँच...छः...सात...आठ...शायद नौ भी? शायद इसलिए क्योंकि आठ के आगे नवीं सीढ़ी नीचे से दिखाई नहीं देती थी। दिखता था तो सिर्फ़ एक गहन, स्याह अँधेरा। सुना था उस अँधेरे के पीछे था एक बड़ा-सा कमरा जहाँ रौशनी नहीं उससे भी कहीं ज़्यादा था सघन अँधेरा...उस कमरे में रहने वाले लोगों की क़िस्मत को जाने किस कालिख से पोत दिया था कि जिसका पक्का रंग किसी साबुन से नहीं छूट सकता था।

    एक छोटे से शहर के बीचों-बीच शहर का नामी औरतों का बाज़ार। जी हाँ औरतों का बाज़ार...जहाँ बिकती थी उनकी आवाज़...सुना था कभी जिस्म भी बिका किया करते थे। कितनी अलग थी उन औरतों की क़िस्मतें नीचे औरतों का बाज़ार यानी संभ्रांत, इज़्ज़तदार और ओहदेदार के घर की बहन, बेटियाँ, बहुएँ और माएँ ख़रीदारी करने आती थी। जहाँ बिकती थी, बिंदी, सुहाग की लाल-पीली चूड़ियाँ, रेशमी, मखमली छापेदार, जरदोजी, बनारसी कपड़ें, कढ़ाईदार मोजरिया,कोल्हापुरी चप्पलें और श्रृंगार का सामान...ख़रीदारी करने वाले हाथ और आँखें बेफ़िक्री से सामान ख़रीदती। कितनी अलग थी उन औरतों की क़िस्मतें और दुनिया वे सजती थी ख़ुद के लिए या फिर अपने पतियों के लिए और ऊपर जाती हुई सीढ़ियों के मुहाने पर स्थिति कमरों में रहने वालियाँ सजती थी ग्राहकों के लिए उनकी ख़रीदारी होती उन अमीरज़ादों, ज़मीदारो, हुक्मरानों के पैसों से जो लुटाई जाती थी उनकी हर अदा पर...कितनी अलग थी उनकी दुनिया। दिन भर उदास पड़ी रहने वाली वो सीढ़ियाँ रात के गहन अँधेरे में जब सारी दुनिया सो जाती उन ऊपर जाती सीढ़ियों पर लगे सफ़ेद संगमरमर और उन पर बनी पच्चीकारी जगमगा जाती।

    सफ़ेदपोश चेहरे जो दिन के उजाले में उन सीढ़ियों की तरफ़ देखना भी नहीं चाहते थे, रात के अँधेरे में बेखौफ़ चढ़ जाते थे। कितनी अलग थी उन सीढ़ियों के उस पार रहने वाली ज़िंदगियों की ज़िंदगी, ये सीढ़ियाँ ऊपर तो जाती थी पर नीचे कभी नहीं आती थी। बाज़ार में घूमती औरतें उन सीढ़ियों से लगे छज्जों पर से उस घर में रहने वाली उन चेहरों को हिकारत भरी नज़रों से देखती तब वे भूल जाती उन्हें इस जगह तक पहुँचाने और दाद देने वालों में उनके अपने घरों के दीपक और सुहाग भी है।

    समय बीतता गया, बाज़ार आज भी पहले की तरह सजता था पर कोठे उजड़ गए घुँघुरुओं की रुनझुन, तबले की थाप कहीं गुम हो गई, सितार घर के किसी कोने में रख दिया गए, सारंगी सरगम भूल गई। जिन पर कभी उंगलियाँ थिरकती थी वहाँ अब गर्द और जाले ने जगह ले ली थी। सरकार ने इस पेशे से तौबा कर ली थी। जिस जगह पर महफ़िले गुलज़ार हुआ करती थी वहाँ मरघटी सन्नाटा पसर गया, धीरे-धीरे करके वो जगह ख़ाली होने लगी। महफ़िलों की रौनक मानी जाने वाली पाई-पाई की मोहताज हो गई। भूख कहाँ जाति, धर्म, रंग-रूप, अमीरी-ग़रीबी का भेदभाव करती है। धीरे-धीरे सभी पलायन कर गए जिन्होंने कभी टूटे और हारे हुए लोगों को अपने यहाँ पनाह दी थी आज वो ख़ुद पनाह के लिए भटक रही थी। जानती थी इस समाज में तथाकथित इज़्ज़त की रोटी उन्हें आसानी से मयस्सर नहीं होगी। वे नए घोंसलों की तलाश में निकल गई जहाँ उन्हें कोई पहचानता हो। क्योंकि उनकी यह पहचान उनके दर्द और वजूद से भी ज़्यादा भारी थी।

    याद है उसे आज भी वो दिन उस दिन बाज़ार से गुज़रते वक़्त जब उसकी आँखें पहली मंज़िल के उस छज्जे पर पड़ी थी, नक़्क़ाशीदार जालियों के दोनों ओर लकड़ी के खंबे और उसके ऊपर मेहराब को देख वह मंत्र-मुग्ध थी। जिसने जीवन भर कंक्रीटों के जंगलों के बीच जीवन काटा हो उन आँखों को मानव की यह कलाकृति सहज रूप से सुकून दे गई थी। अनायास ही उसके मुँह से निकला “कितना सुंदर घर है? किसका है?”

    गाड़ी कुछ आगे बढ़ी ही थी कि धूल से भरी सफ़ेद संगमरमरी सीढ़ियाँ दिखाई दी थी। ऊपर जाती सीढ़ियाँ...

