बोर्डिंग हाउस में रहने वाले छात्र, बड़ी नाक वाले मि० नैब का पर्याप्त सम्मान करते थे। उस बोर्डिंग हाउस का संचालन एक तेज़-तर्रार बूढ़ी स्त्री किया करती थी। बूढ़ी स्त्री की एक बिटिया थी। बेटी का विवाह हो चुका था, लेकिन वर्तमान में वह विधवा थी। उम्र थी मात्र छब्बीस वर्ष। नैब और वो एक-दूसरे को बेइंतहा प्यार किया करते थे। नैब के वास्तविक नाम को तो मैं भूल ही चुका हूँ। रूसी नाम था—बेहद लंबा और अटपटा, लेकिन उसमें नैब शब्द आता था। जब इस बोर्डिंग हाउस में, मैं रहने पहुँचा था तब नैब—जैसा उसे सभी पुकारा करते थे और बोर्डिंग हाउस की बूढ़ी मालकिन की युवा विधवा बेटी, एक-दूसरे के प्यार में पागल थे। यह संबंध लंबे समय से चलता आ रहा था। नैब ने बहुत पहले ही डाक्टरी की परीक्षा पास कर ली थी, इसके बावजूद बोर्डिंग हाउस छोड़ने का उसका कोई इरादा न था। उधर उसके पिता लगातार पत्र लिख उससे ओडेसा लौटने का इंतज़ार कर थक चुके थे। पिता ने न केवल ओडेसा में उसके लिए नौकरी तय कर दी थी, वरन् उसके लिए प्यारी-सी दुलहन भी देख रखी थी। पत्रों का सार यह था कि नैब के भावी जीवन की पूरी तैयारी उन्होंने कर रखी है, बस उसके लौटने भर की देर है, लेकिन नैब का ऐसा कोई इरादा था ही नहीं। पिता-पुत्र के बीच पत्र-युद्ध चलता रहा और अंत में बूढ़े रूसी पिता ने हताश हो पत्र लिखना ही बंद कर दिया था। लेकिन अचानक ही नैब का मन इस युवती से ऊब गया। गलियारे में चलते उसके सरसराते हरे पेटीकोट की आवाज़ों या कोमल पैरों के सीढ़ियों पर चढ़ने-उतरने की पदचाप से उसमें प्रेम के ज्वार उठने बंद हो गए। नैब एक आत्मतुष्ट व्यक्ति था—कल्चर से उसे कुछ लेना-देना न था, मूलत: वह एक दकियानूस रूसी किसान मात्र था, अहसान फरामोश था नैब।
बोर्डिंग हाउस में साढ़े सात बजे शाम को भोजन के घंटे बजने की परंपरा शुरू से ही चली आ रही थी, लेकिन एक प्यारी-सी साँझ जब घंटा बजा तो बारी-बारी से सभी डायनिंग टेबिल को घेर कर अपनी-अपनी कुर्सियों पर बैठ गए,केवल उस जर्मन बालक की कुर्सी खाली थी। गर्मागर्म स्वादहीन सूप डायनिंग टेबिल पर रख दिया गया, लेकिन अभी भी जर्मन बालक की कुर्सी ख़ाली थी।
इस पर हरे पेटीकोट वाली युवती ने नौकर से कहा, ‘एक बार घंटा और बजा दो, लगता है कुर्ट ने सुना नहीं है।’
घंटा बजने के बावजूद कुर्ट नहीं आया तो सपनीली आँखों वाली उस युवती ने नज़रें उठाकर कहा—‘प्लीज़ चौथे माले पर जर्मन बच्चे को खाने की ख़बर तो दे आओ।’
टेबिल पर नैब को छोड़ सभी स्कूली बच्चे बैठे थे, इसलिए वह उसकी ओर घूम गई।
‘वो, आया क्यों नहीं?’
‘मैं नहीं जानता।’
‘कहीं वो बीमार न हो? उसने मुझसे शिकायत की थी कि उसे अच्छा नहीं लग रहा है।’
‘मेरे कमरे में भी वह आया था, ‘मुझे नींद नहीं आ रही,’ उसने शिकायत की थी, लेकिन मैं जानता हूँ यह उसके साथ क्यों हो रहा है?’
यह सुनते ही टेबिल के चारों ओर मुस्कराहटें फैल गई थीं। बोर्डिंग हाउस में घर की यादें पानी के जहाज़ की यात्रा की बीमारी जैसी होती हैं। लेकिन जब उसकी आदत पड़ जाती है, तब दूसरों को उस परिस्थिति में देख उनके चेहरे खिल जाते हैं। इसीलिए वे जर्मन लड़के के बारे में सुन हँस दिए थे, जो सोलह वर्ष की उम्र में इरफर्ट से यहाँ आया था और अपनी रातें रो-रोकर करवटें बदलते काट रहा था—अनजानी जगह में भला रोने के सिवाए और किया ही क्या जा सकता है? किसी को खिड़कियों की याद आने पर रुलाई आती है, तो किसी की रुलाई कंबल को याद कर फूट पड़ती है, तो किसी को नौकर की याद से और किसी को घर की प्लेटों की याद से। खाने की टेबिल पर प्रतीक्षा करते किसी को घर पर बाक्स पर बैठने की याद आते ही रोना आ सकता है।
नौकर इस बीच लौट आया था। ‘मैं उसके कमरे में जाऊँ कैसे, दरवाज़ा जो बंद है।’
‘शायद वह कमरे में है नहीं।’
‘नहीं, वह भीतर है, मुझे उसकी आहट मिली थी।’
सुंदर युवती ने निराश आँखों से नैब की ओर देखा।
‘उसे लेकर मैं पहिले से ही परेशान हूँ...प्लीज़ ऊपर जाकर देखो न, आख़िर उसे हुआ क्या है? यदि वह रो रहा हो तो उसे समझा-बुझा कर ले ही आओ। बस, ये बच्चे रोते रहते हैं लगातार और जब कमज़ोर हो जाते हैं तो उनके माँ-बाप सोचते हैं कि उन्हें भरपेट खाना नहीं मिलता यहाँ।’
नैब ने टेबिल पर नैपकिन रखी और कमरे से बाहर चला गया। सीढ़ियाँ चढ़ते उसे अपनी ज़िंदगी से चिढ़ छूट रही थी। हूँ...तो अब इस घर का वह नौकर है—इसीलिए तो उसे जर्मन लड़के को लाने भेजा है। कुछ समय पहिले यही प्यार था—जैसे अच्छी-बुरी प्रत्येक हरकत प्यार थी कभी। कहीं गुम हो चुके उस प्यार के नाम पर अब उसे उस संपन्न जर्मन लड़के की घर की याद में बहती नाक पोंछना है।
‘मेरी इस घटिया ज़िंदगी का सत्यानाश हो’, सीढ़ियाँ चढ़ते नैब ने मन ही मन कहा, ‘इस लड़के के कान पर तो मैं घूँसा ही जड़ने वाला हूँ...मैं....’
