मुंशी इंद्रमणि की आमदनी कम थी और ख़र्च ज़्यादा। अपने बच्चे के लिए दाई रखने का ख़र्च न उठा सकते थे, लेकिन एक तो बच्चे की सेवा-सुश्रुषा की फ़िक्र और दूसरे अपने बराबर वालों में हेठे बनकर रहने का अपमान इस ख़र्च को सहने पर मजबूर करता था। बच्चा दाई को बहुत चाहता था, हरदम उसके गले का हार बना रहता था, इसलिए दाई और भी ज़रूरी मालूम होती थी। पर शायद सबसे बड़ा कारण यह था कि वह मुरौवत के वश दाई को जवाब देने का साहस नहीं कर सकते थे। बुढ़िया उसके यहाँ तीन साल से नौकर थी। उसने उनके इकलौते लड़के का लालन-पालन किया था। अपना काम बड़ी मुस्तैदी और परिश्रम से करती थी। उसे निकालने का कोई बहाना नहीं था और व्यर्थ खुचड़ निकालना इंद्रमणि जैसे भले आदमी के स्वभाव के विरुद्ध था। पर सुखदा इस संबंध में पति से सहमत न थी, उसे संदेह था की दाई हमें लूट लेती है। जब दाई बाज़ार से लौटती तो वह दालान में छिपी रहती कि देखूँ आटा कहीं छिपाकर तो नहीं रख देती, लकड़ी तो नहीं छिपा देती। उसकी लाई हुई चीज़ों को घंटों देखती, पूछताछ करती, बार-बार पूछती—इतना ही क्यों? क्या भाव है? क्या इतना महँगा हो गया? दाई कभी तो इन संदेहात्मक प्रश्नों का उत्तर नम्रतापूर्वक देती, किंतु जब कभी बहु जी ज़्यादा तेज़ हो जाती, तो वह भी कड़ी पड़ जाती थी। शपतें खाती। सफ़ाई की शहादतें पेश करती। वाद-विवाद में घंटों लग जाते थे। प्रायः नित्य ही यही दशा रहती और प्रतिदिन यह नाटक दाई के अश्रुपात के साथ समाप्त होता था। दाई का इतनी सख़्तियाँ झेलकर पड़े रहना सुखदा के संदेह को और भी पुष्ट करता था। उसे कभी विश्वास नहीं होता था कि यह बुढ़िया केवल बच्चे के प्रेमवश पड़ी हुई है। वह बुढ़िया को इतनी बाल-प्रेमशीला नहीं समझती थी।
दो
संयोग से एक दिन दाई को बाज़ार से लौटने में ज़रा देर हो गई। वहाँ दो कुँजड़िनों में देवासुर संग्राम रचा था। उनका चित्रमय हाव-भाव, उनका आग्नेय तर्क-वितर्क, उनके कटाक्ष और व्यंग्य सब अनुपम थे। विष के दो नद थे या ज्वाला के दो पर्वत, जो दोनों तरफ़ से उमड़कर आपस में टकरा गए! वाक्य का क्या प्रवाह था, कैसी विचित्र विवेचना! उनका शब्द बाहुल्य, उनकी मार्मिक विचारशीलता, उनके अलंकृत शब्द-विन्यास और उपमाओं की नवीनता पर ऐसा कौन-सा कवि है जो मुग्ध न हो जाता। उनका धैर्य, उनकी शांति विस्मयजनक थी। दर्शकों की एक ख़ासी भीड़ लगी थी। वे लाज को लज्जित करने वाले इशारे, वे अश्लील शब्द जिनसे मलिनता के भी कान खड़े होते, सेकड़ों रसिकजनों के लिए मनोरंजन की सामग्री बने हुए थे।
दाई भी खड़ी हो गई कि देखूँ क्या मामला है। तमाशा इतना मनोरंजक था कि उसे समय का बिलकुल ध्यान न रहा। एकाएक जब नौ के घंटे की आवाज़ कान में आई तो चौंक पड़ी और लपकी हुई घर की ओर चली।
सुखदा भरी बैठी थी। दाई को देखते ही त्योरी बदलकर बोली—क्या बाज़ार में खो गई थी?
दाई विनयपूर्ण भाव से बोली—एक जान-पहचान की महरी से भेंट हो गई। वह बातें करने लगी।
सुखदा इस जवाब से और भी चिढ़कर बोली—यहाँ दफ़्तर जाने को देर हो रही है और तुम्हें सैर-सपाटे की सूझती है।
परंतु दाई ने इस समय दबने में ही कुशल समझी, बच्चे को गोद में लेने चली, पर सुखदा ने झिड़ककर कहा—रहने दो, तुम्हारे बिना वह व्याकुल नहीं हुआ जाता।
दाई ने इस आज्ञा का मानना आवश्यक नहीं समझा। बहूजी का क्रोध ठंडा करने के लिए इससे उपयोगी और कोई और उपाय न सूझा। उसने रुद्रमणि को इशारे से अपने पास बुलाया। वह दोनों हाथ फैलाए लड़खड़ाता हुआ उसकी ओर चला। दाई ने उसे गोद में उठा लिया और दरवाज़े की तरफ़ चली। लेकिन सुखदा बाज की तरह झपटी और रुद्र को उसकी गोदी से छीन कर बोली—तुम्हारी ये धूर्तता बहुत दिनों से देख रही हूँ। यह तमाशे किसी और को दिखाइए! यहाँ जी भर गया।
दाई रुद्र पर जान देती थी और समझती थी कि सुखदा इस बात को जानती है। उसकी समझ में सुखदा और उसके बीच ऐसा मज़बूत संबंध था, जिसे साधारण झटके तोड़ न सकते थे। यही कारण था कि सुखदा के कटु वचनों को सुनकर भी उसे यह विश्वास न होता था कि मुझे निकालने पर प्रस्तुत है, पर सुखदा ने यह बातें कुछ ऐसी कठोरता से कही और रुद्र को ऐसी निर्दयता से छीन लिया कि दाई से सहन न हो सका। बोली—बहूजी मुझसे कोई बड़ा अपराध तो नहीं हुआ, बहुत तो पाव घंटे की देरी हुई होगी। इसी पर आप इतना बिगड़ रही हैं तो साफ़ क्यों नहीं कह देती कि दूसरा दरवाज़ा देखो। नारायण ने पैदा किया है तो खाने को भी देगा। मज़दूरी का अकाल थोड़े ही है!
सुखदा ने कहा—तो यहाँ तुम्हारी परवाह ही कौन करता है। तुम्हारे-जैसी लौंडियें गली-गली ठोकरें खाती फिरती हैं!
दाई ने जवाब दिया—हाँ, नारायण आपको कुशल से रक्खे। लौंडियें और दाइयाँ आपको बहुत मिलेंगी। मुझ से जो कुछ अपराध हुआ हो, क्षमा कीजिएगा। मैं जाती हूँ।
सुखदा—जाकर मरदाने में अपना हिसाब कर लो।
दाई—मेरी तरफ़ से रुद्र बाबू को मिठाइयाँ मँगवा दीजिएगा।
इतने में इंद्रमणि भी बाहर आ गए। पूछा—क्या है क्या?
दाई ने कहा—कुछ नहीं। बहू जी ने जवाब दे दिया है, घर जाती हूँ।
इंद्रमणि गृहस्थी के जंजाल से इस तरह बचते थे, जैसे कोई नंगे पैरवाला मनुष्य काँटों से बचे। उन्हें सारे दिन एक ही जगह खड़े रहना मंजूर था, पर काँटों में पैर रखने की हिम्मत न थी। खिन्न होकर बोले—बात क्या हुई?
