मुझे माफ़ करना, उस दिन शाम की चाय के समय तुम मेरा इंतिज़ार करते रहे होंगे, और मैं इधर खिसक आया। आज तुमसे 1100 मील की दूरी पर और तुम्हारे कलकत्ता महानगर से 9000 फ़ीट अधिक ऊँचाई पर बैठकर मैं तुम्हें यह पत्र लिख रहा हूँ। तुम जानते ही हो कि मैं किस तबीअत का आदमी हूँ। उफ़, वहाँ कितना बोझ था। काम, काम, हर वक़्त काम। मेरी तबीअत सहसा ऊब गई और तुम्हें तक सूचना दिए बिना मैं अपनी कार पर इतने सफ़र के लिए खिसक आया। उस दिन चाय के वक़्त मुझे मौजूद न पाकर यद्यपि तुम मुझ पर काफ़ी खीझ तो लिए ही होंगे, फिर भी उस असुविधा के लिए मुझे माफ़ कर देना।
हिमालय की यह विशाल घाटी बड़ी सुहावनी है। घने जंगल, निर्मल झरने, विस्तृत मैदान, चारों ओर बर्फ़ से ढके, पहाड़ों की ऊँची-ऊँची चोटियाँ और दूर पर दिखाई देने वाली वलर झील। इस स्थान से मैं सचमुच प्यार करता हूँ। यह एक सप्ताह बिलकुल निकम्मा रहकर काटूँगा। कुछ नहीं करूँगा। केवल तुम्हें ही पत्र लिखूँगा और तुम्हारे पत्रों को छोड़कर और कुछ भी नहीं पढूँगा।
भाई कमल, मैं अकेला हूँ। तुमने अनेक बार मेरे इस अकेलेपन की आलोचना की है, मगर यहाँ आकर मैं अनुभव करता हूँ कि जैसे प्रकृति मेरी माँ है। मैं अकेला कहाँ हूँ, मैं तो अपनी माँ की गोद में हूँ।
चिंता न करना। मैं यहाँ एक सप्ताह से अधिक नहीं ठहरूँगा। 22 श्रावण की शाम को तुम मुझे अपनी चाय की टेबल पर ही पाओगे। बाहर एक कसा हुआ घोड़ा मेरा इंतिज़ार कर रहा है, अतः बाक़ी कल।
तुम्हारा-
स०
(2)
गुलमर्ग
14 श्रावण...
भाई कमल,
सुबह 9 बजे बिस्तरे से उठा हूँ। अभी तक नींद की ख़ुमारी नहीं टूटी। कल बहुत दिनों के बाद घुड़सवारी की थी, अतः टाँगें कुछ थक गई-सी प्रतीत होती हैं। आज कहीं नहीं जाऊँगा। मेरे मकान में और कोई नहीं है। मैं अपने सोफ़े पर अकेला पड़ा हूँ। धीमी-धीमी वर्षा हो रही है। चारों तरफ़ सन्नाटा है। ओह, सामने की इस खिड़की से कितना अनंत सौंदर्य मुझे दिखाई दे रहा है।
आज कुछ नहीं लिखूँगा। सोचा था कि आज एक चित्र बनाऊँगा, मगर कुछ नहीं करूँगा। घंटों तक इसी तरह निश्चेष्ट भाव से पड़े रहकर इस खिड़की की राह से प्रकृति का, अपनी माँ का अनूठा सौंदर्य देखूँगा।
अच्छा, कल तक के लिए विदा।
स्वेच्छाधीन-
स०
(3)
गुलमर्ग
15 श्रावण
कमल,
इस समय रात के 11 बजे है, और मेरी आँखों में नींद नहीं है। सब तरफ़ गहरा सन्नाटा है। कहीं से कोई आवाज़ नहीं आ रही है। मेरे कमरे में बिजली की बत्ती जल रही है। खिड़कियाँ बंद हैं। सरदी इतनी अधिक है कि मैं उन्हें खोलकर नहीं रख सका। सन्नाटा इतना गहरा है कि बिजली के प्रकाश से जगमगा रहे इस कमरे में बैठकर मुझे ऐसा अनुभव हो रहा है, जैसे इस संपूर्ण विश्व में केवल मैं-ही-मैं बच रहा हूँ और कोई भी नहीं है। कहीं कोई भी नहीं है। सिर्फ़ मैं ही हूँ, अकेला मैं।
मगर भाई कमल, आज सहसा न जाने क्यों मुझे अपना यह अकेलापन कुछ अनुभव-सा होने लगा है। ऐसा क्यों हुआ क्या सिर्फ़ इसलिए कि सब ओर सन्नाटा है और मेरी आँखों में नींद नहीं है? नहीं कमल, यह बात नहीं है। मेरे हृदय में आज सहसा एक नई-सी अनुभूति उठ खड़ी हुई है जो बिलकुल धुंधली और अस्पष्ट-सी है। मैं अनुभव करता हूँ कि मैंने आज जो कुछ देखा है उसमें विचित्रता ज़रा भी नहीं है। मैंने जो कुछ आज देखा है उसे यदि मैं यहाँ लिखूँगा तो या तो तुम मेरा मज़ाक उड़ाने लगोगे अथवा मेरे संबंध में बिलकुल भ्रांत-सी धारणा बना लोगे। मगर भाई, मैं कहता हूँ—मैं तुमसे अनुरोध करता हूँ कि तुम इन दोनों में से एक भी बात न करना। मेरी इस चिट्ठी को पढ़ जाना, और अगर हो सके तो उसी वक़्त भुला देना। बस और कुछ नहीं।
हाँ, तो सुनो। बात है तो कुछ भी नहीं, मगर फिर भी सुनो। आज दुपहर के वक़्त बादल ज़रा छँट गए थे और सूरज निकल आया था। जैसे विधाता ने इस हरी-भरी घाटी को धो-धोकर धूप में सुखाने के लिए बिछा दिया हो। दुपहर के भोजन के बाद अपनी इस छोटी-सी कोठी के खुले सहन में धीरे-धीरे चहल-क़दमी करने लगा। सहन के फाटक के सामने ही स्वच्छ जल का एक छोटा-सा झरना बह रहा है। उस ऊपर के अनघड़ लकड़ी का एक इतना सुंदर पुल है कि उसे देखते ही कलर-बॉक्स लेकर उसका चित्र बनाने की इच्छा होती है। मैं धीरे-धीरे एक बार इस पुल तक जाता था और उसके बाद कोठी के बरामदे तक वापस लौट आता था।
एक बार के चक्कर में जब मैं पुल के निकट पहुँचा तो मैं चौंक पड़ा। मैंने देखा, वहाँ किसी भद्र कुल की एक नौजवान लड़की खड़ी थी, अकेली। उसका ध्यान मेरी ओर नहीं था। झरने के पानी की मधुर ध्वनि ने मेरे चलने की आवाज़ को अपने भीतर छिपा लिया था, इससे मेरे बहुत निकट पहुँच जाने पर भी वह यह न जान सकी कि उसके निकट कोई अन्य व्यक्ति भी मौजूद है और मुझे तो तुम जानते ही हो। कितना भूला हुआ-सा चलता हूँ। मुझे तब तक उस लड़की की उपस्थिति का ज्ञान नहीं हुआ जब तक मैं उसके बिलकुल निकट पहुँच नहीं गया।
मैं चौंका और उधर उसी समय उस लड़की की निगाह मुझ पर पड़ी। शायद बिलकुल ही अकस्मात। वह भी चौंक गई। क्षण-भर के लिए सहसा उसकी और मेरी आँखें आपस में मिल गईं।
बस भाई कमल, बात इतनी ही है और कुछ भी नहीं। मैं उसी क्षण वापस लौट पड़ा था और जान पड़ता है वह लड़की भी वहाँ से चल दी थी मगर इस ज़रा-सी बात ने न जाने क्यों मेरे दिल पर बहुत अजीब-सा प्रभाव डाला है। इस बात को हुए अब 6 घंटे बीत चुके हैं और इन 6 घंटों में चौंकी हुई हिरणी की-सी वे आँखें मिरे मानसिक नेत्रों के सामने बीसियों बार घूम गई हैं।
तुम सोचते होगे इस सबमें कोई ख़ास बात ज़रूर है। और नहीं तो कम-से-कम वह लड़की कोई असाधारण सुंदरी तो अवश्य ही होगी, मगर वास्तविकता यह नहीं है। उस लड़की के चेहरे में असाधारणता ज़रा भी नहीं थी। लंबा क़द, मामूली चेहरा, गेहुँआ रंग। और भी कोई बात उसमें ऐसी नहीं थी जिसे असाधारण कहा जा सके। अपने नगर में हम लोग इस कन्या से अत्यधिक रूप-सौंदर्य वाली बीसियों युवतियों को रोज़ देखते हैं। मेरी परिचित कुमारियों में भी कितनी ही सौंदर्य की दृष्टि से उससे कहीं बढ़-चढ़कर हैं। यहाँ गुलमर्ग में भी उससे बहुत अधिक सुंदरियों को मैंने काफ़ी बड़ी संख्या में देखा है। फिर भी! कुछ समझ में नहीं आता कि इस 'फिर भी' का कारण क्या है।
आज इतना ही।
तुम्हारा
स०
(4)
गुलमर्ग
16 श्रावण
प्रातः 8 बजे
कमल,
नींद से उठते ही सबसे पहले मेरी निगाह रात के पत्र पर गई है। रात मैं क्या ख़ुराफात-सी लिख गया। दिल में आता है वह पत्र फाड़ डालूँ।
जी कुछ भारी-सा है। कुछ लिखने की भी इच्छा नहीं होती। और इस तरह निश्चेष्ट भाव से यहाँ चुपचाप पड़े रहना तो आज मुझे सह्य भी नहीं हो सकता। तुम जानते हो ऊपर की दो लाइनें लिखने में मैंने कितना समय लगाया है? पूरे 22 मिनट! इस समय दूसरा पत्र लिख सकना मेरे लिए असंभव है। चलो अब कहीं आवारागर्दी करने जाऊँगा!