चौथी मंज़िल पहुँच उसने कुर्ट के कमरे के सामने पहुँच की-होल से भीतर झाँकना चाहा, लेकिन उसे कुछ भी नहीं दिखा, क्योंकि भीतर वहाँ रूमाल टँगा था। ‘ओऽऽ होऽऽ’ नैब ने सोचा, ‘लगता है यहाँ कुछ गड़बड़ है।’ उसने दरवाज़ा खटखटाते हुए ज़ोर से कहा, ‘प्लीज़ऽऽ दरवाज़ा खोलो।’
अंदर से कोई उत्तर नहीं आया।
‘प्लीज़...मैं नैब हूँ नैब—लंबी नाक वाला नैब।’
उत्तर की जगह अंदर कमरे में कुछ धड़ाम से गिरा—जैसे कुर्सी गिरी हो।
‘मेरी बात सुन रहे हो,’ नैब ने चिल्लाकर कहा, ‘यदि तुमने दरवाज़ा नहीं खोला तो मैं तोड़ दूँगा। तुम वहाँ क्या कर रहे हो? मैं झूठ नहीं बोल रहा हूँ, मैं दरवाज़ा तोड़ दूँगा, चूँकि मैं...मैं बोर्डिंग हाउस का इंस्पेक्टर हूँ।’ इंस्पेक्टर कहते ही उसके चेहरे पर कड़वाहट भरी मुस्कराहट फैल गई। इस व्यंग्यात्मक विशेषण के बारे में सोच उसने हल्का महसूस किया। मन ही मन उसने कहा, ‘धत्त तेरे की!’
अंदर से चाबी घूमने की आवाज़ आई और दरवाज़ा खुला। दहलीज़ पर शव जैसा रक्तहीन चेहरा लिए कुर्ट खड़ा था। उसके हाथ ज़ोर-ज़ोर से काँप रहे थे। अटारी की खिड़की से लटकी एक रस्सी पर नैब की नज़र पड़ी, जिसका ऊपरी सिरा शहतीर से बँधा था और दूसरे से फंदा बना था।
नैब ने सायास थूक गुटका और दरवाज़ा बंद कर जर्मन लड़के का हाथ पकड़ खिड़की के पास पहुँच कहा, ‘तुम्हारा नाम क्या है?”
‘कुर्ट।’
‘हाँ, तो कुर्ट यह समझने के लिए कोई विशेष बुद्धि की आवश्यकता तो है नहीं कि तुम फाँसी लगाने जा रहे थे—बँधी रस्सी सामने होने और तुम्हारे खाने की टेबिल पर न पहुँचने से तो यही दिख रहा है। तो तुम घर की यादों से परेशान हो कुर्ट?’
चश्मा पहिने लड़के ने पीड़ा भरी मुस्कराहट के साथ कहा, ‘हाँ।’
नैब ने एक बार फिर थूक निगलते हुए कहा, ‘घर की यादें बेहद सुहानी होती हैं और अपने देश से तो सभी प्यार करते हैं। मैं भी अपने देश से करता हूँ, हालाँकि मैं रूसी हूँ। अपने देश से तो सभी प्यार करते हैं, यहाँ तक कि पशु भी। एक बार हमारे यहाँ एक कुत्ता टोबोलस्क से ओडेसा लौट आया था केवल सूँघते हुए। यह क्या था। अपने देश से प्यार ही था।’
‘हॉऽऽ’, कुर्ट ने जल्दी-जल्दी साँसें लेते हुए कहा, जिनका अंत सुबकने में होना था।
‘लेकिन मैंने आज तक तो नहीं सुना कि किसी ने अपने देश की याद में फाँसी लगा ली हो। हाँ, कभी-कभार जल्लाद ज़रूर देश प्रेम के बदले में फाँसी देते हैं, लेकिन वह तो बात ही कुछ और होती है। तुम्हारे मामले में रस्सी ने तो तुम्हारी सहायता की नहीं या फिर तुम फाँसी लगाकर घर पहुँच जाना चाहते हो ऐं?’ नैब ने भावुक स्वर में हौले से कहा था, लेकिन आवाज़ में प्यार और हास्य का पुट मिलाते हुए, किसी नशे में धुत निर्धन दार्शनिक की तरह जो सड़क के कुत्ते की राह पर चल रहा हो, कहा था।
लेकिन उधर कुर्ट रोने लगा था, ‘नहींऽऽ’ उसने सुबकते हुए कहा, ‘आप नहीं जानते मैं क्यों मरना चाहता हूँऽऽ।’
नैब ने उसे एकटक देखा। ‘क्यों ऽऽ क्या यह कारण नहीं है?’
‘नहीं! आपके चेहरे पर दया-माया है। इस अजनबी देश में मि० नैब आपका चेहरा सबसे अधिक सद्भावना और सहानुभूति से भरा है। मैं...मैंऽऽ आपको सब कुछ बतला दूँगा...मि० नैब...मैं मरना चाहता हूँ—प्यार में।’
‘प्यार में मरना, यह एक ईमानदार कारण तो है, लेकिन तुम किससे प्यार करते हो?’
आँसुओं से भरे चेहरे पर एक चमक सी कौंधी। लड़के ने अपना चश्मा उतारा, पोंछा, मुस्कुराया, रोया, हँसा, आँखें बंद कीं और भटके हुए पक्षी की तरह सिर घुमाकर कहा, ‘मैं उस छोटी-सी स्त्री से प्यार करता हूँ—विधवा से, बोर्डिंग हाउस की मालकिन की बेटी, उस देवी से—सरसराते पेटीकोट वाली से, सुगंध फैलाने वाली से, क्योंकि वो कितनीऽऽ तो अच्छी है!’
‘अच्छा’ नैब ने कहा, ‘और...?’
‘और, और मैं मरना चाहता हूँ...क्योंकि मैं कभी ख़ुश रह ही नहीं सकता।’
‘और ?’
‘और वो छब्बीस की है और मैं हूँ मात्र सोलह का, वो माँसल गोलमटोल और बेहद सुंदर है— एक भरी पूरी स्त्री और मैं हूँ निरा लड़का—अर्धविकसित पुरुष, बिना मूँछों और कोमल हाथों वाला— और मैं जानता हूँ कि अभी पुरुष नहीं हूँ, और मैं यह भी जानता हूँ कि उसकी आवश्यकता पूर्ण पुरुष की है—एक हीमैन।’
‘हीमैन?’ नैब ने दोहराया।
‘आप तो समझ ही सकते हैं, मैं चौड़े कंधे चाहता हूँ—तांबिया देह, सूरज से तपी माँसपेशियाँ। सुंदर खिलाड़ी जैसी पशुता से दमकता चेहरा, साथ ही कुछ उदास-सा, गंभीर-सा दिखना चाहता हूँ। उसके प्रति लापरवाह और तब वो मन ही मन मेरी प्रशंसा करेगी, मेरी कामना करेगी, लेकिन मैं उससे बात तक नहीं करूँगा, उसे अनदेखा कर निकल जाया करूँगा और तब उसकी चाहत बढ़ती जाएगी—लेकिन यह तो हो ही नहीं सकता। मैं दुबला-पतला हूँ और चश्मा पहिनता हूँ और मेरा चेहरा दूधिया रंग का है और मैं प्यारा दिखता हूँ मि० नैब और कोमल भी और लाड़-प्यार में पला-बढ़ा—बस केवल सहलाने योग्य और वो सुंदरी तो मुझे कभी आँख उठाकर देखना तो छोड़ो, मुझ पर थूकेगी भी नहीं।’ इतना कह कुर्ट ज़ोर-ज़ोर से रोने लगा। उधर इरहर्ट में कहीं बैठे उसके पापा-मम्मा खाने की टेबिल पर बैठे हल्की-सी मुस्कराहट के साथ कह रहे होंगे, ‘हमारा प्यारा कुर्ट भला इस समय क्या कर रहा होगा?’ वे नहीं जानते कि इधर कुर्ट हरे कोच पर पड़ा तड़प रहा है, रो रहा है और उसके पेट, दिल और अंतड़ियों में भयंकर पीड़ा हो रही है और वे यह भी नहीं जानते कि उसने अभी-अभी मौत का चेहरा देखा है और उसने वह पल भी जी लिया है जब व्यक्ति मृत्यु के निकट होता है, इतने पास कि संभवतः अपनी वास्तविक मृत्यु के पूर्व ही अब उस पल को दोबारा देख पाएगा।
‘रो लेने के बाद अब मैं बेहतर महसूस कर रहा हूँ,’ कह उसने नैब से हाथ मिलाते हुए अपनी बात पूरी की।
‘लेकिन...आज रात मैं मर जाऊँगा। मि० नैब आप मुझसे चाहें तो अलविदा कह सकते हैं।’
‘अच्छा...ठीक है,’ नैब ने कहा, ‘लेकिन कुछ इंतज़ार तो कर ही सकते हो।’ कह उठकर उसने ताले से चाबी निकाली और खिड़की से बँधी रस्सी खोलकर उसे जेब में ठूँस लिया...