सुखदा ने कहा—कुछ नहीं। अपनी इच्छा। नहीं जी चाहता, नहीं रखते। किसी के हाथों बिक तो नहीं गए।
इंद्रमणि ने झुँझलाकर कहा—तुम्हें बैठे-बैठाए एक-न-एक खुचड़ सूझती रहती है।
सुखदा ने तिनक कर कहा, मुझे तो इसका रोग है क्या करूँ स्वाभाव ही ऐसा है। तुम्हें यह बहुत प्यारी है तो ले जाकर गले में बाँध लो, मेरे पास यहाँ ज़रूरत नहीं।
तीन
दाई घर से निकली तो आँखें डबडबाई हुई थीं। हृदय रुद्रमणि के लिए तड़प रहा था। जी चाहता था कि बालक को लेकर प्यार से चूम लूँ; पर यह अभिलाषा लिए ही उसे घर से बाहर निकलना था।
रुद्रमणि दाई के पीछे-पीछे दरवाज़े तक आया; पर दाई ने जब दरवाज़ा बाहर से बंद कर दिया, तो वह मचल कर ज़मीन पर लेट गया और अन्ना-अन्ना कहकर रोने लगा। सुखदा ने पुचकारा, प्यार किया, गोद में लेने की कोशिश की, मिठाई देने का लालच दिया, मेला दिखाने का वादा किया, इससे जब काम न चला तो बंदर, सिपाही, लूलू, और हौआ की धमकी दी। पर रुद्र ने वह रौद्र भाव धारण किया, कि किसी तरह चुप न हुआ। यहाँ तक कि सुखदा को क्रोध आ गया, बच्चे को वहीं छोड़ दिया और घर के धंधे में लग गई। रोते-रोते रुद्र का मुँह और गाल लाल हो गए, आँखें सूज गई। निदान वह वहीं ज़मीन पर सिसकते-सिसकते सो गया।
सुखदा ने समझा था कि बच्चा थोड़ी देर में रो-धोकर चुप हो जाएगा; पर रुद्र ने जागते ही अन्ना की रट लगाई। तीन बजे इंद्रमणि दफ़्तर से आए और बच्चे की यह दशा देखी तो स्त्री की तरफ़ पर कुपित नेत्रों से देखकर उसे गोद में उठा लिया और बहलाने लगे। जब अंत में रुद्र को यह विश्वास हो गया कि दाई मिठाई लेने गई है तो उसे संतोष हुआ।
परंतु शाम होते ही उसने फिर चीख़ना शुरू किया—अन्ना मिठाई ला।
इस तरह दो-तीन दिन बीत गए। रुद्र का अन्ना की रट लगाने और रोने के सिवा और कोई काम न था। वह शांत प्रकृति कुत्ता जो उसकी गोद से एक क्षण के लिए भी न उतरता था, वह मौन व्रतधारी बिल्ली जिसे ताख पर देखकर वह ख़ुशी से फूला न समाता था, वह पंखहीन चिड़िया जिस पर वह जान देता था, सब उसके चित्त से उतर गए। वह उनकी तरफ़ आँख उठाकर भी नहीं देखता। अन्ना जैसी जीती जागती, प्यार करने वाली, गोद में लेकर घुमाने वाली, थपक-थपक कर सुलाने वाली, गा-गाकर ख़ुश करने वाली चीज़ का स्थान इन निर्जीव चीज़ों से पूरा न हो सकता था। वह अकसर सोते-सोते चौंक पड़ता और अन्ना-अन्ना पुकार कर हाथों से इशारा करता, मानों उसे बुला रहा है। अन्ना की ख़ाली कोठरी में घंटों बैठा रहता। उसे आशा होती कि अन्ना यहाँ आती होगी। इस कोठारी का दरवाज़ा खुलते सुनता तो “अन्ना! अन्ना” कह कर दौड़ता। समझता की अन्ना आ गई। उसका भरा हुआ शरीर घुल गया, गुलाब-जैसा चेहरा सूख गया माँ और बाप उसकी मोहनी हँसी के लिए तरस कर रह जाते थे। यदि बहुत गुदगुदाने या छेड़ने से हँसता, केवल दिल रखने लिए हँस रहा है। उसे अब दूध से प्रेम नहीं था, न मिश्री से, न मेवे से, न मीठे बिस्कुट से, न ताज़ी इमरतियाँ में से। उनमे मज़ा तब था, जब अन्ना अपने हाथों से खिलाती थी। अब उनमें मज़ा नहीं था। दो साल का लहलहाता हुआ सुंदर पौधा मुर्झा गया। वह बालक जिसे गोद में उठाते ही नरमी, गर्मी और भारीपन का अनुभव होता था, अब सूखकर काँटा हो गया। सुखदा अपने बच्चे की यह दशा देखकर भीतर-ही-भीतर कुढ़ती, अपनी मूर्खता पर पछताती। इंद्रमणि जो शांत प्रिय आदमी थे, अब बालक को गोद से अलग न करते थे, उसे रोज़ हवा खिलाने ले जाते थे। नित्य नए खिलौने लाते थे। पर मुर्झाया हुआ पौधा किसी तरह भी न पनपता था। दाई उसके लिए संसार का सूर्य थी उस स्वाभाविक गर्मी और प्रकाश से वंचित रहकर हरियाली की बाहर कैसे दिखता? दाई के बिना उसे अब चारों ओर अँधेरा और सन्नाटा दिखाई देता था। दूसरी अन्ना तीसरे ही दिन रख ली गई थी; पर रुद्र उसकी सूरत देखते ही मुँह छिपा लेता था मानों वह कोई डाईन या चुड़ैल है।
प्रत्यक्ष रूप में दाई को न देखकर वह रुद्र अब उसकी कल्पना में मग्न रहता था। वहाँ उसकी अन्ना चलती फिरती दिखाई देती थी। उसकी वही गोद थी, वही स्नेह, वही प्यारी- प्यारी बातें, वही प्यारे गाने, वही मज़ेदार मिठाईयाँ, वही सुहावना-संसार, वही आनंदमय जीवन। अकेले बैठकर कल्पित अन्ना से बातें करता—अन्ना कुत्ता भूंके। अन्ना, गाय दूध देती। अन्ना उजला-उजला घोड़ा दौड़े। सवेरा होते ही लोटा लेकर दाई की कोठरी में जाता और कहता—अन्ना, पानी। दूध का गिलास लेकर कोठरी में रख आता और कहता—अन्ना दूध पिला। अपनी चारपाई पर तकिया रखकर चादर से ढाँक देता और कहता—अन्ना सोती है। सुखदा जब खाने बैठती तो कटोरे उठा-उठाकर अन्ना की कोठरी में ले जाता और कहता अन्ना खाना खाएगी। अन्ना अब उसके लिए एक स्वर्ग की वस्तु थी, जिसके लौटने की अब उसे बिलकुल आशा न थी। रुद्र के स्वभाव में धीरे-धीरे बालकों की चपलता और सजीवता की जगह एक निराशाजनक, धैर्य का आनंद-विहीन शिथिलता दिखाई देने लगी। इस तरह तीन हफ़्ते गुज़र गए। बरसात का मौसम था। कभी बेचैन करने वाली गर्मी, कभी हवा के ठंडे झोंके। बुख़ार और ज़ुकाम का ज़ोर था। रुद्र की दुर्बलता इस ऋतु-परिवर्तन को बर्दाश्त न कर सकी। सुखदा उसे फलालैन का कुर्ता पहनाए रखती थी। उसे पानी के पास नहीं जाने देती। नंगे पैर एक क़दम नहीं चलने देती; पर सर्दी लग ही गई। रुद्र को खाँसी और बुख़ार आने लगा।
चार
प्रभात का समय था। रुद्र चारपाई पर आँख बंद किए पड़ा था। डॉक्टरों का इलाज निष्फल हुआ। सुखदा चारपाई पर बैठी उसकी छाती में तेल की मालिश कर रही थी और इंद्रमणि विषाद-मूर्ति बने हुए करुणापूर्ण आँखों से बच्चे को देख रहे थे। इधर सुखदा से बहुत कम बोलते थे। उन्हें उससे एक तरह से चिड़-सी हो गई थी। वह रुद्र की बीमारी का एकमात्र कारण उसी को समझते थे। वह उनकी दृष्टि में बहुत नीच स्वभाव की स्त्री थी। सुखदा ने डरते-डरते कहा, आज बड़े हकीम साहब को बुला लेते। शायद उसकी दवा से फ़ायदा हो।
इंद्रमणि ने काली घटाओं की ओर देखकर रुखाई से जवाब दिया—बड़े हकीम नहीं, धन्वन्तरि भी आवें, तो भी उसे कोई फ़ायदा न होगा।
सुखदा ने कहा—तो क्या अब किसी की दवा न होगी?
इंद्रमणि—बस इसकी एक ही दवा है और अलभ्य है।
सुखदा—तुम्हें तो बस, एक ही धुन सवार है। क्या बुढ़िया आकर अमृत पिला देगी?
इंद्रमणि—यदि नहीं समझती हो और अब तक नहीं समझी, तो रोओगी। बच्चे से हाथ धोना पड़ेगा।
सुखदा—चुप भी रहो, क्या अशुभ मुँह से निकालते हो। यदि ऐसी ही जली-कटी सुनानी है तो, बाहर चले जाओ।
इंद्रमणि—मैं तो जाता हूँ। पर याद रखो यह हत्या तुम्हारी ही गर्दन पर होगी। यदि लड़के को तंदरुस्त देखना चाहती हो, तो उसी दाई के पास जाओ, उनसे विनती और प्रार्थना करो, क्षमा माँगो। तुम्हारे बच्चे की जान उसकी दया के आधीन है।
सुखदा ने कुछ उत्तर नहीं दिया। उसकी आँखों से आँसू जारी थे।
इंद्रमणि ने पूछा—क्या मर्ज़ी है, जाऊँ उसे बुला लाऊँ?
सुखदा—तुम क्यों जाओगे, मैं आप ही चली जाऊँगी।
इंद्रमणि—नहीं, क्षमा करो। मुझे तुम्हारे ऊपर विश्वास नहीं है। न जाने तुम्हारी ज़बान से क्या निकल पड़े कि जो वह आती भी हो, तो न आवे।
सुखदा ने पति की ओर फिर तिरस्कार की दृष्टि से देखा और बोली—हाँ,और क्या मुझे बच्चे की बीमारी का शौक़ थोड़े ही है। मैंने लाज के मारे तुम से कहा नहीं, पर मेरे हृदय में यह बात बार-बार उठी है। यदि मुझे दाई के मकान का पूरा पता मालूम होता, तो मैं कभी की उसे मना लाई होती। वह मुझसे कितनी भी नाराज़ हो, पर रुद्र से उसे प्रेम था। मैं आज ही उसके पास जाऊँगी। तुम विनती करने को कहते हो, मैं उसके पैरों पड़ने को तैयार हूँ। उसके पैरों को आँसूओं से भिगोऊँगी और जिस तरह राज़ी हो राज़ी करूँगी।
सुखदा ने बहुत धैर्य धर कर यह बातें कही, परंतु उमड़ते हुए आँसू अब न रुक सके। इंद्रमणि ने स्त्री की ओर सहानुभूतिपूर्वक देखा और लज्जित हो बोले—मैं तुम्हारा जाना उचित नहीं समझता। मैं ख़ुद ही जाता हूँ।
पाँच
कैलासी संसार में अकेली थी, किसी समय उसका परिवार गुलाब की तरह फूला हुआ था, परंतु धीरे-धीरे सब पंक्तियाँ गिर गई। अब उसकी सब हरियाली नष्ट-भ्रष्ट हो गई और अब वही एक सूखी हुई टहनी, उस हरे-भरे पेड़ का चिह्न रह गई थी।
परंतु रुद्र को पाकर इस सूखी हुई टहनी में जान पड़ गई थी। इसमें हरी-भरी पत्तियाँ निकल आई थी। वह जीवन, जो अब तक निरस और शुष्क था, अब सरस और सजीव हो गया था। अँधेरे जंगल में भटके हुए पथिक को प्रकाश की झलक आने लगी थी। अब उसका जीवन निरर्थक नहीं बल्कि सार्थक हो गया था।