    उसके एक साधारण से प्रश्न पर उसका पति विक्रम अचकचा से गए थे “घर चलो बताऊँगा।”

    विक्रम ने बस कह दिया कि घर चलो बताऊँगा पर वो प्रश्न और उस प्रश्न के साथ विक्रम की छटपटाहट रास्ते भर उसका पीछा करती रही थी। वो समझ चुकी थी कि ऐसा कुछ है जो विक्रम को अनमना कर गया। घर पहुँचकर भी उन्होंने कुछ नहीं कहा था, शायद ये प्रश्न उतना ज़रूरी रहा हो या फिर वह जवाब देने से बच रहे हो। उसने धीरे से कहा, “आपने बताया नहीं!”

    वह जानना चाहती थी कि ऐसा क्या था उन ख़ूबसूरत मेहराबों के पीछे जिसका जवाब देने पर उनकी ज़बान हिचकिचा रही थी। शायद पीछे की दुनिया इतनी काली थी कि दिन के उजाले में पूछे गए सवाल भी उसका साफ और स्पष्ट जवाब नहीं दे सकते थे।

    “तुम भी किसी चीज़ के पीछे ही पड़ जाती हो।”

    विक्रम ने चिढ़ कर कहा था “ऐसा क्या पूछ लिया मैंने...आप भी न...नहीं बताना चाहते तो कोई बात नहीं।”

    वह मुँह फुला कर बैठ गई,

    “अरे यार तुम भी न...वहाँ वो सब रहा करती थी।”

    “वो सब मतलब...?”

    विक्रम का स्वर अचानक से धीमा पड़ गया, “अरे वही नाचने-गाने...!”

    विक्रम के स्वर गले मे अटक गए थे,एक शरीफ़ आदमी के लिए इस तरह के शब्द अपनी पत्नी के आगे कहना कहीं कहीं कठिन था। उसकी आँखें आश्चर्य से चौड़ी हो गई थी।

    “क्या आज भी...!”

    वह चाहकर भी चुप नहीं रह पाई थी।

    “नहीं-नहीं...अब नहीं काफ़ी समय हो गया,वे सब बेच-बचाकर दूसरी जगह चले गए।”

    “क्यों?”

    “काम की तलाश में यहाँ उन्हें कौन काम देता।”

    “पर वह ऐसा काम क्यों करती थी?'

    उसके सवाल खत्म नहीं हो रहे थे, “तब टी वी,सिनेमा मोबाइल नहीं होता था न...तब मनोरंजन का यही सब साधन था।”

    “मनोरंजन का साधन...?”

    उसका मन जाने क्यों कड़वा हो गया,

    “अब सचमुच वहाँ कोई नहीं रहता?”

    “सुना तो था बस एक है जो आज भी शहर के बाहर किसी किराए के मकान में रहती हैं।”

    उस रात जाने क्यों नींद नहीं आई। वह सीढ़ियाँ बार-बार आँखों के सामने से गुज़रती रही, जो सीढ़ियाँ गवाह थी सफ़ेदपोशों के काले कारनामों की,अनकहे दर्द की...जिसने पनाह दी बिना किसी भेदभाव की आज उसके लिए इस शहर में जगह नहीं...? अब वह जब भी उस सड़क से गुज़रती तो अनायास ही उसकी नज़र उस छज्जे की ओर उठ जाती। उसे लगता मानो यह छज्जा वह सीढ़ियाँ बहुत कुछ उससे कहना चाहती है पर उस दर्द को समझने वाला कोई नहीं है।

    आज बृहस्पतिवार था, माँ का दिन काली जी के मंदिर पर बहुत भीड़ थी। भक्तों की भीड़ अपने इष्ट के दर्शन के लिए लाइन लगाए खड़ी थी। मंदिर की सीढ़ियों के एक तरफ़ एक छोटी सी दुकान थी, दुकानदार तेज़ी से हाथ चला रहा था।

    “भैया वो एक सौ एक रुपए वाला प्रसाद बना दो।”

    “बहनजी! एक सौ इक्यावन वाला ले लीजिए, नारियल और घी का दीया भी उसके साथ है।”

    “चलो ठीक है वही दे दो।”

    “भैया मेरा भी बना दो एक सौ इक्यावन वाला...!”

    पीछे से किसी ने आवाज़ लगाई, “ज़रा ज़ल्दी कर दो, बहुत सारे काम है।”

    पहली वाली भक्त ने कहा, उसने पलटकर उसे देखा और मुस्कुरा दी। ईश्वर से भी ज़्यादा ज़रूरी...! दुकानदार ने तेजी से अपने हाथ बढ़ाए और चुनरी प्रिंट के सूती रूमाल पर गुड़हल की माला, नारियल, नींबू और इलायची दाने का पैकेट और एक पत्ते पर टिन की डिब्बी से लाल सिंदूर छिड़का...कितने अभ्यस्त हाथ थे उसके, होने भी चाहिए रोज़ का ही काम था उनका... “जय माता दी।”

    उसके चेहरे पर एक सहज मुस्कान थी, महिला ने अपने पर्स से मुड़ा-तूमड़ा दो सौ का नोट उसकी ओर बढ़ा दिया, दुकानदार ने अपनी लकड़ी की बकसिया के ऊपरी भाग से नोट को छुआया और माथे से लगा कर बकसिया में डाल दिया। छोटे-बड़े नोट और ढेर सारे सिक्के... “भैया सिक्के नहीं नोट ही देना।”

    उस महिला ने दोहराया “बहन जी आप ही लोग तो देती है फिर हम कहाँ चलाने जाए। चलिए ठीक है ये लीजिए।”

    दुकानदार ने पच्चास का नोट उसे पकड़ा दिया, “जय माता दी।”

    महिला ने हौले से कहा और सीढ़ियों की ओर बढ़ गई। एक...दो...तीन...चार...और पाँच। सीढ़ियों पर पैर रखने से पहले उसने अपनी साड़ी के पल्लू को सर पर खिंचा और घुमाकर कसकर बाईं बाँह के नीचे दबा लिया। पहली सीढ़ी को छू उसने हाथ को माथे पर लगाकर फिर सीने को छू मन ही मन कुछ बुदबुदाया। कभी-कभी कुछ अनकहा होकर भी बहुत कुछ कह जाता है, जैसे भक्त और ईश्वर के बीच का संवाद...

