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पतंगबाज़

patangbaz

रहनवर्द ज़रयाब

रहनवर्द ज़रयाब

पतंगबाज़

रहनवर्द ज़रयाब

और अधिकरहनवर्द ज़रयाब

    मैं एक पतंगबाज़ हूँ। जब से मैंने होश सम्भाला है अपने को पंतग और मंझे में उलझा पाया है। बड़ी बेचैनी से वसंत और गर्मी की ऋतु के गुज़रने का इंतज़ार करता हूँ, ताकि जल्द से जल्द जाड़ा गुज़र आए और मैं पतंग उड़ाऊँ। वैसे मैं हर रंग का मंझा इस्तेमाल करता हूँ—नीला, गुलाबी, पीला, सफ़ेद और चित्तीदार, क्योंकि हर रंग एक ख़ास मौक़े पर भला लगता है। जैसे जब आसमान पर काली घटाएँ छाई हों तो सफ़ेद और चित्तीदार मंझा ठीक है। अगर धूप निकली हो तो पीला और जब आसमान साफ़ हो तो नीला रंग बेहतर है, क्योंकि मंझा ठीक से नज़र नहीं आता है और बच्चों के लंगरों से बचा रहता है।

    मेरी गली के सारे लड़के मुझे पहचानते हैं। मेरी इज़्ज़त करते हैं और कभी-कभी आकर मुझसे सलाह भी माँगते हैं। जब कभी आपस में शर्ते लगाते हैं तो मुझसे मेरी राय ज़रूर माँगते हैं।

    चूँकि मैं एक पतंगबाज़ हूँ, इसलिए मेरी नज़रें एक पतंगबाज़ की नज़रें हैं जो पहली नज़र में उड़ती पतंग के अंदाज़ को ताड़ लेती हैं कि आसमान पर पेंच लड़ाने वाली पतंगों में कौन-सी पतंग कटेगी, कौन हारेगा और कौन जीतेगा?

    जब कभी दो पतंग आपस में पेंच लड़ा रही हों और काफ़ी देर से एक-दूसरे को पैंतरे दिखा रही हों, उस वक़्त छत पर तमाशा देखते लड़के बेचैनी से मुझे पुकार कर पूछते हैं,

    ‘याकूब... कौन कटेगी?”

    ‘वह ऊँची वाली लाल रंग की।’ मैं उड़ती पतंगों को ग़ौर से देखकर जवाब देता। एक पल बाद वही होता है, जिसकी भविष्यवाणी मैं करता। पूरे मोहल्ले में सिर्फ़ एक मेरे बराबर का पतंगबाज़ है, जिसका नाम हमीद तुतले हैं। मुझे यह स्वीकार करने में कोई हिचक नहीं है कि हमीद मुझसे पतंगबाज़ी में किसी तरह कम नहीं है। मुझसे अच्छी डोर नहीं खींचता और मुझसे कम पेंच नहीं जानता। बल्कि हम पतंगबाज़ी के फन में बराबर हैं, इसलिए हममें मेल है। हम कभी एक-दूसरे के मुक़ाबले में खड़े नहीं होते हैं और कभी एक-दूसरे को काटते नहीं हैं।

    हाँ, तो बता रहा था कि मैं एक पतंगबाज़ हूँ और हर इंसान की तरह एक पतंगबाज़ भी अपनी ज़िंदगी में किसी दिलचस्प घटना से दो-चार हो सकता है और मेरे साथ जो घटना घटी थी, उसे आज गुज़रे कोई चार साल के लगभग हो गए हैं, मगर उसकी याद आज भी ताज़ा है।

    उस दिन दोपहर के खाने के वक़्त किसी ने दरवाज़े की कुंडी खटखटाई। मैंने जाकर दरवाज़ा खोला तो सामने हरी चादर में लिपटी एक लड़की को सामने खड़ा पाया, जो घबराई आवाज़ में पूछ रही थी—

    ‘क्या याकूब आप ही हैं?”