कैलासी रुद्र-की-भोली बातों पर निछावर हो गई, पर स्नेह सुखदा से छिपाती थी, इसलिए कि माँ के हृदय पर द्वेष न हो। वह रुद्र के लिए माँ से छिपाकर मिठाइयाँ लाती और उसे खिलाकर प्रसन्न होती। वह दिन में दो-तीन बार उसे उबटन मलती की बच्चा ख़ूब पुष्ट हो। वह दूसरों के सामने उसे कोई चीज़ नहीं खिलाती कि उसे नज़र लग जाएगी। सदा वह दूसरों से बच्चे के अल्पाहार का रोना रोया करती। उसे बुरी नज़र से बचाने के लिए तावीज़ और गड़े लाती रहती। यह उसका विशुद्ध प्रेम था। उसमे स्वार्थ की गंध भी न थी।
इस घर से निकल कर कैलासी की वह दशा थी, जो थियेटर में एकाएक बिजली के लैम्पों के बुझ जाने से दर्शकों की होती है। उसके सामने वही सूरत नाच रही थी। कानों में वही प्यारी-प्यारी बातें गूँज रही थी। उसे अपना घर काटे खाता था उस काल कोठरी में दम घुट जाता था।
रात ज्यों-त्यों कर कटी। सुबह को वह घर में झाड़ू लगा रही थी। एकाएक बाहर ताज़े हलुवे की आवाज़ सुनकर बड़ी फुर्ती से निकल आई। तब तक याद आ गया, आज हलुवा कौन खाएगा? आज गोद में बैठकर कौन चहकेगा? मान सुनने के लिए जो हलुवा खाते समय रुद्र की होठों से, और शरीर के एक-एक अंग से बरसता था—हृदय तड़प उठा। वह व्याकुल होकर घर से बाहर निकली कि चलूँ, रुद्र को देख आऊँ, पर आधे रास्ते से लौट गई।
रुद्र कैलासी के ध्यान से एक क्षण-भर के लिए भी नहीं उतरता था। वह सोते-सोते चौंक पड़ती, जान पड़ता, रुद्र डंडे का घोड़ा दबाए चला आता है, पड़ोसिनों के पास जाती, तो रुद्र की ही चर्चा करती। रुद्र उस के दिल और जान में बसा हुआ था। सुखदा के कठोरतापूर्ण कुव्यवहार का उसके हृदय में ध्यान नहीं था। वह रोज़ इरादा करती थी कि आज रुद्र को देखने चलूँगी। उसके लिए बाज़ार से मिठाइयाँ और खिलौने लाती। घर से चलती, पर रास्ते से लौट आती। कभी भी दो-चार क़दम से आगे नहीं बढ़ा जाता। कौनसा मुँह लेकर जाऊँ? जो प्रेम को धूर्तता समझता हो, उसे कौन-सा मुँह दिखाऊँ? कभी सोचती, यदि रुद्र हमें न पहचाने तो? बच्चों के प्रेम का ठिकाना ही क्या? नहीं दाई से हिल-मिल गया होगा। यह ख़्याल उसके पैरों पर ज़ंजीर का काम कर जाता था।
इस तरह दो हफ़्ते बीत गए। कैलासी का जी उचाट रहता, जैसे उसे कोई लंबी यात्रा करनी हो। घर की चीज़ें जहाँ की तहाँ पड़ी रहती, न खाने की सुधि थी, न पहनने की। रात-दिन रुद्र ही के ध्यान में डूबी रहती थी। संयोग से इन्हीं दिनों बद्रीनाथ की यात्रा का समय आ गया। मुहल्ले के कुछ लोग यात्रा की तैयारियाँ करने लगे। कैलासी की दशा इस समय उस पालतू चिड़िया की-सी थी जो पिंजड़े से निकलकर फिर किसी कोने की खोज में हो। उसे विस्मृति का यह अच्छा अवसर मिल गया, यात्रा के लिए तैयार हो गई।
छह
आसमान पर काली घटाएँ छाई थीं और हल्की-हलकी फुहारें पड़ रही थी। देहली स्टेशन पर यात्रियों की भीड़ थी। कुछ गाड़ियों में बैठे थे, कुछ अपने घर वालों से विदा हो रहे थे। चारों तरफ हलचल-सी मची थी। संसार माया आज भी उन्हें जकड़े हुए थी। कोई स्त्री को सावधान कर रहा था कि धान कट जावे तो ताल वाले खेत में मटर बो देना और बाग़ के पास गेहूँ। कोई अपने जवान लड़के को समझा रहा था—असामियों पर बक़ाया लगान की नालिश में देर न करना और दो रुपए सैंकड़ा सूद ज़रूर काट लेना। एक बूढ़े व्यापारी महाशय अपने मुनीम से कह रहे थे कि माल आने में देरी हो, तो ख़ुद चले जाइएगा और चलतू माल लीजिएगा, नहीं तो रुपया फँस जाएगा। पर कोई-कोई ऐसे श्रद्धालु मनुष्य भी थे जो ध्यानमग्न दिखाई देते थे। वे या तो चुपचाप आसमान की ओर निहार रहे थे, या माला फेरने में तलीन थे। कैलासी भी एक गाड़ी में बैठी सोच रही थी—इन भले आदमियों को अब भी संसार की चिंता नहीं छोड़ती। वही बनिज-व्यापार लेन-देन की चर्चा। रुद्र इस समय यहाँ होता, तो बहुत रोता मेरी गोद से कभी न उतरता। लौटकर उसे अवश्य देखने जाऊँगी। है ईश्वर! किसी तरह गाड़ी चले। गर्मी के मारे जी व्याकुल हो रहा है। इतनी घटा उमड़ी हुई है किंतु बरसने का नाम नहीं लेती। मालूम नहीं, यह रेल वाले क्यों देर कर रहे हैं। झूठमूठ इधर-उधर दौड़ते फिरते हैं। यह नहीं कि झटपट गाड़ी खोल दें। यात्रियों की जान में जान आए। एकाएक उसने इंद्रमणि को बाइसिकिल लिए प्लेटफ़ार्म पर आते देखा। उनका चेहरा उतरा हुआ था और कपड़े पसीनों से तर थे। वह गाड़ियों में झाँकने लगे। कैलासी केवल यह जताने के लिए कि मैं भी यात्रा करने जा रही हूँ, गाड़ी से बाहर निकल आई। इंद्रमणि उसे देखते ही लपककर क़रीब आ गए और बोले—क्यों कैलासी; तुम भी यात्रा को चलीं?
कैलासी ने सगर्व दीनता से उत्तर दिया—हाँ, यहाँ क्या करूँ, ज़िंदगी का कोई ठिकाना नहीं, मालूम नहीं कब आँखें बंद हो जाएँ। परमात्मा के यहाँ मुँह दिखाने का कोई उपाय होना चाहिए। रुद्र बाबू अच्छी तरह हैं?
इंद्रमणि—अब जा रही हो। रुद्र का हाल पूछकर क्या करोगी? उसे आशीर्वाद देती रहना।
कैलासी की छाती धड़कने लगी। घबरा कर बोली—उनका जी अच्छा नहीं है क्या?
इंद्रमणि—वह तो उसी दिन से बीमार है, जिस दिन तुम वहाँ से निकलीं। दो हफ़्ते तक अन्ना-अन्ना की रट लगाई। अब एक हफ़्ते से खाँसी और बुख़ार में पड़ा है। सारी दवाइयाँ करके हार गया, कुछ फ़ायदा न हुआ। मैंने सोचा था कि चलकर तुम्हारी अनुनय-विनय करके लिवा लाऊँगा। क्या जानें तुम्हें देखकर उसकी तबियत संभल जाए; पर तुम्हारे घर गया, तो मालूम हुआ कि तुम यात्रा करने जा रही हो। अब किस मुँह से चलने को कहूँ? तुम्हारे साथ सलूक ही कौन-सा अच्छा किया, जो इतना साहस करूँ। फिर पुण्य-कार्य में विघ्न डालने का भी डर है। जाओ, उसका ईश्वर मालिक है। आयु शेष है तो बच ही जाएगा। अन्यथा ईश्वरीय गति में किसी का क्या वश!
कैलासी की आँखों के सामने अँधेरा छा गया। सामने की चीज़ें तैरती हुई मालूम होने लगीं। हृदयभावी अशुभ की आशंका से दहल गया। हृदय से निकल पड़ा—हे ईश्वर, मेरे रुद्र का बाल बाँका न हो। प्रेम से गला भर आया। विचार किया मैं कैसी कठोरहृदया हूँ। प्यार बच्चा रो-रोकर हलकान हो गया और मैं उसे देखने तक नहीं गई। सुखदा का स्वभाव अच्छा नहीं, न सही; किंतु रुद्र ने मेरा क्या बिगाड़ा था कि मैंने माँ का बदला बेटे से लिया! ईश्वर मेरा अपराध क्षमा करे। प्यारा रुद्र मेरे लिए हुड़क रहा है। (इस ख़्याल से कैलासी का कलेजा मसोस उठा था और आँखों से आँसू बह निकले थे) मुझे क्या मालूम था कि उसे मुझसे इतना प्रेम है। नहीं मालूम बच्चे की क्या दशा है? भयातुर हो बोली—दूध तो पीते हैं न?
इंद्रमणि—तुम दूध पीने को कहती हो, उसने दो दिन से आँख नहीं खोलीं।
कैलासी—हे मेरे परमात्मा! अरे ओ कुली! कुली! बेटा, आकर मेरा सामान गाड़ी से उतार दे। अब मुझे तीर्थ जाना नहीं सूझता। हाँ बेटा, जल्दी कर; बाबू जी, देखो कोई इक्का हो तो ठीक कर लो।
इक्का रवाना हुआ। सामने सड़क पर बग्घियाँ खड़ीं थीं। घोड़ा धीरे-धीरे चल रहा था। कैलासी बार-बार झुँझलाती थी और इक्कावान से कहती थी—बेटा! जल्दी कर, मैं तुझे कुछ ज़्यादा दे दूँगी। रास्ते में मुसाफ़िरों की भीड़ देखकर उसे क्रोध आता था। उसका जी चाहता था कि घोड़ों के पर लग जाते; लेकिन इंद्रमणि का मकान क़रीब आ गया था तो कैलासी का हृदय उछलने लगा। बार-बार हृदय से रुद्र के लिए आशीर्वाद निकलने लगा, ईश्वर करे सब कुछ कुशल-मंगल हो। इक्का इंद्रमणि की गली की ओर मुड़ा। अकस्मात् कैलासी के मकान में रोने की ध्वनि पड़ी। कलेजा मुँह को आ गया। सिर में चक्कर आ गया। मालूम हुआ नदी में डूब जाती हूँ। जी चाहा कि इक्के पर से कूद पडूँ; पर थोड़ी देर में मालूम हुआ कि कोई स्त्री मैके से विदा हो रही है संतोष हुआ। अंत में इंद्रमणि का मकान आ पहुँचा। कैलासी ने डरते-डरते दरवाज़े की तरफ़ ताका। जैसे कोई घर से भागा हुआ अनाथ लड़का शाम को भूखा-प्यासा घर आए, दरवाज़े की ओर सटकी हुई आँखों से देखे कि कोई बैठा तो नहीं। दरवाज़े पर सन्नाटा छाया हुआ था। महाराज बैठा सुरती मल रहा था। कैलासी को ज़रा ढारस हुआ। घर में बैठी, तो देखा कि नहीं, दाई पुलटिस पका रही है? हृदय में बल का संचार हुआ। सुखदा के कमरे में गई, तो उसका हृदय गर्मी के मध्याह्नकाल के सदृश काँप रहा था। सुखदा रुद्र को गोद में लिए दरवाज़े की ओर एकटक ताक रही थी। शोक और करुणा की मूर्ती बनी थी।
कैलासी ने सुखदा से कुछ नहीं पूछा। रुद्र को उसकी गोद से लिया और उसकी तरफ़ सजल नयनों से देखकर कहा—बेटा रुद्र! आँखें खोलो।
रुद्र ने आँखें खोली। क्षणभर दाई को चुपचाप देखता रहा और तब एकाएक दाई के गले से लिपट कर बोला—अन्ना आई! अन्ना आई!!
