सामने से जो महिला आ रही है वह इतनी ख़ूबसूरत है कि याद रखने लायक है। इस महिला के साथ जो पुरुष है, वह मेरी ही उम्र का होगा।
उस सड़क के किनारे किनारे इतने अच्छे अच्छे फूलों के पेड़-पौधे हैं कि मैं उनके नाम भी नहीं जानता हूँ। सामने से आ रही महिला फूलों के पेड़ के पास खड़ी हो गई है और उसे फूल चाहिए। साथी पुरुष उसे समझा रहा है कि नीचे पड़ा फूल ले लो। वह ताजा और तुरंत का तोड़ा हुआ फूल चाहती है। बासी और कुचला हुआ नहीं। पुरुष उसे तर्कों से ढाँप देता है और महिला मसोस कर नीचे पड़ा फूल ले लेती है।
मुझे हँसी आ रही है, वह भी इतनी जोर से कि मुझे अपना चेहरा दूसरी तरफ घुमाना पड़ेगा। पहले हँस लूँ। आप ही बताइए, अगर कहीं मेरी भी कोई प्रेमिका होती; जबकि मेरी एक सात साल की बिटिया भी है, और वह ऐसी ही कोई जिद करती, तो मैं खूब ऊँचे पेड़ की सबसे ऊँची टहनी से लगा फूल तोड़ कर ला देता। वह भी एक नहीं दो दो। और दो भी क्यों, ये फूल इतने सुंदर हैं कि अगर कोई मेरी प्रेमिका बनती है तो उसे, जरूर ऐसे सैकड़ों फूल चाहिए होंगे। उससे क्या, मैं सैकड़ों फूल ले आऊँगा।
मैं क्या नहीं कर सकता हूँ? फल तोड़ना, या शायद मैं अभी फूल तोड़ने की बात कर रहा था, तो फिर भी एक आसान सा दिखता काम है, कल ही की बात है, चंदू भाई ने बताया कि लखनऊ में आसानी से काम बँट रहा था। काम जरा कठिन था।
दरअसल, कल शताब्दी एक्सप्रेस का लखनऊ से दिल्ली पहुँचना निहायत जरूरी था। उस गाड़ी में राज्य के सर्वेसर्वा अपनी प्रेमिका के साथ बैठे थे। सर्वेसर्वा लगभग बूढे थे, प्रेमिका लगभग जवान थी और प्रेमिका की नाक के दाहिनी कोर पर एक फुंसी उग आई थी जिसके इलाज के लिए ये लोग दिल्ली जा रहे थे।
पर हुआ यह कि शताब्दी के प्लेटफार्म छोड़ने के पहले ही उसके इंजन की हेडलाइट फूट गई। तुर्रा यह कि प्रेमिका ने उसमें साजिश भाँप ली, कहा कि इसी गाड़ी और इसी इंजन से जाएँगे और मुँह फुला कर बैठ गई।
शताब्दी एक्सप्रेस की फूटी हेडलाइट तथा प्रेमिका की जिद को देखते हुए सरकार ने आनन फानन में एक भर्ती खोल दी। उसमें उम्र की कोई सीमा नहीं थी। बस आप दौड़ने वाले हों। काम बस इतना ही था कि माथे पर गैस बत्ती लेकर शताब्दी एक्सप्रेस के आगे आगे दौड़ना था। सभी दौड़ने वालों को दस हजार प्रति मिनट मिलता। दस हजार प्रति मिनट!
हजारों लोगों की भीड़ लग गई थी। अपने कंपार्टमेंट से देखते हुए सर्वेसर्वा की प्रेमिका नाक की फुंसी के दर्द के बावजूद उछल पड़ी थी। प्रेमिका ने ‘जवान लोगों को दौड़ते हुए देखना कितना अच्छा लगेगा’ कहा था और सर्वेसर्वा की तरफ हिकारत से देख कर मुँह फेर लिया था।
मैं भी अगर लखनऊ रहा होता और अगर दो मिनट भी दौड़ लेता तो बीस हजार रुपए। बाप रे! बीस हजार रुपए! पाँच-छह साल का ख़र्च तो निकल ही आता। और अगर एक हाथ या पाँव के कट जाने की कीमत पर अगला आधा मिनट भी दौड़ लेता तो पाँच हजार ऊपर से। अगे मा गो! हे भगवान ये मैं क्या सोच रहा हूँ। पच्चीस हज़ार! वह भी एक साथ! आप खड़े-खड़े देख क्या रहे हैं, मुझे इतना ज़्यादा सोचने से रोकते क्यों नहीं? मेरे भाई, मेरे बंधु मेरी सोच को वापस खींचिए। उसे दौड़ा कर पकड़ लीजिए। मैं आपका आभारी रहूँगा। हमेशा हमेशा के लिए।
तो देखा, मैं क्या क्या कर सकता हूँ? फूल तोड़ सकता हूँ; जबकि मेरी पत्नी है और सात साल की बेटी भी। रेलगाड़ी के आगे दौड़ सकता हूँ बस एक मौका तो मिले।
हालाँकि पुलिस वालों की हालत देख कर यह कहते हुए डर लगता है, पर अगर मुझे पुलिस की नौकरी में लगा दें, तो मैं दंगों पर, अपराधियों पर काबू पा लूँगा। समाज सुधार की बाबत यही कहूँगा कि मुझे समाज कल्याण अधिकारी बना कर देख लीजिए।
और मैं कहता हूँ दंगे या अपराध की नौबत ही क्यों आए, बस मुझे क्षेत्र विशेष में दंगे या अपराध से बचने के लिए किसी बड़े महाविद्यालय में शिक्षक नियुक्त कर दीजिए- ईमानदारी, कर्तव्यनिष्ठा आदि अनादि का ऐसा पाठ पढ़ाऊँगा कि लोग दंगे और अपराध जैसे शब्द भी भूल जाएँगे। कोई मौका तो मिले।
फिलहाल मैं अपने गाँव से सटे कस्बे के एक निजी विद्यालय, माँ शारदे शिक्षा निकेतन में शिक्षक हूँ और; 275 (+5 ) रुपए प्रति माह की तनख़्वाह भी है। इस विद्यालय में मैं वही सब पढ़ाना चाहता हूँ जिससे कि अपराध और दंगे न हों। यहाँ मेरे पढ़ाने का एक फायदा यह भी है कि वहीं मेरी बेटी शालू पढ़ती है और उसकी फीस नहीं देनी पड़ती है।
मेरी बेटी शालू, अभी सात साल की है और कक्षा चार में पढ़ती है। जब वह बात करती है तो मन खुश हो जाता है। उसकी बातों से सारा बोझ, सारी थकान उतर जाती है। मेरी पत्नी तो बड़े प्यार वाली फटकार से कहती है- ‘बस दिमाग थोड़ा तेज़ है, और कुछ खास नहीं।’ मेरे पिताजी की तो जान शालू में बसती है। माँ की भी जान। पिताजी के पैरों में चौबीसों घंटे रहने वाला भयानक दर्द नहीं होता तो पिताजी, हो सकता है शालू के साथ विद्यालय भी आते जाते। बाकी समय शालू माँ और पिताजी के साथ ही रहती है।
मैं समझता हूँ।
शालू उन्हें मेरे छोटे भाई गुलशन का आभास कराती है। मुझे भी उतनी ही सुंदर, उछलकूद में भी वही बचपन वाले गुलशन जैसी और पढ़ाई में भी उतनी ही तेज लगती है।
शालू की पढ़ाई का आलम यह है कि हर साल उसे एक क्लास फँदाना पडता है। संबंधित शिक्षक बताते हैं- कि पूरी किताब ही रट जाती है- कि मुझे शालू को किसी बड़े शहर के बड़े स्कूल में प्रवेश दिला देना चाहिए- कि शालू बड़ी होकर खूब नाम करेगी। सोचिए जरा, इन बातों मुझे कितनी खुशी होती होगी?
मुझे भी लगता है कि मेरे भाई गुलशन की देखने-सुनने की क्षमता के असामयिक लोप से उपजी सारी असफलताओं से जो कुछ भी सपनों सरीखा हममें छूट गया था, वह मेरी बिटिया रानी पलक झपकते ही पूरा कर देगी।
सपने भी सभी तो रहे नहीं, दवाओं के एक्सपायरी डेट की तरह सपनों की भी उम्र होती होगी। जैसे उन दिनों मेरी छोटी बहन सीमा का सिरदर्द। उसका सिर वीभत्स तरीके से फूल जाया करता था। भीषण दर्द की वजह से उसके सिर की नसें सूज जाती थीं। चेहरा विकृत हो जाया करता था। सीमा अपने माथे को प्लास्टिक की मोटी रस्सी से ख़ूब कस कर बाँध लेती थी। रह रह कर उठती उसकी चीख से दीवारें, जैसे डोलने लगती थीं।
अपने तईं हमने बहन का बहुत इलाज कराया। कोई पागलपन की दवा देता था, कोई नींद की और कोई पेट की दवा देता था। एक आख़िरी इलाज हम लोगों के पास था- भाई की नौकरी, जो हमारे सपनों की दुकान बनने वाली थी।
बहन के बाद वह सपना भी समाप्त हो गया। हाँ, ये जरूर है कि बाकी सपने जस के तस हैं। पिता जी की बीमारी, माँ की बीमारी, दो तीन कमरों का कोई घर बने जिसमें बारिश का पानी भीतर न गिरे, दो जून का बढ़िया खाना- और भी ढेर सारे सपने। इतने सपनों के बीच शालू का पढ़ाई लिखाई में इतना तेज़ होना।
और तो और, अंधा और लगभग बहरा मेरा भाई गुलशन जो चुपचाप घर के बाहर की झोंपड़ी में बैठा रहता है, वह यह जान कर कितना ख़ुश होगा कि शालू बिल्कुल उस पर गई है, सुंदर, उद्दंड (चंचल कह सकते हैं) और तेज़। सच तो यह भी है कि शालू कितनी भी बुद्धिमान क्यों न हो जाए, गुलशन को लाँघ पाना उसके लिए थोड़ा कठिन होगा। एक समय वह भी था, जब गुलशन ने इंटरमीडिएट की परीक्षा में समूचे शहर में पहला स्थान प्राप्त किया था।
मेरी बेटी ने एक दिन मुझे एक पर्चा थमाया, बताया कि कक्षा में सभी को मिला था और इस पर्चे को भरना है, जो सबसे सटीक उत्तर भरेगा उसे ट्रॉफ़ी और सर्टिफ़िकेट मिलना था। पर्चा मुझे याद रह गया :-
आतंकवाद : देश का अभिशाप
(जागरुक देशभक्तों के लिए कुछ यक्षप्रश्न)
1. आतंकवाद क्या है?
उत्तर :-
2. आतंकवाद से राष्ट्र को क्या नुकसान है?
उत्तर :-
3. आतंकवादियों की पहचान क्या है?
उत्तर :-
4. अगर कहीं आतंकवादियों से सामना हो जाए, तो आप क्या करेंगे?
उत्तर :-
(हस्ताक्षर)
सहयोग राशि : दो रुपए मात्र।
अध्यक्ष,संग्राम सेना
वह पर्चा मैंने शालू को वापस थमा दिया। उससे पूछा कि यह पर्चा उसे किसने दिया था और यह भी कहा कि कल प्रधानाचार्य महोदय से बात करूँगा। पता नहीं, शालू ने क्या समझा और क्या नहीं, पर कुछ देर बाद वह अपने दादाजी से उसे भरने की ज़िद कर रही थी। पिताजी ने उस पर्चे को नहीं फाड़ा होगा तो सिर्फ इसलिए कि वह पर्चा शालू का था।
आतंकवाद। इस शब्द की सवारी गाँठ कर मैं अपनी बेटी से अलग होता हूँ और उस पलानी में पहुँचता हूँ जहाँ मेरा भाई बरसों से अकेला है। लगभग बहरा और पूरी तरह अंधा मेरा भाई अपने चेहरे को इस ऊँचाई से उठाए हुए है जैसे सामने खड़े किसी व्यक्ति से मुख़ातिब हो, और उस पर उसका लगातार मुस्कराना। पलानी में नीम-अँधेरा है। भाई कुछ टटोल रहा है, शायद माचिस की तीली, अब कान खोदेगा।
मेरे भाई गुलशन के चेहरे पर सात-आठ वर्षों पहले की वह गली उभरती है। व्यस्त सड़क से बहुत तीखा मोड़। सॅंकरी गली। मुर्गे-मुर्गियों की भाग-दौड़। नालियों में बैठे बत्तख। भिनभिनाहट सा शोर। बर्तनों के गिरने की आवाज़ घरों के बाहर तक ही पहुँच रहे थे। सरकारी नलों के पास बैठे लोग। नहाते, कुल्ला करते, कपड़ा फींचते लोगों के बीच राजनीतिक चर्चा का घमासान। सुबह की घूप। अक्षयवर चाचा का रिक्शा गली पार कर रहा है कि बहुत ज़ोरों की आवाज़ होती है।
भाई के चेहरे से वो गली गायब हो जाती है। मुझे हॅंसी आ रही है।
मुझे सब याद है।
जब वह बहुत तेज़ वाली आवाज़ हुई थी, तो गली के लोगों की भीड़ रिक्शे की तरफ दौड़ पड़ी थी। उसमें मैं भी था। हम लोग दौड़ पडे थे, हॅंस रहे थे और आतंकवाद के ख़िलाफ़ नारे लगा रहे थे।
अक्षयवर चाचा के रिक्शे का अगला टायर बोल गया था। यह आवाज वहीं से आई थी। हम सब ने भी महज़ तफ़रीह के लिए उन्हें घेर लिया था। वरना तो, वो हमारी ही गली में रहते थे। बाद में हमने लाख समझाया कि ये सब मज़ाक था, पर अक्षरवर चाचा डर गए थे।
दिक़्क़त तब हुई थी जब शोर सुन कर गली के तुरंत बाहर मुख्य सड़क के चौराहे पर वाहनों से वसूली के लिए चौबीसों घंटे तैनात रहने वाले पुलिस के लोग भी गली में आ गए थे। हम सबने पुलिस के लोगों को समझाया और वह मान भी गए पर जाते जाते उन लोगों ने रिक्शे में सीट हटा कर देखा, रिक्शे के नीचे देखा, कहीं बम तो नहीं है, हिदायत दी- टायर ट्यूब सही रखो नहीं तो डाल दिए जाओगे। हम सबको भी डंडा दिखाया- ज़्यादा जवानी चढ़ गई है क्या?
इस घटना के होने तक हमारे शहर में नए एस.पी. का आना नहीं हुआ था, इस तरह वह नियम तो दूर-दूर तक लोगों के ख़्वाबों में भी नहीं था, जो एस.पी. ने शहर में आने के बाद अपराध और आतंकवाद कम करने के लिए लगाया था जिसमें हरेक पुलिसकर्मी को रोज एक अपराधी पकड़ना होता था।
अक्षयवर चाचा वाली घटना से डरे तो हम भी थे पर अक्षयवर चाचा से कम ही डरे थे। फिर भी हमारे बीच आतंकवाद का मजाक, आतंकवाद की गाली, आतंकवाद का खेल सब चलता रहता था। हम दोस्तों को ‘साला’ बाद मे ‘आतकंवादी कहीं का’ पहले कहा करते थे। उन दिनों देश का माहौल ही कुछ ऐसा था। समाचारपत्र, पत्रिकाएँ, टेलीविजन, शासन का बहाना सब कुछ आतंकवाद से शुरू होकर आतंकवाद पर ही समाप्त होता था।
गाँव चले आने के कारण इन दिनों के हालात के बारे में हमें विशेष जानकारी नहीं हैं। दरअसल उन्हीं दिनों एक साथ कुछ ऐसी बातें हो गई थीं कि हम गाँव चले आए थे। पिताजी की सिनेमाहाल वाली दरबानी छूट गई थी। मेरे ट्यूशन भी पर्याप्त नहीं थे, माँ का दूसरे घरों में बर्तन पोछे का काम भी ठीक नहीं चल रहा था। फिर भी भाई की पढ़ाई अगर जारी रही होती तो हम कुछ भी कर-धर के शहर से चिपके रहे होते।
उन्नीस सौ अस्सी में जन्मा मेरा भाई मुझसे पाँच साल और पिताजी से पूरे पूरे तैंतीस साल छोटा है। पच्चीस की उमर में ही वह पिछले सात आठ सालों से लगातार बैठा हुआ है और न जाने कितने सालों तक ऐसे ही बैठा रहेगा। इतनी कम उम्र में भी उसे कुछ सुनाने के लिए उसके कान को अपनी दोनों हथेलियों की गोलाई में समेट कर और हथेलियों की उस गोलाई में मुँह घुसा कर ख़ूब तेज़-तेज़ चिल्लाना पड़ेगा, तब जाकर वह कहीं कुछ सुन पाएगा। देख तो, खैर, वह बिलकुल भी नहीं पाता है।
जिन दिनों गुलशन ऐसी हालत में पहुँचा था, उन दिनों हम सोचते थे कि जो कुछ भी महत्वपूर्ण घट रहा हो, उसे गुलशन को बताया जाना चाहिए। क्रिकेट की ख़बरें, फ़िल्मों की बातें, विशेष तौर पर शाहरूख ख़ान की फिल्मों की कहानियाँ हम उसके कान में चिल्ला-चिल्ला कर बताते थे। पर धीरे-धीरे हमारा उसकी इतनी सघनता से देखभाल करना कम होता गया।
हमारे पास न तो इतनी ऊर्जा है और न ही उसकी कोई ज़रूरत कि गुलशन के कान में चिल्ला कर सब कुछ बताएँ। यह काम अब मनबहलाव के लिए गाँव के बच्चे करते हैं या फिर कोई ख़ुशख़बरी सुनानी हो तो शालू यह काम करती है।
अकेले पलानी में पड़े-पड़े गुलशन को जब भी कोई ज़रूरत हुई तो एक बार जोर से मुझे, शालू को, या माँ को पुकार लेगा। तब जिस किसी के पास फ़ुर्सत हुई वह उसके पास आ जाएगा, वरना गुलशन को लंबा इंतिज़ार करना पड़ सकता है। हमेशा मुस्कराते रहने का उसने शगल पाल लिया है।
जब गुलशन के खाने का समय होता है तब भी वह मुस्कराता ही रहता है। पहले जो होता रहा हो, पर अब हम उसके हाथ धुला कर उसकी कोई उँगली खाने में डुबो देते हैं, वह खाने लगता है। तकलीफ़ तब होती है, जब उसे चाय, गर्म दूध; कभी कभार या कोई गर्म खाना देना होता है।
अपनी तरफ़ से हम भरपूर कोशिश करते हैं कि चाय या गर्म खाना गुलशन के शरीर के किसी कठोरतम हिस्से से छुलाएँ ताकि उसे न के बराबर तकलीफ़ हो। पर होता यह है कि जब हम उसे चाय छुलाते हैं तो मुस्कराते हुए ही वह बुरी तरह काँप जाता है, दाँत पर दाँत चढ़ा कर आँखें और मुठ्ठियाँ भींच लेता है। उसका चेहरा विकृत हो जाता है; मुस्कराता रहता है।
या फिर अगर कोई आकर गुलशन की बाईं बाँह छू ले तो गुलशन, अपने अनुमान से उसी तरह अपना सिर इतना ऊपर उठाता है जितनी एक व्यक्ति की लंबाई हो सकती है। अगर वह बाईं बाँह छूने वाला आदमी भाग कर दाईं तरफ आ जाए तो भी गुलशन अपने को पूरी तरह चैतन्य दिखाने की कोशिश में बाईं तरफ ही सर उठाए, हाथ मिलाने के लिए दाहिना हाथ उठाता है, तमाम प्रश्न पूछने लगता है, कैसे हैं, क्या हो रहा है, क्रिकेट मैच हो रहा है या नहीं- या फिर- (कभी कभी) मुझे पेशाब करना है। गुलशन यह जताने की कोशिश करता है कि वह सामने वाले को देख सकता है, सुन सकता है।
इस बात पर दूसरों की जो हालत होती है, वह तो होती ही है, वह भाई का मज़ाक उड़ाने वाला आदमी भी भाई की इस दशा पर उदास हो जाता है।
मेरा भाई, गुलशन, ऐसा नहीं था।
उन दिनों हम बनारस में रहा करते थे, जब मेरे भाई गुलशन को इंटरमीडिएट की परीक्षा में समूचे शहर में पहला स्थान प्राप्त हुआ था। फिर तो हमारे ख़्वाबों के पंख लग गए।
लंबा-चौड़ा मेरा भाई इतना सुंदर था कि रामाशीष चाचा की उस बात से सभी लोग पूरी तरह सहमत थे। रामाशीष चाचा का कहना था कि ऐसे खू़बसूरत नौजवान को सिर्फ सपनों में दिखना चाहिए। सपने ऐसे कि ये लड़का घोड़े पर चढा हो, उस सपने में एक तरफ समुद्र और दूसरी तरफ पहाड़ होने चाहिए, घोड़े पर भागता हुआ ये लड़का आपसे ही मिलने आ रहा हो।
गुलशन चेहरे मोहरे में पूरी तरह माँ पर गया था। इसीलिए हमें शुरू से पता था कि वह बेहद भाग्यशाली होगा। मेरे घर तथा पड़ोस में इस नियम को बेहद उत्साह से देखा जाता है, जिसमें अगर बेटे का चेहरा माँ से और बेटी का चेहरा पिता से मिले तो ऐसे बेटे बेटियाँ भाग्यशाली होते हैं। इस लिहाज से बहन को भी भाग्यशाली होना था। मैं जरूर भाग्यशाली नहीं था और छब्बीस-सत्ताईस की उम्र में दो दो सौ के पाँच और तीन सौ का एक, कुल छह ट्यूशन पढ़ा रहा था।
इंटरमीडिएट में इतने बढ़िया के बाद हमारी, मेरी और पिताजी की, दिली तमन्ना थी कि गुलशन देश के सबसे अच्छे इंजीनियरिंग कॉलेज से इंजीनियरिंग की पढ़ाई करे। फिर वह चाहे तो कलक्टरी कर ले या फिर वह सलीके से दलाली वाला काम, मैं उस काम की विशेष संज्ञा भूल रहा हूँ, वही जिसमें खूब मोटी तनख़्वाह होती है, मुनीमी जैसा काम है वो, भाई, जिसमें रातों दिन लोगों को ज्यादा लूटने की योजनाएँ बनाई जाती हैं।
भाई को लेकर जो हमारी सबसे क्रूर ख़्वाहिश थी, वह अमीर बन जाने की थी। गुलशन की नौकरी को लेकर हम दस रुपए तक ही सोच पाते थे। दस हज़ार रुपए के पार की तनख़्वाह तक जैसे ही हमारी बात पहुँचती (मेरी, पिताजी, सीमा, माँ)- तो मेरे पेट में कैसी तो हुदहुदी मच जाती थी, मैं उत्तेजित हो जाता, मेरे हाथ पैर काँपने लगते थे। हम सभी की हालत कमोबेश ऐसी ही होती।
सबसे होशियार क्षणों में भी जब हम सब दस हज़ार और उससे ज़्यादा रुपयों के बारे में सोचते तो यही सोचते कि हम लोग इतने रुपए का आख़िर करेंगे क्या?
ऐसी बातों के दरमियान भाई के सामने आते ही हम सभी बातचीत समेट लेते थे। हममें से कोई गुलशन की तरफ़ मुस्कराते हुए देखता। पिताजी और माँ की मुस्कान हम भाई बहन की मुस्कान से जरा अलग होती थी- नर्म। एक साथ हम सभी गुलशन को यह एहसास दिलाना चाहते थे कि, देखो, तुम हमारे लिए क्या हो?
हमारी क्रूर ख़्वाहिश के अलावा अन्य ख़्वाहिशों में पिताजी के पैरों में अनवरत रहने वाले उस दर्द का इलाज कराना था, जिस दर्द को हम टटाना कहते थे।
पंद्रह-सोलह साल पहले हम गाँव से आए थे, तभी से पिता जी सरस्वती सिनेमा (लक्सा रोड पर है) की दरबानी कर रहे थे। पिताजी के पैरों की पिंडलियों का वह दर्द सरस्वती सिनेमा की दरबानी में लगातार खड़े रहने से उपजा था। जितने समय पिताजी घर पर रहते, भाई को पैरों पर चढ़ाए रहते थे। कई बार पूछने पर बताया था कि दर्द हमेशा रहने लगा है, चलने के क्रम में दर्द इतना बढ़ जाता है कि आगे घिसट पाते हैं, लगता है कि पैर अररा कर कट जाएँगे।
मैं सुनता रहा था।
ठीक ऐसा ही बहन दर्द को लेकर भी था, जिसके बारे में शायद, अभी तक मैं बता नहीं पाया, तमाम दवाइयों, प्लास्टिक की रस्सी से सिर बाँधना, चीख। होता ये था कि हमारी बातचीत अगर हँसी की पराकाष्ठा पर पहुँचती तो अचानक मेरी बहन हँसते-हँसते सिर पकड़ लेती थी। उसके ऐसा करते ही हमारा दिल बैठने लगता था। हम जान जाते थे कि अब बहुत पैसा होगा।
हम सभी शाश्वत बीमार थे। ऐसा इसलिए क्योंकि हमें लग रहा था कि, हमें अपने सुख, दुख, तीज, त्योहार को तब तक के लिए टाल देना था जब तक गुलशन किसी नौकरी में न आ जाए। पिताजी के पंद्रह सौ और मेरे तेरह सौ में से घर ख़र्च हटा कर बाकी बचा पूरा पैसा गुलशन पर निवेश हो रहा था। अब तो हम त्योहारों की तिथियाँ तक ध्यान में नहीं रख पाते थे और इससे माँ को बहुत परेशानी होती थी, माँ का कोई न कोई व्रत हमेशा छूट जाया करता था।
सब कुछ ‘बस सपनें पूरे होने वालें हैं’, जैसा चल रहा था।
हमारी भावी एंव भव्य योजनाओं पर भाई ने यह कह कर पानी फेरने की कोशिश की थी, मुझे याद है, कि वह तो बिना इंजीनियरिंग की पढ़ाई किए भी अच्छी नौकरी पा लेगा। भाई के इस उद्दंड उवाच से मैं सकपका गया था। मुझे लगा कि, कहीं मेरे उद्दंड भाई के दिल में कोई मासूम कोना तो नहीं उभर आया था, या कि ये कौन सी ख़ुराफ़ात थी?