‘तुम यहीं रुको, मैं गया और अभी आया।’
‘तुम उसको तो नहीं कहोगे न?’
लड़के ने जिस अंदाज में कहा था, उत्तर में यदि नैब ने ‘नहीं,’ कह दिया होता तो लड़के का दिल ही टूट जाता।
‘मैंने तुमसे कहा न, कुछ देर इंतज़ार कर लो बस,’ कह सीढ़ियाँ उतर नैब ने डायनिंग रूम में पहुँच स्त्री को बुलाकर फुसफुसा कर कहा, ‘कुर्ट फाँसी लगाना चाह रहा है।’
‘क्यों?’
‘क्योंकि वह तुमसे प्यार करता है, अपने कमरे में वह लगातार रोए जा रहा है और मरना चाहता है।’
स्त्री ने मुस्कुराकर कहा, ‘शानदार।’
‘हाँ’, कह नैब ने उसे गौर से देखा। वो बहुत सुंदर लग रही थी, उसकी आँखें गर्व से चमक रही थीं और उसके ओंठ गीले और लाल थे।
‘हाँ,’ नैब ने दोहराया और गले में कुछ अटकता-सा महसूस किया, जैसे ही उसने फिर से स्त्री को देखा। चार मंज़िल ऊपर सर्द मौत गलियारे में प्रतीक्षा करती खड़ी थी और यहाँ, यह स्त्री थी—सुंदर, ऊष्मा से भरी और गुदाज़ देह की स्वामिनी।
‘ऊपर चल कर उससे मिल लो,’ नैब ने पर्याप्त ज़ोर से कहा, ताकि सभी लड़के सुन लें। स्त्री ने नैपकिन कुर्सी पर फेंका और बाहर निकल गई। नैब उसके पीछे चल दिया, लेकिन वह उसके निकट नहीं पहुँच सका, क्योंकि वो बहुत तेज़ चल रही थी। स्त्री ने दौड़कर सीढ़ियाँ कुछ ऐसे अंदाज में चढ़ीं, जैसे सबसे बड़ी ख़ुशी उसकी प्रतीक्षा कर रही हो।
कमरे में पहुँच दोनों ने जर्मन लड़के को कोच पर पड़े देखा। इन्हें देखते ही वह कूद कर खड़ा हो गया था। उसके चेहरे पर शर्म की लाली फैल गई और वह पीला पड़ गया।
स्त्री ने मुस्कुराकर उसे देखते हुए प्यारी-सी गुदगुदाती आवाज़ में कहा, ‘नैब ने मुझे अभी-अभी बतलाया कि तुम्हें घर की बहुत याद आ रही है।’
‘हाँऽऽऽ’ कहते लड़के ने आभार प्रकट करती आँखों से नैब को देख मन ही मन उनकी समझदारी के लिए धन्यवाद दिया।
‘चिंता क्यों करते हो,’ स्त्री ने फुसफुसाकर कुछ उस अंदाज में कहा जिससे बड़ों से बात की जाती है और वह भी आंतरिक क्षणों में, ‘यहाँ तो तुम आराम से रहो। सभी तो तुम्हें यहाँ प्यार करते हैं, है न मि० नैब?’
‘हाँऽऽ’ नैब ने फुसफुसाकर कहा और खिड़की के बाहर देखा।
अब जल्दी से अपने को दुरुस्त कर लो, चलो-चलो, जल्दी करो, कह उसके बालों में उँगलियाँ चला उन्हें सहलाया और उसके सिर को अपनी छाती से सटा लिया। लड़के ने आँखें बंद कर ली और युवती की भरी छातियों में सिर ज़ोर से दबा लिया। उसकी हरकत बचपने से भरी थी, लेकिन उसके होंठ जल रहे थे और वह हँसना और रोना चाहता था—स्त्री के ओठों को चूमना चाहता था, उसके सिर को अपने दोनों हाथों में ले प्यार की कामना के साथ उन अनुभवी आँखों से प्यार या फिर मृत्यु की आकांक्षा—जो प्राय: इस आयु के लड़कों में पाई जाती है। जबकि उसका सिर एक दुश्चरित्र स्त्री अपने वक्षस्थल से ममता से भर कर लगाए थी। —कामाग्नि से जलती चरित्रहीन स्त्री होने के फलस्वरूप लड़के के रक्त में ज्वार उठने लगे थे—उधर इरवर्ट में दो बूढ़ी देहें रात का भोजन करती हल्की-सी मुस्कुराहट के साथ कह रही थीं, ‘अच्छा अब हमारा कुर्ट इस समय क्या कर रहा होगा?’
नैब ने दोनों की ओर मुड़कर हल्की-सी नाराज़गी से कहा, ‘अच्छा अब बहुत हो गया—अब नीचे चलो खाने की टेबिल पर।’
युवती ने लड़के के सिर को अपनी गिरफ़्त से छोड़ दिया। लड़के के बाल बिखर गए थे। उसने मुस्कुराते हुए काँपती आवाज़ में कहा, ‘आज रात तो मैं नीचे नहीं जाऊँगा, उनसे कह देना मेरी तबियत ठीक नहीं हैं—उँ...हूँ...मैं नीचे क़तई नहीं जाऊँगा—मेरी आँखें रो-रोकर लाल हो गई हैं...’
नैब और स्त्री नीचे चले आए। कुर्ट ने उनके जाते ही कोच पर लेट अपनी आँखें बंद कर लीं। बंद आँखों से आँसू बहने लगे थे। उसने मन ही मन निश्चय किया कि वह बोर्डिंग हाउस में आठ-दस वर्ष तक रहेगा और तब शायद स्त्री उसकी हो जाएगी। भला अब उसे मरने की आवश्यकता ही क्या है, जबकि उसने उसकी भरी छातियों को चुपचाप चूम ही लिया है। नीचे डाइनिंग रूम में सभी शांति से भोजन करते रहे, उसके बाद सभी रहने वाले अपने-अपने कमरों में चले गए—केवल नैब और स्त्री वहाँ बैठे थे। (उनके लिए भोजन अलग से रख दिया गया था)—फिर वे भी उठ खड़े हुए।
नैब ने स्त्री को देखा—इस पल वह ऊब महसूस नहीं कर रहा था। वे ड्राइंग रूम में चले गए थे, वहाँ कोई भी न था। एक लंबे समय तक वे ख़ामोश बैठे रहे, स्त्री चमकते गालों के साथ रहस्यमय ढंग से मुस्कुराती सामने देखे जा रही थी और नैब सिगरेट के कश लेता मौन बैठा रहा। डाइनिंग हाल में जाने के पहिले उसने भोजन के बाद थियेटर जाने का निश्चय किया था, लेकिन फ़िलहाल उसका इरादा कहीं भी जाने का न था। उसने सिगरेट का अंतिम कश छोड़ते स्त्री को देखा। स्त्री ने नज़रें मिलते ही उससे प्रश्न किया, ‘कहीं लड़का स्वयं को नुकसान नहीं पहुँचा ले!’