सांय 6 बजे।
मेरा जी इस समय बहुत प्रसन्न है। मेरी टाँगें, मेरा संपूर्ण शरीर बिलकुल थकी हुई हालत में है। परंतु जी चाहता है कि मैं इस समय भी नाचूँ, कूदूँ और इधर-उधर दौड़ता फिरूँ। मेरे हृदय में इस समय उत्साह का अंधड़-सा चल रहा है, मुझे मालूम है कि उसकी प्रतिक्रिया भी ज़रूर होगी। अपने जी के इस व्यर्थ उत्साह को बहकाने का मुझे इससे बढ़कर और कोई उपाय नहीं मिला कि सुबह का पत्र पूरा करने बैठ जाऊँ।
साँझ हो आई है। आज का सारा दिन मैंने सैर-सपाटे में काटा है। थोड़ी ही देर पहले घर वापस आया हूँ। तुम्हारी चिट्ठी बीच में छोड़कर मैं एक मज़बूत घोड़े पर सैर के लिए निकल गया था। यहाँ के सभी मार्ग मेरे जाने-पहचाने हैं, इससे कोई मार्गदर्शक भी मैंने अपने साथ नहीं लिया था। मेरे निवास स्थान से क़रीब 8 मील की दूरी पर एक बड़ा पहाड़ी झरना है। इस झरने को यहाँ 'निगली नाला' कहते हैं। मैं आज इसी निगली नाले तक गया था।
ख़ूब टेढी-मेढ़ी राह है। कहीं पहाड़ों के चक्कर हैं, कहीं घास से मढ़े मैदान, कहीं ऊँचाई-निनाई, कहीं पेंचदार मोड़ और कहीं घने जंगल। रास्ता क्या है, ऊबड़-खाबड़-सी एक पगडंडी है। पर मैंने अपना घोड़ा ख़ूब निश्चिंती के साथ दौड़ाया। ऊपर असंख्य पक्षियों का मधुर कलरव था। राह के दोनों ओर फूल-पत्तियाँ थीं। हवा में सुगंध थी। आसमान में सूरज बादलों के साथ आँख-मिचौली खेल रहा था। कभी सरदी बढ़ जाती थी और कभी हल्की-हल्की धूप निकल आती थी। शीघ्र ही मैं निगली नाले पर पहुँचा। झरने के दोनों ओर घना जंगल है। बीच में बड़ी-बड़ी चट्टानें पड़ी हैं। एक-एक चट्टान सैकड़ों-हज़ारों टन की होगी। झरने का स्वच्छ जल इन भीमकाय चट्टानों से टकराकर शोर मचाता है, फिसलता है और फिर उछल-उछलकर इन्हें गीला करता है। झरने की शीतलता, झाग, सफ़ेदी और शोर—ये सब निरंतर बने रहते हैं। सदा ताज़े, सदैव उत्साहपूर्ण।
घोड़े को घास चरने के लिए खुला छोड़कर मैं दो-तीन घंटों तक झरने की चट्टानों पर स्वच्छंदतापूर्वक कूदता-फांदता रहा। अपने कैमरे से इस झरने के मैंने अनेक फ़ोटो भी लिए। खाया, पीया और उसके बाद वापस लौट चला।
वापसी में मैंने अपने घोड़े को सरपट नहीं दौड़ाया। राह के दृश्यों ने मेरा संपूर्ण ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर लिया था, अतः घोड़े पर मैंने किसी तरह का शासन नहीं किया। वह आज़ादी के साथ चाहे जिस चाल से चलता रहा। सहसा सामने की ओर से मुझे एक चीख़-सी सुनाई दी। मेरी तन्मयता भंग हो गई। मैंने देखा सामने के मैदान में एक घोड़ा बेतहाशा दौड़ा चला जा रहा है, और उस पर एक स्त्री सवार है। घोड़े की ज़ीन को लेटी हुई-सी दशा में कसकर पकड़े हुए वह नारी सहायता के लिए भरसक चिल्ला रही थी। उसी निगाह में मुझे यह भी दिखाई दिया कि पगडंडी पर तीन-चार अन्य घुड़सवार भी मौजूद हैं। सब-की-सब लड़कियाँ ही। वे सब असमर्थों का-सा भाव धारण किए अपने कश्मीरी कुलियों को वह घोड़ा पकड़ने का आदेश दे रही थीं।
एक ही क्षण में मैंने अपना घोड़ा उसी ओर दौड़ा दिया और शीघ्र ही उस स्त्री-सवार के निकट जा पहुँचा। अपने घोड़े पर से कूदकर मैंने उस घोड़े की लगाम पकड़ ली।
फिर वही आँखें!
मैं सहसा घबरा-सा गया। मुझे यह भी नहीं सूझा कि मैं क्या कहकर उस कन्या को आश्वासन दूँ। मगर मेरी घबराहट की ओर उसका ध्यान नहीं गया। वह स्वयं ही बहुत अधिक संकटापन्न दशा में जो थी।
पहले उसी ने मुझे धन्यवाद दिया। मालूम होता है उसने मुझे पहचाना नहीं। धन्यवाद देकर उसने शीघ्रता से कहा—बड़ा नटखट घोड़ा है! मैं पहले ही कह रही थी कि मैं इस पर सवार न होऊँगी।
उसकी आवाज़ में अभी तक भय की कँपकँपी थी। मैंने कहा—आपने बड़ी हिम्मत दिखाई है। घोड़े की इतनी तेज़ी हो जाने पर भी आप गिरीं नहीं।
वह इस पर लजा-सी गई। उसने कहा—मैं घुड़सवारी तो क्या जानूँ। सुना था इधर के घोड़े बहुत सीधे होते हैं।
इसी समय उसके साथ की अन्य लड़कियों और घोड़ेवाले कुली भी वहाँ आ पहुँचे। घोड़े की लगाम अभी तक मेरे हाथों में थी और लड़की भी अभी तक घोड़े की पीठ पर ही थी। एक कश्मीरी ने लगाम अपने हाथों में थाम ली और दूसरे ने ज़ीन को संभाला। वह लड़की नीचे उतर आई। उसके साथ की सब लड़कियों ने मुझे धन्यवाद दिया और मैंने कहा कि इसमें धन्यवाद की बात ही क्या है।
उन्होंने मुझसे पूछा—आप किस जगह ठहरे हुए हैं?
मैंने अपना पता बता दिया।
मेरे निवास का पता सुनकर जैसे उस लड़की ने मुझे पहचान लिया। उसके
मुँह से हठात निकला—ओहो! परंतु उसी क्षण अपने को पूर्णत संयत करके उसने बड़ी शांति के साथ कहा—मैं समझ गई।
इसके बाद दो-चार मामूली-सी और बातें भी हुई और तब वे लोग निगली नाले की ओर बढ़ गए। जाते हुए वे कल प्रात: के लिए मुझे अपने यहाँ चाय के लिए निमंत्रित भी करते गए।
उस नटखट घोड़े की रास अब एक कश्मीरी के हाथ में थी। वे सब घोड़े अब बहुत धीमी चाल से जा रहे थे और वह घोड़ा सबसे पीछे कर दिया गया था। मेरी नज़र अभी तक उसी ओर थी कि कुछ ही दूर जाकर उस लड़की ने पीछे की ओर घूमकर देखा।
अचानक एक बार पुन: मेरी और उसकी नज़र मिल गई।
ओह, फिर वही निष्पाप, लज्जाभरी स्वच्छ आँखें!
भाई कमल, मुझे नहीं मालूम कि वे लड़कियाँ कौन हैं। सभी नवयुवतियाँ हैं। मेरा अनुमान है कि उनमें से अभी तक किसी का विवाह नहीं हुआ है। मैं उनमें से किसी का नाम भी नहीं जानता, मकान का पता देने के लिए केवल एक पुरुष का नाम ही उन्होंने मुझे बताया है। मैं यह नहीं जानता कि वे आपस में बहनें हैं, सहेलियाँ हैं, एक साथ पढ़नेवाली हैं या रिश्तेदार हैं। मुझे कुछ भी नहीं मालूम। परंतु एक बात मैंने अच्छी तरह देख ली। वह यह कि उस लड़की के गेहुँए चेहरे में असाधारणता ज़रा भी नहीं है। उसकी आँखों में, पलकों या भौहों में ऐसी कोई बात नहीं है जिसके संबंध में कवि लोग बड़ी-बड़ी उपमाएँ खोज-खोजकर दिया करते हैं। फिर भी उसकी निगाह में कुछ है। क्या है—यह मैं नहीं कह सकता; मगर कुछ है ज़रूर।
बाहर अँधेरा हो गया है। सरदी भी अब अनुभव होने लगी है, अतः प्रणाम।
अभिन्न
स०
(5)
गुलमर्ग
17 श्रावण
प्यारे कमल,
आज जाकर मुझे तुम्हारा पहला पत्र मिला है। तुम सच मानो गुलमर्ग के छोटे-से बाज़ार के साइनबोर्डों के अतिरिक्त यही एक पहली चीज़ है जिसे मैंने इन पाँच-छ दिनों में पढ़ा है।