मुझे लगा था कि कहीं वह अपने खेलते-कूदते रहने की योजनाओं को विस्तार तो नहीं दे रहा था क्योंकि जितना कम समय अब तक वो पढ़ाई पर देता आया था उतने में तो प्रथम श्रेणी भी लाना मुश्किल हो जाता, शहर में प्रथम स्थान पाना तो फिर भी एक बात है।
क्रिकेट और फ़िल्मों के बेतरह शौक़ीन मेरे भाई को जब पढ़ना होता तो उसी एक कमरे में दीवाल की तरफ़ मुँह करके पढ़ने बैठ जाता। वही एक कमरा था जिसमें हम सभी रहते थे, साथ में बाथरूम भी था। गुलशन के पढ़ने के दौरान लाख हो-हल्ला हो वह पीछे घूम कर देखता भी नहीं था। लेकिन जब पढ़ाई खत्म कर लेता तो सारा घर सर पर उठा लेता था। फ़िल्मों की बातचीत, क्रिकेट, गाँव जाने की बातचीत।
अपनी योजनाओं के प्रति गुलशन के निशेधात्मक भाव को लेकर चिंतित हम लोगों ने एक दिन गुलशन को हड़काया। पिताजी तो चुप ही थे, मैं बोले जा रहा था। मैं गुलशन को दुनिया जहान की बेमतलब की बातें समझाता रहा था।
पर भाई ने यह कह कर मुझे चारों खाने चित्त कर दिया था कि वह इंजीनियरिंग वगैरह सिर्फ़ इसलिए नहीं करना चाहता है क्योंकि वह घर की हालत देख रहा है। नौकरी तो कुछ भी पढ़ के पाई जा सकती है। वरना जो आप लोगों की मर्ज़ी।
‘घर की हालत देख रहा हूँ’ वाली बात मुझे अच्छी नहीं लगी थी। मैंने गुलशन को बताया कि पढ़ाई के लिए बैंक लोन देगा। या फिर खु़दा न खास्ते मेरी ही नौकरी लग गई तो। ये ज़रूर था कि नौकरी के नाम पर अब मुझे उन सपनों के अंश दिखाई देने लगे थे जिसमें मैं रेलगाड़ी के आगे गैसबत्ती लिए दौड़ रहा हूँ। उन दिनों तक मुझे इस सपने में सिर्फ़ गैस बत्ती दौड़ती हुई दिख रही थी, मैं नहीं। मैं गुलशन को बताना चाहता था कि ‘कुछ भी’ पढ़ कर नौकरी पाना मुश्किल है।
मैंने गुलशन से यह भी कहा था कि कहीं ऐसा तो नहीं कि वह आगे की कठिन पढ़ाई के नाम पर डर रहा है। इस बात पर गुलशन ने रुआँसा होकर मुझे देखा था। मुझे याद है, उसके देखने में ऐसा कुछ था कि ‘ये आप बोल रहें हैं, भईया।’
फिर तो हमारा गुलशन एकाएक बदल गया। कल तक एकदम कम पढ़ने वाला गुलशन, अगले ही दिन से किताबों में डूब गया था। वह किताबों में डूबता जा रहा था, हम खुश होते जा रहे थे। भाई की पढ़ाई में खू़ब पैसा लगेगा, यह जानकर हम नए सिरे से नौकरियाँ तलाशने लगे थे। माँ ने फिर से बर्तन पोछा वाला काम शुरू कर दिया था। मैं और मेरी बहन प्राइवेट स्कूलों के चक्कर लगा रहे थे।
दिन भर हम भाई बहन मास्टरी ढूँढ़ते और रात में नींद आते ही शहर के सबसे अच्छे स्कूल में पढ़ाने चले जाते। मैं प्रिंसिपल हो जाया करता था। बहन भी मेरी ही गाड़ी से लौटती थी। लौटते हुए हम कोई ख़रीदारी करते या मन हुआ तो कभी फ़िल्में भी देख लेते थे। दिक्कत सिर्फ तनख़्वाह की थी। नींद खुलने के तुरंत पहले हमें तनख़्वाह मिलनी थी पर असावधनीवश या जाने क्यों हमेशा तनख़्वाह में मिले नोटों के बंडल नींद में ही छूट जाते थे। एक बार तो मैंने खूब कस कर नोटों को पकड़ लिया था और पूरी तैयारी में था कि एक छलाँग लगाता और नींद से उछल कर बाहर पहुँच जाता, लेकिन- दूसरी दिक़्क़त यह थी कि सुबह उठ कर चाय माँगने पर बहन इसलिए चाय देने से मना कर देती थी, कि रात में उससे अधिक तनख़्वाह मुझे मिली होती थी।
हम सबने- मैं, पिताजी, माँ, बहन- अपनी लगातार व्यस्तताओं के बावजूद गुलशन के पल पल का ख्याल रखना शुरू कर दिया था। पढ़ाई कठिन थी। उसके खाने पीने से लेकर नहाने धोने तक हम हमेशा तत्पर रहने लगे थे, ये तौलिया ले लो, आज सर्दी है- कम नहाना, क्या खाओगे- तमाम, तमाम। उसकी तरफ से कोई फ़रमाइश नहीं होती, इसलिए माँ लगातार उसके लिए सरसों की कढ़ी बनाने लगी थी।
उन दिनों हमें ये बराबर महसूस होता रहा था कि गुलशन का बोलना चालना एकदम न के बराबर रह गया है। बस, कभी कभी माँ से बोल लिया। खेलकूद, यार, दोस्त सब छूट गए थे। पर गुलशन के पढ़ते रहने को लेकर हमारी खु़शी इतनी ज़्यादा थी कि हम कुछ और देख कर भी नहीं देख पा रहे थे। हमारे बाहर, हमारे बीच में, हमारे भीतर कुछ ऐसा था जो निरंतर अपनी गति से घट रहा था, बस हमें उसकी ख़बर नहीं थी।
अपने भीतर कुछ अनजाना और कुछ बेतरतीब घटने की जब मुझे पहली बार पुष्टि हुई, तब तक गुलशन को एक ही स्थान पर बैठ कर पढ़ते हुए ढाई तीन महीने बीत चुके थे। हम दोनों भाई बहन की प्राइवेट स्कूलों में मास्टरी की तलाश जारी थी। लेकिन जिस दिन की ये बात है, उस दिन हम घर पर ही थे, मुझे याद है।
उस दिन शायद पिताजी छुट्टी पर थे, या ड्यूटी से आ चुके थे, ये तो याद नहीं, पर बात यही हो रही थी कि कहीं से मोटा पैसा मिल जाता तो सीमा का इलाज जल्दी ही करा लिया जाता। हो सकता है उस वक्त सीमा को सिरदर्द से राहत नहीं होगी, तभी वो पिताजी की इस राय पर हल्के से मुस्कराई थी कि- ‘कहीं से मोटा पैसा मिल जाता...’ सीमा को मुस्कराते देख हमें बहुत खुशी हुई थी।
बीमार बहन को और ज्यादा खुश करने के लिए मैं पिताजी कि उस ‘कहीं से पैसा मिल जाता’ वाली ख्वाहिश से तमाम तरह के चुटकुले बनाने लगा था। मैं कह रहा था कि ‘काश छप्पर फट जाए - या फिर आँधी आए और कोई तिजोरी उड़ा लाए किसी का पैसा भरा बैग मिल जाए...’ मेरी बातों और कहने के अंदाज के असर से माँ और सीमा जोर जोर से हॅंस रही थीं और पिताजी सर झुकाए मुस्करा रहे थे।
अपने बेवकूफ़ाना चुटकुलों पर जब कनखियों से मैंने पिताजी को सर झुकाए मुस्कराते हुए देखा तो मेरा उत्साह बढ गया था, चुटकुले कहने की मेरी गति भी दोगुनी हो चुकी थी। मैं अनापशनाप कैसा भी चुटकुला सुनाए जा रहा था। माँ और सीमा का हँसना भी तेज से और तेज होता गया था। पिताजी का मुस्कराना भी।
मुझे याद है, उन लोगों के हॅंसने और मुस्कराने से मैं हद से ज्यादा उत्तेजित हो गया था पर उसी उत्तेजना में मुझे अचानक ख़्याल आया था कि अभी हॅंसते-हॅंसते बहन के सिर का दर्द बढे़गा और वह अपना सर पकड़ लेगी। तब हम सब चुप और उदास हो जाते। इस ख़्याल से डर कर मैं बहन की तरफ़ देखने लगा था पर भीतर की न जाने किस भावना से मैं प्रेरित हो गया था कि चाह कर भी अपनी बातें और चुटकुले कहना रोक नहीं पा रहा था कि तभी माँ ने हँसना बंद कर दिया था। उसने हमें भी इशारे से चुप हो जाने के लिए कहा था। फिर इशारे से ही माँ ने गुलशन की तरफ़ ध्यान दिलाया था-‘वह पढ़ रहा है न!’
अब भी मुझे घनघोर आश्चर्य होता है। उस दिन भी हम आश्चर्यचकित होकर रह गए थे कि यहीं चार पाँच हाथ की दूरी पर बैठे गुलशन को हम आख़िर भूल कैसे गए थे। कम से कम मुझे तो इसकी रत्ती भर ख़्याल भी नहीं रहा था कि गुलशन उस कमरे में मौजूद भी है।
और फिर अपने भाई को ही भूल जाने की अनहोनी से भयभीत होकर जब मैंने घूम कर पीछे के दिनों में झाँका तो देखा की हम बहुत पहले से ही गुलशन को भूलते जाने की प्रक्रिया में शामिल हो चुके थे।
पिछले दिनों में लौटते हुए जब मैं इस वर्ष के दशहरे के एक दिन पहले वाली रात में झाँकता हूँ तो पाता हूँ कि माँ, मैं और पिताजी बिस्तर पर जा चुके हैं और बहन सोने से पहले बत्ती बुझा कर अपने बिस्तर पर चली आती है कि कुछ क्षणों बाद अचानक बत्ती जल उठती है।
बत्ती जलते ही हम सभी उठ कर बैठ गए थे। अफ़सोस से घिरे हम लोग बस इतना ही कह पाए थे- ज़रा भी ध्यान नहीं दिए, बाबू। गुलशन बिना कुछ कहे चुपचाप पढ़ने बैठ गया था।
बोलना चालना तो गुलशन ने तभी से बंद कर दिया था जिस दिन से हमने उसे इंजीनियरिंग कॉलेजों की प्रवेश परीक्षाओं की तैयारी में लगा दिया था। हो सकता है ज़रूरी क्रियाकलापों के अलावा बाकी समय सिर्फ़ पढ़ाई लिखाई पर देने से उसे कुछ अन्य सोचने की फ़ुर्सत भी नही रही होगी। या फिर बहुत संभव है यह भी हुआ हो कि हमारे सपने, हमारी उम्मीदें उसके कहीं गहरे जाकर धंस गई हों। उन दिनों गुलशन कुछ बोला भी होगा तो छठें छमासे ही, वह भी सिर्फ माँ से ही बोला होगा।
हम, हम सभी, ठीक ठीक यह निर्णय करने की स्थिति में कभी नहीं रहे कि यह भूलना, आख़िरकार, किसकी तरफ़ से हो रहा था। गुलशन हमें भूल रहा था या हम गुलशन को भूल रहे थे।
खाने को ही लें, उन दिनों जब कभी माँ गुलशन से कुछ दुबारा परोसने के लिए पूछती तो वह या तो सर नहीं डुलाता, या कभी ‘हाँ’ में डुलाता कभी ‘नहीं’ में डुलाता। पर इसका यह मतलब कतई नहीं होता था कि अगर वो ‘हाँ’ में सर डुलाता तो उसे कुछ चाहिए ही चाहिए या फिर वो ‘ना’ में सर डुलाता तो उसे कुछ भी नहीं चाहिए होता था। वह गायब भी नहीं होता था। दरअसल सर नहीं डुलाते हुए, सर ‘हाँ’ में डुलाते हुए, या सर ‘न’ में डुलाते हुए गुलशन माँ से नहीं, अपने भीतर के किसी प्रश्न से मुख़ातिब रहा करता होगा।
हम इस बात को बहुत बाद में समझे थे। माँ ने उस दिन छठ का परना (पूर्णाहुति) किया था और हमें खाने में सब्जी और प्रसाद का ठेकुआ मिला था। माँ ने गुलशन से पूछा था - ठेकुआ और दें? गुलशन ने ‘हाँ’ सर हिलाया था। पर माँ के ठेकुआ परोसते ही गुलशन ने माँ की तरफ देखते हुए कहा था- ‘अरे’! (उसने हमारी तरफ देखना तो कब का बंद कर दिया था, हम सोचते थे ऐसा उसकी पढ़ाई की वजह से है।) ‘अरे’ कहने के बाद, मुझे याद है, उसने सिर नीचे कर के ‘च्च’ कहा था।
यह तो उसकी, हमें भूलते जाने की प्रक्रिया थी। मेरे पास कारण तो कई आए पर मैं स्वयं भी कभी नहीं समझ पाया- ऐसा क्यों हो रहा था? कैसे हो रहा था?
जैसे, कई शामों को ऐसा हुआ कि हम या तो छत पर चले जाते, बाँस की सीढ़ी से छत पर जाने में हमेशा फिसलने का डर बना रहता था, या कभी कभार बाजार भी चले जाते। और घर में ताला लगा देते थे। वापस आकर बेतरह शर्मशार होते। गुलशन यहीं, इसी कमरे में पढ़ रहा होता था।
गुलशन को भूलते जाने की बीमारी अगर सिर्फ़ मुझे होती, तो मैं कभी यह सोचने की कोशिश भी नहीं करता कि ऐसा क्यों हो रहा है। पर मैं देख रहा था कि हम सभी गुलशन को भूलते जा रहे थे। और तो और माँ भी। हमारी तकलीफ़ यह थी कि ऐसा हमसे अनायास ही होता जा रहा था। हम चाह कर भी कुछ नहीं कर पा रहे थे।
ऐसा भी नहीं था कि हम हर वक़्त गुलशन को भूले ही रहते थे। हमारी उम्मीदें उससे थीं। उससे भी बढ कर माँ पिताजी का सबसे दुलारा था मेरा भाई। मेरा सूर्य। बहन की तो जान गुलशन में बसती थी। हम हर वक्त उसका ख़्याल रखते पर न जाने किस वक्त उसे भूल जाते।
शुरू-शुरू में हम सबका गुलशन को भूलना अलग अलग और कभी कभी होता था। जैसे मैं गुलशन की उपस्थिति को भूलता तो कोई और उसकी याद दिला देता कि, वह देखो, वहाँ बैठा पढ़ रहा है। गुलशन इतना ज़्यादा पढ़ता था कि, मुझे याद है, वह घंटे दो घंटे के लिए आख़िरी बार उस कोने दिवाली के एक दिन पहले हटा था, जब घर के जाले साफ़ किए गए थे।
फिर भी, गुलशन को भूलना खाने पीने तक तथा सोते समय अक्सर ही बत्ती बुझा देने तक ही सीमित रहता तो गनीमत थी। पर अब हम उसे पहले की तरह दो चार दस पंद्रह मिनट के लिए नहीं बल्कि कई कई दिनों तक भूलने लगे थे।
पहली बार गुलशन को लंबे समय तक भूले रहने का अंदाज़ा हमें उसके नाम से आए प्रवेशपत्र से हुआ था। देश के प्रतिष्ठित इंजीनियरिंग कॉलेज की प्रवेश परीक्षा के लिए यह प्रवेशपत्र आया था। प्रवेशपत्र देख कर हमें यह ख़्याल आया और सबसे पहले यह ख़्याल माँ को ही आया था कि ‘मैं भी सोच रही थी उस दिन जनगणना वालों के सामने कौन सा नाम छूट रहा था?’ माँ फिर भाई को बाँहों मे लेकर बहुत देर तक रोती रही थी।
जिस दिन जनगणना करने वाले लोग हमारे घर आए तो सबसे पहले उन लोगों ने मकान नंबर पूछा था। घर के सदस्यों की बाबत घर के मुखिया के रूप में पिताजी का नाम, माँ का नाम, मेरा नाम तथा छोटी बहन का नाम बताया गया था। साथ में उम्र भी लिखवाई गई थी।
एक हाथ में प्रवेशपत्र थामे, दूसरे हाथ से गुलशन को अपने अँकवार भरे, माँ का रोना रुक ही नहीं रहा था। चुप लगाती थी फिर तुरंत ही रोने लगती थी। और अहक अहक कर रोती रही थी।
पिताजी भी बहुत देर तक छत की तरफ़ देखते हुए न मालूम क्या सोचते रहे थे। फिर कुछ देर तक ‘हाँ’ में सर डुलाते थे। गुलशन के पास जाकर उसके बालों में उँगलियाँ फिराने लगे थे, माँ से कहे थे- इसके सिर में रोज़ तेल डाल दिया करो, इतनी कम रोशनी यहाँ पहुँचती है- यह भी कहा था कि- अगले महीने, न हो तो, एक बल्ब इधर भी लगवा देंगे। बल्ब होल्डर और तार लेकर कितना ख़र्चा आएगा- पिताजी ने मुझे पता करने के लिए कहा था। इस घटना से हम बुरी तरह डर गए थे।
‘ऐसा क्यों हो रहा था’- के कारणों का हम ठीक ठीक कभी पता नहीं लगा पाए। अब तो हम सबने तमाम कारण इकट्ठे कर लिए हैं और जब जैसा मौका आता है हम उस हिसाब से उन कारणों में से किसी एक को अपने मन से बाहर लाकर उन पर सोचने लगते हैं। उस वक़्त बाकी बचे कारणों को हम अपने भीतर ही कहीं दबाए रखते हैं।
गुलशन को भूलते जाने का जो सर्वाधिक तसल्ली देने वाला कारण था वह यह कि घर के जिस कोने में उसने खु़द को अपनी किताबों समेत जमा रखा था वह घर सबसे अंधियारा कोना था। दूसरे कोने को घेर कर रसोईघर बनाया गया था और कमरे का बल्ब भी उसी कोने में था। तीसरे और चौथे कोने में दो दरवाजे थे- एक बाथरूम की तरफ तो दूसरा बाहर की तरफ खुलता था। इस तरह गुलशन सर्वाधिक अँधेरे में था।
दूसरा कारण ये कि हम उसे इसलिए भूलने लगे थे क्योंकि उसने बोलना-चालना और कोई हस्तक्षेप करना बिल्कुल ही छोड़ दिया था।
या इसलिए कि हम निश्चिंत थे कि वह जो कुछ कर रहा था, हमारे मन की कर रहा था।
या फिर हम अपने अपने काम करने में तो व्यस्त रहते ही थे, उसके इतर भी हम हमेशा कुछ ज़्यादा करने की सोचते थे- पिताजी सिनेमा की टिकटें ब्लैक करने की सोचते रहते थे, माँ बर्तन-पोंछा के लिए दूसरे घर तलाशती रहती थी और मैं और सीमा नींद मे तनख़्वाह पा रहे थे।
हम हद से ज़्यादा व्यस्त थे।
या फिर मुझे लगता है कि हमें ही कुछ हो गया था। हम किसी अनवरत शोर के शिकार हो गए थे, जो हमें अतिरिक्त कुछ भी सुनने नहीं देता था। ठीक इसी तरह दृश्यों का भी घमासान हमारे भीतर मचा होता था।
इस ‘कुछ हो जाने’ को पहली बार मैंने कक्षा तीन में जाना था। आठ नौ साल का रहा होऊँगा। शनिवार के दिन विद्यालय के सभी लड़के लड़कियाँ बीस कतारों में खड़े होकर सामूहिक पी.टी.(शारीरिक शिक्षा) कर अभ्यास करते थे। उस दिन भी पी.टी. वाले आचार्य जी ने कहा था– एक- और सबके साथ मैंने भी अपने हाथ डैने की तरह फैला दिए थे, कहा दो-सबने हाथ ऊपर करके ताली बजाई, कहा- तीन...
मेरे पास तीन कहने की बस धुन ही पहुँच पाई थी- ई-ई न की तरह। चार कहने की भी बस धुन ही आई थी। तीन और चार सुनने की जगह पर मैं शायद बादलों में प्रतिभा को देखने लगा था जिससे मैं उतनी छोटी उम्र में ही बहुत प्यार करता था और वह उस दिन विद्यालय नहीं आई थी, या फिर अगले महीने मिलने वाली छात्रवृत्ति के बारे में सोचने लगा था- और कुछ ही पलों बाद मैं ज़मीन पर छितराया हुआ मिला।
मेरे हाथ दो की आवाज़ के अनुसार ऊपर ही टॅंगे रह गए थे जबकि बाकी सभी लड़के लड़कियों ने ‘तीन चार’ के बाद अपना हाथ ‘विश्राम’ में कर लिया था। मेरा ध्यान पी.टी. वाले आचार्य जी के झापड़ से लौटा था, जो मेरे बे-ख़्याली में मुझे धराशायी कर गया था, होंठ कट गए थे, मुँह मे बलुई मिट्टी भर गई थी। अब भी कभी कभी मेरा मुँह बालू बालू हो जाता है। थू थू आथू च्च, ओह आयू। बाद में पी.टी. वाले आचार्य जी ने मुझे बताया कि लग रहा था, तुम कहीं खो गए थे। लग रहा था मेरे भीतर कोई भूलभुलैया थी।
फिर तो बचपन से ही लगता रहा है कि मैं हरदम ही खोया-वोया रहता हूँ। इस बात की तरफ मैंने गौर करना शुरु किया तो देखा कि जो जितना मेरे जैसा है उतना ही खोया रहता है। और, सोचिए, ऐसा तब जब मैं पागल भी नहीं हूँ।
धीरे-धीरे ही सही पर मैं अपने आपको यह समझाता रहा हूँ कि यह खोया रहना और कुछ नहीं एक अनवरत संवाद है। मेरे भीतर बैठा कोई है जो मेरी नाकामियों पर चीखता है, बिलखता है, मैं उसे अपने सपनों का उल्लास सुनाता हूँ। वह, भीतर वाला, मेरी कमियों पर चिल्लाता है मुझे डाँटता है, मेरी बर्बादियों पर रोता है, मैं उसे कुछ कर दिखाने की बेचैनी में शामिल करता हूँ। पहले, बहुत पहले, एक बड़ी दूर से आती पुकार भी थी, शायद प्रतिभा की, आठ नौ साल की प्रतिभा। अब उस पुकार की जगह बेरोज़गारी के नगाड़े बजते हैं। घम घम घम। घम घम। घम।
मैं हमेशा बुदबुदाते रहता हूँ- ये तो, खै़र, दूसरों का मानना है।
इतना ही नहीं, अब तो मेरे भीतर अदृश्य दृश्यों का भीषण घमासान भी है, जो मुझे बाहर कुछ भी देखने नहीं देता। मुझे याद है, उस दिन मैं पढ़ाने जा रहा था, साइकिल पर आगे शालू बैठी थी, कि मुझे सड़क से सटी वह दीवाल दिखी थी, मुझे ये भी लगा था कि मैं दीवाल में जाकर लड़ जाऊँगा, फिर कुछ पलों के भीतर ही वह दीवाल मेरे जे़हन से गायब हो गई और मैं तुरंत ही दीवाल में लड़ गया था। शालू को बहुत चोट आई थी।
सामने से कोई गाड़ी गुज़र जाए तो मुझे यही लगता है कि धूप के रंग पर कोई काली परछाईं गुजरी होगी। अगर गुज़री होगी, तो।
आलम यह है कि बियावान मे भी आपसे बातें करूँ तो भी भीतर की सतत चीख कुछ भी सुनने नहीं देती, तथा आपकी बातें सुनने के लिए मुझे आपकी तरफ़ झुकना पड़ेगा, ‘क्या कहा?’ वाले अंदाज में अपने कानों के पास हाथ लगाना पड़ेगा।
रही बात देखने पहचानने की, तो औरों को छोड़ दीजिए, अपनी बिटिया रानी शालू को भी मैं नीले उजले फूल वाले हल्के पीले रंग के फ्राक और छोटी छोटी चोटियों से ही अंदेशा लगाता हूँ कि ये बच्ची शालू ही होनी चाहिए।
जनगणना वाले हादसे के बाद बहुत दिनों तक हम परेशान और गुमसुम रहे थे। खुद से ग्लानि होती रही थी और दूसरों से आँख मिलाने में भी शर्माने लगे थे इस घटना से हदस कर हम सबने फिर से गुलशन के पल पल पर नजर रखना शुरू कर दिया था।
तब तक गुलशन एक परीक्षा दे चुका था और शायद उसे अपने पिछड़ने का एहसास हुआ होगा क्योंकि उन्हीं दिनों माँ ने बताया था कि गुलशन किसी कोचिंग का नाम ले रहा है। जब हमने कोचिंग संस्थानों में फीस के मालूमात किए तो फ़ीस इतनी ज़्यादा थी कि हमें भाई को यह समझाना पड़ा कि कोचिंग-वोचिंग तो इस दौर के झमेले हैं, क्या आज से पहले सफल लोग नहीं हुए, तुम, बस, पढ़ते जाओ।
हमने देखा कि गुलशन न जाने क्यों दीवार की तरफ मुँह करके पढ़ाई करने लगा था। मैंने माँ को समझाया था कि दीवार की तरफ मुँह करके पढ़ाई करने से हो सकता है याद करने में सुविधा होती होगी और इसमें ऐसी कोई बात नहीं थी कि गुलशन नाराज होकर हमसे बदला लेने की कोशिश कर रहा था।
तो भी भाई की पढ़ाई लिखाई में कोई कमी नहीं थी। एक इंजीनियरिंग कॉलेज में नहीं तो दूसरे में उसका प्रवेश हो ही जाना था। हम हर पल उसका ख़्याल रखने लगे थे। बहन की नौकरी की तलाश अभी जारी थी। मेरे ट्यूशन चल रहे थे। पिताजी भी अच्छी ख़ासी संख्या में टिकटें ब्लैक कर रहे थे। माँ बर्तन पोंछे के लिए दो अन्य घरों में जाने लगी थी। मुझे इसी बात का डर था कि हमारे दिन अच्छे गुजरने लगे थे।
आप बड़े लोग हैं, इस बात को ऐसे समझिए- मान लीजिए आपके शहर में बिजली कटौती का समय आठ से बारह है। ऐसे में अगर किसी दिन बिजली निर्धारित समय पर नहीं जाती है तो आपके शहर में जो मेरे जैसे लोग होंगें, वे इस बात से डरेंगे कि अब अगर बिजली गई तो लंबे समय के लिए जाएगी। समझे। मैं आशंकित रहता था। हमेशा।
यही वे दिन थे जब अक्षयवर चाचा के रिक्शे के टायर बोल जाने की घटना घटी थी। उन दिनों शहर में चारों तरफ़ (और देश भर में भी) आतंकवाद और आतंकवादियों चर्चा सूचनातंत्र पर छाईं रहने लगी थी। शुरुआत में तो हमने आंतकवाद का हँसी मज़ाक बनाया क्योंकि हमारे मुहल्ले में किसी ने कभी आतंकवादी नहीं देखा था। पर धीरे धीरे यह सब कुछ ख़ौफ़ में बदलने लगा था। अगर एक पहर सरकारी पानी नहीं आता तो हमें यही लगता था कि कल का अख़बार पानी टंकी उड़ाए जाने की खबर छापेगा। कुछ ही दिनों पहले घटी अक्षयवर चाचा के रिक्शे वाली घटना में पुलिस के हस्तक्षेप ने हमारे डर को बढ़ा दिया था।
दूसरे इस शहर का जो थोड़ा बहुत ऐतिहासिक महत्व था, मंदिरों-वंदिरों के कारण। एक खास तबके के लिए तो इन्हीं कारणों से इस शहर का बहुत महत्व था, तो उस ऐतिहासिक महत्व को देखते हुए सरकार ने अपने सबसे दबंग पुलिस अधिकारी को इस शहर का नया एस.पी. नियुक्त किया था।
शहर के नए एस.पी. ने अपना कार्यालय सँभालते ही अपराध और आतंकवाद पर काबू पाने के लिए कुछ नए और बेढंगे नियमों का ऐलान किया था- तीन और तीन से ज़्यादा लोग एक साथ न खड़े हो- हरेक पुलिसकर्मी को रोजाना कम से कम एक अपराधी पकड़ कर देना है- प्रत्येक प्रतिष्ठित एवं बड़ी दुकानों तथा निजी संस्थानो को प्रशिक्षित गार्ड रखने हैं, जो हथियारों से लैस हों।
इन नियमों से हमारा कुछ भी लेना देना नहीं था तो भी बेहद डर गए थे। पुलिस से तो हम गली के लोग ऐसे ही थरथराते थे, अब ये नए नियम भी थे। पुलिस शब्द सुनते ही मुझे तरंगो जैसी खूब ऊँची और खू़ब नीची ढलानों वाली, मिट्टी की सड़क याद आ जाती है। एक बच्चा अकेले विद्यालय जा रहा है। आसपास दूर दूर तक कोई नहीं दिखता है, बहुत दूर दो यूकिलिप्टस के पेड़ हैं। बिल्कुल निराँव। लड़का अभी सड़क की ढलानों में पहुँचा ही है कि पीछे से उसे पुलिस के दो लोग, साइकिल से ढलान उतरते दिखते हैं।