    ‘याकूब... हाँ, मैं ही हूँ।’ मैं उसे देखकर बौखला-सा गया था। एकदम से चौंक कर बोला। ‘मैं आपकी नई पड़ोसन हूँ। कुछ दिन पहले हम आए हैं। मेरा भाई बीमार है। आपके मंझे ठीक करने की आवाज़ सुन कर वह बेचैन हो उठा और यह तीन रील सद्दी भेज कर आपसे कहलाया है कि क्या आप इस पर शीशा चढ़ा देंगे, चढ़ा देंगे न?’ घबराहट भरी आवाज़ से उसने पूछा।

    उसकी आवाज़ दिलनशीन थी। मुझे बड़ी मीठी लगी। उसकी हरी चादर से झाँकती उसकी काली आँखें चमकदार थीं। नाक और माथा सफ़ेद था। मुझे वह एक ऐसी सफ़ेद पतंग की तरह दिखी

    जिस पर काले धब्बे आँखों की तरह बने हैं। उसका बढ़ा क़द उसके दुबले होने के कारण काफ़ी लंबा नज़र रहा था। मैं गूँगा सा बना उसे ताक रहा था। एकाएक उसने झुँझलाहट भरे ग़ुस्से से पूछा,

    ‘शीशा चढ़ाएँगे या नहीं?’

    “हाँ... चढ़ा दूँगा, चढ़ा दूँगा...” मैंने घबरा कर जल्दी से कहा।

    उसके सफ़ेद ख़ूबसूरत हाथों ने जो समंदर की झाग की तरह लगे, चादर से तीन रील सद्दी निकाल कर दी। उसके नाख़ून लाल रंगे हुए थे। मैंने सद्दी पकड़ी और उसने पूछा, ‘कब तक तैयार हो जाएगा?’

    ‘परसों तक।’

    वह चलने को मुड़ी तभी मेरे मुँह से निकल पड़ा, ‘कौन-सा रंग चाहिए?’

    ‘कौन-सा रंग होना चाहिए?’ उसने चेहरा मेरी तरफ़ मोड़कर मुझसे उलटा सवाल किया।

    ‘क्या चित्तीदार बना दूँ?’

    ‘हाँ, मैं कोई रंग ख़ास नहीं बता पाऊँगी। फिर भी अपने बचपने की तुतलाहट की आदत से तितदार पसंद करूँगी...बअमान-ए-ख़ुदा।’ वह एक मीठी हँसी हँसते हुए बोली। उसके जाने के बाद जब तक मैंने उसे दोबारा नहीं देखा, तब तक वही छवि मेरी आँखों में टिकी रही, जो बार-बार अपने को दोहरा रही थी।

    अपनी बचपन की आदत के मुताबिक कहूँगी...तितदार...बअमान-ए-खुदा।’ उसकी सफ़ेद पेशानी और दो काली आँखें मेरी नज़रों के सामने किसी पतंग की तरह नाचती रहीं और दिल में एक गुदगुदी-सी महसूस होती रही। दिल चाहा गुनगुनाऊँ।

    ‘आपकी नई पड़ोसन... आपकी नई पड़ोसन।’

    माँ को सामने देखकर मैं एकाएक चहक कर बोला, ‘कैसा अच्छा पड़ोस मिला है।’

    ‘क्या तुम उन्हें जानते हो?’ माँ ने पूछा।

    ‘हाँ, मैं जानता हूँ।’ मैंने जवाब दिया। दो दिन तक मैं काम में लगा रहा। मेरे पास जितना मसाला था, मैंने उसे ख़र्च कर दिया। वह अपनी मीठी आवाज़ और सफ़ेद पेशानी के साथ हाज़िर हुई।

    ‘क्या डोरा तैयार है?’

    ‘तैयार है।’ कहते हुए मैंने मंझे की तेज़ी और मज़बूती को दिखाया, ‘मैंने सफ़ेद और नीला रंग लगाया है, रंग बहुत अच्छा है। आसमान पर बादल हों तो यह रंग ठीक रहता है।’

    ‘कितना दूँ?’ रंग को देखकर वह ख़ुशी से उछली, फिर मेरे हाथ से चर्खी छीनती हुई पूछने लगी। मैं उसको सवाल का जवाब देने के बजाए उसे बताने लगा यह चर्खी भी शीशम की लकड़ी की है, बहुत मज़बूत है, अगर छत पर से नीचे गिरे तो भी नहीं टूटेगी। फौलाद है फौलाद।’

    ‘कितना दूँ?’ उसने बीच में मेरी बात काट कर पहले दिन की तरह झुँझलाहट से पूछा। उसके इस सवाल से मेरे सारे बदन में एक झिझक-सी लहराई।

    ‘यह कैसे मुमकिन है कि मैं अपने पड़ोस से पैसा लूँ?”