मेरा आज का दिन भी बड़े आनंद से गुज़रा है। सुबह-सुबह में उन लोगों के यहाँ चाय पीने गया था। उसके बाद हम लोग एक साथ खिलनमर्ग की सैर के लिए निकल गए। यहाँ घंटों तक उस खुले मैदान में बैठकर ताश खेला किए, सैर की, खेले-कूदे और फिर वापस लौट आए। सब लोग मेरे निवास स्थान पर आए। शाम की चाय यहाँ ही हुई और अभी-अभी मैं उन्हें उनके घर तक छोड़कर आ रहा हूँ।
मुझे उनका परिचय भी मिल गया है। वह लड़की अपने भाई और एक चचेरी बहन के साथ; काफ़ी दिन हुए यहाँ आई थी। उसके पिता एक संपन्न व्यापारी हैं, उनका कारोबार ख़ूब चलता हुआ है। वह लड़की लाहौर के एक महिला कॉलेज़ में पढ़ती है और बाक़ी तीनों लड़कियाँ उसके क्लास की हैं, उसकी मित्र हैं और उसी के निमंत्रण पर यहाँ आई हैं। उसके भाई का स्वभाव भी बड़ा मधुर है। गुलमर्ग में उसकी दोस्ती की इतनी अधिकता है कि उनकी ओर से छुटकारा पा सकना ही उसके लिए कठिन हो जाता है। हम लोग आपस में ख़ूब हिलमिल गए हैं। मैंने उन लोगों के अनेक फ़ोटो भी लिए हैं।
आज जल्दी ही सो जाने को जी चाहता है। तुम्हारा पत्र इस समय मेरी आँखों के सामने नहीं है। कुछ याद नहीं आ रहा है कि तुमने उसमें कोई बात पूछी भी थी या नहीं। चलो, जाने दो। यह तो मुझे मालूम ही है कि तुम कोई ख़ास काम की बात तो पूछ ही नहीं सकते।
यह भी नामुमकिन नहीं कि मैं कुछ और ठहर जाऊँ।
स्नेही
स०
(6)
गुलमर्ग
18 श्रावण
कमल,
साँझ डूबने को है। दिनभर से आसमान में बादल छाए हुए थे। इस समय मूसलाधार वर्षा हो रही है। मेरे कमरे की सब खिड़कियाँ बंद हैं। कमरे में बत्ती जल रही है। मेरे कानों में एक संगीत गूँज रहा है—बहुत पवित्र और बहुत ही मधुर। इस संगीत में शब्द नहीं केवल स्वर हैं। स्वर भी क्या केवल गूँज है। छत को टीन पर वर्षा पड़ने की जो आवाज़ हो रही है, वह इस गूँजमय संगीत का साज़ है और ठंडी, गीली हवा की धू-धू इस संगीत की तान का काम कर रही है।
मैं अकेला हूँ। दिन-भर अकेला नहीं था, परंतु इस समय फिर मैं अकेला हूँ। वह अपने भाई और छोटी बहन को साथ लेकर यहाँ आई थी। 6 बजे के क़रीब उसके भाई चाय के एक निमंत्रण पर बाहर चले गए। वह और उसकी बहन यहीं ही रह गई।... फ़ोटोग्राफ़ धुलकर आ गए थो। उन फ़ोटोज़ की आलोचना-आत्मालोचना होती रहीं। और भी... तरह की बातें हुईं। शाम का अँधेरा जब चढ़ने लगा तो मैंने उससे अनुरोध किया कि वह कोई गाना सुनाए। बड़ी झिझक के बाद उसने एक गाना मुझे सुनाया। ओह, वह कितना मधुर गीत है। मैं किसी दूसरे लोक में जा पहुँचा। मुझे नहीं मालूम कि संगीत कब समाप्त हुआ। हाँ, उसके भाई साहब का आना मुझे ज़रूर याद है। देर हो गई थी, अतः वे लोग लौटने को हुए। मैंने उन लोगों को सहन के फाटक से ही विदा दे दी। उन्हें छोड़ने के लिए दूर तक केवल इसी लिए साथ नहीं गया, क्योंकि मुझे ज्ञात था कि उसके भाई साहब चुपचाप चलना पसंद नहीं करेंगे और इस समय मैं न कुछ कहना चाहता था, न बोलना चाहता था।
उन्हें गए थोड़ी ही देर हुई थी कि ज़ोर की वर्षा शुरू हो गई। मैं तब से इसी कमरे में बैठा हूँ। संगीत कभी का थम गया, गानेवाली भी चली गई, मगर उसकी गूँज अभी तक बाक़ी है—उसी तरह जीवित रूप में बाक़ी है। संगीत की वह अनिर्वचनीय अमूर्त गूँज वर्षा की आवाज़ का प्राकृतिक साज़ पाकर मानो और भी अधिक भेदिनी बन गई है।
कमल, तुम मेरे सुख-दुःख के साथी हो। अपनी सभी अनुभूतियाँ तुमसे कहकर मैं अपने चित्त का बोझ हल्का किया करता हूँ, मगर यह एक अनुभूति कुछ ऐसी है कि इसे मैं ठीक तौर से व्यक्त भी नहीं कर सकता। मेरे जी में आँधी-सी चल रही है, मगर यह आँधी बिलकुल शब्द-रहित है, जैसे नदी का वेगवान पानी अंदर-ही-अंदर से किनारे के कछारों को काट रहा हो।
अपनी एक पुरानी धुंधली-सी अनुभूति मुझे इस समय साफ़ तौर से समझ में आ रही है। हम मनुष्यों के बाह्य-जीवन आपस में एक दूसरे पर इतने अधिक आश्रित हो गए हैं कि हम लोगों के लिए इस तरह का एक दिन भी काटना संभव नहीं रहा, जबकि एक मनुष्य का किसी भी दूसरे मनुष्य से किसी तरह का वास्ता न पड़े। इस पर भी मैं सदैव अनुभव करता रहा हूँ कि हम लोग आपस में एक दूसरे से बहुत अधिक दूर हैं। हृदयों का यह पारस्परिक अपरिचितपन हमारे दैनिक व्यवहार में, हमारे सामान्य जीवन में कोई बाधा नहीं डालता। फिर भी हमारे जी को, हमारे अंतःकरण को और शायद हमारी अंतरात्मा को कभी यह चाह रहती है कि वह किसी दूसरे जी को, किसी दूसरे अंतःकरण को अपना ले। यही चीज़, अंतरात्मा की यही चाह प्रेम है, जिसे वासना का परिधान पहनाकर हम लोग बहुत शीघ्र मैला कर डालते हैं। आज इस संगीतमय, ठंडे शांत और सुंदरतम वातावरण में मैं यह अनुभव करने लगा हूँ कि मेरे अंतःकरण में भी इसी तरह की कोई बेचैनी सहसा उठ खड़ी हुई है।
आज उससे मेरी ख़ूब बातें हुई। अधिकांश बातें बिलकुल बेमतलब की थी, मगर फिर भी वे बातें अत्यंत मधुर और दिल को सहलाने वाली थी।
एक बात ऐसी भी हुई जिसने मेरे हृदय को वेग के साथ झनझना दिया। बातचीत में उसने ज़रा हैरानी के साथ मुझसे पूछा—आप अकेले ही रहते हैं?
मैंने कहा—हाँ।
उसने पूछा—हमेशा इसी तरह रहते हैं?
मैंने कहा—प्रायः हमेशा ही।
कुछ क्षण के बाद उसने मुझसे पूछा—सुबह आपको दूध पिलाने का काम किसके हाथों में है?
मुझे उसका भोला-सा सवाल बहुत ही मधुर जान पड़ा। मैंने कहा—जो लोग मेरी ज़रूरत की और सब चीज़ों का इंतिज़ाम करते हैं, वे ही दूध का इंतिज़ाम करते हैं।
उसने फिर पूछा—आप सुबह खाते क्या है?
मैंने कहा—दूध, टोस्ट, मक्खन, शहद, ओवलटीन और थोड़े-से मेवे। यूँ ही बिलकुल निष्कलंक भाव से उसने ज़रा आग्रह के स्वर से कहा—अगर मैं आपके दूध का इंतिज़ाम करने वाली होती तो आपको पता लगता कि सुबह के कलेवे में कितना स्वाद आता है।
मेरा संपूर्ण अंतःकरण झनझना उठा। अपने चेहरे पर हलकी-सी और फीकी मुस्कुराहट ले आने के अतिरिक्त मैं उसकी इस अत्यंत मधुर बात का कोई जवाब नहीं दे सका।
मुझे मालूम है कि उसने जो कुछ कहा था, इसका कोई गहरा अभिप्राय कदापि नहीं था। संभवतः घर के लोगों को सुबह दूध पिलाने का इंतिज़ाम उसी के ज़िम्मे होगा; मगर फिर भी मेरे दिमाग़ ने उसकी इस बात को इतनी गहराई के साथ हृदय के पास पहुँचाया कि मेरा संपूर्ण अंतःकरण बहुत ही मीठे स्वरों में ध्वनित हो उठा।
हाथ ठिठुर रहे हैं। मेरी यह चिट्ठी पढ़कर तुम कहीं ऊबने तो नहीं लगे? ठीक है न? या अभी कुछ और सुनने की इच्छा है?
मगर नहीं, अब और नहीं।
तुम्हारा—
स०
(7)
गुलमर्ग
18 श्रावण...
