गदल
gadal
(एक)
बाहर शोरगुल मचा। डोड़ी ने पुकारा— “कौन है?”
कोई उत्तर नहीं मिला। आवाज़ आई— “हत्यारिन! तुझे कतल कर दूँगा!”
स्त्री का स्वर आया— “करके तो देख! तेरे कुनबे को डायन बनके न खा गई, निपूते!”
डोड़ी बैठा न रह सका। बाहर आया।
“क्या करता है, क्या करता है, निहाल?”— डोड़ी बढ़कर चिल्लाया— “आख़िर तेरी मैया है।”
“मैया है!”— कहकर निहाल हट गया।
“और तू हाथ उठाके तो देख!” स्त्री ने फुफकारा— “कढ़ीखाए! तेरी सींक पर बिल्लियाँ चलवा दूँ! समझ रखियो! मत जान रखियो! हाँ! तेरी आसरतू नहीं हूँ।”
“भाभी!”— डोड़ी ने कहा— “क्या बकती है? होश में आ!”
वह आगे बढ़ा। उसने मुड़कर कहा— “जाओ सब। तुम सब लोग जाओ!”
निहाल हट गया। उसके साथ ही सब लोग इधर-उधर हो गए।
डोड़ी निस्तब्ध, छप्पर के नीचे लगा बरैंडा पकड़े खड़ा रहा। स्त्री वहीं बिफरी हुई-सी बैठी रही। उसकी आँखों में आग-सी जल रही थी।
उसने कहा— “मैं जानती हूँ, निहाल में इतनी हिम्मत नहीं। यह सब तैने किया है, देवर!”
“हाँ गदल!”— डोड़ी ने धीरे से कहा— “मैंने ही किया है।”
गदल सिमट गई। कहा— “क्यों, तुझे क्या ज़रूरत थी?”
डोड़ी कह नहीं सका। वह ऊपर से नीचे तक झनझना उठा। पचास साल का वह लंबा खारी गूजर, जिसकी मूँछें खिचड़ी हो चुकी थीं, छप्पर तक पहुँचा-सा लगता था। उसके कंधे की चौड़ी हड्डियों पर अब दीए का हल्का प्रकाश पड़ रहा था, उसके शरीर पर मोटी फतुही थी और उसकी धोती घुटनों के नीचे उतरने के पहले ही झूल देकर चुस्त-सी ऊपर की ओर लौट जाती थी। उसका हाथ कर्रा था और वह इस समय निस्तब्ध खड़ा रहा।
स्त्री उठी। वह लगभग 45 वर्षीया थी, और उसका रंग गोरा होने पर भी आयु के धुँधलके में अब मैला-सा दिखने लगा था। उसको देखकर लगता था कि वह फुर्तीली थी। जीवन-भर कठोर मेहनत करने से, उसकी गठन के ढीले पड़ने पर भी उसकी फूर्ती अभी तक मौजूद थी।
“तुझे शरम नहीं आती, गदल?”— डोड़ी ने पूछा।
“क्यों, शरम क्यों आएगी?”— गदल ने पूछा।
डोड़ी क्षणभर सकते में पड़ गया। भीतर के चौबारे से आवाज़ आई— “शरम क्यों आएगी इसे? शरम तो उसे आए, जिसकी आँखों में हया बची हो।”
“निहाल!”— डोड़ी चिल्लाया— “तू चुप रह!”
फिर आवाज़ बंद हो गई।
गदल ने कहा— “मुझे क्यों बुलाया है तूने?”
डोड़ी ने इस बात का उत्तर नहीं दिया। पूछा— “रोटी खाई है?”
“नहीं, “ गदल ने कहा— “खाती भी कब? कमबख़्त रास्ते में मिले। खेत होकर लौट रही थी। रास्ते में अरने-कंडे बीनकर संझा के लिए ले जा रही थी।”
डोड़ी ने पुकारा— “निहाल! बहू से कह, अपनी सास को रोटी दे जाए!”
भीतर से किसी स्त्री की ढीठ आवाज़ सुनाई दी— “अरे, अब लौहारों की बैयर आई हैं; उन्हें क्यों ग़रीब खारियों की रोटी भाएगी?”
कुछ स्त्रियों ने ठहाका लगाया।
निहाल चिल्लाया— “सुन ले, परमेसुरी, जगहँसाई हो रही है। खारियों की तो तूने नाक कटाकर छोड़ी।”
(दो)
गुन्ना मरा, तो पचपन बरस का था। गदल विधवा हो गई। गदल का बड़ा बेटा निहाल तीस वर्ष के पास पहुँच रहा था। उसकी बहू दुल्ला का बड़ा बेटा सात का, दूसरा चार का और तीसरी छोरी थी जो उसकी गोद में थी। निहाल से छोटी तरा-ऊपर की दो बहिनों थी चंपा और चमेली, जिसका क्रमशः झाज और विश्वारा गाँवों में ब्याह हुआ था। आज उनकी गोदियों से उनके लाल उतरकर धूल में घुटुरुवन चलने लगे थे। अंतिम पुत्र नारायन अब बाईस का था, जिसकी बहू दूसरे बच्चे की माँ बनने वाली थी। ऐसी गदल, इतना बड़ा परिवार छोड़कर चली गई थी और बत्तीस साल के एक लौहारे गूजर के यहाँ जा बैठी थी।
डोड़ी गुन्ना का सगा भाई था। बहू थी, बच्चे भी हुए। सब मर गए। अपनी जगह अकेला रह गया। गुन्ना ने बड़ी-बड़ी कही, पर वह फिर अकेला ही रहा, उसने ब्याह नहीं किया, गदल ही के चूल्हे पर खाता रहा। कमाकर लाता, वो उसी को दे देता, उसी के बच्चों को अपना मानता, कभी उसने अलगाव नहीं किया। निहाल अपने चाचा पर जान देता था। और फिर खारी गूजर अपने को लौहारों से ऊँच समझते थे।
गदल जिसके घर बैठी थी, उसका पूरा कुनबा था। उसने गदल की उम्र नहीं देखी, यह देखा कि खारी औरत है, पड़ी रहेगी। चूल्हे पर दम फूँकने वाली की ज़रूरत भी थी।
आज ही गदल सवेरे गई थी और शाम को उसके बेटे उसे फिर बाँध लाए थे। उसके नए पति मौनी को अभी पता भी नहीं हुआ होगा। मौनी रँडुआ था। उसकी भाभी जो पाँव फैलाकर मटक-मटककर छाछ बिलोती थी, दुल्लो सुनेगी तो क्या कहेगी?