‘नहीं’ नैब ने कह सिगरेट फेंकी और स्त्री के पास जा उसके माथे पर बिखरी लटों को हौले से अलग करते उसकी आँखों में झाँका।
स्त्री ने शांति से कहा, ‘तुम्हारे विचार से क्या वह स्वयं को नुकसान पहुँचा सकता है?’
‘नहीं,’ कहते नैब ने उसके मुँह को चूम लिया। स्त्री ने खड़े हो नैब के सिर को अपने चेहरे से लगा फुसफुसा कर कहा—‘ऐसा लड़का...ऐसा...लड़का।’
‘नहींऽऽ नहीं,’ रूसी ने उसे आश्वस्त करते कहा, ‘यह हो ही नहीं सकता, रस्सी तो यहीं मेरी जेब में है,’ कह उसने रस्सी निकाल उसे दिखाई और फिर वे दोनों हँसने लगे। स्त्री की आँखें अधमुंदी हो रही थीं। फिर वे एक-दूसरे को बाँहों में घेरे ड्राइंग रूम से बाहर आ गए। दहलीज़ पर पहुँच वे रुक गए, क्योंकि नैब ने अभी अपना लम्बा चुंबन समाप्त नहीं किया था।
‘वेऽऽ हमें देख लेंगे,’ स्त्री ने फुसफुसाकर कहा, ‘यहाँ तो मत चूमो मुझे,’ कहती वह छूटकर आगे चली गई। नैब ने हाथ में ली रस्सी ज़ोर से फ़र्श पर फेंकी और उसके पीछे चल दिया।
‘मूर्ख जर्मन बालक’ उसने भुनभुनाते हुए कहा, ‘मूर्ख कहीं का!’
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‘vo, aaya kyon nahin?’
‘main nahin janta. ’
‘kahin wo bimar na ho? usne mujhse shikayat ki thi ki use achchha nahin lag raha hai. ’
‘mere kamre mein bhi wo aaya tha, ‘mujhe neend nahin aa rahi,’ usne shikayat ki thi, lekin main janta hoon ye uske saath kyon ho raha hai?’
ye sunte hi tebil ke charon or muskrahten phail gai theen. borDing haus mein ghar ki yaden pani ke jahaz ki yatra ki bimari jaisi hoti hain. lekin jab uski aadat paD jati hai, tab dusron ko us paristhiti mein dekh unke chehre khil jate hain. isiliye ve jarman laDke ke bare mein sun hans diye the, jo solah varsh ki umr mein irphart se yahan aaya tha aur apni raten ro rokar karavten badalte kaat raha tha—anjani jagah mein bhala rone ke sivaye aur kiya hi kya ja sakta hai? kisi ko khiDakiyon ki yaad aane par rulai aati hai, to kisi ki
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‘nahin, wo bhitar hai, mujhe uski aahat mili thi. ’
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‘use lekar main pahile se hi pareshan hoon. . . pleez uupar jakar dekho na, akhir use hua kya hai? yadi wo ro raha ho to use samjha bujha kar le hi aao. bas, ye bachche rote rahte hain lagatar aur jab kamzor ho jate hain to unke maan baap sochte hain ki unhen bharpet khana nahin milta yahan. ’
naib ne tebil par naipkin rakhi aur kamre se bahar chala gaya. siDhiyan chaDhte use apni zindagi se chiDh chhoot rahi thi. hoon. . . to ab is ghar ka wo naukar hai—isiliye to use jarman laDke ko lane bheja hai. kuch samay pahile yahi pyaar tha—jaise achchhi buri pratyek harkat pyaar thi kabhi. kahin gum ho chuke us pyaar ke naam par ab use us sampann jarman laDke ki ghar ki yaad mein bahti naak ponchhna hai.
‘meri is ghatiya zindagi ka satyanash ho’, siDhiyan chaDhte naib ne man hi man kaha, ‘is laDke ke kaan par to main ghunsa hi jaDne vala hoon. . . main. . . . ’
chauthi manzil pahunch usne kurt ke kamre ke samne pahunch ki hol se bhitar jhankna chaha, lekin use kuch bhi nahin dikha, kyonki bhitar vahan rumal tanga tha. ‘oऽऽ hoऽऽ’ naib ne socha, ‘lagta hai yahan kuch gaDbaD hai. ’ usne darvaza khatakhtate hue zor se kaha, ‘pleezऽऽ darvaza kholo. ’
uttar ki jagah andar kamre mein kuch dhaDam se gira jaise kursi giri ho.
‘meri baat sun rahe ho,’ naib ne chillakar kaha, ‘yadi tumne darvaza nahin khola to main toD dunga. tum vahan kya kar rahe ho? main jhooth nahin bol raha hoon, main darvaza toD dunga, chunki main. . . main borDing haus ka inspektar hoon. ’ inspektar kahte hi uske chehre par kaDvahat bhari muskrahat phail gai. is vyangyatmak visheshan ke bare mein soch usne halka mahsus kiya. man hi man usne kaha, ‘dhattere kee!’
andar se chabi ghumne ki avaz aai aur darvaza khula. dahliz par shav jaisa raktahin chehra liye kurt khaDa tha. uske haath zor zor se kaanp rahe the. atari ki khiDki se latki ek rassi par naib ki nazar paDi, jiska uupri sira shahtir se bandha tha aur dusre se phanda bana tha.
naib ne sayas thook gutka aur darvaza band kar jarman laDke ka haath pakaD khiDki ke paas pahunch kaha, ‘tumhara naam kya hai?”
‘kurt. ’
‘haan, to kurt ye samajhne ke liye koi vishesh buddhi ki avashyakta to hai nahin ki tum phansi lagane ja rahe the—bandhi rassi samne hone aur tumhare khane ki tebil par na pahunchne se to yahi dikh raha hai. to tum ghar ki yadon se pareshan ho kurt?’
chashma pahine laDke ne piDa bhari muskrahat ke saath kaha, ‘haan. ’
naib ne ek baar phir thook nigalte hue kaha, ‘ghar ki yaden behad suhani hoti hain aur apne desh se to sabhi pyaar karte hain. main bhi apne desh se karta hoon, halanki main rusi hoon. apne desh se to sabhi pyaar karte hain, yahan tak ki pashu bhi. ek baar hamare yahan ek kutta tobolask se oDesa laut aaya tha keval sunghte hue. ye kya tha. apne desh se pyaar hi tha. ’
‘hauऽऽ’, kurt ne jaldi jaldi sansen lete hue kaha, jinka ant subakne mein hona tha.
‘lekin mainne aaj tak to nahin suna ki kisi ne apne desh ki yaad mein phansi laga li ho. haan, kabhi kabhar jallad zarur desh prem ke badle mein phansi dete hain, lekin wo to baat hi kuch aur hoti hai. tumhare mamle mein rassi ne to tumhari sahayata ki nahin ya phir tum phansi lagakar ghar pahunch jana chahte ho ain?’ naib ne bhavuk svar mein haule se kaha tha, lekin avaz mein pyaar aur hasya ka put milate hue, kisi nashe mein dhut nirdhan darshanik ki tarah jo saDak ke kutte ki raah par chal raha ho, kaha tha.
lekin udhar kurt rone laga tha, ‘nahinऽऽ’ usne subakte hue kaha, ‘aap nahin jante main kyon marna chahta hoonऽऽ. ’
naib ne use ektak dekha. ‘kyon ऽऽ kya ye karan nahin hai?’