भाई कमल,
इस समय सुबह के 8 बजे हैं। मेरा सामान बँधकर तैयार पड़ा है। सहन में एक कसा हुआ घोड़ा और सामान के टट्ट तैयार खड़े हैं। मैं इसी वक़्त नीचे के लिए रवाना होने लगा हूँ। बस तुम्हें यह पत्र लिखकर मैं घोड़े पर सवार हो जाऊँगा। यह भी पूरी तरह मुमकिन है कि इस पत्र से पहले ही मैं स्वयं तुम्हारे पास पहुँच जाऊँ।
कल मैंने इरादा किया था कि कम-से-कम पाँच दिन यहाँ और ठहरूँगा। उन लोगों से भी मैंने यही बात कही थी। आज दुपहर को मुझसे मिलने के लिए उन्हें यहाँ आना भी है, मगर आज सुबह नींद से बहुत जल्दी जागकर मैंने यही निश्चय किया कि मुझे यहाँ से चल ही देना चाहिए। इस आशय की एक चिट्ठी उनके नाम पर भी डाल रहा हूँ कि एक अप्रत्याशित कार्य के लिए मुझे इस तरह बिलकुल अचानक अपने नगर के लिए रवाना होना पड़ रहा है।
तुम इस चिट्ठी को पाकर अथवा चौथे दिन मुझे ही अपने समीप देखकर हैरान होगे कि बात क्या हुई। कहने को तो मैं तुम्हें भी यही कह सकता हूँ कि अधिक दिन बाहर रहने से काम-काज में हर्ज होता, इसी से चले आना पड़ा; परंतु दरअस्ल बात ऐसी नहीं है। बात वास्तव में इतनी ही है कि अपनी शिक्षा और अपनी परिस्थितियों के संस्कारों से बाधित होकर ही मैं आज यहाँ से चल दिया हूँ।
कुछ समझे? नहीं, मुझे यक़ीन है कि कमल का मोटा दिमाग़ मेरी इस महीन बात को ज़रा भी नहीं समझा होगा।
देखो न भाई कमल, बात यह है कि पश्चिम की शिक्षा ने, पश्चिम के रीति-रिवाज़ों ने हमें यह सिखाया है कि हम अपने दिल को, अपने अंतःकरण को और अपनेपन को बहुत महँगा बना लेना चाहिए। हम सबसे मिले-जुलें, सबसे मीठी-मीठी बातें करें, सबसे फ़ायदा उठाएँ, इच्छा हो और संभव हो, तो लोगों से सभी तरह के विनोद और आमोद भी प्राप्त करें; परंतु अपना अंतःकरण अपना हृदय अपने ही पास रखें क्योंकि वह हमारी चीज़ है और किसी की भी नहीं। अपने दिल को बिलकुल निस्संग बनाने की भी आवश्यकता नहीं है। वह तो आत्म-विनोद का सर्वश्रेष्ठ साधन है। तुम सबसे मिलो-जुलो, हँसकर, खुलकर, मीठी-मीठी बातें करो मगर किसी के बन मत जाओ, अपना सब कुछ किसी को अर्पित मत कर दो। व्यक्तित्व को भावुकता की ज़हरीली गैस से मूर्छित न होने दो।
मैंने यह अनुभव किया है कमल कि मेरे हृदय में भावुकता बाक़ी है, वह भी काफ़ी मात्रा में। मेरा हृदय मोह में पड़ गया है। पूरब के प्रशिक्षित मनुष्यों के समान वह चाहता है कि वह जिसकी ओर झुका है, उसी का बनकर रहे; मगर मेरे दिमाग़ की शिक्षा ने मेरे जी को यह चेतावनी दी है कि प्रेम का उद्देश्य सर्वस्व समर्पण की भावना नहीं, अपितु आत्मविनोद मात्र है। परंतु मुझे भय है कि इस ख़ास मामले में मैं अपने मस्तिष्क के आदेश का पालन शायद ही कर सकूँ। इससे मैंने निश्चय किया है कि मैं अपने को इस कठिन परीक्षा में न डालूँ और यहाँ से चल दूँ। देखूँ, इस सबका परिणाम क्या होता है। देखूँ, गुलमर्ग को भुला सकता हूँ या नहीं। अब तो आ ही रहा हूँ। बे-फ़िक्र रहो। मैं नए युग की उपज हूँ।
अभिन्न—
स०
gulmarg
13 shrawan
pyare kamal,
mujhe maf karna, us din sham ki chay ke samay tum mera intizar karte rahe honge, aur main idhar khisak aaya aaj tumse 1100 meel ki duri par aur tumhare kalkatta mahangar se 9000 feet adhik unchai par baithkar main tumhein ye patr likh raha hoon tum jante hi ho ki main kis tabiat ka adami hoon uf, wahan kitna bojh tha kaam, kaam, har waqt kaam meri tabiat sahsa ub gai aur tumhein tak suchana diye bina main apni kar par itne safar ke liye khisak aaya us din chay ke waqt mujhe maujud na pakar yadyapi tum mujh par kafi kheejh to liye hi honge, phir bhi us asuwidha ke liye mujhe maf kar dena
himale ki ye wishal ghati baDi suhawni hai ghane jangal, nirmal jharne, wistrit maidan, charon or barf se Dhake, pahaDon ki unchi unchi chotiyan aur door par dikhai dene wali walar jheel is sthan se main sachmuch pyar karta hoon ye ek saptah bilkul nikamma rahkar katunga kuch nahin karunga kewal tumhein hi patr likhunga aur tumhare patron ko chhoDkar aur kuch bhi nahin paDhunga
bhai kamal, main akela hoon tumne anek bar mere is akelepan ki alochana ki hai, magar yahan aakar main anubhaw karta hoon ki jaise prakrti meri man hai main akela kahan hoon, main to apni man ki god mein hoon
chinta na karna main yahan ek saptah se adhik nahin thahrunga 22 shrawan ki sham ko tum mujhe apni chay ki table par hi paoge bahar ek kasa hua ghoDa mera intizar kar raha hai, at baqi kal
tumhara
s०
(2)
gulmarg
14 shrawan
bhai kamal,
subah 9 baje bistare se utha hoon abhi tak neend ki khumari nahin tuti kal bahut dinon ke baad ghuDaswari ki thi, at tangen kuch thak gai si pratit hoti hain aaj kahin nahin jaunga mere makan mein aur koi nahin hai main apne sofe par akela paDa hoon dhimi dhimi warsha ho rahi hai charon taraf sannata hai oh, samne ki is khiDki se kitna anant saundarya mujhe dikhai de raha hai
aj kuch nahin likhunga socha tha ki aaj ek chitr banaunga, magar kuch nahin karunga ghanton tak isi tarah nishchesht bhaw se paDe rahkar is khiDki ki rah se prakrti ka, apni man ka anutha saundarya dekhunga
achchha, kal tak ke liye wida
swechchhadhin
s०
(3)
gulmarg
15 shrawan
kamal,
is samay raat ke 11 baje hai, aur meri ankhon mein neend nahin hai sab taraf gahra sannata hai kahin se koi awaz nahin aa rahi hai mere kamre mein bijli ki batti jal rahi hai khiDkiyan band hain sardi itni adhik hai ki main unhen kholkar nahin rakh saka sannata itna gahra hai ki bijli ke parkash se jagmaga rahe is kamre mein baithkar mujhe aisa anubhaw ho raha hai, jaise is sampurn wishw mein kewal main hi main bach raha hoon aur koi bhi nahin hai kahin koi bhi nahin hai sirf main hi hoon, akela main
magar bhai kamal, aaj sahsa na jane kyon mujhe apna ye akelapan kuch anubhaw sa hone laga hai aisa kyon hua kya sirf isliye ki sab or sannata hai aur meri ankhon mein neend nahin hai? nahin kamal, ye baat nahin hai mere hirdai mein aaj sahsa ek nai si anubhuti uth khaDi hui hai jo bilkul dhundhli aur aspasht si hai main anubhaw karta hoon ki mainne aaj jo kuch dekha hai usmen wichitrata zara bhi nahin hai mainne jo kuch aaj dekha hai use yadi main yahan likhunga to ya to tum mera mazak uDane lagoge athwa mere sambandh mein bilkul bhrant si dharana bana loge magar bhai, main kahta hun—main tumse anurodh karta hoon ki tum in donon mein se ek bhi baat na karna meri is chitthi ko paDh jana, aur agar ho sake to usi waqt bhula dena bus aur kuch nahin
han, to suno baat hai to kuch bhi nahin, magar phir bhi suno aaj duphar ke waqt badal zara chhant gaye the aur suraj nikal aaya tha jaise widhata ne is hari bhari ghati ko dho dhokar dhoop mein sukhane ke liye bichha diya ho duphar ke bhojan ke baad apni is chhoti si kothi ke khule sahn mein dhire dhire chahl qadmi karne laga sahn ke phatak ke samne hi swachchh jal ka ek chhota sa jharna bah raha hai us upar ke anghaD lakDi ka ek itna sundar pul hai ki use dekhte hi kalar box lekar uska chitr banane ki ichha hoti hai main dhire dhire ek bar is pul tak jata tha aur uske baad kothi ke baramde tak wapas laut aata tha
ek bar ke chakkar mein jab main pul ke nikat pahuncha to main chaunk paDa mainne dekha, wahan kisi bhadr kul ki ek naujawan laDki khaDi thi, akeli uska dhyan meri or nahin tha jharne ke pani ki madhur dhwani ne mere chalne ki awaz ko apne bhitar chhipa liya tha, isse mere bahut nikat pahunch jane par bhi wo ye na jaan saki ki uske nikat koi any wekti bhi maujud hai aur mujhe to tum jante hi ho kitna bhula hua sa chalta hoon mujhe tab tak us laDki ki upasthiti ka gyan nahin hua jab tak main uske bilkul nikat pahunch nahin gaya
main chaunka aur udhar usi samay us laDki ki nigah mujh par paDi shayad bilkul hi akasmat wo bhi chaunk gai kshan bhar ke liye sahsa uski aur meri ankhen aapas mein mil gain
bus bhai kamal, baat itni hi hai aur kuch bhi nahin main usi kshan wapas laut paDa tha aur jaan paDta hai wo laDki bhi wahan se chal di thi magar is zara si baat ne na jane kyon mere dil par bahut ajib sa prabhaw Dala hai is baat ko hue ab 6 ghante beet chuke hain aur in 6 ghanton mein chaunki hui hirni ki si we ankhen mere manasik netron ke samne bisiyon bar ghoom gai hain
tum sochte hoge is sabmen koi khas baat zarur hai aur nahin to kam se kam wo laDki koi asadharan sundari to awashy hi hogi, magar wastawikta ye nahin hai us laDki ke chehre mein asadharanta zara bhi nahin thi lamba qad, mamuli chehra, gehuna rang aur bhi koi baat usmen aisi nahin thi jise asadharan kaha ja sake apne nagar mein hum log is kanya se atyadhik roop saundarya wali bisiyon yuwatiyon ko roz dekhte hain meri parichit kumariyon mein bhi kitni hi saundarya ki drishti se usse kahin baDh chaDhkar hain yahan gulmarg mein bhi usse bahut adhik sundariyon ko mainne kafi baDi sankhya mein dekha hai phir bhee! kuch samajh mein nahin aata ki is phir bhee ka karan kya hai
aj itna hi
tumhara
s०
(4)
gulmarg
16 shrawan
prata 8 baje
kamal,
neend se uthte hi sabse pahle meri nigah raat ke patr par gai hai raat main kya khuraphat si likh gaya dil mein aata hai wo patr phaD Dalun
ji kuch bhari sa hai kuch likhne ki bhi ichha nahin hoti aur is tarah nishchesht bhaw se yahan chupchap paDe rahna to aaj mujhe sahy bhi nahin ho sakta tum jante ho upar ki do lainen likhne mein mainne kitna samay lagaya hai? pure 22 minat! is samay dusra patr likh sakna mere liye asambhau hai chalo ab kahin awaragardi karne jaunga!
