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भोर से पहले

bhor se pahle

अमृत राय

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    सवेरे का वक़्त है। गंगा-स्नान के प्रेमी अकेले और दुकेले चार-चार छ-छ के गुच्छों में गंगा-तट से लौटकर दशाश्वमेध के तरकारी वालों और मेवाफ़रोशों से उलझ रहे हैं, मोल-तोल कर रहे हैं। दुकानें सब दुलहिनों की तरह सजी-बजी खड़ी हैं। कहीं चायवाला चाय के शौक़ीनों को गाढ़े कत्थई रंग की चाय पिला रहा है, कहीं पानवाला चाँदी का वरक़ लगा बीड़ा और ख़ुश्बूदार ज़र्दा किसी ग्राहक को पकड़ा रहा है। एक जगह बँगला अख़बारों वाला ‘युगांतर’ और ‘आनंदबाज़ार’ की हाँक लगा रहा है। सब के चेहरे पर, सब के कपड़ों में, सब की बोली में अजब एक ताज़गी है। सुनहली धूप फैल गर्इ है, जो इस बसंती मौसम में एक ख़ास रंग भर रही है, जो कि तंदुरुस्ती का रंग है, जिसके सी.एन.डे का अंग्रेज़ी दवाख़ाना और ढेरों आयुर्वेद औषधालय इस समय इंदुभूषण को अच्छे नहीं मालूम पड़ते। लेकिन थोड़ा ही थम कर विचार करने पर इंदुभूषण को यह समझते देर नहीं लगती कि इस वक़्त फ़िज़ा की जो रंगत उसे दिखाई दे रही है, वह हर वक़्त नहीं रहती, वह तो घंटे दो घंटे की बहार है, और उसके बाद तो फिर जहाँ ज़िंदगी की ओर सभी खटर-पटर है, वहाँ हारी-बीमारी भी है ही।

    इंदुभूषण को बग़ल से एक आवाज़ सुनाई दी—‘कहिए महाशय जी!’

    इंदुभूषण को इसका ज़रा भी गुमान नहीं था कि यह वाक्य उसी पर फेंका गया है, लिहाज़ा वह अपने विचारों के प्रवाह में अपनी उसी धीमी चाल से आगे, घाट की ओर बढ़ता रहा।

    इंदुभूषण को अपनी ओर मुख़ातिब होते देखकर वह काफ़ी गठी हुई-सी, मगर अब झूली-झूली मांसपेशियों का, अधेड़, ठिगना-सा, गंदुमी रंग का आदमी एक हाथ में कुछ साग और बैंगन वग़ैरह, एक छोटे झोले में, और दूसरे हाथ में एक डेढ़ पाँव-आध सेर का रोहू का बच्चा लिए सामने खड़ा हुआ—‘बोलिए न, कैसा है आप? हम आपको आवाज़ दिया, आप सुना नहीं!’

    इंदुभूषण ने उसे पहचाना नहीं। उस व्यक्ति की हुलिया से, ख़ासकर उसकी बाईं आँख की फुल्ली से, इन्द्रभूषण को यह चेहरा कुछ पहचाना हुआ-सा तो लगा, बस इतना कि हाँ, यह शक्ल कहीं देखी है। मगर कब और कहाँ, यह बिलकुल याद नहीं पड़ता था। इसी विस्मृति की रेखा को पढ़ कर उस व्यक्ति ने इंदुभूषण के कुछ भी कहने के पहले, कुछ मुस्कुराकर अपनी झेंप मिटाते हुए कहा—‘आप हमको पहचाना नहीं, हम आपका पड़ोसी, आपका टोला में हमारा भी बाड़ी...।’

    अब इंदुभूषण को एक-एक करके सभी बातें याद गईं—‘अभी उस रोज़ यही बंगाली बाबू तो उस छोर पर वाले मकान में आए हैं, अभी सात दिन भी तो हुए होंगे, यह और इनकी तीन लड़कियाँ...’

    ‘याद गया बंगाली बाबू। ज़रा देर लगी, माफ़ कीजिएगा, पहले कभी भेंट नहीं हुई थी, इसी से। कहिए, घर में अच्छी तरह जम तो गए आप? घर अच्छा है न? बाहर से तो अच्छा लगता है।’

    ‘ऐक रक़म भालो बाड़ी...हम लोग का परिवार भारुम नेहिं हाय।’

    ‘आपके साथ बस आपकी तीन कन्याएँ हैं शायद?’

    उत्तर में उस व्यक्ति ने अजीब ढंग से मुस्कुरा दिया और अपने अग़ल-बग़ल देख कर कहा—‘हाँ मशाइ, और कोई नहीं, दूसरा नहीं...मशाइ, आपका नाम?’