‘nahin! aapke chehre par daya maya hai. is ajnabi desh mein mi० naib aapka chehra sabse adhik sadbhavana aur sahanubhuti se bhara hai. main. . . mainऽऽ aapko sab kuch batala dunga. . . mi० naib. . . main marna chahta hun—pyar mein. ’
‘pyaar mein marna, ye ek iimandar karan to hai, lekin tum kisse pyaar karte ho?’
ansuon se bhare chehre par ek chamak si kaundhi. laDke ne apna chashma utara, ponchha, muskuraya, roya, hansa, ankhen band keen aur bhatke hue pakshi ki tarah sir ghumakar kaha, ‘main us chhoti si stri se pyaar karta hun—vidhva se, borDing haus ki malkin ki beti, us devi se sarsarate petikot vali se, sugandh phailane vali se, kyonki wo kitniऽऽ to achchhi hai!’
‘achchha’ naib ne kaha, ‘aur. . . ?’
aur, aur main marna chahta hoon. . . kyonki main kabhi khush rah hi nahin sakta. ’
‘aur ?’
‘aur wo chhabbis ki hai aur main hoon maatr solah ka, wo mansal golamtol aur behad sundar hai— ek bhari puri stri aur main hoon nira laDka—ardhaviksit purush, bina munchhon aur komal hathon vala— aur main janta hoon ki abhi purush nahin hoon, aur main ye bhi janta hoon ki uski avashyakta poorn purush ki hai—ek himain. ’
‘himain?’ naib ne dohraya.
‘aap to samajh hi sakte hain, main chauDe kandhe chahta hun—tambiya deh, suraj se tapi mansapeshiyan. sundar khilaDi jaisi pashuta se damakta chehra, saath hi kuch udaas sa, gambhir sa dikhna hoon. uske prati laparvah aur tab wo chahat hai hi man meri prshansa karegi, meri kamna karegi, lekin main usse baat tak nahin karunga, use andekha kar nikal jaya karunga aur tab uski chahat baDhti jayegi—lekin ye to ho hi nahin sakta. main dubla patla hoon aur chashma pahinta hoon aur mera chehra dudhiya rang ka hai aur main pyara dikhta hoon mi० naib aur komal bhi aur laaD pyaar mein pala baDha bas keval sahlane yogya aur wo sundri to mujhe kabhi ankh uthakar dekhana to chhoDo, mujh par thukegi bhi nahin. ’ itna kah kurt zor zor se rone laga. udhar irhart mein kahin baithe uske papa mama khane ki tebil par baithe halki si muskrahat ke saath kah rahe honge, ‘hamara pyara kurt bhala is samay kya kar raha hoga?’ ve nahin jante ki idhar kurt hare koch par paDa taDap raha hai, ro raha hai aur uske pet, dil aur antaDiyon mein bhayankar piDa ho rahi hai aur ve ye bhi nahin jante ki usne abhi abhi maut ka chehra dekha hai aur usne wo pal bhi ji liya hai jab vyakti mrityu ke nikat hota hai, itne paas ki sambhvatः apni vastavik mrityu ke poorv hi ab us pal ko dobara dekh payega.
‘ro lene ke baad ab main behtar mahsus kar raha hoon,’ kah usne naib se haath milate hue apni baat puri ki.
‘lekin. . . aaj raat main mar jaunga. mi० naib aap mujhse chahen to alavida kah sakte hain. ’
‘achchha. . . theek hai, ’ naib ne kaha, ‘lekin kuch intzaar to kar hi sakte ho. ’ kah uthkar usne tale se chabi nikali aur khiDki se bandhi rassi kholkar use jeb mein thoons liya. . .
tum yahin ruko, main gaya aur abhi aaya. ’
‘tum usko to nahin kahoge na?’
laDke ne jis andaj mein kaha tha, uttar mein yadi naib ne ‘nahin,’ kah diya hota to laDke ka dil hi toot jata.
‘mainne tumse kaha na, kuch der intzaar kar lo bas,’ kah siDhiyan utar naib ne Dayning room mein pahunch stri ko bulakar phusphusa kar kaha, ‘kurt phansi lagana chaah raha hai. ’
‘kyon?’
‘kyonki wo tumse pyaar karta hai, apne kamre mein wo lagatar roe ja raha hai aur marna chahta hai. ’
stri ne muskurakar kaha, ‘shanadar. ’
‘haan’, kah naib ne use gaur se dekha. wo bahut sundar lag rahi thi, uski ankhen garv se chamak rahi theen aur uske onth gile aur laal the.
‘haan,’ naib ne dohraya aur gale mein kuch atakta sa mahsus kiya, jaise hi usne phir se stri ko dekha. chaar manjil uupar sard maut galiyare mein prtiksha karti khaDi thi aur yahan, ye stri thi—sundar, uushma se bhari aur gudaz deh ki svamini.
‘uupar chal kar usse mil lo,’ naib ne paryapt zor se kaha, taki sabhi laDke sun len. stri ne naipkin kursi par phenka aur bahar nikal gai. naib uske pichhe chal diya, lekin wo uske nikat nahin pahunch saka, kyonki wo bahut chal rahi thi. stri ne dauDkar siDhiyan kuch aise andaj mein chaDhin, jaise sabse baDi khushi uski prtiksha kar rahi ho.
kamre mein pahunch donon ne jarman laDke ko koch par paDe dekha. inhen dekhte hi wo kood kar khaDa ho gaya tha. uske chehre par sharm ki lali phail gai aur wo pila paD gaya.
stri ne muskurakar use dekhte hue pyari si gudgudati avaz mein kaha, naib ne mujhe abhi abhi batlaya ki tumhein ghar ki bahut yaad aa rahi hai. ’
‘haanऽऽऽ’ kahte laDke ne abhar prakat karti ankhon se naib ko dekh man hi man unki samajhdari ke liye dhanyavad diya.
‘chinta kyon karte ho,’ stri ne phusaphusakar kuch us andaj mein kaha jisse baDon se baat ki jati hai aur wo bhi antrik kshnon mein, ‘yahan to tum aram raho. sabhi to tumhein yahan pyaar karte hain, hai na mi० naib?’
‘haanऽऽ’ naib ne phusaphusakar kaha aur khiDki ke bahar dekha.
ab jaldi se apne ko durust kar lo, chalo chalo, jaldi karo, kah uske balon mein ungliyan chala unhen sahlaya aur uske sir ko apni chhati se sata liya. laDke ne ankhen bandkar li aur yuvati ki bhari chhatiyon mein sir zor se daba liya. uski harkat bachpane se bhari thi, lekin uske honth jal rahe the aur wo hansna aur rona chahta tha—stri ke othon ko chumna chahta tha, uske sir ko apne donon hathon mein le pyaar ki kamna ke saath un anubhvi ankhon se pyaar ya phir mrityu ki akanksha—jo prayah is aayu ke laDkon mein pai jati hai. jabki uska sir ek dushcharitr stri apne vakshasthal se mamta se bhar kar lagaye thi. —kamagni se jalti charitrahin stri hone ke phalasvarup laDke ke rakt mein jvaar uthne lage the udhar irvart mein do buDhi dehen raat ka bhojan karti halki si muskurahat ke saath kah rahi theen, ‘achchha ab hamara kurt is samay kya kar raha hoga?’
