जिस दिन उन लोगों का विवाह होना निश्चित हुआ, उसी दिन से बर्तोलीनो ने अपनी भावी पत्नी को कहते सुना-जानते हो न, मेरा असली नाम लीना नहीं है। मेरा नाम है करोलीना, किंतु ‘वे’ मुझे लीना कह कर पुकारते थे। इसी कारण तभी से मेरा नाम लीना ही रह गया है। ओह! बहुत ही सज्जन थे वे। वह देखो उनकी तसवीर, कह कर लीना ने एक बड़े फ़ोटोग्राफ़ की ओर उँगली उठाई। बर्तोलीनो ने देखा, उसकी भावी पत्नी के प्रथम पति सिनोर कोसिमो ताद्देयी उसकी ओर मृदु मुस्कान के साथ टोपी उठा रहे हैं।
अपने अनजाने में बर्तोलीनो ने मृत सज्जन के अभिवादन के प्रत्युत्तर में अपना माथा क़रीब आधा झुका लिया था। ताद्देयी एक विख्यात मूर्तिकार थे। उनके निधन के उपरांत उनकी तसवीर को दीवाल पर से उतार कर रखने की बात उनकी विधवा पत्नी लीना सारूल्ली के मन में एक बार भी न आई और आती भी क्यों? उनके प्रति लीना की कृतज्ञता भी तो कम नहीं है। उसका मान-सम्मान, घर-द्वार सुंदर-सुंदर तमाम सामान, ये सब कुछ तो वे ही रख गए हैं।
भावी द्वितीय पति की हैरानी के भाव की ओर तनिक भी ध्यान न देती हुई लीना ने आगे कहा-असल में मैं नाम बदलना नहीं चाहती थी, परंतु वे जो कहते थे, उसको मैं ‘ना’ नहीं कह सकती थी। तुम भी मुझे उसी नाम से पुकारना क्यों? ठीक है न! ग़लत तो नहीं समझोगे न?
बर्तोलीनो अचकचा कर बोला—नहीं, अरे...नहीं...हाँ, हाँ, वह तो ठीक ही है। दीवाल पर टंगी बड़ी तसवीर की ओर से वह अपनी आँखें हटा न सका। वे सज्जन उसी की ओर ताकते और मुस्कुराते हुए टोपी उठाए अभिवादन कर रहे थे।
तीन माह पश्चात् जब रिश्तेदार और मित्रगण लीना और उसके पति को हनीमून यात्रा के लिए विदा करने स्टेशन पर आए, तब लीना की प्रिय सखी अर्तेनसिया पोत्ता अपने पति की ओर देखकर एक गहरा नि:श्वास लेती हुई बोली—बेचारा बर्तोलिनो लीना की तरह की लड़की के साथ...
—क्यों, बेचारा क्यों? उसके पति बोल पड़े।
इन महोदय की काफ़ी उम्र हो गई है, लीना की दूसरी शादी की बात उन्होंने ही चलाई थी। इसी कारण इस शादी की किसी प्रकार की भी समालोचना सुनते ही उन्हें क्रोध आता था।
—बेचारा, कहने लायक कौन-सी बात हुई? बर्तोलीनो तो मूर्ख नहीं है, केमेस्ट्री पर उसका असाधारण अधिकार है।
—हाँ, केमेस्ट्री पर है, अर्तेनसिया बोली।
—देखना तुम, बर्तोलीनो बिलकुल यथार्थ पति सिद्ध होगा। केमेस्ट्री की कौन सी बात है? यदि तनिक प्रयास कर वह अपने सारे शोधकार्य छपवा देता तो आज सारे देश में वह एक आदर्श शिक्षक माना जाता। इसके अलावा ऐसा साफ़ दिल वाला नेक इंसान है।
बिल्कुल ठीक कहा, अत्यंत साफ़ दिलवाला नेक आदमी है। लीना के इस द्वितीय हनीमून की बातें सोच कर अर्तेनसिया मन ही मन बिना हँसे न रह सकी। पहली बार भी लीना रोम गई थी। इस बार भी रोम जा रही है। पहली बार था फुर्तीला, धूर्त, उत्साही (कभी-कभी थोड़ा या अधिक उत्साही) सिनोर ताद्देयी, और इस बार उसकी जगह यह छोकरा बर्तोलीनो—गंजा सिर, मासूम चेहरे और अनुभव में बिल्कुल बच्चा है।
ट्रेन छूटने से पहले अनसेलमो चाचा ने बहू से कहा था—बर्तोलीनो की ज़रा देखभाल करना, उसका ज़रा ख़याल रखना। लीना अपने प्रथम: हनीमून के लिए पहले एक बार रोम आ चुकी थी। देश भ्रमण का सारा रहस्य उसे पता है—सारे सफर में वह बर्तोलीनो को लगभग बच्चों की तरह हाथ पकड़ कर ले आई।
अंत में गाड़ी जब रोम पहुंची तो वह पति से बोली—तुम कोई चिंता मत करो, उसकी मैं सब प्रबंध किए लेती हूँ। जो कुली उनका सामान एकत्र कर रहा था, ओर देख कर वह बोली—होटल विक्टोरिया।
स्टेशन के बाहर ही होटल विक्टोरिया की बस इंतज़ार कर रही थी। ड्राइवर को पहचान कर लीना ने उसकी ओर देख कर थोड़ा सिर हिलाया।
—सुंदर होटल है, देखो, छोटा-सा, साफ़-सुथरा, नौकर-चाकर चुस्त हैं, बिल्कुल शहर के बीच में और ख़र्च भी बहुत अधिक नहीं है। छह साल पहले उनके साथ प्रथम हनीमून में आकर मैं इसी होटल में ठहरी थी...तुम्हें भी यह अच्छा लगेगा, देखना।
वह होटल लीना को बिल्कुल घर की तरह लगा। किसी ने उसको पहचाना है, ऐसा प्रतीत नहीं हुआ, लेकिन वह सबको अवश्य ही पहचान सकी है। वह बूढ़ा वही पिप्पो है, छह साल पहले इसी आदमी ने उनकी सेवा-टहल की थी। वह उनको दूसरी मंज़िल में एन.12 नं. कमरे में ले गया, काफ़ी बड़ा कमरा है, भली-भाँति सजाया हुआ, किंतु लीना को वह कमरा पसंद नहीं आया।
—पिप्पो, उन्नीस नं. का कमरा क्या ख़ाली है? पिप्पो पता लगाने गया। उस मौक़े पर लीना को याद आया कि छह वर्ष पूर्व ‘उनके’ साथ भी ऐसा ही हुआ था। ‘उनके’ लिए दूसरी मंज़िल में एक कमरा इन लोगों ने ठीक कर रखा था, लेकिन ‘उन्होंने’ तीसरी मंज़िल का एन-19 नं. का कमरा माँगा।
—सुनते हो? वहीं हम लोग ठीक रहेंगे। शोरगुल कम है, हवा काफ़ी है। वही एक कमरा...
