इस बार फ़रवरी अट्ठाईस की है। स्टिक में आठ पाइंट के छोटे-छोटे टाइप रखते हुए सात तारीख़ को मिलने वाले साठ रुपयों के बारे में सोचकर ख़ुश हो आता हूँ। कुछ तो फ़ायदा है ही। तीस-इकत्तीस दिन काम करने पर भी साठ और अट्ठाईस दिन करने पर भी। साल के अधिकांश महीनों में इकत्तीस दिन होने की बात बुरी लगती है, किंतु आज मैं ग़ुस्से और दुःख से अलग हटकर कोई बात सोचना चाहता हूँ। मन ही मन अनुमान लगाता हूँ कि ओवरटाइम के लगभग तीस रुपए और हो जाएँगे। साठ और तीस-नब्बे। चालीस एडवांस के निकाल दो-पचास। बस?
मन कसैला-सा हो आता है। रुपयों की बात सोचकर अच्छा नहीं किया। कोई और अच्छी बात सोचनी चाहिए। जैसे पुल पर खड़े होकर नीचे बहते हुए पानी को देखने के बारे में कोई बात। अगहन की अँकुराई खेती पर जमी हुई ओस-बूँदों की बात। चाँदनी रात में रातरानी की गंधाती कलियों और डेविड के वायलिन की बात।
स्टिक में जमी हुई लाइनें उतारकर गेली में रखने और कापी पर दृष्टि जमाकर कंपोज़िंग का सूत्र पकड़ने के बाद जब अभ्यस्त हाथ तेज़ी से छोटे-छोटे टाइप चुनने लगते हैं तो सोचता हूँ कि आज कुछ बातें अनायास याद आए चली जा रही हैं। लगता है कि भीतर का कोई पहरेदार पुरानी चीज़ों को उलटने-पलटने लगता है।
कंपोज़िंग सेक्शन सूना पड़ा है। इतवार की छुट्टी में अकेला ही एक अर्जेंट काम के लिए ओवरटाइम में आया हूँ। बनर्जी बाबू दफ़्तर में बैठे ऊँघ रहे हैं और मशीनमैन विद्याराम अपनी खटारा ट्रेडिल चलाए जा रहा है। मशीन की आवाज़ें कंपोज़िंग सेक्शन तब साफ़ आ रही हैं और जैसे आ-आकर कहे जा रही हैं कि ट्रेडिल समय के छोटे से छोटे टुकड़ों में सादे काग़ज़ों पर अपनी छाप छोड़े जा रही है। कम्पोज़ किए हुई टाइप मशीन पर चढ़कर इम्प्रेशन दे रहे हैं। थोड़ी देर में इन्हें मशीन से उतार दिया जाएगा। विद्याराम का हेल्पर उन्हें धोएगा और इधर दे जाएगा। सारे टाइप डिस्ट्रीब्यूट हो जाएँगे और उनका उस मैटर से कोई संबंध नहीं रहेगा, जिसमें लगकर वे अभी छप रहे हैं। फिर एक नया मैटर कंपोज़ होगा...
चारों ओर ठंड, सीलन और मनहूसी छाई हुई है। धूलभरे केस, लकड़ी के पुराने रैक, ब्लॉक, लेड, रूल, कटर, चिमटी, कैंची, चिप्पी, डोरी...सब ठंडी और उदास! ऊपर जलती हुई मर्करी ट्यूब के उजाले में ठंडा और सीलन से भरा कमरा, जैसे कोई गुफ़ा।
मन के भीतर का कोई पहरेदार बेतरतीब फैली हुई चीज़ों को उठा-उठाकर बाहर रख रहा है। मेरे हाथ के अंगूठे से स्टिक में टाइप जमाने के लिए जो लययुक्त खटखट हो रही है, उसी लय में वह पहरेदार काम कर रहा है। मैं जैसे हर लाइन में यथासंभव बराबर स्पेस डाल रहा हूँ, वह भी चाहता है कि बराबर जगह छोड़कर सब चीज़ें क़रीने से जमा दे, पर उसे असुविधा हो रही है। शायद वह इसका आदी नहीं है।
तब और अब में कितना अंतर है! पहले के दिन ऐसे नहीं होते थे—पिघले कोलतार की तरह धीरे-धीरे रिसते हुए-से। कंपोज़ तब भी करना पड़ता था, लेकिन अपने शहर से दूर एक अजनबी शहर का नयापन एक उत्तेजना-सी देता रहता था। यद्यपि नाम और संदर्भ मात्र ‘कंपोज़ीटर’ में सिमट आए थे और सुबह सात से शाम के सात तक की एक सीधी लकीर दिन और रात को काटती थी और समय के वे दोनों टुकड़े जैसे अनछुए ही पास से फिसलकर पानी में जा गिरते थे।
तब ज़िंदगी पर ग़ुस्सा भी आता। हर चीज़ बेतुकी लगती और हर बात के बाद ‘क्यों’ लगा देने की इच्छा होती। कोठरी की छत पर एक ही चादर ओढ़-बिछाकर सोने में मुझे तकलीफ़ होती थी, लेकिन जिस दिन तकलीफ़ होती, अँधेरी रात होती या थकान से बदन दुःख रहा होता, नींद बड़ी जल्दी आ जाती। किंतु चाँदनी रात में जब प्रमोद जी के बग़ीचे में रातरानी की कलियाँ गँधाने लगतीं और गली के मोड़ पर बने चैपल के पास रहने वाला डेविड वायलिन बजाया करता, तो आँखों से नींद उड़ जाती।
चाँदनी और रजनीगंधा की महक में डूबा हुआ ख़ामोश शहर अपने ऊँचे-नीचे मकानों में चुपचाप सो रहा होता। सड़कों की बत्तियाँ चाँदनी रातों में बुझ जाया करतीं और दो-मंज़िले पर बनी उस कोठरी की छत से चारों ओर की पहाड़ियां सम्मोहन फेंकती हुई-सी लगतीं।
तब अपना शहर याद आता। डेविड के वायलिन के स्वर बारह-एक बजे तक दर्द में भीग-भीगकर आते रहते और मुझे लगता कि मेरे छोटे से शहर में शकुंतला चुपचाप रो रही है। उसकी पीठ और बाँहों पर रस्सी की मार की नीली बरतें उभर आई हैं और कराहने के लिए उसकी माँ ने भिंचे स्वर में डाँट दिया है।
पास ही अपना घर है।
मुन्ना सो गया है। भाभी चौके के ओटे पर कुहनियाँ टिकाए खड़ी हैं। अम्मा, जीजी और भइया आँगन में मेरे सामने खड़े हैं। भइया कह रहे हैं, “तुझे जो लेना हो, ले जा, पर आइंदा इस घर में क़दम रखने की ज़रूरत नहीं है, समझा!”
अम्मा कुछ कहने को होती हैं, पर भइया का तीखा स्वर उन्हें रोक देता है, “देखो अम्मा, तुम बीच में मत बोलो। अब या तो इस घर में मैं रहूँगा या यह रहेगा। मेरे लिए आज से यह मर गया और इसके लिए मैं। बँटवारा करना हो, अभी कर ले, पर मेरे रहते अब यह इस घर में नहीं घुस सकता।”
मेरे पैरों मे ताक़त नहीं रही है। मैं बैठ जाना चाहता हूँ। नाक से अभी तक ख़ून बह रहा है और सिर चकरा रहा है। उस घुमेरी में जीजी की आवाज़ सुनाई देती है, “लेकिन भइया, ऐसी हालत में कहाँ जाएगा वह?” भइया फिर चीख़ उठते हैं, “ऐसी-तैसी में जाए! मुझे क्या मालूम!” और उन्होंने मेरे दोनों कंधे पकड़कर मुझे दरवाज़े की ओर ढेल दिया है।
छर्र-र-र-र-र
आठ पाइंट के नन्हें टाइपों की पूरी लाइन स्पेस डालकर कसते समय अचानक टूट जाती है। कुछ टाइप केस में गिर पड़ते हैं। ग़लत ख़ानों में गिरकर ये न जाने कितने शब्द ग़लत करेंगे!
टूटी हुई लाइन दोबारा कंपोज़ करते हुए लगता है कि मेरे बराबर का ही एक लड़का मेरे पास खड़ा हुआ झुककर टूटी हुई लाइन और छितरे हुए टाइपों को देखकर रहा है। सिर झुका हुआ हैं नाक से ख़ून बह रहा है। कपड़े जगह-जगह से फट गए हैं। मार के निशान और चोट की सूजन बदन पर कई जगह दिखाई दे रही है। मैं उसकी ओर घूरकर देखता हूँ तो यह धीरे-धीरे दरवाज़े से बाहर चला जाता है। उसके हाथ दोनों ओर बेजान से झूल रहे हैं और वह जैसे-तैसे अपने पैरों को घसीटता हुआ चल पा रहा है।
बाहर पड़ोस के घर का बंद दरवाज़ा है, जिस पर एक चिक झूल रही है और उस बंद दरवाज़े को भेदकर रस्सी की सड़ाक-सड़ाक की आवाजें आ रही हैं, साथ ही चीख़ें और रुदन, और सबके ऊपर एक कर्कश और भिंची हुई आवाज़, “ख़बरदार जो चिल्लाई! तू भी तो कम नहीं है, बेसरम!”
और आगे गली में जाने पर हँसी-क़हक़हे, घृणा और तिरस्कार में डूबे कुछ स्वरः मजनूँ है साला...ज़िंदगी भर याद रक्खेगा...घर से निकाल दिया? अच्छा किया...आख़िर बड़ा लड़का समझदार है, इसकी तो साले की सोहबत ही ऐसी है!
सोहबत!
उस हालत में आते हुए देखकर मिसरानी भौजी दौड़ पड़ती हैं, “अरे भइया, ई का भवा? ई का हाल बनाए रक्खा है? कौनो साथे झगड़ा होइ गवा का? हाय दइया!” मोहल्ले वालों को गालियाँ देती जाती हैं और हल्दी चूने का गर्म लेप चोटों पर लगाती जाती हैं। अर्द्ध-मूर्च्छा की स्थिति में लगता है, जैसे अपने सब लोग खड़े-खड़े देख रहे हैं और मिसरानी भौजी अपनी कोमल उँगलियों से रग-रग सहलाए जा रही हैं।
मिश्राजी और मिसरानी भौजी से कुछ नहीं छिपा। उन्हीं से तो चालीस रुपए उधार लिए थे और रोज़ दो घंटे का ओवरटाइम बचाकर लौटाए थे। शकुंता को समझा दिया था कि अपनी माँ को न बताए, कह दे, प्रिंसिपल ने अपनी तरफ़ से इम्तिहान की फ़ीस भर दी है, तीस-पैंतीस रुपए के पीछे कॉलेज का रिज़ल्ट और शकुंता का साल बिगाड़ना वे नहीं चाहतीं।
यह झूठ उस समय अच्छा लगा था। एक सपना टूटने से बच गया था, जिसकी रक्षा शकुंता की माँ से नहीं हो पा रही थी। लेकिन परीक्षा के बाद जब शकुंता ने उसी झूठ का सच माँ से कह दिया था तो वे उबल पड़ी थीं। छाती पीटती हुई गली में निकल आई थीं, “हाय, अब तो ग़रीबों की इज़्ज़त आबरू ही नहीं रही। विधवा बामनी लुट गई रे! सीधी जान के छोरी को बहकाय लिया रेऐ-ऐ-ऐ...चालीसा रुपैया की ख़ातिर...”