    ‘इंदुभूषण। और आपका?’

    ‘बेनीमाधव बोस।’

    ‘फिर ज़रा देर के बाद बंगाली बाबू बोले—हम सोचा, आप हमारा पड़ोसी, आपसे हमारा आलाप नहीं होने से नहीं चलेगा...आप बुरा तो नहीं मान गिया?’

    दुबला-पतला गोरा-सा इंदु अभी तरुणाई की उस मंज़िल में है, जब हर नौजवान के दिल में किसी तरुणी के निकट परिचय की भूख रहती है, जब उसे ऐसे किसी साथी की ज़रूरत होती है, जिसके साथ वह अपनी नई उम्र की उस अजीब, तंग करने वाली कसमसाहट को बाँट सके। शायद इसीलिए बेनीमाधव से मिल कर उसे मन-ही-मन कुछ गुदगुदी-सी महसूस हुई। आते-जाते उसने दो तीन बार उन लड़कियों को खिड़की में खड़े देखा था।

    इतवार का दिन था, सबेरे का वक़्त। वह घर के सामने सहन में डेक-चेयर डाल कर लेटा एक कहानी की किताब पढ़ रहा था।

    अभी-अभी उसने एक कहानी ख़त्म की थी और किताब बंद करके वैसे ही लेटा सूनी निगाहों से सामने की ओर देख रहा था। कहानी की नायिका ने संखिया खाकर आत्मघात कर लिया था और उसकी आँख के सामने उसी का उदास मुर्झाया हुआ चेहरा घूम रहा था, और कान में उसी के आख़िरी शब्द बज रहे थे—मैं जी नहीं सकी, इसलिए मर रही हूँ।

    इंदु का नौजवान मन इस बात को समझ ही नहीं पा रहा था उस लड़की ने सखिया क्यों खाई? सखिया खाना ही क्या उसके लिए अंतिम राह बची थी? क्यों मरी वह? उसने क्यों नहीं कहा—‘मैं ऐसे समाज को लात मारती हूँ...साहस? संखिया खाने का साहस था?’

    उसका मन नायिका के आत्मघात पर विफल आक्रोश से भर रहा था, विफल आक्रोश इसलिए कि ख़ुद उसके मन में यह कहीं पर यह चोर था कि समाज को लात मारने की बात कहना कितना आसान है, लात मारना उतना आसान नहीं है।

    अभी वह इसी कशमकश में था कि बेनीमाधव बाबू फाटक में दाख़िल हुए, वह धोती, और मैली-सी, पूरी बाँह की क़मीज़ पहने, जो कभी सफ़ेद रही होगी। किसी नए घर में पहले-पहल दाख़िल होते समय जो झिझक आदमी को होती है, वही झिझक बेनीमाधव बाबू को भी हो रही थी। फाटक खोलकर वह अंदर दाख़िल हुए थे और आगे बढ़ने के पहले अपने इर्द-गिर्द चौकन्ने खरहे की तरह देख रहे थे, कि इंदुभूषण ने उठकर उनका स्वागत किया—‘आइए बंगाली बाबू, आज इधर कैसे भूल पड़े?’

    बंगाली बाबू ने वहीं से कहा—धन्यवाद...धन्यवाद...आप ठीक तो है?

    इंदु का स्वस्थ ताज़ा चेहरा बेनीमाधव बाबू के इस निरे शिष्टाचार वाले सवाल का सबसे अच्छा जवाब था। उन्हें कुर्सी देते हुए इंदु ने कहा—जी मैं बिलकुल ठीक हूँ, आप अलबत्ता कुछ कमज़ोर दिखाई दे रहे हैं।

    बेनीमाधव बाबू ने कहा—आपनी जानेन इंदु बाबू, आप तो जानता हमारा ज़िंदगी...

    जो बात हमारी सहानुभूति उभारने के लिए ही कही गर्इ हो, उसे सुनकर सहानुभूति के दो शब्द कहना मुश्किल होता है। इंदु ने कहा—‘सचमुच बड़ी कठिन ज़िंदगी है आपकी।...आपकी बड़ी लड़की की उम्र क्या होगी बंगाली बाबू?’ बेनीमाधव इस सावल का आशय कुछ ख़ास नहीं समझे, लेकिन इतना ज़रूर उनके मन में कौंधे की तरह चमक गया कि इस आदमी से आत्मीयता बढ़ाने के लिए इस मौक़े का इस्तेमाल होना चाहिए।