मेरा गला रुँध गया था। मैंने नहीं रोने के लिए होंठ भींच लिए थे, फिर भी आँखों में पानी भर गया था। पुलिस के लोग नजदीक आ रहे थे। मैं जहाँ था, वहीं खड़ा हो गया था, और दूसरी तरफ देखने लगा था। जैसे ही पुलिस के लोग मेरे करीब से गुज़रे, मैंने उन्हें हाथ जोड़ कर नमस्ते कहा था। वे बस मुस्कराए थे और एक दूसरे से बात करते हुए चले गए थे।
कुछ ही दिनों बाद, मुझे याद है, एक दिन पिताजी देर तक सोते रहे थे और उस दिन सीमा को अपने पैरों पर चढ़ाए हुए थे। माँ को भी आश्चर्य हुआ था, आज ये सिनेमा हाल क्यों नहीं जा रहे हैं? पिताजी दिन भर सोते रहे थे, शाम को बताया था, अब ‘बहादुर सेक्योरिटी फोर्स’ के प्रशिक्षित गार्ड सरस्वती सिनेमा की दरबानी सँभालेंगे।
वह कोई मुख्यमंत्री का करीबी था जो ‘बहादुर सेक्योरिटी फ़ोर्स’ का मालिक था। वह अपने निजी फ़ोर्स में उन लोगों को भर्ती करता था जो गाँव देहात के थे और सिपाही, मिलिट्री के प्रशिक्षण की तैयारियों के बाद असफल हो गए होते थे। उसी ने ऊपर से एस.पी. पर दबाव बनवाया था। इसी आतंकवाद के बहाने वह सभी दुकानों पर अपने सेक्योरिटी गार्ड्स रखना चाहता था।
उन दिनों पिताजी की दरबानी छूट जाने के बाद मुझे इस बात पर आश्चर्य हुआ था कि क्या मैं ज्योतिषी हूँ, ‘कुछ बुरा ही होगा’ वाली मेरी आशंका हमेशा ही सच हो जाया करती थी। तो भी पिताजी के दरबानी छूटने का हमने ज़्यादा शोक नहीं मनाया क्योंकि शोक मनाने के लिए ज़रूरी दोनों ही चीजे़ें हमारे पास नहीं थीं- पैसा और समय। अपनी नौकरी छूटने के बाबत पिताजी ने हमें यही समझाया- जान लो, कि अगर तकलीफ़ों की कोई सीमा होती होगी तो उस सीमा के आखिरी छोर पर हम पहुँच चुके हैं, और यहाँ से हमारे बढ़िया दिन शुरु होंगे।
काम छूटने के दो तीन दिन बाद से ही पिताजी मंडुआडीह वाली गुलाममंडी में जाने लगे थे। शहर के दूर दराज क्षेत्रों एवं गाँवों से रोज यहाँ सैकड़ों लोग जमा होते थे। यहाँ काम मिल जाने पर एक दिन के पचास रुपए तो मिलते ही थे। काम भी दिहाड़ी की तरह का होता था। यहाँ दिक्कत यह थी कि रोज काम नहीं मिलता था, जबकि मेरे पिताजी अपने और मेरे सारे कपड़े पहन कर जाते थे ताकि वे खू़ब मोटे दिखें और तुरंत कोई उन्हें अपने काम के लिए ‘पकड़’ कर ले जाए।
मुझे याद है, एक बार उन गर्मियों में इतने कपड़े पहन कर गुलाममंडी जाने बावजूद एक हफ़्ते तक कोई काम नहीं मिला था तो पिताजी ने, औरों की तरह, उस दलाल से बात किया था जो दिन के अंतराल पर काम दिलाता था और एवज में बीस रुपए लेता था। पर काम तो करना था।
पिताजी के पैरों की तकलीफ़ और काम करने की जद्दोजहद को देख कर मैं सोचता था कि मैं भी तो पिताजी के साथ गुलाममंडी जा सकता हूँ पर मैं इतना नीच था कि मुझे शर्म आती थी और मेरे ट्यूशन भी चल ही रहे थे। पिताजी की तकलीफ देख कर जब मैं जितना ही उन रेलगाड़ी के आगे गैस बत्ती लेकर दौड़ते हुए पाता। रेलगाड़ी के आगे दौड़ता हुआ ‘मैं’ जब नौकरियों के बारे में सोचते हुए ‘मैं’ को देख कर मुस्कराता था तो पूरी गैस बत्ती हिलने लगती थी। दौड़ते हुए मेरी काली पैंट चमकती रहती थी।
हम सबकी चिंता पिताजी के काम मिलने को लेकर तो बहुत होती ही थी पर हमें इस बात का बेहद डर भी सुबह से शाम तक बना रहता था कि गुलाममंडी में भीड़ होती थी। पूरा मुहल्ला उन दिनों भीड़ में फँसने से डरता रहा था।
हमारा डर शहर में लगे उस नए कानून से उपजा था, कि, तीन से ज्यादा लोग एक साथ नहीं खड़े हो सकते हैं। एक तो शहर की निगाह में हमारा दर्जा भी ऊँचा नहीं था और दूसरे गुलाम मंडी की भीड़। हम सभी अपने कामधाम करते रहते थे और साथ में पिताजी तथा आतंकवाद का ख्याल भी दिनों रात मन में रहने लगा था। हम हरेक शाम पिताजी को घर लौटा देख कर ही आतंकवाद के ख्याल को कुछ देर के लिए अपने मन से टाल पाते थे।
हमारे मुहल्ले तथा विशेषकर, हमारी गली के लोगों की धरपकड़ बढ़ गई थी। इससे डर कई गुना बढ़ जाया करता था।
एक दिन जब पिताजी के आने में जब बहुत देर हो गई थी तो मुहल्ले के लोगों ने समझाया था कि ‘डरने की कोई बात नहीं है, हम लोग हैं न, बस, एकबार जाकर मंडुआडीह थाने में देख लो।’
मुझे याद है पिताजी रथयात्रा चौमुहानी पर एक मूँगफली वाले की टोकरी में से मूँगफली निकाल कर खाते हुए मिल गए थे। नजदीक से देखा तो थोड़ा आश्चर्य हुआ था कि वह सुमेर चाचा थे। पिताजी के साथ ही सिनेमाहाल की नौकरी से निकाले गए थे, फिर यह मूँगफली का काम शुरु किया था। मेरे साथ जो गली के लोग थे उन्होंने पिताजी को भला बुरा कहा था और समय पर घर आने की हिदायत दी थी।
पिताजी और आतंकवाद से जुड़ा डर हमारे मन में उन दिनों भी रहने लगा था जिस दिन पिताजी काम पर नहीं जाते थे या काम नहीं मिला होता था। उन दिनों यह डर एक आदत की तरह हममें बस चुका था।
मुझे याद है, उस दिन भी पिताजी घर पर ही थे और मई आखिर की डरावनी दोपहर थी। उस दिन की गर्मी तो आज तक जस की तस याद है। बहुत लू चल रही थी। लू इतनी सूखी और तेज थी कि उस दिन दोपहर में मैं जब सोकर उठा था तो मुझे साँस लेने में परेशानी हो रही थी। बाकी लोग भी ऊँघ रहे थे।
साँस लेने वाली परेशानी से बचने के लिए मैं घड़े से पानी निकाल रहा था कि लगा था, पीछे से परछाईं गुजरी है। मैंने सबकी तरफ देखा था और परछाईं गुजरने की सोच कर बुरी तरह डर गया था। मेरे पीछे मुड़ कर देखने से पहले ही बाथरूम का दरवाजा बंद हो गया था। किसी अजनबी की बाबत सोचते ही मैं चीखने लगा था, मुझे याद है।
मुझे याद है घर में सब झटके में जगे थे। माँ और बहन झटके में जगी थीं। पिताजी ने बाथरूम के दरवाजे को धक्का दिया था और उसे भीतर से बंद पाकर वहाँ से भागे थे। मुझे पूरी तरह याद है, पिताजी को मैंने उतना बदहवास कभी नहीं देखा था। पिताजी चीख रहे थे। दूर हटो, दूर हटो वहाँ से, बम रखा होगा, बीच बीच में पड़ोसियों को पुकारते रहे थे। हम सभी एक दूसरे को पकड़े हुए, रो रहे थे, चीख रहे थे।
दो मिनट भी नहीं लगे होंगे, बहुत बड़ी भीड़ इकट्ठी हो गई थी और उस भीड़ ने हमारे बाथरूम को घेर लिया था। उन सबों पर पिताजी के ‘दूर हटो’ और ‘बम रखा होगा’ का कोई असर नहीं हुआ था। भीड़ आतंकवाद के खिलाफ नारे लगा रही थी। आतंकवाद के खिलाफ लगते नारे ‘पाकिस्तान हाय हाय’ में बदल गए थे।
उस भीड़ में सौ सवा सौ लोग रहे होंगे। हम धक्कामुक्की में घर से बाहर कर दिए गए थे। उन लोगों ने बाथरूम का दरवाजा बाहर से भी बंद कर दिया था। नारों के शोर से पूरा मुहल्ला गूँजने लगा था। लोग दरवाजा पीट रहे थे। वह चीख अब भी सुनाई देती है। मेरा घर ठसाठस भर चुका था।
भीड़ कुछ कर पाती इससे पहले सीढ़ी चढ़ते पुलिस के लोग हमें दिखे थे। ये यहीं चौराहे पर वसूली के लिए तैनात किए जाते थे। पुलिस के लोगों को देखते ही हम परेशान हो गए, मुझे वह बच्चा याद आ गया था, मिट्टी की सड़क की ढलानों में पुलिस के लोगों को नमस्कार करता हुआ। मुझे पूरी तरह याद है और हमेशा याद रहेगा कि पुलिस के लोगों को देखते ही हम सबको - पिताजी, माँ, मैं, बहन को गुलशन की याद आई थी। फिर तो हम सब चौंक पडे थे।
मैं किसी तरह जगह बनाकर भीतर गया था तो सचमुच गुलशन जगह पर नहीं था, उसकी जगह को तमाम अन्य लोगों ने कब्जे में ले लिया था, उसकी किताबों पर लोग चढ़े हुए थे और रह रह कर बीच बीच में नारे लगा रहे थे।
और फिर तो हम बर्बाद हो गए। तो, बाथरूम में गुलशन था। एक बार फिर हम अपनी नामालून तकलीफों, बेतरतीब सी खोए रहने की बीमारी में पड़ कर गुलशन को भूल चुके थे। मुझे माँ को कुछ भी बताना नहीं पड़ा था। वह थसक कर जमीन पर बैठ चुकी थी। पिताजी ने सिर से हाथ लगा लिया था। और बहन, उसकी तो अब बस इतनी ही याद बाकी है कि वह कभी माँ को कभी पिताजी को देखती रही थी।
मैं अपने आप से इतना अपमानित हुआ था कि गुस्से में आ गया था। भीड़ को ठेलता ठालता, कूदता फाँदता बाथरूम के पास किसी तरह पहुँचा था। मैंने लोगों से अपने अपने काम पर चले जाने को कहा था, बताया था कि अंदर कोई आतंकी-वातंकी नहीं मेरा भाई गुलशन है, चूँकि हम तुरंत सोकर उठे थे, इसलिए गुलशन का ख्याल ही ध्यान से उतर गया था।
इसके बाद तो जो कुछ हुआ उसके लिए मैं अपने उस हिस्से को कभी माफ नहीं कर पाया, जो हिस्सा दिन रात नौकरियों की बात सोचा करता था, भाई से भी पैसे पैसे की सोच रखता था, असफलता को सफलता में बदलने की बात सोचता रहता था, प्रेम की बाबत सोचता रहता था। वह मेरा नकारा हिस्सा था। पता नहीं माँ और पिताजी ने अपने आप को कौन सी सजा दी होगी? बहन तो, खैर, अब रही नहीं। उसे सिरदर्द होता था, जब थी।
मेरे यह बता देने पर कि अंदर बाथरूम में मेरा भाई है, उस भीड़ का एक हिस्सा तो मेरे पक्ष में आया था, पर एक बड़ा हिस्सा न जाने कैसे यह मान बैठा था कि जो भीतर था वो आतंकवादी था, भले ही वह गुलशन क्यों न हो।
भीड़ के उस हिस्से ने मुझे दीवार में दबा दिया था। यहाँ से झिलमिलाहटों में दिखती मेरी माँ को न जाने क्या हो चुका था, लोग चीख रहे थे।
खिलाफ भीड़ का वह हिस्सा जो मानता था कि मेरा भाई बहुत खूबसूरत है, उसके लोग बाथरूम के छत तथा रौशनदान पर चढ़ गए थे। बाथरूम के तमाम छोटे मोटे छेदों को इस भीड़ ने मूँद दिया था। भीड़ के इस हिस्से को लग रहा था कि मेरा भाई इतना खूबसूरत था कि जरूर ही उसे बचाने के लिए सभी देवता अपने रथों पर चले आ रहे थे। बाथरूम के छत पर, रौशनदान पर चढ़ कर ये लोग देवताओं से युद्ध की तैयारी कर रहे थे।
भीड़ के जिस हिस्से को लगा था कि सभी आतंकवादी संगठन मेरे भाई को बचाने आने वाले थे उन लोगों ने लाठी डंडे से लैस होकर पूरे मुहल्ले को घेर लिया था। इन लोगों के समूचे शहर में फैल जाने की उम्मीद थी।
पर पुलिस के लोगों के बाथरूम के पास पहुँचते ही ये लोग ठंडे पड़ने लगे थे। पुलिस के लोगों ने हमें बहुत गालियाँ दी थीं। मेरी माँ और पिताजी को सबसे अधिक गाली। अपने बेटे को भूल जाते हो, साले। घर में आतंकवादी पालते हो और पकड़ में आने पर बेटा बना लेते हो। जबकि कसम से, मैं बता दूँ, मेरा भाई आतंकवादी नहीं था। हम सभी, पुलिस के लोगों के सामने गिड़गिड़ाने लगे थे। वे लोग भी, जो थोड़ी देर के लिए खिलाफ हुए थे।
बहुत देर तक रोने धोने के बाद भी पुलिस के लोगों ने मेरे भाई को नहीं छोडा। मुझे याद है, बाथरूम से मेरे भाई को उन लोगों ने खींच कर निकाला था। उस समय गुलशन हम सबको देखता रह गया था। पुलिस के लोग जाते जाते यह जरूर बता गए थे कि उनके साथ भी रोज एक अपराधी पकड़ने वाली मजबूरी थी।
उस दिन जब जब मैं माँ को देखता था मुझे विश्वास हो पाता था कि मेरा भाई आतंकवादी नहीं था। वरना दिन भर और घड़ी भर रात तक मुहल्ले के जितने भी लोग आए थे वे लोग इतने आश्वस्त थे कि औपचारिकताओं के बाद ऐसे ही सवाल पूछते रहे थे - किस संगठन से जुड़ा था - हिंदू होकर ऐसा काम... थोड़ा गलत लगता है - या फिर, देख लीजिए घर में कहीं हथियार तो नहीं छुपा रखा है।
कई लोगों ने यह भी बताया कि अगले दिन यह खबर अखबार के किस पन्ने पर आएगी। अगर कुछ और भी घटता है तो पहले पन्ने पर आ जाएगी। लोग यह भी बता रहे थे कि टी.वी. के किस किस चैनल पर यह खबर प्रसारित हो रही थी। मैं इस कदर बदहवास हो चुका था कि मुझे अगले दिन का अखबार दिखने लगा था, जिसमें चौथे पन्ने पर ‘धायँ’ लिखा था। या बहुत हुआ तो ‘धायँ, धायँ’ पिताजी और बहन भी अखबार का वही पन्ना पढ़ रहे थे।
पर माँ की बात दूसरी थी। उसने इतना ही किया था कि आस नहीं छोड़ी थी। शुरुआत में जो भी आया था उसके सामने माँ दहाड़ मार कर रोने लगी थी, रोना उसे उम्मीद की किसी सूरत की तरह लगा होगा। पर इनमें से कुछ ने सांत्वना दी थी - इन लोगों का कहना था कि बेटा था तो रोने में कोई हर्ज नहीं है, लेकिन इतना नहीं रोना चाहिए, हम तो भारत माता के लिए अपने सभी बेटों की बलि चढा दें, देशभक्त होता तो रोने के कोई मायने भी होते, आतंकवादी फातंकवादी, चोर चिकार के लिए इतना रोना, सँभालिए अपने आपको।
माँ को कैसा लगा होगा?
माँ ने अपने बेटे के लिए चोर चिकार शब्द सुना और रोना बंद कर दिया था। उसके बाद तो घर में कोई भी आया, माँ उससे मिलने नहीं आई। कोई दिख गया तो मुस्करा कर इधर उधर हो जाती थी। मुझे याद है, लगातार सात आठ घंटो तक माँ या तो बाथरूम जाती रही थी या उल्टी तरफ घूम कर खाना बनाने वाली जगह पर पोंछा लगाती रही थी।
उस दिन जितनी बार माँ बाथरूम गई थी, आधे घंटे से अधिक रही थी, मुझे याद है, बाथरूम से आते ही घर का वह वाला हिस्सा पोछने लगती थी, एक बर्तन को हटाती थी उसके नीचे की जमीन पोंछ कर बर्तन रख देती थी, फिर तुरंत ही वही बर्तन उठा लेती थी, फिर पोंछती थी।
घर में बाहरी लोग लगातार आते रहे थे पर मेरा ध्यान माँ की तरफ वास्तव में तब गया था जब मैंने देखा कि माँ ने बर्तन को हवा में उठा रखा था, पोंछा जमीन पर पड़ा हुआ था और एक हाथ से साड़ी के किनारे में अपने चेहरे को थामे सर को घुटने पर टिकाए थी। मुझे याद है, पिताजी और बहन भी माँ को देख रहे थे।
तब मुझे लगा था कि माँ रो रही थी। अपने ही घर में, अपने ही बेटे के लिए माँ छुप छुप कर रो रही थी। उसे खुल कर रोने भी नहीं दिया जा रहा था। वह बाथरूम जा रही थी और उल्टी तरफ घूम कर पोंछा लगा रही थी तो सिर्फ इसलिए कि उसे रोने की जगह चाहिए थी। वह भी सात आठ घंटे से लगातार। यह सोच कर तो मुझे न जाने क्या हो गया था कि क्या माँ ने यह मान लिया था कि चोर की माँ को छुप छुप कर ही रोना चाहिए - फिर तो मैंने घर में घुस आए लोगों को अप्रत्यक्ष गालियाँ देकर भगा दिया था।
अब भी मुझे नहीं लगता कि अगर माँ की हालत बिगड़ी नहीं होती तो हम कुछ भी कर पाए होते। उस छुप कर रोने के दरमियान मैंने माँ का चेहरा सिर्फ एक बार देखा था और बेचैन हो गया था। उसी बेचैनी में मैंने पिताजी से कहा था कि वह एक बार सिनेमाहाल वाले मालिक से मिले और न हो तो उन्हें लेकर भेलूपुर थाने पर चलें। मैं भी उन कुछ परिवारों के लोगों को साथ लाया था, जहाँ मैं ट्यूशन पढ़ाता था। एक ने तो किसी बड़ी हस्ती से फोन करवाने की भी बात कही थी।
आठ नौ बजे ही हम थाने पहुँच गए थे, पर हमे साढ़े ग्यारह बजे तक थाना इंचार्ज का इंतजार करना पड़ा था। माँ वहाँ पहले से मौजूद थी और उसके साथ एक महिला भी थी। वह राय साहब की औरत थी और माँ उनके घर बर्तन पोछें के लिए जाती थी। राय साहब बहुत बड़े नेता थे और उनकी औरत जरूर माँ का रोना देखकर ही थाने पर आने के लिए तैयार हुई होगी।
मुझे याद है, दो गुणे दो फीट के बंदीगृह में मेरा भाई बंद था। थाना इंचार्ज के आने तक माँ उस बंदीगृह के बाहर बैठी रही थी और गुलशन का हाथ अपने हाथ में लिए रही थी। रोई भी रही होगी।
थाना इंचार्ज ने राय साहब की औरत को देखते ही ‘आप’ कहा था। वह नहीं आई होती तो भी हो सकता था कि मेरा भाई छोड़ दिया जाता। और भी बहुत लोग आए थे। हमारे मुहल्ले के ही कई लोग थे। पर अगर वह नहीं आई होती तो हमें यह कभी नहीं पता चल पाता कि गुलशन गुलफाम हो चुका था और मंदिर हमले का मुख्य अभियुक्त था।
हमारे लिए यह आश्चर्य से कम नहीं था कि भाई को हमने छुड़ा लिया था। राय साहब की औरत इंचार्ज को ‘तुम तुम’ कहती रही थी। उन्होंने जब अपने राय साहब से थाना इंचार्ज की बात कराई थी तो थाना इंचार्ज डर गए थे। ‘इसमें फोन करने की क्या जरूरत है’ कहते रहे थे। जब हम आने लगे थे तो थाना इंचार्ज ने अपनी जेब से (बताया था) कुछ पैसे भी दिए थे, यह कहते हुए कि इसके सिर में चोट आ गई है, साला कुछ बोल नहीं रहा था, नाम तक तो बड़ी मुश्किल से बताया। भाई के सिर का पिछला हिस्सा, थोड़ा, कट गया था। थोड़ा ‘थोड़ा’ सबने कहा था। मेरा भाई चल नहीं पा रहा था और न जाने कब तक कराहता रहा था।
मुझे भूलने की बीमारी जरूर है पर मैं वह सब नहीं भूलता हूँ, जिसे सचमुच में भूल जाना चाहता हूँ। जैसे ये घटनाएँ। मेरे जेहन में ये सब इतना क्रमवार घटता है कि इन्हें एक पल के लिए बुरा सपना भी नहीं मान पाता हूँ। इतनी राहत जरूर है कि कभी कभार मुझे ये सारी घटनाएँ अविश्वसनीय लगने लगती हैं।
अविश्वसनीय लगने में यह होता है कि जैसे ये सब हमारे साथ नहीं हुआ। जैसे गुलशन तो सही सलामत है। ये सारा कुछ किसी दूसरे परिवार में घटा और हमने इसे, बस देखा था। कभी कभी तो ये सब इतना झूठा जान पडता है कि लगता है हमने इसे कहीं से सुन लिया होगा। वरना आपके पास लाख तकलीफें हों, सपने हों, उम्मीदें हों, चाहें खुद में कितना भी न खोए रहते हो यह तो मुश्किल ही है कि कोई अपने भाई को भूल जाएगा, कोई अपने बेटे को भूल जाएगा। पर ये अच्छे ख्याल कभी कभी आते हैं। जबकि सच्ची बातें हमें हमेशा मथती रहती हैं।
इन घटनाओं के ख्याल से भी अब मुझे इतना डर लगने लगा है कि अब इनकी याद आते ही मैं सचेत रूप से सोचने लगता हूँ कि ये जो ‘मैं’ था, वह मैं नहीं हूँ। ये जो गुलशन है, कोई और गुलशन था, मेरा भाई गुलशन नहीं। माँ भी कोई दूसरी, पिताजी भी दूसरे। और हाँ याद आया, मैं ने उसके बारे में अब तक आपको कुछ बताया ही नहीं कि जो ‘बहन’ थी, कोई और थी जिसे सिरदर्द होता था और सिर दर्द से लड़ते हुए अपना सिर प्लास्टिक की रस्सी से बाँधे रहती थी।
पिताजी तो वाकई उसी दिन से बिल्कुल दूसरे हो गए थे जिस दिन हम भाई को छुड़ाकर घर ले गए थे। अगले दिन से वे कभी काम पर नहीं गए। बिस्तर से उठते ही थसक कर बैठ जाते थे। कहते थे - पैरों में बहुत दर्द रहने लगा है। ‘शहर नहीं छोड़ना पड़े’ के शुरूआती संघर्ष में मैंने दो नए ट्यूशन जरूर ढूँढ़ लिए थे पर वे काफी नहीं थे।
भाई पहले अंधा हुआ था और बहरापन उसे बाद में आया। ऐसा धीरे धीरे हुआ था। इसके अंधेपन के शुरूआती दिनों में हमने महसूस किया था कि वह हमें हमारी आवाज से पहचानने की कोशिश करने लगा था। किसी भी परीक्षा में पास नहीं हो पाया। यह बताना थोड़ा मुश्किल है कि उसे यह अंधापन सर पर लगी चोट से आया था या दिन-रात घर के अंधियारे कोने में पढ़ते रहने से।
गुलशन को उपयोग में लाने की मेरी आखिरी कोशिश भी नाकाम रही थी। उसके बीमारी के शुरूआती दिनों में मैंने विकलांगता प्रमाणपत्र बनवाने की बात सोची थी ताकि कोई छोटी मोटी नौकरी उसे मिल जाए। इस बात पर पिताजी और माँ बस आसमान देखते रहे थे। उन दिनों अभी बहन थी तभी तो उसने कहा होगा - ‘क्या, भइया एकदम से?’ इस बाबत मेरी पत्नी ने कहा था कि आप कितने गए गुजरे हैं, आपको शर्म आनी चाहिए। मैं बताना भूल गया हूँ, शायद, कि तब तक मेरी शादी हो चुकी थी। शालू को लेकर मेरी पत्नी स्पष्ट है - ‘हम उतने बड़े बड़े सपने नहीं देखेंगे।’
पत्नी से बिना बताए मैं शालू को लेकर ढेर सारे सपने देखता हूँ। शालू के सपनों के अलावे मेरे पास कुछ सपने अन्य भी हैं। जैसे एक सुबह मैं उठूँ और मैं ‘गुलशन’ हो गया रहूँ और गुलशन ‘मैं’ हो जाए। एक बार फिर वह देखने सुनने लगे। मजा आ जाएगा। मेरा भाई गुलशन। क्योंकि मुझे उस नियम पर अगाध विश्वास है कि बेटे का चेहरा माँ से मिले तो वह भाग्यशाली होता है।
कभी कभी इच्छा होती है कि वह सब सोचूँ जो गुलशन बिना किसी से कहे अनवरत सोचता रहता होगा और आखिर वह क्या करता होगा? उसे नींद भी आती होगी? कभी कभी इच्छा होती है कि इन घटनाओं का ख्याल आते ही इन्हें किसी अन्य व्यक्ति पर प्रत्यारोपित करके सोचूँ - पर होता यह है कुछ ही दूर तक सोचने के बाद मुझे उस अन्य व्यक्ति पर दया आने लगती है।
पर आज छुट्टी के दिन के कारण कुशवाहा किराना वाले के यहाँ अखबार पूरा पढ़ना मुझे नया जीवन दे गया। क्या किस्मत है? मैं यहाँ बिस्किट लेने आया था। हर महीने एक ब्रिटैनिया टाईगर, दो रुपया वाला, ले जाता हूँ - क्योंकि हर महीने पुलिस के दो लोग मेरे भाई को देखने आते हैं, वह अपनी जगह पर है या नहीं। आसपास के क्षेत्रों में कोई अपराध हो तो भी वे लोग उसे देखने आते हैं।
आज दो अक्टूबर की छुट्टी न होती तो मैं चौथे पन्ने के कोने में छपी खबर कहाँ पढ़ पाता जो जिंदगी भर मेरा संबल बनीं रहेगी। फुर्सत मिली है तो पूरा अखबार पढ़ गया हूँ, आज। खबर है कि नैनीताल के दूर-दराज क्षेत्र में एक लड़का पकड़ा गया है, जिसका नाम राजदीप है, उसकी उम्र उन्नीस साल है, उसके पास से कुछ नक्सली साहित्य भी बरामद हुआ है।
मुझे तो यह खबर आँखों के सामने घटती दिख रही है। अपने भाई के बारे में तमाम बातें राजदीप से बदल कर सोचने की कोशिश करूँगा तो मुझे राजदीप पर दया आएगी या नहीं ये तो बाद की बात है, पहले तो यह खबर - इस छोटी सी खबर में यह भी लिखा है कि राजदीप की माँ बड़े बड़े अधिकारियों तक गुहार लगा रही है कि उसका बेटा निर्दोष है।
ये खबर पढ़ने के बाद अब मैं ढेर सारे काम निबटाऊँगा और अगर इसे भूला नहीं तो अगले कई दिनों तक यह भी चाहता रहूँगा कि राजदीप की माँ को कोई चोर की माँ न कहे।
samne se jo mahila aa rahi hai wo itni khubsurat hai ki yaad rakhne layak hai. is mahila ke saath jo purush hai, wo meri hi umr ka hoga.