sanya 6 baje
mera ji is samay bahut prasann hai meri tangen, mera sampurn sharir bilkul thaki hui haalat mein hai parantu ji chahta hai ki main is samay bhi nachun, kudun aur idhar udhar dauDta phirun mere hirdai mein is samay utsah ka andhaD sa chal raha hai, mujhe malum hai ki uski pratikriya bhi zarur hogi apne ji ke is byarth utsah ko bahkane ka mujhe isse baDhkar aur koi upay nahin mila ki subah ka patr pura karne baith jaun
sanjh ho i hai aaj ka sara din mainne sair sapate mein kata hai thoDi hi der pahle ghar wapas aaya hoon tumhari chitthi beech mein chhoDkar main ek mazbut ghoDe par sair ke liye nikal gaya tha yahan ke sabhi marg mere jane pahchane hain, isse koi margadarshak bhi mainne apne sath nahin liya tha mere niwas sthan se qarib 8 meel ki duri par ek baDa pahaDi jharna hai is jharne ko yahan nigli nala kahte hain main aaj isi nigli nale tak gaya tha
khoob teDhi meDhi rah hai kahin pahaDon ke chakkar hain, kahin ghas se maDhe maidan, kahin unchai ninai, kahin penchdar moD aur kahin ghane jangal rasta kya hai, ubaD khabaD si ek pagDanDi hai par mainne apna ghoDa khoob nishchinti ke sath dauDaya upar asankhy pakshiyon ka madhur kalraw tha rah ke donon or phool pattiyan theen hawa mein sugandh thi asman mein suraj badalon ke sath ankh michauli khel raha tha kabhi sardi baDh jati thi aur kabhi halki halki dhoop nikal aati thi sheeghr hi main nigli nale par pahuncha jharne ke donon or ghana jangal hai beech mein baDi baDi chattanen paDi hain ek ek chattan saikDon hazaron tan ki hogi jharne ka swachchh jal in bhimakay chattanon se takrakar shor machata hai, phisalta hai aur phir uchhal uchhalkar inhen gila karta hai jharne ki shitalta, jhag, safedi aur shor—ye sab nirantar bane rahte hain sada taze, sadaiw utsahpurn
ghoDe ko ghas charne ke liye khula chhoDkar main do teen ghanton tak jharne ki chattanon par swachchhandtapurwak kudta phandta raha apne camere se is jharne ke mainne anek photo bhi liye khaya, piya aur uske baad wapas laut chala
wapsi mein mainne apne ghoDe ko sarpat nahin dauDaya rah ke drishyon ne mera sampurn dhyan apni or akarshait kar liya tha, at ghoDe par mainne kisi tarah ka shasan nahin kiya wo azadi ke sath chahe jis chaal se chalta raha sahsa samne ki or se mujhe ek cheekh si sunai di meri tanmayta bhang ho gai mainne dekha samne ke maidan mein ek ghoDa betahasha dauDa chala ja raha hai, aur us par ek istri sawar hai ghoDe ki zeen ko leti hui si dasha mein kaskar pakDe hue wo nari sahayata ke liye bharsak chilla rahi thi usi nigah mein mujhe ye bhi dikhai diya ki pagDanDi par teen chaar any ghuDaswar bhi maujud hain sab ki sab laDkiyan hi we sab asmarthon ka sa bhaw dharan kiye apne kashmiri kuliyon ko wo ghoDa pakaDne ka adesh de rahi theen
ek hi kshan mein mainne apna ghoDa usi or dauDa diya aur sheeghr hi us istri sawar ke nikat ja pahuncha apne ghoDe par se kudkar mainne us ghoDe ki lagam pakaD li
phir wahi ankhen!
main sahsa ghabra sa gaya mujhe ye bhi nahin sujha ki main kya kahkar us kanya ko ashwasan doon magar meri ghabrahat ki or uska dhyan nahin gaya wo swayan hi bahut adhik sanktapann dasha mein jo thi
pahle usi ne mujhe dhanyawad diya malum hota hai usne mujhe pahchana nahin dhanyawad dekar usne shighrata se kaha—baDa natkhat ghoDa hai! main pahle hi kah rahi thi ki main is par sawar na houngi
uski awaz mein abhi tak bhay ki kanpkanpi thi mainne kaha—apne baDi himmat dikhai hai ghoDe ki itni tezi ho jane par bhi aap girin nahin
wo is par laja si gai usne kaha—main ghuDaswari to kya janun suna tha idhar ke ghoDe bahut sidhe hote hain
isi samay uske sath ki any laDkiyon aur ghoDewale kuli bhi wahan aa pahunche ghoDe ki lagam abhi tak mere hathon mein thi aur laDki bhi abhi tak ghoDe ki peeth par hi thi ek kashmiri ne lagam apne hathon mein tham li aur dusre ne zeen ko sambhala wo laDki niche utar i uske sath ki sab laDkiyon ne mujhe dhanyawad diya aur mainne kaha ki ismen dhanyawad ki baat hi kya hai
unhonne mujhse puchha—ap kis jagah thahre hue hain?
mainne apna pata bata diya
mere niwas ka pata sunkar jaise us laDki ne mujhe pahchan liya uske
munh se hathat nikla—oho! parantu usi kshan apne ko purnat sanyat karke usne baDi shanti ke sath kaha—main samajh gai
iske baad do chaar mamuli si aur baten bhi hui aur tab we log nigli nale ki or baDh gaye jate hue we kal pratah ke liye mujhe apne yahan chay ke liye nimantrit bhi karte gaye
us natkhat ghoDe ki ras ab ek kashmiri ke hath mein thi we sab ghoDe ab bahut dhimi chaal se ja rahe the aur wo ghoDa sabse pichhe kar diya gaya tha meri nazar abhi tak usi or thi ki kuch hi door jakar us laDki ne pichhe ki or ghumkar dekha
achanak ek bar punah meri aur uski nazar mil gai
oh, phir wahi nishpap, lajjabhri swachchh ankhen!
bhai kamal, mujhe nahin malum ki we laDkiyan kaun hain sabhi nawayuwatiyan hain mera anuman hai ki unmen se abhi tak kisi ka wiwah nahin hua hai main unmen se kisi ka nam bhi nahin janta, makan ka pata dene ke liye kewal ek purush ka nam hi unhonne mujhe bataya hai main ye nahin janta ki we aapas mein bahnen hain, saheliyan hain, ek sath paDhnewali hain ya rishtedar hain mujhe kuch bhi nahin malum parantu ek baat mainne achchhi tarah dekh li wo ye ki us laDki ke gehune chehre mein asadharanta zara bhi nahin hai uski ankhon mein, palkon ya bhauhon mein aisi koi baat nahin hai jiske sambandh mein kawi log baDi baDi upmayen khoj khojkar diya karte hain phir bhi uski nigah mein kuch hai kya hai—yah main nahin kah sakta; magar kuch hai zarur
bahar andhera ho gaya hai sardi bhi ab anubhaw hone lagi hai, at parnam
abhinn
s०
(5)
gulmarg
17 shrawan
pyare kamal,
aj jakar mujhe tumhara pahla patr mila hai tum sach mano gulmarg ke chhote se bazar ke sainborDon ke atirikt yahi ek pahli cheez hai jise mainne in panch chh dinon mein paDha hai
mera aaj ka din bhi baDe anand se guzra hai subah subah mein un logon ke yahan chay pine gaya tha uske baad hum log ek sath khilanmarg ki sair ke liye nikal gaye yahan ghanton tak us khule maidan mein baithkar tash khela kiye, sair ki, khele kude aur phir wapas laut aaye sab log mere niwas sthan par aaye sham ki chay yahan hi hui aur abhi abhi main unhen unke ghar tak chhoDkar aa raha hoon
mujhe unka parichai bhi mil gaya hai wo laDki apne bhai aur ek chacheri bahan ke sath; kafi din hue yahan i thi uske pita ek sanpann wyapari hain, unka karobar khoob chalta hua hai wo laDki lahore ke ek mahila kaulez mein paDhti hai aur baqi tinon laDkiyan uske class ki hain, uski mitr hain aur usi ke nimantran par yahan i hain uske bhai ka swbhaw bhi baDa madhur hai gulmarg mein uski dosti ki itni adhikta hai ki unki or se chhutkara pa sakna hi uske liye kathin ho jata hai hum log aapas mein khoob hilmil gaye hain mainne un logon ke anek photo bhi liye hain
aj jaldi hi so jane ko ji chahta hai tumhara patr is samay meri ankhon ke samne nahin hai kuch yaad nahin aa raha hai ki tumne usmen koi baat puchhi bhi thi ya nahin chalo, jane do ye to mujhe malum hi hai ki tum koi khas kaam ki baat to poochh hi nahin sakte
ye bhi namumkin nahin ki main kuch aur thahar jaun
snehi
s०
(6)
gulmarg
18 shrawan
kamal,
sanjh Dubne ko hai dinbhar se asman mein badal chhaye hue the is samay musladhar warsha ho rahi hai mere kamre ki sab khiDkiyan band hain kamre mein batti jal rahi hai mere kanon mein ek sangit goonj raha hai—bahut pawitra aur bahut hi madhur is sangit mein shabd nahin kewal swar hain swar bhi kya kewal goonj hai chhat ko teen par warsha paDne ki jo awaz ho rahi hai, wo is gunjamay sangit ka saz hai aur thanDi, gili hawa ki dhu dhu is sangit ki tan ka kaam kar rahi hai
main akela hoon din bhar akela nahin tha, parantu is samay phir main akela hoon wo apne bhai aur chhoti bahan ko sath lekar yahan i thi 6 baje ke qarib uske bhai chay ke ek nimantran par bahar chale gaye wo aur uski bahan yahin hi rah gai photograph dhulkar aa gaye tho un fotoz ki alochana atmalochana hoti rahin aur bhi tarah ki baten huin sham ka andhera jab chaDhne laga to mainne usse anurodh kiya ki wo koi gana sunaye baDi jhijhak ke baad usne ek gana mujhe sunaya oh, wo kitna madhur geet hai main kisi dusre lok mein ja pahuncha mujhe nahin malum ki sangit kab samapt hua han, uske bhai sahab ka aana mujhe zarur yaad hai der ho gai thi, at we log lautne ko hue mainne un logon ko sahn ke phatak se hi wida de di unhen chhoDne ke liye door tak kewal isi liye sath nahin gaya, kyonki mujhe j~nat tha ki uske bhai sahab chupchap chalna pasand nahin karenge aur is samay main na kuch kahna chahta tha, na bolna chahta tha
unhen gaye thoDi hi der hui thi ki zor ki warsha shuru ho gai main tab se isi kamre mein baitha hoon sangit kabhi ka tham gaya, ganewali bhi chali gai, magar uski goonj abhi tak baqi hai—usi tarah jiwit roop mein baqi hai sangit ki wo anirwachniy amurt goonj warsha ki awaz ka prakritik saz pakar mano aur bhi adhik bhedini ban gai hai
kamal, tum mere sukh duःkh ke sathi ho apni sabhi anubhutiyan tumse kahkar main apne chitt ka bojh halka kiya karta hoon, magar ye ek anubhuti kuch aisi hai ki ise main theek taur se wyakt bhi nahin kar sakta mere ji mein andhi si chal rahi hai, magar ye andhi bilkul shabd rahit hai, jaise nadi ka wegawan pani andar hi andar se kinare ke kachharon ko kat raha ho
apni ek purani dhundhli si anubhuti mujhe is samay saf taur se samajh mein aa rahi hai hum manushyon ke bahy jiwan aapas mein ek dusre par itne adhik ashrit ho gaye hain ki hum logon ke liye is tarah ka ek din bhi katna sambhaw nahin raha, jabki ek manushya ka kisi bhi dusre manushya se kisi tarah ka wasta na paDe is par bhi main sadaiw anubhaw karta raha hoon ki hum log aapas mein ek dusre se bahut adhik door hain hridyon ka ye parasparik aparichitpan hamare dainik wywahar mein, hamare samany jiwan mein koi badha nahin Dalta phir bhi hamare ji ko, hamare antakarn ko aur shayad hamari antratma ko kabhi ye chah rahti hai ki wo kisi dusre ji ko, kisi dusre antakarn ko apna le yahi cheez, antratma ki yahi chah prem hai, jise wasana ka paridhan pahnakar hum log bahut sheeghr maila kar Dalte hain aaj is sangitamay, thanDe shant aur sundartam watawarn mein main ye anubhaw karne laga hoon ki mere antakarn mein bhi isi tarah ki koi bechaini sahsa uth khaDi hui hai
aj usse meri khoob baten hui adhikansh baten bilkul bematlab ki thi, magar phir bhi we baten atyant madhur aur dil ko sahlane wali thi
ek baat aisi bhi hui jisne mere hirdai ko weg ke sath jhanjhana diya batachit mein usne zara hairani ke sath mujhse puchha—ap akele hi rahte hain?