    तभी ज़ोर से धक्का लगा और एक महिला गिरते-गिरते बची।

    “अरे भाई आराम से, अभी माता जी को चोट लग जाती।”

    किसी पुरूष की आवाज़ हवा में लहराई,नई डिज़ाइन की साड़ी और बालों में कलर लगाई उस भद्र महिला ने अपने से मुश्किल से दस साल छोटे सज्जन पुरूष को कुछ ऐसे देखा कि लगा मानो खड़े-खड़े ही भस्म कर देंगी।

    तभी कोई सुरीली आवाज़ मंदिर में गूँजी, “जयकारा शेरावाली का!”

    मंदिर के एक कोने में एक महिला को भक्त घेर कर बैठे थे। महिला का सुरीला स्वर मंदिर के वातावरण में तैर रहा था, ढोलक की तेज थाप और भक्तों की तालियों से मंदिर गुंजायमान था। माथे पर चंदन का टीका, हाथों में काँच की चूड़ियाँ, पैरों में पतली सी चाँदी की पायल, नाक में लौंग जिसका मीना दूर से ही चमक रहा था, छींटदार शिफॉन की साड़ी को तन से लपेटे आँखें मूदे अपने इष्ट को याद कर रही थी।

    “ईश्वर ने कितना मधुर कंठ दिया है मानों साक्षात सरस्वती जी उतर आई हो।” उसके आगे खड़ी किसी महिला ने कहा, “सच कह रही हो बहन।”

    “कौन हैं? कहाँ रहती हैं?”

    “वही पुराने टोले के पास!”

    “पुराने टोले वहाँ तो...?”

    “सही समझ रही हो तुम, पहले यही काम था इनका। माँ-मौसी पीढ़ियों से यही धंधा कर रही थी।”

    “धंधा?”

    उसे लगा मानो किसी ने उसके कानों में पिघलता हुआ शीशा उड़ेल दिया हो।

    “यही रानी सिंह है? नाम सुना-सुना लग रहा था।

    रानी सिंह...सिंह क्या ये? सुना था इनकी माँओं के अलावा किसी को ये पता नहीं होता कि उनके पिता कौन है फिर...! क्या इन्हें पता है? या फिर तथाकथित समाज के ढकोसले का वह निर्वाह कर रही थी। उसने विक्रम की तरफ़ देखा, उसकी आँखों में प्रश्न तैर रहे थे।

    “ठीक पहचाना वही हैं। तुम्हें बताया था पुश्तैनी काम छोड़ दिया था। अब मंदिर-मंदिर भजन-कीर्तन करती हैं।”

    तभी आगे खड़ी महिला ने बुरा सा मुँह बनाते हुए कहा, “कोयले को कितना भी रगड़ा जाए काला ही रहेगा। अब यही रह गया है, भगवान के दरबार को भी नहीं छोड़ा इन लोगों ने...छिः कैसे-कैसे लोग हैं, यहाँ भी गंदगी फैलाने गए?”

    उसने उन्हें पलटकर देखा हीरे-जवाहरात और महंगे कपड़ों से ढका रहने वाला इंसान आज दो वक़्त की रोटी के लिए दर-दर भटक रहा था। मन जाने क्यों अजीब-सा हो गया।

    वह औरत अपने मन की कड़वाहट और दिमाग़ की गंदगी को भगवान के दर पर उलीच कर चली गई और ईश्वर उन्हें चुपचाप देखता रहा और सोचता रहा। सचमुच दुनिया में कैसे-कैसे लोग हैं? अपने दिमाग़ की गंदगी यहाँ भी फैला गए और मैं यह सोचती रही। वे अपना अतीत छोड़ आए थे पर अतीत ने उनका साथ नहीं छोड़ा था। हर सीढ़ियों का भाग्य एक जैसा नहीं होता। उसके आँखों के सामने बाज़ार की वो सीढ़ियाँ घूम गई, वह संगमरमरी सीढ़ियाँ ऊपर तो जाती थी पर नीचे कभी नहीं लौट कर आती थी।

    अपने हिस्से की धूप कोहरे में लिपटी एक नई सुबह नए जीवन में पलके-पावड़े बिछाए नुपूर का स्वागत कर रही थी। खेतों की तरफ़ किसान राग मल्हार गाते चले जा रहे थे। गेहूँ और सरसों की फसलें फ़रवरी की इस गुलाबी ठंड में हल्की-हल्की बहती शीतल, सुगंधित बयार के स्पर्श को पाकर खिलखिलाने लगे थे। धरा धानी चुनरी पहन कर झूम रही थी। ओस की बूँदें पत्तियों के कोर पर अटकी नव युगल का इंतज़ार कर रही थी। नुपूर की आँखें नींद से मूँदी जा रही थी, इन सबके बीच दो मन आपस में चुपके-चुपके कार की पहली सीट पर लगे बैक मिरर में एक-दूसरे को देख आँखों ही आँखों में बतियाने का प्रयास कर रहे थे। शरीर थकान से टूट रहा था, विदाई का मुहूर्त सुबह का ही था। ससुराल में पहला दिन था उसका...छुट-पुट रीति-रिवाजों के बाद उसे कमरे में बैठा दिया गया था। उसकी आँखें उनींदी हो रही थी। कितने दिन हो गए थे उसे मन भर सोए हुए। सोती भी तो कैसे...घर रिश्तेदारों से भरा हुआ था, “नुपूर! सो जा, वरना चेहरा सोया-सोया लगेगा। फ़ोटो अच्छी नहीं आएगी।”