us saDak ke kinare kinare itne achchhe achchhe phulon ke peD paudhe hain ki main unke naam bhi nahin janta hoon. samne se aa rahi mahila phulon ke peD ke paas khaDi ho gai hai aur use phool chahiye. sathi purush use samjha raha hai ki niche paDa phool le lo. wo taja aur turant ka toDa hua phool chahti hai. basi aur kuchla hua nahin. purush use tarkon se Dhaanp deta hai aur mahila masos kar niche paDa phool le leti hai.
mujhe hansi aa rahi hai, wo bhi itni jor se ki mujhe apna chehra dusri taraph ghumana paDega. pahle hans loon. aap hi bataiye, agar kahin meri bhi koi premika hoti; jabki meri ek saat saal ki bitiya bhi hai, aur wo aisi hi koi jid karti, to main khoob unche peD ki sabse unchi tahni se laga phool toD kar la deta. wo bhi ek nahin do do. aur do bhi kyon, ye phool itne sundar hain ki agar koi meri premika banti hai to use, jarur aise saikDon phool chahiye honge. usse kya, main saikDon phool le aunga.
main kya nahin kar sakta hoon? phal toDna, ya shayad main abhi phool toDne ki baat kar raha tha, to phir bhi ek asan sa dikhta kaam hai, kal hi ki baat hai, chandu bhai ne bataya ki lucknow mein asani se kaam bant raha tha. kaam jara kathin tha.
darasal, kal shatabdi express ka lucknow se dilli pahunchna nihayat jaruri tha. us gaDi mein raajy ke sarvesarva apni premika ke saath baithe the. sarvesarva lagbhag buDhe the, premika lagbhag javan thi aur premika ki naak ke dahini kor par ek phunsi ug i thi jiske ilaaj ke liye ye log dilli ja rahe the.
par hua ye ki shatabdi ke pletpharm chhoDne ke pahle hi uske engine ki heDlait phoot gai. turra ye ki premika ne usmen sajish bhaanp li, kaha ki isi gaDi aur isi engine se jayenge aur munh phula kar baith gai.
shatabdi express ki phuti heDlait tatha premika ki jid ko dekhte hue sarkar ne aanan phanan mein ek bharti khol di. usmen umr ki koi sima nahin thi. bus aap dauDne vale hon. kaam bus itna hi tha ki mathe par gas batti lekar shatabdi express ke aage aage dauDna tha. sabhi dauDne valon ko das hajar prati minat milta. das hajar prati minat!
hajaron logon ki bheeD lag gai thi. apne kanpartament se dekhte hue sarvesarva ki premika naak ki phunsi ke dard ke bavjud uchhal paDi thi. premika ne ‘javan logon ko dauDte hue dekhana kitna achchha lagega’ kaha tha aur sarvesarva ki taraph hikarat se dekh kar munh pher liya tha.
main bhi agar lucknow raha hota aur agar do minat bhi dauD leta to bees hajar rupae. baap re! bees hajar rupae! paanch chhah saal ka kharch to nikal hi aata. aur agar ek haath ya paanv ke kat jane ki kimat par agla aadha minat bhi dauD leta to paanch hajar upar se. age ma go! he bhagvan ye main kya soch raha hoon. pachchis hajar! wo bhi ek saath! aap khaDe khaDe dekh kya rahe hain, mujhe itna jyada sochne se rokte kyon nahin? mere bhai, mere bandhu meri soch ko vapas khinchiye. use dauDa kar pakaD lijiye. main aapka abhari rahunga. hamesha hamesha ke liye.
to dekha, main kya kya kar sakta hoon? phool toD sakta hoon; jabki meri patni hai aur saat saal ki beti bhi. relgaDi ke aage dauD sakta hoon bus ek mauka to mile.
halanki police valon ki haalat dekh kar ye kahte hue Dar lagta hai, par agar mujhe police ki naukari mein laga den, to main dangon par, apradhiyon par kabu pa lunga. samaj sudhar ki babat yahi kahunga ki mujhe samaj kalyan adhikari bana kar dekh lijiye.
aur main kahta hoon dange ya apradh ki naubat hi kyon aaye, bus mujhe kshaetr vishesh mein dange ya apradh se bachne ke liye kisi baDe mahavidyalay mein shikshak niyukt kar dijiye imandari, kartavynishtha aadi anadi ka aisa paath paDhaunga ki log dange aur apradh jaise shabd bhi bhool jayenge. koi mauka to mile.
philhal main apne gaanv se sate kasbe ke ek niji vidyalay, maan sharde shiksha niketan mein shikshak hoon aur; 275 (+5 ) rupae prati maah ki tanakhvah bhi hai. is vidyalay mein main vahi sab paDhana chahta hoon jisse ki apradh aur dange na hon. yahan mere paDhane ka ek phayda ye bhi hai ki vahin meri beti shalu paDhti hai aur uski phees nahin deni paDti hai.
meri beti shalu, abhi saat saal ki hai aur kaksha chaar mein paDhti hai. jab wo baat karti hai to man khush ho jata hai. uski baton se sara bojh, sari thakan utar jati hai. meri patni to baDe pyaar vali phatkar se kahti hai ‘bus dimag thoDa tej hai, aur kuch khaas nahin. ’ mere pitaji ki to jaan shalu mein basti hai. maan ki bhi jaan. pitaji ke pairon mein chaubison ghante rahne vala bhayanak dard nahin hota to pitaji, ho sakta hai shalu ke saath vidyalay bhi aate jate. baki samay shalu maan aur pitaji ke saath hi rahti hai.
main samajhta hoon.
shalu unhen mere chhote bhai gulshan ka abhas karati hai. mujhe bhi utni hi sundar, uchhalkud mein bhi vahi bachpan vale gulshan jaisi aur paDhai mein bhi utni hi tej lagti hai.
shalu ki paDhai ka aalam ye hai ki har saal use ek class phandana paDta hai. sambandhit shikshak batate hain ki puri kitab hi rat jati hai ki mujhe shalu ko kisi baDe shahr ke baDe school mein pravesh dila dena chahiye ki shalu baDi hokar khoob naam karegi. sochiye jara, in baton mujhe kitni khushi hoti hogi?
mujhe bhi lagta hai ki mere bhai gulshan ki dekhne sunne ki kshamata ke asamayik lop se upji sari asaphaltaon se jo kuch bhi sapnon sarikha hammen chhoot gaya tha, wo meri bitiya rani palak jhapakte hi pura kar degi.
sapne bhi sabhi to rahe nahin, davaon ke ekspayri date ki tarah sapnon ki bhi umr hoti hogi. jaise un dinon meri chhoti bahan sima ka sirdard. uska sir vibhats tarike se phool jaya karta tha. bhishan dard ki vajah se uske sir ki nasen sooj jati theen. chehra vikrt ho jaya karta tha. sima apne mathe ko plastic ki moti rassi se khoob kas kar baandh leti thi. rah rah kar uthti uski cheekh se divaren, jaise Dolne lagti theen.
apne tain hamne bahan ka bahut ilaaj karaya. koi pagalpan ki dava deta tha, koi neend ki aur koi pet ki dava deta tha. ek akhiri ilaaj hum logon ke paas tha bhai ki naukari, jo hamare sapnon ki dukan banne vali thi.
bahan ke baad wo sapna bhi samapt ho gaya. haan, ye jarur hai ki baki sapne jas ke tas hain. pita ji ki bimari, maan ki bimari, do teen kamron ka koi ghar bane jismen barish ka pani bhitar na gire, do june ka baDhiya khana aur bhi Dher sare sapne. itne sapnon ke beech shalu ka paDhai likhai mein itna tej hona.
aur to aur, andha aur lagbhag bahra mera bhai gulshan jo chupchap ghar ke bahar ki jhonpaDi mein baitha rahta hai, wo ye jaan kar kitna khush hoga ki shalu bilkul us par gai hai, sundar, uddanD (chanchal kah sakte hain) aur tej. sach to ye bhi hai ki shalu kitni bhi buddhiman kyon na ho jaye, gulshan ko laangh pana uske liye thoDa kathin hoga. ek samay wo bhi tha, jab gulshan ne intarmiDiyet ki pariksha mein samuche shahr mein pahla sthaan praapt kiya tha.
meri beti ne ek din mujhe ek parcha thamaya, bataya ki kaksha mein sabhi ko mila tha aur is parche ko bharna hai, jo sabse satik uttar bharega use trauphi aur sartiphiket milna tha. parcha mujhe yaad rah gaya ha
atankvad ha desh ka abhishap
(jagruk deshbhakton ke liye kuch yakshaprashn)
1. atankvad kya hai?
uttar ha
2. atankvad se rashtra ko kya nuksan hai?
uttar ha
3. atankvadiyon ki pahchan kya hai?
uttar ha
4. agar kahin atankvadiyon se samna ho jaye, to aap kya karenge?
uttar ha
(hastakshar)
sahyog rashi ha do rupae maatr.
adhyaksh,sangram sena
wo parcha mainne shalu ko vapas thama diya. usse puchha ki ye parcha use kisne diya tha aur ye bhi kaha ki kal pradhanachary mahoday se baat karunga. pata nahin, shalu ne kya samjha aur kya nahin, par kuch der baad wo apne dadaji se use bharne ki jid kar rahi thi. pitaji ne us parche ko nahin phaDa hoga to sirph isliye ki wo parcha shalu ka tha.
atankvad. is shabd ki savari gaanth kar main apni beti se alag hota hoon aur us palani mein pahunchta hoon jahan mera bhai barson se akela hai. lagbhag bahra aur puri tarah andha mera bhai apne chehre ko is unchai se uthaye hue hai jaise samne khaDe kisi vekti se mukhatib ho, aur us par uska lagatar muskrana. palani mein nimandhera hai. bhai kuch tatol raha hai, shayad machis ki tili, ab kaan khodega.
mere bhai gulshan ke chehre par saat aath varshon pahle ki wo gali ubharti hai. vyast saDak se bahut tikha moD. senkri gali. murge murgiyon ki bhaag dauD. naliyon mein baithe battakh. bhinabhinahat sa shor. bartanon ke girne ki avaj gharon ke bahar tak hi pahunch rahe the. sarkari nalon ke paas baithe log. nahate, kulla karte, kapDa phinchte logon ke beech rajnitik charcha ka ghamasan. subah ki ghoop. akshayvar chacha ka rickshaw gali paar kar raha hai ki bahut joron ki avaj hoti hai.
bhai ke chehre se wo gali gayab ho jati hai. mujhe hensi aa rahi hai.
mujhe sab yaad hai.
jab wo bahut tej vali avaj hui thi, to gali ke logon ki bheeD rikshe ki taraph dauD paDi thi. usmen main bhi tha. hum log dauD paDe the, hens rahe the aur atankvad ke khilaph nare laga rahe the.
akshayvar chacha ke rikshe ka agla tyre bol gaya tha. ye avaj vahin se i thi. hum sab ne bhi mahaj taphrih ke liye unhen gher liya tha. varna to, wo hamari hi gali mein rahte the. baad mein hamne laakh samjhaya ki ye sab majak tha, par aksharvar chacha Dar gaye the.
dikkat tab hui thi jab shor sun kar gali ke turant bahar mukhy saDak ke chaurahe par vahnon se vasuli ke liye chaubison ghante tainat rahne vale police ke log bhi gali mein aa gaye the. hum sabne police ke logon ko samjhaya aur wo maan bhi gaye par jate jate un logon ne rikshe mein seat hata kar dekha, rikshe ke niche dekha, kahin bam to nahin hai, hidayat di tyre tube sahi rakho nahin to Daal diye jaoge. hum sabko bhi DanDa dikhaya jyada javani chaDh gai hai kyaa?
is ghatna ke hone tak hamare shahr mein nae s. pi. ka aana nahin hua tha, is tarah wo niyam to door door tak logon ke khvabon mein bhi nahin tha, jo s. pi. ne shahr mein aane ke baad apradh aur atankvad kam karne ke liye lagaya tha jismen harek puliskarmi ko roj ek apradhi pakaDna hota tha.
akshayvar chacha vali ghatna se Dare to hum bhi the par akshayvar chacha se kam hi Dare the. phir bhi hamare beech atankvad ka majak, atankvad ki gali, atankvad ka khel sab chalta rahta tha. hum doston ko ‘sala’ baad mae ‘atkanvadi kahin ka’ pahle kaha karte the. un dinon desh ka mahaul hi kuch aisa tha. samacharpatr, patrikayen, telivijan, shasan ka bahana sab kuch atankvad se shuru hokar atankvad par hi samapt hota tha.
gaanv chale aane ke karan in dinon ke halat ke bare mein hamein vishesh jankari nahin hain. darasal unhin dinon ek saath kuch aisi baten ho gai theen ki hum gaanv chale aaye the. pitaji ki sinemahal vali darbani chhoot gai thi. mere tution bhi paryapt nahin the, maan ka dusre gharon mein bartan pochhe ka kaam bhi theek nahin chal raha tha. phir bhi bhai ki paDhai agar jari rahi hoti to hum kuch bhi kar dhar ke shahr se chipke rahe hote.
unnis sau assi mein janma mera bhai mujhse paanch saal aur pitaji se pure pure taintis saal chhota hai. pachchis ki umar mein hi wo pichhle saat aath salon se lagatar baitha hua hai aur na jane kitne salon tak aise hi baitha rahega. itni kam umr mein bhi use kuch sunane ke liye uske kaan ko apni donon hatheliyon ki golai mein samet kar aur hatheliyon ki us golai mein munh ghusa kar khoob tej tej chillana paDega, tab jakar wo kahin kuch sun payega. dekh to, khair, wo bilkul bhi nahin pata hai.
jin dinon gulshan aisi haalat mein pahuncha tha, un dinon hum sochte the ki jo kuch bhi mahatvapurn ghat raha ho, use gulshan ko bataya jana chahiye. cricket ki khabren, filmon ki baten, vishesh taur par shahrukh khaan ki filmon ki kahaniyan hum uske kaan mein chilla chilla kar batate the. par dhire dhire hamara uski itni saghanta se dekhbhal karna kam hota gaya.
hamare paas na to itni urja hai aur na hi uski koi jarurat ki gulshan ke kaan mein chilla kar sab kuch batayen. ye kaam ab manbahlav ke liye gaanv ke bachche karte hain ya phir koi khushkhabri sunani ho to shalu ye kaam karti hai.
akele palani mein paDe paDe gulshan ko jab bhi koi jarurat hui to ek baar jor se mujhe, shalu ko, ya maan ko pukar lega. tab jis kisi ke paas phursat hui wo uske paas aa jayega, varna gulshan ko lamba intjaar karna paD sakta hai. hamesha muskrate rahne ka usne shagal paal liya hai.
jab gulshan ke khane ka samay hota hai tab bhi wo muskrata hi rahta hai. pahle jo hota raha ho, par ab hum uske haath dhula kar uski koi ungli khane mein Dubo dete hain, wo khane lagta hai. takliph tab hoti hai, jab use chaay, garm doodh; kabhi kabhar ya koi garm khana dena hota hai.
apni taraph se hum bharpur koshish karte hain ki chaay ya garm khana gulshan ke sharir ke kisi kathortam hisse se chhulayen taki use na ke barabar takliph ho. par hota ye hai ki jab hum use chaay chhulate hain to muskrate hue hi wo buri tarah kaanp jata hai, daant par daant chaDha kar ankhen aur muththiyan bheench leta hai. uska chehra vikrt ho jata hai; muskrata rahta hai.
ya phir agar koi aakar gulshan ki bain baanh chhu le to gulshan, apne anuman se usi tarah apna sir itna upar uthata hai jitni ek vekti ki lanbai ho sakti hai. agar wo bain baanh chhune vala adami bhaag kar dain taraph aa jaye to bhi gulshan apne ko puri tarah chaitany dikhane ki koshish mein bain taraph hi sar uthaye, haath milane ke liye dahina haath uthata hai, tamam parashn puchhne lagta hai, kaise hain, kya ho raha hai, cricket match ho raha hai ya nahin ya phir (kabhi kabhi) mujhe peshab karna hai. gulshan ye jatane ki koshish karta hai ki wo samne vale ko dekh sakta hai, sun sakta hai.
is baat par dusron ki jo haalat hoti hai, wo to hoti hi hai, wo bhai ka majak uDane vala adami bhi bhai ki is dasha par udaas ho jata hai.
mera bhai, gulshan, aisa nahin tha.
un dinon hum banaras mein raha karte the, jab mere bhai gulshan ko intarmiDiyet ki pariksha mein samuche shahr mein pahla sthaan praapt hua tha. phir to hamare khvabon ke pankh lag gaye.
lamba chauDa mera bhai itna sundar tha ki ramashish chacha ki us baat se sabhi log puri tarah sahmat the. ramashish chacha ka kahna tha ki aise khubasurat naujavan ko sirph sapnon mein dikhna chahiye. sapne aise ki ye laDka ghoDe par chaDha ho, us sapne mein ek taraph samudr aur dusri taraph pahaD hone chahiye, ghoDe par bhagta hua ye laDka aapse hi milne aa raha ho.
gulshan chehre mohre mein puri tarah maan par gaya tha. isiliye hamein shuru se pata tha ki wo behad bhagyashali hoga. mere ghar tatha paDos mein is niyam ko behad utsaah se dekha jata hai, jismen agar bete ka chehra maan se aur beti ka chehra pita se mile to aise bete betiyan bhagyashali hote hain. is lihaj se bahan ko bhi bhagyashali hona tha. main jarur bhagyashali nahin tha aur chhabbis sattais ki umr mein do do sau ke paanch aur teen sau ka ek, kul chhah tution paDha raha tha.
intarmiDiyet mein itne baDhiya ke baad hamari, meri aur pitaji ki, dili tamanna thi ki gulshan desh ke sabse achchhe injiniyring kalej se injiniyring ki paDhai kare. phir wo chahe to collectory kar le ya phir wo salike se dalali vala kaam, main us kaam ki vishesh sanj~naa bhool raha hoon, vahi jismen khoob moti tanakhvah hoti hai, munimi jaisa kaam hai wo, bhai, jismen raton din logon ko jyada lutne ki yojnayen banai jati hain.
bhai ko lekar jo hamari sabse kroor khvahish thi, wo amir ban jane ki thi. gulshan ki naukari ko lekar hum das rupae tak hi soch pate the. das hajar rupae ke paar ki tanakhvah tak jaise hi hamari baat pahunchti (meri, pitaji, sima, maan) to mere pet mein kaisi to hudhudi mach jati thi, main uttejit ho jata, mere haath pair kanpne lagte the. hum sabhi ki haalat kamobesh aisi hi hoti.
sabse hoshiyar kshnon mein bhi jab hum sab das hajar aur usse jyada rupayon ke bare mein sochte to yahi sochte ki hum log itne rupae ka akhir karenge kyaa?
aisi baton ke darmiyan bhai ke samne aate hi hum sabhi batachit samet lete the. hammen se koi gulshan ki taraph muskrate hue dekhta. pitaji aur maan ki muskan hum bhai bahan ki muskan se jara alag hoti thi narm. ek saath hum sabhi gulshan ko ye ehsaas dilana chahte the ki, dekho, tum hamare liye kya ho?
hamari kroor khvahish ke alava any khvahishon mein pitaji ke pairon mein anavrat rahne vale us dard ka ilaaj karana tha, jis dard ko hum tatana kahte the.
pandrah solah saal pahle hum gaanv se aaye the, tabhi se pita ji sarasvati cinema (laksa roD par hai) ki darbani kar rahe the. pitaji ke pairon ki pinDaliyon ka wo dard sarasvati cinema ki darbani mein lagatar khaDe rahne se upja tha. jitne samay pitaji ghar par rahte, bhai ko pairon par chaDhaye rahte the. kai baar puchhne par bataya tha ki dard hamesha rahne laga hai, chalne ke kram mein dard itna baDh jata hai ki aage ghisat pate hain, lagta hai ki pair arra kar kat jayenge.
main sunta raha tha.
theek aisa hi bahan dard ko lekar bhi tha, jiske bare mein shayad, abhi tak main bata nahin paya, tamam davaiyon, plastic ki rassi se sir bandhna, cheekh. hota ye tha ki hamari batachit agar hansi ki parakashtha par pahunchti to achanak meri bahan hanste hanste sir pakaD leti thi. uske aisa karte hi hamara dil baithne lagta tha. hum jaan jate the ki ab bahut paisa hoga.
hum sabhi shashvat bimar the. aisa isliye kyonki hamein lag raha tha ki, hamein apne sukh, dukh, teej, tyohar ko tab tak ke liye taal dena tha jab tak gulshan kisi naukari mein na aa jaye. pitaji ke pandrah sau aur mere terah sau mein se ghar kharch hata kar baki bacha pura paisa gulshan par nivesh ho raha tha. ab to hum tyoharon ki tithiyan tak dhyaan mein nahin rakh pate the aur isse maan ko bahut pareshani hoti thi, maan ka koi na koi vart hamesha chhoot jaya karta tha.
sab kuch ‘bus sapnen pure hone valen hain’ , jaisa chal raha tha.
hamari bhavi env bhavy yojnaon par bhai ne ye kah kar pani pherne ki koshish ki thi, mujhe yaad hai, ki wo to bina injiniyring ki paDhai kiye bhi achchhi naukari pa lega. bhai ke is uddanD uvaach se main sakapka gaya tha. mujhe laga ki, kahin mere uddanD bhai ke dil mein koi masum kona to nahin ubhar aaya tha, ya ki ye kaun si khuraphat thee?
mujhe laga tha ki kahin wo apne khelte kudte rahne ki yojnaon ko vistar to nahin de raha tha kyonki jitna kam samay ab tak wo paDhai par deta aaya tha utne mein to pratham shrenai bhi lana mushkil ho jata, shahr mein pratham sthaan pana to phir bhi ek baat hai.
cricket aur filmon ke betarah shaukin mere bhai ko jab paDhna hota to usi ek kamre mein dival ki taraph munh karke paDhne baith jata. vahi ek kamra tha jismen hum sabhi rahte the, saath mein bathrum bhi tha. gulshan ke paDhne ke dauran laakh hohalla ho wo pichhe ghoom kar dekhta bhi nahin tha. lekin jab paDhai khatm kar leta to sara ghar sar par utha leta tha. filmon ki batachit, cricket, gaanv jane ki batachit.
apni yojnaon ke prati gulshan ke nishedhatmak bhaav ko lekar chintit hum logon ne ek din gulshan ko haDkaya. pitaji to chup hi the, main bole ja raha tha. main gulshan ko duniya jahan ki bematlab ki baten samjhata raha tha.
par bhai ne ye kah kar mujhe charon khane chitt kar diya tha ki wo injiniyring vagairah sirph isliye nahin karna chahta hai kyonki wo ghar ki haalat dekh raha hai. naukari to kuch bhi paDh ke pai ja sakti hai. varna jo aap logon ki marji.
‘ghar ki haalat dekh raha hoon’ vali baat mujhe achchhi nahin lagi thi. mainne gulshan ko bataya ki paDhai ke liye bank lon dega. ya phir khuda na khaste meri hi naukari lag gai to. ye jarur tha ki naukari ke naam par ab mujhe un sapnon ke ansh dikhai dene lage the jismen main relgaDi ke aage gaisbatti liye dauD raha hoon. un dinon tak mujhe is sapne mein sirph gas batti dauDti hui dikh rahi thi, main nahin. main gulshan ko batana chahta tha ki ‘kuchh bhee’ paDh kar naukari pana mushkil hai.
mainne gulshan se ye bhi kaha tha ki kahin aisa to nahin ki wo aage ki kathin paDhai ke naam par Dar raha hai. is baat par gulshan ne ruansa hokar mujhe dekha tha. mujhe yaad hai, uske dekhne mein aisa kuch tha ki ‘ye aap bol rahen hain, bhaiya. ’
phir to hamara gulshan ekayek badal gaya. kal tak ekdam kam paDhne vala gulshan, agle hi din se kitabon mein Doob gaya tha. wo kitabon mein Dubta ja raha tha, hum khush hote ja rahe the. bhai ki paDhai mein khoob paisa lagega, ye jankar hum nae sire se naukariyan talashne lage the. maan ne phir se bartan pochha vala kaam shuru kar diya tha. main aur meri bahan praivet schoolon ke chakkar laga rahe the.
din bhar hum bhai bahan mastari DhunDhate aur raat mein neend aate hi shahr ke sabse achchhe school mein paDhane chale jate. main prinsipal ho jaya karta tha. bahan bhi meri hi gaDi se lautti thi. lautte hue hum koi kharidari karte ya man hua to kabhi filmen bhi dekh lete the. dikkat sirph tanakhvah ki thi. neend khulne ke turant pahle hamein tanakhvah milani thi par asavadhnivash ya jane kyon hamesha tanakhvah mein mile noton ke banDal neend mein hi chhoot jate the. ek baar to mainne khoob kas kar noton ko pakaD liya tha aur puri taiyari mein tha ki ek chhalang lagata aur neend se uchhal kar bahar pahunch jata, lekin dusri dikkat ye thi ki subah uth kar chaay mangne par bahan isliye chaay dene se mana kar deti thi, ki raat mein usse adhik tanakhvah mujhe mili hoti thi.
hum sabne main, pitaji, maan, bahan apni lagatar vyasttaon ke bavjud gulshan ke pal pal ka khyaal rakhna shuru kar diya tha. paDhai kathin thi. uske khane pine se lekar nahane dhone tak hum hamesha tatpar rahne lage the, ye tauliya le lo, aaj sardi hai kam nahana, kya khaoge tamam, tamam. uski taraph se koi pharmaish nahin hoti, isliye maan lagatar uske liye sarson ki kaDhi banane lagi thi.
un dinon hamein ye barabar mahsus hota raha tha ki gulshan ka bolna chalna ekdam na ke barabar rah gaya hai. bus, kabhi kabhi maan se bol liya. khelakud, yaar, dost sab chhoot gaye the. par gulshan ke paDhte rahne ko lekar hamari khushi itni jyada thi ki hum kuch aur dekh kar bhi nahin dekh pa rahe the. hamare bahar, hamare beech mein, hamare bhitar kuch aisa tha jo nirantar apni gati se ghat raha tha, bus hamein uski khabar nahin thi.
apne bhitar kuch anjana aur kuch betartib ghatne ki jab mujhe pahli baar pushti hui, tab tak gulshan ko ek hi sthaan par baith kar paDhte hue Dhai teen mahine beet chuke the. hum donon bhai bahan ki praivet schoolon mein mastari ki talash jari thi. lekin jis din ki ye baat hai, us din hum ghar par hi the, mujhe yaad hai.
us din shayad pitaji chhutti par the, ya duty se aa chuke the, ye to yaad nahin, par baat yahi ho rahi thi ki kahin se mota paisa mil jata to sima ka ilaaj jaldi hi kara liya jata. ho sakta hai us vakt sima ko sirdard se rahat nahin hogi, tabhi wo pitaji ki is raay par halke se muskrai thi ki ‘kahin se mota paisa mil jata. . . ’ sima ko muskrate dekh hamein bahut khushi hui thi.
bimar bahan ko aur jyada khush karne ke liye main pitaji ki us ‘kahin se paisa mil jata’ vali khvahish se tamam tarah ke chutkule banane laga tha. main kah raha tha ki ‘kaash chhappar phat jaye ya phir andhi aaye aur koi tijori uDa laye kisi ka paisa bhara bag mil jaye. . . ’ meri baton aur kahne ke andaj ke asar se maan aur sima jor jor se hens rahi theen aur pitaji sar jhukaye muskra rahe the.