naib ne donon ki or muDkar halki si narazgi se kaha, ‘achchha ab bahut ho gaya—ab niche chalo khane ki tebil par. ’
yuvati ne laDke ke sir ko apni girapht se chhoD diya. laDke ke baal bikhar ge the. usne muskurate hue kanpti avaz mein kaha, ‘aaj raat to main niche nahin jaunga, unse kah dena meri tabiyat theek nahin hain—un. . . hoon. . . main niche qatii nahin jaunga—meri ankhen ro rokar laal ho gai hai. . . ’
naib aur stri niche chale aaye. kurt ne unke jate hi koch par let apni ankhen kar leen. band ankhon se ansu bahne lage the. usne man hi man nishchay kiya ki wo borDing haus mein aath das varsh tak rahega aur tab shayad stri uski ho jayegi. bhala ab use marne ki avashyakta hi kya hai, jabki usne uski bhari chhatiyon ko chupchap choom hi liya hai. niche Daining room mein sabhi shanti se bhojan karte rahe, uske baad sabhi rahne vale apne apne kamron mein chale ge—keval naib aur stri vahan baithe the. (unke liye bhojan alag se rakh diya
gaya tha)—phir ve bhi uth khaDe hue.
naib ne stri ko dekha—is pal wo uub mahsus nahin kar raha tha. ve Draing room mein chale ge the, vahan koi bhi na tha. ek lambe samay tak ve khamosh baithe rahe, stri chamakte galon ke saath rahasyamay Dhang se muskurati samne dekhe ja rahi thi aur naib sigret ke kash leta maun baitha raha. Daining haal mein jane ke pahile usne bhojan ke baad thiyetar jane ka nishchay kiya tha, lekin filhal uska irada kahin bhi jane ka na tha. usne sigret ka antim kash chhoDte stri ko dekha. stri ne nazren milte hi usse parashn kiya, ‘kahin laDka svayan ko nuksan nahin pahuncha le!’
‘nahin’ naib ne kah sigret phenki aur stri ke paas ja uske mathe par bikhri laton ko haule se alag karte uski ankhon mein jhanka.
stri ne shanti se kaha, ‘tumhare vichar se kya wo svayan ko nuksan pahuncha sakta hai?’
‘nahin,’ kahte naib ne uske munh ko choom liya. stri ne khaDe ho naib ke sir ko apne chehre se laga phusphusa kar kaha—’aisa laDka. . . aisa. . . laDka. ’
‘nahinऽऽ nahin,’ rusi ne use ashvast karte kaha, ‘yah ho hi nahin sakta, rassi to yahin meri jeb mein hai, ’ kah usne rassi nikal use dikhai aur phir ve donon hansne lage. stri ki ankhen adhmundi ho rahi theen. phir ve ek dusre ko banhon mein ghere Draing room se bahar aa ge. dahliz par pahunch ve ruk ge, kyonki naib ne abhi apna lamba chumban samapt nahin kiya tha.
‘veऽऽ hamein dekh lenge,’ stri ne phusaphusakar kaha, ‘yahan to mat chumo mujhe,’ kahti wo chhutkar aage chali gai. naib ne haath mein li rassi zor se farsh par phenki aur uske pichhe chal diya.
borDing haus mein rahne vale chhaatr, baDi naak vale mi० naib ka paryapt samman hai. karte the. us borDing haus ka sanchalan ek tez tarrar buDhi stri kiya karti thi. buDhi stri ki ek bitiya thi. beti ka vivah ho chuka tha, lekin vartaman mein wo vidhva thi. umr thi maatr chhabbis varsh. naib aur wo ek dusre ko beintha pyaar kiya karte the. naib ke vastavik naam ko to main bhool hi chuka hoon. rusi naam tha—behad lamba aur atpata, lekin usmen naib shabd aata tha. jab is borDing haus mein, main rahne pahuncha tha tab naib—jaisa use sabhi pukara karte the aur borDing haus ki buDhi malkin ki yuva vidhva beti, ek dusre ke pyaar mein pagal the. ye sambandh lambe samay se chalta aa raha tha. naib ne bahut pahle hi Daktari ki pariksha paas kar li thi, iske bavjud borDing haus chhoDne ka uska koi irada na tha. udhar uske pita lagatar patr likh usse oDesa lautne ka intzaar kar thak chuke the. pita ne na keval oDesa mein uske liye naukari tay kar di thi, varan uske liye pyari si dulhan bhi dekh rakhi thi. patron ka saar ye tha ki naib ke bhavi jivan ki puri taiyari unhonne kar rakhi hai, bas uske lautne bhar ki der hai, lekin naib ka aisa koi irada tha hi nahin. pita putr ke beech patr yuddh chalta raha aur ant mein buDhe rusi pita ne hatash ho patr likhna hi band kar diya tha. lekin achanak hi naib ka man is yuvati se uub gaya. galiyare mein chalte uske sarsarate hare petikot ki avajon ya komal pairon ke siDhiyon par chaDhne utarne ki padchap se usmen prem ke jvaar uthne band ho ge. naib ek atmtusht vyakti tha—kalchar se use kuch lena dena na tha, multah wo ek dakiyanus rusi kisan maatr tha, ahsan pharamosh tha naib.
borDing haus mein saDhe saat baje shaam ko bhojan ke ghante bajne ki parampara shuru se hi chali aa rahi thi, lekin ek pyari si saanjh jab ghanta baja to bari bari se sabhi Dayning tebil ko gher kar apni apni kursiyon par baith ge,keval us jarman balak ki kursi khali thi. garmagarm svadahin soop Dayning tebil par rakh diya gaya, lekin abhi bhi jarman balak ki kursi khali thi.
is par hare petikot vali yuvati ne naukar se kaha, ‘ek baar ghanta aur baja do, lagta hai kurt ne suna nahin hai. ’
ghanta bajne ke bavjud kurt nahin aaya to sapnili ankhon vali us yuvati ne nazren uthakar kaha ’pleez chauthe male par jarman bachche ko khane ki khabar to de aao. ’
tebil par naib ko chhoD sabhi skuli bachche baithe the, isliye wo uski or ghoom gai.
‘vo, aaya kyon nahin?’
‘main nahin janta. ’
‘kahin wo bimar na ho? usne mujhse shikayat ki thi ki use achchha nahin lag raha hai. ’
‘mere kamre mein bhi wo aaya tha, ‘mujhe neend nahin aa rahi,’ usne shikayat ki thi, lekin main janta hoon ye uske saath kyon ho raha hai?’
ye sunte hi tebil ke charon or muskrahten phail gai theen. borDing haus mein ghar ki yaden pani ke jahaz ki yatra ki bimari jaisi hoti hain. lekin jab uski aadat paD jati hai, tab dusron ko us paristhiti mein dekh unke chehre khil jate hain. isiliye ve jarman laDke ke bare mein sun hans diye the, jo solah varsh ki umr mein irphart se yahan aaya tha aur apni raten ro rokar karavten badalte kaat raha tha—anjani jagah mein bhala rone ke sivaye aur kiya hi kya ja sakta hai? kisi ko khiDakiyon ki yaad aane par rulai aati hai, to kisi ki
rulai kambal ko yaad kar phoot paDti hai, to kisi ko naukar ki yaad se aur kisi ko ghar ki pleton ki yaad se. khane ki tebil par prtiksha karte kisi ko ghar par baaks par baithne ki yaad aate hi rona aa sakta hai.
naukar is beech laut aaya tha. ‘main uske kamre mein jaun kaise, darvaza jo band hai. ’
‘shayad wo kamre mein hai nahin. ’
‘nahin, wo bhitar hai, mujhe uski aahat mili thi. ’
sundar yuvati ne nirash ankhon se naib ki or dekha.