    ‘यानी पैसा नहीं लेंगे?”

    ‘नहीं’ मैंने इंकार में सिर हिलाया।

    ‘ख़ूब! बहमान-ए-खुदा।’ वह पहले की तरह मीठी हँसी-हँसी। फिर मुझे ग़ौर से देखा और ख़ुदा हाफ़िज कहकर चली गई। उसके जाने के बाद मेरा दिल तेज़ी से धड़कने लगा और आवाज़ गूँजी ‘मैं आपकी नई पड़ोसन हूँ।’

    मैं घर के अंदर गया। माँ को काम में व्यस्त देखकर चहका, ‘कैसा अच्छा पड़ोस मिला है?”

    ‘क्या उन्हें जानते हो तुम?’ माँ ने उसी तरह ठण्डे लापरवाह लहजे में पूछा।

    ‘हाँ मैं जानता हूँ उन्हें।’ घमंड से भर कर मैंने इस बार जवाब दिया। दूसरे दिन मैं छत पर खड़ा होकर उड़ती पतंगों को देख रहा था। हमीद तुतले की पतंग आसमान पर इस तरह से उड़ रही थी, जैसे लड़ाई के मैदान में कोई बहादुर योद्धा, उसकी उड़ती पतंग का एक कोना सफ़ेद और तीन कोने नीले थे और वह किसी अजहदे की तरह कुँकराती आसमान पर तैर रही थी और जिस तरफ़ बढ़ती उधर से दूसरी पतंग ग़ायब हो जाती, क्योंकि उनमें इतना दम नहीं था कि मुक़ाबले में खड़ी हो पाती, बल्कि सभी उससे दूर छटक रही थीं। कुछ पतंग उड़ाने वालों ने अपनी पतंगें आहिस्ता-आहिस्ता नीचे उतारना शुरू कर दी थीं।

    तभी एक़दम से नए पड़ोसी के छत से एक पतंग उठती दिखी, जो तीन कोनों से सफ़ेद थी और उसकी दुम और आँखें नीली थीं। एक़दम से पड़ोसी लड़की की याद आई और दिल में गुनगुनाहट गूँजी।

    ‘मैं आपकी नई पड़ोसन हूँ।’

    पड़ोसी की छत हमसे ऊँची थी और उस पर ऊँची मुंडेरें खिंची होने की वजह से मुझे पतंग उड़ाने वाला नज़र नहीं रहा था। तो भी मैं अपनी रंगी सद्दी को देखना चाह रहा था कि वह कैसी लग रही है।

    पड़ोसी वाली पतंग ऊँची उठी। एक़दम से मेरा ध्यान उस तरफ़ गया कि नीली दुम वाली पतंग तेज़ी से हमीद तुतले की पतंग की तरफ़ बढ़ रही है। मेरा बदन काँप उठा। मेरा दिल चाहा कि पूरी ताकत से चिल्ला कर कहूँ कि उधर मत बढ़ो, मगर देर हो चुकी थी और अब दोनों पतंगों की डोरें एक-दूसरे में उलझ गई थीं।

    मेरे बदन पर एक तरह की उदास सुस्ती छा गई—इस ख़याल से कि यह हमारा बीमार पड़ोसी लड़का अभी धुएँ की तरह आसमान में ग़ायब हो जाएगा। उस वक़्त मैं अफ़सोस से उस लड़की की तरफ़ नहीं देख पाऊँगा, क्योंकि पतंग काटने के लिए सिर्फ़ डोर का अच्छा होना ही काफ़ी नहीं हैं, बल्कि महारत और तज़ुर्बा भी बहुत ज़रूरी है और ये दोनों चीज़ें हमीद तुतले के पास हद से ज़्यादा मौजूद हैं।

    दोनों पतंगें काफ़ी दूर जा चुकी थीं और पतंग लड़ाने की जंग काफ़ी देर से जारी थी, जिससे मुझे थोड़ी-सी ढाढ़स बँधी कि हमारा पड़ोसी कोई अनाड़ी नहीं है। फिर मैं ख़ुद से कहने लगा—जब वह इतना अच्छा पतंगबाज़ है, तो फिर उसने सद्दी पर शीशा चढ़ाने को मेरे पास क्यों भेजा?