apne bevkuphana chutakulon par jab kanakhiyon se mainne pitaji ko sar jhukaye muskrate hue dekha to mera utsaah baDh gaya tha, chutkule kahne ki meri gati bhi doguni ho chuki thi. main anapashnap kaisa bhi chutkula sunaye ja raha tha. maan aur sima ka hansna bhi tej se aur tej hota gaya tha. pitaji ka muskrana bhi.
mujhe yaad hai, un logon ke hensne aur muskrane se main had se jyada uttejit ho gaya tha par usi uttejna mein mujhe achanak khyaal aaya tha ki abhi henste henste bahan ke sir ka dard baDhega aur wo apna sar pakaD legi. tab hum sab chup aur udaas ho jate. is khyaal se Dar kar main bahan ki taraph dekhne laga tha par bhitar ki na jane kis bhavna se main prerit ho gaya tha ki chaah kar bhi apni baten aur chutkule kahna rok nahin pa raha tha ki tabhi maan ne hansna band kar diya tha. usne hamein bhi ishare se chup ho jane ke liye kaha tha. phir ishare se hi maan ne gulshan ki taraph dhyaan dilaya tha ‘vah paDh raha hai n!’
ab bhi mujhe ghanghor ashchary hota hai. us din bhi hum ashcharyachkit hokar rah gaye the ki yahin chaar paanch haath ki duri par baithe gulshan ko hum akhir bhool kaise gaye the. kam se kam mujhe to iski ratti bhar khyaal bhi nahin raha tha ki gulshan us kamre mein maujud bhi hai.
aur phir apne bhai ko hi bhool jane ki anhoni se bhaybhit hokar jab mainne ghoom kar pichhe ke dinon mein jhanka to dekha ki hum bahut pahle se hi gulshan ko bhulte jane ki prakriya mein shamil ho chuke the.
pichhle dinon mein lautte hue jab main is varsh ke dashahre ke ek din pahle vali raat mein jhankta hoon to pata hoon ki maan, main aur pitaji bistar par ja chuke hain aur bahan sone se pahle batti bujha kar apne bistar par chali aati hai ki kuch kshnon baad achanak batti jal uthti hai.
batti jalte hi hum sabhi uth kar baith gaye the. aphsos se ghire hum log bus itna hi kah pae the jara bhi dhyaan nahin diye, babu. gulshan bina kuch kahe chupchap paDhne baith gaya tha.
bolna chalna to gulshan ne tabhi se band kar diya tha jis din se hamne use injiniyring kalejon ki pravesh parikshaon ki taiyari mein laga diya tha. ho sakta hai jaruri kriyaklapon ke alava baki samay sirph paDhai likhai par dene se use kuch any sochne ki phursat bhi nahi rahi hogi. ya phir bahut sambhav hai ye bhi hua ho ki hamare sapne, hamari ummiden uske kahin gahre jakar dhans gai hon. un dinon gulshan kuch bola bhi hoga to chhathen chhamase hi, wo bhi sirph maan se hi bola hoga.
hum, hum sabhi, theek theek ye nirnay karne ki sthiti mein kabhi nahin rahe ki ye bhulna, akhirkar, kiski taraph se ho raha tha. gulshan hamein bhool raha tha ya hum gulshan ko bhool rahe the.
khane ko hi len, un dinon jab kabhi maan gulshan se kuch dubara parosne ke liye puchhti to wo ya to sar nahin Dulata, ya kabhi ‘haan’ mein Dulata kabhi ‘nahin’ mein Dulata. par iska ye matlab katii nahin hota tha ki agar wo ‘haan’ mein sar Dulata to use kuch chahiye hi chahiye ya phir wo ‘na’ mein sar Dulata to use kuch bhi nahin chahiye hota tha. wo gayab bhi nahin hota tha. darasal sar nahin Dulate hue, sar ‘haan’ mein Dulate hue, ya sar ‘n’ mein Dulate hue gulshan maan se nahin, apne bhitar ke kisi parashn se mukhatib raha karta hoga.
hum is baat ko bahut baad mein samjhe the. maan ne us din chhath ka parna (purnaahuti) kiya tha aur hamein khane mein sabji aur parsad ka thekua mila tha. maan ne gulshan se puchha tha thekua aur den? gulshan ne ‘haan’ sar hilaya tha. par maan ke thekua paroste hi gulshan ne maan ki taraph dekhte hue kaha tha ‘are’! (usne hamari taraph dekhana to kab ka band kar diya tha, hum sochte the aisa uski paDhai ki vajah se hai. ) ‘are’ kahne ke baad, mujhe yaad hai, usne sir niche kar ke ‘chch’ kaha tha.
ye to uski, hamein bhulte jane ki prakriya thi. mere paas karan to kai aaye par main svayan bhi kabhi nahin samajh paya aisa kyon ho raha tha? kaise ho raha tha?
jaise, kai shamon ko aisa hua ki hum ya to chhat par chale jate, baans ki siDhi se chhat par jane mein hamesha phisalne ka Dar bana rahta tha, ya kabhi kabhar bajar bhi chale jate. aur ghar mein tala laga dete the. vapas aakar betarah sharmshar hote. gulshan yahin, isi kamre mein paDh raha hota tha.
gulshan ko bhulte jane ki bimari agar sirph mujhe hoti, to main kabhi ye sochne ki koshish bhi nahin karta ki aisa kyon ho raha hai. par main dekh raha tha ki hum sabhi gulshan ko bhulte ja rahe the. aur to aur maan bhi. hamari takliph ye thi ki aisa hamse anayas hi hota ja raha tha. hum chaah kar bhi kuch nahin kar pa rahe the.
aisa bhi nahin tha ki hum har vakt gulshan ko bhule hi rahte the. hamari ummiden usse theen. usse bhi baDh kar maan pitaji ka sabse dulara tha mera bhai. mera surya. bahan ki to jaan gulshan mein basti thi. hum har vakt uska khyaal rakhte par na jane kis vakt use bhool jate.
shuru shuru mein hum sabka gulshan ko bhulna alag alag aur kabhi kabhi hota tha. jaise main gulshan ki upasthiti ko bhulta to koi aur uski yaad dila deta ki, wo dekho, vahan baitha paDh raha hai. gulshan itna jyada paDhta tha ki, mujhe yaad hai, wo ghante do ghante ke liye akhiri baar us kone divali ke ek din pahle hata tha, jab ghar ke jale saaph kiye gaye the.
phir bhi, gulshan ko bhulna khane pine tak tatha sote samay aksar hi batti bujha dene tak hi simit rahta to ganimat thi. par ab hum use pahle ki tarah do chaar das pandrah minat ke liye nahin balki kai kai dinon tak bhulne lage the.
pahli baar gulshan ko lambe samay tak bhule rahne ka andaja hamein uske naam se aaye praveshapatr se hua tha. desh ke pratishthit injiniyring kalej ki pravesh pariksha ke liye ye praveshapatr aaya tha. praveshapatr dekh kar hamein ye khyaal aaya aur sabse pahle ye khyaal maan ko hi aaya tha ki ‘main bhi soch rahi thi us din janagnana valon ke samne kaun sa naam chhoot raha tha?’ maan phir bhai ko banhon mae lekar bahut der tak roti rahi thi.
jis din janagnana karne vale log hamare ghar aaye to sabse pahle un logon ne makan number puchha tha. ghar ke sadasyon ki babat ghar ke mukhiya ke roop mein pitaji ka naam, maan ka naam, mera naam tatha chhoti bahan ka naam bataya gaya tha. saath mein umr bhi likhvai gai thi.
ek haath mein praveshapatr thame, dusre haath se gulshan ko apne ankavar bhare, maan ka rona ruk hi nahin raha tha. chup lagati thi phir turant hi rone lagti thi. aur ahak ahak kar roti rahi thi.
pitaji bhi bahut der tak chhat ki taraph dekhte hue na malum kya sochte rahe the. phir kuch der tak ‘haan’ mein sar Dulate the. gulshan ke paas jakar uske balon mein ungliyan phirane lage the, maan se kahe the iske sir mein roj tel Daal diya karo, itni kam roshni yahan pahunchti hai ye bhi kaha tha ki agle mahine, na ho to, ek bulb idhar bhi lagva denge. bulb holDar aur taar lekar kitna kharcha ayega pitaji ne mujhe pata karne ke liye kaha tha. is ghatna se hum buri tarah Dar gaye the.
‘aisa kyon ho raha tha’ ke karnon ka hum theek theek kabhi pata nahin laga pae. ab to hum sabne tamam karan ikatthe kar liye hain aur jab jaisa mauka aata hai hum us hisab se un karnon mein se kisi ek ko apne man se bahar lakar un par sochne lagte hain. us vakt baki bache karnon ko hum apne bhitar hi kahin dabaye rakhte hain.
gulshan ko bhulte jane ka jo sarvadhik tasalli dene vala karan tha wo ye ki ghar ke jis kone mein usne khud ko apni kitabon samet jama rakha tha wo ghar sabse andhiyara kona tha. dusre kone ko gher kar rasoighar banaya gaya tha aur kamre ka bulb bhi usi kone mein tha. tisre aur chauthe kone mein do darvaje the ek bathrum ki taraph to dusra bahar ki taraph khulta tha. is tarah gulshan sarvadhik andhere mein tha.
dusra karan ye ki hum use isliye bhulne lage the kyonki usne bolna chalna aur koi hastakshaep karna bilkul hi chhoD diya tha.
ya isliye ki hum nishchint the ki wo jo kuch kar raha tha, hamare man ki kar raha tha.
ya phir hum apne apne kaam karne mein to vyast rahte hi the, uske itar bhi hum hamesha kuch jyada karne ki sochte the pitaji cinema ki ticketen black karne ki sochte rahte the, maan bartan ponchha ke liye dusre ghar talashti rahti thi aur main aur sima neend mae tanakhvah pa rahe the.
hum had se jyada vyast the.
ya phir mujhe lagta hai ki hamein hi kuch ho gaya tha. hum kisi anavrat shor ke shikar ho gaye the, jo hamein atirikt kuch bhi sunne nahin deta tha. theek isi tarah drishyon ka bhi ghamasan hamare bhitar macha hota tha.
is ‘kuchh ho jane’ ko pahli baar mainne kaksha teen mein jana tha. aath nau saal ka raha hounga. shanivar ke din vidyalay ke sabhi laDke laDkiyan bees kataron mein khaDe hokar samuhik pi. t. (sharirik shiksha) kar abhyas karte the. us din bhi pi. t. vale acharya ji ne kaha tha – ek aur sabke saath mainne bhi apne haath Daine ki tarah phaila diye the, kaha do sabne haath upar karke tali bajai, kaha teen. . .
mere paas teen kahne ki bus dhun hi pahunch pai thi i i na ki tarah. chaar kahne ki bhi bus dhun hi i thi. teen aur chaar sunne ki jagah par main shayad badalon mein pratibha ko dekhne laga tha jisse main utni chhoti umr mein hi bahut pyaar karta tha aur wo us din vidyalay nahin i thi, ya phir agle mahine milne vali chhatravrtti ke bare mein sochne laga tha aur kuch hi palon baad main jamin par chhitraya hua mila.
mere haath do ki avaj ke anusar upar hi tenge rah gaye the jabki baki sabhi laDke laDkiyon ne ‘teen chaar’ ke baad apna haath ‘vishram’ mein kar liya tha. mera dhyaan pi. t. vale acharya ji ke jhapaD se lauta tha, jo mere bekhyali mein mujhe dharashayi kar gaya tha, honth kat gaye the, munh mae balui mitti bhar gai thi. ab bhi kabhi kabhi mera munh balu balu ho jata hai. thu thu aathu chch, oh aayu. baad mein pi. t. vale acharya ji ne mujhe bataya ki lag raha tha, tum kahin kho gaye the. lag raha tha mere bhitar koi bhulabhulaiya thi.
phir to bachpan se hi lagta raha hai ki main hardam hi khoya voya rahta hoon. is baat ki taraph mainne gaur karna shuru kiya to dekha ki jo jitna mere jaisa hai utna hi khoya rahta hai. aur, sochiye, aisa tab jab main pagal bhi nahin hoon.
dhire dhire hi sahi par main apne aapko ye samjhata raha hoon ki ye khoya rahna aur kuch nahin ek anavrat sanvad hai. mere bhitar baitha koi hai jo meri nakamiyon par chikhta hai, bilakhta hai, main use apne sapnon ka ullaas sunata hoon. wo, bhitarvala, meri kamiyon par chillata hai mujhe Dantta hai, meri barbadiyon par rota hai, main use kuch kar dikhane ki bechaini mein shamil karta hoon. pahle, bahut pahle, ek baDi door se aati pukar bhi thi, shayad pratibha ki, aath nau saal ki pratibha. ab us pukar ki jagah berojgari ke nagaDe bajte hain. gham gham gham. gham gham. gham.
main hamesha budbudate rahta hoon ye to, khair, dusron ka manna hai.
itna hi nahin, ab to mere bhitar adrshy drishyon ka bhishan ghamasan bhi hai, jo mujhe bahar kuch bhi dekhne nahin deta. mujhe yaad hai, us din main paDhane ja raha tha, cycle par aage shalu baithi thi, ki mujhe saDak se sati wo dival dikhi thi, mujhe ye bhi laga tha ki main dival mein jakar laD jaunga, phir kuch palon ke bhitar hi wo dival mere jehan se gayab ho gai aur main turant hi dival mein laD gaya tha. shalu ko bahut chot i thi.
samne se koi gaDi gujar jaye to mujhe yahi lagta hai ki dhoop ke rang par koi kali parchhain gujri hogi. agar gujri hogi, to.
aalam ye hai ki biyavan mae bhi aapse baten karun to bhi bhitar ki satat cheekh kuch bhi sunne nahin deti, tatha apaki baten sunne ke liye mujhe apaki taraph jhukna paDega, ‘kya kaha?’ vale andaj mein apne kanon ke paas haath lagana paDega.
rahi baat dekhne pahchanne ki, to auron ko chhoD dijiye, apni bitiya rani shalu ko bhi main nile ujle phool vale halke pile rang ke phraak aur chhoti chhoti chotiyon se hi andesha lagata hoon ki ye bachchi shalu hi honi chahiye.
janagnana vale hadse ke baad bahut dinon tak hum pareshan aur gumsum rahe the. khud se glani hoti rahi thi aur dusron se ankh milane mein bhi sharmane lage the is ghatna se hadas kar hum sabne phir se gulshan ke pal pal par najar rakhna shuru kar diya tha.
tab tak gulshan ek pariksha de chuka tha aur shayad use apne pichhaDne ka ehsaas hua hoga kyonki unhin dinon maan ne bataya tha ki gulshan kisi koching ka naam le raha hai. jab hamne koching sansthanon mein phees ke malumat kiye to phees itni jyada thi ki hamein bhai ko ye samjhana paDa ki koching voching to is daur ke jhamele hain, kya aaj se pahle saphal log nahin hue, tum, bus, paDhte jao.
hamne dekha ki gulshan na jane kyon divar ki taraph munh karke paDhai karne laga tha. mainne maan ko samjhaya tha ki divar ki taraph munh karke paDhai karne se ho sakta hai yaad karne mein suvidha hoti hogi aur ismen aisi koi baat nahin thi ki gulshan naraj hokar hamse badla lene ki koshish kar raha tha.
to bhi bhai ki paDhai likhai mein koi kami nahin thi. ek injiniyring kalej mein nahin to dusre mein uska pravesh ho hi jana tha. hum har pal uska khyaal rakhne lage the. bahan ki naukari ki talash abhi jari thi. mere tution chal rahe the. pitaji bhi achchhi khasi sankhya mein ticketen black kar rahe the. maan bartan ponchhe ke liye do any gharon mein jane lagi thi. mujhe isi baat ka Dar tha ki hamare din achchhe gujarne lage the.
aap baDe log hain, is baat ko aise samjhiye maan lijiye aapke shahr mein bijli katauti ka samay aath se barah hai. aise mein agar kisi din bijli nirdharit samay par nahin jati hai to aapke shahr mein jo mere jaise log hongen, ve is baat se Darenge ki ab agar bijli gai to lambe samay ke liye jayegi. samjhe. main ashankit rahta tha. hamesha.
yahi ve din the jab akshayvar chacha ke rikshe ke tyre bol jane ki ghatna ghati thi. un dinon shahr mein charon taraph (aur desh bhar mein bhee) atankvad aur atankvadiyon charcha suchnatantr par chhain rahne lagi thi. shuruat mein to hamne antakvad ka hansi majak banaya kyonki hamare muhalle mein kisi ne kabhi atankvadi nahin dekha tha. par dhire dhire ye sab kuch khauph mein badalne laga tha. agar ek pahar sarkari pani nahin aata to hamein yahi lagta tha ki kal ka akhbar pani tanki uDaye jane ki khabar chhapega. kuch hi dinon pahle ghati akshayvar chacha ke rikshe vali ghatna mein police ke hastakshaep ne hamare Dar ko baDha diya tha.
dusre is shahr ka jo thoDa bahut aitihasik mahatv tha, mandiron vandiron ke karan. ek khaas tabke ke liye to inhin karnon se is shahr ka bahut mahatv tha, to us aitihasik mahatv ko dekhte hue sarkar ne apne sabse dabang police adhikari ko is shahr ka naya s. pi. niyukt kiya tha.
shahr ke nae s. pi. ne apna karyalay sambhalte hi apradh aur atankvad par kabu pane ke liye kuch nae aur beDhange niymon ka ailan kiya tha teen aur teen se jyada log ek saath na khaDe ho harek puliskarmi ko rojana kam se kam ek apradhi pakaD kar dena hai pratyek pratishthit evan baDi dukanon tatha niji sansthano ko prashikshait guard rakhne hain, jo hathiyaron se lais hon.
in niymon se hamara kuch bhi lena dena nahin tha to bhi behad Dar gaye the. police se to hum gali ke log aise hi thartharate the, ab ye nae niyam bhi the. police shabd sunte hi mujhe tarango jaisi khoob unchi aur khoob nichi Dhalanon vali, mitti ki saDak yaad aa jati hai. ek bachcha akele vidyalay ja raha hai. asapas door door tak koi nahin dikhta hai, bahut door do yukiliptas ke peD hain. bilkul niranv. laDka abhi saDak ki Dhalanon mein pahuncha hi hai ki pichhe se use police ke do log, cycle se Dhalan utarte dikhte hain.
mera gala rundh gaya tha. mainne nahin rone ke liye honth bheench liye the, phir bhi ankhon mein pani bhar gaya tha. police ke log najdik aa rahe the. main jahan tha, vahin khaDa ho gaya tha, aur dusri taraph dekhne laga tha. jaise hi police ke log mere karib se gujre, mainne unhen haath joD kar namaste kaha tha. ve bus muskraye the aur ek dusre se baat karte hue chale gaye the.
kuch hi dinon baad, mujhe yaad hai, ek din pitaji der tak sote rahe the aur us din sima ko apne pairon par chaDhaye hue the. maan ko bhi ashchary hua tha, aaj ye cinema haal kyon nahin ja rahe hain? pitaji din bhar sote rahe the, shaam ko bataya tha, ab ‘bahadur sekyoriti phors’ ke prashikshait guard sarasvati cinema ki darbani sambhalenge.
wo koi mukhyamantri ka karibi tha jo ‘bahadur sekyoriti phors’ ka malik tha. wo apne niji phors mein un logon ko bharti karta tha jo gaanv dehat ke the aur sipahi, military ke prashikshan ki taiyariyon ke baad asaphal ho gaye hote the. usi ne upar se s. pi. par dabav banvaya tha. isi atankvad ke bahane wo sabhi dukanon par apne sekyoriti gaarDs rakhna chahta tha.
un dinon pitaji ki darbani chhoot jane ke baad mujhe is baat par ashchary hua tha ki kya main jyotishi hoon, ‘kuchh bura hi hoga’ vali meri ashanka hamesha hi sach ho jaya karti thi. to bhi pitaji ke darbani chhutne ka hamne jyada shok nahin manaya kyonki shok manane ke liye jaruri donon hi chijen hamare paas nahin theen paisa aur samay. apni naukari chhutne ke babat pitaji ne hamein yahi samjhaya jaan lo, ki agar taklifon ki koi sima hoti hogi to us sima ke akhiri chhor par hum pahunch chuke hain, aur yahan se hamare baDhiya din shuru honge.
kaam chhutne ke do teen din baad se hi pitaji manDuaDih vali gulammanDi mein jane lage the. shahr ke door daraj kshetron evan ganvon se roj yahan saikDon log jama hote the. yahan kaam mil jane par ek din ke pachas rupae to milte hi the. kaam bhi dihaDi ki tarah ka hota tha. yahan dikkat ye thi ki roj kaam nahin milta tha, jabki mere pitaji apne aur mere sare kapDe pahan kar jate the taki ve khoob mote dikhen aur turant koi unhen apne kaam ke liye ‘pakaD’ kar le jaye.
mujhe yaad hai, ek baar un garmiyon mein itne kapDe pahan kar gulammanDi jane bavjud ek haphte tak koi kaam nahin mila tha to pitaji ne, auron ki tarah, us dalal se baat kiya tha jo din ke antral par kaam dilata tha aur evaj mein bees rupae leta tha. par kaam to karna tha.
pitaji ke pairon ki takliph aur kaam karne ki jaddojhad ko dekh kar main sochta tha ki main bhi to pitaji ke saath gulammanDi ja sakta hoon par main itna neech tha ki mujhe sharm aati thi aur mere tution bhi chal hi rahe the. pitaji ki takliph dekh kar jab main jitna hi un relgaDi ke aage gas batti lekar dauDte hue pata. relgaDi ke aage dauDta hua ‘main’ jab naukariyon ke bare mein sochte hue ‘main’ ko dekh kar muskrata tha to puri gas batti hilne lagti thi. dauDte hue meri kali pant chamakti rahti thi.
hum sabki chinta pitaji ke kaam milne ko lekar to bahut hoti hi thi par hamein is baat ka behad Dar bhi subah se shaam tak bana rahta tha ki gulammanDi mein bheeD hoti thi. pura muhalla un dinon bheeD mein phansne se Darta raha tha.
hamara Dar shahr mein lage us nae kanun se upja tha, ki, teen se jyada log ek saath nahin khaDe ho sakte hain. ek to shahr ki nigah mein hamara darja bhi uncha nahin tha aur dusre gulam manDi ki bheeD. hum sabhi apne kamdham karte rahte the aur saath mein pitaji tatha atankvad ka khyaal bhi dinon raat man mein rahne laga tha. hum harek shaam pitaji ko ghar lauta dekh kar hi atankvad ke khyaal ko kuch der ke liye apne man se taal pate the.
hamare muhalle tatha visheshkar, hamari gali ke logon ki dharapkaD baDh gai thi. isse Dar kai guna baDh jaya karta tha.
ek din jab pitaji ke aane mein jab bahut der ho gai thi to muhalle ke logon ne samjhaya tha ki ‘Darne ki koi baat nahin hai, hum log hain na, bus, ekbaar jakar manDuaDih thane mein dekh lo. ’
mujhe yaad hai pitaji rathyatra chaumuhani par ek mungaphali vale ki tokari mein se mungaphali nikal kar khate hue mil gaye the. najdik se dekha to thoDa ashchary hua tha ki wo sumer chacha the. pitaji ke saath hi sinemahal ki naukari se nikale gaye the, phir ye mungaphali ka kaam shuru kiya tha. mere saath jo gali ke log the unhonne pitaji ko bhala bura kaha tha aur samay par ghar aane ki hidayat di thi.
pitaji aur atankvad se juDa Dar hamare man mein un dinon bhi rahne laga tha jis din pitaji kaam par nahin jate the ya kaam nahin mila hota tha. un dinon ye Dar ek aadat ki tarah hammen bus chuka tha.
mujhe yaad hai, us din bhi pitaji ghar par hi the aur mai akhir ki Daravni dopahar thi. us din ki garmi to aaj tak jas ki tas yaad hai. bahut lu chal rahi thi. lu itni sukhi aur tej thi ki us din dopahar mein main jab sokar utha tha to mujhe saans lene mein pareshani ho rahi thi. baki log bhi ungh rahe the.
saans lene vali pareshani se bachne ke liye main ghaDe se pani nikal raha tha ki laga tha, pichhe se parchhain gujri hai. mainne sabki taraph dekha tha aur parchhain gujarne ki soch kar buri tarah Dar gaya tha. mere pichhe muD kar dekhne se pahle hi bathrum ka darvaja band ho gaya tha. kisi ajnabi ki babat sochte hi main chikhne laga tha, mujhe yaad hai.
mujhe yaad hai ghar mein sab jhatke mein jage the. maan aur bahan jhatke mein jagi theen. pitaji ne bathrum ke darvaje ko dhakka diya tha aur use bhitar se band pakar vahan se bhage the. mujhe puri tarah yaad hai, pitaji ko mainne utna badahvas kabhi nahin dekha tha. pitaji cheekh rahe the. door hato, door hato vahan se, bam rakha hoga, beech beech mein paDosiyon ko pukarte rahe the. hum sabhi ek dusre ko pakDe hue, ro rahe the, cheekh rahe the.
do minat bhi nahin lage honge, bahut baDi bheeD ikatthi ho gai thi aur us bheeD ne hamare bathrum ko gher liya tha. un sabon par pitaji ke ‘door hato’ aur ‘bam rakha hoga’ ka koi asar nahin hua tha. bheeD atankvad ke khilaph nare laga rahi thi. atankvad ke khilaph lagte nare ‘pakistan haay haay’ mein badal gaye the.
us bheeD mein sau sava sau log rahe honge. hum dhakkamukki mein ghar se bahar kar diye gaye the. un logon ne bathrum ka darvaja bahar se bhi band kar diya tha. naaron ke shor se pura muhalla gunjne laga tha. log darvaja peet rahe the. wo cheekh ab bhi sunai deti hai. mera ghar thasathas bhar chuka tha.
bheeD kuch kar pati isse pahle siDhi chaDhte police ke log hamein dikhe the. ye yahin chaurahe par vasuli ke liye tainat kiye jate the. police ke logon ko dekhte hi hum pareshan ho gaye, mujhe wo bachcha yaad aa gaya tha, mitti ki saDak ki Dhalanon mein police ke logon ko namaskar karta hua. mujhe puri tarah yaad hai aur hamesha yaad rahega ki police ke logon ko dekhte hi hum sabko pitaji, maan, main, bahan ko gulshan ki yaad i thi. phir to hum sab chaunk paDe the.
main kisi tarah jagah banakar bhitar gaya tha to sachmuch gulshan jagah par nahin tha, uski jagah ko tamam any logon ne kabje mein le liya tha, uski kitabon par log chaDhe hue the aur rah rah kar beech beech mein nare laga rahe the.
aur phir to hum barbad ho gaye. to, bathrum mein gulshan tha. ek baar phir hum apni namalun taklifon, betartib si khoe rahne ki bimari mein paD kar gulshan ko bhool chuke the. mujhe maan ko kuch bhi batana nahin paDa tha. wo thasak kar jamin par baith chuki thi. pitaji ne sir se haath laga liya tha. aur bahan, uski to ab bus itni hi yaad baki hai ki wo kabhi maan ko kabhi pitaji ko dekhti rahi thi.
main apne aap se itna apmanit hua tha ki gusse mein aa gaya tha. bheeD ko thelta thalta, kudta phandata bathrum ke paas kisi tarah pahuncha tha. mainne logon se apne apne kaam par chale jane ko kaha tha, bataya tha ki andar koi atanki vatanki nahin mera bhai gulshan hai, chunki hum turant sokar uthe the, isliye gulshan ka khyaal hi dhyaan se utar gaya tha.
iske baad to jo kuch hua uske liye main apne us hisse ko kabhi maaph nahin kar paya, jo hissa din raat naukariyon ki baat socha karta tha, bhai se bhi paise paise ki soch rakhta tha, asphalta ko saphalta mein badalne ki baat sochta rahta tha, prem ki babat sochta rahta tha. wo mera nakara hissa tha. pata nahin maan aur pitaji ne apne aap ko kaun si saja di hogi? bahan to, khair, ab rahi nahin. use sirdard hota tha, jab thi.