गदल का मन विक्षोभ से भर उठा।
(तीन)
आधी रात हो चली थी। गदल वहीं पड़ी थी। डोड़ी वहीं बैठा चिलम फूँक रहा था।
उस सन्नाटे में डोड़ी ने धीरे से कहा— “गदल!”
“क्या है?”— गदल ने हौले से कहा।
“तू चली गई न?”
गदल बोली नहीं। डोड़ी ने फिर कहा— “सब चले जाते हैं। एक दिन तेरी देवरानी चली गई, फिर एक-एक करके तेरे भतीजे भी चले गए। भैया भी चला गया। पर तू जैसी गई; वैसे तो कोई भी नहीं गया। जग हँसता है, जानती है?”
गदल बुरबुराई— “जग हँसाई से मैं नहीं डरती देवर! जब चौदह की थी, तब तेरा भैया मुझे गाँव में देख गया था। तू उसके साथ तेल पिया लट्ठ लेकर मुझे लेने आया था न, तब? मैं आई थी कि नहीं? तू सोचता होगा कि गदल की उमर गई, अब उसे खसम की क्या ज़रूरत है? पर जानता है, मैं क्यों गई?”
“नहीं।”
“तू तो बस यही सोच करता होगा कि गदल गई, अब पहले-सा रोटियों का आराम नहीं रहा। बहुएँ नहीं करेंगी तेरी चाकरी देवर! तूने भाई से और मुझसे निभाई, तो मैंने भी तुझे अपना ही समझा! बोल झूठ कहती हूँ?”
“नहीं, गदल, मैंने कब कहा!”
“बस यही बात है देवर! अब मेरा यहाँ कौन है! मेरा मरद तो मर गया। जीते-जी मैंने उसकी चाकरी की, उसके नाते उसके सब अपनों की चाकरी बजाई। पर जब मालिक ही न रहा, तो काहे को हड़कंप उठाऊँ? यह लड़के, यह बहुएँ! मैं इनकी ग़ुलामी नहीं करूँगी!”
“पर क्या यह सब तेरी औलाद नहीं बावरी। बिल्ली तक अपने जायों के लिए सात घर उलट-फेर करती है, फिर तू तो मानुष है। तेरी माया-ममता कहाँ चली गई?”
“देवर, तेरी कहाँ चली गई थी, तूने फिर ब्याह न किया।”
“मुझे तेरा सहारा था गदल!”
“कायर! भैया तेरा मरा, कारज किया बेटे ने और फिर जब सब हो गया तब तू मुझे रखकर घर नहीं बसा सकता था। तूने मुझे पेट के लिए पराई डयौढ़ी लँघवाई। चूल्हा मैं तब फूँकूँ, जब मेरा कोई अपना हो। ऐसी बाँदी नहीं हूँ कि मेरी कुहनी बजे, औरों के बिछिए छनके। मैं तो पेट तब भरूँगी, जब पेट का मोल कर लूँगी। समझा देवर! तूने तो नहीं कहा तब। अब कुनबे की नाक पर चोट पड़ी, तब सोचा। तब न सोचा, जब तेरी गदल को बहुओं ने आँखें तरेरकर देखा। अरे, कौन किसकी परवा करता है!”
“गदल!”— डोड़ी ने भर्राए स्वर में कहा— “मैं डरता था।”
“भला क्यों तो?”
“गदल, मैं बुढ्ढा हूँ। डरता था, जग हँसेगा। बेटे सोचेंगे, शायद चाचा का अम्माँ से पहले से नाता था, तभी चाचा ने दूसरा ब्याह नहीं किया। गदल, भैया की भी बदनामी होती न?”
“अरे चल रहने दे!” गदल ने उत्तर दिया— “भैया का बड़ा ख़याल रहा तुझे? तू नहीं था कारज में उनके क्या? मेरे सुसर मरे थे, तब तेरे भैया ने बिरादरी को जिमाकर होठों से पानी छुलाया था अपने। और तुम सबने कितने बुलाए? तू भैया दो बेटे। यही भैया हैं, यहीं बेटे हैं? पच्चीस आदमी बुलाए कुल। क्यों आख़िर? कह दिया लड़ाई में क़ानून है। पुलिस पच्चीस से ज़ियादा होते ही पकड़ ले जाएगी! डरपोक कहीं के! मैं नहीं रहती ऐसों के।”
हठात् डोड़ी का स्वर बदला। कहा— “मेरे रहते तू पराए