    बेनीमाधव बाबू ने अग़ल-बग़ल देखकर दबे हुए स्वर में कहा, ‘जैसे कोई गोपनीय बात कह रहे हों—जिस लड़की की बात आप कह रहा है इंदु बाबू उसका उमिर बीस साल है। उसका नाम माधवी है। उससे छोटा जो लड़की है, उसका नाम पुतुल है। उसका उमिर अठारह साल है, और हाशी...वो तो अभी बच्चा है’—कहकर वह झेंप मिटाने-जैसी हँसी हँसा, एक विचित्र खोखली हँसी।

    इंदु को इतने तफ़्सीली जवाब की उम्मीद थी। वह तो यूँ ही उसने सहानुभूतिवश पूछ लिया था, यह समझकर कि शायद सयानी लड़की की शादी की चिंता में बंगाली बाबू घुले जा रहे हैं। और बंगाली बाबू थे कि वंश-वृक्ष ही खोलकर बैठ गए। इंदु को उस चीज़ से कुछ उलहन हुई मगर उसने कुछ कहा नहीं। थोड़ी देर चुप बैठा उन्हें देखता रहा, फिर बोला—अच्छा बंगाली बाबू, अब आज्ञा दीजिए, मुझे एक जगह जाना है।

    और कुर्सी पीछे को सरकाई।

    इंदु को उठता देखकर अब बंगाली बाबू को उलझन हुई। अभी तो बात का सिलसिला ठीक से जम भी नहीं पाया और यह आदमी उठकर चला जा रहा है! काम की बात अभी हुई ही नहीं। और जैसे शब्द मछली के काँटे की तरह गले में फँस रहे हों उनके मुँह तक कर रुक जाती थी। अपनी लड़कियों की चर्चा निकालने में भी उनका मक़सद यही था कि यह जो मछली का काँटा उनके गले में फँस रहा था, उसे पानी के सहारे नीचे उतार दें। इतने में ही इंदु कुर्सी से उठ गया। उसकी देखा-देखी बंगाली बाबू भी कुर्सी से उठ तो गए मगर इंदु की नज़र बचाते हुए दूसरी ही किसी तरफ़ देखते खड़े रहे। इंदु समझ गया कि बंगाली बाबू मुझसे कुछ कहना चाहते हैं जो कह नहीं पा रहे हैं।

    इंदु ने उन्हें सहारा देने की गरज़ से कहा—‘मेरे योग्य और कोई सेवा, बंगाली बाबू?’

    डूबते को तिनके का सहारा मिला। कभी-कभी बात को बग़ैर घुमाए-फिराए सीधे-साधे कह देना ही कुल मिलाकर आसान पड़ता है, कुछ यही सोचकर बंगाली बाबू ने अग़ल-बग़ल देखकर कुछ सहमे से स्वर में कहा—‘आप हमको दस रुपिया देने सकेगा? आपके रुपया हम एक सप्ताह किंवा पनेरो में दिन में फेरोत दे देगा, आज हमारा भीषण तागिद...।’

    इंदु ने कुछ कहा नहीं, अंदर से दस रुपए का एक नोट लाकर बंगाली बाबू के हाथ में दे दिया और नमस्ते करके फ़ौरन अंदर चला गया। उसको इस ख़याल से ही घुटन होती थी कि यह आदमी जो गरज़ का मारा मेरे पास आया है, इस दस रुपिट्टी को पाकर मेरे सामने खीस निपोरेगा!

    लेकिन अंदर जाकर इंदु तत्काल फिर बाहर आया। वह चलते-चलते बंगाली बाबू से कहना चाहता था कि वे अपनी लड़कियों को इस बात के लिए रोक दें कि खिड़की में बहुत खड़ी रहा करें क्योंकि शहरों में तो, फिर आप जानते ही हैं...।

    उसके बाहर आने-आने तक बेनीमाधव बाबू फाटक के बाहर हो चुके थे। उसने उन्हें पुकारना ठीक नहीं समझा। सोचा, फिर कभी कह दूँगा।

    कई दिन बीत गए।

    गोधूलि का समय था। इंदु कालेज से लौट रहा था। आज उसे लाइब्रेरी में बहुत देर लग गई थी।

    उसका घर पक्की, डामर की सड़क से कोई डेढ़ सौ गज़ भीतर को हटकर है। जहाँ डामर की सड़क छोड़कर ऊबड़-खाबड़ कच्चे रास्ते में दाख़िल होते हैं ठीक वहीं बेनीमाधव वाला पीला मकान है। पुतुल दरवाज़े पर ही खड़ी थी। पुतुल ने उसे आवाज़ दी–‘इंदु बाबू!’

    इंदु कुछ झिझकते हुए उसके पास गया। पुतुल ने हलके से मुस्कुराकर कहा—‘इंदु बाबू, आपनी कखनो आमादेर एखाने आसेन ना! (आप कभी हमारे घर नहीं आते!)