पिप्पो ने लौट कर जब बतलाया कि एन-19 नं. का कमरा ख़ाली है, तो लीना बच्चों की तरह ताली बजा कर हँस पड़ी। ठीक उसी कमरे में वह फिर रहेगी, वही सब असबाबात, उसी तरह सजाया हुआ, जंगले के पास वही छोटी-सी ताक। कितना मज़ा आएगा।
कहने की ज़रूरत नहीं, बर्तोलीनो...लीना की ख़ुशी में हिस्सा न ले सका।
—क्यों जी, यह कमरा तुम्हें पसंद नहीं आ रहा है? लीना ने पूछा।
उदासभाव से बर्तोलीनो ने जवाब दिया—क्या बुरा है, तुम्हें पसंद है तो ठीक ही है। उसके बाद लीना जब कपड़े बदलने पर्दे के पीछे गई तो वह कमरे में पड़े पलंग की ओर देख कर सोचने लगा कि यहीं, इसी बिस्तर पर उसकी पत्नी ने अपनी प्रथम विवाहित रात्रि अपने प्रथम पति सिनोर ताद्देयी के साथ बिताई थी...और बहुत दूर उसकी पत्नी के मकान की दीवाल पर टंगी तसवीर में से सिनोर ताद्देयी की मूर्ति उसकी आँखों के सामने जाग उठी—स्मित हास्य के साथ उसकी ओर देख कर वे टोपी उठा रहे हैं।
हनीमून के वक़्त वे उसी बिस्तर में सोए, उसी रेस्ट्राँ में उन्होंने खाना खाया, वही सब दृश्य भी देखते फिरे, वही सब जादूघर, वही चित्रशालाएँ, वही सब गिरजे, यहाँ तक कि वही सब बाग़-बग़ीचे, जहाँ-जहाँ छह वर्ष पूर्व लीना अपने ‘उनके’ साथ गई थी।
बर्तोलीनो बहुत शर्मीले स्वभाव का आदमी है। किसी तरह भी मुँह खोलकर नहीं कह सका कि लीना के प्रथम पति के उपदेश, अनुभव, रुचि और इच्छा-अनिच्छा का पग-पग पर अनुसरण करते हुए चलना, उसे कितना बुरा लग रहा है। लीना ने भी इस पर ध्यान नहीं दिया कि उसका तरुण पति उसके व्यवहार से मन ही मन कितना मर्माहत हुआ है। अट्ठारह साल की उम्र में उसकी शादी हुई थी। उस समय वह लगभग बच्ची ही थी। कुछ भी समझती नहीं थी। जानती नहीं थी। उसी भले आदमी अर्थात् ताद्देयी ने उसे शिक्षा-दीक्षा देकर बड़ा किया। वह अपने प्रथम पति की ही सृष्टि है। जो कुछ भी उसके पास है, वह सब कुछ ही क्या उसने ‘उनसे’ नहीं पाया है? यहाँ तक की ‘उनसे’ अलग-थलग कुछ सोचने या अनुभव करने तक की क्षमता भी उसकी लोप हो गई थी।
उसने जो पुनर्विवाह किया है, वह भी सिनोर ताद्देयी के निर्देश के अनुसार है। ‘उन्होंने’ ही उसको सिखाया था कि अश्रुजल से जीवन की शुश्रूषा नहीं होती, जीवित के लिए जीवन और मृत के लिए मृत्यु का होना ज़रूरी है। केवल यही बात याद रखते हुए उसने बर्तोलीनो को पति रूप में ग्रहण किया था और किसी कारण से नहीं। बर्तोलीनो यदि उसे प्यार करता है तो उसकी मर्ज़ी को वह अवश्य ही मानकर चलेगा। और इसका अर्थ है ताद्देयी की इच्छा-अनिच्छा का अनुसरण करना। ‘वे’ ही मालिक हैं, जीवन-रथ के सारथी हैं। किंतु यौवन की अंधी अनभिज्ञता के वशीभूत होकर बर्तोलीनो ने सोचा, अति सामान्य कुछ भी क्या लीना उसे नहीं दे सकती? एक चुंबन, थोड़ा-सा प्यार, उसके प्रथम पति उसे जो कुछ सिखा गए हैं, उससे अलग कुछ? ऐसा कुछ जो उस गत व्यक्ति के प्रभुत्व से लीना को कुछ समय के लिए मुक्त कर सके। लेकिन यह बात प्रकट करने में भी उसे शर्म मालूम होती है और विद्रोह करने की बात तो वह सोच ही नहीं सकता।
हनीमून से लौटकर एक अप्रत्याशित बुरी ख़बर उन लोगों ने सुनी। सिनोर मोत्ता की, जिन्होंने उनकी शादी की बातें चलायी थी, अचानक मृत्यु हो गई। वह ख़ुद जब विधवा हो गई थी, उस समय इन्हीं मोत्ता की पत्नी अर्तेनसिया ने उसके लिए कितना किया था, यह बात क्या लीना भूल सकती थी? वह भी दौड़ गई, अपनी सहेली को सांत्वना प्रदान करने, सहायता करने। लेकिन वह समझ ही नहीं पाई कि पति की मृत्यु के दस दिन बाद भी अर्तेनसिया क्यों इतनी अधिक शोकाकुल है?
—उसे क्या हुआ है, बोलो तो? लौट कर उसने पति से पूछा। पत्नी की नासमझी को देखकर बर्तोलीनो शर्म से लाल पड़ गया।
—इसके माने जो भी कहो तुम, उसके पति का देहांत हो गया है।
—उसके पति? उनका देहांत हो गया है तो क्या हुआ? पिता की उम्र के पति, उसके लिए...
—तो क्या हुआ? क्या वह दु:खी नहीं हो सकती?