चालीस रुपए की तो आड़ थी। शकुंता की माँ उस दिन का बदला ले रही थीं जिस दिन मैंने कह दिया था, “माँजी, न हो कोई छोटी-मोटी दुकान ही रख लो घर में, दो ही तो जीव हो, गुज़ारा हो जाएगा। ये सीधे-सवैया नेग-पूजा...” जी में आया था, कह दूँ कि पुरोहिताई के नाम पर भीख लेना अच्छी बात नहीं है, पर कहा इतना ही, “...अब वक़्त बदल गया है।”
माँजी को बुरा लगा था। उस समय बात टाल गई थी, लेकिन मन में एक गाँठ पड़ गई थी, जो मौक़ा पाते ही उस दिन खुल पड़ी।
और मोहल्ले वालों का ख़ून खौल उठा था—ग़रीबनी की बैटी है...जित्ती सामर्थ्य थी, पढ़ाया; नहीं पढ़ा सकती, घर बिठा लिया...उसके बाप का इसमें क्या जाता था...वह कौन होता था, चोरी-छिपे चालीस रुपए देकर फ़ीस भरने वाला..और फिर, उसके पास चालीस रुपए आए कहाँ से...तनख़्वाह तो पूरी की पूरी घर में दे देता है...मिलते ही कितने हैं, पैंतालीस रुपल्ली...घर में किसी ने नहीं दिए? फिर?...फिर क्या, कहीं चोरी-चपाटी की होगी...कब की बात है...तीन महीने पहले की...अरे, तभी हमारे घर में घड़ी चोरी गई थी...बस्स, घड़ी बेच के चालीस दिए होंगे शकुंता की फ़ीस के और और बाक़ी उड़ा दिए होंगे...अरे, उड़ा क्या दिए होंगे, दिन-रात उस मिसरानी के यहाँ घुसा रहता है...पूछो, इसी से पूछो...बता, कहाँ बेची थी घड़ी...झूठ, झूठ बोलता है...बता, कित्ते रुपए लिए थे...नई बताता तो ले...मारो साले को...अपने आप कबूलेगा...
लगता है, उस समय सारी दुनिया के प्रति विद्रोह-भाव से भरकर जो इस अजनबी शहर में चला आया था, वह कोई और था। वह कोई और ही रहा होगा, जो मिश्राजी का दिया हुआ धोती-कुरता पहने भारती प्रेस में आ खड़ा हुआ था और काम माँगने लगा था। आज का-सा मन होता तो रेल में बैठकर यहाँ आने के बजाय रेल के नीचे लेटकर कहीं चला जाता, किंतु उन दिनों तो एक आग थी—हरामज़ादो, तुमने मुझे बेक़सूर मारा है, ठहर जाओ थोड़े दिन, गिन-गिनकर एक-एक से बदला लूँगा..उन दिनों बार-बार इच्छा होती थी कि कोई डाकुओं का गिरोह मिल जाए तो उसमें शामिल हो जाऊँ...तब एक-एक को भूनकर रख दूँ...
लेकिन भारती प्रेस में काम मिल गया था और बनर्जी बाबू ने ही एक कोठरी पाँच रुपए महीने पर दिला दी थी। शुरू-शुरू में सामान के नाम पर मिसरानी भौजी की दी हुई एक चादर-भर थी, किंतु धीरे-धीरे कोठरी में सामान बढ़ गया था। पचास रुपए में आराम से महीना कट जाता था। एक ही चादर ओढ़-बिछाकर सोने की मजबूरी नहीं रह गई थी, किंतु जब चाँदनी रात में रजनीगंधा महकने लगती और डेविड के वायलिन के स्वर दर्द में भीग-भीगकर आने लगते, तब नींद उड़ जाती।
ओटे पर कुहनियाँ टिकाए खड़ी भाभी एकटक देखती रहती। अम्मा और जीजी के होंठ कुछ कहने के लिए फड़कते रहते। भइया मुझे घर से बाहर ढेलते रहते और मैं सिर झुकाए, बेजान-सी बाँहें लटकाए, पैरों को घसीटता हुआ-सा दरवाज़े से निकलता रहता, और पास ही कहीं एक जवान लड़की रस्सियों की मार के बाद कराहती रहती।
किंतु एक दिन वायलिन ख़मोश हो गया। वह ख़ामोशी बड़ी अटपटी लगी थी। यों मैं जानता था कि डेविड कैंसर का मरीज़ है, उसे किसी भी दिन वायलिन छोड़ना पड़ सकता है, लेकिन एक दिन उसने कहा था, “माधो बाबू, डॉक्टर साला हमको बोला के वायलिन मत बजाओ, लेकिन हम पलट के कहा, ‘डाक्टर, वायलिन नई बजाएगा तो जिएगा कैसे? ग्रेस को हम कोई ख़ुशी नहीं दे पाया, वायलिन उसका हॉबी है, वह भी हम बंद कर दे? नई-नई मरते दम तक हम बजाता रहेगा।”
कहते-कहते उसके गले की नसें फूल आई थीं और कत्थई बुँदकियों वाले सफ़ेद चेहरे पर लाल रंग उभर आया था। चैपल के अहाते की दीवार पर बैठकर वह बड़े इत्मीनान से बातें किया करता था। उसने आयरलैंड कभी नहीं देखा था, लेकिन उसका नक़्शा उसके दिमाग़ में घूमता रहता। कहता, “माधो बाबू, हमारा पेरेंट्स हमको एक महीने का लेकर यहाँ आया था। हम आयरिश है। एक महीने का बच्चा क्या होता है? यहीं इतना बड़ा हो गया। तुम समझते हो, मुझे ठीक से हिंदुस्तानी बोलना नहीं आता। लेकिन भाई, इस चैपल के अहाते में मेरे माता-पिता की बहुत-सी यादें हैं। उन्हें बनाए रखने के लिए मैं वैसे ही बोलता हूँ, जैसे वे बोलते थे। बहुत प्यार करते थे मुझे” कहते हुए उसने हवा में एक क्रॉस बनाया था।
लेकिन उस दिन वायलिन नहीं बज रहा था। लगता था कि चाँदनी रात में चैपल के पास का वह इलाक़ा उस स्वर के बिना वीरान हो गया है। देखने के लिए उतरा ही था कि डेविड की मृत्यु सूचना देता हुआ चैपल का घंटा बज उठा था।
उस दिन ग्रेस को देखा था, फूट-फूटकर रोते हुए। उस ग्रेस को, जो बीमार और बेकार डेविड को चुनकर अपनी नौकरी से उसके साथ गृहस्थी चलाती हुई हड्डियों की हलकी और दुबली ऊँचाई-भर रह गई थी। मेरी समझ में नहीं आता था कि कौन-सा सुख भोगा होगा उन्होंने...पर...
मैंने भी तो बड़े यत्नपूर्वक अपने परिवेश में अतीत की हर चीज़ का एक पर्याय खोज निकाला था। अम्मा के लिए पड़ोस में रहने वाली प्रमोद जी की माँ, जीजी के लिए बंगाली बाबू की बहन रोमा दी, भाभी के लिए मोना भाभी, मिश्रा जी के लिए विमल दा और मिसरानी भौजी के लिए शांता भाभी लेकिन शकुंता का पर्याय नहीं मिलता था। उसके पर्याय की तलाश जारी थी। इन पर्यायों की तलाश में कभी-कभी मन झूठे आत्मतोश से भर जाता कि ये सारे संबंध ज़बरदस्ती थोपे हुए नहीं हैं, बल्कि स्वयं बनाए हुए हैं। सब कुछ स्वयं अर्जित किया हुआ है।
एक इच्छापूर्वक चुन लेने का एहसास होता-ख़रीद लेने की-सी अनुभूति, जो भ्रांति होकर भी सुख देती थी।
पर डेविड की मृत्यु ने सब कुछ झुठला दिया। चाँदनी रातों की ख़ामोशी दूर करने के लिए कोई डेविड नहीं ख़रीदा जा सकता। ग्रेस के आँसुओं को सुखाने के लिए कोई ऐसा रूमाल नहीं ख़रीदा जा सकता, जो उसकी आँखों में गहराती हुई डेविड के अभाव की खाई को ढँक-पात दे!
आदमी बातों को ख़ानों में बाँटकर और एक-एक ख़ाने से टाइप लेकर ज़िंदगी कंपोज़ करता चला जाता है, लेकिन मैं कंपोज़ीटर होते हुए भी...
झाड़ी से एक टहनी खींचने पर जैसे एक-दूसरे से उलझकर बहुत-से झाड़-झंखाड़ खिंच आते हैं, वैसे ही अपनी बातों के साथ और बहुत-सों की बातें और यादें, चली आती हैं।
उस दिन अचानक भारती प्रेस का पता पूछते हुए भइया मेरे सामने आ खड़े हुए, तो मेरे हाथ काँप गए थे। पाँच-छह महीने बाद बिना किसी सूचना के भइया क्यों चले आए? उस दिन भी नन्हे-नन्हे टाइपों से कंपोज़ की हुई एक लाइन टूट-बिखर गई थी। टूटी हुई लाइन दोबारा कंपोज़ करने के बजाय मैं स्टिक एक ओर रखकर भइया के पैर छूने के लिए झुक गया था और जब सबके सामने भइया की आँखों से आँसू निकल पड़े थे, तो लगा था कि भइया की ज़िंदगी की पूरी गेली के प्रूफ़ में ये आँसू ‘गैंग फ़ौंट’ बनकर चमक रहे हैं।
मैला-सा सफ़ेद कुर्ता और धोती। पैरों में टूटी चप्पल। बिखरे हुए बाल और चेहरे पर रात-भर के जागरण और सफ़र की थकान-उदासी बनकर जमी हुई। सहसा विश्वास नहीं हुआ कि भइया इतने दयनीय रूप में भी कभी मेरे सामने आ सकते हैं।
छुट्टी लेकर प्रेस से निकला तो समझ में नहीं आ रहा था कि उन्हें कहाँ ले जाऊँ। कोठरी छोड़ने का दुःख हो रहा था। पाँच रुपए की बचत के मोह में...लेकिन...भीतर ही भीतर एक भय-सा मुझे कँपाए जा रहा था मेरे साथ ग्रेस को देखकर क्या कहेंगे भइया?
फिर सहसा सिर झुकाए, बेजान से हाथ झुलाता और पैरों को घसीटते हुए दरवाज़े से बाहर निकलता हुआ एक लड़का मेरी आँखों के सामने से गुज़र गया और मैं कठोर हो आया। पूछा इतना ही, “अम्मा कैसी हैं?”
“ठीक हैं।”
“भाभी”
“वह भी”
“और जीजी?”
“गए महीने उसका ब्याह कर दिया।”
मैंने भइया की ओर घूरकर देखा। लगा कि उनकी उदासी और चेहरे पर जमी पीड़ा की पर्तें एक मेकअप हैं, जो किसी ख़ास भूमिका के लिए किया गया है। कहा, “मुझे ख़बर भी नहीं दे सकते थे?
“तुझे बुलाने का मन तो बहुत था, पर लोग न जाने क्या सोचते...किसी का मुँह तो पकड़ा नहीं जाता...कहीं शादी ही रुक जाती...”
“हूँ!”
“तू अभी तक नाराज़ है?”
“नाराज़ होने से क्या होता है! यहाँ कैसे आना हुआ? पता कैसे चला कि मैं यहाँ हूँ?”
“मिश्रा जी जौनपुर जाते समय पता दे गए थे। मारहरा वाले पीछे पड़े हैं अपनी लड़की के लिए।”
“सब जानते हुए भी?”
“अरे, उससे क्या फ़र्क़ पड़ता है!”
मैंने फिर उनके चेहरे की ओर देखा, शायद तीखेपन से कहने के लिए कि जीजी के ब्याह में मेरे आने से क्या फ़र्क़ पड़ता था! भइया एक क्षण ठिठककर मुझे घूरने लगे थे। शायद मेरी दृष्टि अधिक तीखी हो गई थी। फिर उनकी आँखों में ऐसी मजबूरी झलक आई थी, मानो कह रहे हों क्या बात है, तू हम लोगों को माफ़ नहीं कर सकता?