    इंदु ने अपने मन में कहा, लगता है बंगाली बाबू ने मेरा पूरा परिचय अपने घरवालों को दे दिया है। यह बात उसे अच्छी भी लगी।

    इंदु ने कहा—‘जी, मौक़े की बात होती है। वैसे मैं आने की कई दिन से सोच रहा था। और मुस्कुराया।’

    इंदु की मुस्कुराहट से पुतुल के दिल में एक धक्का-सा लगा। बोली—‘आइए।’

    इंदु ने कहा—‘अभी नहीं। घर पर लोग बाट देख रहे होंगे। हो सका तो एक डेढ़ घंटे बाद आऊँगा।’

    पुतुल ने उसी अंदाज़ से कहा—‘ज़रूर आइएगा।’ और फिर मुस्कराई।

    इंदु वहाँ से चला तो उसके पैर हल्के पड़ रहे थे।

    घर में दाख़िल होते ही एक छोटा-सा सायबान था, जो बिलकुल अँधेरा पड़ा था। उसमें एक टुटही कुर्सी एक कोने में पड़ी थी। वहाँ बेनीमाधव बाबू को पाकर इंदु को और आगे बढ़ने में झिझक मालूम हुई। सायबान के बाद ही एक बहुत सीला हुआ-सा आँगन था, जिसमें एक अंधी-सी लालटेन एक तरफ़ को रखी हुई थी, जिसमें लाल-लाल रोशनी निकल रही थी। लोहे का एक जँगला आँगन की छत थी। एक अलगनी पर तीन-चार कपड़े सूख रहे थे, एक लाल पाट की साड़ी, दो पेटीकोट, दो-तीन बॉडिस। इंदु की हिम्मत और आगे बढ़ने की नहीं हुई। उसने आँगन में पैर रखते ही आवाज़ दी, ‘बंगाली बाबू हैं?’

    माधवी नीचे ही थी। इंदु की आवाज़ सुनी। बोली—‘आइए इंदु बाबू!’

    इंदु ने पूछा—‘बेनीमाधव बाबू नहीं हैं?’

    माधवी ने कहा—‘कहीं गए हैं। अभी लौट आएँगे। आप ऊपर चलिए।’ और पुतुल को आवाज़ दी—‘पुतुल, तोमार इंदु बाबू एसेचेन।’

    आँगन की बातचीत सुनकर पुतुल ख़ुद ही नीचे रही थी। बोली—‘चलिए इंदु बाबू।’ इंदु ने मुस्कुराहट से उसका जवाब दिया। फिर कहा—‘अच्छा, मैं फिर किसी रोज़ आऊँगा।’ और चलने को हुआ। लेकिन पुतुल ने आगे बढ़कर उसका हाथ पकड़ लिया और उसे अपनी तरफ़ खींचते हुए बोली—‘आप ऊपर चलिए ना इंदु बाबू, बाबा आते होंगे।‘

    इंदु के पैर अब भी आगे नहीं बढ़े। पुतुल ने रूठने के अंदाज़ में होंठ निकालते हुए कहा—‘आप इतना डरते क्यों हैं इंदु बाबू! आप तो पुरुष मानुष हाय...और हम...तो लड़की। आप क्यों डरता?’...और एक प्रकार से खींचते हुए ऊपर ले चली। बाई बग़ल से ही ज़ीना था, सँकरा-सा। ऊपर जाकर इंदु ने देखा कि अग़ल-बग़ल दो कोठरियाँ हैं। दोनों में एक-एक खाट पड़ी है और दोनों में एक-एक ढिबरी जल रही है। पुतुल ने कोठरी में दाख़िल होते ही चटपट बिस्तर की चादर की शल दूर की और इंदु की ओर ताकते हुए कहा—‘आइए इंदु बाबू। हियाँ डरने का कोई बात नहीं है। आप हियाँ बैठिए, बाबा अभी आएगा। थोड़ा ओपेक्खा करने होगा।’

    इंदु का मन बार-बार हो रहा था कि उतर कर भाग जाए, लेकिन पैर जैसे बँध-से गए थे। जाकर पुतुल के बिस्तर पर बैठ गया। उसका दिल ज़ोरों से धड़क रहा था। पुतुल ने ढिबरी स्टूल पर से हटा कर ताक़ पर रख दी और स्टूल वहीं पास ही खींचकर बैठ गई। एक-डेढ़ मिनट तक पूर्ण निस्तब्धता रही। फिर उसे भंग किया पुतुल ने—‘इंदु बाबू, आप बहुत बुरे हैं।’ और मुस्कुराई। इंदु का दिल ज़ोर से धड़कने लगा। उसने कोई जवाब नहीं दिया और वैसे ही, सिकुड़ा–सिमटा बैठा रहा और फिर चंद लम्हों के लिए ख़ामोशी छा गई।

    ‘आपका ब्याह हुआ है इंदु बाबू?’