—पिता की उम्र के थे, पर पिता तो नहीं थे न? लीना जबरन बोल पड़ी।
लीना की ही बात सही है। अर्तेनसिया ने लक्ष्य किया था कि लीना के मुख से उसके मृत पति के बारे में सुनते-सुनते बर्तोलीनो के मन में घृणा भर गई थी। इसी कारण अर्तेनसिया गहरे दु:ख के भाव को धारण किए हुए उसके मन को भुलाने का प्रयास करने लगी। उसके दु:ख ने बर्तोलीनो को इतने गंभीर रूप से विचलित कर दिया कि उसने पहली बार अपनी स्त्री के ख़िलाफ़ विद्रोह किया।
—तुम...तुम भी क्या रोई नहीं थी?
वह और भी कुछ कहता शायद, किंतु लीना उसे बाधा देकर बोल पड़ी—उसके साथ मेरी तुलना। पहली बात है कि ‘वे’ वे थे!...
पत्नी के मुँह की बात काट कर बर्तोलीनो बोला—वे उस समय बूढ़े नहीं हुए थे, यही न?
—इसके अलावा...मैं भी क्या रोई नहीं थी? हाँ, रोई थी, कितना रोई थी...
लेकिन आख़िर तक मैंने अपने को संभाल लिया था, किंतु अर्तेनसिया क्या कर रही है? केवल रो रही है और रोती ही जा रही है मानो जीवन भर वह रोएगी ही। जानती हूँ, जानती हूँ मैं, यह सब दिखावटी रोना है।
—दिखावटी! असंभव! लीना की बात सुनते ही बर्तोलीनो का क्रोध बढ़ गया। उसे जितना ग़ुस्सा अपनी पत्नी पर आया, उससे कहीं अधिक ग़ुस्सा उसको आया उसके मृत पति पर, उन्हीं सिनोर ताद्देयी पर। वह आदमी जैसे अभी तक उसकी ओर देखता-मुस्कुराता हुआ टोपी उठाए हुए है। अभी तक उसने अपनी इच्छा और मर्ज़ी के वशीभूत कर रखा है, उसकी पत्नी को।
वही चित्र! वही चिरंतन हँसी! अब सहन नहीं होता। जहाँ भी वह जाता है, भूत की तरह पीछे पड़ा रहता है यह। वो है, उसकी आँखों के सामने हँस-हँस कर टोपी उठाकर मानो कह रहा है, अब तुम्हारी बारी है, हाथ-पैर फैलाकर काफ़ी आराम कर लो। यह कमरा किसी समय मेरा ऑफ़िस-रूम था, तुम्हारी केमिस्ट्री-लैब है। जीवित के लिए जीवन, मृत के लिए मृत्यु। सुख से रहो, शांतिपूर्वक काम करो।
शायद वह सोने के कमरे में आया है, वहाँ भी सिनोर ताद्देयी की मूर्ति मुख पर क्रूर हँसी के साथ प्रकट होती है’-आओ, आओ। कहो, अच्छे तो हो? मेरी पत्नी कैसी लग रही है तुम्हें? मैंने उसे अच्छी शिक्षा दी है कि नहीं, बोलो? जीवित के लिए जीवन, मृत के लिए मृत्यु।
नहीं, नहीं, अब बरदाश्त नहीं होता। घर के कोने में वह आदमी विराज रहा है। बर्तोलीनो जैसा निरीह आदमी है, अस्थिर हो उठा, छटपटाने लगा। पत्नी के निकट अपनी मानसिक दशा छिपाने के प्रयत्न में अब वह सफल न हो सका। अंत में मन की भावना को छिपाने की चेष्टा करना ही उसने छोड़ दिया। उसने प्रयत्न किया अव्यवस्थित होने का, अजीब बनने का, जिससे पत्नी की पुरानी आदतों में हलचल पैदा हो, किंतु इस बार भी वह असफल रहा।
—तुम्हारा चाल-चलन बिलकुल ‘इनकी’ ही तरह हो रहा है, तनिक शासन के स्वर में लीना बोली, वे भी बहुत ही बेहिसाबी थे। ओह, बड़े ही सज्जन थे बिचारे!
शीघ्र ही बर्तोलीनो समझ गया कि उसके इस अव्यवस्थित व्यवहार की लीना मन ही मन प्रशंसा कर रही है। उसका यह सब काम लीना को बिल्कुल उसी व्यक्ति की याद दिलाता है, जिसको वह अपनी पत्नी के मन से हटा देना चाहता है अंत में एक बहुत ही बुरी चाल उसके मन में आई।
सही बात तो यह थी कि पत्नी को धोखा देने की उसकी उतनी इच्छा नहीं थी, जितनी थी प्रतिहिंसा की उत्तेजना। उसी व्यक्ति पर उसका आक्रोश है, जिसने उससे पहले ही उसकी पत्नी पर दख़ल जमाया था एवं मर कर भी जिसने उस पर अपना दख़ल नहीं छोड़ा था। उसके अनबूझ, अनभिज्ञ मन में यह धारणा हुई कि यह दुष्टता की चाल उसकी अपनी ही सृष्टि है।
वह सोच ही नहीं सका कि इस कुबुद्धि को अर्तेनसिया ने ही उसके अवचेतन मन में थोड़ा-थोड़ा करके प्रवेश कराया था। जब उसने विवाह नहीं किया था, तब पढ़ाई से उसका ध्यान हटाने की कोशिश अर्तेनसिया ने अनेक बार की थी, पर असफल हुई थी।
कुचक्री अर्तेनसिया अब चाल पर चाल चल रही थी। इधर-उधर करके बर्तोलीनो को उसने बहुत समझाया कि लीना की तरह प्रिय सहेली के साथ प्रवंचना करने में दु:ख से उसकी छाती फट रही है, किंतु बर्तोलीनो को वह बहुत पहले से ही प्यार करती आ रही है, लीना ने तब उसे देखा तक न था। वह प्यार नियति की तरह अनतिक्रम्य है। लेकिन इसके बाद जो हुआ, उसमें नियति का कितना हाथ हो सकता है, बर्तोलीनो कुछ सोच ही न सका। बेचारा भला मानस! उसकी गहरी चाल जो इतनी आसानी से सफल हुई, उससे कुछ हताश ही हुआ। उसे लगा, जैसे वह ठगा गया है। अपने पुराने मित्र मोत्ता के कमरे में जब वह अकेला हुआ, थोड़ी ही देर में पश्चात्ताप से उसका मन भर गया। हठात् उसकी नज़र पड़ी, बिस्तर के किनारे फ़र्श पर चमकती हुई कोई चीज़ पड़ी हुई है। छोटी-सी सोने की एक लॉकेट, अवश्य ही अर्तेनसिया के गले की होगी। वह उसे उठा कर अर्तेनसिया के लिए इंतज़ार करने लगा। हिलाते-डुलाते समय उसकी उत्तेजित अंगुलियों के दबाव से अचानक लॉकेट का मुँह खुल गया।
अपनी आँखों पर वह विश्वास न कर सका। लॉकेट के अंदर था छोटे आकार का एक खुदा हुआ चित्र...सिनोर कोसिमो ताद्देयी का वही चित्र...वह मुस्कुरा कर उसकी ओर देखते हुए टोपी उठा रहे हैं।
jis din un logon ka vivah hona nishchit hua, usi din se bartolino ne apni bhavi patni ko kahte suna jante ho na, mera asli naam lina nahin hai. mera naam hai karolina, kintu ‘ve’ mujhe lina kah kar pukarte the. isi karan tabhi se mera naam lina hi rah gaya hai. oh! bahut hi sajjan the ve. wo dekho unki tasvir, kah kar lina ne ek baDe fotograf ki or ungli uthai. bartolino ne dekha, uski bhavi patni ke pratham pati sinor kosimo taddeyi uski or mridu muskan ke saath topi utha rahe hain.