लेकिन मन यह सब सुनने के लिए तैयार नहीं था। अपना अपमान चुभ रहा था। इच्छा हो रही थी कि भइया को जितना सता सकूँ, सताऊँ। शायद वही मौक़ा था। एक क्षण सोचकर मैंने कहा डाला था, “मैंने शादी कर ली है।
“शादी कर ली है? कब? किससे?” भइया ने मेरी बाँह पकड़कर मुझे झिंझोड़ दिया था। क्षण-भर को आतंक और क्रोध का मिला-जुला सा अनुभव हुआ था, किंतु भइया की पकड़ ढीली हो जाने पर आवाज़ खींचकर मैंने कह दिया था, “चलो, देख लो चलकर।”
भइया ग्रेस को थोड़ी देर तक एकटक देखते रहे थे, फिर उनकी आँखों में वही ‘तू मेरे लिए मर गया’ वाला भाव आ गया था। बोले, “अच्छा, मैं चलूँ अब।”
“कहाँ?”
“आज ही लौट जाना है।”
“लेकिन खाना...थोड़ा आराम तो कर लेते, सफ़र में थक गए होंगे।”
“खाना...आराम...” भइया बुदबुदाए, “ख़ैर, जो तुम्हारे मन में आए, करो...आदमी को अकेले ही...अपने ही पैरों पर...” और उठकर चल दिए थे। ग्रेस ने रुकने के लिए कहा तो उनका चेहरा क्रोध और घृणा से तन गया। उस समय भइया पर ग़ुस्सा आया। लगा कि यदि ग्रेस के लिए एक शब्द भी उन्होंने कहा तो...कुछ अनहोना हो जाएगा। लेकिन भइया चुपचाप ही पलट पड़े थे। सीधे स्टेशन। गाड़ी चलने तक मैं पास रहा, पर भइया मेरी ओर से मुँह फिराए रहे। कुछ भी नहीं बोले। मुझे लग रहा था कि गाड़ी चलने के क्षण तक भइया का क्रोध शांत हो जाएगा और वे गाड़ी से उतरकर मेरे साथ चल देंगे, कहेंगे, ख़ैर, अब जो है, ठीक है, किंतु प्लेटफ़ार्म पर उनके डिब्बे की खिड़की के सामने मैं हाथ जोड़े खड़ा रह गया और भइया दूसरी दिशा में देखते चले गए। यह भी नहीं देख पाया कि जाते समय उनकी आँखों में क्या था!
लौटते समय उनके बुदबुदाए हुए शब्द याद आते रहे—‘आदमी अकेले ही...अपने ही पैरों पर...’ लेकिन ये ही शब्द एक बाद कितने तीखे स्वर में कहे थे भइया ने, ‘हाईस्कूल करा दिया, यही बहुत है। आगे हमारी सामर्थ्य नहीं है। मेरी मानो तो प्रेस में काम सीखकर कुछ कमाने लायक़ बनो, मैंने शिवदयाल जी से बात कर ली है। और आगे तुम जानो और अम्मा जानें। मेरे पास नहीं है पैसा। कल को तुम तो पढ़-लिखकर अपनी गृहस्थी सँभालोगे, फिर...मुझे तो अपने बाल-बच्चे देखने हैं। आदमी अकेले ही झेलता है, अपने पैरों पर ही उसे खड़े होना पड़ता है।’
तब से स्कूल-कॉलेज की चर्चा भी घर में नहीं चली। प्रेस में दो महीने काम सीखने के तीस रुपए और तीसरे महीने से पैंतालीस रुपए महीने...छह पाइंट से बहत्तर पाइंट...ब्लैक व्हाइट–इटैलिक...लेड, रूल, कैंची चिमटी...एक-एक अक्षर...एक-एक अक्षर...
ये ऊँगलियाँ एक दिन शिथिल हो जाएँगी, तब बूढ़े भोलाराम कंपोज़ीटर की तरह तनख़्वाह सत्तर से घटाकर पचास कर दी जाएगी...फिर पचास से तीस रुपए...और एक दिन नौकरी से निकाल दिया जाएगा, भोलाराम, अब तुमसे काम तो होता नहीं, बुढ़ापे में बैठकर आराम क्यों नहीं करते?’
‘साब, कमाने वाला तो मैं ही हूँ, आराम करूँ तो...’
‘अब तो लड़का बड़ा हो गया है, उसे सिखा दो काम!’
‘वह पढ़ रहा है, साब, पढ़-लिख जाएगा तो ज़िंदगी बन जाएगी।’
‘लेकिन हम यह रोज़-रोज़ का नुक़सान कैसे देखें? एक रुपए में तुम जितना काम करते हो, कोई नया लड़का बारह आने में उतना काम खींच देगा।’
‘लेकिन...’
लेकिन कुछ नहीं। भोलाराम कंपोज़ीटर ज़िंदगी के पचास वर्ष छह पाइंट से बहत्तर पाइंट के फेर में बिताकर, ठंड, सीलन और उदासी से भरे इसी कंपोज़िंग सेक्शन में पचास साल तक मेहनत से नौकरी करने के बाद बेकार हो जाता है...दिन-भर काम में लगी रहने वाली ग्रेस और दुबली और कमज़ोर होती जा रही है। नौकरी से उसे निकाल दिया गया है। मेरे अस्सी-नब्बे रुपए में ही दोनों का काम किसी तरह चल रहा है, लेकिन अकसर यह महसूस होता है कि यह जीने का सही तरीका नहीं है।
रात के अँधेरे में जब हम दोनों की साँसें एक-दूसरे के पास जागी हुई पड़ी रहती हैं, तब डेविड के माँ-बाप के समय की पुरानी दीवार घड़ी क्लिक-क्लिक के बजाय ग़लत-ग़लत कहती हुई लगती रहती है।
ग़लती के इस एहसास से बचने के लिए और अँधेरे में एक-दूसरे से अपना चेहरा छिपाने के लिए हम समीप आ जाते हैं, लेकिन यह अहसास पीछा नहीं छोड़ता। जाने क्यों सब कुछ भूल जाने के क्षणों में भी यह याद रहता है कि हम जी नहीं रहे, मृत्यु की ठंडी, अँधेरी और गहरी गुफ़ा में उतरते जा रहे हैं।
उस दिन देर रात तक ओवरटाइम करने के बाद घर लौटा तो लगा कि मौसम बदल गया है। सर्दी ख़त्म हो गई है और हवा में कुछ ख़ुश्की-सी आ गई है। चाँदनी फैली हुई थी और सड़क-बत्तियाँ बुझी हुई थीं। चैपल के अहाते में पाँव रखते ही लगा कि डेविड की कमी आज सब दिनों से अधिक खटक रही है। वायलिन की धुन की कसर है कि वह हो और रात का अधूरापन मिट जाए।
एक आह-सी अहाते की हवा को सौंपते हुए कमरे की ओर आया तो लगा कि खिड़की के सहारे वायलिन लिए हुए अपनी परिचित मुद्रा में डेविड खड़ा है। बस, खड़ा ही है, बजा नहीं रहा हैं आगे बढ़कर पुकारा, “ग्रेस!” और बाईं हथेली से उसकी गर्दन पर बिखरे बालों को सहला दिया। वह रो रही थी, पर मुझे देखकर चौंकी नहीं। वायलिन उसी तरह पकड़े रही। आँसू पोंछने की भी कोशिश नहीं की। बेहद उदास और ठंडे स्वर में बोली, “डेविड की याद आती है...” आगे का शब्द मेरा ही नाम था, लेकिन वह रुलाई में दब गया और वह वायलिन खिड़की में ही रखकर औंधे मुँह चारपाई पर जा गिरी।
चुपचाप देखता रहा। सांत्वना भी नहीं दे पाया। वायलिन को छू-सहला कर जैसे स्वयं को सांत्वना देने का प्रयत्न करता रहा।
और उस रात...
“कितना और रह गया भाई?”
“अँ?” चौंककर बनर्जी बाबू की ओर देखता हूँ, फिर एकाएक हड़बड़ाकर कहता हूँ, “बस, अभी हुआ जाता है, साहब, सिर्फ़ प्रेस-लाइन लगानी है।”
“तो आज दो बजे छुट्टी करने का पक्का इरादा है?
“हाँ साहब, आज तो...” मन होता है, कह दूँ कि आज ग्रेस के साथ पिक्चर देखने जाना है, पर कहा नहीं जाता।
“अच्छी बात है, लेकिन रुक जाते तो थोड़ा काम और निबट जाता।”
चुप रह जाता हूँ। मेरे चुप रह जाने का अर्थ बनर्जी बाबू समझते हैं और चुपचाप दफ़्तर में चले जाते हैं। मेरे हाथ तेज़ी से कंपोज़ करने लगते हैं। लाइन पूरी होने पर मैटर उतार-बाँधकर प्रूफ़ बनर्जी बाबू की मेज़ पर रखकर टब में भरे पानी से कालिख लगे हाथ धोने लगता हूँ।
चलते समय अपना टाइम-कार्ड बनर्जी बाबू के सामने बढ़ाता हूँ तो कहते हैं, “अरे हाँ, तुम्हारी एक चिट्ठी है।” और एक पोस्टकार्ड मेरी ओर बढ़ा देते हैं।
कोने फटा पोस्टकार्ड! भाभी गुज़र गईं!
कार्ड पर लिखे बदसूरत अक्षर कीलों की तरह आँखों में चुभने लगते हैं। चुपचाप कार्ड जेब में रख लेता हूँ। मन में कोई कहता है कि रोना चाहिए, लेकिन रोने जैसा कुछ महसूस नहीं होता। सामने बैठे मेरे टाइम कार्ड पर ओवरटाइम लिखते हुए बनर्जी बाबू पर मुझे ग़ुस्सा आने लगता हैं कितनी देर से ये इस कार्ड को रखे बैठे हैं।
टाइम-कार्ड जेब में रखकर बाहर आता हूँ तो लगता है कि दिमाग़ एकदम ठप्प हो गया है। विद्याराम ट्रेडिल पर अब भी पूरी रफ़्तार से काम किए जा रहा है। प्रेस से बाहर निकलकर भी ट्रेडिल की भड़ाक-भड़ाक कानों पर चोट करती रहती है। भाभी के कई रूप आँखों में भर आते हैं। उनकी खिलखिलाती हुई हँसी की याद चीरती चली जाती है और सामने के मकान, सड़क और सड़क पर खेलते हुए बच्चे आँखों में डूबने लगते हैं। ओटे पर कुहनियाँ टिकाए खड़ी भाभी का चेहरा स्थिर-एकटक ताकने लगता है।
घर पहुँचता हूँ तो अचानक चौंक जाता हूँ। ग्रेस आसमानी रंग की साड़ी पहने शीशे के सामने खड़ी हुई बालों में कंघी फेर रही है। देखते ही कहती है, “तुम भी क्या याद करोगे, आज तुम्हारी पसंद की...” लेकिन मेरी ओर घूमकर देखते ही अपनी बात बीच में ही तोड़ देती है और एकदम सामने आकर कहती है, “क्या हुआ?”
मैं कार्ड निकालकर उसके सामने रख देता हूँ। कार्ड पढ़कर वह हवा में ही क्रॉस का निशान बनाकर कुछ बुदबुदाती है। फिर पास आकर मेरे बालों को सहलाकर कहती है, रोओ मत, रोने से क्या होगा! कहते-कहते उसका गला भारी हो जाता है और वह रसोई की ओर चली जाती है। थोड़ी देर में आती है तो वही सादी फूलदार धोती पहने हुए, हाथ में पानी से भरा गिलास लिए हुए, “लो उठो, हाथ-मुँह धो लो।”
दस बजकर दस।
गाड़ी छूटने में अभी पाँच मिनट और हैं। डिब्बे में भीड़ नहीं है। जगह अच्छी मिल गई है। रात-भर आराम से सोते हुए जाया जा सकता है। हलका-सा बिस्तर बर्थ पर बिछाकर ग्रेस नीचे उतर आई है। कह रही है, “देखो, पहुँचते ही ख़बर देना और ज़ियादा दिन मत लगाना।”
मैं कुछ नहीं बोल पाता हूँ। एक ही प्रश्न मन में उठता है—मैं क्यों जाऊ वहाँ? मुझे किसने बुलाया है? अम्मा ने सूचना भिजवाई है, बुलाया तो नहीं है। भइया से सब कुछ मालूम हो गया होगा, लेकिन कुछ नहीं। मेरे बारे में, ग्रेस के बारे में एक शब्द भी नहीं।
जेब में पड़ा टिकट चुभ-सा रहा है। एक छोटे से शहर का स्टेशन याद आ रहा है, जहाँ एक अजनबी शहर को जाने वाली गाड़ी में बैठकर फिर कभी न लौटने की क़सम खा रहा हूँ, जहाँ मिसरानी भौजी विदा देने आई हैं और रो पड़ी हैं...