    इस बेतुके सवाल का संदर्भ उसकी समझ में नहीं आया, लेकिन इसका जवाब आसान था, शायद इसी ख़याल से उसने कहा—‘नहीं।’

    पुतुल ने उसके जवाब में कहा—‘च् च् च् च् च्’, और मुस्कुराई।

    इंदु ने अपने मन में कहा—‘ज़रा इसे देखो तो कैसे कर रही है! मुझे निरा मिट्टी का लोंदा समझ लिया है इसने क्या! कैसी अजीब लड़की है!’

    और एक बार बहुत ज़ोर से उसका जी हुआ कि इस लड़की को, जो अभी इतनी जवान है और जो सिर्फ़ उसे सताने के लिए उसकी बग़ल में बैठकर इस तरह मुस्कुरा रही है, उठा कर इसी बिस्तरे पर पटक दे और...और उसे किसी जगह पर ऐसा हथोककर काट ले कि ख़ून निकल आए, मगर उसने ज़ब्त किया। अब तक सारी परिस्थिति कुछ-कुछ उसकी पकड़ में आने लगी थी और एक अजीब खिन्नता उसके मन में भर रही थी।

    इसी तरह कोई दस मिनट गुज़र गए। तब तक बग़ल की कोठरी से किसी पुरुष की भनक इंदु के कान में पड़ी। उसने पुतुल से कहा—‘देखिए, बेनीमाधव बाबू शायद गए।’

    पुतुल ने इस बार एक भिन्न प्रकार की हँसी के साथ कहा—‘नहीं इंदु बाबू, वह तो माधवी का...दोस्त है—नलिन।’

    एकाएक इंदु बिस्तर से उठ खड़ा हुआ। पुतुल भी उठ खड़ी हुई। उसके चेहरे पर जाने कैसी घबराहट लिखी हुई थी।

    ‘जाइएगा?...चले जाइएगा? अभी से क्यों? आप बाबा को दस टाका दिया था न? नहीं...नहीं...नहीं’, पुतुल ने मना करने के अंदाज़ में कहा और अपने जलते हुए होंठ इंदु के होंठ पर रख दिए।

    यह सब ऐसा बिजली की तरह हुआ कि इंदु एकदम बौखला गया, मगर तो भी उसे लगा कि जैसे किसी ने उसके होठों पर अंगारा रख दिया हो। ग़ुस्से से उनकी आँखें लाल हो गईं और नथने फड़कने लगे। उसने झटका देकर पुतुल को अलग किया और मज़बूत हाथों से उसके कन्धों को पकड़ कर पूरी ताक़त से उन्हें झकझोरते हुए भारी करख़्त आवाज़ में चिल्लाकर कहा—‘हाँ दिए थे...दिए थे...इसी के लिए दिए थे!...तुम उसे चुकता करोगी...तुम उसे चुकता करोगी…तुम उसे चुकता करोगी...’ कहते हुए उसने ज़ोर से उसे धक्का दिया और पुतुल जाकर सीधी खाट की पाटी पर गिरी। इंदु ने ढिबरी लेकर ज़मीन पर पटक दी और कोठरी के किवाड़ों को झपाटे से बंद करता हुआ तेज़ी से कमरे के बाहर हो गया।

    झपाटे से दरवाज़े का बंद होना सुनकर माधवी अपनी कोठरी से निकलकर आई। इंदु चला जा रहा था और पुतुल पाटी से लगी–लगी सिसक रही थी। उसके शरीर को भी चोट लगी थी, लेकिन उससे कहीं ज़्यादा और असल चोट लगी थी उसके मन को और वह चोट सिर्फ़ इतनी नहीं थी कि इंदु ने उसका अपमान किया है।

    माधवी ने पुतुल का हाथ पकड़ कर उठाने की कोशिश करते हुए कहा—‘पागल हो गई है पुतुल? वह चला गया। जानवर! उजड्डु गँवार!’

    पुतुल को माधवी के संवेदना के ये शब्द ज़हर जैसे लगे। उसने आँखें उठा कर एक मिनट, अपलक देखा और आदेश के स्वर में कहा—‘दीदी तुम यहाँ से चली जाओ...’

    माधवी ने पुतुल की रोती हुई मगर कठोर आँखें देखीं और ज़रा देर को ठिठक गई। फिर कहा—‘कैसा अजीब पागलपन है...!’ और इंदु के लिए एक बड़े कुत्सित शब्द का प्रयोग किया।

    पुतुल की आँखों में सान पर चढ़ी हुई कटार की-सी चमक आई और उसे नागिन की तरह फुफकारकर, किंचित् चढ़े हुए स्वर में कहा—‘दीदी तुम इसी वक़्त बाहर चली जाओ!’