apne anjane mein bartolino ne mrit sajjan ke abhivadan ke pratyuttar mein apna matha qarib aadha jhuka liya tha. taddeyi ek vikhyat murtikar the. unke nidhan ke upraant unki tasvir ko dival par se utaar kar rakhne ki baat unki vidhva patni lina sarulli ke man mein ek baar bhi na aai aur aati bhi kyon? unke prati lina ki kritagyta bhi to kam nahin hai. uska maan samman, ghar dvaar sundar sundar tamam saman, ye sab kuch to ve hi rakh ge hain.
bhavi dvitiy pati ki hairani ke bhaav ki or tanik bhi dhyaan na deti hui lina ne aage kaha asal mein main naam badalna nahin chahti thi, parantu ve jo kahte the, usko main ‘na’ nahin kah sakti thi. tum bhi mujhe usi naam se pukarna kyon? theek hai na! ghalat to nahin samjhoge na?
bartolino achakcha kar bola—nahin, are. . . nahin. . . haan, haan, wo to theek hi hai. dival par tangi baDi tasvir ki or se wo apni ankhen hata na saka. ve sajjan usi ki or takte aur musakurate hue topi uthaye abhivadan kar rahe the.
teen maah pashchat jab rishtedar aur mitrgan lina aur uske pati ko hanimun yatra ke liye vida karne steshan par aaye, tab lina ki priy sakhi artenasiya potta apne pati ki or dekhkar ek gahra nihashvas leti hui boli bechara bartolino lina ki tarah ki laDki ke saath. . .
—kyon, bechara kyon? uske pati bol paDe.
in mahoday ki kafi umr ho gai hai, lina ki dusri shadi ki baat unhonne hi chalai thi. isi karan is shadi ki kisi prakar ki bhi samalochana sunte hi unhen krodh aata tha.
—bechara, kahne layak kaun si baat hui? bartolino to moorkh nahin hai, kemestri par uska asadharan adhikar hai.
—haan, kemestri par hai, artenasiya boli.
—dekhana tum, bartolino bilkul yatharth pati siddh hoga. kemestri ki kaun si baat hai? yadi tanik prayas kar wo apne sare shodhkarya chhapva deta to aaj sare desh mein wo ek adarsh shikshak mana jata. iske alava aisa saaf dil vala nek insaan hai.
bilkul theek kaha, atyant saaf dilvala nek adami hai. lina ke is dvitiy hanimun ki baten soch kar artenasiya man hi man bina hanse na rah saki. pahli baar bhi lina rom gai thi. is baar bhi rom ja rahi hai. pahli baar tha phurtila, dhoort, utsahi (kabhi kabhi thoDa ya adhik utsahi) sinor taddeyi, aur is baar uski jagah ye chhokra bartolino ganja sir, masum chehre aur anubhav mein bilkul bachcha hai.
tren chhutne se pahle anselmo chacha ne bahu se kaha tha—bartolino ki zara dekhbhal karna, uska zara khayal rakhna. lina apne prathmah harnimun ke liye pahle ek baar rom aa chuki thi. desh bhrman ka sara rahasya use pata hai—sare saph]ra mein wo bartolino ko lagbhag bachchon ki tarah haath pakaD kar le aai.
ant mein gaDi jab rom pahunchi to wo pati se boli—tum koi chinta mat karo, uski main sab prbandh kiye leti hoon. jo kuli unka saman ekatr kar raha tha, or dekh kar wo boli hotal viktoriya.
steshan ke bahar hi hotal viktoriya ki bas intzaar kar rahi thi. Draivar ko pahchan kar lina ne uski or dekh kar thoDa sir hilaya. ’
—sundar hotal hai, dekho, chhota sa, saaf suthra, naukar chakar chust hain, bilkul shahr ke beech mein aur kharch bhi bahut adhik nahin hai. chhah saal pahle unke saath pratham hanimun mein aakar main isi hotal mein thahri thi. . . tumhein bhi ye achchha lagega, dekhana.
wo hotal lina ko bilkul ghar ki tarah laga. kisi ne usko pahchana hai, aisa pratit nahin hua, lekin wo sabko avashya hi pahchan saki hai. wo buDha vahi pippo hai, chhah saal pahle isi adami ne unki seva tahal ki thi. wo unko dusri manzil mein en. 12 nan. kamre mein le gaya, kafi baDa kamra hai, bhali bhanti sajaya hua, kintu lina ko wo kamra pasand nahin aaya.
—pippo, unnis nan. ka kamra kya khali hai? pippo pata lagane gaya. us mauqe par lina ko yaad aaya ki chhah varsh poorv ‘unke saath bhi aisa hi hua tha. ‘unke liye dusri manjil mein ek kamra in logon ne theek kar rakha tha, lekin ‘unhonne’ tisri manzil ka en 19 nan. ka kamra manga.
—sunte ho? vahin hum log theek rahenge. shorgul kam hai, hava kafi hai. vahi ek kamra. . .
pippo ne laut kar jab batlaya ki en 19 nan. ka kamra khali hai, to lina bachchon ki tarah tali baja kar hans paDi. theek usi kamre mein wo phir rahegi, vahi sab asbabat, usi tarah sajaya hua, jangle ke paas vahi chhoti si taak. kitna maza ayega.
kahne ki zarurat nahin, bartolino. . . lina ki khushi mein hissa na le saka.