एक शहर याद आ रहा है, जहाँ एक लड़का बेगुनाह पिटकर अपने पैर घसीटता हुआ-सा चल रहा है और एक जवान लड़की रस्सियों की मार के बाद कराह रही है...
गाड़ी सीटी देकर चलने को होती है कि मैं तेज़ी से बिस्तर समेटकर प्लेटफ़ार्म पर उतर आता हूँ। ग्रेस पूछ रही है, “यह क्या, उतर क्यों आए?”
मैं चुप हूँ। खुला हुआ बिस्तर मेरी बाँहों में भिंचा हुआ है और गाड़ी आँखों के सामने से धीरे-धीरे खिसक रही है। थोड़ी दूर जाकर गाड़ी की गति तेज़ हो गई है और इंजन की छक छक की तरह मेरे सीने में धक-धक हो रही है। प्लेटफ़ार्म जैसे एक अंधी गुफ़ा बन गया है और वहाँ खड़ा हुआ मैं किसी पुरानी घड़ी की क्लिक-क्लिक की आवाज़ सुन रहा हूँ।
is bar february atthais ki hai stick mein aath paint ke chhote chhote type rakhte hue sat tarikh ko milne wale sath rupyon ke bare mein sochkar khush ho aata hoon kuch to fayda hai hi tees ikattis din kaam karne par bhi sath aur atthais din karne par bhi sal ke adhikansh mahinon mein ikattis din hone ki baat buri lagti hai, kintu aaj main ghusse aur duःkh se alag hatkar koi baat sochna chahta hoon man hi man anuman lagata hoon ki owartaim ke lagbhag tees rupae aur ho jayenge sath aur tees nabbe chalis eDwans ke nikal do pachas bus?
man kasaila sa ho aata hai rupyon ki baat sochkar achchha nahin kiya koi aur achchhi baat sochni chahiye jaise pul par khaDe hokar niche bahte hue pani ko dekhne ke bare mein koi baat aghan ki ankurai kheti par jami hui os bundon ki baat chandni raat mein ratrani ki gandhati kaliyon aur DewiD ke wayalin ki baat
stick mein jami hui lainen utarkar geli mein rakhne aur kapi par drishti jamakar kampozing ka sootr pakaDne ke baad jab abhyast hath tezi se chhote chhote type chunne lagte hain to sochta hoon ki aaj kuch baten anayas yaad aaye chali ja rahi hain lagta hai ki bhitar ka koi pahredar purani chizon ko ulatne palatne lagta hai
kampozing section suna paDa hai itwar ki chhutti mein akela hi ek urgent kaam ke liye owartaim mein aaya hoon banarji babu daftar mein baithe ungh rahe hain aur mashinmain widyaram apni khatara treDil chalaye ja raha hai machine ki awajen kampozing section tab saf aa rahi hain aur jaise aa aakar kahe ja rahi hain ki treDil samay ke chhote se chhote tukDon mein sade kaghzon par apni chhap chhoDe ja rahi hai compose kiye hui type machine par chaDhkar impression de rahe hain thoDi der mein inhen machine se utar diya jayega widyaram ka helpar unhen dhoega aur idhar de jayega sare type Distribyut ho jayenge aur unka us matter se koi sambandh nahin rahega, jismen lagkar we abhi chhap rahe hain phir ek naya matter compose hoga
charon aur thanD, silan aur manhusi chhai hui hai dhulabhre kes, lakDi ke purane rack, blauk, leD, rool, katar, chimti, kainchi, chippi, Dori sab thanDi aur udas! upar jalti hui markri tube ke ujale mein thanDa aur silan se bhara kamra, jaise koi gufa
man ke bhitar ka koi pahredar betartib phaili hui chizon ko utha uthakar bahar rakh raha hai mere hath ke anguthe se stick mein type jamane ke liye jo layyukt khatkhat ho rahi hai, usi lai mein wo pahredar kaam kar raha hai main jaise har line mein yathasambhaw barabar space Dal raha hoon, wo bhi chahta hai ki barabar jagah chhoDkar sab chizen qarine se jama de, par use asuwidha ho rahi hai shayad wo iska aadi nahin hai
tab aur ab mein kitna antar hai! pahle ke din aise nahin hote the—pighle koltar ki tarah dhire dhire riste hue se compose tab bhi karna paDta tha, lekin apne shahr se door ek ajnabi shahr ka nayapan ek uttejna si deta rahta tha yadyapi nam aur sandarbh matr ‘kampozitar mein simat aaye the aur subah sat se sham ke sat tak ki ek sidhi lakir din aur raat ko katti thi aur samay ke we donon tukDe jaise anachhue hi pas se phisalkar pani mein ja girte the
tab zindagi par ghussa bhi aata har cheez betuki lagti aur har baat ke baad kyon laga dene ki ichha hoti kothari ki chhat par ek hi chadar oDh bichhakar sone mein mujhe taklif hoti thi, lekin jis din taklif hoti, andheri raat hoti ya thakan se badan duःkh raha hota, neend baDi jaldi aa jati kintu chandni raat mein jab pramod ji ke baghiche mein ratrani ki kaliyan gandhane lagtin aur gali ke moD par bane chaipal ke pas rahne wala DewiD wayalin bajaya karta, to ankhon se neend uD jati
chandni aur rajnigandha ki mahak mein Duba hua khamosh shahr apne unche niche makanon mein chupchap so raha hota saDkon ki battiyan chandni raton mein bujh jaya kartin aur do manzile par bani us kothari ki chhat se charon or ki pahaDiyan sammohan phenkti hui si lagtin
tab apna shahr yaad aata DewiD ke wayalin ke swar barah ek baje tak dard mein bheeg bhigkar aate rahte aur mujhe lagta ki mere chhote se shahr mein shakuntala chupchap ro rahi hai uski peeth aur banhon par rassi ki mar ki nili barten ubhar i hain aur karahne ke liye uski man ne bhinche swar mein Dant diya hai
pas hi apna ghar hai
munna so gaya hai bhabhi chauke ke ote par kuhaniyan tikaye khaDi hain amma, jiji aur bhaiya angan mein mere samne khaDe hain bhaiya kah rahe hain, “tujhe jo lena ho, le ja, par ainda is ghar mein qadam rakhne ki zarurat nahin hai, samjha!
amma kuch kahne ko hoti hain, par bhaiya ka tikha swar unhen rok deta hai, “dekho amma, tum beech mein mat bolo ab ya to is ghar mein main rahunga ya ye rahega mere liye aaj se ye mar gaya aur iske liye main bantwara karna ho, abhi kar le, par mere rahte ab ye is ghar mein nahin ghus sakta
mere pairon mae taqat nahin rahi hai main baith jana chahta hoon nak se abhi tak khoon bah raha hai aur sir chakra raha hai us ghumeri mein jiji ki awaz sunai deti hai, “lekin bhaiya, aisi haalat mein kahan jayega wah?” bhaiya phir cheekh uthte hain, “aisi taisi mein jaye! mujhe kya malum!” aur unhonne mere donon kandhe pakaDkar mujhe darwaze ki or Dhel diya hai
chharr r r r r
ath paint ke nanhen taipon ki puri line space Dalkar kaste samay achanak toot jati hai kuch type kes mein gir paDte hain ghalat khanon mein girkar ye na jane kitne shabd ghalat karenge!
tuti hui line dobara compose karte hue lagta hai ki mere barabar ka hi ek laDka mere pas khaDa hua jhukkar tuti hui line aur chhitre hue taipon ko dekhkar raha hai sir jhuka hua hain nak se khoon bah raha hai kapDe jagah jagah se phat gaye hain mar ke nishan aur chot ki sujan badan par kai jagah dikhai de rahi hai main uski or ghurkar dekhta hoon to ye dhire dhire darwaze se bahar chala jata hai uske hath donon or bejan se jhool rahe hain aur wo jaise taise apne pairon ko ghasitta hua chal pa raha hai
bahar paDos ke ghar ka band darwaza hai, jis par ek chik jhool rahi hai aur us band darwaze ko bhedakar rassi ki saDak saDak ki awajen aa rahi hain, sath hi chikhen aur rudan, aur sabke upar ek karkash aur bhinchi hui awaz, “khabardar jo chillai! tu bhi to kam nahin hai, besram!
aur aage gali mein jane par hansi qahqahe, ghrina aur tiraskar mein Dube kuch swarः majnun hai sala zindagi bhar yaad rakkhega ghar se nikal diya? achchha kiya akhir baDa laDka samajhdar hai, iski to sale ki sohbat hi aisi hai!
sohbat!