रुद्र का पीला मुरझाया हुआ चेहरा खिल उठा, जैसे बुझते हुए दीपक में तेल पड़ जाए। ऐसा मालूम हुआ मानो वह कुछ बढ़ गया है। एक हफ़्ता बीत गया। प्रातः काल का समय था। रुद्र आँगन में खेल रहा था। इंद्रमणि ने बाहर आकर उसे गोद में उठा लिया और प्यार से बोले—तुम्हारी अन्ना को मारकर भगा दें।
रुद्र ने मुँह बनाकर कहा—नहीं रोएगी।
कैलासी बोली—क्यों बेटा, तुमने तो मुझे बद्रीनाथ नहीं जाने दिया। मेरी यात्रा का पुण्य कौन देगा।
इंद्रमणि ने मुस्कराकर कहा—तुम्हें उससे कहीं अधिक पुण्य मिल गया। यह तीर्थ—महातीर्थ है!
ek
munshi indramani ki amdani kam thi aur kharch zyada. apne bachche ke liye dai rakhne ka kharch na utha sakte the, lekin ek to bachche ki seva sushrusha ki fikr aur dusre apne barabar valon mein hethe bankar rahne ka apman is kharch ko sahne par majbur karta tha. bachcha dai ko bahut chahta tha, hardam uske gale ka haar bana rahta tha, isliye dai aur bhi zaruri malum hoti thi. par shayad sabse baDa karan ye tha ki wo murauvat ke vash dai ko javab dene ka sahas nahin kar sakte the. buDhiya uske yahan teen saal se naukar thi. usne unke iklaute laDke ka lalan palan kiya tha. apna kaam baDi mustaidi aur parishram se karti thi. use nikalne ka koi bahana nahin tha aur vyarth khuchaD nikalna indramani jaise bhale adami ke svbhaav ke viruddh tha. par sukhda is sambandh mein pati se sahmat na thi, use sandeh tha ki dai hamein loot leti hai. jab dai bazar se lautti to wo dalan mein chhipi rahti ki dekhun aata kahin chhipakar to nahin rakh deti, lakDi to nahin chhipa deti. uski lai hui chizon ko ghanton dekhti, puchhatachh karti, baar baar puchhti—itna hi kyon? kya bhaav hai? kya itna mahnga ho gaya? dai kabhi to in sandehatmak prashnon ka uttar namratapurvak deti, kintu jab kabhi bahu ji zyada tez ho jati, to wo bhi kaDi paD jati thi. shapten khati. safai ki shahadten pesh karti. vaad vivad mein ghanton lag jate the. praayः nitya hi yahi dasha rahti aur pratidin ye naatk dai ke ashrupat ke saath samapt hota tha. dai ka itni sakhtiyan jhelkar paDe rahna sukhda ke sandeh ko aur bhi pusht karta tha. use kabhi vishvas nahin hota tha ki ye buDhiya keval bachche ke premavash paDi hui hai. wo buDhiya ko itni baal premshila nahin samajhti thi.
do
sanyog se ek din dai ko bazar se lautne mein zara der ho gai. vahan do kunjDinon mein devasur sangram racha tha. unka chitramay haav bhaav, unka agney tark vitark, unke kataksh aur vyangya sab anupam the. vish ke do nad the ya jvala ke do parvat, jo donon taraf se umaDkar aapas mein takra ge! vakya ka kya pravah tha, kaisi vichitr vivechana! unka shabd bahulya, unki marmik vicharashilata, unke alankrit shabd vinyas aur upmaon ki navinata par aisa kaun sa kavi hai jo mugdh na ho jata. unka dhairya, unki shanti vismayajnak thi. darshkon ki ek khasi bheeD lagi thi. ve laaj ko lajjit karne vale ishare, ve ashlil shabd jinse malinta ke bhi kaan khaDe hote, sekDon rasikajnon ke liye manoranjan ki samagri bane hue the.
dai bhi khaDi ho gai ki dekhun kya mamla hai. tamasha itna manoranjak tha ki use samay ka bilkul dhyaan na raha. ekayek jab nau ke ghante ki avaz kaan mein aai to chaunk paDi aur lapki hui ghar ki or chali.
sukhda bhari baithi thi. dai ko dekhte hi tyori badalkar boli—kya bazar mein kho gai thee?
dai vinaypurn bhaav se boli—ek jaan pahchan ki mahri se bhent ho gai. wo baten karne lagi.
sukhda is javab se aur bhi chiDhkar boli—yahan daftar jane ko der ho rahi hai aur tumhein sair sapate ki sujhti hai.
parantu dai ne is samay dabne mein hi kushal samjhi, bachche ko god mein lene chali, par sukhda ne jhiDakkar kaha—rahne do, tumhare bina wo vyakul nahin hua jata.
dai ne is aagya ka manna avashyak nahin samjha. bahuji ka krodh thanDa karne ke liye isse upyogi aur koi aur upaay na sujha. usne rudramani ko ishare se apne paas bulaya. wo donon haath phailaye laDkhaData hua uski or chala. dai ne use god mein utha liya aur darvaze ki taraf chali. lekin sukhda baaj ki tarah jhapti aur rudr ko uski godi se chheen kar boli—tumhari ye dhurtata bahut dinon se dekh rahi hoon. ye tamashe kisi aur ko dikhaiye! yahan ji bhar gaya.
dai rudr par jaan deti thi aur samajhti thi ki sukhda is baat ko janti hai. uski samajh mein sukhda aur uske beech aisa mazbut sambandh tha, jise sadharan jhatke toD na sakte the. yahi karan tha ki sukhda ke katu vachnon ko sunkar bhi use ye vishvas na hota tha ki mujhe nikalne par prastut hai, par sukhda ne ye baten kuch aisi kathorta se kahi aur rudr ko aisi nirdayta se chheen liya ki dai se sahn na ho saka. boli—bahuji mujhse koi baDa apradh to nahin hua, bahut to paav ghante ki deri hui hogi. isi par aap itna bigaD rahi hain to saaf kyon nahin kah deti ki dusra darvaza dekho. narayan ne paida kiya hai to khane ko bhi dega. mazduri ka akal thoDe hi hai!
sukhda ne kaha—to yahan tumhari parvah hi kaun karta hai. tumhare jaisi launDiyen gali gali thokren khati phirti hain!
dai ne javab diya—han, narayan aapko kushal se rakkhe. launDiyen aur daiyan aapko bahut milengi. mujh se jo kuch apradh hua ho, kshama kijiyega. main jati hoon.
sukhda—jakar mardane mein apna hisab kar lo.
dai—meri taraf se rudr babu ko mithaiyan mangva dijiyega.
itne mein indramani bhi bahar aa ge. puchha—kya hai kyaa?
dai ne kaha—kuchh nahin. bahu ji ne javab de diya hai, ghar jati hoon.
indramani grihasthi ke janjal se is tarah bachte the, jaise koi nange pairvala manushya kanton se bache. unhen sare din ek hi jagah khaDe rahna manjur tha, par kanton mein pair rakhne ki himmat na thi. khinn hokar bole—bat kya hui?
sukhda ne kaha—kuchh nahin. apni ichchha. nahin ji chahta, nahin rakhte. kisi ke hathon bik to nahin ge.
indramani ne jhunjhlakar kaha—tumhen baithe baithaye ek na ek khuchaD sujhti rahti hai.
sukhda ne tinak kar kaha, mujhe to iska rog hai kya karun svabhav hi aisa hai. tumhein ye bahut pyari hai to le jakar gale mein baandh lo, mere paas yahan zarurat nahin.
teen
dai ghar se nikli to ankhen DabDabai hui theen. hriday rudramani ke liye taDap raha tha. ji chahta tha ki balak ko lekar pyaar se choom loon; par ye abhilasha liye hi use ghar se bahar nikalna tha.
rudramani dai ke pichhe pichhe darvaze tak aaya; par dai ne jab darvaza bahar se band kar diya, to wo machal kar zamin par let gaya aur anna anna kahkar rone laga. sukhda ne puchkara, pyaar kiya, god mein lene ki koshish ki, mithai dene ka lalach diya, mela dikhane ka vada kiya, isse jab kaam na chala to bandar, sipahi, lulu, aur haua ki dhamki di. par rudr ne wo raudr bhaav dharan kiya, ki kisi tarah chup na hua. yahan tak ki sukhda ko krodh aa gaya, bachche ko vahin chhoD diya aur ghar ke dhandhe mein lag gai. rote rote rudr ka munh aur gaal laal ho ge, ankhen sooj gai. nidan wo vahin zamin par sisakte sisakte so gaya.
sukhda ne samjha tha ki bachcha thoDi der mein ro dhokar chup ho jayega; par rudr ne jagte hi anna ki rat lagai. teen baje indramani daftar se aaye aur bachche ki ye dasha dekhi to stri ki taraf par kupit netron se dekhkar use god mein utha liya aur bahlane lage. jab ant mein rudr ko ye vishvas ho gaya ki dai mithai lene gai hai to use santosh hua.
is tarah do teen din beet ge. rudr ka anna ki rat lagane aur rone ke siva aur koi kaam na tha. wo shaant prkriti kutta jo uski god se ek kshan ke liye bhi na utarta tha, wo maun vratdhari billi jise taakh par dekhkar wo khushi se phula na samata tha, wo pankhhin chiDiya jis par wo jaan deta tha, sab uske chitt se utar ge. wo unki taraf ankh uthakar bhi nahin dekhta. anna jaisi jiti jagti, pyaar karne vali, god mein lekar ghumane vali, thapak thapak kar sulane vali, ga gakar khush karne vali cheez ka sthaan in nirjiv chizon se pura na ho sakta tha. wo aksar sote sote chaunk paDta aur anna anna pukar kar hathon se ishara karta, manon use bula raha hai. anna ki khali kothari mein ghanton baitha rahta. use aasha hoti ki anna yahan aati hogi. is kothari ka darvaza khulte sunta to “anna! anna” kah kar dauDta. samajhta ki anna aa gai. uska bhara hua sharir ghul gaya, gulab jaisa chehra sookh gaya maan aur baap uski mohani hansi ke liye taras kar rah jate the. yadi bahut gudgudane ya chheDne se hansta, keval dil rakhne liye hans raha hai. use ab doodh se prem nahin tha, na mishri se, na meve se, na mithe biskut se, na tazi imaratiyan mein se. unme maza tab tha, jab anna apne hathon se khilati thi. ab unmen maza nahin tha. do saal ka lahlahata hua sundar paudha murjha gaya. wo balak jise god mein uthate hi narmi, garmi aur bharipan ka anubhav hota tha, ab sukhkar kanta ho gaya. sukhda apne bachche ki ye dasha dekhkar bhitar hi bhitar kuDhti, apni murkhata par pachhtati. indramani jo shaant priy adami the, ab balak ko god se alag na karte the, use roz hava khilane le jate the. nitya ne khilaune late the. par murjhaya hua paudha kisi tarah bhi na panapta tha. dai uske liye sansar ka surya thi us svabhavik garmi aur parkash se vanchit rahkar hariyali ki bahar kaise dikhta? dai ke bina use ab charon or andhera aur sannata dikhai deta tha. dusri anna tisre hi din rakh li gai thee; par rudr uski surat dekhte hi munh chhipa leta tha manon wo koi Dain ya chuDail hai.