    अब दोनों पतंगें काग़ज़ के पुर्ज़ों की तरह ऊपर आसमान पर तैरती नज़र रही थीं। हमीद तुतले की पतंग खड़ी ठहरी-सी आगे बढ़ रही थी और पड़ोसी की डगमगाती-सी आगे बढ़ रही थी। एकाएक पड़ोसी की पतंग नाचती हुई नीचे की तरफ़ आती नज़र आई। मुँह पर हाथों का गोला बनाकर मैं ज़ोर से चिल्लाया, ‘ढील मत दो! डोर को ताने रहो!’

    पड़ोसी की डगमगाती पतंग सचमुच धीरे-धीरे नाचती हुई नीचे की तरफ़ गिरने-सी लगी। मैं झुँझलाया-सा सोचने लगा, ‘यह बीमार लड़का सचमुच बहरा भी है।’ मैं उसकी मुंडेर की तरफ़ लपका और दीवार से छत की तरफ़ जाकर उनकी मुंडेर पर चढ़ गया। आश्चर्य से मैं जम गया। वहाँ पर पड़ोसन लड़की खड़ी थी, जिसके बाएँ हाथ में चर्खी थी और दाएँ हाथ में डोर। बाल बिखरे हुए थे। परेशान और बेचैन नज़र रही थी। उसके पीछे जाकर खड़ा होकर मैंने धीरे से कहा, ‘डोर को मज़बूती से तानो।’

    ‘मुझसे नहीं संभल रही है। ख़ुद आकर संभालो।’ उससे धीरे से कहा, जैसे मेरा वहाँ इस तरह से आना उसे बुरा नहीं लगा था। मैं छत पर कूदा और बड़ी मुश्किल से गिरती पतंग को नात पाया। धीरे-धीरे पतंग ऊँची पेंगें लेने लगी और एकदम से मैंने देखा कि तीन तरफ़ से नीली पतंग कटी हुई नीचे की तरफ़ तेज़ी से गिर रही है। चारों तरफ़ से छतों से एक शोर-सा उठा। लड़की ने ख़ुशी के मारे चीख़ कर कहा, ‘काट दिया...काट दिया उसे!’ फिर छत के दो-तीन बार ख़ुशी में चक्कर लगाए और ज़ोर-ज़ोर से नारा लगाया।

    ‘ज़िंदाबाद!’

    ‘क्या हुआ जैनब?’ नीचे से बूढ़ी आवाज़ उभरी।

    ‘माँ... हमीद तुतले को काट दिया।’ लड़की ने नीचे झाँक कर जवाब दिया।

    ‘अरे शैतान!’ बूढ़ी आवाज़ फिर उभरी।

    हमारी गली नए पड़ोसी की तारीफ़ों से गूँजने लगी। सभी उस लड़के के बारे में बात कर रहे थे, जिसे उन्होंने अभी देखा नहीं था, मगर जिसने हमीद तुतले की पतंग काट दी थी। पहले दिन लोग आपस में बात कर रहे थे।

    ‘तीन रील मंझा था, जो हमीद कट गया।’ दूसरे दिन कहने लगे—‘दो रील मंझा था जो हमीद कट गया।’ बाद में फिर कहने लगे-‘एक रील मंझा थी, जो हमीद को काट पाई।’

    आख़िर सब सौंगध खाकर कहते—‘वल्लाह! उसने...’

    कई दिन इस घटना को गुज़र गए। एक दिन मैं छत पर खड़ा पतंग उड़ा रहा था। एकाएक देखता क्या हूँ कि तीन तरफ़ से सफ़ेद और काली दुम और धब्बे के साथ नए पड़ोसी की छत पर एक पतंग ऊपर उठी है। तेजी से ऊपर उड़ी और पल भर में मेरी पतंग के पास गई, जैसे लड़ने की तैयारी में हो। मैं अपनी पतंग को उधर से खींच नहीं पाया, क्योंकि हाथ का सारा एतमाद जैसे ग़ायब हो गया था।

    ग़ुस्से से सारा वजूद उबल पड़ा और मैं बड़बड़ाया—‘अरे बेवक़ूफ़ लड़की!’