us haalat mein aate hue dekhkar misrani bhauji dauD paDti hain, “are bhaiya, i ka bhawa? i ka haal banaye rakkha hai? kaunu sathe jhagDa hoi gawa ka? hay daiya!” mohalle walon ko galiyan deti jati hain aur haldi chune ka garm lep choton par lagati jati hain arddhmurchchha ki sthiti mein lagta hai, jaise apne sab log khaDe khaDe dekh rahe hain aur misrani bhauji apni komal ungliyon se rag rag sahlaye ja rahi hain
mishraji aur misrani bhauji se kuch nahin chhipa unhin se to chalis rupae udhaar liye the aur roz do ghante ka owartaim bachakar lautaye the shakunta ko samjha diya tha ki apni man ko na bataye, kah de, prinsipal ne apni taraf se imtihan ki fees bhar di hai, tees paintis rupae ke pichhe college ka result aur shakunta ka sal bigaDna we nahin chahtin
ye jhooth us samay achchha laga tha ek sapna tutne se bach gaya tha, jiski rakhsha shakunta ki man se nahin ho pa rahi thi lekin pariksha ke baad jab shakunta ne usi jhooth ka sach man se kah diya tha to we ubal paDi theen chhati pitti hui gali mein nikal i theen, “hay, ab to gharibon ki izzat aabru hi nahin rahi widhwa bamni lut gai re! sidhi jaan ke chhori ko bahkay liya reai ai ai chalisa rupaiya ki khatir
chalis rupae ki to aaD thi shakunta ki man us din ka badla le rahi theen jis din mainne kah diya tha, “manji, na ho koi chhoti moti dukan hi rakh lo ghar mein, do hi to jeew ho, guzara ho jayega ye sidhe sawaiya neg puja ji mein aaya tha, kah doon ki purohitai ke nam par bheekh lena achchhi baat nahin hai, par kaha itna hi, “ ab waqt badal gaya hai
manji ko bura laga tha us samay baat tal gai thi, lekin man mein ek ganth paD gai thi, jo mauqa pate hi us din khul paDi
aur mohalle walon ka khoon khaul utha tha—gharibni ki baiti hai jitti samarthy thi, paDhaya; nahin paDha sakti, ghar bitha liya uske bap ka ismen kya jata tha wo kaun hota tha, chori chhipe chalis rupae dekar fees bharne wala aur phir, uske pas chalis rupae aaye kahan se tankhwah to puri ki puri ghar mein de deta hai milte hi kitne hain, paintalis rupalli ghar mein kisi ne nahin diye? phir? phir kya, kahin chori chapati ki hogi kab ki baat hai teen mahine pahle ki are, tabhi hamare ghar mein ghaDi chori gai thi bass, ghaDi bech ke chalis diye honge shakunta ki fees ke aur aur baqi uDa diye honge are, uDa kya diye honge, din raat us misrani ke yahan ghusa rahta hai puchho, isi se puchho bata, kahan bechi thi ghaDi jhooth, jhooth bolta hai bata, kitte rupae liye the nai batata to le maro sale ko apne aap kabulega
lagta hai, us samay sari duniya ke prati widroh bhaw se bharkar jo is ajnabi shahr mein chala aaya tha, wo koi aur tha wo koi aur hi raha hoga, jo mishraji ka diya hua dhoti kurta pahne bharti press mein aa khaDa hua tha aur kaam mangne laga tha aaj ka sa man hota to rail mein baithkar yahan aane ke bajay rail ke niche letkar kahin chala jata, kintu un dinon to ek aag thi—haramzado, tumne mujhe beqasu mara hai, thahar jao thoDe din, gin ginkar ek ek se badla lunga un dinon bar bar ichha hoti thi ki koi Dakuon ka giroh mil jaye to usmen shamil ho jaun tab ek ek ko bhunkar rakh doon
lekin bharti press mein kaam mil gaya tha aur banarji babu ne hi ek kothari panch rupae mahine par dila di thi shuru shuru mein saman ke nam par misrani bhauji ki di hui ek chadar bhar thi, kintu dhire dhire kothari mein saman baDh gaya tha pachas rupae mein aram se mahina kat jata tha ek hi chadar oDh bichhakar sone ki majburi nahin rah gai thi, kintu jab chandni raat mein rajnigandha mahakne lagti aur DewiD ke wayalin ke swar dard mein bhigbhigkar aane lagte, tab neend uD jati
ote par kuhaniyan tikaye khaDi bhabhi ektak dekhti rahti amma aur jiji ke honth kuch kahne ke liye phaDakte rahte bhaiya mujhe ghar se bahar Dhelte rahte aur main sir jhukaye, bejan si banhen latkaye, pairon ko ghasitta hua sa darwaze se nikalta rahta, aur pas hi kahin ek jawan laDki rassiyon ki mar ke baad karahti rahti
kintu ek din wayalin khamosh ho gaya wo khamoshi baDi atapti lagi thi yon main janta tha ki DewiD cancer ka mariz hai, use kisi bhi din wayalin chhoDna paD sakta hai, lekin ek din usne kaha tha, “madho babu, doctor sala hamko bola ke wayalin mat bajao, lekin hum palat ke kaha, Daktar, wayalin nai bajayega to jiyega kaise? gres ko hum koi khushi nahin de paya, wayalin uska hobby hai, wo bhi hum band kar de? nai nai marte dam tak hum bajata rahega
kahte kahte uske gale ki nasen phool i theen aur katthai bundkiyon wale safed chehre par lal rang ubhar aaya tha chaipal ke ahate ki diwar par baithkar wo baDe itminan se baten kiya karta tha usne ayarlainD kabhi nahin dekha tha, lekin uska naqsha uske dimagh mein ghumta rahta kahta, “madho babu, hamara perents hamko ek mahine ka lekar yahan aaya tha hum ayrish hai ek mahine ka bachcha kya hota hai? yahin itna baDa ho gaya tum samajhte ho, mujhe theek se hindustani bolna nahin aata lekin bhai, is chaipal ke ahate mein mere mata pita ki bahut si yaden hain unhen banaye rakhne ke liye main waise hi bolta hoon, jaise we bolte the bahut pyar karte the mujhe” kahte hue usne hawa mein ek cross banaya tha
lekin us din wayalin nahin baj raha tha lagta tha ki chandni raat mein chaipal ke pas ka wo ilaqa us swar ke bina wiran ho gaya hai dekhne ke liye utra hi tha ki DewiD ki mirtyu suchana deta hua chaipal ka ghanta baj utha tha
us din gres ko dekha tha, phoot phutkar rote hue us gres ko, jo bimar aur bekar DewiD ko chunkar apni naukari se uske sath grihasthi chalati hui haDDiyon ki halki aur dubli unchai bhar rah gai thi meri samajh mein nahin aata tha ki kaun sa sukh bhoga hoga unhonne par
mainne bhi to baDe yatnpurwak apne pariwesh mein atit ki har cheez ka ek paryay khoj nikala tha amma ke liye paDos mein rahne wali pramod ji ki man, jiji ke liye bangali babu ki bahan roma di, bhabhi ke liye mona bhabhi, mishra ji ke liye wimal da aur misrani bhauji ke liye shanta bhabhi lekin shakunta ka paryay nahin milta tha uske paryay ki talash jari thi in paryayon ki talash mein kabhi kabhi man jhuthe atmtosh se bhar jata ki ye sare sambandh zabardasti thope hue nahin hain, balki swayan banaye hue hain sab kuch swayan arjit kiya hua hai
ek ichchhapurwak chun lene ka ehsas hota kharid lene ki si anubhuti, jo bhranti hokar bhi sukh deti thi
par DewiD ki mirtyu ne sab kuch jhuthla diya chandni raton ki khamoshi door karne ke liye koi DewiD nahin kharida ja sakta gres ke ansuon ko sukhane ke liye koi aisa rumal nahin kharida ja sakta, jo uski ankhon mein gahrati hui DewiD ke abhaw ki khai ko Dhank pat de!
adami baton ko khanon mein bantakar aur ek ek khane se type lekar zindagi compose karta chala jata hai, lekin main kampozitar hote hue bhi
jhaDi se ek tahni khinchne par jaise ek dusre se ulajhkar bahut se jhaD jhankhaD khinch aate hain, waise hi apni baton ke sath aur bahut son ki baten aur yaden, chali aati hain
us din achanak bharti press ka pata puchhte hue bhaiya mere samne aa khaDe hue, to mere hath kanp gaye the panch chhah mahine baad bina kisi suchana ke bhaiya kyon chale aaye? us din bhi nannhe nannhe taipon se compose ki hui ek line toot bikhar gai thi tuti hui line dobara compose karne ke bajay main stick ek or rakhkar bhaiya ke pair chhune ke liye jhuk gaya tha aur jab sabke samne bhaiya ki ankhon se ansu nikal paDe the, to laga tha ki bhaiya ki zindagi ki puri geli ke proof mein ye ansu ‘gaing faunt bankar chamak rahe hain
maila sa safed kurta aur dhoti pairon mein tuti chappal bikhre hue baal aur chehre par raat bhar ke jagaran aur safar ki thakan udasi bankar jami hui sahsa wishwas nahin hua ki bhaiya itne dayniy roop mein bhi kabhi mere samne aa sakte hain
chhutti lekar press se nikla to samajh mein nahin aa raha tha ki unhen kahan le jaun kothari chhoDne ka duःkh ho raha tha panch rupae ki bachat ke moh mein lekin bhitar hi bhitar ek bhay sa mujhe kanpaye ja raha tha mere sath gres ko dekhkar kya kahenge bhaiya?
phir sahsa sir jhukaye, bejan se hath jhulata aur pairon ko ghasitte hue darwaze se bahar nikalta hua ek laDka meri ankhon ke samne se guzar gaya aur main kathor ho aaya puchha itna hi, “amma kaisi hain?
theek hain
bhabhi
wah bhee
aur jiji?
gaye mahine uska byah kar diya
mainne bhaiya ki or ghurkar dekha laga ki unki udasi aur chehre par jami piDa ki parten ek mekap hain, jo kisi khas bhumika ke liye kiya gaya hai kaha, “mujhe khabar bhi nahin de sakte the?
tujhe bulane ka man to bahut tha, par log na jane kya sochte kisi ka munh to pakDa nahin jata kahin shadi hi ruk jati
“hoon!
“tu abhi tak naraz hai?
“naraz hone se kya hota hai! yahan kaise aana hua? pata kaise chala ki main yahan hoon?”
mishra ji jaunpur jate samay pata de gaye the marahra wale pichhe paDe hain apni laDki ke liye
“sab jante hue bhee?
are, usse kya farq paDta hai!”
mainne phir unke chehre ki or dekha, shayad tikhepan se kahne ke liye ki jiji ke byah mein mere aane se kya farq paDta tha! bhaiya ek kshan thithakkar mujhe ghurne lage the shayad meri drishti adhik tikhi ho gai thi phir unki ankhon mein aisi majburi jhalak i thi, mano kah rahe hon kya baat hai, tu hum logon ko maf nahin kar sakta?
lekin man ye sab sunne ke liye taiyar nahin tha apna apman chubh raha tha ichha ho rahi thi ki bhaiya ko jitna sata sakun, sataun shayad wahi mauqa tha ek kshan sochkar mainne kaha Dala tha, “mainne shadi kar li hai
shadi kar li hai? kab? kisse?” bhaiya ne meri banh pakaDkar mujhe jhinjhoD diya tha kshan bhar ko atank aur krodh ka mila jula sa anubhaw hua tha, kintu bhaiya ki pakaD Dhili ho jane par awaz khinchkar mainne kah diya tha, “chalo, dekh lo chalkar
bhaiya gres ko thoDi der tak ektak dekhte rahe the, phir unki ankhon mein wahi tu mere liye mar gaya wala bhaw aa gaya tha bole, “achchha, main chalun ab
kahan?
aj hi laut jana hai
lekin khana thoDa aram to kar lete, safar mein thak gaye honge
“khana aram ” bhaiya budabudaye, “khair, jo tumhare man mein aaye, karo adami ko akele hi apne hi pairon par ” aur uthkar chal diye the gres ne rukne ke liye kaha to unka chehra krodh aur ghrina se tan gaya us samay bhaiya par ghussa aaya laga ki yadi gres ke liye ek shabd bhi unhonne kaha to kuch anhona ho jayega lekin bhaiya chupchap hi palat paDe the sidhe station gaDi chalne tak main pas raha, par bhaiya meri or se munh phiraye rahe kuch bhi nahin bole mujhe lag raha tha ki gaDi chalne ke kshan tak bhaiya ka krodh shant ho jayega aur we gaDi se utarkar mere sath chal denge, kahenge, khair, ab jo hai, theek hai, kintu pletfarm par unke Dibbe ki khiDki ke samne main hath joDe khaDa rah gaya aur bhaiya dusri disha mein dekhte chale gaye ye bhi nahin dekh paya ki jate samay unki ankhon mein kya tha!
lautte samay unke budabudaye hue shabd yaad aate rahe—‘adami akele hi apne hi pairon par lekin ye hi shabd ek baad kitne tikhe swar mein kahe the bhaiya ne, haiskul kara diya, yahi bahut hai aage hamari samarthy nahin hai meri mano to press mein kaam sikhkar kuch kamane layaq bano, mainne shiwadyal ji se baat kar li hai aur aage tum jano aur amma janen mere pas nahin hai paisa kal ko tum to paDh likhkar apni grihasthi sambhaloge, phir mujhe to apne baal bachche dekhne hain adami akele hi jhelta hai, apne pairon par hi use khaDe hona paDta hai
tab se school college ki charcha bhi ghar mein nahin chali press mein do mahine kaam sikhne ke tees rupae aur tisre mahine se paintalis rupae mahine chhah paint se bahattar paint black white–itailik leD, rool, kainchi chimti ek ek akshar ek ek akshar
ye ungliyan ek din shithil ho jayengi, tab buDhe bholaram kampozitar ki tarah tankhwah sattar se ghatakar pachas kar di jayegi phir pachas se tees rupae aur ek din naukari se nikal diya jayega, bholaram, ab tumse kaam to hota nahin, buDhape mein baithkar aram kyon nahin karte?
sab, kamanewala to main hi hoon, aram karun to
ab to laDka baDa ho gaya hai, use sikha do kaam!