    कहते सब ज़रूर थे पर कैसे...इस बात का किसी के पास कोई जवाब नहीं था। जिसे देखो वही हाथ में ढोलक लेकर उसके सर पर आकर बैठ जाता।

    “इन्हें देखो महारानी की ख़ुद की शादी है और यह फ़ुर्रा मारकर सो रही हैं। अरे भाई शादी-ब्याह रोज़-रोज़ थोड़ी होती है, अभी मज़े ले लो फिर तो बस यादें ही रह जाती हैं।”

    मन मारकर उसे भी शामिल होना ही पड़ता, अभी तो ससुराल के रीति-रिवाज बाकी ही थे। उसने खिड़की के बाहर झाँक कर देखा, सड़कें सो रही थी और वह जाग रही थी। दबे-दबे पाँव से वह हौले-हौले एक नई ज़िंदगी में प्रवेश कर रही थी। एक ही मास-मज्जा से बने हर इंसान की देह में एक अलग ख़ुशबु होती है जो उसे दूसरों से अलग करती है। शायद घरों की भी अपनी एक देह और एक अलग ख़ुशबु होती है जो उसे दूसरों से अलग करती है। नुपूर इस ख़ुशबु से बिल्कुल ही अपरिचित और अंजान थी। उसके घर उसके पीहर से बिल्कुल ही अलग थी यह ख़ुशबु...जिसे उसे अपनाना और अपना बनाना था। अचानक से कमरें में शोर भर गया।

    “अरे भाई कोई अपनी भाभी का सामान कमरे में पहुँचा दो!”

    सासु माँ ने आवाज़ लगाई, नुपूर की आँखें तेजी से अपने सामान को ढूँढ रही थी। कल रात से पंद्रह किलो का लहंगा पहने-पहने अब तो उसका शरीर भी जवाब देने लगा था। कितना शौक़ से लिया था उसने... “जितना तेरा ख़ुद का वजन नहीं है उतने का तो लहंगा है। कैसे संभालेगी?”

    पापा ने चिंतित स्वर में कहा था।

    “अरे पापा लेटेस्ट फ़ैशन है।”

    “लेटेस्ट! ये भी कोई रंग है। मरा-मरा-सा रंग लाई हो। अरे लेना ही था तो लाल-मैरून लेती, दुल्हन का रंग! तुम्हारी माँ ने भी अपनी शादी में लाल रंग की साड़ी पहनी थी।”

    पापा ने मुँह बनाते हुए कहा था, “अब यह सब रंग कौन पहनता है, एकदम लेटेस्ट और ट्रेंडी कलर है। आलिया भट्ट ने भी यही रंग अपनी शादी में पहना था।”

    “वह सब हीरोइन है, कुछ भी पहने सब अच्छा लगता है पर अपने समाज में तो दुल्हन का रंग यही सब माना जाता है।”

    “पापा शादी कोई रोज़-रोज़ थोड़ी होती है।”

    “मैं भी तो यही कह रहा हूँ कि शादी रोज़-रोज़ नहीं होती है। कम से कम शादी के दिन सुहाग का रंग तो पहनना चाहिए!”

    “इतना महंगा लहंगा सिर्फ़ एक दिन के लिए तो नहीं ख़रीद सकती थी। ऐसा रंग लिया है कि आगे भी यूज़ में जाए।”

    नुपूर ने दलील दी, “सुन रही हो नुपूर की माँ...तुम्हारी बिटिया की पंचवर्षीय योजना है। यहाँ ज़िंदगी का भरोसा नहीं और यह आगे तक की योजना बनाकर चल रही है।”

    मम्मी चुपचाप बाप-बेटी की चिक-चिक सुनती रही। जानती थी कुछ भी बोलने का कोई फ़ायदा नहीं है। अभी आपस में लड़ेंगे बहस करेंगे और फिर ख़ुद ही एक हो जाएँगे और वही विलेन बनकर रह जाएगी। तभी किसी के क़दमों की आहट से नुपूर का ध्यान टूटा। उसके दोनों देवर हाथ में ब्रीफ़केस लेकर कमरे में घुसे।

    “कितनी भारी है भाभी, पत्थर भर-भरकर लाई है क्या...?”

    नूपुर मुस्कुरा दी, क्या कहती महीनों से ख़रीदारी की थी। कहाँ-कहाँ से ढूँढ-ढूँढकर सामान इकट्ठा किया था। उसने तेजी से सामान को गिनना शुरू किया। तीन ब्रीफ़केस,एक एयर बैग और एक वेनिटी बैग और वह गुलाबी वाला ब्रीफ़केस...? वह नदारद था, पापा से कहा तो था कि उसे भी अपने साथ लेकर जाएगी। उसका बस चलता तो वह अपने साथ उस चौखट की रत्ती-रत्ती, रेजा-रेजा तक अपने आंचल में अपने संग बाँध ले आती। जीवन की नई शुरुआत हुई थी, हर तरह के रंग और स्वाद से भर गई थी उसकी ज़िंदगी...सब कुछ तो लेकर आई थी वह पर क्या सब कुछ... पीछे बहुत कुछ छूट गया था।

    “भइया! एक पिंक कलर का ब्रीफ़केस भी होगा?”

    “पिंक?”

    छोटे देवरों के चेहरे पर शरारत उभर आई, “आपको भी पिंक कलर पसंद है,वो तो पापा की परियों को पसंद होता है।”

    “तुम लोग फिर से शुरू हो गए।”

    मम्मी जी ने दोनों की मीठी झिड़की देते हुए कहा।

    “यहीं होगा जाएगा कहाँ...सब मिलकर ढूँढों।”

    “भाभी! उस पर बार्बी डॉल बनी हुई थी क्या?”

    “हाँ-हाँ वहीं, देखा क्या आपने?