mainne kaha—han
usne puchha—hamesha isi tarah rahte hain?
mainne kaha—praya hamesha hi
kuch kshan ke baad usne mujhse puchha—subah aapko doodh pilane ka kaam kiske hathon mein hai?
mujhe uska bhola sa sawal bahut hi madhur jaan paDa mainne kaha—jo log meri zarurat ki aur sab chizon ka intizam karte hain, we hi doodh ka intizam karte hain
usne phir puchha—ap subah khate kya hai?
mainne kaha—dudh, toast, makkhan, shahd, owaltin aur thoDe se mewe yoon hi bilkul nishkalank bhaw se usne zara agrah ke swar se kaha—agar main aapke doodh ka intizam karne wali hoti to aapko pata lagta ki subah ke kalewe mein kitna swad aata hai
mera sampurn antakarn jhanjhana utha apne chehre par halki si aur phiki muskurahat le aane ke atirikt main uski is atyant madhur baat ka koi jawab nahin de saka
mujhe malum hai ki usne jo kuch kaha tha, iska koi gahra abhipray kadapi nahin tha sambhwat ghar ke logon ko subah doodh pilane ka intizam usi ke zimme hoga; magar phir bhi mere dimagh ne uski is baat ko itni gahrai ke sath hirdai ke pas pahunchaya ki mera sampurn antakarn bahut hi mithe swron mein dhwanit ho utha
hath thithur rahe hain meri ye chitthi paDhkar tum kahin ubne to nahin lage? theek hai n? ya abhi kuch aur sunne ki ichha hai?
magar nahin, ab aur nahin
tumhara—
s०
(7)
gulmarg
18 shrawan
bhai kamal,
is samay subah ke 8 baje hain mera saman bandhakar taiyar paDa hai sahn mein ek kasa hua ghoDa aur saman ke tatt taiyar khaDe hain main isi waqt niche ke liye rawana hone laga hoon bus tumhein ye patr likhkar main ghoDe par sawar ho jaunga ye bhi puri tarah mumkin hai ki is patr se pahle hi main swayan tumhare pas pahunch jaun
kal mainne irada kiya tha ki kam se kam panch din yahan aur thahrunga un logon se bhi mainne yahi baat kahi thi aaj duphar ko mujhse milne ke liye unhen yahan aana bhi hai, magar aaj subah neend se bahut jaldi jagkar mainne yahi nishchay kiya ki mujhe yahan se chal hi dena chahiye is ashay ki ek chitthi unke nam par bhi Dal raha hoon ki ek apratyashit kary ke liye mujhe is tarah bilkul achanak apne nagar ke liye rawana hona paD raha hai
tum is chitthi ko pakar athwa chauthe din mujhe hi apne samip dekhkar hairan hoge ki baat kya hui kahne ko to main tumhein bhi yahi kah sakta hoon ki adhik din bahar rahne se kaam kaj mein harj hota, isi se chale aana paDa; parantu darasl baat aisi nahin hai baat wastaw mein itni hi hai ki apni shiksha aur apni paristhitiyon ke sanskaron se badhit hokar hi main aaj yahan se chal diya hoon
kuch samjhe? nahin, mujhe yaqin hai ki kamal ka mota dimagh meri is muhin baat ko zara bhi nahin samjha hoga
dekho na bhai kamal, baat ye hai ki pashchim ki shiksha ne, pashchim ke riti riwazon ne hamein ye sikhaya hai ki hum apne dil ko, apne antakarn ko aur apnepan ko bahut mahnga bana lena chahiye hum sabse mile julen, sabse mithi mithi baten karen, sabse fayda uthayen, ichha ho aur sambhaw ho, to logon se sabhi tarah ke winod aur aamod bhi prapt karen; parantu apna antakarn apna hirdai apne hi pas rakhen kyonki wo hamari cheez hai aur kisi ki bhi nahin apne dil ko bilkul nissang banane ki bhi awashyakta nahin hai wo to aatm winod ka sarwashreshth sadhan hai tum sabse milo julo, hansakar, khulkar, mithi mithi baten karo magar kisi ke ban mat jao, apna sab kuch kisi ko arpit mat kar do wyaktitw ko bhawukta ki zahrili gas se murchhit na hone do
mainne ye anubhaw kiya hai kamal ki mere hirdai mein bhawukta baqi hai, wo bhi kafi matra mein mera hirdai moh mein paD gaya hai purab ke prashikshait manushyon ke saman wo chahta hai ki wo jiski or jhuka hai, usi ka bankar rahe; magar mere dimagh ki shiksha ne mere ji ko ye chetawni di hai ki prem ka uddeshy sarwasw samarpan ki bhawna nahin, apitu atmawinod matr hai parantu mujhe bhay hai ki is khas mamle mein main apne mastishk ke adesh ka palan shayad hi kar sakun isse mainne nishchay kiya hai ki main apne ko is kathin pariksha mein na Dalun aur yahan se chal doon dekhun, is sabka parinam kya hota hai dekhun, gulmarg ko bhula sakta hoon ya nahin ab to aa hi raha hoon be fir raho main nae yug ki upaj hoon
abhinn—
s०
gulmarg
13 shrawan
pyare kamal,
mujhe maf karna, us din sham ki chay ke samay tum mera intizar karte rahe honge, aur main idhar khisak aaya aaj tumse 1100 meel ki duri par aur tumhare kalkatta mahangar se 9000 feet adhik unchai par baithkar main tumhein ye patr likh raha hoon tum jante hi ho ki main kis tabiat ka adami hoon uf, wahan kitna bojh tha kaam, kaam, har waqt kaam meri tabiat sahsa ub gai aur tumhein tak suchana diye bina main apni kar par itne safar ke liye khisak aaya us din chay ke waqt mujhe maujud na pakar yadyapi tum mujh par kafi kheejh to liye hi honge, phir bhi us asuwidha ke liye mujhe maf kar dena
himale ki ye wishal ghati baDi suhawni hai ghane jangal, nirmal jharne, wistrit maidan, charon or barf se Dhake, pahaDon ki unchi unchi chotiyan aur door par dikhai dene wali walar jheel is sthan se main sachmuch pyar karta hoon ye ek saptah bilkul nikamma rahkar katunga kuch nahin karunga kewal tumhein hi patr likhunga aur tumhare patron ko chhoDkar aur kuch bhi nahin paDhunga
bhai kamal, main akela hoon tumne anek bar mere is akelepan ki alochana ki hai, magar yahan aakar main anubhaw karta hoon ki jaise prakrti meri man hai main akela kahan hoon, main to apni man ki god mein hoon
chinta na karna main yahan ek saptah se adhik nahin thahrunga 22 shrawan ki sham ko tum mujhe apni chay ki table par hi paoge bahar ek kasa hua ghoDa mera intizar kar raha hai, at baqi kal
tumhara
s०
(2)
gulmarg
14 shrawan
bhai kamal,
subah 9 baje bistare se utha hoon abhi tak neend ki khumari nahin tuti kal bahut dinon ke baad ghuDaswari ki thi, at tangen kuch thak gai si pratit hoti hain aaj kahin nahin jaunga mere makan mein aur koi nahin hai main apne sofe par akela paDa hoon dhimi dhimi warsha ho rahi hai charon taraf sannata hai oh, samne ki is khiDki se kitna anant saundarya mujhe dikhai de raha hai
aj kuch nahin likhunga socha tha ki aaj ek chitr banaunga, magar kuch nahin karunga ghanton tak isi tarah nishchesht bhaw se paDe rahkar is khiDki ki rah se prakrti ka, apni man ka anutha saundarya dekhunga
achchha, kal tak ke liye wida
swechchhadhin
s०
(3)
gulmarg
15 shrawan
kamal,
is samay raat ke 11 baje hai, aur meri ankhon mein neend nahin hai sab taraf gahra sannata hai kahin se koi awaz nahin aa rahi hai mere kamre mein bijli ki batti jal rahi hai khiDkiyan band hain sardi itni adhik hai ki main unhen kholkar nahin rakh saka sannata itna gahra hai ki bijli ke parkash se jagmaga rahe is kamre mein baithkar mujhe aisa anubhaw ho raha hai, jaise is sampurn wishw mein kewal main hi main bach raha hoon aur koi bhi nahin hai kahin koi bhi nahin hai sirf main hi hoon, akela main
magar bhai kamal, aaj sahsa na jane kyon mujhe apna ye akelapan kuch anubhaw sa hone laga hai aisa kyon hua kya sirf isliye ki sab or sannata hai aur meri ankhon mein neend nahin hai? nahin kamal, ye baat nahin hai mere hirdai mein aaj sahsa ek nai si anubhuti uth khaDi hui hai jo bilkul dhundhli aur aspasht si hai main anubhaw karta hoon ki mainne aaj jo kuch dekha hai usmen wichitrata zara bhi nahin hai mainne jo kuch aaj dekha hai use yadi main yahan likhunga to ya to tum mera mazak uDane lagoge athwa mere sambandh mein bilkul bhrant si dharana bana loge magar bhai, main kahta hun—main tumse anurodh karta hoon ki tum in donon mein se ek bhi baat na karna meri is chitthi ko paDh jana, aur agar ho sake to usi waqt bhula dena bus aur kuch nahin
han, to suno baat hai to kuch bhi nahin, magar phir bhi suno aaj duphar ke waqt badal zara chhant gaye the aur suraj nikal aaya tha jaise widhata ne is hari bhari ghati ko dho dhokar dhoop mein sukhane ke liye bichha diya ho duphar ke bhojan ke baad apni is chhoti si kothi ke khule sahn mein dhire dhire chahl qadmi karne laga sahn ke phatak ke samne hi swachchh jal ka ek chhota sa jharna bah raha hai us upar ke anghaD lakDi ka ek itna sundar pul hai ki use dekhte hi kalar box lekar uska chitr banane ki ichha hoti hai main dhire dhire ek bar is pul tak jata tha aur uske baad kothi ke baramde tak wapas laut aata tha
ek bar ke chakkar mein jab main pul ke nikat pahuncha to main chaunk paDa mainne dekha, wahan kisi bhadr kul ki ek naujawan laDki khaDi thi, akeli uska dhyan meri or nahin tha jharne ke pani ki madhur dhwani ne mere chalne ki awaz ko apne bhitar chhipa liya tha, isse mere bahut nikat pahunch jane par bhi wo ye na jaan saki ki uske nikat koi any wekti bhi maujud hai aur mujhe to tum jante hi ho kitna bhula hua sa chalta hoon mujhe tab tak us laDki ki upasthiti ka gyan nahin hua jab tak main uske bilkul nikat pahunch nahin gaya
main chaunka aur udhar usi samay us laDki ki nigah mujh par paDi shayad bilkul hi akasmat wo bhi chaunk gai kshan bhar ke liye sahsa uski aur meri ankhen aapas mein mil gain
bus bhai kamal, baat itni hi hai aur kuch bhi nahin main usi kshan wapas laut paDa tha aur jaan paDta hai wo laDki bhi wahan se chal di thi magar is zara si baat ne na jane kyon mere dil par bahut ajib sa prabhaw Dala hai is baat ko hue ab 6 ghante beet chuke hain aur in 6 ghanton mein chaunki hui hirni ki si we ankhen mere manasik netron ke samne bisiyon bar ghoom gai hain
tum sochte hoge is sabmen koi khas baat zarur hai aur nahin to kam se kam wo laDki koi asadharan sundari to awashy hi hogi, magar wastawikta ye nahin hai us laDki ke chehre mein asadharanta zara bhi nahin thi lamba qad, mamuli chehra, gehuna rang aur bhi koi baat usmen aisi nahin thi jise asadharan kaha ja sake apne nagar mein hum log is kanya se atyadhik roop saundarya wali bisiyon yuwatiyon ko roz dekhte hain meri parichit kumariyon mein bhi kitni hi saundarya ki drishti se usse kahin baDh chaDhkar hain yahan gulmarg mein bhi usse bahut adhik sundariyon ko mainne kafi baDi sankhya mein dekha hai phir bhee! kuch samajh mein nahin aata ki is phir bhee ka karan kya hai
aj itna hi
tumhara
s०
(4)
gulmarg
16 shrawan
prata 8 baje
kamal,
neend se uthte hi sabse pahle meri nigah raat ke patr par gai hai raat main kya khuraphat si likh gaya dil mein aata hai wo patr phaD Dalun
ji kuch bhari sa hai kuch likhne ki bhi ichha nahin hoti aur is tarah nishchesht bhaw se yahan chupchap paDe rahna to aaj mujhe sahy bhi nahin ho sakta tum jante ho upar ki do lainen likhne mein mainne kitna samay lagaya hai? pure 22 minat! is samay dusra patr likh sakna mere liye asambhau hai chalo ab kahin awaragardi karne jaunga!