wo paDh raha hai, sab, paDh likh jayega to zindagi ban jayegi
lekin hum ye roz roz ka nuqsan kaise dekhen? ek rupae mein tum jitna kaam karte ho, koi naya laDka barah aane mein utna kaam kheench dega
lekin
lekin kuch nahin bholaram kampozitar zindagi ke pachas warsh chhah paint se bahattar paint ke pher mein bitakar, thanD, silan aur udasi se bhare isi kampozing section mein pachas sal tak mehnat se naukari karne ke baad bekar ho jata hai din bhar kaam mein lagi rahne wali gres aur dubli aur kamzor hoti ja rahi hai naukari se use nikal diya gaya hai mere assi nabbe rupae mein hi donon ka kaam kisi tarah chal raha hai, lekin aksar ye mahsus hota hai ki ye jine ka sahi tarika nahin hai
raat ke andhere mein jab hum donon ki sansen ek dusre ke pas jagi hui paDi rahti hain, tab DewiD ke man bap ke samay ki purani diwar ghaDi click click ke bajay ghalat ghalat kahti hui lagti rahti hai
ghalati ke is ehsas se bachne ke liye aur andhere mein ek dusre se apna chehra chhipane ke liye hum samip aa jate hain, lekin ye ahsas pichha nahin chhoDta jane kyon sab kuch bhool jane ke kshnon mein bhi ye yaad rahta hai ki hum ji nahin rahe, mirtyu ki thanDi, andheri aur gahri gufa mein utarte ja rahe hain
us din der raat tak owartaim karne ke baad ghar lauta to laga ki mausam badal gaya hai sardi khatm ho gai hai aur hawa mein kuch khushki si aa gai hai chandni phaili hui thi aur saDak battiyan bujhi hui theen chaipal ke ahate mein panw rakhte hi laga ki DewiD ki kami aaj sab dinon se adhik khatak rahi hai wayalin ki dhun ki kasar hai ki wo ho aur raat ka adhurapan mit jaye
ek aah si ahate ki hawa ko saumpte hue kamre ki or aaya to laga ki khiDki ke sahare wayalin liye hue apni parichit mudra mein DewiD khaDa hai bus, khaDa hi hai, baja nahin raha hain aage baDhkar pukara, “gres!” aur bain hatheli se uski gardan par bikhre balon ko sahla diya wo ro rahi thi, par mujhe dekhkar chaunki nahin wayalin usi tarah pakDe rahi ansu ponchhne ki bhi koshish nahin ki behad udas aur thanDe swar mein boli, “DewiD ki yaad aati hai aage ka shabd mera hi nam tha, lekin wo rulai mein dab gaya aur wo wayalin khiDki mein hi rakhkar aundhe munh charpai par ja giri
chupchap dekhta raha santwna bhi nahin de paya wayalin ko chhu sahla kar jaise swayan ko santwna dene ka prayatn karta raha
aur us raat
kitna aur rah gaya bhai?
“an? chaunkkar banarji babu ki or dekhta hoon, phir ekayek haDabDakar kahta hoon, “bus, abhi hua jata hai, sahab, sirf press line lagani hai
“to aaj do baje chhutti karne ka pakka irada hai?
“han sahab, aaj to ” man hota hai, kah doon ki aaj gres ke sath picture dekhne jana hai, par kaha nahin jata
“achchhi baat hai, lekin ruk jate to thoDa kaam aur nibat jata
chup rah jata hoon mere chup rah jane ka arth banarji babu samajhte hain aur chupchap daftar mein chale jate hain mere hath tezi se compose karne lagte hain line puri hone par matter utar bandhakar proof banarji babu ki mez par rakhkar tub mein bhare pani se kalikh lage hath dhone lagta hoon
chalte samay apna time card banarji babu ke samne baDhata hoon to kahte hain, “are han, tumhari ek chitthi hai ” aur ek postakarD meri or baDha dete hain
kone phata postakarD! bhabhi guzar gain!
card par likhe badsurat akshar kilon ki tarah ankhon mein chubhne lagte hain chupchap card jeb mein rakh leta hoon man mein koi kahta hai ki rona chahiye, lekin rone jaisa kuch mahsus nahin hota samne baithe mere time card par owartaim likhte hue banarji babu par mujhe ghussa aane lagta hain kitni der se ye is card ko rakhe baithe hain
time card jeb mein rakhkar bahar aata hoon to lagta hai ki dimagh ekdam thapp ho gaya hai widyaram treDil par ab bhi puri raftar se kaam kiye ja raha hai press se bahar nikalkar bhi treDil ki bhaDak bhaDak kanon par chot karti rahti hai bhabhi ke kai roop ankhon mein bhar aate hain unki khilkhilati hui hansi ki yaad chirti chali jati hai aur samne ke makan, saDak aur saDak par khelte hue bachche ankhon mein Dubne lagte hain ote par kuhaniyan tikaye khaDi bhabhi ka chehra sthir ektak takne lagta hai
ghar pahunchta hoon to achanak chaunk jata hoon gres asmani rang ki saDi pahne shishe ke samne khaDi hui balon mein kanghi pher rahi hai dekhte hi kahti hai, “tum bhi kya yaad karoge, aaj tumhari pasand ki ” lekin meri or ghumkar dekhte hi apni baat beech mein hi toD deti hai aur ekdam samne aakar kahti hai, “kya hua?”
main card nikalkar uske samne rakh deta hoon card paDhkar wo hawa mein hi cross ka nishan banakar kuch budabudati hai phir pas aakar mere balon ko sahlakar kahti hai, rowo mat, rone se kya hoga!” kahte kahte uska gala bhari ho jata hai aur wo rasoi ki or chali jati hai thoDi der mein aati hai to wahi sadi phuladar dhoti pahne hue, hath mein pani se bhara gilas liye hue, “lo utho, hath munh dho lo
das bajkar dasa
gaDi chhutne mein abhi panch minat aur hain Dibbe mein bheeD nahin hai jagah achchhi mil gai hai raat bhar aram se sote hue jaya ja sakta hai halka sa bistar berth par bichhakar gres niche utar i hai kah rahi hai, “dekho, pahunchte hi khabar dena aur ziyada din mat lagana
main kuch nahin bol pata hoon ek hi parashn man mein uthta hai—main kyon jau wahan? mujhe kisne bulaya hai? amma ne suchana bhijwai hai, bulaya to nahin hai bhaiya se sab kuch malum ho gaya hoga, lekin kuch nahin mere bare mein, gres ke bare mein ek shabd bhi nahin
jeb mein paDa ticket chubh sa raha hai ek chhote se shahr ka station yaad aa raha hai, jahan ek ajnabi shahr ko jane wali gaDi mein baithkar phir kabhi na lautne ki qas kha raha hoon, jahan misrani bhauji wida dene i hain aur ro paDi hain
ek shahr yaad aa raha hai, jahan ek laDka begunah pitkar apne pair ghasitta hua sa chal raha hai aur ek jawan laDki rassiyon ki mar ke baad karah rahi hai
gaDi siti dekar chalne ko hoti hai ki main tezi se bistar sametkar pletfarm par utar aata hoon gres poochh rahi hai, “yah kya, utar kyon aye?
main chup hoon khula hua bistar meri banhon mein bhincha hua hai aur gaDi ankhon ke samne se dhire dhire khisak rahi hai thoDi door jakar gaDi ki gati tez ho gai hai aur injan ki chhak chhak ki tarah mere sine mein dhak dhak ho rahi hai pletfarm jaise ek andhi gufa ban gaya hai aur wahan khaDa hua main kisi purani ghaDi ki click click ki awaz sun raha hoon
is bar february atthais ki hai stick mein aath paint ke chhote chhote type rakhte hue sat tarikh ko milne wale sath rupyon ke bare mein sochkar khush ho aata hoon kuch to fayda hai hi tees ikattis din kaam karne par bhi sath aur atthais din karne par bhi sal ke adhikansh mahinon mein ikattis din hone ki baat buri lagti hai, kintu aaj main ghusse aur duःkh se alag hatkar koi baat sochna chahta hoon man hi man anuman lagata hoon ki owartaim ke lagbhag tees rupae aur ho jayenge sath aur tees nabbe chalis eDwans ke nikal do pachas bus?
man kasaila sa ho aata hai rupyon ki baat sochkar achchha nahin kiya koi aur achchhi baat sochni chahiye jaise pul par khaDe hokar niche bahte hue pani ko dekhne ke bare mein koi baat aghan ki ankurai kheti par jami hui os bundon ki baat chandni raat mein ratrani ki gandhati kaliyon aur DewiD ke wayalin ki baat
stick mein jami hui lainen utarkar geli mein rakhne aur kapi par drishti jamakar kampozing ka sootr pakaDne ke baad jab abhyast hath tezi se chhote chhote type chunne lagte hain to sochta hoon ki aaj kuch baten anayas yaad aaye chali ja rahi hain lagta hai ki bhitar ka koi pahredar purani chizon ko ulatne palatne lagta hai
kampozing section suna paDa hai itwar ki chhutti mein akela hi ek urgent kaam ke liye owartaim mein aaya hoon banarji babu daftar mein baithe ungh rahe hain aur mashinmain widyaram apni khatara treDil chalaye ja raha hai machine ki awajen kampozing section tab saf aa rahi hain aur jaise aa aakar kahe ja rahi hain ki treDil samay ke chhote se chhote tukDon mein sade kaghzon par apni chhap chhoDe ja rahi hai compose kiye hui type machine par chaDhkar impression de rahe hain thoDi der mein inhen machine se utar diya jayega widyaram ka helpar unhen dhoega aur idhar de jayega sare type Distribyut ho jayenge aur unka us matter se koi sambandh nahin rahega, jismen lagkar we abhi chhap rahe hain phir ek naya matter compose hoga
charon aur thanD, silan aur manhusi chhai hui hai dhulabhre kes, lakDi ke purane rack, blauk, leD, rool, katar, chimti, kainchi, chippi, Dori sab thanDi aur udas! upar jalti hui markri tube ke ujale mein thanDa aur silan se bhara kamra, jaise koi gufa
man ke bhitar ka koi pahredar betartib phaili hui chizon ko utha uthakar bahar rakh raha hai mere hath ke anguthe se stick mein type jamane ke liye jo layyukt khatkhat ho rahi hai, usi lai mein wo pahredar kaam kar raha hai main jaise har line mein yathasambhaw barabar space Dal raha hoon, wo bhi chahta hai ki barabar jagah chhoDkar sab chizen qarine se jama de, par use asuwidha ho rahi hai shayad wo iska aadi nahin hai
tab aur ab mein kitna antar hai! pahle ke din aise nahin hote the—pighle koltar ki tarah dhire dhire riste hue se compose tab bhi karna paDta tha, lekin apne shahr se door ek ajnabi shahr ka nayapan ek uttejna si deta rahta tha yadyapi nam aur sandarbh matr ‘kampozitar mein simat aaye the aur subah sat se sham ke sat tak ki ek sidhi lakir din aur raat ko katti thi aur samay ke we donon tukDe jaise anachhue hi pas se phisalkar pani mein ja girte the
tab zindagi par ghussa bhi aata har cheez betuki lagti aur har baat ke baad kyon laga dene ki ichha hoti kothari ki chhat par ek hi chadar oDh bichhakar sone mein mujhe taklif hoti thi, lekin jis din taklif hoti, andheri raat hoti ya thakan se badan duःkh raha hota, neend baDi jaldi aa jati kintu chandni raat mein jab pramod ji ke baghiche mein ratrani ki kaliyan gandhane lagtin aur gali ke moD par bane chaipal ke pas rahne wala DewiD wayalin bajaya karta, to ankhon se neend uD jati
chandni aur rajnigandha ki mahak mein Duba hua khamosh shahr apne unche niche makanon mein chupchap so raha hota saDkon ki battiyan chandni raton mein bujh jaya kartin aur do manzile par bani us kothari ki chhat se charon or ki pahaDiyan sammohan phenkti hui si lagtin
tab apna shahr yaad aata DewiD ke wayalin ke swar barah ek baje tak dard mein bheeg bhigkar aate rahte aur mujhe lagta ki mere chhote se shahr mein shakuntala chupchap ro rahi hai uski peeth aur banhon par rassi ki mar ki nili barten ubhar i hain aur karahne ke liye uski man ne bhinche swar mein Dant diya hai
pas hi apna ghar hai
munna so gaya hai bhabhi chauke ke ote par kuhaniyan tikaye khaDi hain amma, jiji aur bhaiya angan mein mere samne khaDe hain bhaiya kah rahe hain, “tujhe jo lena ho, le ja, par ainda is ghar mein qadam rakhne ki zarurat nahin hai, samjha!