pratyaksh roop mein dai ko na dekhkar wo rudr ab uski kalpana mein magn rahta tha. vahan uski anna chalti phirti dikhai deti thi. uski vahi god thi, vahi sneh, vahi pyari pyari baten, vahi pyare gane, vahi mazedar mithaiyan, vahi suhavna sansar, vahi anandmay jivan. akele baithkar kalpit anna se baten karta—anna kutta bhunke. anna, gaay doodh deti. anna ujla ujla ghoDa dauDe. savera hote hi lota lekar dai ki kothari mein jata aur kahta—anna, pani. doodh ka gilas lekar kothari mein rakh aata aur kahta—anna doodh pila. apni charpai par takiya rakhkar chadar se Dhaank deta aur kahta—anna soti hai. sukhda jab khane baithti to katore utha uthakar anna ki kothari mein le jata aur kahta anna khana khayegi. anna ab uske liye ek svarg ki vastu thi, jiske lautne ki ab use bilkul aasha na thi. rudr ke svbhaav mein dhire dhire balkon ki chapalta aur sajivata ki jagah ek nirashajnak, dhairya ka anand vihin shithilta dikhai dene lagi. is tarah teen hafte guzar ge. barsat ka mausam tha. kabhi bechain karne vali garmi, kabhi hava ke thanDe jhonke. bukhar aur zukam ka zor tha. rudr ki durbalta is ritu parivartan ko bardasht na kar saki. sukhda use phalalain ka kurta pahnaye rakhti thi. use pani ke paas nahin jane deti. nange pair ek qadam nahin chalne deti; par sardi lag hi gai. rudr ko khansi aur bukhar aane laga.
chaar
parbhat ka samay tha. rudr charpai par ankh band kiye paDa tha. Dauktron ka ilaaj nishphal hua. sukhda charpai par baithi uski chhati mein tel ki malish kar rahi thi aur indramani vishad murti bane hue karunapurn ankhon se bachche ko dekh rahe the. idhar sukhda se bahut kam bolte the. unhen usse ek tarah se chiD si ho gai thi. wo rudr ki bimari ka ekmaatr karan usi ko samajhte the. wo unki drishti mein bahut neech svbhaav ki stri thi. sukhda ne Darte Darte kaha, aaj baDe hakim sahab ko bula lete. shayad uski dava se fayda ho.
indramani ne kali ghataon ki or dekhkar rukhai se javab diya—baDe hakim nahin, dhanvantari bhi aven, to bhi use koi fayda na hoga.
sukhda ne kaha—to kya ab kisi ki dava na hogi?
indramani—bas iski ek hi dava hai aur alabhya hai.
sukhda—tumhen to bas, ek hi dhun savar hai. kya buDhiya aakar amrit pila degi?
indramani—yadi nahin samajhti ho aur ab tak nahin samjhi, to roogi. bachche se haath dhona paDega.
sukhda—chup bhi raho, kya ashubh munh se nikalte ho. yadi aisi hi jali kati sunani hai to, bahar chale jao.
indramani—main to jata hoon. par yaad rakho ye hatya tumhari hi gardan par hogi. yadi laDke ko tandrust dekhana chahti ho, to usi dai ke paas jao, unse vinti aur pararthna karo, kshama mango. tumhare bachche ki jaan uski daya ke adhin hai.
sukhda ne kuch uttar nahin diya. uski ankhon se ansu jari the.
indramani ne puchha—kya marzi hai, jaun use bula laun?
sukhda—tum kyon jaoge, main aap hi chali jaungi.
indramani—nahin, kshama karo. mujhe tumhare uupar vishvas nahin hai. na jane tumhari zaban se kya nikal paDe ki jo wo aati bhi ho, to na aave.
sukhda ne pati ki or phir tiraskar ki drishti se dekha aur boli—han,aur kya mujhe bachche ki bimari ka shauq thoDe hi hai. mainne laaj ke mare tum se kaha nahin, par mere hriday mein ye baat baar baar uthi hai. yadi mujhe dai ke makan ka pura pata malum hota, to main kabhi ki use mana lai hoti. wo mujhse kitni bhi naraz ho, par rudr se use prem tha. main aaj hi uske paas jaungi. tum vinti karne ko kahte ho, main uske pairon paDne ko taiyar hoon. uske pairon ko ansuon se bhigoungi aur jis tarah razi ho razi karungi.
sukhda ne bahut dhairya dhar kar ye baten kahi, parantu umaDte hue ansu ab na ruk sake. indramani ne stri ki or sahanubhutipurvak dekha aur lajjit ho bole—main tumhara jana uchit nahin samajhta. main khud hi jata hoon.
paanch
kailasi sansar mein akeli thi, kisi samay uska parivar gulab ki tarah phula hua tha, parantu dhire dhire sab panktiyan gir gai. ab uski sab hariyali nasht bhrasht ho gai aur ab vahi ek sukhi hui tahni, us hare bhare peD ka chihn rah gai thi.
parantu rudr ko pakar is sukhi hui tahni mein jaan paD gai thi. ismen hari bhari pattiyan nikal aai thi. wo jivan, jo ab tak niras aur shushk tha, ab saras aur sajiv ho gaya tha. andhere jangal mein bhatke hue pathik ko parkash ki jhalak aane lagi thi. ab uska jivan nirarthak nahin balki sarthak ho gaya tha.
kailasi rudr ki bholi baton par nichhavar ho gai, par sneh sukhda se chhipati thi, isliye ki maan ke hriday par dvesh na ho. wo rudr ke liye maan se chhipakar mithaiyan lati aur use khilakar prasann hoti. wo din mein do teen baar use ubtan malti ki bachcha khoob pusht ho. wo dusron ke samne use koi cheez nahin khilati ki use nazar lag jayegi. sada wo dusron se bachche ke alpahar ka rona roya karti. use buri nazar se bachane ke liye taviz aur gaDe lati rahti. ye uska vishuddh prem tha. usme svaarth ki gandh bhi na thi.
is ghar se nikal kar kailasi ki wo dasha thi, jo thiyetar mein ekayek bijli ke laimpon ke bujh jane se darshkon ki hoti hai. uske samne vahi surat naach rahi thi. kanon mein vahi pyari pyari baten goonj rahi thi. use apna ghar kate khata tha us kaal kothari mein dam ghut jata tha.
raat jyon tyon kar kati. subah ko wo ghar mein jhaDu laga rahi thi. ekayek bahar taze haluve ki avaz sunkar baDi phurti se nikal aai. tab tak yaad aa gaya, aaj haluva kaun khayega? aaj god mein baithkar kaun chahkega? maan sunne ke liye jo haluva khate samay rudr ki hothon se, aur sharir ke ek ek ang se barasta tha—hriday taDap utha. wo vyakul hokar ghar se bahar nikli ki chalun, rudr ko dekh auun, par aadhe raste se laut gai.
rudr kailasi ke dhyaan se ek kshan bhar ke liye bhi nahin utarta tha. wo sote sote chaunk paDti, jaan paDta, rudr DanDe ka ghoDa dabaye chala aata hai, paDosinon ke paas jati, to rudr ki hi charcha karti. rudr us ke dil aur jaan mein basa hua tha. sukhda ke kathortapurn kuvyavhar ka uske hriday mein dhyaan nahin tha. wo roz irada karti thi ki aaj rudr ko dekhne chalungi. uske liye bazar se mithaiyan aur khilaune lati. ghar se chalti, par raste se laut aati. kabhi bhi do chaar qadam se aage nahin baDha jata. kaunsa munh lekar jaun? jo prem ko dhurtata samajhta ho, use kaun sa munh dikhaun? kabhi sochti, yadi rudr hamein na pahchane to? bachchon ke prem ka thikana hi kyaa? nahin dai se hil mil gaya hoga. ye khyaal uske pairon par zanjir ka kaam kar jata tha.
is tarah do hafte beet ge. kailasi ka ji uchaat rahta, jaise use koi lambi yatra karni ho. ghar ki chizen jahan ki tahan paDi rahti, na khane ki sudhi thi, na pahanne ki. raat din rudr hi ke dhyaan mein Dubi rahti thi. sanyog se inhin dinon badrinath ki yatra ka samay aa gaya. muhalle ke kuch log yatra ki taiyariyan karne lage. kailasi ki dasha is samay us paltu chiDiya ki si thi jo pinjDe se nikalkar phir kisi kone ki khoj mein ho. use vismriti ka ye achchha avsar mil gaya, yatra ke liye taiyar ho gai.
chhah
asman par kali ghatayen chhai theen aur halki halki phuharen paD rahi thi. dehli steshan par yatriyon ki bheeD thi. kuch gaDiyon mein baithe the, kuch apne ghar valon se vida ho rahe the. charon taraph halchal si machi thi. sansar maya aaj bhi unhen jakDe hue thi. koi stri ko savdhan kar raha tha ki dhaan kat jave to taal vale khet mein matar bo dena aur baagh ke paas gehun. koi apne javan laDke ko samjha raha tha—asamiyon par baqaya lagan ki nalish mein der na karna aur do rupe sainkDa sood zarur kaat lena. ek buDhe vyapari mahashay apne munim se kah rahe the ki maal aane mein deri ho, to khud chale jaiyega aur chaltu maal lijiyega, nahin to rupya phans jayega. par koi koi aise shraddhalu manushya bhi the jo dhyanamagn dikhai dete the. ve ya to chupchap asman ki or nihar rahe the, ya mala pherne mein talin the. kailasi bhi ek gaDi mein baithi soch rahi thi—in bhale adamiyon ko ab bhi sansar ki chinta nahin chhoDti. vahi banij vyapar len den ki charcha. rudr is samay yahan hota, to bahut rota meri god se kabhi na utarta. lautkar use avashya dekhne jaungi. hai iishvar! kisi tarah gaDi chale. garmi ke mare ji vyakul ho raha hai. itni ghata umDi hui hai kintu barasne ka naam nahin leti. malum nahin, ye rel vale kyon der kar rahe hain. jhuthmuth idhar udhar dauDte phirte hain. ye nahin ki jhatpat gaDi khol den. yatriyon ki jaan mein jaan aaye. ekayek usne indramani ko baisikil liye pletfarm par aate dekha. unka chehra utra hua tha aur kapDe pasinon se tar the. wo gaDiyon mein jhankne lage. kailasi keval ye jatane ke liye ki main bhi yatra karne ja rahi hoon, gaDi se bahar nikal aai. indramani use dekhte hi lapakkar qarib aa ge aur bole—kyon kailasi; tum bhi yatra ko chalin?