—kyon ji, ye kamra tumhein pasand nahin aa raha hai? lina ne puchha.
udasbhav se bartolino ne javab diya—kya bura hai, tumhein pasand hai to theek hi hai. uske baad lina jab kapDe badalne parde ke pichhe gai to wo kamre mein paDe palang ki or dekh kar sochne laga ki yahin, isi bistar par uski patni ne apni pratham vivahit ratri apne pratham pati sinor taddeyi ke saath bitai thi. . . aur bahut door uski patni ke makan ki dival par tangi tasvir mein se sinor taddeyi ki murti uski ankhon ke samne jaag uthi—smit hasya ke saath uski or dekh kar ve topi utha rahe hain.
hanimun ke vaqt ve usi bistar mein soe, usi restran mein unhonne khana khaya, vahi sab drishya bhi dekhte phire, vahi sab jadughar, vahi chitrshalayen, vahi sab girje, yahan tak ki vahi sab baagh baghiche, jahan jahan chhah varsh poorv lina apne ‘unke’ saath gai thi.
bartolino bahut sharmile svbhaav ka adami hai. kisi tarah bhi munh kholkar nahin kah saka ki lina ke pratham panti ke updesh, anubhav, ruchi aur ichchha anichchha ka pag pag par anusran karte hue chalna, use kitna bura lag raha hai. lina ne bhi is par dhyaan nahin diya ki uska tarun pati uske vyvahar se man hi man kitna marmahat hua hai. attharah saal ki umr mein uski shadi hui thi. us samay wo lagbhag bachchi hi thi. kuch bhi samajhti nahin thi. janti nahin thi. usi bhale adami arthat taddeyi ne use shiksha diksha dekar baDa kiya. wo apne pratham pati ki hi srishti hai. jo kuch bhi uske paas hai, wo sab kuch hi kya usne ‘usne’ nahin paya hai? yahan tak ki ‘unse’ alag thalag kuch sochne ya anubhav karne tak ki kshamata bhi uski lop ho gai thi.
usne jo punarvivah kiya hai, wo bhi sinor taddeyi ke nirdesh ke anusar hai. ‘unhonne’ hi usko sikhaya tha ki ashrujal se jivan ki shushrusha nahin hoti, jivit ke liye jivan aur mrit ke liye mrityu ka hona zaruri hai. keval yahi baat yaad rakhte hue usne bartolino ko pati roop mein grhan kiya tha aur kisi karan se nahin. bartolino yadi use pyaar karta hai to uski marzi ko wo avashya hi mankar chalega. aur iska arth hai taddeyi ki ichchha anichchha ka anusran karna. ‘ve’ hi malik hain, jivan rath ke sarthi hain. kintu yauvan ki andhi anbhigyta ke vashibhut hokar bartolino ne socha, ati samanya kuch bhi kya lina use nahin de sakti? ek chumban, thoDa sa pyaar, uske pratham pati use jo kuch sikha ge hain, usse alag kuchh? aisa kuch jo us gat vyakti ke prabhutv se lina ko kuch samay ke liye mukt kar sake. lekin ye baat prakat karne mein bhi use sharm malum hoti hai aur vidroh karne ki baat to wo soch hi nahin sakta.
hanimun se lautkar ek apratyashit buri khabar un logon ne suni. sinor motta ki, jinhonne unki shadi ki bate chalayi thi, achanak mrityu ho gai. wo khud jab vidhva ho gai thi, us samay inhin motta ki patni artenasiya ne uske liye kitna kiya tha, ye baat kya lina bhool sakti thee? wo bhi dauD gai, apni saheli ko santvna pradan karne, sahayata karne. lekin wo samajh hi nahin pai ki pati ki mrityu ke das din baad bhi artenasiya kyon itni adhik shokakul hai?
—use kya hua hai, bolo to? laut kar usne pati se puchha. patni ki nasamjhi ko dekhkar bartolino sharm se laal paD gaya.
—iske mane jo bhi kaho tum, uske pati ka dehant ho gaya hai.
—uske pati? unka dehant ho gaya hai to kya hua? pita ki umr ke pati, uske liye. . .
—to kya hua? kya wo duhkhi nahin ho sakti?
—pita ki umr ke the, par pita to nahin the na? lina jabran bol paDi.
lina ki hi baat sahi hai. artenasiya ne lakshya kiya tha ki lina ke mukh se uske mrit pati ke bare mein sunte sunte bartolino ke man mein ghrina bhar gai thi. isi karan artenasiya gahre duhakh ke bhaav ko dharan kiye hue uske man ko bhulane ka prayas karne lagi. uske duhakh ne bartolino ko itne gambhir roop se vichlit kar diya ki usne pahli baar apni stri ke khilaf vidroh kiya.
—tum. . . tum bhi kya roi nahin thee?
wo aur bhi kuch kahta shayad, kintu lina use badha dekar bol paDi—uske saath meri tulna. pahli baat hai ki ‘ve’ ve the!. . .
patni ke munh ki baat kaat kar bartolino bola—ve us samay buDhe nahin hue the, yahi na?
—iske alava. . . main bhi kya roi nahin thee? haan, roi thi, kitna roi thi. . .
lekin akhir tak mainne apne ko sambhal liya tha, kintu artenasiya kya kar rahi hai? keval ro rahi hai aur roti hi ja rahi hai manon jivan bhar wo roegi hi. janti hoon, janti hoon main, ye sab dikhavati rona hai.
—dikhavati! asambhav! lina ki baat sunte hi bartolino ka krodh baDh gaya. use jitna ghussa apni patni par aaya, usse kahin adhik ghussa usko aaya uske mrit pati par, unhin sinor taddeyi par. wo adami jaise abhi tak uski or dekhta musakurata hua topi uthaye hue hai. abhi tak usne apni ichchha aur marzi ke vashibhut kar rakha hai, uski patni ko.
vahi chitr! vahi chirantan hansi! ab sahn nahin hota. jahan bhi wo jata hai, bhoot ki tarah pichhe paDa rahta hai ye. wo hai, uski ankhon ke samne hans hans kar topi uthakar manon kah raha hai, ab tumhari bari hai, haath pair phailakar kafi aram kar lo. ye kamra kisi samay mera aufis room tha, tumhari kemistri laib hai. jivit ke liye jivan, mrit ke liye mrityu. sukh se raho, shantipurvak kaam karo.
shayad wo sone ke kamre mein aaya hai, vahan bhi sinor taddeyi ki murti mukh par kroor hansi ke saath prakat hoti hai’ aao, aao. kaho, achchhe to ho? meri patni kaisi lag rahi hai tumhen? mainne use achchhi shiksha di hai ki nahin, bolo? jivit ke liye jivan, mrit ke liye mrityu.
nahin, nahin, ab bardasht nahin hota. ghar ke kone mein wo adami viraj raha hai. bartolino jaisa nirih adami hai, asthir ho utha, chhataptane laga. patni ke nikat apni manasik dasha chhipane ke prayatn mein ab wo saphal na ho saka. ant mein man ki bhavna ko chhipane ki cheshta karna hi usne chhoD diya. usne prayatn kiya avyavasthit hone ka, ajib banne ka, jisse patni ki purani adton mein halchal paida ho, kintu is baar bhi wo asaphal raha.