    माधवी ‘ज़रा इस बचपन को तो देखो, हुँ:’ बड़बड़ाती हुई बाहर निकल गई और पुतुल वैसे ही पाटी पकड़े रोती रही।

    कई दिन गुज़र गए। माधवी पुतुल को पूरे वक़्त उदास और खिन्न देखकर बहुत परेशान रहती थी। बात यह थी कि माधवी से भी ज़्यादा पुतुल के ही सहारे इस मकान की ईंट टिकी हुई थीं और अब वही पुतुल आने-जाने वालों की तरफ़ से उदासीन हो रही थी। माधवी को यह बात बुरी लगती थी और उसने एक-दो बार पुतुल को समझाने की भी कोशिश की, लेकिन पुतुल को तो जैसे माधवी की शक्ल से चिढ़ हो गई थी। हर बार जब माधवी उससे कुछ कहने की कोशिश करती, तब दोनों में अच्छी-ख़ासी जंग हो जाती। यहाँ तक कि एक रोज़ माधवी ने बड़े कुत्सित ढंग से कहा—‘हाँ-हाँ, बहुत देखे हैं मैंने तुम्हारे इंदु बाबू जैसे अनेक देखेचि, नपुसंक, बड़ा गेयान (ज्ञान) देने चला है...ढोंगी!’

    इसके जवाब में पुतुल ने ऐसी भयानक आँखों से माधवी को देखा कि वह एक बार डर गई। पुतुल ने दाँत पीस कर कहा—‘चुप, माधवी!’

    माधवी को पुतुल का स्वर साँप की फुफकार-जैसा सुन पड़ा।

    माधवी का दिल भी कोई कड़वी, ज़हरीले काँटे की तरह चुभने वाली बात कहने के लिए तिलमिला रहा था। उसने बड़े सादे अंदाज़ में, लेकिन अपनी बात में ज़हर भर कर कहा—‘अच्छा, तो अब आप सती सावित्री बनेंगी और आपके सत्यवान?...ओहि उनि...वह...ज़रूर ज़रूर...और बुरा भी क्या है!’ और ही-ही करके हँसी। उस हँसी से पुतुल के रोंगटे खड़े हो गए और वह रो पड़ी। माधवी ने एकदम मर्म पर तीर मारा था। पुतुल रोती-रोती ही भाग कर अपनी कोठरी में गई और उसे अंदर से बंद कर अपने बिस्तर पर औंधे ही गिर पड़ी, और वैसे ही पड़ी जाने कब तक उस मैली चादर को भिगोती रही। माधवी ने विद्रूप से जिस ‘उनि’ शब्द का प्रयोग इंदु बाबू के लिए किया था, वही ‘उनि’ असंख्य आकाश जुगनुओं की तरह उसके मन के आकाश में उड़ रहा था, जल रहा था और बुझ रहा था और मन को अच्छा लग रहा था पर उससे रोशनी बिलकुल नहीं हो रही थी, उतनी भी नहीं, जितनी की ताक में रखी हुई शीशे वाली ढिबरी से, जिसे इंदु ने पटक कर फोड़ दिया था और जिसे सबेरा होते ही माधवी ने फिर मँगाकर रख दिया था। निराशा की उस काली घटा में जब जुगनू चमकते थे, तो जुही के फूलों की तरह सुंदर दीख पड़ते थे, लेकिन फिर अँधेरा और भी घना हो जाता था। पुतुल ने उठकर ढिबरी को भी बुझा दिया और फिर पड़ रही। वह जितना ही इसके बारे में सोचती थी, उतना ही उसे अपनी ज़िंदगी एक दलदल के मानिंद नज़र आती थी। सन् तैंतालिस के उस बड़े अकाल के बाद उसके माँ-बाप, दोनों नहीं रहे थे और रिश्ते के इन मामा ने आगे आकर उसकी सरपरस्ती इख़्तियार की थी, तभी से वह दलदल शुरू हुआ था और इस ढाई साल में लगातार गहरा ही होता गया था और अब? अब क्या?...अब कुछ नहीं हो सकता...और अनजान में ही एक सर्द आह उसके मुँह से निकल गई।