kailasi ne sagarv dinta se uttar diya—han, yahan kya karun, zindagi ka koi thikana nahin, malum nahin kab ankhen band ho jayen. parmatma ke yahan munh dikhane ka koi upaay hona chahiye. rudr babu achchhi tarah hain?
indramani—ab ja rahi ho. rudr ka haal puchhkar kya karogi? use ashirvad deti rahna.
kailasi ki chhati dhaDakne lagi. ghabra kar boli—unka ji achchha nahin hai kyaa?
indramani—vah to usi din se bimar hai, jis din tum vahan se niklin. do hafte tak anna anna ki rat lagai. ab ek hafte se khansi aur bukhar mein paDa hai. sari davaiyan karke haar gaya, kuch fayda na hua. mainne socha tha ki chalkar tumhari anunay vinay karke liva launga. kya janen tumhein dekhkar uski tabiyat sambhal jaye; par tumhare ghar gaya, to malum hua ki tum yatra karne ja rahi ho. ab kis munh se chalne ko kahun? tumhare saath saluk hi kaun sa achchha kiya, jo itna sahas karun. phir punya karya mein vighn Dalne ka bhi Dar hai. jao, uska iishvar malik hai. aayu shesh hai to bach hi jayega. anyatha iishvriy gati mein kisi ka kya vash!
kailasi ki ankhon ke samne andhera chha gaya. samne ki chizen tairti hui malum hone lagin. hridaybhavi ashubh ki ashanka se dahal gaya. hriday se nikal paDa—he iishvar, mere rudr ka baal banka na ho. prem se gala bhar aaya. vichar kiya main kaisi kathorahridya hoon. pyaar bachcha ro rokar halkan ho gaya aur main use dekhne tak nahin gai. sukhda ka svbhaav achchha nahin, na sahi; kintu rudr ne mera kya bigaDa tha ki mainne maan ka badla bete se liya! iishvar mera apradh kshama kare. pyara rudr mere liye huDak raha hai. (is khyaal se kailasi ka kaleja masos utha tha aur ankhon se ansu bah nikle the) mujhe kya malum tha ki use mujhse itna prem hai. nahin malum bachche ki kya dasha hai? bhayatur ho boli—dudh to pite hain na?
indramani—tum doodh pine ko kahti ho, usne do din se ankh nahin kholin.
kailasi—he mere parmatma! are o kuli! kuli! beta, aakar mera saman gaDi se utaar de. ab mujhe teerth jana nahin sujhta. haan beta, jaldi kar; babu ji, dekho koi ikka ho to theek kar lo.
ikka ravana hua. samne saDak par bagghiyan khaDin theen. ghoDa dhire dhire chal raha tha. kailasi baar baar jhunjhlati thi aur ikkavan se kahti thi—beta! jaldi kar, main tujhe kuch zyada de dungi. raste mein musafiron ki bheeD dekhkar use krodh aata tha. uska ji chahta tha ki ghoDon ke par lag jate; lekin indramani ka makan qarib aa gaya tha to kailasi ka hriday uchhalne laga. baar baar hriday se rudr ke liye ashirvad nikalne laga, iishvar kare sab kuch kushal mangal ho. ikka indramani ki gali ki or muDa. akasmat kailasi ke makan mein rone ki dhvani paDi. kaleja munh ko aa gaya. sir mein chakkar aa gaya. malum hua nadi mein Doob jati hoon. ji chaha ki ikke par se kood paDun; par thoDi der mein malum hua ki koi stri maike se vida ho rahi hai santosh hua. ant mein indramani ka makan aa pahuncha. kailasi ne Darte Darte darvaze ki taraf taka. jaise koi ghar se bhaga hua anath laDka shaam ko bhukha pyasa ghar aaye, darvaze ki or satki hui ankhon se dekhe ki koi baitha to nahin. darvaze par sannata chhaya hua tha. maharaj baitha surti mal raha tha. kailasi ko zara Dharas hua. ghar mein baithi, to dekha ki nahin, dai pultis paka rahi hai? hriday mein bal ka sanchar hua. sukhda ke kamre mein gai, to uska hriday garmi ke madhyahnkal ke sadrish kaanp raha tha. sukhda rudr ko god mein liye darvaze ki or ektak taak rahi thi. shok aur karuna ki murti bani thi.
kailasi ne sukhda se kuch nahin puchha. rudr ko uski god se liya aur uski taraf sajal naynon se dekhkar kaha—beta rudr! ankhen kholo.
rudr ne ankhen kholi. kshanbhar dai ko chupchap dekhta raha aur tab ekayek dai ke gale se lipat kar bola—anna ai! anna ai!!
rudr ka pila murjhaya hua chehra khil utha, jaise bujhte hue dipak mein tel paD jaye. aisa malum hua mano wo kuch baDh gaya hai. ek hafta beet gaya. praatः kaal ka samay tha. rudr angan mein khel raha tha. indramani ne bahar aakar use god mein utha liya aur pyaar se bole—tumhari anna ko markar bhaga den.
rudr ne munh banakar kaha—nahin roegi.
kailasi boli—kyon beta, tumne to mujhe badrinath nahin jane diya. meri yatra ka punya kaun dega.
indramani ne muskrakar kaha—tumhen usse kahin adhik punya mil gaya. ye tirth—mahatirth hai!
ek
munshi indramani ki amdani kam thi aur kharch zyada. apne bachche ke liye dai rakhne ka kharch na utha sakte the, lekin ek to bachche ki seva sushrusha ki fikr aur dusre apne barabar valon mein hethe bankar rahne ka apman is kharch ko sahne par majbur karta tha. bachcha dai ko bahut chahta tha, hardam uske gale ka haar bana rahta tha, isliye dai aur bhi zaruri malum hoti thi. par shayad sabse baDa karan ye tha ki wo murauvat ke vash dai ko javab dene ka sahas nahin kar sakte the. buDhiya uske yahan teen saal se naukar thi. usne unke iklaute laDke ka lalan palan kiya tha. apna kaam baDi mustaidi aur parishram se karti thi. use nikalne ka koi bahana nahin tha aur vyarth khuchaD nikalna indramani jaise bhale adami ke svbhaav ke viruddh tha. par sukhda is sambandh mein pati se sahmat na thi, use sandeh tha ki dai hamein loot leti hai. jab dai bazar se lautti to wo dalan mein chhipi rahti ki dekhun aata kahin chhipakar to nahin rakh deti, lakDi to nahin chhipa deti. uski lai hui chizon ko ghanton dekhti, puchhatachh karti, baar baar puchhti—itna hi kyon? kya bhaav hai? kya itna mahnga ho gaya? dai kabhi to in sandehatmak prashnon ka uttar namratapurvak deti, kintu jab kabhi bahu ji zyada tez ho jati, to wo bhi kaDi paD jati thi. shapten khati. safai ki shahadten pesh karti. vaad vivad mein ghanton lag jate the. praayः nitya hi yahi dasha rahti aur pratidin ye naatk dai ke ashrupat ke saath samapt hota tha. dai ka itni sakhtiyan jhelkar paDe rahna sukhda ke sandeh ko aur bhi pusht karta tha. use kabhi vishvas nahin hota tha ki ye buDhiya keval bachche ke premavash paDi hui hai. wo buDhiya ko itni baal premshila nahin samajhti thi.
do
sanyog se ek din dai ko bazar se lautne mein zara der ho gai. vahan do kunjDinon mein devasur sangram racha tha. unka chitramay haav bhaav, unka agney tark vitark, unke kataksh aur vyangya sab anupam the. vish ke do nad the ya jvala ke do parvat, jo donon taraf se umaDkar aapas mein takra ge! vakya ka kya pravah tha, kaisi vichitr vivechana! unka shabd bahulya, unki marmik vicharashilata, unke alankrit shabd vinyas aur upmaon ki navinata par aisa kaun sa kavi hai jo mugdh na ho jata. unka dhairya, unki shanti vismayajnak thi. darshkon ki ek khasi bheeD lagi thi. ve laaj ko lajjit karne vale ishare, ve ashlil shabd jinse malinta ke bhi kaan khaDe hote, sekDon rasikajnon ke liye manoranjan ki samagri bane hue the.
dai bhi khaDi ho gai ki dekhun kya mamla hai. tamasha itna manoranjak tha ki use samay ka bilkul dhyaan na raha. ekayek jab nau ke ghante ki avaz kaan mein aai to chaunk paDi aur lapki hui ghar ki or chali.
sukhda bhari baithi thi. dai ko dekhte hi tyori badalkar boli—kya bazar mein kho gai thee?
dai vinaypurn bhaav se boli—ek jaan pahchan ki mahri se bhent ho gai. wo baten karne lagi.
sukhda is javab se aur bhi chiDhkar boli—yahan daftar jane ko der ho rahi hai aur tumhein sair sapate ki sujhti hai.
parantu dai ne is samay dabne mein hi kushal samjhi, bachche ko god mein lene chali, par sukhda ne jhiDakkar kaha—rahne do, tumhare bina wo vyakul nahin hua jata.
dai ne is aagya ka manna avashyak nahin samjha. bahuji ka krodh thanDa karne ke liye isse upyogi aur koi aur upaay na sujha. usne rudramani ko ishare se apne paas bulaya. wo donon haath phailaye laDkhaData hua uski or chala. dai ne use god mein utha liya aur darvaze ki taraf chali. lekin sukhda baaj ki tarah jhapti aur rudr ko uski godi se chheen kar boli—tumhari ye dhurtata bahut dinon se dekh rahi hoon. ye tamashe kisi aur ko dikhaiye! yahan ji bhar gaya.
dai rudr par jaan deti thi aur samajhti thi ki sukhda is baat ko janti hai. uski samajh mein sukhda aur uske beech aisa mazbut sambandh tha, jise sadharan jhatke toD na sakte the. yahi karan tha ki sukhda ke katu vachnon ko sunkar bhi use ye vishvas na hota tha ki mujhe nikalne par prastut hai, par sukhda ne ye baten kuch aisi kathorta se kahi aur rudr ko aisi nirdayta se chheen liya ki dai se sahn na ho saka. boli—bahuji mujhse koi baDa apradh to nahin hua, bahut to paav ghante ki deri hui hogi. isi par aap itna bigaD rahi hain to saaf kyon nahin kah deti ki dusra darvaza dekho. narayan ne paida kiya hai to khane ko bhi dega. mazduri ka akal thoDe hi hai!