—tumhara chaal chalan bilkul ‘inki’ hi tarah ho raha hai, tanik shasan ke svar mein lina boli, ve bhi bahut hi behisabi the. oh, baDe hi sajjan the bichare!
sheeghr hi bartolino samajh gaya ki uske is avyavasthit vyvahar ki lina man hi man prshansa kar rahi hai. uska ye sab kaam lina ko bilkul usi vyakti ki yaad dilata hai, jisko wo apni patni ke man se hata dena chahta hai ant mein ek bahut hi buri chaal uske man mein aai.
sahi baat to ye thi ki patni ko dhokha dene ki uski utni ichchha nahin thi, jitni thi pratihinsa ki uttejna. usi vyakti par uska akrosh hai, jisne usse pahle hi uski patni par dakhal jamaya tha evan mar kar bhi jisne us par apna dakhal nahin chhoDa tha. uske anbujh, anbhigya man mein ye dharna hui ki ye dushtata ki chaal uski apni hi srishti hai.
wo soch hi nahin saka ki is kubuddhi ko artenasiya ne hi uske avchetan man mein thoDa thoDa karke pravesh karaya tha. jab usne vivah nahin kiya tha, tab paDhai se uska dhyaan hatane ki koshish artenasiya ne anek baar ki thi, par asaphal hui thi.
kuchakri artenasiya ab chaal par chaal chal rahi thi. idhar udhar karke bartolino ko usne bahut samjhaya ki lina ki tarah priy saheli ke saath prvanchna karne mein duhakh se uski chhati phat rahi hai, kintu bartolino ko wo bahut pahle se hi pyaar karti aa rahi hai, lina ne tab use dekha tak na tha. wo pyaar niyti ki tarah antikramya hai. lekin iske baad jo hua, usmen niyti ka kitna haath ho sakta hai, bartolino kuch soch hi na saka. bechara bhala manas! uski gahri chaal jo itni asani se saphal hui, usse kuch hatash hi hua. use laga, jaise wo thaga gaya hai. apne purane mitr motta ke kamre mein jab wo akela hua, thoDi hi der mein pashchattap se uska man bhar gaya. hathat uski nazar paDi, bistar ke kinare farsh par chamakti hui koi cheez paDi hui hai. chhoti si sone ki ek lauket, avashya hi artenasiya ke gale ki hogi. wo use utha kar artenasiya ke liye intzaar karne laga. hilate Dulate samay uski uttejit anguliyon ke dabav se achanak lauket ka munh khul gaya.
apni ankhon par wo vishvas na kar saka. lauket ke andar tha chhote akar ka ek khuda hua chitr. . . sinor kosimo taddeyi ka vahi chitr. . . wo musakura kar uski or dekhte hue topi utha rahe hain.
jis din un logon ka vivah hona nishchit hua, usi din se bartolino ne apni bhavi patni ko kahte suna jante ho na, mera asli naam lina nahin hai. mera naam hai karolina, kintu ‘ve’ mujhe lina kah kar pukarte the. isi karan tabhi se mera naam lina hi rah gaya hai. oh! bahut hi sajjan the ve. wo dekho unki tasvir, kah kar lina ne ek baDe fotograf ki or ungli uthai. bartolino ne dekha, uski bhavi patni ke pratham pati sinor kosimo taddeyi uski or mridu muskan ke saath topi utha rahe hain.
apne anjane mein bartolino ne mrit sajjan ke abhivadan ke pratyuttar mein apna matha qarib aadha jhuka liya tha. taddeyi ek vikhyat murtikar the. unke nidhan ke upraant unki tasvir ko dival par se utaar kar rakhne ki baat unki vidhva patni lina sarulli ke man mein ek baar bhi na aai aur aati bhi kyon? unke prati lina ki kritagyta bhi to kam nahin hai. uska maan samman, ghar dvaar sundar sundar tamam saman, ye sab kuch to ve hi rakh ge hain.
bhavi dvitiy pati ki hairani ke bhaav ki or tanik bhi dhyaan na deti hui lina ne aage kaha asal mein main naam badalna nahin chahti thi, parantu ve jo kahte the, usko main ‘na’ nahin kah sakti thi. tum bhi mujhe usi naam se pukarna kyon? theek hai na! ghalat to nahin samjhoge na?
bartolino achakcha kar bola—nahin, are. . . nahin. . . haan, haan, wo to theek hi hai. dival par tangi baDi tasvir ki or se wo apni ankhen hata na saka. ve sajjan usi ki or takte aur musakurate hue topi uthaye abhivadan kar rahe the.
teen maah pashchat jab rishtedar aur mitrgan lina aur uske pati ko hanimun yatra ke liye vida karne steshan par aaye, tab lina ki priy sakhi artenasiya potta apne pati ki or dekhkar ek gahra nihashvas leti hui boli bechara bartolino lina ki tarah ki laDki ke saath. . .
—kyon, bechara kyon? uske pati bol paDe.
in mahoday ki kafi umr ho gai hai, lina ki dusri shadi ki baat unhonne hi chalai thi. isi karan is shadi ki kisi prakar ki bhi samalochana sunte hi unhen krodh aata tha.
—bechara, kahne layak kaun si baat hui? bartolino to moorkh nahin hai, kemestri par uska asadharan adhikar hai.
—haan, kemestri par hai, artenasiya boli.