‘use lekar main pahile se hi pareshan hoon. . . pleez uupar jakar dekho na, akhir use hua kya hai? yadi wo ro raha ho to use samjha bujha kar le hi aao. bas, ye bachche rote rahte hain lagatar aur jab kamzor ho jate hain to unke maan baap sochte hain ki unhen bharpet khana nahin milta yahan. ’
naib ne tebil par naipkin rakhi aur kamre se bahar chala gaya. siDhiyan chaDhte use apni zindagi se chiDh chhoot rahi thi. hoon. . . to ab is ghar ka wo naukar hai—isiliye to use jarman laDke ko lane bheja hai. kuch samay pahile yahi pyaar tha—jaise achchhi buri pratyek harkat pyaar thi kabhi. kahin gum ho chuke us pyaar ke naam par ab use us sampann jarman laDke ki ghar ki yaad mein bahti naak ponchhna hai.
‘meri is ghatiya zindagi ka satyanash ho’, siDhiyan chaDhte naib ne man hi man kaha, ‘is laDke ke kaan par to main ghunsa hi jaDne vala hoon. . . main. . . . ’
chauthi manzil pahunch usne kurt ke kamre ke samne pahunch ki hol se bhitar jhankna chaha, lekin use kuch bhi nahin dikha, kyonki bhitar vahan rumal tanga tha. ‘oऽऽ hoऽऽ’ naib ne socha, ‘lagta hai yahan kuch gaDbaD hai. ’ usne darvaza khatakhtate hue zor se kaha, ‘pleezऽऽ darvaza kholo. ’
uttar ki jagah andar kamre mein kuch dhaDam se gira jaise kursi giri ho.
‘meri baat sun rahe ho,’ naib ne chillakar kaha, ‘yadi tumne darvaza nahin khola to main toD dunga. tum vahan kya kar rahe ho? main jhooth nahin bol raha hoon, main darvaza toD dunga, chunki main. . . main borDing haus ka inspektar hoon. ’ inspektar kahte hi uske chehre par kaDvahat bhari muskrahat phail gai. is vyangyatmak visheshan ke bare mein soch usne halka mahsus kiya. man hi man usne kaha, ‘dhattere kee!’
andar se chabi ghumne ki avaz aai aur darvaza khula. dahliz par shav jaisa raktahin chehra liye kurt khaDa tha. uske haath zor zor se kaanp rahe the. atari ki khiDki se latki ek rassi par naib ki nazar paDi, jiska uupri sira shahtir se bandha tha aur dusre se phanda bana tha.
naib ne sayas thook gutka aur darvaza band kar jarman laDke ka haath pakaD khiDki ke paas pahunch kaha, ‘tumhara naam kya hai?”
‘kurt. ’
‘haan, to kurt ye samajhne ke liye koi vishesh buddhi ki avashyakta to hai nahin ki tum phansi lagane ja rahe the—bandhi rassi samne hone aur tumhare khane ki tebil par na pahunchne se to yahi dikh raha hai. to tum ghar ki yadon se pareshan ho kurt?’
chashma pahine laDke ne piDa bhari muskrahat ke saath kaha, ‘haan. ’
naib ne ek baar phir thook nigalte hue kaha, ‘ghar ki yaden behad suhani hoti hain aur apne desh se to sabhi pyaar karte hain. main bhi apne desh se karta hoon, halanki main rusi hoon. apne desh se to sabhi pyaar karte hain, yahan tak ki pashu bhi. ek baar hamare yahan ek kutta tobolask se oDesa laut aaya tha keval sunghte hue. ye kya tha. apne desh se pyaar hi tha. ’
‘hauऽऽ’, kurt ne jaldi jaldi sansen lete hue kaha, jinka ant subakne mein hona tha.
‘lekin mainne aaj tak to nahin suna ki kisi ne apne desh ki yaad mein phansi laga li ho. haan, kabhi kabhar jallad zarur desh prem ke badle mein phansi dete hain, lekin wo to baat hi kuch aur hoti hai. tumhare mamle mein rassi ne to tumhari sahayata ki nahin ya phir tum phansi lagakar ghar pahunch jana chahte ho ain?’ naib ne bhavuk svar mein haule se kaha tha, lekin avaz mein pyaar aur hasya ka put milate hue, kisi nashe mein dhut nirdhan darshanik ki tarah jo saDak ke kutte ki raah par chal raha ho, kaha tha.
lekin udhar kurt rone laga tha, ‘nahinऽऽ’ usne subakte hue kaha, ‘aap nahin jante main kyon marna chahta hoonऽऽ. ’
naib ne use ektak dekha. ‘kyon ऽऽ kya ye karan nahin hai?’
‘nahin! aapke chehre par daya maya hai. is ajnabi desh mein mi० naib aapka chehra sabse adhik sadbhavana aur sahanubhuti se bhara hai. main. . . mainऽऽ aapko sab kuch batala dunga. . . mi० naib. . . main marna chahta hun—pyar mein. ’
‘pyaar mein marna, ye ek iimandar karan to hai, lekin tum kisse pyaar karte ho?’
ansuon se bhare chehre par ek chamak si kaundhi. laDke ne apna chashma utara, ponchha, muskuraya, roya, hansa, ankhen band keen aur bhatke hue pakshi ki tarah sir ghumakar kaha, ‘main us chhoti si stri se pyaar karta hun—vidhva se, borDing haus ki malkin ki beti, us devi se sarsarate petikot vali se, sugandh phailane vali se, kyonki wo kitniऽऽ to achchhi hai!’
‘achchha’ naib ne kaha, ‘aur. . . ?’
aur, aur main marna chahta hoon. . . kyonki main kabhi khush rah hi nahin sakta. ’
‘aur ?’
‘aur wo chhabbis ki hai aur main hoon maatr solah ka, wo mansal golamtol aur behad sundar hai— ek bhari puri stri aur main hoon nira laDka—ardhaviksit purush, bina munchhon aur komal hathon vala— aur main janta hoon ki abhi purush nahin hoon, aur main ye bhi janta hoon ki uski avashyakta poorn purush ki hai—ek himain. ’
‘himain?’ naib ne dohraya.
‘aap to samajh hi sakte hain, main chauDe kandhe chahta hun—tambiya deh, suraj se tapi mansapeshiyan. sundar khilaDi jaisi pashuta se damakta chehra, saath hi kuch udaas sa, gambhir sa dikhna hoon. uske prati laparvah aur tab wo chahat hai hi man meri prshansa karegi, meri kamna karegi, lekin main usse baat tak nahin karunga, use andekha kar nikal jaya karunga aur tab uski chahat baDhti jayegi—lekin ye to ho hi nahin sakta. main dubla patla hoon aur chashma pahinta hoon aur mera chehra dudhiya rang ka hai aur main pyara dikhta hoon mi० naib aur komal bhi aur laaD pyaar mein pala baDha bas keval sahlane yogya aur wo sundri to mujhe kabhi ankh uthakar dekhana to chhoDo, mujh par thukegi bhi nahin. ’ itna kah kurt zor zor se rone laga. udhar irhart mein kahin baithe uske papa mama khane ki tebil par baithe halki si muskrahat ke saath kah rahe honge, ‘hamara pyara kurt bhala is samay kya kar raha hoga?’ ve nahin jante ki idhar kurt hare koch par paDa taDap raha hai, ro raha hai aur uske pet, dil aur antaDiyon mein bhayankar piDa ho rahi hai aur ve ye bhi nahin jante ki usne abhi abhi maut ka chehra dekha hai aur usne wo pal bhi ji liya hai jab vyakti mrityu ke nikat hota hai, itne paas ki sambhvatः apni vastavik mrityu ke poorv hi ab us pal ko dobara dekh payega.