sukhda ne kaha—to yahan tumhari parvah hi kaun karta hai. tumhare jaisi launDiyen gali gali thokren khati phirti hain!
dai ne javab diya—han, narayan aapko kushal se rakkhe. launDiyen aur daiyan aapko bahut milengi. mujh se jo kuch apradh hua ho, kshama kijiyega. main jati hoon.
sukhda—jakar mardane mein apna hisab kar lo.
dai—meri taraf se rudr babu ko mithaiyan mangva dijiyega.
itne mein indramani bhi bahar aa ge. puchha—kya hai kyaa?
dai ne kaha—kuchh nahin. bahu ji ne javab de diya hai, ghar jati hoon.
indramani grihasthi ke janjal se is tarah bachte the, jaise koi nange pairvala manushya kanton se bache. unhen sare din ek hi jagah khaDe rahna manjur tha, par kanton mein pair rakhne ki himmat na thi. khinn hokar bole—bat kya hui?
sukhda ne kaha—kuchh nahin. apni ichchha. nahin ji chahta, nahin rakhte. kisi ke hathon bik to nahin ge.
indramani ne jhunjhlakar kaha—tumhen baithe baithaye ek na ek khuchaD sujhti rahti hai.
sukhda ne tinak kar kaha, mujhe to iska rog hai kya karun svabhav hi aisa hai. tumhein ye bahut pyari hai to le jakar gale mein baandh lo, mere paas yahan zarurat nahin.
teen
dai ghar se nikli to ankhen DabDabai hui theen. hriday rudramani ke liye taDap raha tha. ji chahta tha ki balak ko lekar pyaar se choom loon; par ye abhilasha liye hi use ghar se bahar nikalna tha.
rudramani dai ke pichhe pichhe darvaze tak aaya; par dai ne jab darvaza bahar se band kar diya, to wo machal kar zamin par let gaya aur anna anna kahkar rone laga. sukhda ne puchkara, pyaar kiya, god mein lene ki koshish ki, mithai dene ka lalach diya, mela dikhane ka vada kiya, isse jab kaam na chala to bandar, sipahi, lulu, aur haua ki dhamki di. par rudr ne wo raudr bhaav dharan kiya, ki kisi tarah chup na hua. yahan tak ki sukhda ko krodh aa gaya, bachche ko vahin chhoD diya aur ghar ke dhandhe mein lag gai. rote rote rudr ka munh aur gaal laal ho ge, ankhen sooj gai. nidan wo vahin zamin par sisakte sisakte so gaya.
sukhda ne samjha tha ki bachcha thoDi der mein ro dhokar chup ho jayega; par rudr ne jagte hi anna ki rat lagai. teen baje indramani daftar se aaye aur bachche ki ye dasha dekhi to stri ki taraf par kupit netron se dekhkar use god mein utha liya aur bahlane lage. jab ant mein rudr ko ye vishvas ho gaya ki dai mithai lene gai hai to use santosh hua.
is tarah do teen din beet ge. rudr ka anna ki rat lagane aur rone ke siva aur koi kaam na tha. wo shaant prkriti kutta jo uski god se ek kshan ke liye bhi na utarta tha, wo maun vratdhari billi jise taakh par dekhkar wo khushi se phula na samata tha, wo pankhhin chiDiya jis par wo jaan deta tha, sab uske chitt se utar ge. wo unki taraf ankh uthakar bhi nahin dekhta. anna jaisi jiti jagti, pyaar karne vali, god mein lekar ghumane vali, thapak thapak kar sulane vali, ga gakar khush karne vali cheez ka sthaan in nirjiv chizon se pura na ho sakta tha. wo aksar sote sote chaunk paDta aur anna anna pukar kar hathon se ishara karta, manon use bula raha hai. anna ki khali kothari mein ghanton baitha rahta. use aasha hoti ki anna yahan aati hogi. is kothari ka darvaza khulte sunta to “anna! anna” kah kar dauDta. samajhta ki anna aa gai. uska bhara hua sharir ghul gaya, gulab jaisa chehra sookh gaya maan aur baap uski mohani hansi ke liye taras kar rah jate the. yadi bahut gudgudane ya chheDne se hansta, keval dil rakhne liye hans raha hai. use ab doodh se prem nahin tha, na mishri se, na meve se, na mithe biskut se, na tazi imaratiyan mein se. unme maza tab tha, jab anna apne hathon se khilati thi. ab unmen maza nahin tha. do saal ka lahlahata hua sundar paudha murjha gaya. wo balak jise god mein uthate hi narmi, garmi aur bharipan ka anubhav hota tha, ab sukhkar kanta ho gaya. sukhda apne bachche ki ye dasha dekhkar bhitar hi bhitar kuDhti, apni murkhata par pachhtati. indramani jo shaant priy adami the, ab balak ko god se alag na karte the, use roz hava khilane le jate the. nitya ne khilaune late the. par murjhaya hua paudha kisi tarah bhi na panapta tha. dai uske liye sansar ka surya thi us svabhavik garmi aur parkash se vanchit rahkar hariyali ki bahar kaise dikhta? dai ke bina use ab charon or andhera aur sannata dikhai deta tha. dusri anna tisre hi din rakh li gai thee; par rudr uski surat dekhte hi munh chhipa leta tha manon wo koi Dain ya chuDail hai.
pratyaksh roop mein dai ko na dekhkar wo rudr ab uski kalpana mein magn rahta tha. vahan uski anna chalti phirti dikhai deti thi. uski vahi god thi, vahi sneh, vahi pyari pyari baten, vahi pyare gane, vahi mazedar mithaiyan, vahi suhavna sansar, vahi anandmay jivan. akele baithkar kalpit anna se baten karta—anna kutta bhunke. anna, gaay doodh deti. anna ujla ujla ghoDa dauDe. savera hote hi lota lekar dai ki kothari mein jata aur kahta—anna, pani. doodh ka gilas lekar kothari mein rakh aata aur kahta—anna doodh pila. apni charpai par takiya rakhkar chadar se Dhaank deta aur kahta—anna soti hai. sukhda jab khane baithti to katore utha uthakar anna ki kothari mein le jata aur kahta anna khana khayegi. anna ab uske liye ek svarg ki vastu thi, jiske lautne ki ab use bilkul aasha na thi. rudr ke svbhaav mein dhire dhire balkon ki chapalta aur sajivata ki jagah ek nirashajnak, dhairya ka anand vihin shithilta dikhai dene lagi. is tarah teen hafte guzar ge. barsat ka mausam tha. kabhi bechain karne vali garmi, kabhi hava ke thanDe jhonke. bukhar aur zukam ka zor tha. rudr ki durbalta is ritu parivartan ko bardasht na kar saki. sukhda use phalalain ka kurta pahnaye rakhti thi. use pani ke paas nahin jane deti. nange pair ek qadam nahin chalne deti; par sardi lag hi gai. rudr ko khansi aur bukhar aane laga.
chaar
parbhat ka samay tha. rudr charpai par ankh band kiye paDa tha. Dauktron ka ilaaj nishphal hua. sukhda charpai par baithi uski chhati mein tel ki malish kar rahi thi aur indramani vishad murti bane hue karunapurn ankhon se bachche ko dekh rahe the. idhar sukhda se bahut kam bolte the. unhen usse ek tarah se chiD si ho gai thi. wo rudr ki bimari ka ekmaatr karan usi ko samajhte the. wo unki drishti mein bahut neech svbhaav ki stri thi. sukhda ne Darte Darte kaha, aaj baDe hakim sahab ko bula lete. shayad uski dava se fayda ho.
indramani ne kali ghataon ki or dekhkar rukhai se javab diya—baDe hakim nahin, dhanvantari bhi aven, to bhi use koi fayda na hoga.
sukhda ne kaha—to kya ab kisi ki dava na hogi?
indramani—bas iski ek hi dava hai aur alabhya hai.
sukhda—tumhen to bas, ek hi dhun savar hai. kya buDhiya aakar amrit pila degi?
indramani—yadi nahin samajhti ho aur ab tak nahin samjhi, to roogi. bachche se haath dhona paDega.
sukhda—chup bhi raho, kya ashubh munh se nikalte ho. yadi aisi hi jali kati sunani hai to, bahar chale jao.
indramani—main to jata hoon. par yaad rakho ye hatya tumhari hi gardan par hogi. yadi laDke ko tandrust dekhana chahti ho, to usi dai ke paas jao, unse vinti aur pararthna karo, kshama mango. tumhare bachche ki jaan uski daya ke adhin hai.
sukhda ne kuch uttar nahin diya. uski ankhon se ansu jari the.
indramani ne puchha—kya marzi hai, jaun use bula laun?
sukhda—tum kyon jaoge, main aap hi chali jaungi.
indramani—nahin, kshama karo. mujhe tumhare uupar vishvas nahin hai. na jane tumhari zaban se kya nikal paDe ki jo wo aati bhi ho, to na aave.
sukhda ne pati ki or phir tiraskar ki drishti se dekha aur boli—han,aur kya mujhe bachche ki bimari ka shauq thoDe hi hai. mainne laaj ke mare tum se kaha nahin, par mere hriday mein ye baat baar baar uthi hai. yadi mujhe dai ke makan ka pura pata malum hota, to main kabhi ki use mana lai hoti. wo mujhse kitni bhi naraz ho, par rudr se use prem tha. main aaj hi uske paas jaungi. tum vinti karne ko kahte ho, main uske pairon paDne ko taiyar hoon. uske pairon ko ansuon se bhigoungi aur jis tarah razi ho razi karungi.
sukhda ne bahut dhairya dhar kar ye baten kahi, parantu umaDte hue ansu ab na ruk sake. indramani ne stri ki or sahanubhutipurvak dekha aur lajjit ho bole—main tumhara jana uchit nahin samajhta. main khud hi jata hoon.
paanch
kailasi sansar mein akeli thi, kisi samay uska parivar gulab ki tarah phula hua tha, parantu dhire dhire sab panktiyan gir gai. ab uski sab hariyali nasht bhrasht ho gai aur ab vahi ek sukhi hui tahni, us hare bhare peD ka chihn rah gai thi.
parantu rudr ko pakar is sukhi hui tahni mein jaan paD gai thi. ismen hari bhari pattiyan nikal aai thi. wo jivan, jo ab tak niras aur shushk tha, ab saras aur sajiv ho gaya tha. andhere jangal mein bhatke hue pathik ko parkash ki jhalak aane lagi thi. ab uska jivan nirarthak nahin balki sarthak ho gaya tha.