    उसकी आँखों में जुगनू चमक उठे।

    “तभी से पूरे घर में टहल रहा था समझ ही नहीं रहा था। पता नहीं किस का सामान भाभी के सामानों के साथ चला आया है।”

    “जी! वो मेरा ही है।”

    नुपूर ने सकुचाते हुए कहा, वो दोनों उस भीड़ में कहीं खो गए और थोड़ी देर में अलादीन के चिराग़ की तरह उसका वह पिंक ब्रीफ़केस लेकर हाज़िर हो गए।

    “ये लीजिए आपकी अमानत और कोई आदेश।”

    दोनों ने सीने पर हाथ रख बाएं पैर को पीछे मोड़ सर को हल्क़ा-सा झुकाकर बड़ी अदा से कहा।

    “भाभी को बड़ा मक्खन लगाया जा रहा है। इनकी सेवा करोगे तभी तुम्हारा कल्याण होगा।”

    सिद्धार्थ ने कमरे में घुसते हुए कहा, वैसे तो सिद्धार्थ से शादी के पहले नुपूर की दो-चार बार ही मुलाक़ात और टेलीफ़ोन से बातें हुई थी पर उन अनजान चेहरों के बीच नुपूर को वह चेहरा बहुत अपना सा लगा।

    “अपनी भाभी को कुछ खाने को पूछा या बस बातें ही बना रहे हो।”

    सिद्धार्थ ने शेरवानी उतारते हुए कहा, “इनसे बातें बनवा लो, काम ढेले भर का नहीं करते।”

    मम्मी जी ने कहा, “नुपूर तुम जल्दी से नहा लो। मेहमानो का आना शुरू हो जाएगा, कुछ रीति-रिवाज़ भी करने है और ये मायके से जो तुम्हारे लिए सामान आए है उन्हें भी तो...!”

    शब्द मम्मी जी के गले में अटक गए, “क्या माँ आप से कहा था मुझे यह सब पसंद नहीं। उसका सामना है, किसी से क्या मतलब है। नुपूर के घरवालों ने दिया उसने लिया, उससे हमे क्या?”

    सिद्धार्थ के चेहरे पर नाराज़गी साफ़ झलक रही थी, नुपुर चुपचाप माँ-बेटे की बहस को सुन रही थी।

    “बात तुम्हारे पसंद या नापसंद की नहीं, परंपरा की है। तुम्हारी दादी और बुआ को तुम्हारी बातें समझ नहीं आएँगी। कौन नुपूर से कुछ ले लेगा, बस मान देने की बात है। नुपूर तुझे कोई दिक़्क़त तो नहीं ये तो कुछ समझता ही नहीं...चार अक्षर क्या पढ़ लिए माँ को ही पढ़ाने लगे।”

    मम्मी जी की आवाज़ में उसने एक ख़लिश महसूस की थी। नुपूर समझ नहीं पा रही थी। वह अपनी नई नवेली सास और नवोढ़ पति के बीच फँस गई थी।

    “नुपूर! इसकी छोड़ इसे दुनियादारी समझ नहीं आती। तू तो समझदार है तुझे कोई दिक़्क़त तो नहीं।”

    “जी कोई बात नहीं।”

    नुपूर ने मद्धिम स्वर में कहा,सिद्धार्थ उसके इस फैसले से कुछ ख़ास ख़ुश ऩजर नहीं रहे थे।

    “जो मन में आए करो फिर मुझसे कोई कुछ मत कहना।”

    “नुपूर मैं सबको इसी कमरे में बुला लूँगी, तुम नहा-धो कर तैयार हो जाओ। रात में रिसेप्शन भी है। सिद्धार्थ तू मेरे कमरे में नहा ले, बहू को तैयार होने दें।”

    मम्मी जी कमरे से बाहर जाने लगी, तभी उन्हें कुछ याद आया।

    “आज दिनभर पूजा-पाठ और रीति-रिवाज में ही निकल जाएगा। हलवाई को अभी सबका नाश्ता बनाने में समय लगेगा। तुम कुछ खा लो, तुम्हारे लिए चाय-नाश्ता भेजती हूँ।”

    “जी!”

    नुपूर ने संक्षिप्त-सा उत्तर दिया, कमरे में सिद्धार्थ और नुपूर ही रह गए थे। नुपूर की चूड़ियों की खनखनाहट के अलावा कोई आवाज़ नहीं रही थी। नुपूर ने पर्स खोला और ब्रीफ़केस की चाभी निकाली।

    “मैं कुछ मदद करूँ?”

    सिद्धार्थ ने कहा, वो कुछ कहती उससे पहले ही सिद्धार्थ ने ब्रीफ़केस उठाकर बेड पर रख दिया। नुपूर ने ब्रीफ़केस खोला और घाटचोला की साड़ी, उसी के मैचिंग ब्लाउज और पेटीकोट निकाला।

    “वाँशरूम?”

    उसने धीरे से सिद्धार्थ की ओर देखकर कहा, सिद्धार्थ ने उंगली से इशारा किया। वाशरूम से ताजे पेंट और सीमेंट की ख़ुशबू रही थी। उसने वॉशरूम में क़दम बढ़ाया ही था कि सिद्धार्थ ने पीछे से आवाज़ दी

    “एक मिनट रुको?”