    ‘मेरे ज़ोर लगाने से क्या होगा?...मैं ज़ोर लगा भी सकूँगी–कहाँ है मेरे पास ज़ोर?...नहीं, नहीं, नहीं, कुछ नहीं है। यह घर ही भुतहा है, ख़ून चूस लेता है, मेरा कुछ नहीं हो सकता, मुझमें अब कुछ नहीं रहा। मुझे अब कोई कुएँ से नहीं निकाल सकता...’ यह ख़याल आते ही उसे इंदु पर बेहद ग़ुस्सा आया जिसने उसके अंदर यह ज़हर का बीज बो कर उसके मन की शांति भी छीन ली थी। उसके आने के पहले, ज़िंदगी जैसी भी थी, बग़ैर किसी बखेड़े के चल तो रही थी। अब तो उसे अपने छुटकारे का ही कोई रास्ता दिखाई देता था ही माधवी की तरह इस घटना को अपने ऊपर से वैसे झाड़ ही पाती थी कि जैसे बतख अपने पंखों पर से पानी को झाड़ देती है। दो रोज़ उसने परिस्थिति से पूरा असहयोग किया, लेकिन फिर घर के वातावरण ने, घर की असली, कुआँ खोद और पानी पी वाली हालत ने, ख़ुद उसके ढाई साल के जीवन के दैनन्दिनी अभ्यास ने, जो कि ख़ून का हिस्सा बन जाता है, उसके ऊपर जीत पाई और वह फिर धीरे-धीरे अपनी पुरानी ज़िंदगी पर लौट आई। उसके अंदर कुछ कड़ियाँ टूटी ज़रूर थीं लेकिन नतीजे पर तत्काल उनका कुछ ख़ास असर नहीं था। पुतुल के मन पर यह चीज़ साँप की तरह कुँडली मारकर बैठ गई थी कि वह दलदल में फँस चुकी है और अब उससे बाहर आने के लिए जितना ही हाथ-पैर मारेगी उतना ही उसके भीतर और समा जाएगी। ज़ाहिरा वह माधवी से पूरे पेचोताब से लड़ रही थी लेकिन असलियत में वह अंदर-ही-अंदर उसके आगे हथियार डालती जा रही थी।

    पुतुल के पास से लौट कर उस रात इंदु को भी बड़ी देर तक नींद नहीं आई। रह-रह कर उसे पेट में दर्द मालूम हो रहा था, एक अजीब तक़लीफ़ थी, जिसमें ग़ुस्सा और पछतावा दोनों मिला हुआ था। उस वक़्त उसे बेपनाह ग़ुस्सा गया था सही, लेकिन अब तो ज्वार उतर गया था और अब उसे ख़याल सता रहा था कि मुझे लड़की के साथ ऐसा क्रूर नहीं होना चाहिए था।...तुम्हें क्या मालूम कि कौन आदमी किस मजबूरी का शिकार है, बड़े पारसा बनने चले हो! सब को अच्छा खाने को मिले और अच्छी तरह रहने को मिले और मन-मुवाफ़िक़ कपड़े पहनने को मिलें तो सब ऐसे ही पारसा हो सकते हैं...मगर इसके बाद भी शरीर बेचना उसके नज़दीक एक ऐसा गंदा काम था कि इसके लिए वह पुतुल को, या माधवी को, या बंगाली बाबू को माफ़ नहीं कर सकता था। और वह बड़ी कोशिश करने पर भी कोई दो बजे तक नहीं सो पाया। उसके मन ने जो एक मूर्ति अपनी गढ़नी शुरू ही की थी उसे हक़ीक़त के पहले ही बेदर्द हथौड़े ने तोड़कर ज़मीन पर, उसके पैरों के पास डाल दिया था। एक हल्की-सी गुदगुदी जो थी, उसे किसी ने चाकू मार दिया था। एक कली जो सिर्फ़ कली थी जिसमें अभी गंध थी उसे किसी ने चुटकी में लेकर मसल दिया था। इंदु को रह-रह कर लगता कि उसे साँस लेने में तकलीफ़ हो रही है।

    उस दिन से इंदु ने उधर से निकलना ही छोड़ दिया। उसने अब अपना एक दूसरा ही रास्ता बना लिया था, जो कुछ लंबा ज़रूर पड़ता था लेकिन इंदु को पसंद था, अगर और किसी कारण से नहीं तो सिर्फ़ इसलिए कि उस पर बंगाली बाबू का घर नहीं पड़ता था और इस बात का डर नहीं था कि पुतुल सामने पड़ जाएगी या पुकार लेगी या बेनीमाधव बाबू भटकते हुए सामने आकर खड़े हो जाएँगे और बड़ी सादगी से बोल पड़ेंगे—‘शे दिन आप आया था, हम बाड़ी में नहीं था।’

    धीरे-धीरे उस रात वाली घटना को महीने भर से ऊपर हो गया और इस बीच इंदु के दिल का घाव भी अब वैसा हरा रहा और क्षोभ तो बिलकुल ही मिट गया। उन लोगों के लिए इंदु के मन में अब केवल करुणा थी। लेकिन फिर उनके सामने जाने का साहस उसके अंदर था।

    रात के आठ बजे होंगे। वह अपने कमरे में बैठा पढ़ रहा था। किसी ने दरवाज़े पर हल्के से, जैसे डरते-डरते, दस्तक दी। इंदु ने दरवाज़ा खोला। पुतुल सामने खड़ी थी। पुतुल! इंदु ठिठक गया। वह पुतुल की निगाहों से अपने आप को ऐसे बचा रहा था जैसे कोई अपने किसी जख़्म को रगड़ लगने से बचाए।

    पुतुल ने मुस्कुराकर कहा—‘नमस्कार इंदु बाबू!’