mere ye bata dene par ki andar bathrum mein mera bhai hai, us bheeD ka ek hissa to mere paksh mein aaya tha, par ek baDa hissa na jane kaise ye maan baitha tha ki jo bhitar tha wo atankvadi tha, bhale hi wo gulshan kyon na ho.
bheeD ke us hisse ne mujhe divar mein daba diya tha. yahan se jhilamilahton mein dikhti meri maan ko na jane kya ho chuka tha, log cheekh rahe the.
khilaph bheeD ka wo hissa jo manata tha ki mera bhai bahut khubasurat hai, uske log bathrum ke chhat tatha raushandan par chaDh gaye the. bathrum ke tamam chhote mote chhedon ko is bheeD ne moond diya tha. bheeD ke is hisse ko lag raha tha ki mera bhai itna khubasurat tha ki jarur hi use bachane ke liye sabhi devta apne rathon par chale aa rahe the. bathrum ke chhat par, raushandan par chaDh kar ye log devtaon se yudh ki taiyari kar rahe the.
bheeD ke jis hisse ko laga tha ki sabhi atankvadi sangathan mere bhai ko bachane aane vale the un logon ne lathi DanDe se lais hokar pure muhalle ko gher liya tha. in logon ke samuche shahr mein phail jane ki ummid thi.
par police ke logon ke bathrum ke paas pahunchte hi ye log thanDe paDne lage the. police ke logon ne hamein bahut galiyan di theen. meri maan aur pitaji ko sabse adhik gali. apne bete ko bhool jate ho, sale. ghar mein atankvadi palte ho aur pakaD mein aane par beta bana lete ho. jabki kasam se, main bata doon, mera bhai atankvadi nahin tha. hum sabhi, police ke logon ke samne giDgiDane lage the. ve log bhi, jo thoDi der ke liye khilaph hue the.
bahut der tak rone dhone ke baad bhi police ke logon ne mere bhai ko nahin chhoDa. mujhe yaad hai, bathrum se mere bhai ko un logon ne kheench kar nikala tha. us samay gulshan hum sabko dekhta rah gaya tha. police ke log jate jate ye jarur bata gaye the ki unke saath bhi roj ek apradhi pakaDne vali majburi thi.
us din jab jab main maan ko dekhta tha mujhe vishvas ho pata tha ki mera bhai atankvadi nahin tha. varna din bhar aur ghaDi bhar raat tak muhalle ke jitne bhi log aaye the ve log itne ashvast the ki aupchariktaon ke baad aise hi saval puchhte rahe the kis sangathan se juDa tha hindu hokar aisa kaam. . . thoDa galat lagta hai ya phir, dekh lijiye ghar mein kahin hathiyar to nahin chhupa rakha hai.
kai logon ne ye bhi bataya ki agle din ye khabar akhbar ke kis panne par ayegi. agar kuch aur bhi ghatta hai to pahle panne par aa jayegi. log ye bhi bata rahe the ki t. vi. ke kis kis channel par ye khabar prasarit ho rahi thi. main is kadar badahvas ho chuka tha ki mujhe agle din ka akhbar dikhne laga tha, jismen chauthe panne par ‘dhayan’ likha tha. ya bahut hua to ‘dhayan, dhayan’ pitaji aur bahan bhi akhbar ka vahi panna paDh rahe the.
par maan ki baat dusri thi. usne itna hi kiya tha ki aas nahin chhoDi thi. shuruat mein jo bhi aaya tha uske samne maan dahaD maar kar rone lagi thi, rona use ummid ki kisi surat ki tarah laga hoga. par inmen se kuch ne santvana di thi in logon ka kahna tha ki beta tha to rone mein koi harj nahin hai, lekin itna nahin rona chahiye, hum to bharat mata ke liye apne sabhi beton ki bali chaDha den, deshabhakt hota to rone ke koi mayne bhi hote, atankvadi phatankvadi, chor chikar ke liye itna rona, sanbhaliye apne aapko.
maan ko kaisa laga hoga?
maan ne apne bete ke liye chor chikar shabd suna aur rona band kar diya tha. uske baad to ghar mein koi bhi aaya, maan usse milne nahin i. koi dikh gaya to muskra kar idhar udhar ho jati thi. mujhe yaad hai, lagatar saat aath ghanto tak maan ya to bathrum jati rahi thi ya ulti taraph ghoom kar khana banane vali jagah par ponchha lagati rahi thi.
us din jitni baar maan bathrum gai thi, aadhe ghante se adhik rahi thi, mujhe yaad hai, bathrum se aate hi ghar ka wo vala hissa pochhne lagti thi, ek bartan ko hatati thi uske niche ki jamin ponchh kar bartan rakh deti thi, phir turant hi vahi bartan utha leti thi, phir ponchhti thi.
ghar mein bahari log lagatar aate rahe the par mera dhyaan maan ki taraph vastav mein tab gaya tha jab mainne dekha ki maan ne bartan ko hava mein utha rakha tha, ponchha jamin par paDa hua tha aur ek haath se saDi ke kinare mein apne chehre ko thame sar ko ghutne par tikaye thi. mujhe yaad hai, pitaji aur bahan bhi maan ko dekh rahe the.
tab mujhe laga tha ki maan ro rahi thi. apne hi ghar mein, apne hi bete ke liye maan chhup chhup kar ro rahi thi. use khul kar rone bhi nahin diya ja raha tha. wo bathrum ja rahi thi aur ulti taraph ghoom kar ponchha laga rahi thi to sirph isliye ki use rone ki jagah chahiye thi. wo bhi saat aath ghante se lagatar. ye soch kar to mujhe na jane kya ho gaya tha ki kya maan ne ye maan liya tha ki chor ki maan ko chhup chhup kar hi rona chahiye phir to mainne ghar mein ghus aaye logon ko apratyaksh galiyan dekar bhaga diya tha.
ab bhi mujhe nahin lagta ki agar maan ki haalat bigDi nahin hoti to hum kuch bhi kar pae hote. us chhup kar rone ke darmiyan mainne maan ka chehra sirph ek baar dekha tha aur bechain ho gaya tha. usi bechaini mein mainne pitaji se kaha tha ki wo ek baar sinemahal vale malik se mile aur na ho to unhen lekar bhelupur thane par chalen. main bhi un kuch parivaron ke logon ko saath laya tha, jahan main tution paDhata tha. ek ne to kisi baDi hasti se phon karvane ki bhi baat kahi thi.
aath nau baje hi hum thane pahunch gaye the, par hame saDhe gyarah baje tak thana incharge ka intjaar karna paDa tha. maan vahan pahle se maujud thi aur uske saath ek mahila bhi thi. wo raay sahab ki aurat thi aur maan unke ghar bartan pochhen ke liye jati thi. raay sahab bahut baDe neta the aur unki aurat jarur maan ka rona dekhkar hi thane par aane ke liye taiyar hui hogi.
mujhe yaad hai, do gune do pheet ke bandigrih mein mera bhai band tha. thana incharge ke aane tak maan us bandigrih ke bahar baithi rahi thi aur gulshan ka haath apne haath mein liye rahi thi. roi bhi rahi hogi.
thana incharge ne raay sahab ki aurat ko dekhte hi ‘aap’ kaha tha. wo nahin i hoti to bhi ho sakta tha ki mera bhai chhoD diya jata. aur bhi bahut log aaye the. hamare muhalle ke hi kai log the. par agar wo nahin i hoti to hamein ye kabhi nahin pata chal pata ki gulshan gulpham ho chuka tha aur mandir hamle ka mukhy abhiyukt tha.
hamare liye ye ashchary se kam nahin tha ki bhai ko hamne chhuDa liya tha. raay sahab ki aurat incharge ko ‘tum tum’ kahti rahi thi. unhonne jab apne raay sahab se thana incharge ki baat karai thi to thana incharge Dar gaye the. ‘ismen phon karne ki kya jarurat hai’ kahte rahe the. jab hum aane lage the to thana incharge ne apni jeb se (bataya tha) kuch paise bhi diye the, ye kahte hue ki iske sir mein chot aa gai hai, sala kuch bol nahin raha tha, naam tak to baDi mushkil se bataya. bhai ke sir ka pichhla hissa, thoDa, kat gaya tha. thoDa ‘thoDa’ sabne kaha tha. mera bhai chal nahin pa raha tha aur na jane kab tak karahta raha tha.
mujhe bhulne ki bimari jarur hai par main wo sab nahin bhulta hoon, jise sachmuch mein bhool jana chahta hoon. jaise ye ghatnayen. mere jehan mein ye sab itna kramvar ghatta hai ki inhen ek pal ke liye bura sapna bhi nahin maan pata hoon. itni rahat jarur hai ki kabhi kabhar mujhe ye sari ghatnayen avishvasniy lagne lagti hain.
avishvasniy lagne mein ye hota hai ki jaise ye sab hamare saath nahin hua. jaise gulshan to sahi salamat hai. ye sara kuch kisi dusre parivar mein ghata aur hamne ise, bus dekha tha. kabhi kabhi to ye sab itna jhutha jaan paDta hai ki lagta hai hamne ise kahin se sun liya hoga. varna aapke paas laakh takliphen hon, sapne hon, ummiden hon, chahen khud mein kitna bhi na khoe rahte ho ye to mushkil hi hai ki koi apne bhai ko bhool jayega, koi apne bete ko bhool jayega. par ye achchhe khyaal kabhi kabhi aate hain. jabki sachchi baten hamein hamesha mathti rahti hain.
in ghatnaon ke khyaal se bhi ab mujhe itna Dar lagne laga hai ki ab inki yaad aate hi main sachet roop se sochne lagta hoon ki ye jo ‘main’ tha, wo main nahin hoon. ye jo gulshan hai, koi aur gulshan tha, mera bhai gulshan nahin. maan bhi koi dusri, pitaji bhi dusre. aur haan yaad aaya, main ne uske bare mein ab tak aapko kuch bataya hi nahin ki jo ‘bahan’ thi, koi aur thi jise sirdard hota tha aur sir dard se laDte hue apna sir plastic ki rassi se bandhe rahti thi.
pitaji to vakii usi din se bilkul dusre ho gaye the jis din hum bhai ko chhuDakar ghar le gaye the. agle din se ve kabhi kaam par nahin gaye. bistar se uthte hi thasak kar baith jate the. kahte the pairon mein bahut dard rahne laga hai. ‘shahr nahin chhoDna paDe’ ke shuruati sangharsh mein mainne do nae tution jarur DhoonDh liye the par ve kaphi nahin the.
bhai pahle andha hua tha aur bahrapan use baad mein aaya. aisa dhire dhire hua tha. iske andhepan ke shuruati dinon mein hamne mahsus kiya tha ki wo hamein hamari avaj se pahchanne ki koshish karne laga tha. kisi bhi pariksha mein paas nahin ho paya. ye batana thoDa mushkil hai ki use ye andhapan sar par lagi chot se aaya tha ya din raat ghar ke andhiyare kone mein paDhte rahne se.
gulshan ko upyog mein lane ki meri akhiri koshish bhi nakam rahi thi. uske bimari ke shuruati dinon mein mainne viklangta pramanapatr banvane ki baat sochi thi taki koi chhoti moti naukari use mil jaye. is baat par pitaji aur maan bus asman dekhte rahe the. un dinon abhi bahan thi tabhi to usne kaha hoga ‘kya, bhaiya ekdam se?’ is babat meri patni ne kaha tha ki aap kitne gaye gujre hain, aapko sharm aani chahiye. main batana bhool gaya hoon, shayad, ki tab tak meri shadi ho chuki thi. shalu ko lekar meri patni aspasht hai ‘ham utne baDe baDe sapne nahin dekhenge. ’
patni se bina bataye main shalu ko lekar Dher sare sapne dekhta hoon. shalu ke sapnon ke alave mere paas kuch sapne any bhi hain. jaise ek subah main uthun aur main ‘gulshan’ ho gaya rahun aur gulshan ‘main’ ho jaye. ek baar phir wo dekhne sunne lage. maja aa jayega. mera bhai gulshan. kyonki mujhe us niyam par agadh vishvas hai ki bete ka chehra maan se mile to wo bhagyashali hota hai.
kabhi kabhi ichha hoti hai ki wo sab sochun jo gulshan bina kisi se kahe anavrat sochta rahta hoga aur akhir wo kya karta hoga? use neend bhi aati hogi? kabhi kabhi ichha hoti hai ki in ghatnaon ka khyaal aate hi inhen kisi any vekti par pratyaropit karke sochun par hota ye hai kuch hi door tak sochne ke baad mujhe us any vekti par daya aane lagti hai.
par aaj chhutti ke din ke karan kushvaha kirana vale ke yahan akhbar pura paDhna mujhe naya jivan de gaya. kya kismat hai? main yahan biskit lene aaya tha. har mahine ek britainiya taigar, do rupaya vala, le jata hoon kyonki har mahine police ke do log mere bhai ko dekhne aate hain, wo apni jagah par hai ya nahin. asapas ke kshetron mein koi apradh ho to bhi ve log use dekhne aate hain.
aaj do october ki chhutti na hoti to main chauthe panne ke kone mein chhapi khabar kahan paDh pata jo jindgi bhar mera sambal banin rahegi. phursat mili hai to pura akhbar paDh gaya hoon, aaj. khabar hai ki nainital ke door daraj kshaetr mein ek laDka pakDa gaya hai, jiska naam rajdip hai, uski umr unnis saal hai, uske paas se kuch naksali sahity bhi baramad hua hai.
mujhe to ye khabar ankhon ke samne ghatti dikh rahi hai. apne bhai ke bare mein tamam baten rajdip se badal kar sochne ki koshish karunga to mujhe rajdip par daya ayegi ya nahin ye to baad ki baat hai, pahle to ye khabar is chhoti si khabar mein ye bhi likha hai ki rajdip ki maan baDe baDe adhikariyon tak guhar laga rahi hai ki uska beta nirdosh hai.
ye khabar paDhne ke baad ab main Dher sare kaam nibtaunga aur agar ise bhula nahin to agle kai dinon tak ye bhi chahta rahunga ki rajdip ki maan ko koi chor ki maan na kahe.
samne se jo mahila aa rahi hai wo itni khubsurat hai ki yaad rakhne layak hai. is mahila ke saath jo purush hai, wo meri hi umr ka hoga.
us saDak ke kinare kinare itne achchhe achchhe phulon ke peD paudhe hain ki main unke naam bhi nahin janta hoon. samne se aa rahi mahila phulon ke peD ke paas khaDi ho gai hai aur use phool chahiye. sathi purush use samjha raha hai ki niche paDa phool le lo. wo taja aur turant ka toDa hua phool chahti hai. basi aur kuchla hua nahin. purush use tarkon se Dhaanp deta hai aur mahila masos kar niche paDa phool le leti hai.
mujhe hansi aa rahi hai, wo bhi itni jor se ki mujhe apna chehra dusri taraph ghumana paDega. pahle hans loon. aap hi bataiye, agar kahin meri bhi koi premika hoti; jabki meri ek saat saal ki bitiya bhi hai, aur wo aisi hi koi jid karti, to main khoob unche peD ki sabse unchi tahni se laga phool toD kar la deta. wo bhi ek nahin do do. aur do bhi kyon, ye phool itne sundar hain ki agar koi meri premika banti hai to use, jarur aise saikDon phool chahiye honge. usse kya, main saikDon phool le aunga.
main kya nahin kar sakta hoon? phal toDna, ya shayad main abhi phool toDne ki baat kar raha tha, to phir bhi ek asan sa dikhta kaam hai, kal hi ki baat hai, chandu bhai ne bataya ki lucknow mein asani se kaam bant raha tha. kaam jara kathin tha.
darasal, kal shatabdi express ka lucknow se dilli pahunchna nihayat jaruri tha. us gaDi mein raajy ke sarvesarva apni premika ke saath baithe the. sarvesarva lagbhag buDhe the, premika lagbhag javan thi aur premika ki naak ke dahini kor par ek phunsi ug i thi jiske ilaaj ke liye ye log dilli ja rahe the.
par hua ye ki shatabdi ke pletpharm chhoDne ke pahle hi uske engine ki heDlait phoot gai. turra ye ki premika ne usmen sajish bhaanp li, kaha ki isi gaDi aur isi engine se jayenge aur munh phula kar baith gai.
shatabdi express ki phuti heDlait tatha premika ki jid ko dekhte hue sarkar ne aanan phanan mein ek bharti khol di. usmen umr ki koi sima nahin thi. bus aap dauDne vale hon. kaam bus itna hi tha ki mathe par gas batti lekar shatabdi express ke aage aage dauDna tha. sabhi dauDne valon ko das hajar prati minat milta. das hajar prati minat!
hajaron logon ki bheeD lag gai thi. apne kanpartament se dekhte hue sarvesarva ki premika naak ki phunsi ke dard ke bavjud uchhal paDi thi. premika ne ‘javan logon ko dauDte hue dekhana kitna achchha lagega’ kaha tha aur sarvesarva ki taraph hikarat se dekh kar munh pher liya tha.
main bhi agar lucknow raha hota aur agar do minat bhi dauD leta to bees hajar rupae. baap re! bees hajar rupae! paanch chhah saal ka kharch to nikal hi aata. aur agar ek haath ya paanv ke kat jane ki kimat par agla aadha minat bhi dauD leta to paanch hajar upar se. age ma go! he bhagvan ye main kya soch raha hoon. pachchis hajar! wo bhi ek saath! aap khaDe khaDe dekh kya rahe hain, mujhe itna jyada sochne se rokte kyon nahin? mere bhai, mere bandhu meri soch ko vapas khinchiye. use dauDa kar pakaD lijiye. main aapka abhari rahunga. hamesha hamesha ke liye.
to dekha, main kya kya kar sakta hoon? phool toD sakta hoon; jabki meri patni hai aur saat saal ki beti bhi. relgaDi ke aage dauD sakta hoon bus ek mauka to mile.
halanki police valon ki haalat dekh kar ye kahte hue Dar lagta hai, par agar mujhe police ki naukari mein laga den, to main dangon par, apradhiyon par kabu pa lunga. samaj sudhar ki babat yahi kahunga ki mujhe samaj kalyan adhikari bana kar dekh lijiye.
aur main kahta hoon dange ya apradh ki naubat hi kyon aaye, bus mujhe kshaetr vishesh mein dange ya apradh se bachne ke liye kisi baDe mahavidyalay mein shikshak niyukt kar dijiye imandari, kartavynishtha aadi anadi ka aisa paath paDhaunga ki log dange aur apradh jaise shabd bhi bhool jayenge. koi mauka to mile.
philhal main apne gaanv se sate kasbe ke ek niji vidyalay, maan sharde shiksha niketan mein shikshak hoon aur; 275 (+5 ) rupae prati maah ki tanakhvah bhi hai. is vidyalay mein main vahi sab paDhana chahta hoon jisse ki apradh aur dange na hon. yahan mere paDhane ka ek phayda ye bhi hai ki vahin meri beti shalu paDhti hai aur uski phees nahin deni paDti hai.
meri beti shalu, abhi saat saal ki hai aur kaksha chaar mein paDhti hai. jab wo baat karti hai to man khush ho jata hai. uski baton se sara bojh, sari thakan utar jati hai. meri patni to baDe pyaar vali phatkar se kahti hai ‘bus dimag thoDa tej hai, aur kuch khaas nahin. ’ mere pitaji ki to jaan shalu mein basti hai. maan ki bhi jaan. pitaji ke pairon mein chaubison ghante rahne vala bhayanak dard nahin hota to pitaji, ho sakta hai shalu ke saath vidyalay bhi aate jate. baki samay shalu maan aur pitaji ke saath hi rahti hai.
main samajhta hoon.
shalu unhen mere chhote bhai gulshan ka abhas karati hai. mujhe bhi utni hi sundar, uchhalkud mein bhi vahi bachpan vale gulshan jaisi aur paDhai mein bhi utni hi tej lagti hai.
shalu ki paDhai ka aalam ye hai ki har saal use ek class phandana paDta hai. sambandhit shikshak batate hain ki puri kitab hi rat jati hai ki mujhe shalu ko kisi baDe shahr ke baDe school mein pravesh dila dena chahiye ki shalu baDi hokar khoob naam karegi. sochiye jara, in baton mujhe kitni khushi hoti hogi?
mujhe bhi lagta hai ki mere bhai gulshan ki dekhne sunne ki kshamata ke asamayik lop se upji sari asaphaltaon se jo kuch bhi sapnon sarikha hammen chhoot gaya tha, wo meri bitiya rani palak jhapakte hi pura kar degi.
sapne bhi sabhi to rahe nahin, davaon ke ekspayri date ki tarah sapnon ki bhi umr hoti hogi. jaise un dinon meri chhoti bahan sima ka sirdard. uska sir vibhats tarike se phool jaya karta tha. bhishan dard ki vajah se uske sir ki nasen sooj jati theen. chehra vikrt ho jaya karta tha. sima apne mathe ko plastic ki moti rassi se khoob kas kar baandh leti thi. rah rah kar uthti uski cheekh se divaren, jaise Dolne lagti theen.
apne tain hamne bahan ka bahut ilaaj karaya. koi pagalpan ki dava deta tha, koi neend ki aur koi pet ki dava deta tha. ek akhiri ilaaj hum logon ke paas tha bhai ki naukari, jo hamare sapnon ki dukan banne vali thi.
bahan ke baad wo sapna bhi samapt ho gaya. haan, ye jarur hai ki baki sapne jas ke tas hain. pita ji ki bimari, maan ki bimari, do teen kamron ka koi ghar bane jismen barish ka pani bhitar na gire, do june ka baDhiya khana aur bhi Dher sare sapne. itne sapnon ke beech shalu ka paDhai likhai mein itna tej hona.
aur to aur, andha aur lagbhag bahra mera bhai gulshan jo chupchap ghar ke bahar ki jhonpaDi mein baitha rahta hai, wo ye jaan kar kitna khush hoga ki shalu bilkul us par gai hai, sundar, uddanD (chanchal kah sakte hain) aur tej. sach to ye bhi hai ki shalu kitni bhi buddhiman kyon na ho jaye, gulshan ko laangh pana uske liye thoDa kathin hoga. ek samay wo bhi tha, jab gulshan ne intarmiDiyet ki pariksha mein samuche shahr mein pahla sthaan praapt kiya tha.
meri beti ne ek din mujhe ek parcha thamaya, bataya ki kaksha mein sabhi ko mila tha aur is parche ko bharna hai, jo sabse satik uttar bharega use trauphi aur sartiphiket milna tha. parcha mujhe yaad rah gaya ha
atankvad ha desh ka abhishap
(jagruk deshbhakton ke liye kuch yakshaprashn)
1. atankvad kya hai?
uttar ha
2. atankvad se rashtra ko kya nuksan hai?
uttar ha
3. atankvadiyon ki pahchan kya hai?
uttar ha
4. agar kahin atankvadiyon se samna ho jaye, to aap kya karenge?
uttar ha
(hastakshar)
sahyog rashi ha do rupae maatr.
adhyaksh,sangram sena
wo parcha mainne shalu ko vapas thama diya. usse puchha ki ye parcha use kisne diya tha aur ye bhi kaha ki kal pradhanachary mahoday se baat karunga. pata nahin, shalu ne kya samjha aur kya nahin, par kuch der baad wo apne dadaji se use bharne ki jid kar rahi thi. pitaji ne us parche ko nahin phaDa hoga to sirph isliye ki wo parcha shalu ka tha.
atankvad. is shabd ki savari gaanth kar main apni beti se alag hota hoon aur us palani mein pahunchta hoon jahan mera bhai barson se akela hai. lagbhag bahra aur puri tarah andha mera bhai apne chehre ko is unchai se uthaye hue hai jaise samne khaDe kisi vekti se mukhatib ho, aur us par uska lagatar muskrana. palani mein nimandhera hai. bhai kuch tatol raha hai, shayad machis ki tili, ab kaan khodega.
mere bhai gulshan ke chehre par saat aath varshon pahle ki wo gali ubharti hai. vyast saDak se bahut tikha moD. senkri gali. murge murgiyon ki bhaag dauD. naliyon mein baithe battakh. bhinabhinahat sa shor. bartanon ke girne ki avaj gharon ke bahar tak hi pahunch rahe the. sarkari nalon ke paas baithe log. nahate, kulla karte, kapDa phinchte logon ke beech rajnitik charcha ka ghamasan. subah ki ghoop. akshayvar chacha ka rickshaw gali paar kar raha hai ki bahut joron ki avaj hoti hai.
bhai ke chehre se wo gali gayab ho jati hai. mujhe hensi aa rahi hai.
mujhe sab yaad hai.
jab wo bahut tej vali avaj hui thi, to gali ke logon ki bheeD rikshe ki taraph dauD paDi thi. usmen main bhi tha. hum log dauD paDe the, hens rahe the aur atankvad ke khilaph nare laga rahe the.
akshayvar chacha ke rikshe ka agla tyre bol gaya tha. ye avaj vahin se i thi. hum sab ne bhi mahaj taphrih ke liye unhen gher liya tha. varna to, wo hamari hi gali mein rahte the. baad mein hamne laakh samjhaya ki ye sab majak tha, par aksharvar chacha Dar gaye the.
dikkat tab hui thi jab shor sun kar gali ke turant bahar mukhy saDak ke chaurahe par vahnon se vasuli ke liye chaubison ghante tainat rahne vale police ke log bhi gali mein aa gaye the. hum sabne police ke logon ko samjhaya aur wo maan bhi gaye par jate jate un logon ne rikshe mein seat hata kar dekha, rikshe ke niche dekha, kahin bam to nahin hai, hidayat di tyre tube sahi rakho nahin to Daal diye jaoge. hum sabko bhi DanDa dikhaya jyada javani chaDh gai hai kyaa?
is ghatna ke hone tak hamare shahr mein nae s. pi. ka aana nahin hua tha, is tarah wo niyam to door door tak logon ke khvabon mein bhi nahin tha, jo s. pi. ne shahr mein aane ke baad apradh aur atankvad kam karne ke liye lagaya tha jismen harek puliskarmi ko roj ek apradhi pakaDna hota tha.
akshayvar chacha vali ghatna se Dare to hum bhi the par akshayvar chacha se kam hi Dare the. phir bhi hamare beech atankvad ka majak, atankvad ki gali, atankvad ka khel sab chalta rahta tha. hum doston ko ‘sala’ baad mae ‘atkanvadi kahin ka’ pahle kaha karte the. un dinon desh ka mahaul hi kuch aisa tha. samacharpatr, patrikayen, telivijan, shasan ka bahana sab kuch atankvad se shuru hokar atankvad par hi samapt hota tha.
gaanv chale aane ke karan in dinon ke halat ke bare mein hamein vishesh jankari nahin hain. darasal unhin dinon ek saath kuch aisi baten ho gai theen ki hum gaanv chale aaye the. pitaji ki sinemahal vali darbani chhoot gai thi. mere tution bhi paryapt nahin the, maan ka dusre gharon mein bartan pochhe ka kaam bhi theek nahin chal raha tha. phir bhi bhai ki paDhai agar jari rahi hoti to hum kuch bhi kar dhar ke shahr se chipke rahe hote.
unnis sau assi mein janma mera bhai mujhse paanch saal aur pitaji se pure pure taintis saal chhota hai. pachchis ki umar mein hi wo pichhle saat aath salon se lagatar baitha hua hai aur na jane kitne salon tak aise hi baitha rahega. itni kam umr mein bhi use kuch sunane ke liye uske kaan ko apni donon hatheliyon ki golai mein samet kar aur hatheliyon ki us golai mein munh ghusa kar khoob tej tej chillana paDega, tab jakar wo kahin kuch sun payega. dekh to, khair, wo bilkul bhi nahin pata hai.