amma kuch kahne ko hoti hain, par bhaiya ka tikha swar unhen rok deta hai, “dekho amma, tum beech mein mat bolo ab ya to is ghar mein main rahunga ya ye rahega mere liye aaj se ye mar gaya aur iske liye main bantwara karna ho, abhi kar le, par mere rahte ab ye is ghar mein nahin ghus sakta
mere pairon mae taqat nahin rahi hai main baith jana chahta hoon nak se abhi tak khoon bah raha hai aur sir chakra raha hai us ghumeri mein jiji ki awaz sunai deti hai, “lekin bhaiya, aisi haalat mein kahan jayega wah?” bhaiya phir cheekh uthte hain, “aisi taisi mein jaye! mujhe kya malum!” aur unhonne mere donon kandhe pakaDkar mujhe darwaze ki or Dhel diya hai
chharr r r r r
ath paint ke nanhen taipon ki puri line space Dalkar kaste samay achanak toot jati hai kuch type kes mein gir paDte hain ghalat khanon mein girkar ye na jane kitne shabd ghalat karenge!
tuti hui line dobara compose karte hue lagta hai ki mere barabar ka hi ek laDka mere pas khaDa hua jhukkar tuti hui line aur chhitre hue taipon ko dekhkar raha hai sir jhuka hua hain nak se khoon bah raha hai kapDe jagah jagah se phat gaye hain mar ke nishan aur chot ki sujan badan par kai jagah dikhai de rahi hai main uski or ghurkar dekhta hoon to ye dhire dhire darwaze se bahar chala jata hai uske hath donon or bejan se jhool rahe hain aur wo jaise taise apne pairon ko ghasitta hua chal pa raha hai
bahar paDos ke ghar ka band darwaza hai, jis par ek chik jhool rahi hai aur us band darwaze ko bhedakar rassi ki saDak saDak ki awajen aa rahi hain, sath hi chikhen aur rudan, aur sabke upar ek karkash aur bhinchi hui awaz, “khabardar jo chillai! tu bhi to kam nahin hai, besram!
aur aage gali mein jane par hansi qahqahe, ghrina aur tiraskar mein Dube kuch swarः majnun hai sala zindagi bhar yaad rakkhega ghar se nikal diya? achchha kiya akhir baDa laDka samajhdar hai, iski to sale ki sohbat hi aisi hai!
sohbat!
us haalat mein aate hue dekhkar misrani bhauji dauD paDti hain, “are bhaiya, i ka bhawa? i ka haal banaye rakkha hai? kaunu sathe jhagDa hoi gawa ka? hay daiya!” mohalle walon ko galiyan deti jati hain aur haldi chune ka garm lep choton par lagati jati hain arddhmurchchha ki sthiti mein lagta hai, jaise apne sab log khaDe khaDe dekh rahe hain aur misrani bhauji apni komal ungliyon se rag rag sahlaye ja rahi hain
mishraji aur misrani bhauji se kuch nahin chhipa unhin se to chalis rupae udhaar liye the aur roz do ghante ka owartaim bachakar lautaye the shakunta ko samjha diya tha ki apni man ko na bataye, kah de, prinsipal ne apni taraf se imtihan ki fees bhar di hai, tees paintis rupae ke pichhe college ka result aur shakunta ka sal bigaDna we nahin chahtin
ye jhooth us samay achchha laga tha ek sapna tutne se bach gaya tha, jiski rakhsha shakunta ki man se nahin ho pa rahi thi lekin pariksha ke baad jab shakunta ne usi jhooth ka sach man se kah diya tha to we ubal paDi theen chhati pitti hui gali mein nikal i theen, “hay, ab to gharibon ki izzat aabru hi nahin rahi widhwa bamni lut gai re! sidhi jaan ke chhori ko bahkay liya reai ai ai chalisa rupaiya ki khatir
chalis rupae ki to aaD thi shakunta ki man us din ka badla le rahi theen jis din mainne kah diya tha, “manji, na ho koi chhoti moti dukan hi rakh lo ghar mein, do hi to jeew ho, guzara ho jayega ye sidhe sawaiya neg puja ji mein aaya tha, kah doon ki purohitai ke nam par bheekh lena achchhi baat nahin hai, par kaha itna hi, “ ab waqt badal gaya hai
manji ko bura laga tha us samay baat tal gai thi, lekin man mein ek ganth paD gai thi, jo mauqa pate hi us din khul paDi
aur mohalle walon ka khoon khaul utha tha—gharibni ki baiti hai jitti samarthy thi, paDhaya; nahin paDha sakti, ghar bitha liya uske bap ka ismen kya jata tha wo kaun hota tha, chori chhipe chalis rupae dekar fees bharne wala aur phir, uske pas chalis rupae aaye kahan se tankhwah to puri ki puri ghar mein de deta hai milte hi kitne hain, paintalis rupalli ghar mein kisi ne nahin diye? phir? phir kya, kahin chori chapati ki hogi kab ki baat hai teen mahine pahle ki are, tabhi hamare ghar mein ghaDi chori gai thi bass, ghaDi bech ke chalis diye honge shakunta ki fees ke aur aur baqi uDa diye honge are, uDa kya diye honge, din raat us misrani ke yahan ghusa rahta hai puchho, isi se puchho bata, kahan bechi thi ghaDi jhooth, jhooth bolta hai bata, kitte rupae liye the nai batata to le maro sale ko apne aap kabulega
lagta hai, us samay sari duniya ke prati widroh bhaw se bharkar jo is ajnabi shahr mein chala aaya tha, wo koi aur tha wo koi aur hi raha hoga, jo mishraji ka diya hua dhoti kurta pahne bharti press mein aa khaDa hua tha aur kaam mangne laga tha aaj ka sa man hota to rail mein baithkar yahan aane ke bajay rail ke niche letkar kahin chala jata, kintu un dinon to ek aag thi—haramzado, tumne mujhe beqasu mara hai, thahar jao thoDe din, gin ginkar ek ek se badla lunga un dinon bar bar ichha hoti thi ki koi Dakuon ka giroh mil jaye to usmen shamil ho jaun tab ek ek ko bhunkar rakh doon
lekin bharti press mein kaam mil gaya tha aur banarji babu ne hi ek kothari panch rupae mahine par dila di thi shuru shuru mein saman ke nam par misrani bhauji ki di hui ek chadar bhar thi, kintu dhire dhire kothari mein saman baDh gaya tha pachas rupae mein aram se mahina kat jata tha ek hi chadar oDh bichhakar sone ki majburi nahin rah gai thi, kintu jab chandni raat mein rajnigandha mahakne lagti aur DewiD ke wayalin ke swar dard mein bhigbhigkar aane lagte, tab neend uD jati
ote par kuhaniyan tikaye khaDi bhabhi ektak dekhti rahti amma aur jiji ke honth kuch kahne ke liye phaDakte rahte bhaiya mujhe ghar se bahar Dhelte rahte aur main sir jhukaye, bejan si banhen latkaye, pairon ko ghasitta hua sa darwaze se nikalta rahta, aur pas hi kahin ek jawan laDki rassiyon ki mar ke baad karahti rahti
kintu ek din wayalin khamosh ho gaya wo khamoshi baDi atapti lagi thi yon main janta tha ki DewiD cancer ka mariz hai, use kisi bhi din wayalin chhoDna paD sakta hai, lekin ek din usne kaha tha, “madho babu, doctor sala hamko bola ke wayalin mat bajao, lekin hum palat ke kaha, Daktar, wayalin nai bajayega to jiyega kaise? gres ko hum koi khushi nahin de paya, wayalin uska hobby hai, wo bhi hum band kar de? nai nai marte dam tak hum bajata rahega
kahte kahte uske gale ki nasen phool i theen aur katthai bundkiyon wale safed chehre par lal rang ubhar aaya tha chaipal ke ahate ki diwar par baithkar wo baDe itminan se baten kiya karta tha usne ayarlainD kabhi nahin dekha tha, lekin uska naqsha uske dimagh mein ghumta rahta kahta, “madho babu, hamara perents hamko ek mahine ka lekar yahan aaya tha hum ayrish hai ek mahine ka bachcha kya hota hai? yahin itna baDa ho gaya tum samajhte ho, mujhe theek se hindustani bolna nahin aata lekin bhai, is chaipal ke ahate mein mere mata pita ki bahut si yaden hain unhen banaye rakhne ke liye main waise hi bolta hoon, jaise we bolte the bahut pyar karte the mujhe” kahte hue usne hawa mein ek cross banaya tha
lekin us din wayalin nahin baj raha tha lagta tha ki chandni raat mein chaipal ke pas ka wo ilaqa us swar ke bina wiran ho gaya hai dekhne ke liye utra hi tha ki DewiD ki mirtyu suchana deta hua chaipal ka ghanta baj utha tha
us din gres ko dekha tha, phoot phutkar rote hue us gres ko, jo bimar aur bekar DewiD ko chunkar apni naukari se uske sath grihasthi chalati hui haDDiyon ki halki aur dubli unchai bhar rah gai thi meri samajh mein nahin aata tha ki kaun sa sukh bhoga hoga unhonne par
mainne bhi to baDe yatnpurwak apne pariwesh mein atit ki har cheez ka ek paryay khoj nikala tha amma ke liye paDos mein rahne wali pramod ji ki man, jiji ke liye bangali babu ki bahan roma di, bhabhi ke liye mona bhabhi, mishra ji ke liye wimal da aur misrani bhauji ke liye shanta bhabhi lekin shakunta ka paryay nahin milta tha uske paryay ki talash jari thi in paryayon ki talash mein kabhi kabhi man jhuthe atmtosh se bhar jata ki ye sare sambandh zabardasti thope hue nahin hain, balki swayan banaye hue hain sab kuch swayan arjit kiya hua hai
ek ichchhapurwak chun lene ka ehsas hota kharid lene ki si anubhuti, jo bhranti hokar bhi sukh deti thi
par DewiD ki mirtyu ne sab kuch jhuthla diya chandni raton ki khamoshi door karne ke liye koi DewiD nahin kharida ja sakta gres ke ansuon ko sukhane ke liye koi aisa rumal nahin kharida ja sakta, jo uski ankhon mein gahrati hui DewiD ke abhaw ki khai ko Dhank pat de!
adami baton ko khanon mein bantakar aur ek ek khane se type lekar zindagi compose karta chala jata hai, lekin main kampozitar hote hue bhi
jhaDi se ek tahni khinchne par jaise ek dusre se ulajhkar bahut se jhaD jhankhaD khinch aate hain, waise hi apni baton ke sath aur bahut son ki baten aur yaden, chali aati hain
us din achanak bharti press ka pata puchhte hue bhaiya mere samne aa khaDe hue, to mere hath kanp gaye the panch chhah mahine baad bina kisi suchana ke bhaiya kyon chale aaye? us din bhi nannhe nannhe taipon se compose ki hui ek line toot bikhar gai thi tuti hui line dobara compose karne ke bajay main stick ek or rakhkar bhaiya ke pair chhune ke liye jhuk gaya tha aur jab sabke samne bhaiya ki ankhon se ansu nikal paDe the, to laga tha ki bhaiya ki zindagi ki puri geli ke proof mein ye ansu ‘gaing faunt bankar chamak rahe hain
maila sa safed kurta aur dhoti pairon mein tuti chappal bikhre hue baal aur chehre par raat bhar ke jagaran aur safar ki thakan udasi bankar jami hui sahsa wishwas nahin hua ki bhaiya itne dayniy roop mein bhi kabhi mere samne aa sakte hain
chhutti lekar press se nikla to samajh mein nahin aa raha tha ki unhen kahan le jaun kothari chhoDne ka duःkh ho raha tha panch rupae ki bachat ke moh mein lekin bhitar hi bhitar ek bhay sa mujhe kanpaye ja raha tha mere sath gres ko dekhkar kya kahenge bhaiya?
phir sahsa sir jhukaye, bejan se hath jhulata aur pairon ko ghasitte hue darwaze se bahar nikalta hua ek laDka meri ankhon ke samne se guzar gaya aur main kathor ho aaya puchha itna hi, “amma kaisi hain?
theek hain
bhabhi
wah bhee
aur jiji?
gaye mahine uska byah kar diya
mainne bhaiya ki or ghurkar dekha laga ki unki udasi aur chehre par jami piDa ki parten ek mekap hain, jo kisi khas bhumika ke liye kiya gaya hai kaha, “mujhe khabar bhi nahin de sakte the?
tujhe bulane ka man to bahut tha, par log na jane kya sochte kisi ka munh to pakDa nahin jata kahin shadi hi ruk jati
“hoon!