sanya 6 baje
mera ji is samay bahut prasann hai meri tangen, mera sampurn sharir bilkul thaki hui haalat mein hai parantu ji chahta hai ki main is samay bhi nachun, kudun aur idhar udhar dauDta phirun mere hirdai mein is samay utsah ka andhaD sa chal raha hai, mujhe malum hai ki uski pratikriya bhi zarur hogi apne ji ke is byarth utsah ko bahkane ka mujhe isse baDhkar aur koi upay nahin mila ki subah ka patr pura karne baith jaun
sanjh ho i hai aaj ka sara din mainne sair sapate mein kata hai thoDi hi der pahle ghar wapas aaya hoon tumhari chitthi beech mein chhoDkar main ek mazbut ghoDe par sair ke liye nikal gaya tha yahan ke sabhi marg mere jane pahchane hain, isse koi margadarshak bhi mainne apne sath nahin liya tha mere niwas sthan se qarib 8 meel ki duri par ek baDa pahaDi jharna hai is jharne ko yahan nigli nala kahte hain main aaj isi nigli nale tak gaya tha
khoob teDhi meDhi rah hai kahin pahaDon ke chakkar hain, kahin ghas se maDhe maidan, kahin unchai ninai, kahin penchdar moD aur kahin ghane jangal rasta kya hai, ubaD khabaD si ek pagDanDi hai par mainne apna ghoDa khoob nishchinti ke sath dauDaya upar asankhy pakshiyon ka madhur kalraw tha rah ke donon or phool pattiyan theen hawa mein sugandh thi asman mein suraj badalon ke sath ankh michauli khel raha tha kabhi sardi baDh jati thi aur kabhi halki halki dhoop nikal aati thi sheeghr hi main nigli nale par pahuncha jharne ke donon or ghana jangal hai beech mein baDi baDi chattanen paDi hain ek ek chattan saikDon hazaron tan ki hogi jharne ka swachchh jal in bhimakay chattanon se takrakar shor machata hai, phisalta hai aur phir uchhal uchhalkar inhen gila karta hai jharne ki shitalta, jhag, safedi aur shor—ye sab nirantar bane rahte hain sada taze, sadaiw utsahpurn
ghoDe ko ghas charne ke liye khula chhoDkar main do teen ghanton tak jharne ki chattanon par swachchhandtapurwak kudta phandta raha apne camere se is jharne ke mainne anek photo bhi liye khaya, piya aur uske baad wapas laut chala
wapsi mein mainne apne ghoDe ko sarpat nahin dauDaya rah ke drishyon ne mera sampurn dhyan apni or akarshait kar liya tha, at ghoDe par mainne kisi tarah ka shasan nahin kiya wo azadi ke sath chahe jis chaal se chalta raha sahsa samne ki or se mujhe ek cheekh si sunai di meri tanmayta bhang ho gai mainne dekha samne ke maidan mein ek ghoDa betahasha dauDa chala ja raha hai, aur us par ek istri sawar hai ghoDe ki zeen ko leti hui si dasha mein kaskar pakDe hue wo nari sahayata ke liye bharsak chilla rahi thi usi nigah mein mujhe ye bhi dikhai diya ki pagDanDi par teen chaar any ghuDaswar bhi maujud hain sab ki sab laDkiyan hi we sab asmarthon ka sa bhaw dharan kiye apne kashmiri kuliyon ko wo ghoDa pakaDne ka adesh de rahi theen
ek hi kshan mein mainne apna ghoDa usi or dauDa diya aur sheeghr hi us istri sawar ke nikat ja pahuncha apne ghoDe par se kudkar mainne us ghoDe ki lagam pakaD li
phir wahi ankhen!
main sahsa ghabra sa gaya mujhe ye bhi nahin sujha ki main kya kahkar us kanya ko ashwasan doon magar meri ghabrahat ki or uska dhyan nahin gaya wo swayan hi bahut adhik sanktapann dasha mein jo thi
pahle usi ne mujhe dhanyawad diya malum hota hai usne mujhe pahchana nahin dhanyawad dekar usne shighrata se kaha—baDa natkhat ghoDa hai! main pahle hi kah rahi thi ki main is par sawar na houngi
uski awaz mein abhi tak bhay ki kanpkanpi thi mainne kaha—apne baDi himmat dikhai hai ghoDe ki itni tezi ho jane par bhi aap girin nahin
wo is par laja si gai usne kaha—main ghuDaswari to kya janun suna tha idhar ke ghoDe bahut sidhe hote hain
isi samay uske sath ki any laDkiyon aur ghoDewale kuli bhi wahan aa pahunche ghoDe ki lagam abhi tak mere hathon mein thi aur laDki bhi abhi tak ghoDe ki peeth par hi thi ek kashmiri ne lagam apne hathon mein tham li aur dusre ne zeen ko sambhala wo laDki niche utar i uske sath ki sab laDkiyon ne mujhe dhanyawad diya aur mainne kaha ki ismen dhanyawad ki baat hi kya hai
unhonne mujhse puchha—ap kis jagah thahre hue hain?
mainne apna pata bata diya
mere niwas ka pata sunkar jaise us laDki ne mujhe pahchan liya uske
munh se hathat nikla—oho! parantu usi kshan apne ko purnat sanyat karke usne baDi shanti ke sath kaha—main samajh gai
iske baad do chaar mamuli si aur baten bhi hui aur tab we log nigli nale ki or baDh gaye jate hue we kal pratah ke liye mujhe apne yahan chay ke liye nimantrit bhi karte gaye
us natkhat ghoDe ki ras ab ek kashmiri ke hath mein thi we sab ghoDe ab bahut dhimi chaal se ja rahe the aur wo ghoDa sabse pichhe kar diya gaya tha meri nazar abhi tak usi or thi ki kuch hi door jakar us laDki ne pichhe ki or ghumkar dekha
achanak ek bar punah meri aur uski nazar mil gai
oh, phir wahi nishpap, lajjabhri swachchh ankhen!