    सिद्धार्थ ने उसका रास्ता रोक लिया और वाँशरूम में घुस गया।

    “नुपूर! इधर आओ यह गीज़र का पॉइंट है, यहाँ से ऑन होगा।”

    सब कुछ नया-नया-सा लग रहा था जिसे नुपूर को अपना बनाना था। नया टूथपेस्ट, दो टूथब्रश, शैंपू, तेल की शीशी, क्रीम, कपड़े धोने और नहाने के नए साबुन के पैकेट...उसने हाथ में पकड़े शैंपू और साबुन के पैकेट को अपने कपड़ों में छुपा लिया।

    “मैंने एक-एक चीज़ याद कर-कर के रखी है। ससुराल में किस से माँगने जाएगी, अपने से इंतजा

    करके चलो। धीरे-धीरे जब समझ में आने लगेगा, तब मँगवा लेना।”

    माँ ने एक-एक चीज़ वैनिटी बॉक्स में कितने जतन से सँजो कर रखी थी। माँ का को याद कर उसका मन भारी हो गया। नए घर में अपना कहने वाला कोई भी नहीं था पर उन नए लोगों को अब अपना बनाना था।

    “तुम जल्दी से तैयार हो जाओ, मैं भी नहा कर आता हूँ। कमरे का दरवाज़ा अंदर से बंदकर लेना कोई तुम्हें डिस्टर्ब नहीं करेगा।”

    सिद्धार्थ ने बड़ी ही सहजता से कहा, उसके चेहरे पर एक मुस्कान गई। उसने दरवाज़ा बंद करने के लिए ऊपर की ओर हाथ बढ़ाया, वहाँ चिटकनी नहीं थी। ओह, आदत भी कितनी ख़राब चीज़ है न...नुपूर तू ससुराल में है उसने आप से कहा। सागौन के पॉलिश दरवाज़े पर आटोमेटिक लॉक लगा हुआ था। एक, दो और तीन उसने तीन बार उसके कान उमेठ दिए और बेड पर आकर बैठ गई। कितनी देर से गला सूख रहा था। रात में खाना खाते वक़्त ही पानी पिया था। उसने इधर-उधर नज़र दौड़ाई, बेड के सिरहाने पर जग और स्टील के दो गिलास उल्टे रखे हुए थे। बहुत तेज़ प्यास लगी थी, उसने गिलास को झट से भर लिया और होंठो को तेज़ी से लगाया। जितना तेज़ी से उसने होठों को गिलास से लगाया था उतनी ही तेज़ी से उसने गिलास से हटा भी लिया। उसके चेहरे का रंग बदल गया था।

    “कैसा स्वाद है इसका?”

    दो घूँट पानी पीने के बाद उसने गिलास वैसे ही छोड़ दिया, जीवन के साथ-साथ अब उसे उस पानी के साथ भी एडजस्ट करना था। उसने कपड़े समेटे और वॉशरूम की ओर बढ़ गई।

    उसने वॉशरूम में कपड़े टाँगने के लिए खूँटी ढूँढी, किसी नामी कंपनी की रैक वाली स्टील की खूँटी टाइल्स पर चमचमा रही थी। ऊपरी हिस्से पर नर्म, नई और मुलायम दो तौलिया रखी हुई थी। उसे अपना वॉशरूम याद गया, बुध बाज़ार से वह पूरे घर के वॉशरूम के लिए कार्टून और दिल के आकार की कई चिपकाने वाली खूटियाँ ले आई थी तब पापा ने कितना डाँटा था।

    “ताड़ की तरह बड़ी हो गई पर अभी इनका बचपना नहीं गया। तुम ही लगाओ अपने वॉशरूम में कीड़े-मकोड़े वाली खूँटियाँ हमारे लिए तो ये स्टील वाली ही ठीक है।”

    जाने क्या सोचकर उसकी आँखें मुस्कुराने लगी। अब सिद्धार्थ की पसंद है उसकी पसंद है। ईश्वर ने भी यह कैसा बंधन बनाया है, एक अपरिचित लड़के का हाथ पकड़े-पकड़े वह दूसरे संसार में प्रवेश कर गई थी। इस उम्मीद के साथ कि अब जीवन भर उसके साथ रहना है उसकी सुख और दुख मेरे होंगे और मेरे सुख और दुख उसके...वह शॉवर के नीचे खड़ी हो गई। शॉवर की तेज़ धार से उसके मन-मस्तिष्क की सारी उलझनें सुलझती चली गई। अब यही घर उसका है अब इस घर में ही उसे रहना है और इस घर को भी उस घर की तरह अपनाना, सजाना और सॅंवारना है। कमरे में ड्रेसिंग टेबल पड़ा हुआ था जिस पर गिनती के कुछ सामान थे उसके चेहरे पर मुस्कान गई। सिद्धार्थ भी और लड़कों की तरह ही थे। एक महीन दाँत वाली कंघी, एक ड्यूड्रेंट, एक सेंट, क्रीम और तेल की शीशी उनकी वैनिटी बॉक्स के नाम पर बस इतनी ही जमा पूँजी थी और वह सोच रही थी। शृंगार के नाम पर उसने जाने कितनी चीज़ें जुटाई थी इन छह महीनों में! लिपस्टिक के जाने कितने शेड और जाने कितने प्रकार थे उसकी पिटरिया में लिक्विड, मैट, पेंसिल, क्रीम बेस्ड...इसी तरह कंघी भी विभिन्न प्रकार और साइज़ की थी। महीन दाँत वाली, बाल सुलझाने के लिए चौड़े दाँत वाले ब्रश, रोलर और नोक वाली।

    नूपुर ने ड्रेसिंग टेबल के शीशे के सामने अपने आप पर एक भरपूर नज़र डाली। माँग में लाल सिंदूर चमक रहा था। कितनी सुंदर दिख रही थी वह शायद यह सिंदूर का ही कमाल था। खिड़की पर मोटे-मोटे पर्दे पड़े थे, नुपूर ने इधर-उधर देखा और पर्दे को खींचकर एक तरफ़ कर दिया। खिड़की के शीशों पर हल्की गुलाबी धूप चमक रही थी, उसने हाथों का दबाव दे शीशे को पीछे की तरफ़ धकेल दिया। शायद खिड़कियाँ काफ़ी दिनों से नहीं खुली थी।