jin dinon gulshan aisi haalat mein pahuncha tha, un dinon hum sochte the ki jo kuch bhi mahatvapurn ghat raha ho, use gulshan ko bataya jana chahiye. cricket ki khabren, filmon ki baten, vishesh taur par shahrukh khaan ki filmon ki kahaniyan hum uske kaan mein chilla chilla kar batate the. par dhire dhire hamara uski itni saghanta se dekhbhal karna kam hota gaya.
hamare paas na to itni urja hai aur na hi uski koi jarurat ki gulshan ke kaan mein chilla kar sab kuch batayen. ye kaam ab manbahlav ke liye gaanv ke bachche karte hain ya phir koi khushkhabri sunani ho to shalu ye kaam karti hai.
akele palani mein paDe paDe gulshan ko jab bhi koi jarurat hui to ek baar jor se mujhe, shalu ko, ya maan ko pukar lega. tab jis kisi ke paas phursat hui wo uske paas aa jayega, varna gulshan ko lamba intjaar karna paD sakta hai. hamesha muskrate rahne ka usne shagal paal liya hai.
jab gulshan ke khane ka samay hota hai tab bhi wo muskrata hi rahta hai. pahle jo hota raha ho, par ab hum uske haath dhula kar uski koi ungli khane mein Dubo dete hain, wo khane lagta hai. takliph tab hoti hai, jab use chaay, garm doodh; kabhi kabhar ya koi garm khana dena hota hai.
apni taraph se hum bharpur koshish karte hain ki chaay ya garm khana gulshan ke sharir ke kisi kathortam hisse se chhulayen taki use na ke barabar takliph ho. par hota ye hai ki jab hum use chaay chhulate hain to muskrate hue hi wo buri tarah kaanp jata hai, daant par daant chaDha kar ankhen aur muththiyan bheench leta hai. uska chehra vikrt ho jata hai; muskrata rahta hai.
ya phir agar koi aakar gulshan ki bain baanh chhu le to gulshan, apne anuman se usi tarah apna sir itna upar uthata hai jitni ek vekti ki lanbai ho sakti hai. agar wo bain baanh chhune vala adami bhaag kar dain taraph aa jaye to bhi gulshan apne ko puri tarah chaitany dikhane ki koshish mein bain taraph hi sar uthaye, haath milane ke liye dahina haath uthata hai, tamam parashn puchhne lagta hai, kaise hain, kya ho raha hai, cricket match ho raha hai ya nahin ya phir (kabhi kabhi) mujhe peshab karna hai. gulshan ye jatane ki koshish karta hai ki wo samne vale ko dekh sakta hai, sun sakta hai.
is baat par dusron ki jo haalat hoti hai, wo to hoti hi hai, wo bhai ka majak uDane vala adami bhi bhai ki is dasha par udaas ho jata hai.
mera bhai, gulshan, aisa nahin tha.
un dinon hum banaras mein raha karte the, jab mere bhai gulshan ko intarmiDiyet ki pariksha mein samuche shahr mein pahla sthaan praapt hua tha. phir to hamare khvabon ke pankh lag gaye.
lamba chauDa mera bhai itna sundar tha ki ramashish chacha ki us baat se sabhi log puri tarah sahmat the. ramashish chacha ka kahna tha ki aise khubasurat naujavan ko sirph sapnon mein dikhna chahiye. sapne aise ki ye laDka ghoDe par chaDha ho, us sapne mein ek taraph samudr aur dusri taraph pahaD hone chahiye, ghoDe par bhagta hua ye laDka aapse hi milne aa raha ho.
gulshan chehre mohre mein puri tarah maan par gaya tha. isiliye hamein shuru se pata tha ki wo behad bhagyashali hoga. mere ghar tatha paDos mein is niyam ko behad utsaah se dekha jata hai, jismen agar bete ka chehra maan se aur beti ka chehra pita se mile to aise bete betiyan bhagyashali hote hain. is lihaj se bahan ko bhi bhagyashali hona tha. main jarur bhagyashali nahin tha aur chhabbis sattais ki umr mein do do sau ke paanch aur teen sau ka ek, kul chhah tution paDha raha tha.
intarmiDiyet mein itne baDhiya ke baad hamari, meri aur pitaji ki, dili tamanna thi ki gulshan desh ke sabse achchhe injiniyring kalej se injiniyring ki paDhai kare. phir wo chahe to collectory kar le ya phir wo salike se dalali vala kaam, main us kaam ki vishesh sanj~naa bhool raha hoon, vahi jismen khoob moti tanakhvah hoti hai, munimi jaisa kaam hai wo, bhai, jismen raton din logon ko jyada lutne ki yojnayen banai jati hain.
bhai ko lekar jo hamari sabse kroor khvahish thi, wo amir ban jane ki thi. gulshan ki naukari ko lekar hum das rupae tak hi soch pate the. das hajar rupae ke paar ki tanakhvah tak jaise hi hamari baat pahunchti (meri, pitaji, sima, maan) to mere pet mein kaisi to hudhudi mach jati thi, main uttejit ho jata, mere haath pair kanpne lagte the. hum sabhi ki haalat kamobesh aisi hi hoti.
sabse hoshiyar kshnon mein bhi jab hum sab das hajar aur usse jyada rupayon ke bare mein sochte to yahi sochte ki hum log itne rupae ka akhir karenge kyaa?
aisi baton ke darmiyan bhai ke samne aate hi hum sabhi batachit samet lete the. hammen se koi gulshan ki taraph muskrate hue dekhta. pitaji aur maan ki muskan hum bhai bahan ki muskan se jara alag hoti thi narm. ek saath hum sabhi gulshan ko ye ehsaas dilana chahte the ki, dekho, tum hamare liye kya ho?
hamari kroor khvahish ke alava any khvahishon mein pitaji ke pairon mein anavrat rahne vale us dard ka ilaaj karana tha, jis dard ko hum tatana kahte the.
pandrah solah saal pahle hum gaanv se aaye the, tabhi se pita ji sarasvati cinema (laksa roD par hai) ki darbani kar rahe the. pitaji ke pairon ki pinDaliyon ka wo dard sarasvati cinema ki darbani mein lagatar khaDe rahne se upja tha. jitne samay pitaji ghar par rahte, bhai ko pairon par chaDhaye rahte the. kai baar puchhne par bataya tha ki dard hamesha rahne laga hai, chalne ke kram mein dard itna baDh jata hai ki aage ghisat pate hain, lagta hai ki pair arra kar kat jayenge.
main sunta raha tha.
theek aisa hi bahan dard ko lekar bhi tha, jiske bare mein shayad, abhi tak main bata nahin paya, tamam davaiyon, plastic ki rassi se sir bandhna, cheekh. hota ye tha ki hamari batachit agar hansi ki parakashtha par pahunchti to achanak meri bahan hanste hanste sir pakaD leti thi. uske aisa karte hi hamara dil baithne lagta tha. hum jaan jate the ki ab bahut paisa hoga.
hum sabhi shashvat bimar the. aisa isliye kyonki hamein lag raha tha ki, hamein apne sukh, dukh, teej, tyohar ko tab tak ke liye taal dena tha jab tak gulshan kisi naukari mein na aa jaye. pitaji ke pandrah sau aur mere terah sau mein se ghar kharch hata kar baki bacha pura paisa gulshan par nivesh ho raha tha. ab to hum tyoharon ki tithiyan tak dhyaan mein nahin rakh pate the aur isse maan ko bahut pareshani hoti thi, maan ka koi na koi vart hamesha chhoot jaya karta tha.
sab kuch ‘bus sapnen pure hone valen hain’ , jaisa chal raha tha.
hamari bhavi env bhavy yojnaon par bhai ne ye kah kar pani pherne ki koshish ki thi, mujhe yaad hai, ki wo to bina injiniyring ki paDhai kiye bhi achchhi naukari pa lega. bhai ke is uddanD uvaach se main sakapka gaya tha. mujhe laga ki, kahin mere uddanD bhai ke dil mein koi masum kona to nahin ubhar aaya tha, ya ki ye kaun si khuraphat thee?
mujhe laga tha ki kahin wo apne khelte kudte rahne ki yojnaon ko vistar to nahin de raha tha kyonki jitna kam samay ab tak wo paDhai par deta aaya tha utne mein to pratham shrenai bhi lana mushkil ho jata, shahr mein pratham sthaan pana to phir bhi ek baat hai.
cricket aur filmon ke betarah shaukin mere bhai ko jab paDhna hota to usi ek kamre mein dival ki taraph munh karke paDhne baith jata. vahi ek kamra tha jismen hum sabhi rahte the, saath mein bathrum bhi tha. gulshan ke paDhne ke dauran laakh hohalla ho wo pichhe ghoom kar dekhta bhi nahin tha. lekin jab paDhai khatm kar leta to sara ghar sar par utha leta tha. filmon ki batachit, cricket, gaanv jane ki batachit.
apni yojnaon ke prati gulshan ke nishedhatmak bhaav ko lekar chintit hum logon ne ek din gulshan ko haDkaya. pitaji to chup hi the, main bole ja raha tha. main gulshan ko duniya jahan ki bematlab ki baten samjhata raha tha.
par bhai ne ye kah kar mujhe charon khane chitt kar diya tha ki wo injiniyring vagairah sirph isliye nahin karna chahta hai kyonki wo ghar ki haalat dekh raha hai. naukari to kuch bhi paDh ke pai ja sakti hai. varna jo aap logon ki marji.
‘ghar ki haalat dekh raha hoon’ vali baat mujhe achchhi nahin lagi thi. mainne gulshan ko bataya ki paDhai ke liye bank lon dega. ya phir khuda na khaste meri hi naukari lag gai to. ye jarur tha ki naukari ke naam par ab mujhe un sapnon ke ansh dikhai dene lage the jismen main relgaDi ke aage gaisbatti liye dauD raha hoon. un dinon tak mujhe is sapne mein sirph gas batti dauDti hui dikh rahi thi, main nahin. main gulshan ko batana chahta tha ki ‘kuchh bhee’ paDh kar naukari pana mushkil hai.
mainne gulshan se ye bhi kaha tha ki kahin aisa to nahin ki wo aage ki kathin paDhai ke naam par Dar raha hai. is baat par gulshan ne ruansa hokar mujhe dekha tha. mujhe yaad hai, uske dekhne mein aisa kuch tha ki ‘ye aap bol rahen hain, bhaiya. ’
phir to hamara gulshan ekayek badal gaya. kal tak ekdam kam paDhne vala gulshan, agle hi din se kitabon mein Doob gaya tha. wo kitabon mein Dubta ja raha tha, hum khush hote ja rahe the. bhai ki paDhai mein khoob paisa lagega, ye jankar hum nae sire se naukariyan talashne lage the. maan ne phir se bartan pochha vala kaam shuru kar diya tha. main aur meri bahan praivet schoolon ke chakkar laga rahe the.
din bhar hum bhai bahan mastari DhunDhate aur raat mein neend aate hi shahr ke sabse achchhe school mein paDhane chale jate. main prinsipal ho jaya karta tha. bahan bhi meri hi gaDi se lautti thi. lautte hue hum koi kharidari karte ya man hua to kabhi filmen bhi dekh lete the. dikkat sirph tanakhvah ki thi. neend khulne ke turant pahle hamein tanakhvah milani thi par asavadhnivash ya jane kyon hamesha tanakhvah mein mile noton ke banDal neend mein hi chhoot jate the. ek baar to mainne khoob kas kar noton ko pakaD liya tha aur puri taiyari mein tha ki ek chhalang lagata aur neend se uchhal kar bahar pahunch jata, lekin dusri dikkat ye thi ki subah uth kar chaay mangne par bahan isliye chaay dene se mana kar deti thi, ki raat mein usse adhik tanakhvah mujhe mili hoti thi.
hum sabne main, pitaji, maan, bahan apni lagatar vyasttaon ke bavjud gulshan ke pal pal ka khyaal rakhna shuru kar diya tha. paDhai kathin thi. uske khane pine se lekar nahane dhone tak hum hamesha tatpar rahne lage the, ye tauliya le lo, aaj sardi hai kam nahana, kya khaoge tamam, tamam. uski taraph se koi pharmaish nahin hoti, isliye maan lagatar uske liye sarson ki kaDhi banane lagi thi.
un dinon hamein ye barabar mahsus hota raha tha ki gulshan ka bolna chalna ekdam na ke barabar rah gaya hai. bus, kabhi kabhi maan se bol liya. khelakud, yaar, dost sab chhoot gaye the. par gulshan ke paDhte rahne ko lekar hamari khushi itni jyada thi ki hum kuch aur dekh kar bhi nahin dekh pa rahe the. hamare bahar, hamare beech mein, hamare bhitar kuch aisa tha jo nirantar apni gati se ghat raha tha, bus hamein uski khabar nahin thi.
apne bhitar kuch anjana aur kuch betartib ghatne ki jab mujhe pahli baar pushti hui, tab tak gulshan ko ek hi sthaan par baith kar paDhte hue Dhai teen mahine beet chuke the. hum donon bhai bahan ki praivet schoolon mein mastari ki talash jari thi. lekin jis din ki ye baat hai, us din hum ghar par hi the, mujhe yaad hai.
us din shayad pitaji chhutti par the, ya duty se aa chuke the, ye to yaad nahin, par baat yahi ho rahi thi ki kahin se mota paisa mil jata to sima ka ilaaj jaldi hi kara liya jata. ho sakta hai us vakt sima ko sirdard se rahat nahin hogi, tabhi wo pitaji ki is raay par halke se muskrai thi ki ‘kahin se mota paisa mil jata. . . ’ sima ko muskrate dekh hamein bahut khushi hui thi.
bimar bahan ko aur jyada khush karne ke liye main pitaji ki us ‘kahin se paisa mil jata’ vali khvahish se tamam tarah ke chutkule banane laga tha. main kah raha tha ki ‘kaash chhappar phat jaye ya phir andhi aaye aur koi tijori uDa laye kisi ka paisa bhara bag mil jaye. . . ’ meri baton aur kahne ke andaj ke asar se maan aur sima jor jor se hens rahi theen aur pitaji sar jhukaye muskra rahe the.
apne bevkuphana chutakulon par jab kanakhiyon se mainne pitaji ko sar jhukaye muskrate hue dekha to mera utsaah baDh gaya tha, chutkule kahne ki meri gati bhi doguni ho chuki thi. main anapashnap kaisa bhi chutkula sunaye ja raha tha. maan aur sima ka hansna bhi tej se aur tej hota gaya tha. pitaji ka muskrana bhi.
mujhe yaad hai, un logon ke hensne aur muskrane se main had se jyada uttejit ho gaya tha par usi uttejna mein mujhe achanak khyaal aaya tha ki abhi henste henste bahan ke sir ka dard baDhega aur wo apna sar pakaD legi. tab hum sab chup aur udaas ho jate. is khyaal se Dar kar main bahan ki taraph dekhne laga tha par bhitar ki na jane kis bhavna se main prerit ho gaya tha ki chaah kar bhi apni baten aur chutkule kahna rok nahin pa raha tha ki tabhi maan ne hansna band kar diya tha. usne hamein bhi ishare se chup ho jane ke liye kaha tha. phir ishare se hi maan ne gulshan ki taraph dhyaan dilaya tha ‘vah paDh raha hai n!’
ab bhi mujhe ghanghor ashchary hota hai. us din bhi hum ashcharyachkit hokar rah gaye the ki yahin chaar paanch haath ki duri par baithe gulshan ko hum akhir bhool kaise gaye the. kam se kam mujhe to iski ratti bhar khyaal bhi nahin raha tha ki gulshan us kamre mein maujud bhi hai.
aur phir apne bhai ko hi bhool jane ki anhoni se bhaybhit hokar jab mainne ghoom kar pichhe ke dinon mein jhanka to dekha ki hum bahut pahle se hi gulshan ko bhulte jane ki prakriya mein shamil ho chuke the.
pichhle dinon mein lautte hue jab main is varsh ke dashahre ke ek din pahle vali raat mein jhankta hoon to pata hoon ki maan, main aur pitaji bistar par ja chuke hain aur bahan sone se pahle batti bujha kar apne bistar par chali aati hai ki kuch kshnon baad achanak batti jal uthti hai.
batti jalte hi hum sabhi uth kar baith gaye the. aphsos se ghire hum log bus itna hi kah pae the jara bhi dhyaan nahin diye, babu. gulshan bina kuch kahe chupchap paDhne baith gaya tha.
bolna chalna to gulshan ne tabhi se band kar diya tha jis din se hamne use injiniyring kalejon ki pravesh parikshaon ki taiyari mein laga diya tha. ho sakta hai jaruri kriyaklapon ke alava baki samay sirph paDhai likhai par dene se use kuch any sochne ki phursat bhi nahi rahi hogi. ya phir bahut sambhav hai ye bhi hua ho ki hamare sapne, hamari ummiden uske kahin gahre jakar dhans gai hon. un dinon gulshan kuch bola bhi hoga to chhathen chhamase hi, wo bhi sirph maan se hi bola hoga.
hum, hum sabhi, theek theek ye nirnay karne ki sthiti mein kabhi nahin rahe ki ye bhulna, akhirkar, kiski taraph se ho raha tha. gulshan hamein bhool raha tha ya hum gulshan ko bhool rahe the.
khane ko hi len, un dinon jab kabhi maan gulshan se kuch dubara parosne ke liye puchhti to wo ya to sar nahin Dulata, ya kabhi ‘haan’ mein Dulata kabhi ‘nahin’ mein Dulata. par iska ye matlab katii nahin hota tha ki agar wo ‘haan’ mein sar Dulata to use kuch chahiye hi chahiye ya phir wo ‘na’ mein sar Dulata to use kuch bhi nahin chahiye hota tha. wo gayab bhi nahin hota tha. darasal sar nahin Dulate hue, sar ‘haan’ mein Dulate hue, ya sar ‘n’ mein Dulate hue gulshan maan se nahin, apne bhitar ke kisi parashn se mukhatib raha karta hoga.
hum is baat ko bahut baad mein samjhe the. maan ne us din chhath ka parna (purnaahuti) kiya tha aur hamein khane mein sabji aur parsad ka thekua mila tha. maan ne gulshan se puchha tha thekua aur den? gulshan ne ‘haan’ sar hilaya tha. par maan ke thekua paroste hi gulshan ne maan ki taraph dekhte hue kaha tha ‘are’! (usne hamari taraph dekhana to kab ka band kar diya tha, hum sochte the aisa uski paDhai ki vajah se hai. ) ‘are’ kahne ke baad, mujhe yaad hai, usne sir niche kar ke ‘chch’ kaha tha.
ye to uski, hamein bhulte jane ki prakriya thi. mere paas karan to kai aaye par main svayan bhi kabhi nahin samajh paya aisa kyon ho raha tha? kaise ho raha tha?
jaise, kai shamon ko aisa hua ki hum ya to chhat par chale jate, baans ki siDhi se chhat par jane mein hamesha phisalne ka Dar bana rahta tha, ya kabhi kabhar bajar bhi chale jate. aur ghar mein tala laga dete the. vapas aakar betarah sharmshar hote. gulshan yahin, isi kamre mein paDh raha hota tha.
gulshan ko bhulte jane ki bimari agar sirph mujhe hoti, to main kabhi ye sochne ki koshish bhi nahin karta ki aisa kyon ho raha hai. par main dekh raha tha ki hum sabhi gulshan ko bhulte ja rahe the. aur to aur maan bhi. hamari takliph ye thi ki aisa hamse anayas hi hota ja raha tha. hum chaah kar bhi kuch nahin kar pa rahe the.
aisa bhi nahin tha ki hum har vakt gulshan ko bhule hi rahte the. hamari ummiden usse theen. usse bhi baDh kar maan pitaji ka sabse dulara tha mera bhai. mera surya. bahan ki to jaan gulshan mein basti thi. hum har vakt uska khyaal rakhte par na jane kis vakt use bhool jate.
shuru shuru mein hum sabka gulshan ko bhulna alag alag aur kabhi kabhi hota tha. jaise main gulshan ki upasthiti ko bhulta to koi aur uski yaad dila deta ki, wo dekho, vahan baitha paDh raha hai. gulshan itna jyada paDhta tha ki, mujhe yaad hai, wo ghante do ghante ke liye akhiri baar us kone divali ke ek din pahle hata tha, jab ghar ke jale saaph kiye gaye the.
phir bhi, gulshan ko bhulna khane pine tak tatha sote samay aksar hi batti bujha dene tak hi simit rahta to ganimat thi. par ab hum use pahle ki tarah do chaar das pandrah minat ke liye nahin balki kai kai dinon tak bhulne lage the.
pahli baar gulshan ko lambe samay tak bhule rahne ka andaja hamein uske naam se aaye praveshapatr se hua tha. desh ke pratishthit injiniyring kalej ki pravesh pariksha ke liye ye praveshapatr aaya tha. praveshapatr dekh kar hamein ye khyaal aaya aur sabse pahle ye khyaal maan ko hi aaya tha ki ‘main bhi soch rahi thi us din janagnana valon ke samne kaun sa naam chhoot raha tha?’ maan phir bhai ko banhon mae lekar bahut der tak roti rahi thi.
jis din janagnana karne vale log hamare ghar aaye to sabse pahle un logon ne makan number puchha tha. ghar ke sadasyon ki babat ghar ke mukhiya ke roop mein pitaji ka naam, maan ka naam, mera naam tatha chhoti bahan ka naam bataya gaya tha. saath mein umr bhi likhvai gai thi.
ek haath mein praveshapatr thame, dusre haath se gulshan ko apne ankavar bhare, maan ka rona ruk hi nahin raha tha. chup lagati thi phir turant hi rone lagti thi. aur ahak ahak kar roti rahi thi.
pitaji bhi bahut der tak chhat ki taraph dekhte hue na malum kya sochte rahe the. phir kuch der tak ‘haan’ mein sar Dulate the. gulshan ke paas jakar uske balon mein ungliyan phirane lage the, maan se kahe the iske sir mein roj tel Daal diya karo, itni kam roshni yahan pahunchti hai ye bhi kaha tha ki agle mahine, na ho to, ek bulb idhar bhi lagva denge. bulb holDar aur taar lekar kitna kharcha ayega pitaji ne mujhe pata karne ke liye kaha tha. is ghatna se hum buri tarah Dar gaye the.
‘aisa kyon ho raha tha’ ke karnon ka hum theek theek kabhi pata nahin laga pae. ab to hum sabne tamam karan ikatthe kar liye hain aur jab jaisa mauka aata hai hum us hisab se un karnon mein se kisi ek ko apne man se bahar lakar un par sochne lagte hain. us vakt baki bache karnon ko hum apne bhitar hi kahin dabaye rakhte hain.
gulshan ko bhulte jane ka jo sarvadhik tasalli dene vala karan tha wo ye ki ghar ke jis kone mein usne khud ko apni kitabon samet jama rakha tha wo ghar sabse andhiyara kona tha. dusre kone ko gher kar rasoighar banaya gaya tha aur kamre ka bulb bhi usi kone mein tha. tisre aur chauthe kone mein do darvaje the ek bathrum ki taraph to dusra bahar ki taraph khulta tha. is tarah gulshan sarvadhik andhere mein tha.
dusra karan ye ki hum use isliye bhulne lage the kyonki usne bolna chalna aur koi hastakshaep karna bilkul hi chhoD diya tha.
ya isliye ki hum nishchint the ki wo jo kuch kar raha tha, hamare man ki kar raha tha.
ya phir hum apne apne kaam karne mein to vyast rahte hi the, uske itar bhi hum hamesha kuch jyada karne ki sochte the pitaji cinema ki ticketen black karne ki sochte rahte the, maan bartan ponchha ke liye dusre ghar talashti rahti thi aur main aur sima neend mae tanakhvah pa rahe the.
hum had se jyada vyast the.
ya phir mujhe lagta hai ki hamein hi kuch ho gaya tha. hum kisi anavrat shor ke shikar ho gaye the, jo hamein atirikt kuch bhi sunne nahin deta tha. theek isi tarah drishyon ka bhi ghamasan hamare bhitar macha hota tha.
is ‘kuchh ho jane’ ko pahli baar mainne kaksha teen mein jana tha. aath nau saal ka raha hounga. shanivar ke din vidyalay ke sabhi laDke laDkiyan bees kataron mein khaDe hokar samuhik pi. t. (sharirik shiksha) kar abhyas karte the. us din bhi pi. t. vale acharya ji ne kaha tha – ek aur sabke saath mainne bhi apne haath Daine ki tarah phaila diye the, kaha do sabne haath upar karke tali bajai, kaha teen. . .
mere paas teen kahne ki bus dhun hi pahunch pai thi i i na ki tarah. chaar kahne ki bhi bus dhun hi i thi. teen aur chaar sunne ki jagah par main shayad badalon mein pratibha ko dekhne laga tha jisse main utni chhoti umr mein hi bahut pyaar karta tha aur wo us din vidyalay nahin i thi, ya phir agle mahine milne vali chhatravrtti ke bare mein sochne laga tha aur kuch hi palon baad main jamin par chhitraya hua mila.
mere haath do ki avaj ke anusar upar hi tenge rah gaye the jabki baki sabhi laDke laDkiyon ne ‘teen chaar’ ke baad apna haath ‘vishram’ mein kar liya tha. mera dhyaan pi. t. vale acharya ji ke jhapaD se lauta tha, jo mere bekhyali mein mujhe dharashayi kar gaya tha, honth kat gaye the, munh mae balui mitti bhar gai thi. ab bhi kabhi kabhi mera munh balu balu ho jata hai. thu thu aathu chch, oh aayu. baad mein pi. t. vale acharya ji ne mujhe bataya ki lag raha tha, tum kahin kho gaye the. lag raha tha mere bhitar koi bhulabhulaiya thi.
phir to bachpan se hi lagta raha hai ki main hardam hi khoya voya rahta hoon. is baat ki taraph mainne gaur karna shuru kiya to dekha ki jo jitna mere jaisa hai utna hi khoya rahta hai. aur, sochiye, aisa tab jab main pagal bhi nahin hoon.
dhire dhire hi sahi par main apne aapko ye samjhata raha hoon ki ye khoya rahna aur kuch nahin ek anavrat sanvad hai. mere bhitar baitha koi hai jo meri nakamiyon par chikhta hai, bilakhta hai, main use apne sapnon ka ullaas sunata hoon. wo, bhitarvala, meri kamiyon par chillata hai mujhe Dantta hai, meri barbadiyon par rota hai, main use kuch kar dikhane ki bechaini mein shamil karta hoon. pahle, bahut pahle, ek baDi door se aati pukar bhi thi, shayad pratibha ki, aath nau saal ki pratibha. ab us pukar ki jagah berojgari ke nagaDe bajte hain. gham gham gham. gham gham. gham.
main hamesha budbudate rahta hoon ye to, khair, dusron ka manna hai.
itna hi nahin, ab to mere bhitar adrshy drishyon ka bhishan ghamasan bhi hai, jo mujhe bahar kuch bhi dekhne nahin deta. mujhe yaad hai, us din main paDhane ja raha tha, cycle par aage shalu baithi thi, ki mujhe saDak se sati wo dival dikhi thi, mujhe ye bhi laga tha ki main dival mein jakar laD jaunga, phir kuch palon ke bhitar hi wo dival mere jehan se gayab ho gai aur main turant hi dival mein laD gaya tha. shalu ko bahut chot i thi.
samne se koi gaDi gujar jaye to mujhe yahi lagta hai ki dhoop ke rang par koi kali parchhain gujri hogi. agar gujri hogi, to.
aalam ye hai ki biyavan mae bhi aapse baten karun to bhi bhitar ki satat cheekh kuch bhi sunne nahin deti, tatha apaki baten sunne ke liye mujhe apaki taraph jhukna paDega, ‘kya kaha?’ vale andaj mein apne kanon ke paas haath lagana paDega.
rahi baat dekhne pahchanne ki, to auron ko chhoD dijiye, apni bitiya rani shalu ko bhi main nile ujle phool vale halke pile rang ke phraak aur chhoti chhoti chotiyon se hi andesha lagata hoon ki ye bachchi shalu hi honi chahiye.