—dekhana tum, bartolino bilkul yatharth pati siddh hoga. kemestri ki kaun si baat hai? yadi tanik prayas kar wo apne sare shodhkarya chhapva deta to aaj sare desh mein wo ek adarsh shikshak mana jata. iske alava aisa saaf dil vala nek insaan hai.
bilkul theek kaha, atyant saaf dilvala nek adami hai. lina ke is dvitiy hanimun ki baten soch kar artenasiya man hi man bina hanse na rah saki. pahli baar bhi lina rom gai thi. is baar bhi rom ja rahi hai. pahli baar tha phurtila, dhoort, utsahi (kabhi kabhi thoDa ya adhik utsahi) sinor taddeyi, aur is baar uski jagah ye chhokra bartolino ganja sir, masum chehre aur anubhav mein bilkul bachcha hai.
tren chhutne se pahle anselmo chacha ne bahu se kaha tha—bartolino ki zara dekhbhal karna, uska zara khayal rakhna. lina apne prathmah harnimun ke liye pahle ek baar rom aa chuki thi. desh bhrman ka sara rahasya use pata hai—sare saph]ra mein wo bartolino ko lagbhag bachchon ki tarah haath pakaD kar le aai.
ant mein gaDi jab rom pahunchi to wo pati se boli—tum koi chinta mat karo, uski main sab prbandh kiye leti hoon. jo kuli unka saman ekatr kar raha tha, or dekh kar wo boli hotal viktoriya.
steshan ke bahar hi hotal viktoriya ki bas intzaar kar rahi thi. Draivar ko pahchan kar lina ne uski or dekh kar thoDa sir hilaya. ’
—sundar hotal hai, dekho, chhota sa, saaf suthra, naukar chakar chust hain, bilkul shahr ke beech mein aur kharch bhi bahut adhik nahin hai. chhah saal pahle unke saath pratham hanimun mein aakar main isi hotal mein thahri thi. . . tumhein bhi ye achchha lagega, dekhana.
wo hotal lina ko bilkul ghar ki tarah laga. kisi ne usko pahchana hai, aisa pratit nahin hua, lekin wo sabko avashya hi pahchan saki hai. wo buDha vahi pippo hai, chhah saal pahle isi adami ne unki seva tahal ki thi. wo unko dusri manzil mein en. 12 nan. kamre mein le gaya, kafi baDa kamra hai, bhali bhanti sajaya hua, kintu lina ko wo kamra pasand nahin aaya.
—pippo, unnis nan. ka kamra kya khali hai? pippo pata lagane gaya. us mauqe par lina ko yaad aaya ki chhah varsh poorv ‘unke saath bhi aisa hi hua tha. ‘unke liye dusri manjil mein ek kamra in logon ne theek kar rakha tha, lekin ‘unhonne’ tisri manzil ka en 19 nan. ka kamra manga.
—sunte ho? vahin hum log theek rahenge. shorgul kam hai, hava kafi hai. vahi ek kamra. . .
pippo ne laut kar jab batlaya ki en 19 nan. ka kamra khali hai, to lina bachchon ki tarah tali baja kar hans paDi. theek usi kamre mein wo phir rahegi, vahi sab asbabat, usi tarah sajaya hua, jangle ke paas vahi chhoti si taak. kitna maza ayega.
kahne ki zarurat nahin, bartolino. . . lina ki khushi mein hissa na le saka.
—kyon ji, ye kamra tumhein pasand nahin aa raha hai? lina ne puchha.
udasbhav se bartolino ne javab diya—kya bura hai, tumhein pasand hai to theek hi hai. uske baad lina jab kapDe badalne parde ke pichhe gai to wo kamre mein paDe palang ki or dekh kar sochne laga ki yahin, isi bistar par uski patni ne apni pratham vivahit ratri apne pratham pati sinor taddeyi ke saath bitai thi. . . aur bahut door uski patni ke makan ki dival par tangi tasvir mein se sinor taddeyi ki murti uski ankhon ke samne jaag uthi—smit hasya ke saath uski or dekh kar ve topi utha rahe hain.
hanimun ke vaqt ve usi bistar mein soe, usi restran mein unhonne khana khaya, vahi sab drishya bhi dekhte phire, vahi sab jadughar, vahi chitrshalayen, vahi sab girje, yahan tak ki vahi sab baagh baghiche, jahan jahan chhah varsh poorv lina apne ‘unke’ saath gai thi.
bartolino bahut sharmile svbhaav ka adami hai. kisi tarah bhi munh kholkar nahin kah saka ki lina ke pratham panti ke updesh, anubhav, ruchi aur ichchha anichchha ka pag pag par anusran karte hue chalna, use kitna bura lag raha hai. lina ne bhi is par dhyaan nahin diya ki uska tarun pati uske vyvahar se man hi man kitna marmahat hua hai. attharah saal ki umr mein uski shadi hui thi. us samay wo lagbhag bachchi hi thi. kuch bhi samajhti nahin thi. janti nahin thi. usi bhale adami arthat taddeyi ne use shiksha diksha dekar baDa kiya. wo apne pratham pati ki hi srishti hai. jo kuch bhi uske paas hai, wo sab kuch hi kya usne ‘usne’ nahin paya hai? yahan tak ki ‘unse’ alag thalag kuch sochne ya anubhav karne tak ki kshamata bhi uski lop ho gai thi.
usne jo punarvivah kiya hai, wo bhi sinor taddeyi ke nirdesh ke anusar hai. ‘unhonne’ hi usko sikhaya tha ki ashrujal se jivan ki shushrusha nahin hoti, jivit ke liye jivan aur mrit ke liye mrityu ka hona zaruri hai. keval yahi baat yaad rakhte hue usne bartolino ko pati roop mein grhan kiya tha aur kisi karan se nahin. bartolino yadi use pyaar karta hai to uski marzi ko wo avashya hi mankar chalega. aur iska arth hai taddeyi ki ichchha anichchha ka anusran karna. ‘ve’ hi malik hain, jivan rath ke sarthi hain. kintu yauvan ki andhi anbhigyta ke vashibhut hokar bartolino ne socha, ati samanya kuch bhi kya lina use nahin de sakti? ek chumban, thoDa sa pyaar, uske pratham pati use jo kuch sikha ge hain, usse alag kuchh? aisa kuch jo us gat vyakti ke prabhutv se lina ko kuch samay ke liye mukt kar sake. lekin ye baat prakat karne mein bhi use sharm malum hoti hai aur vidroh karne ki baat to wo soch hi nahin sakta.
hanimun se lautkar ek apratyashit buri khabar un logon ne suni. sinor motta ki, jinhonne unki shadi ki bate chalayi thi, achanak mrityu ho gai. wo khud jab vidhva ho gai thi, us samay inhin motta ki patni artenasiya ne uske liye kitna kiya tha, ye baat kya lina bhool sakti thee? wo bhi dauD gai, apni saheli ko santvna pradan karne, sahayata karne. lekin wo samajh hi nahin pai ki pati ki mrityu ke das din baad bhi artenasiya kyon itni adhik shokakul hai?