    कमरे की खिड़कियों को खोल उसने धूप को आने दिया जैसे वह अपने हिस्से की धूप को इकट्ठा कर लेना चाहती हो। कहीं ना कहीं ज़िंदगी का फ़लसफ़ा भी तो यही है। ख़ुशियाँ भी तो कुछ ऐसी ही होती हैं अपने-अपने हिस्से की ख़ुशियाँ...उसने एक गहरी साँस ली और साफ़ हवा को अपने मन-मस्तिष्क में भरने दिया। कितनी अलग थी इस कमरे की दीवारें एकदम शाँत नए रंगरूटों की तरह जिनकी उंगलियाँ कुछ करने को छटपटा रही हो। उसने दीवारों पर हाथ फेर कर अपनेपन की ख़ुशबू को महसूस करने की कोशिश की। कितना अलग था उसका यह कमरा उसके पीहर के कमरे से...उसने आँनलाइन से अपने कमरे की दीवार के लिए स्टिकर मँगवाए थे। पिंजरे से निकलकर उड़ती ढेर सारी चिड़ियाएँ...अजीब-सी ख़ुशी मिलती थी उसे उन्हें देखकर। पापा हमेशा कहते हैं लड़कियाँ भी तो चिड़ियों की तरह होती हैं एक दिन उड़ जाती हैं। तू भी उड़ जाएगी इनकी तरह...छत पर रेडियम के चमकते सितारें अँधेरे में कितने टिमटिमाते थे, मानो खुले आसमान के नीचे सो रहे हो। कभी-कभी लगता वह खुली आँखों से सपने देख रही हो।

    नुपूर ने एक गहरी साँस ली, पीछे बगीचा था। हलवाई के बर्तनों की आवाज़ उसे अब साफ़-साफ़ सुनाई दे रही थी। नुपूर ने खिड़की को वैसे ही खुले रहने दिया और पर्दों को खींचकर हल्का बंद कर दिया। तभी दरवाजे पर किसी ने धीरे से खटखटाया, “नुपूर-नुपूर!”

    “कौन?”

    नूपुर ने पूछा और यह सवाल करके वह ख़ुद ही अचकचा गई। वह इस वक़्त सिद्धार्थ के घर में थी और वह उन्हीं से पूछ रही थी।

    “नुपूर मैं हूँ।...सिद्धार्थ!”

    एक भारी आवाज़ उधर से आई आवाज़ में नुपूर के लिए हक था, “जी आती हूँ।”

    वह ख़ुद ही कह कर शरमा गई, उसने अपने आपको समझाया अब उसे इन सब चीज़ों की आदत डालनी होगी।

    “तैयार हो गई तुम?”

    सिद्धार्थ ने एक भरपूर नज़र नुपूर पर डाली, उसकी आँखों में ऐसा कुछ था कि नुपूर की आँखें नीचे झुक गई।

    “ये पर्दे किसने खोल दिए?”

    सिद्धार्थ का ध्यान पर्दे की ओर गया।

    “वो बड़ा सफ़ोकेशन हो रहा था, मैंने खिड़कियाँ खोल दी थी। ऑक्सीजन कैसे मिलेगी, क्रॉस वेंटिलेशन भी तो ज़रूरी है। मुझे उलझन होने लगती है।”

    नुपूर एक साँस में बोल गई, “तुम दोनों तैयार हो गए, लो जल्दी-जल्दी नाश्ता कर लो दादी और बुआ जी तुम लोगों को पूछ रही थी।”

    मम्मी जी हाथ में चाय-नाश्ते की ट्रे लेकर कमरे में घुसी।

    “कुछ हुआ है क्या... तुम दोनों ऐसे शांत क्यों खड़े हो?”

    “कुछ नहीं मम्मी वो नुपूर को बंद कमरे में उलझन हो रही थी, उसने खिड़की खोल दी, कह रही थी ऑक्सीजन कैसे मिलेगी, क्रॉस वेंटिलेशन भी तो ज़रूरी है। उसे उलझन होने लगती है।”

    मम्मी ठठा मारकर हँस पड़ी।

    “अब इस घर में एक नहीं दो लोग हो गए खिड़की खोलकर सोने वाले...मैं और नुपूर।”

    नुपूर को माँ-बेटे की बात समझ नहीं रही थी।

    “जानती हो नुपूर सिद्धार्थ और उसके पापा को खिड़की खोलना बिल्कुल पसंद नहीं, कहते हैं बाहर का शोर अंदर आता है। मुझे तो बंद-बंद कमरे में बिल्कुल नींद नहीं आती, लगता है साँस घुट रही है। अब तो तेरी बीवी भी माँ के रंग में रंगी भी गई है अब तू क्या करेगा सिद्धार्थ!”

    मम्मी मंद-मंद मुस्कुरा रही थी और उनकी बात सुन नूपुर भी मुस्कुराने लगी।

    “चलो अब समय बर्बाद मत करो और जल्दी से नाश्ता कर लो। तेरी बुआ और दादी भी उठ गए हैं। तुम लोग कमरा ठीक कर लो। मैं भी काम देख कर आती हूँ। हलवाई ने नाश्ता बनाना शुरू भी किया कि नहीं।”

    “मम्मी आपने नाश्ता किया कि नहीं? अभी बीपी लो हो जाएगा, तबीयत ख़राब हो जाएगी।”

    सिद्धार्थ के चेहरे पर चिंता की लकीरे साफ़-साफ़ पढ़ी जा सकती थी,

    “सुन रही हो नूपुर इनकी बात...अभी पूरा घर मेहमानों से भरा पड़ा है और सबसे पहले मैं ही नाश्ता करके बैठ जाऊॅं...लोग क्या कहेंगे?”