janagnana vale hadse ke baad bahut dinon tak hum pareshan aur gumsum rahe the. khud se glani hoti rahi thi aur dusron se ankh milane mein bhi sharmane lage the is ghatna se hadas kar hum sabne phir se gulshan ke pal pal par najar rakhna shuru kar diya tha.
tab tak gulshan ek pariksha de chuka tha aur shayad use apne pichhaDne ka ehsaas hua hoga kyonki unhin dinon maan ne bataya tha ki gulshan kisi koching ka naam le raha hai. jab hamne koching sansthanon mein phees ke malumat kiye to phees itni jyada thi ki hamein bhai ko ye samjhana paDa ki koching voching to is daur ke jhamele hain, kya aaj se pahle saphal log nahin hue, tum, bus, paDhte jao.
hamne dekha ki gulshan na jane kyon divar ki taraph munh karke paDhai karne laga tha. mainne maan ko samjhaya tha ki divar ki taraph munh karke paDhai karne se ho sakta hai yaad karne mein suvidha hoti hogi aur ismen aisi koi baat nahin thi ki gulshan naraj hokar hamse badla lene ki koshish kar raha tha.
to bhi bhai ki paDhai likhai mein koi kami nahin thi. ek injiniyring kalej mein nahin to dusre mein uska pravesh ho hi jana tha. hum har pal uska khyaal rakhne lage the. bahan ki naukari ki talash abhi jari thi. mere tution chal rahe the. pitaji bhi achchhi khasi sankhya mein ticketen black kar rahe the. maan bartan ponchhe ke liye do any gharon mein jane lagi thi. mujhe isi baat ka Dar tha ki hamare din achchhe gujarne lage the.
aap baDe log hain, is baat ko aise samjhiye maan lijiye aapke shahr mein bijli katauti ka samay aath se barah hai. aise mein agar kisi din bijli nirdharit samay par nahin jati hai to aapke shahr mein jo mere jaise log hongen, ve is baat se Darenge ki ab agar bijli gai to lambe samay ke liye jayegi. samjhe. main ashankit rahta tha. hamesha.
yahi ve din the jab akshayvar chacha ke rikshe ke tyre bol jane ki ghatna ghati thi. un dinon shahr mein charon taraph (aur desh bhar mein bhee) atankvad aur atankvadiyon charcha suchnatantr par chhain rahne lagi thi. shuruat mein to hamne antakvad ka hansi majak banaya kyonki hamare muhalle mein kisi ne kabhi atankvadi nahin dekha tha. par dhire dhire ye sab kuch khauph mein badalne laga tha. agar ek pahar sarkari pani nahin aata to hamein yahi lagta tha ki kal ka akhbar pani tanki uDaye jane ki khabar chhapega. kuch hi dinon pahle ghati akshayvar chacha ke rikshe vali ghatna mein police ke hastakshaep ne hamare Dar ko baDha diya tha.
dusre is shahr ka jo thoDa bahut aitihasik mahatv tha, mandiron vandiron ke karan. ek khaas tabke ke liye to inhin karnon se is shahr ka bahut mahatv tha, to us aitihasik mahatv ko dekhte hue sarkar ne apne sabse dabang police adhikari ko is shahr ka naya s. pi. niyukt kiya tha.
shahr ke nae s. pi. ne apna karyalay sambhalte hi apradh aur atankvad par kabu pane ke liye kuch nae aur beDhange niymon ka ailan kiya tha teen aur teen se jyada log ek saath na khaDe ho harek puliskarmi ko rojana kam se kam ek apradhi pakaD kar dena hai pratyek pratishthit evan baDi dukanon tatha niji sansthano ko prashikshait guard rakhne hain, jo hathiyaron se lais hon.
in niymon se hamara kuch bhi lena dena nahin tha to bhi behad Dar gaye the. police se to hum gali ke log aise hi thartharate the, ab ye nae niyam bhi the. police shabd sunte hi mujhe tarango jaisi khoob unchi aur khoob nichi Dhalanon vali, mitti ki saDak yaad aa jati hai. ek bachcha akele vidyalay ja raha hai. asapas door door tak koi nahin dikhta hai, bahut door do yukiliptas ke peD hain. bilkul niranv. laDka abhi saDak ki Dhalanon mein pahuncha hi hai ki pichhe se use police ke do log, cycle se Dhalan utarte dikhte hain.
mera gala rundh gaya tha. mainne nahin rone ke liye honth bheench liye the, phir bhi ankhon mein pani bhar gaya tha. police ke log najdik aa rahe the. main jahan tha, vahin khaDa ho gaya tha, aur dusri taraph dekhne laga tha. jaise hi police ke log mere karib se gujre, mainne unhen haath joD kar namaste kaha tha. ve bus muskraye the aur ek dusre se baat karte hue chale gaye the.
kuch hi dinon baad, mujhe yaad hai, ek din pitaji der tak sote rahe the aur us din sima ko apne pairon par chaDhaye hue the. maan ko bhi ashchary hua tha, aaj ye cinema haal kyon nahin ja rahe hain? pitaji din bhar sote rahe the, shaam ko bataya tha, ab ‘bahadur sekyoriti phors’ ke prashikshait guard sarasvati cinema ki darbani sambhalenge.
wo koi mukhyamantri ka karibi tha jo ‘bahadur sekyoriti phors’ ka malik tha. wo apne niji phors mein un logon ko bharti karta tha jo gaanv dehat ke the aur sipahi, military ke prashikshan ki taiyariyon ke baad asaphal ho gaye hote the. usi ne upar se s. pi. par dabav banvaya tha. isi atankvad ke bahane wo sabhi dukanon par apne sekyoriti gaarDs rakhna chahta tha.
un dinon pitaji ki darbani chhoot jane ke baad mujhe is baat par ashchary hua tha ki kya main jyotishi hoon, ‘kuchh bura hi hoga’ vali meri ashanka hamesha hi sach ho jaya karti thi. to bhi pitaji ke darbani chhutne ka hamne jyada shok nahin manaya kyonki shok manane ke liye jaruri donon hi chijen hamare paas nahin theen paisa aur samay. apni naukari chhutne ke babat pitaji ne hamein yahi samjhaya jaan lo, ki agar taklifon ki koi sima hoti hogi to us sima ke akhiri chhor par hum pahunch chuke hain, aur yahan se hamare baDhiya din shuru honge.
kaam chhutne ke do teen din baad se hi pitaji manDuaDih vali gulammanDi mein jane lage the. shahr ke door daraj kshetron evan ganvon se roj yahan saikDon log jama hote the. yahan kaam mil jane par ek din ke pachas rupae to milte hi the. kaam bhi dihaDi ki tarah ka hota tha. yahan dikkat ye thi ki roj kaam nahin milta tha, jabki mere pitaji apne aur mere sare kapDe pahan kar jate the taki ve khoob mote dikhen aur turant koi unhen apne kaam ke liye ‘pakaD’ kar le jaye.
mujhe yaad hai, ek baar un garmiyon mein itne kapDe pahan kar gulammanDi jane bavjud ek haphte tak koi kaam nahin mila tha to pitaji ne, auron ki tarah, us dalal se baat kiya tha jo din ke antral par kaam dilata tha aur evaj mein bees rupae leta tha. par kaam to karna tha.
pitaji ke pairon ki takliph aur kaam karne ki jaddojhad ko dekh kar main sochta tha ki main bhi to pitaji ke saath gulammanDi ja sakta hoon par main itna neech tha ki mujhe sharm aati thi aur mere tution bhi chal hi rahe the. pitaji ki takliph dekh kar jab main jitna hi un relgaDi ke aage gas batti lekar dauDte hue pata. relgaDi ke aage dauDta hua ‘main’ jab naukariyon ke bare mein sochte hue ‘main’ ko dekh kar muskrata tha to puri gas batti hilne lagti thi. dauDte hue meri kali pant chamakti rahti thi.
hum sabki chinta pitaji ke kaam milne ko lekar to bahut hoti hi thi par hamein is baat ka behad Dar bhi subah se shaam tak bana rahta tha ki gulammanDi mein bheeD hoti thi. pura muhalla un dinon bheeD mein phansne se Darta raha tha.
hamara Dar shahr mein lage us nae kanun se upja tha, ki, teen se jyada log ek saath nahin khaDe ho sakte hain. ek to shahr ki nigah mein hamara darja bhi uncha nahin tha aur dusre gulam manDi ki bheeD. hum sabhi apne kamdham karte rahte the aur saath mein pitaji tatha atankvad ka khyaal bhi dinon raat man mein rahne laga tha. hum harek shaam pitaji ko ghar lauta dekh kar hi atankvad ke khyaal ko kuch der ke liye apne man se taal pate the.
hamare muhalle tatha visheshkar, hamari gali ke logon ki dharapkaD baDh gai thi. isse Dar kai guna baDh jaya karta tha.
ek din jab pitaji ke aane mein jab bahut der ho gai thi to muhalle ke logon ne samjhaya tha ki ‘Darne ki koi baat nahin hai, hum log hain na, bus, ekbaar jakar manDuaDih thane mein dekh lo. ’
mujhe yaad hai pitaji rathyatra chaumuhani par ek mungaphali vale ki tokari mein se mungaphali nikal kar khate hue mil gaye the. najdik se dekha to thoDa ashchary hua tha ki wo sumer chacha the. pitaji ke saath hi sinemahal ki naukari se nikale gaye the, phir ye mungaphali ka kaam shuru kiya tha. mere saath jo gali ke log the unhonne pitaji ko bhala bura kaha tha aur samay par ghar aane ki hidayat di thi.
pitaji aur atankvad se juDa Dar hamare man mein un dinon bhi rahne laga tha jis din pitaji kaam par nahin jate the ya kaam nahin mila hota tha. un dinon ye Dar ek aadat ki tarah hammen bus chuka tha.
mujhe yaad hai, us din bhi pitaji ghar par hi the aur mai akhir ki Daravni dopahar thi. us din ki garmi to aaj tak jas ki tas yaad hai. bahut lu chal rahi thi. lu itni sukhi aur tej thi ki us din dopahar mein main jab sokar utha tha to mujhe saans lene mein pareshani ho rahi thi. baki log bhi ungh rahe the.
saans lene vali pareshani se bachne ke liye main ghaDe se pani nikal raha tha ki laga tha, pichhe se parchhain gujri hai. mainne sabki taraph dekha tha aur parchhain gujarne ki soch kar buri tarah Dar gaya tha. mere pichhe muD kar dekhne se pahle hi bathrum ka darvaja band ho gaya tha. kisi ajnabi ki babat sochte hi main chikhne laga tha, mujhe yaad hai.
mujhe yaad hai ghar mein sab jhatke mein jage the. maan aur bahan jhatke mein jagi theen. pitaji ne bathrum ke darvaje ko dhakka diya tha aur use bhitar se band pakar vahan se bhage the. mujhe puri tarah yaad hai, pitaji ko mainne utna badahvas kabhi nahin dekha tha. pitaji cheekh rahe the. door hato, door hato vahan se, bam rakha hoga, beech beech mein paDosiyon ko pukarte rahe the. hum sabhi ek dusre ko pakDe hue, ro rahe the, cheekh rahe the.
do minat bhi nahin lage honge, bahut baDi bheeD ikatthi ho gai thi aur us bheeD ne hamare bathrum ko gher liya tha. un sabon par pitaji ke ‘door hato’ aur ‘bam rakha hoga’ ka koi asar nahin hua tha. bheeD atankvad ke khilaph nare laga rahi thi. atankvad ke khilaph lagte nare ‘pakistan haay haay’ mein badal gaye the.
us bheeD mein sau sava sau log rahe honge. hum dhakkamukki mein ghar se bahar kar diye gaye the. un logon ne bathrum ka darvaja bahar se bhi band kar diya tha. naaron ke shor se pura muhalla gunjne laga tha. log darvaja peet rahe the. wo cheekh ab bhi sunai deti hai. mera ghar thasathas bhar chuka tha.
bheeD kuch kar pati isse pahle siDhi chaDhte police ke log hamein dikhe the. ye yahin chaurahe par vasuli ke liye tainat kiye jate the. police ke logon ko dekhte hi hum pareshan ho gaye, mujhe wo bachcha yaad aa gaya tha, mitti ki saDak ki Dhalanon mein police ke logon ko namaskar karta hua. mujhe puri tarah yaad hai aur hamesha yaad rahega ki police ke logon ko dekhte hi hum sabko pitaji, maan, main, bahan ko gulshan ki yaad i thi. phir to hum sab chaunk paDe the.
main kisi tarah jagah banakar bhitar gaya tha to sachmuch gulshan jagah par nahin tha, uski jagah ko tamam any logon ne kabje mein le liya tha, uski kitabon par log chaDhe hue the aur rah rah kar beech beech mein nare laga rahe the.
aur phir to hum barbad ho gaye. to, bathrum mein gulshan tha. ek baar phir hum apni namalun taklifon, betartib si khoe rahne ki bimari mein paD kar gulshan ko bhool chuke the. mujhe maan ko kuch bhi batana nahin paDa tha. wo thasak kar jamin par baith chuki thi. pitaji ne sir se haath laga liya tha. aur bahan, uski to ab bus itni hi yaad baki hai ki wo kabhi maan ko kabhi pitaji ko dekhti rahi thi.
main apne aap se itna apmanit hua tha ki gusse mein aa gaya tha. bheeD ko thelta thalta, kudta phandata bathrum ke paas kisi tarah pahuncha tha. mainne logon se apne apne kaam par chale jane ko kaha tha, bataya tha ki andar koi atanki vatanki nahin mera bhai gulshan hai, chunki hum turant sokar uthe the, isliye gulshan ka khyaal hi dhyaan se utar gaya tha.
iske baad to jo kuch hua uske liye main apne us hisse ko kabhi maaph nahin kar paya, jo hissa din raat naukariyon ki baat socha karta tha, bhai se bhi paise paise ki soch rakhta tha, asphalta ko saphalta mein badalne ki baat sochta rahta tha, prem ki babat sochta rahta tha. wo mera nakara hissa tha. pata nahin maan aur pitaji ne apne aap ko kaun si saja di hogi? bahan to, khair, ab rahi nahin. use sirdard hota tha, jab thi.
mere ye bata dene par ki andar bathrum mein mera bhai hai, us bheeD ka ek hissa to mere paksh mein aaya tha, par ek baDa hissa na jane kaise ye maan baitha tha ki jo bhitar tha wo atankvadi tha, bhale hi wo gulshan kyon na ho.
bheeD ke us hisse ne mujhe divar mein daba diya tha. yahan se jhilamilahton mein dikhti meri maan ko na jane kya ho chuka tha, log cheekh rahe the.
khilaph bheeD ka wo hissa jo manata tha ki mera bhai bahut khubasurat hai, uske log bathrum ke chhat tatha raushandan par chaDh gaye the. bathrum ke tamam chhote mote chhedon ko is bheeD ne moond diya tha. bheeD ke is hisse ko lag raha tha ki mera bhai itna khubasurat tha ki jarur hi use bachane ke liye sabhi devta apne rathon par chale aa rahe the. bathrum ke chhat par, raushandan par chaDh kar ye log devtaon se yudh ki taiyari kar rahe the.
bheeD ke jis hisse ko laga tha ki sabhi atankvadi sangathan mere bhai ko bachane aane vale the un logon ne lathi DanDe se lais hokar pure muhalle ko gher liya tha. in logon ke samuche shahr mein phail jane ki ummid thi.
par police ke logon ke bathrum ke paas pahunchte hi ye log thanDe paDne lage the. police ke logon ne hamein bahut galiyan di theen. meri maan aur pitaji ko sabse adhik gali. apne bete ko bhool jate ho, sale. ghar mein atankvadi palte ho aur pakaD mein aane par beta bana lete ho. jabki kasam se, main bata doon, mera bhai atankvadi nahin tha. hum sabhi, police ke logon ke samne giDgiDane lage the. ve log bhi, jo thoDi der ke liye khilaph hue the.
bahut der tak rone dhone ke baad bhi police ke logon ne mere bhai ko nahin chhoDa. mujhe yaad hai, bathrum se mere bhai ko un logon ne kheench kar nikala tha. us samay gulshan hum sabko dekhta rah gaya tha. police ke log jate jate ye jarur bata gaye the ki unke saath bhi roj ek apradhi pakaDne vali majburi thi.
us din jab jab main maan ko dekhta tha mujhe vishvas ho pata tha ki mera bhai atankvadi nahin tha. varna din bhar aur ghaDi bhar raat tak muhalle ke jitne bhi log aaye the ve log itne ashvast the ki aupchariktaon ke baad aise hi saval puchhte rahe the kis sangathan se juDa tha hindu hokar aisa kaam. . . thoDa galat lagta hai ya phir, dekh lijiye ghar mein kahin hathiyar to nahin chhupa rakha hai.
kai logon ne ye bhi bataya ki agle din ye khabar akhbar ke kis panne par ayegi. agar kuch aur bhi ghatta hai to pahle panne par aa jayegi. log ye bhi bata rahe the ki t. vi. ke kis kis channel par ye khabar prasarit ho rahi thi. main is kadar badahvas ho chuka tha ki mujhe agle din ka akhbar dikhne laga tha, jismen chauthe panne par ‘dhayan’ likha tha. ya bahut hua to ‘dhayan, dhayan’ pitaji aur bahan bhi akhbar ka vahi panna paDh rahe the.
par maan ki baat dusri thi. usne itna hi kiya tha ki aas nahin chhoDi thi. shuruat mein jo bhi aaya tha uske samne maan dahaD maar kar rone lagi thi, rona use ummid ki kisi surat ki tarah laga hoga. par inmen se kuch ne santvana di thi in logon ka kahna tha ki beta tha to rone mein koi harj nahin hai, lekin itna nahin rona chahiye, hum to bharat mata ke liye apne sabhi beton ki bali chaDha den, deshabhakt hota to rone ke koi mayne bhi hote, atankvadi phatankvadi, chor chikar ke liye itna rona, sanbhaliye apne aapko.
maan ko kaisa laga hoga?
maan ne apne bete ke liye chor chikar shabd suna aur rona band kar diya tha. uske baad to ghar mein koi bhi aaya, maan usse milne nahin i. koi dikh gaya to muskra kar idhar udhar ho jati thi. mujhe yaad hai, lagatar saat aath ghanto tak maan ya to bathrum jati rahi thi ya ulti taraph ghoom kar khana banane vali jagah par ponchha lagati rahi thi.
us din jitni baar maan bathrum gai thi, aadhe ghante se adhik rahi thi, mujhe yaad hai, bathrum se aate hi ghar ka wo vala hissa pochhne lagti thi, ek bartan ko hatati thi uske niche ki jamin ponchh kar bartan rakh deti thi, phir turant hi vahi bartan utha leti thi, phir ponchhti thi.
ghar mein bahari log lagatar aate rahe the par mera dhyaan maan ki taraph vastav mein tab gaya tha jab mainne dekha ki maan ne bartan ko hava mein utha rakha tha, ponchha jamin par paDa hua tha aur ek haath se saDi ke kinare mein apne chehre ko thame sar ko ghutne par tikaye thi. mujhe yaad hai, pitaji aur bahan bhi maan ko dekh rahe the.
tab mujhe laga tha ki maan ro rahi thi. apne hi ghar mein, apne hi bete ke liye maan chhup chhup kar ro rahi thi. use khul kar rone bhi nahin diya ja raha tha. wo bathrum ja rahi thi aur ulti taraph ghoom kar ponchha laga rahi thi to sirph isliye ki use rone ki jagah chahiye thi. wo bhi saat aath ghante se lagatar. ye soch kar to mujhe na jane kya ho gaya tha ki kya maan ne ye maan liya tha ki chor ki maan ko chhup chhup kar hi rona chahiye phir to mainne ghar mein ghus aaye logon ko apratyaksh galiyan dekar bhaga diya tha.
ab bhi mujhe nahin lagta ki agar maan ki haalat bigDi nahin hoti to hum kuch bhi kar pae hote. us chhup kar rone ke darmiyan mainne maan ka chehra sirph ek baar dekha tha aur bechain ho gaya tha. usi bechaini mein mainne pitaji se kaha tha ki wo ek baar sinemahal vale malik se mile aur na ho to unhen lekar bhelupur thane par chalen. main bhi un kuch parivaron ke logon ko saath laya tha, jahan main tution paDhata tha. ek ne to kisi baDi hasti se phon karvane ki bhi baat kahi thi.
aath nau baje hi hum thane pahunch gaye the, par hame saDhe gyarah baje tak thana incharge ka intjaar karna paDa tha. maan vahan pahle se maujud thi aur uske saath ek mahila bhi thi. wo raay sahab ki aurat thi aur maan unke ghar bartan pochhen ke liye jati thi. raay sahab bahut baDe neta the aur unki aurat jarur maan ka rona dekhkar hi thane par aane ke liye taiyar hui hogi.
mujhe yaad hai, do gune do pheet ke bandigrih mein mera bhai band tha. thana incharge ke aane tak maan us bandigrih ke bahar baithi rahi thi aur gulshan ka haath apne haath mein liye rahi thi. roi bhi rahi hogi.
thana incharge ne raay sahab ki aurat ko dekhte hi ‘aap’ kaha tha. wo nahin i hoti to bhi ho sakta tha ki mera bhai chhoD diya jata. aur bhi bahut log aaye the. hamare muhalle ke hi kai log the. par agar wo nahin i hoti to hamein ye kabhi nahin pata chal pata ki gulshan gulpham ho chuka tha aur mandir hamle ka mukhy abhiyukt tha.
hamare liye ye ashchary se kam nahin tha ki bhai ko hamne chhuDa liya tha. raay sahab ki aurat incharge ko ‘tum tum’ kahti rahi thi. unhonne jab apne raay sahab se thana incharge ki baat karai thi to thana incharge Dar gaye the. ‘ismen phon karne ki kya jarurat hai’ kahte rahe the. jab hum aane lage the to thana incharge ne apni jeb se (bataya tha) kuch paise bhi diye the, ye kahte hue ki iske sir mein chot aa gai hai, sala kuch bol nahin raha tha, naam tak to baDi mushkil se bataya. bhai ke sir ka pichhla hissa, thoDa, kat gaya tha. thoDa ‘thoDa’ sabne kaha tha. mera bhai chal nahin pa raha tha aur na jane kab tak karahta raha tha.
mujhe bhulne ki bimari jarur hai par main wo sab nahin bhulta hoon, jise sachmuch mein bhool jana chahta hoon. jaise ye ghatnayen. mere jehan mein ye sab itna kramvar ghatta hai ki inhen ek pal ke liye bura sapna bhi nahin maan pata hoon. itni rahat jarur hai ki kabhi kabhar mujhe ye sari ghatnayen avishvasniy lagne lagti hain.
avishvasniy lagne mein ye hota hai ki jaise ye sab hamare saath nahin hua. jaise gulshan to sahi salamat hai. ye sara kuch kisi dusre parivar mein ghata aur hamne ise, bus dekha tha. kabhi kabhi to ye sab itna jhutha jaan paDta hai ki lagta hai hamne ise kahin se sun liya hoga. varna aapke paas laakh takliphen hon, sapne hon, ummiden hon, chahen khud mein kitna bhi na khoe rahte ho ye to mushkil hi hai ki koi apne bhai ko bhool jayega, koi apne bete ko bhool jayega. par ye achchhe khyaal kabhi kabhi aate hain. jabki sachchi baten hamein hamesha mathti rahti hain.
in ghatnaon ke khyaal se bhi ab mujhe itna Dar lagne laga hai ki ab inki yaad aate hi main sachet roop se sochne lagta hoon ki ye jo ‘main’ tha, wo main nahin hoon. ye jo gulshan hai, koi aur gulshan tha, mera bhai gulshan nahin. maan bhi koi dusri, pitaji bhi dusre. aur haan yaad aaya, main ne uske bare mein ab tak aapko kuch bataya hi nahin ki jo ‘bahan’ thi, koi aur thi jise sirdard hota tha aur sir dard se laDte hue apna sir plastic ki rassi se bandhe rahti thi.
pitaji to vakii usi din se bilkul dusre ho gaye the jis din hum bhai ko chhuDakar ghar le gaye the. agle din se ve kabhi kaam par nahin gaye. bistar se uthte hi thasak kar baith jate the. kahte the pairon mein bahut dard rahne laga hai. ‘shahr nahin chhoDna paDe’ ke shuruati sangharsh mein mainne do nae tution jarur DhoonDh liye the par ve kaphi nahin the.
bhai pahle andha hua tha aur bahrapan use baad mein aaya. aisa dhire dhire hua tha. iske andhepan ke shuruati dinon mein hamne mahsus kiya tha ki wo hamein hamari avaj se pahchanne ki koshish karne laga tha. kisi bhi pariksha mein paas nahin ho paya. ye batana thoDa mushkil hai ki use ye andhapan sar par lagi chot se aaya tha ya din raat ghar ke andhiyare kone mein paDhte rahne se.
gulshan ko upyog mein lane ki meri akhiri koshish bhi nakam rahi thi. uske bimari ke shuruati dinon mein mainne viklangta pramanapatr banvane ki baat sochi thi taki koi chhoti moti naukari use mil jaye. is baat par pitaji aur maan bus asman dekhte rahe the. un dinon abhi bahan thi tabhi to usne kaha hoga ‘kya, bhaiya ekdam se?’ is babat meri patni ne kaha tha ki aap kitne gaye gujre hain, aapko sharm aani chahiye. main batana bhool gaya hoon, shayad, ki tab tak meri shadi ho chuki thi. shalu ko lekar meri patni aspasht hai ‘ham utne baDe baDe sapne nahin dekhenge. ’
patni se bina bataye main shalu ko lekar Dher sare sapne dekhta hoon. shalu ke sapnon ke alave mere paas kuch sapne any bhi hain. jaise ek subah main uthun aur main ‘gulshan’ ho gaya rahun aur gulshan ‘main’ ho jaye. ek baar phir wo dekhne sunne lage. maja aa jayega. mera bhai gulshan. kyonki mujhe us niyam par agadh vishvas hai ki bete ka chehra maan se mile to wo bhagyashali hota hai.
kabhi kabhi ichha hoti hai ki wo sab sochun jo gulshan bina kisi se kahe anavrat sochta rahta hoga aur akhir wo kya karta hoga? use neend bhi aati hogi? kabhi kabhi ichha hoti hai ki in ghatnaon ka khyaal aate hi inhen kisi any vekti par pratyaropit karke sochun par hota ye hai kuch hi door tak sochne ke baad mujhe us any vekti par daya aane lagti hai.
par aaj chhutti ke din ke karan kushvaha kirana vale ke yahan akhbar pura paDhna mujhe naya jivan de gaya. kya kismat hai? main yahan biskit lene aaya tha. har mahine ek britainiya taigar, do rupaya vala, le jata hoon kyonki har mahine police ke do log mere bhai ko dekhne aate hain, wo apni jagah par hai ya nahin. asapas ke kshetron mein koi apradh ho to bhi ve log use dekhne aate hain.
aaj do october ki chhutti na hoti to main chauthe panne ke kone mein chhapi khabar kahan paDh pata jo jindgi bhar mera sambal banin rahegi. phursat mili hai to pura akhbar paDh gaya hoon, aaj. khabar hai ki nainital ke door daraj kshaetr mein ek laDka pakDa gaya hai, jiska naam rajdip hai, uski umr unnis saal hai, uske paas se kuch naksali sahity bhi baramad hua hai.
mujhe to ye khabar ankhon ke samne ghatti dikh rahi hai. apne bhai ke bare mein tamam baten rajdip se badal kar sochne ki koshish karunga to mujhe rajdip par daya ayegi ya nahin ye to baad ki baat hai, pahle to ye khabar is chhoti si khabar mein ye bhi likha hai ki rajdip ki maan baDe baDe adhikariyon tak guhar laga rahi hai ki uska beta nirdosh hai.
ye khabar paDhne ke baad ab main Dher sare kaam nibtaunga aur agar ise bhula nahin to agle kai dinon tak ye bhi chahta rahunga ki rajdip ki maan ko koi chor ki maan na kahe.
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।