—use kya hua hai, bolo to? laut kar usne pati se puchha. patni ki nasamjhi ko dekhkar bartolino sharm se laal paD gaya.
—iske mane jo bhi kaho tum, uske pati ka dehant ho gaya hai.
—uske pati? unka dehant ho gaya hai to kya hua? pita ki umr ke pati, uske liye. . .
—to kya hua? kya wo duhkhi nahin ho sakti?
—pita ki umr ke the, par pita to nahin the na? lina jabran bol paDi.
lina ki hi baat sahi hai. artenasiya ne lakshya kiya tha ki lina ke mukh se uske mrit pati ke bare mein sunte sunte bartolino ke man mein ghrina bhar gai thi. isi karan artenasiya gahre duhakh ke bhaav ko dharan kiye hue uske man ko bhulane ka prayas karne lagi. uske duhakh ne bartolino ko itne gambhir roop se vichlit kar diya ki usne pahli baar apni stri ke khilaf vidroh kiya.
—tum. . . tum bhi kya roi nahin thee?
wo aur bhi kuch kahta shayad, kintu lina use badha dekar bol paDi—uske saath meri tulna. pahli baat hai ki ‘ve’ ve the!. . .
patni ke munh ki baat kaat kar bartolino bola—ve us samay buDhe nahin hue the, yahi na?
—iske alava. . . main bhi kya roi nahin thee? haan, roi thi, kitna roi thi. . .
lekin akhir tak mainne apne ko sambhal liya tha, kintu artenasiya kya kar rahi hai? keval ro rahi hai aur roti hi ja rahi hai manon jivan bhar wo roegi hi. janti hoon, janti hoon main, ye sab dikhavati rona hai.
—dikhavati! asambhav! lina ki baat sunte hi bartolino ka krodh baDh gaya. use jitna ghussa apni patni par aaya, usse kahin adhik ghussa usko aaya uske mrit pati par, unhin sinor taddeyi par. wo adami jaise abhi tak uski or dekhta musakurata hua topi uthaye hue hai. abhi tak usne apni ichchha aur marzi ke vashibhut kar rakha hai, uski patni ko.
vahi chitr! vahi chirantan hansi! ab sahn nahin hota. jahan bhi wo jata hai, bhoot ki tarah pichhe paDa rahta hai ye. wo hai, uski ankhon ke samne hans hans kar topi uthakar manon kah raha hai, ab tumhari bari hai, haath pair phailakar kafi aram kar lo. ye kamra kisi samay mera aufis room tha, tumhari kemistri laib hai. jivit ke liye jivan, mrit ke liye mrityu. sukh se raho, shantipurvak kaam karo.
shayad wo sone ke kamre mein aaya hai, vahan bhi sinor taddeyi ki murti mukh par kroor hansi ke saath prakat hoti hai’ aao, aao. kaho, achchhe to ho? meri patni kaisi lag rahi hai tumhen? mainne use achchhi shiksha di hai ki nahin, bolo? jivit ke liye jivan, mrit ke liye mrityu.
nahin, nahin, ab bardasht nahin hota. ghar ke kone mein wo adami viraj raha hai. bartolino jaisa nirih adami hai, asthir ho utha, chhataptane laga. patni ke nikat apni manasik dasha chhipane ke prayatn mein ab wo saphal na ho saka. ant mein man ki bhavna ko chhipane ki cheshta karna hi usne chhoD diya. usne prayatn kiya avyavasthit hone ka, ajib banne ka, jisse patni ki purani adton mein halchal paida ho, kintu is baar bhi wo asaphal raha.
—tumhara chaal chalan bilkul ‘inki’ hi tarah ho raha hai, tanik shasan ke svar mein lina boli, ve bhi bahut hi behisabi the. oh, baDe hi sajjan the bichare!
sheeghr hi bartolino samajh gaya ki uske is avyavasthit vyvahar ki lina man hi man prshansa kar rahi hai. uska ye sab kaam lina ko bilkul usi vyakti ki yaad dilata hai, jisko wo apni patni ke man se hata dena chahta hai ant mein ek bahut hi buri chaal uske man mein aai.
sahi baat to ye thi ki patni ko dhokha dene ki uski utni ichchha nahin thi, jitni thi pratihinsa ki uttejna. usi vyakti par uska akrosh hai, jisne usse pahle hi uski patni par dakhal jamaya tha evan mar kar bhi jisne us par apna dakhal nahin chhoDa tha. uske anbujh, anbhigya man mein ye dharna hui ki ye dushtata ki chaal uski apni hi srishti hai.
wo soch hi nahin saka ki is kubuddhi ko artenasiya ne hi uske avchetan man mein thoDa thoDa karke pravesh karaya tha. jab usne vivah nahin kiya tha, tab paDhai se uska dhyaan hatane ki koshish artenasiya ne anek baar ki thi, par asaphal hui thi.
kuchakri artenasiya ab chaal par chaal chal rahi thi. idhar udhar karke bartolino ko usne bahut samjhaya ki lina ki tarah priy saheli ke saath prvanchna karne mein duhakh se uski chhati phat rahi hai, kintu bartolino ko wo bahut pahle se hi pyaar karti aa rahi hai, lina ne tab use dekha tak na tha. wo pyaar niyti ki tarah antikramya hai. lekin iske baad jo hua, usmen niyti ka kitna haath ho sakta hai, bartolino kuch soch hi na saka. bechara bhala manas! uski gahri chaal jo itni asani se saphal hui, usse kuch hatash hi hua. use laga, jaise wo thaga gaya hai. apne purane mitr motta ke kamre mein jab wo akela hua, thoDi hi der mein pashchattap se uska man bhar gaya. hathat uski nazar paDi, bistar ke kinare farsh par chamakti hui koi cheez paDi hui hai. chhoti si sone ki ek lauket, avashya hi artenasiya ke gale ki hogi. wo use utha kar artenasiya ke liye intzaar karne laga. hilate Dulate samay uski uttejit anguliyon ke dabav se achanak lauket ka munh khul gaya.
apni ankhon par wo vishvas na kar saka. lauket ke andar tha chhote akar ka ek khuda hua chitr. . . sinor kosimo taddeyi ka vahi chitr. . . wo musakura kar uski or dekhte hue topi utha rahe hain.
स्रोत :
पुस्तक : विश्व की श्रेष्ठ कहानियाँ (खण्ड-2) (पृष्ठ 118)
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।