kailasi rudr ki bholi baton par nichhavar ho gai, par sneh sukhda se chhipati thi, isliye ki maan ke hriday par dvesh na ho. wo rudr ke liye maan se chhipakar mithaiyan lati aur use khilakar prasann hoti. wo din mein do teen baar use ubtan malti ki bachcha khoob pusht ho. wo dusron ke samne use koi cheez nahin khilati ki use nazar lag jayegi. sada wo dusron se bachche ke alpahar ka rona roya karti. use buri nazar se bachane ke liye taviz aur gaDe lati rahti. ye uska vishuddh prem tha. usme svaarth ki gandh bhi na thi.
is ghar se nikal kar kailasi ki wo dasha thi, jo thiyetar mein ekayek bijli ke laimpon ke bujh jane se darshkon ki hoti hai. uske samne vahi surat naach rahi thi. kanon mein vahi pyari pyari baten goonj rahi thi. use apna ghar kate khata tha us kaal kothari mein dam ghut jata tha.
raat jyon tyon kar kati. subah ko wo ghar mein jhaDu laga rahi thi. ekayek bahar taze haluve ki avaz sunkar baDi phurti se nikal aai. tab tak yaad aa gaya, aaj haluva kaun khayega? aaj god mein baithkar kaun chahkega? maan sunne ke liye jo haluva khate samay rudr ki hothon se, aur sharir ke ek ek ang se barasta tha—hriday taDap utha. wo vyakul hokar ghar se bahar nikli ki chalun, rudr ko dekh auun, par aadhe raste se laut gai.
rudr kailasi ke dhyaan se ek kshan bhar ke liye bhi nahin utarta tha. wo sote sote chaunk paDti, jaan paDta, rudr DanDe ka ghoDa dabaye chala aata hai, paDosinon ke paas jati, to rudr ki hi charcha karti. rudr us ke dil aur jaan mein basa hua tha. sukhda ke kathortapurn kuvyavhar ka uske hriday mein dhyaan nahin tha. wo roz irada karti thi ki aaj rudr ko dekhne chalungi. uske liye bazar se mithaiyan aur khilaune lati. ghar se chalti, par raste se laut aati. kabhi bhi do chaar qadam se aage nahin baDha jata. kaunsa munh lekar jaun? jo prem ko dhurtata samajhta ho, use kaun sa munh dikhaun? kabhi sochti, yadi rudr hamein na pahchane to? bachchon ke prem ka thikana hi kyaa? nahin dai se hil mil gaya hoga. ye khyaal uske pairon par zanjir ka kaam kar jata tha.
is tarah do hafte beet ge. kailasi ka ji uchaat rahta, jaise use koi lambi yatra karni ho. ghar ki chizen jahan ki tahan paDi rahti, na khane ki sudhi thi, na pahanne ki. raat din rudr hi ke dhyaan mein Dubi rahti thi. sanyog se inhin dinon badrinath ki yatra ka samay aa gaya. muhalle ke kuch log yatra ki taiyariyan karne lage. kailasi ki dasha is samay us paltu chiDiya ki si thi jo pinjDe se nikalkar phir kisi kone ki khoj mein ho. use vismriti ka ye achchha avsar mil gaya, yatra ke liye taiyar ho gai.
chhah
asman par kali ghatayen chhai theen aur halki halki phuharen paD rahi thi. dehli steshan par yatriyon ki bheeD thi. kuch gaDiyon mein baithe the, kuch apne ghar valon se vida ho rahe the. charon taraph halchal si machi thi. sansar maya aaj bhi unhen jakDe hue thi. koi stri ko savdhan kar raha tha ki dhaan kat jave to taal vale khet mein matar bo dena aur baagh ke paas gehun. koi apne javan laDke ko samjha raha tha—asamiyon par baqaya lagan ki nalish mein der na karna aur do rupe sainkDa sood zarur kaat lena. ek buDhe vyapari mahashay apne munim se kah rahe the ki maal aane mein deri ho, to khud chale jaiyega aur chaltu maal lijiyega, nahin to rupya phans jayega. par koi koi aise shraddhalu manushya bhi the jo dhyanamagn dikhai dete the. ve ya to chupchap asman ki or nihar rahe the, ya mala pherne mein talin the. kailasi bhi ek gaDi mein baithi soch rahi thi—in bhale adamiyon ko ab bhi sansar ki chinta nahin chhoDti. vahi banij vyapar len den ki charcha. rudr is samay yahan hota, to bahut rota meri god se kabhi na utarta. lautkar use avashya dekhne jaungi. hai iishvar! kisi tarah gaDi chale. garmi ke mare ji vyakul ho raha hai. itni ghata umDi hui hai kintu barasne ka naam nahin leti. malum nahin, ye rel vale kyon der kar rahe hain. jhuthmuth idhar udhar dauDte phirte hain. ye nahin ki jhatpat gaDi khol den. yatriyon ki jaan mein jaan aaye. ekayek usne indramani ko baisikil liye pletfarm par aate dekha. unka chehra utra hua tha aur kapDe pasinon se tar the. wo gaDiyon mein jhankne lage. kailasi keval ye jatane ke liye ki main bhi yatra karne ja rahi hoon, gaDi se bahar nikal aai. indramani use dekhte hi lapakkar qarib aa ge aur bole—kyon kailasi; tum bhi yatra ko chalin?
kailasi ne sagarv dinta se uttar diya—han, yahan kya karun, zindagi ka koi thikana nahin, malum nahin kab ankhen band ho jayen. parmatma ke yahan munh dikhane ka koi upaay hona chahiye. rudr babu achchhi tarah hain?
indramani—ab ja rahi ho. rudr ka haal puchhkar kya karogi? use ashirvad deti rahna.
kailasi ki chhati dhaDakne lagi. ghabra kar boli—unka ji achchha nahin hai kyaa?
indramani—vah to usi din se bimar hai, jis din tum vahan se niklin. do hafte tak anna anna ki rat lagai. ab ek hafte se khansi aur bukhar mein paDa hai. sari davaiyan karke haar gaya, kuch fayda na hua. mainne socha tha ki chalkar tumhari anunay vinay karke liva launga. kya janen tumhein dekhkar uski tabiyat sambhal jaye; par tumhare ghar gaya, to malum hua ki tum yatra karne ja rahi ho. ab kis munh se chalne ko kahun? tumhare saath saluk hi kaun sa achchha kiya, jo itna sahas karun. phir punya karya mein vighn Dalne ka bhi Dar hai. jao, uska iishvar malik hai. aayu shesh hai to bach hi jayega. anyatha iishvriy gati mein kisi ka kya vash!
kailasi ki ankhon ke samne andhera chha gaya. samne ki chizen tairti hui malum hone lagin. hridaybhavi ashubh ki ashanka se dahal gaya. hriday se nikal paDa—he iishvar, mere rudr ka baal banka na ho. prem se gala bhar aaya. vichar kiya main kaisi kathorahridya hoon. pyaar bachcha ro rokar halkan ho gaya aur main use dekhne tak nahin gai. sukhda ka svbhaav achchha nahin, na sahi; kintu rudr ne mera kya bigaDa tha ki mainne maan ka badla bete se liya! iishvar mera apradh kshama kare. pyara rudr mere liye huDak raha hai. (is khyaal se kailasi ka kaleja masos utha tha aur ankhon se ansu bah nikle the) mujhe kya malum tha ki use mujhse itna prem hai. nahin malum bachche ki kya dasha hai? bhayatur ho boli—dudh to pite hain na?
indramani—tum doodh pine ko kahti ho, usne do din se ankh nahin kholin.
kailasi—he mere parmatma! are o kuli! kuli! beta, aakar mera saman gaDi se utaar de. ab mujhe teerth jana nahin sujhta. haan beta, jaldi kar; babu ji, dekho koi ikka ho to theek kar lo.
ikka ravana hua. samne saDak par bagghiyan khaDin theen. ghoDa dhire dhire chal raha tha. kailasi baar baar jhunjhlati thi aur ikkavan se kahti thi—beta! jaldi kar, main tujhe kuch zyada de dungi. raste mein musafiron ki bheeD dekhkar use krodh aata tha. uska ji chahta tha ki ghoDon ke par lag jate; lekin indramani ka makan qarib aa gaya tha to kailasi ka hriday uchhalne laga. baar baar hriday se rudr ke liye ashirvad nikalne laga, iishvar kare sab kuch kushal mangal ho. ikka indramani ki gali ki or muDa. akasmat kailasi ke makan mein rone ki dhvani paDi. kaleja munh ko aa gaya. sir mein chakkar aa gaya. malum hua nadi mein Doob jati hoon. ji chaha ki ikke par se kood paDun; par thoDi der mein malum hua ki koi stri maike se vida ho rahi hai santosh hua. ant mein indramani ka makan aa pahuncha. kailasi ne Darte Darte darvaze ki taraf taka. jaise koi ghar se bhaga hua anath laDka shaam ko bhukha pyasa ghar aaye, darvaze ki or satki hui ankhon se dekhe ki koi baitha to nahin. darvaze par sannata chhaya hua tha. maharaj baitha surti mal raha tha. kailasi ko zara Dharas hua. ghar mein baithi, to dekha ki nahin, dai pultis paka rahi hai? hriday mein bal ka sanchar hua. sukhda ke kamre mein gai, to uska hriday garmi ke madhyahnkal ke sadrish kaanp raha tha. sukhda rudr ko god mein liye darvaze ki or ektak taak rahi thi. shok aur karuna ki murti bani thi.
kailasi ne sukhda se kuch nahin puchha. rudr ko uski god se liya aur uski taraf sajal naynon se dekhkar kaha—beta rudr! ankhen kholo.
rudr ne ankhen kholi. kshanbhar dai ko chupchap dekhta raha aur tab ekayek dai ke gale se lipat kar bola—anna ai! anna ai!!
rudr ka pila murjhaya hua chehra khil utha, jaise bujhte hue dipak mein tel paD jaye. aisa malum hua mano wo kuch baDh gaya hai. ek hafta beet gaya. praatः kaal ka samay tha. rudr angan mein khel raha tha. indramani ne bahar aakar use god mein utha liya aur pyaar se bole—tumhari anna ko markar bhaga den.
rudr ne munh banakar kaha—nahin roegi.
kailasi boli—kyon beta, tumne to mujhe badrinath nahin jane diya. meri yatra ka punya kaun dega.
indramani ne muskrakar kaha—tumhen usse kahin adhik punya mil gaya. ye tirth—mahatirth hai!
स्रोत :
पुस्तक : प्रेमचंद की सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ (पृष्ठ 53)
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।