    पतंगों की पेंचें लड़ना शुरू हो गई थीं और अब किसी पल भी दोनों की डोर एक हो सकती थी इस यक़ीन के साथ कि मैं पड़ोसी को अपने अनुभव से दबा लूँगा, अपने को दिलासा देने लगा कि महारत बड़ी चीज़ है। शुरू के तीन मिनट डोर बड़े अनुभवहीन अंदाज़ से खिंचती रही, फिर एक़दम से तड़प कर जो लड़ाई पर आमादा हुई तो उससे मुझे ऐसा लगा, जैसे पिछले बीस साल पतंग उड़ाकर उसने यह महारत हासिल की हो। अब मेरा दिल हर बार पहले से ज़्यादा ग़ुस्से और खौफ़ से घबराने लगा। आस-पास की छत से लड़के आँखों पर हाथ रखे बड़े ध्यान से इस लड़ाई को ताक रहे थे। उनकी आँखों में मेरे प्रति आदर और जिज्ञासा थी। मेरे दिल की धड़कन बढ़ने लगी। हवा तेज़ नहीं थी, इसलिए पतंगें ऊपर जाकर क्षितिज की तरफ़ बढ़ रही थीं और उनकी डोर नीचे की तरफ़ रही थी और पतंगें छतों के नज़दीक होती जा रही थीं।

    ‘बहुत हो गया बस अब खींचों’ मैं एकाएक तेज़ी से चीख़ा। किसी ने जवाब नहीं दिया, बल्कि जवाब में शैतानी से भरी लड़की की हँसी की आवाज़ सुनाई पड़ी। इसके बाद मैंने डोर को ताना और उसे खींचने लगा। डोर धीरे-धीरे करके ऊपर उठने लगी। मुझे उम्मीद बँध गई कि मेरी पड़ोसन भी तानेगी, मगर वह उसी तरह से डोर को ढील देती रही और तेज़ी से डोर, आगे छोड़ती जा रही थी। यह देखकर मैं ग़ुस्से से चीख़ा, ‘खींचो!’

    ग़ुस्से से मैं सुन्न पड़ने लगा और मेरा हाथ ढीला पड़ गया। और आसपास की छत से एकसाथ ताज्जुब भरी आवाज़ गूँजी, ‘ओ!’

    मेरी पतंग कट गई थी। डोर मैंने छोड़ दी। छत से नीचे दीवार पर चढ़ा। जो भी गाली मुझे याद थी, वह मैं उस लड़की पर क़ुर्बान करना चाहता था। इस इरादे से मैं उसकी मुंडेर की तरफ़ लपका और ऊपर चढ़ते ही जो मंजर मैंने देखा, उससे मेरी नज़रें सामने की छत पर जमी रह गईं। गला सूख गया। हाथ-पैर ढीले पड़ गए। पतंग की डोर हमीद तुतले के हाथ में थी। पड़ोसी लड़की उसी तरह ख़ुशी से छत के चक्कर लगा रही थी। नीचे से आवाज़ आई, ‘क्या हुआ जैनब?”

    ‘माँ, याकूब को काटा।’ उसने छत से नीचे झाँककर कहा।

    ‘अरे शैतान।’ बूढ़ी आवाज़ दोबारा उभरी।

    हमीद तुतले पतंग को आहिस्ता-आहिस्ता नीचे उतार रहा था और बिना लड़की की ख़ुशी की तरफ़ ध्यान दिए वह कह रहा था, ‘जब प्रतिद्वंद्वी डोर ताने तो तुम ढील छोड़ो... तेज़ी से ढील छोड़ो।’

    स्रोत :
    • पुस्तक : विश्व की श्रेष्ठ कहानियाँ (खण्ड-2) (पृष्ठ 381)
    • संपादक : ममता कालिया
    • रचनाकार : रहनवर्द ज़रयाब
    • प्रकाशन : लोकभारती प्रकाशन
    • संस्करण : 2005
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