    सिद्धार्थ ने मम्मी जी का हाथ पकड़ कर उन्हें ज़बरदस्ती अपने पास बैठा लिया।

    “कोई कुछ नहीं कहेगा...नूपुर तुम भी जल्दी से नाश्ता कर लो। मम्मी तुम भी साथ खा लो, कौन देखने रहा है सब सो रहे हैं।”

    मम्मी जी ने कैशरोल से पोहा निकालकर प्लेट में परोस दिया और सिद्धार्थ ने चाय का प्याला नुपूर की ओर बढ़ा दिया। नुपूर बेड के एक कोने में बैठ चाय पीने लगी।

    “चाय ठीक बनी है ना मीठी ज़्यादा तो नहीं हो गई? इतना सामान फैला हुआ है कुछ मिल ही नहीं रहा था।”

    “जी ठीक है मैं थोड़ा चीनी हल्की पीती हूँ।”

    कहने को तो नूपुर ने कह दिया पर वह कशमकश में पड़ गई पता नहीं उसे यह बात कहनी भी चाहिए थी कि नहीं। मम्मी ने कितनी बार समझाया था वह ससुराल है कुछ भी मुँह में आए तो बोल मत देना पर वह भी तो आदत से मज़बूर थी, कहने से पहले एक बार भी नहीं सोचती।

    “ओह! मुझे पता नहीं था बेटा दूसरी बना देती हूँ।”

    “नहीं-नहीं आँटी जी! इसकी कोई ज़रूरत नहीं है।”

    “आँटी नहीं मम्मी कहना सीखो।”

    मम्मी जी के आवाज़ में एक मनुहार के साथ एक आदेश भी था, नुपूर का चेहरा उतर गया।

    “मुश्किल है पर धीरे-धीरे आदत पड़ जाएगी।”

    मम्मी जी उसे ढाँढस बंधाया,

    “माँ के अलावा कभी किसी को कहा नहीं है तो...!”

    माँ को याद कर उसकी आँखें सजल हो आईं।

    “समझ सकती हूँ इतना आसान नहीं है पर धीरे-धीरे आदत पड़ जाएगी। तुम लोग जल्दी से नाश्ता ख़त्म कर लो और अपना सामान बेड पर सजा दो, मैं पहले देख लूँगी, उसके बाद दादी और सारे लोगों को भी बुला कर दिखा देती हूँ।”

    सिद्धार्थ के चेहरे पर अभी भी नाराज़गी थी पर अब वह इस विषय में कुछ भी कहना नहीं चाह रहे थे।

    सिद्धार्थ ज़रा नुपूर मदद कर दो, मुझे और भी काम है।”

    सिद्धार्थ की मदद से नूपुर ने सारे ब्रीफ़केस के सामान को बेड पर सजा दिया।

    नुपूर! क्या इस अटैची का सामान भी सजाना है।”

    सिद्धार्थ ने पिंक ब्रीफकेस की ओर इशारा करते हुए कहा, नूपुर समझ नहीं पा रही थी सिद्धार्थ की बात का वह क्या जवाब दें। उसे असमंजस में देख सिद्धार्थ ने कहा, “क्या हुआ कुछ ख़ास है क्या इसमें...कुछ क़ीमती?”

    “ख़ास! मेरे दिल के बहुत क़रीब है पर क्या इसे भी लगाना ज़रूरी है।”

    तभी मम्मी जी ने कमरे में प्रवेश किया।

    “क्या हुआ सब लगा दिया ना बेटा?”

    “मम्मी बस यह एक ब्रीफ़केस रह गया है, शायद कुछ पर्सनल सामान है नूपुर का!”

    “नहीं पर्सनल जैसा कुछ भी नहीं है पर...”

    नुपूर की आवाज़ में संकोच उभर आया, मम्मी जी की आँखों में प्रश्न तैर रहे थे। नुपूर समझ नहीं पा रही थी कि वह क्या करें शायद इसी स्थिति से बचाने के लिए पापा ने उसे इस ब्रीफ़केस को ले जाने के लिए मना किया था। क्या नए घर में नए लोगों के बीच इस ब्रीफ़केस को खोलना ठीक होगा पर अगर नहीं खोला तो उनकी आँखों में उग आए प्रश्नों के जवाब उन्हें कैसे मिलेंगे।

    “मम्मी जाने दो अगर वह नहीं चाहती है कि इस ब्रीफ़केस को खोला जाए तो हर्ज क्या है?”

    मम्मी जी ख़ुद असमंजस की स्थिति में थी, बात बिगड़ते देख नुपूर ने उस ब्रीफ़केस को खोल दिया और एक किनारे खड़ी हो गई। अटैची में कुछ किताबें, हाथ से बनी हुई गुड़िया, टेडी बियर,दिल के आकार का पेन स्टैंड, मम्मी-पापा की फ़ोटो, कुछ गुलाबी लिफ़ाफ़े और एक फ़ीरोजी दुपट्टा मुस्कुरा रहा था। सिद्धार्थ उसके सामान को देखकर हंसने लगे।

    “बहुत कीमती सामान है इसमें...सच कहा था तुमने...”

    मम्मी जी घुटने के बल बैठ गई और उन्होंने उन सामानों पर बड़े प्यार से हाथ फेरा,वह भी तो अपने ब्याह के समय एक ऐसा ही ब्रीफ़केस लेकर आई थी।

    “सिद्धार्थ सचमुच बहुत क़ीमती सामान है इस अटैची में...इसमें नुपूर की नादानियाँ हैं, ख़ामियाँ हैं, चुलबुलापन हैं, बेबाकपन है और हाँ अल्हड़पन है। सच कहूँ तो वह इस ब्रीफ़केस में अपने साथ अपने अंदर की लड़की को लेकर भी आई है। नुपूर अपने हिस्से की धूप लेकर आई है।”

    नुपूर की आँखों में ख़ुशी के आँसू थे। खुली खिड़कियों से धूप बेडरूम की फ़र्श पर दस्तक दे रही थी। धूप की इस गुनगुनी गर्माहट में सारे सवाल और ग़लतफ़हमियाँ भाप बनकर उड़ रही थी।

    स्रोत :
    • रचनाकार : रंजना जायसवाल
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

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    ‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।

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