‘ro lene ke baad ab main behtar mahsus kar raha hoon,’ kah usne naib se haath milate hue apni baat puri ki.
‘lekin. . . aaj raat main mar jaunga. mi० naib aap mujhse chahen to alavida kah sakte hain. ’
‘achchha. . . theek hai, ’ naib ne kaha, ‘lekin kuch intzaar to kar hi sakte ho. ’ kah uthkar usne tale se chabi nikali aur khiDki se bandhi rassi kholkar use jeb mein thoons liya. . .
tum yahin ruko, main gaya aur abhi aaya. ’
‘tum usko to nahin kahoge na?’
laDke ne jis andaj mein kaha tha, uttar mein yadi naib ne ‘nahin,’ kah diya hota to laDke ka dil hi toot jata.
‘mainne tumse kaha na, kuch der intzaar kar lo bas,’ kah siDhiyan utar naib ne Dayning room mein pahunch stri ko bulakar phusphusa kar kaha, ‘kurt phansi lagana chaah raha hai. ’
‘kyon?’
‘kyonki wo tumse pyaar karta hai, apne kamre mein wo lagatar roe ja raha hai aur marna chahta hai. ’
stri ne muskurakar kaha, ‘shanadar. ’
‘haan’, kah naib ne use gaur se dekha. wo bahut sundar lag rahi thi, uski ankhen garv se chamak rahi theen aur uske onth gile aur laal the.
‘haan,’ naib ne dohraya aur gale mein kuch atakta sa mahsus kiya, jaise hi usne phir se stri ko dekha. chaar manjil uupar sard maut galiyare mein prtiksha karti khaDi thi aur yahan, ye stri thi—sundar, uushma se bhari aur gudaz deh ki svamini.
‘uupar chal kar usse mil lo,’ naib ne paryapt zor se kaha, taki sabhi laDke sun len. stri ne naipkin kursi par phenka aur bahar nikal gai. naib uske pichhe chal diya, lekin wo uske nikat nahin pahunch saka, kyonki wo bahut chal rahi thi. stri ne dauDkar siDhiyan kuch aise andaj mein chaDhin, jaise sabse baDi khushi uski prtiksha kar rahi ho.
kamre mein pahunch donon ne jarman laDke ko koch par paDe dekha. inhen dekhte hi wo kood kar khaDa ho gaya tha. uske chehre par sharm ki lali phail gai aur wo pila paD gaya.
stri ne muskurakar use dekhte hue pyari si gudgudati avaz mein kaha, naib ne mujhe abhi abhi batlaya ki tumhein ghar ki bahut yaad aa rahi hai. ’
‘haanऽऽऽ’ kahte laDke ne abhar prakat karti ankhon se naib ko dekh man hi man unki samajhdari ke liye dhanyavad diya.
‘chinta kyon karte ho,’ stri ne phusaphusakar kuch us andaj mein kaha jisse baDon se baat ki jati hai aur wo bhi antrik kshnon mein, ‘yahan to tum aram raho. sabhi to tumhein yahan pyaar karte hain, hai na mi० naib?’
‘haanऽऽ’ naib ne phusaphusakar kaha aur khiDki ke bahar dekha.
ab jaldi se apne ko durust kar lo, chalo chalo, jaldi karo, kah uske balon mein ungliyan chala unhen sahlaya aur uske sir ko apni chhati se sata liya. laDke ne ankhen bandkar li aur yuvati ki bhari chhatiyon mein sir zor se daba liya. uski harkat bachpane se bhari thi, lekin uske honth jal rahe the aur wo hansna aur rona chahta tha—stri ke othon ko chumna chahta tha, uske sir ko apne donon hathon mein le pyaar ki kamna ke saath un anubhvi ankhon se pyaar ya phir mrityu ki akanksha—jo prayah is aayu ke laDkon mein pai jati hai. jabki uska sir ek dushcharitr stri apne vakshasthal se mamta se bhar kar lagaye thi. —kamagni se jalti charitrahin stri hone ke phalasvarup laDke ke rakt mein jvaar uthne lage the udhar irvart mein do buDhi dehen raat ka bhojan karti halki si muskurahat ke saath kah rahi theen, ‘achchha ab hamara kurt is samay kya kar raha hoga?’
naib ne donon ki or muDkar halki si narazgi se kaha, ‘achchha ab bahut ho gaya—ab niche chalo khane ki tebil par. ’
yuvati ne laDke ke sir ko apni girapht se chhoD diya. laDke ke baal bikhar ge the. usne muskurate hue kanpti avaz mein kaha, ‘aaj raat to main niche nahin jaunga, unse kah dena meri tabiyat theek nahin hain—un. . . hoon. . . main niche qatii nahin jaunga—meri ankhen ro rokar laal ho gai hai. . . ’
naib aur stri niche chale aaye. kurt ne unke jate hi koch par let apni ankhen kar leen. band ankhon se ansu bahne lage the. usne man hi man nishchay kiya ki wo borDing haus mein aath das varsh tak rahega aur tab shayad stri uski ho jayegi. bhala ab use marne ki avashyakta hi kya hai, jabki usne uski bhari chhatiyon ko chupchap choom hi liya hai. niche Daining room mein sabhi shanti se bhojan karte rahe, uske baad sabhi rahne vale apne apne kamron mein chale ge—keval naib aur stri vahan baithe the. (unke liye bhojan alag se rakh diya
gaya tha)—phir ve bhi uth khaDe hue.
naib ne stri ko dekha—is pal wo uub mahsus nahin kar raha tha. ve Draing room mein chale ge the, vahan koi bhi na tha. ek lambe samay tak ve khamosh baithe rahe, stri chamakte galon ke saath rahasyamay Dhang se muskurati samne dekhe ja rahi thi aur naib sigret ke kash leta maun baitha raha. Daining haal mein jane ke pahile usne bhojan ke baad thiyetar jane ka nishchay kiya tha, lekin filhal uska irada kahin bhi jane ka na tha. usne sigret ka antim kash chhoDte stri ko dekha. stri ne nazren milte hi usse parashn kiya, ‘kahin laDka svayan ko nuksan nahin pahuncha le!’
‘nahin’ naib ne kah sigret phenki aur stri ke paas ja uske mathe par bikhri laton ko haule se alag karte uski ankhon mein jhanka.
stri ne shanti se kaha, ‘tumhare vichar se kya wo svayan ko nuksan pahuncha sakta hai?’
‘nahin,’ kahte naib ne uske munh ko choom liya. stri ne khaDe ho naib ke sir ko apne chehre se laga phusphusa kar kaha—’aisa laDka. . . aisa. . . laDka. ’
‘nahinऽऽ nahin,’ rusi ne use ashvast karte kaha, ‘yah ho hi nahin sakta, rassi to yahin meri jeb mein hai, ’ kah usne rassi nikal use dikhai aur phir ve donon hansne lage. stri ki ankhen adhmundi ho rahi theen. phir ve ek dusre ko banhon mein ghere Draing room se bahar aa ge. dahliz par pahunch ve ruk ge, kyonki naib ne abhi apna lamba chumban samapt nahin kiya tha.
‘veऽऽ hamein dekh lenge,’ stri ne phusaphusakar kaha, ‘yahan to mat chumo mujhe,’ kahti wo chhutkar aage chali gai. naib ne haath mein li rassi zor se farsh par phenki aur uske pichhe chal diya.
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।