bhai kamal, mujhe nahin malum ki we laDkiyan kaun hain sabhi nawayuwatiyan hain mera anuman hai ki unmen se abhi tak kisi ka wiwah nahin hua hai main unmen se kisi ka nam bhi nahin janta, makan ka pata dene ke liye kewal ek purush ka nam hi unhonne mujhe bataya hai main ye nahin janta ki we aapas mein bahnen hain, saheliyan hain, ek sath paDhnewali hain ya rishtedar hain mujhe kuch bhi nahin malum parantu ek baat mainne achchhi tarah dekh li wo ye ki us laDki ke gehune chehre mein asadharanta zara bhi nahin hai uski ankhon mein, palkon ya bhauhon mein aisi koi baat nahin hai jiske sambandh mein kawi log baDi baDi upmayen khoj khojkar diya karte hain phir bhi uski nigah mein kuch hai kya hai—yah main nahin kah sakta; magar kuch hai zarur
bahar andhera ho gaya hai sardi bhi ab anubhaw hone lagi hai, at parnam
abhinn
s०
(5)
gulmarg
17 shrawan
pyare kamal,
aj jakar mujhe tumhara pahla patr mila hai tum sach mano gulmarg ke chhote se bazar ke sainborDon ke atirikt yahi ek pahli cheez hai jise mainne in panch chh dinon mein paDha hai
mera aaj ka din bhi baDe anand se guzra hai subah subah mein un logon ke yahan chay pine gaya tha uske baad hum log ek sath khilanmarg ki sair ke liye nikal gaye yahan ghanton tak us khule maidan mein baithkar tash khela kiye, sair ki, khele kude aur phir wapas laut aaye sab log mere niwas sthan par aaye sham ki chay yahan hi hui aur abhi abhi main unhen unke ghar tak chhoDkar aa raha hoon
mujhe unka parichai bhi mil gaya hai wo laDki apne bhai aur ek chacheri bahan ke sath; kafi din hue yahan i thi uske pita ek sanpann wyapari hain, unka karobar khoob chalta hua hai wo laDki lahore ke ek mahila kaulez mein paDhti hai aur baqi tinon laDkiyan uske class ki hain, uski mitr hain aur usi ke nimantran par yahan i hain uske bhai ka swbhaw bhi baDa madhur hai gulmarg mein uski dosti ki itni adhikta hai ki unki or se chhutkara pa sakna hi uske liye kathin ho jata hai hum log aapas mein khoob hilmil gaye hain mainne un logon ke anek photo bhi liye hain
aj jaldi hi so jane ko ji chahta hai tumhara patr is samay meri ankhon ke samne nahin hai kuch yaad nahin aa raha hai ki tumne usmen koi baat puchhi bhi thi ya nahin chalo, jane do ye to mujhe malum hi hai ki tum koi khas kaam ki baat to poochh hi nahin sakte
ye bhi namumkin nahin ki main kuch aur thahar jaun
snehi
s०
(6)
gulmarg
18 shrawan
kamal,
sanjh Dubne ko hai dinbhar se asman mein badal chhaye hue the is samay musladhar warsha ho rahi hai mere kamre ki sab khiDkiyan band hain kamre mein batti jal rahi hai mere kanon mein ek sangit goonj raha hai—bahut pawitra aur bahut hi madhur is sangit mein shabd nahin kewal swar hain swar bhi kya kewal goonj hai chhat ko teen par warsha paDne ki jo awaz ho rahi hai, wo is gunjamay sangit ka saz hai aur thanDi, gili hawa ki dhu dhu is sangit ki tan ka kaam kar rahi hai
main akela hoon din bhar akela nahin tha, parantu is samay phir main akela hoon wo apne bhai aur chhoti bahan ko sath lekar yahan i thi 6 baje ke qarib uske bhai chay ke ek nimantran par bahar chale gaye wo aur uski bahan yahin hi rah gai photograph dhulkar aa gaye tho un fotoz ki alochana atmalochana hoti rahin aur bhi tarah ki baten huin sham ka andhera jab chaDhne laga to mainne usse anurodh kiya ki wo koi gana sunaye baDi jhijhak ke baad usne ek gana mujhe sunaya oh, wo kitna madhur geet hai main kisi dusre lok mein ja pahuncha mujhe nahin malum ki sangit kab samapt hua han, uske bhai sahab ka aana mujhe zarur yaad hai der ho gai thi, at we log lautne ko hue mainne un logon ko sahn ke phatak se hi wida de di unhen chhoDne ke liye door tak kewal isi liye sath nahin gaya, kyonki mujhe j~nat tha ki uske bhai sahab chupchap chalna pasand nahin karenge aur is samay main na kuch kahna chahta tha, na bolna chahta tha
unhen gaye thoDi hi der hui thi ki zor ki warsha shuru ho gai main tab se isi kamre mein baitha hoon sangit kabhi ka tham gaya, ganewali bhi chali gai, magar uski goonj abhi tak baqi hai—usi tarah jiwit roop mein baqi hai sangit ki wo anirwachniy amurt goonj warsha ki awaz ka prakritik saz pakar mano aur bhi adhik bhedini ban gai hai
kamal, tum mere sukh duःkh ke sathi ho apni sabhi anubhutiyan tumse kahkar main apne chitt ka bojh halka kiya karta hoon, magar ye ek anubhuti kuch aisi hai ki ise main theek taur se wyakt bhi nahin kar sakta mere ji mein andhi si chal rahi hai, magar ye andhi bilkul shabd rahit hai, jaise nadi ka wegawan pani andar hi andar se kinare ke kachharon ko kat raha ho
apni ek purani dhundhli si anubhuti mujhe is samay saf taur se samajh mein aa rahi hai hum manushyon ke bahy jiwan aapas mein ek dusre par itne adhik ashrit ho gaye hain ki hum logon ke liye is tarah ka ek din bhi katna sambhaw nahin raha, jabki ek manushya ka kisi bhi dusre manushya se kisi tarah ka wasta na paDe is par bhi main sadaiw anubhaw karta raha hoon ki hum log aapas mein ek dusre se bahut adhik door hain hridyon ka ye parasparik aparichitpan hamare dainik wywahar mein, hamare samany jiwan mein koi badha nahin Dalta phir bhi hamare ji ko, hamare antakarn ko aur shayad hamari antratma ko kabhi ye chah rahti hai ki wo kisi dusre ji ko, kisi dusre antakarn ko apna le yahi cheez, antratma ki yahi chah prem hai, jise wasana ka paridhan pahnakar hum log bahut sheeghr maila kar Dalte hain aaj is sangitamay, thanDe shant aur sundartam watawarn mein main ye anubhaw karne laga hoon ki mere antakarn mein bhi isi tarah ki koi bechaini sahsa uth khaDi hui hai
aj usse meri khoob baten hui adhikansh baten bilkul bematlab ki thi, magar phir bhi we baten atyant madhur aur dil ko sahlane wali thi
ek baat aisi bhi hui jisne mere hirdai ko weg ke sath jhanjhana diya batachit mein usne zara hairani ke sath mujhse puchha—ap akele hi rahte hain?
mainne kaha—han
usne puchha—hamesha isi tarah rahte hain?
mainne kaha—praya hamesha hi
kuch kshan ke baad usne mujhse puchha—subah aapko doodh pilane ka kaam kiske hathon mein hai?
mujhe uska bhola sa sawal bahut hi madhur jaan paDa mainne kaha—jo log meri zarurat ki aur sab chizon ka intizam karte hain, we hi doodh ka intizam karte hain
usne phir puchha—ap subah khate kya hai?
mainne kaha—dudh, toast, makkhan, shahd, owaltin aur thoDe se mewe yoon hi bilkul nishkalank bhaw se usne zara agrah ke swar se kaha—agar main aapke doodh ka intizam karne wali hoti to aapko pata lagta ki subah ke kalewe mein kitna swad aata hai
mera sampurn antakarn jhanjhana utha apne chehre par halki si aur phiki muskurahat le aane ke atirikt main uski is atyant madhur baat ka koi jawab nahin de saka
mujhe malum hai ki usne jo kuch kaha tha, iska koi gahra abhipray kadapi nahin tha sambhwat ghar ke logon ko subah doodh pilane ka intizam usi ke zimme hoga; magar phir bhi mere dimagh ne uski is baat ko itni gahrai ke sath hirdai ke pas pahunchaya ki mera sampurn antakarn bahut hi mithe swron mein dhwanit ho utha
hath thithur rahe hain meri ye chitthi paDhkar tum kahin ubne to nahin lage? theek hai n? ya abhi kuch aur sunne ki ichha hai?
magar nahin, ab aur nahin
tumhara—
s०
(7)
gulmarg
18 shrawan
bhai kamal,
is samay subah ke 8 baje hain mera saman bandhakar taiyar paDa hai sahn mein ek kasa hua ghoDa aur saman ke tatt taiyar khaDe hain main isi waqt niche ke liye rawana hone laga hoon bus tumhein ye patr likhkar main ghoDe par sawar ho jaunga ye bhi puri tarah mumkin hai ki is patr se pahle hi main swayan tumhare pas pahunch jaun
kal mainne irada kiya tha ki kam se kam panch din yahan aur thahrunga un logon se bhi mainne yahi baat kahi thi aaj duphar ko mujhse milne ke liye unhen yahan aana bhi hai, magar aaj subah neend se bahut jaldi jagkar mainne yahi nishchay kiya ki mujhe yahan se chal hi dena chahiye is ashay ki ek chitthi unke nam par bhi Dal raha hoon ki ek apratyashit kary ke liye mujhe is tarah bilkul achanak apne nagar ke liye rawana hona paD raha hai
tum is chitthi ko pakar athwa chauthe din mujhe hi apne samip dekhkar hairan hoge ki baat kya hui kahne ko to main tumhein bhi yahi kah sakta hoon ki adhik din bahar rahne se kaam kaj mein harj hota, isi se chale aana paDa; parantu darasl baat aisi nahin hai baat wastaw mein itni hi hai ki apni shiksha aur apni paristhitiyon ke sanskaron se badhit hokar hi main aaj yahan se chal diya hoon
kuch samjhe? nahin, mujhe yaqin hai ki kamal ka mota dimagh meri is muhin baat ko zara bhi nahin samjha hoga
dekho na bhai kamal, baat ye hai ki pashchim ki shiksha ne, pashchim ke riti riwazon ne hamein ye sikhaya hai ki hum apne dil ko, apne antakarn ko aur apnepan ko bahut mahnga bana lena chahiye hum sabse mile julen, sabse mithi mithi baten karen, sabse fayda uthayen, ichha ho aur sambhaw ho, to logon se sabhi tarah ke winod aur aamod bhi prapt karen; parantu apna antakarn apna hirdai apne hi pas rakhen kyonki wo hamari cheez hai aur kisi ki bhi nahin apne dil ko bilkul nissang banane ki bhi awashyakta nahin hai wo to aatm winod ka sarwashreshth sadhan hai tum sabse milo julo, hansakar, khulkar, mithi mithi baten karo magar kisi ke ban mat jao, apna sab kuch kisi ko arpit mat kar do wyaktitw ko bhawukta ki zahrili gas se murchhit na hone do
mainne ye anubhaw kiya hai kamal ki mere hirdai mein bhawukta baqi hai, wo bhi kafi matra mein mera hirdai moh mein paD gaya hai purab ke prashikshait manushyon ke saman wo chahta hai ki wo jiski or jhuka hai, usi ka bankar rahe; magar mere dimagh ki shiksha ne mere ji ko ye chetawni di hai ki prem ka uddeshy sarwasw samarpan ki bhawna nahin, apitu atmawinod matr hai parantu mujhe bhay hai ki is khas mamle mein main apne mastishk ke adesh ka palan shayad hi kar sakun isse mainne nishchay kiya hai ki main apne ko is kathin pariksha mein na Dalun aur yahan se chal doon dekhun, is sabka parinam kya hota hai dekhun, gulmarg ko bhula sakta hoon ya nahin ab to aa hi raha hoon be fir raho main nae yug ki upaj hoon
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।