“tu abhi tak naraz hai?
“naraz hone se kya hota hai! yahan kaise aana hua? pata kaise chala ki main yahan hoon?”
mishra ji jaunpur jate samay pata de gaye the marahra wale pichhe paDe hain apni laDki ke liye
“sab jante hue bhee?
are, usse kya farq paDta hai!”
mainne phir unke chehre ki or dekha, shayad tikhepan se kahne ke liye ki jiji ke byah mein mere aane se kya farq paDta tha! bhaiya ek kshan thithakkar mujhe ghurne lage the shayad meri drishti adhik tikhi ho gai thi phir unki ankhon mein aisi majburi jhalak i thi, mano kah rahe hon kya baat hai, tu hum logon ko maf nahin kar sakta?
lekin man ye sab sunne ke liye taiyar nahin tha apna apman chubh raha tha ichha ho rahi thi ki bhaiya ko jitna sata sakun, sataun shayad wahi mauqa tha ek kshan sochkar mainne kaha Dala tha, “mainne shadi kar li hai
shadi kar li hai? kab? kisse?” bhaiya ne meri banh pakaDkar mujhe jhinjhoD diya tha kshan bhar ko atank aur krodh ka mila jula sa anubhaw hua tha, kintu bhaiya ki pakaD Dhili ho jane par awaz khinchkar mainne kah diya tha, “chalo, dekh lo chalkar
bhaiya gres ko thoDi der tak ektak dekhte rahe the, phir unki ankhon mein wahi tu mere liye mar gaya wala bhaw aa gaya tha bole, “achchha, main chalun ab
kahan?
aj hi laut jana hai
lekin khana thoDa aram to kar lete, safar mein thak gaye honge
“khana aram ” bhaiya budabudaye, “khair, jo tumhare man mein aaye, karo adami ko akele hi apne hi pairon par ” aur uthkar chal diye the gres ne rukne ke liye kaha to unka chehra krodh aur ghrina se tan gaya us samay bhaiya par ghussa aaya laga ki yadi gres ke liye ek shabd bhi unhonne kaha to kuch anhona ho jayega lekin bhaiya chupchap hi palat paDe the sidhe station gaDi chalne tak main pas raha, par bhaiya meri or se munh phiraye rahe kuch bhi nahin bole mujhe lag raha tha ki gaDi chalne ke kshan tak bhaiya ka krodh shant ho jayega aur we gaDi se utarkar mere sath chal denge, kahenge, khair, ab jo hai, theek hai, kintu pletfarm par unke Dibbe ki khiDki ke samne main hath joDe khaDa rah gaya aur bhaiya dusri disha mein dekhte chale gaye ye bhi nahin dekh paya ki jate samay unki ankhon mein kya tha!
lautte samay unke budabudaye hue shabd yaad aate rahe—‘adami akele hi apne hi pairon par lekin ye hi shabd ek baad kitne tikhe swar mein kahe the bhaiya ne, haiskul kara diya, yahi bahut hai aage hamari samarthy nahin hai meri mano to press mein kaam sikhkar kuch kamane layaq bano, mainne shiwadyal ji se baat kar li hai aur aage tum jano aur amma janen mere pas nahin hai paisa kal ko tum to paDh likhkar apni grihasthi sambhaloge, phir mujhe to apne baal bachche dekhne hain adami akele hi jhelta hai, apne pairon par hi use khaDe hona paDta hai
tab se school college ki charcha bhi ghar mein nahin chali press mein do mahine kaam sikhne ke tees rupae aur tisre mahine se paintalis rupae mahine chhah paint se bahattar paint black white–itailik leD, rool, kainchi chimti ek ek akshar ek ek akshar
ye ungliyan ek din shithil ho jayengi, tab buDhe bholaram kampozitar ki tarah tankhwah sattar se ghatakar pachas kar di jayegi phir pachas se tees rupae aur ek din naukari se nikal diya jayega, bholaram, ab tumse kaam to hota nahin, buDhape mein baithkar aram kyon nahin karte?
sab, kamanewala to main hi hoon, aram karun to
ab to laDka baDa ho gaya hai, use sikha do kaam!
wo paDh raha hai, sab, paDh likh jayega to zindagi ban jayegi
lekin hum ye roz roz ka nuqsan kaise dekhen? ek rupae mein tum jitna kaam karte ho, koi naya laDka barah aane mein utna kaam kheench dega
lekin
lekin kuch nahin bholaram kampozitar zindagi ke pachas warsh chhah paint se bahattar paint ke pher mein bitakar, thanD, silan aur udasi se bhare isi kampozing section mein pachas sal tak mehnat se naukari karne ke baad bekar ho jata hai din bhar kaam mein lagi rahne wali gres aur dubli aur kamzor hoti ja rahi hai naukari se use nikal diya gaya hai mere assi nabbe rupae mein hi donon ka kaam kisi tarah chal raha hai, lekin aksar ye mahsus hota hai ki ye jine ka sahi tarika nahin hai
raat ke andhere mein jab hum donon ki sansen ek dusre ke pas jagi hui paDi rahti hain, tab DewiD ke man bap ke samay ki purani diwar ghaDi click click ke bajay ghalat ghalat kahti hui lagti rahti hai
ghalati ke is ehsas se bachne ke liye aur andhere mein ek dusre se apna chehra chhipane ke liye hum samip aa jate hain, lekin ye ahsas pichha nahin chhoDta jane kyon sab kuch bhool jane ke kshnon mein bhi ye yaad rahta hai ki hum ji nahin rahe, mirtyu ki thanDi, andheri aur gahri gufa mein utarte ja rahe hain
us din der raat tak owartaim karne ke baad ghar lauta to laga ki mausam badal gaya hai sardi khatm ho gai hai aur hawa mein kuch khushki si aa gai hai chandni phaili hui thi aur saDak battiyan bujhi hui theen chaipal ke ahate mein panw rakhte hi laga ki DewiD ki kami aaj sab dinon se adhik khatak rahi hai wayalin ki dhun ki kasar hai ki wo ho aur raat ka adhurapan mit jaye
ek aah si ahate ki hawa ko saumpte hue kamre ki or aaya to laga ki khiDki ke sahare wayalin liye hue apni parichit mudra mein DewiD khaDa hai bus, khaDa hi hai, baja nahin raha hain aage baDhkar pukara, “gres!” aur bain hatheli se uski gardan par bikhre balon ko sahla diya wo ro rahi thi, par mujhe dekhkar chaunki nahin wayalin usi tarah pakDe rahi ansu ponchhne ki bhi koshish nahin ki behad udas aur thanDe swar mein boli, “DewiD ki yaad aati hai aage ka shabd mera hi nam tha, lekin wo rulai mein dab gaya aur wo wayalin khiDki mein hi rakhkar aundhe munh charpai par ja giri
chupchap dekhta raha santwna bhi nahin de paya wayalin ko chhu sahla kar jaise swayan ko santwna dene ka prayatn karta raha
aur us raat
kitna aur rah gaya bhai?
“an? chaunkkar banarji babu ki or dekhta hoon, phir ekayek haDabDakar kahta hoon, “bus, abhi hua jata hai, sahab, sirf press line lagani hai
“to aaj do baje chhutti karne ka pakka irada hai?
“han sahab, aaj to ” man hota hai, kah doon ki aaj gres ke sath picture dekhne jana hai, par kaha nahin jata
“achchhi baat hai, lekin ruk jate to thoDa kaam aur nibat jata
chup rah jata hoon mere chup rah jane ka arth banarji babu samajhte hain aur chupchap daftar mein chale jate hain mere hath tezi se compose karne lagte hain line puri hone par matter utar bandhakar proof banarji babu ki mez par rakhkar tub mein bhare pani se kalikh lage hath dhone lagta hoon
chalte samay apna time card banarji babu ke samne baDhata hoon to kahte hain, “are han, tumhari ek chitthi hai ” aur ek postakarD meri or baDha dete hain
kone phata postakarD! bhabhi guzar gain!
card par likhe badsurat akshar kilon ki tarah ankhon mein chubhne lagte hain chupchap card jeb mein rakh leta hoon man mein koi kahta hai ki rona chahiye, lekin rone jaisa kuch mahsus nahin hota samne baithe mere time card par owartaim likhte hue banarji babu par mujhe ghussa aane lagta hain kitni der se ye is card ko rakhe baithe hain
time card jeb mein rakhkar bahar aata hoon to lagta hai ki dimagh ekdam thapp ho gaya hai widyaram treDil par ab bhi puri raftar se kaam kiye ja raha hai press se bahar nikalkar bhi treDil ki bhaDak bhaDak kanon par chot karti rahti hai bhabhi ke kai roop ankhon mein bhar aate hain unki khilkhilati hui hansi ki yaad chirti chali jati hai aur samne ke makan, saDak aur saDak par khelte hue bachche ankhon mein Dubne lagte hain ote par kuhaniyan tikaye khaDi bhabhi ka chehra sthir ektak takne lagta hai
ghar pahunchta hoon to achanak chaunk jata hoon gres asmani rang ki saDi pahne shishe ke samne khaDi hui balon mein kanghi pher rahi hai dekhte hi kahti hai, “tum bhi kya yaad karoge, aaj tumhari pasand ki ” lekin meri or ghumkar dekhte hi apni baat beech mein hi toD deti hai aur ekdam samne aakar kahti hai, “kya hua?”
main card nikalkar uske samne rakh deta hoon card paDhkar wo hawa mein hi cross ka nishan banakar kuch budabudati hai phir pas aakar mere balon ko sahlakar kahti hai, rowo mat, rone se kya hoga!” kahte kahte uska gala bhari ho jata hai aur wo rasoi ki or chali jati hai thoDi der mein aati hai to wahi sadi phuladar dhoti pahne hue, hath mein pani se bhara gilas liye hue, “lo utho, hath munh dho lo
das bajkar dasa
gaDi chhutne mein abhi panch minat aur hain Dibbe mein bheeD nahin hai jagah achchhi mil gai hai raat bhar aram se sote hue jaya ja sakta hai halka sa bistar berth par bichhakar gres niche utar i hai kah rahi hai, “dekho, pahunchte hi khabar dena aur ziyada din mat lagana
main kuch nahin bol pata hoon ek hi parashn man mein uthta hai—main kyon jau wahan? mujhe kisne bulaya hai? amma ne suchana bhijwai hai, bulaya to nahin hai bhaiya se sab kuch malum ho gaya hoga, lekin kuch nahin mere bare mein, gres ke bare mein ek shabd bhi nahin
jeb mein paDa ticket chubh sa raha hai ek chhote se shahr ka station yaad aa raha hai, jahan ek ajnabi shahr ko jane wali gaDi mein baithkar phir kabhi na lautne ki qas kha raha hoon, jahan misrani bhauji wida dene i hain aur ro paDi hain
ek shahr yaad aa raha hai, jahan ek laDka begunah pitkar apne pair ghasitta hua sa chal raha hai aur ek jawan laDki rassiyon ki mar ke baad karah rahi hai
gaDi siti dekar chalne ko hoti hai ki main tezi se bistar sametkar pletfarm par utar aata hoon gres poochh rahi hai, “yah kya, utar kyon aye?
main chup hoon khula hua bistar meri banhon mein bhincha hua hai aur gaDi ankhon ke samne se dhire dhire khisak rahi hai thoDi door jakar gaDi ki gati tez ho gai hai aur injan ki chhak chhak ki tarah mere sine mein dhak dhak ho rahi hai pletfarm jaise ek andhi gufa ban gaya hai aur wahan khaDa hua main kisi purani ghaDi ki click click ki awaz sun raha hoon
स्रोत :
पुस्तक : श्रेष्ठ हिन्दी कहानियाँ (1960-1970) (पृष्ठ 89)
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।