    इंदु ने उसके नमस्कार का उत्तर देते हुए देखा कि आज पुतुल की मुस्कुराहट में एक नया ही, कुछ कातर-सा, भाव है। विद्रूप की तो बात ही अलग है, उसमें चपलता भी नहीं है।

    पुतुल ने कहा—‘इंदु बाबू मैं आप से माफ़ी माँगने आई हूँ।’

    इंदु ने कहा—‘माफ़ी?...मुझसे?...किस बात की?’

    पुतुल ने कुछ काँपते हुए स्वर में कहा—‘नहीं इंदु बाबू ऐसा कहिए मैंने ख़ूब सोचा है, आप ने ठीक किया था।’

    इंदु ने कहा—‘उस बात को मत छेड़ो मैं स्वयं...’

    पुतुल ने बात काटते हुए कहा—‘कैसे नहीं इंदु बाबू? मैं कैसे भूल जाऊँ!’

    फिर तीन-चार मिनट तक कोई कुछ नहीं बोला। वह पुतुल ने ही उस मौन को तोड़ा—‘आप मुझे एक भीख देंगे इंदु बाबू?’

    इंदु की समझ में कुछ नहीं आया। वह एक ओर को नज़र फेरे चुपचाप बैठा रहा। अपनी जगह पर उसे डर भी लग रहा था कि घरवाले अगर कहीं देख लेंगे तो क्या कहेंगे! तभी उसके कान में पुतुल के शब्द पड़े—‘आप मेरी हाशी को बचा लीजिए। मेरी हाशी को बचा लीजिए इंदु बाबू, आप ही उसे बचा सकते हैं? वह अभी बच्ची है, अभी उस पर पाप की छाया नहीं पड़ी है, उसे नरक-कुंड से निकाल लीजिए इंदु बाबू!...’ पुतुल ऐसी जल्दी-जल्दी बोल रही थी कि जैसे कोई बीच में उसका गला घोंट देगा।

    बात ख़त्म करते-करते पुतुल की आँखों में झर-झर झर-झर आँसू बहने लगे।

    इंदु का मन भी आर्द्र हो आया और एक बार बड़े ज़ोर से उसका जी हुआ कि आगे बढ़ कर, पुतुल को अपनी बाँहों में लेकर उसके बकुल, सुगंधित बालों में हाथ फेरे और पुचकारकर कहे—चुप-चुप, रोते नहीं पगली? लोग देखेंगे तो क्या कहेंगे?...लो...यह पानी लो मेरे हाथ से, और मुँह धो डालो। घबराओ मत, सब ठीक हो जाएगा। हाशी जैसे तेरी बहन वैसे मेरी बहन।

    ये सारे शब्द उसके अंतस् में बने और वह पुतुल की ओर एक डग बढ़ा भी, मगर रुक गया। झाड़ियाँ, चट्टाने, संस्कार...इंदु का मुँह खुला...

    उस क्षण पुतुल का रोम-रोम सहारा माँग रहा था। मगर हाय वह सहारा आया आया आया। उन दो-चार क्षणों में पंचांग ने जाने कितनी शताब्दियाँ पलट डालीं और आख़िरकार पुतुल रोते-रोते ही दरवाज़े की ओर मुड़ी और बुझती हुई दीपशिखा की तरह भभक कर बोली—‘जाने दीजिए इंदु बाबू! भूल जाइए कि मैं कभी आई थी।’

    इंदु सिर झुकाए खड़ा रहा और पुतुल जिस अँधेरे से आई थी, फिर उसी अँधेरे में लौट गई।

    इन दस बरसों में मेरी ज़िंदगी ने अनेक उतार-चढ़ाव देखे हैं, मगर आज भी पुतुल मेरे दिल में रह-रह कर चिलक उठती है क्योंकि (आज आपको बतलाता हूँ) वह कमज़ोर, नपुंसक इंदु मैं ही हूँ।

    स्रोत :
    • पुस्तक : हिंदी कहानी संग्रह (पृष्ठ 67)
    • संपादक : भीष्म साहनी
    • रचनाकार : अमृत राय
    • प्रकाशन : साहित्य अकादमी, नई दिल्ली

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