अपराध की दुनिया के नवागंतुकों के लिए बनी जेल के साथ बनी सज़ायाफ़्ता क़ैदियों की जेल एक जीवंत विरोधाभास है। न केवल दुष्कर्मियों का प्रारंभ और अंत ही आमने-सामने है, वरन् दोनों व्यवस्थाएँ भी आमने-सामने हैं—एकांत कारावास और सामूहिक कारावास। इस प्रश्न का उत्तर भी इसी से निश्चित हो जाता है। एकांत कारावास की काल कोठरी और तहख़ाना (सेल) पुराने और नए जेल के मौन द्वंद्व युद्ध की तरह है। एक ओर हैं सभी सज़ायाफ़्ता क़ैदी-सत्रह वर्षीय बच्चे, सत्तर वर्षीय वृद्धों के साथ, तेरह माह की सज़ा के साथ आजन्म कारावासी। दाढ़ी रहित लड़का जिसने सेब चुराया था और भरी सड़क का हत्यारा जिसे प्लेस सैट जैक्स में झूमा झपटी के बाद प्रत्यक्षदर्शी गवाहों के चलते तूलों भेजा गया, कुछ हद तक निरपराध और समयबद्ध सज़ायाफ़्ता भी, नीली आँखों वाला और सफ़ेद दाढ़ी वाला सभी कीड़े-मकोड़ों से भरे, वर्कशॉप में नीम-अँधेरे में सिलाई और अन्य काम बिना एक-दूसरे को देखे मजबूरी में करते रहते हैं, जहाँ एक समूह उम्र से डरता रहता है और दूसरा उनके गर्म ख़ून से।
दूसरी ओर उस विशाल तिमंजिला बिल्डिंग के अपने-अपने सेल (कोठरी) में क़ैदी मधुमक्खियों के छत्ते की तरह बंद हैं। पड़ोसी हैं जो कभी एक-दूसरे को नहीं देखते, छोटी-छोटी कुटियों से बसा एक शहर ही है जहाँ बच्चों के सिवाए कोई नहीं रहता। ऐसे बच्चे जो एक-दूसरे से अपरिचित हैं, जो बरसों पड़ोस में रहने के बावजूद एक-दूसरे के पैरों की पदचाप की गूँज या आवाज़ तक नहीं सुनते। दीवारों में बंद नर्क—मेहनत, पढ़ाई, औज़ार, पुस्तकें, नींद-आठ घंटे, आराम—एक घंटा, दीवारों से घिरे आँगन में एक घंटा खेलना, सुबह-शाम प्रार्थना—कभी सोचा भी है।
एक ओर है मलकुंड और दूसरी ओर खेती।
आप सेल (कोठरी) में जाते हैं—एक लड़का गंदी-सी खिड़की से आती रोशनी में बेंच के पास खड़ा दिखता है, खिड़की का एक फुटा पल्ला ऊपर तक उठाया जा सकता है। लड़का नहा-धोकर मोटा सर्ज पहिने शांत, गंभीर खड़ा हैI काम बंद कर वह सेल्यूट करता है, आप उससे प्रश्न करते हैं और वह उत्तर देता है, गंभीर नज़रों के साथ दबी ज़ुबान में।
वहाँ कुछ क़ैदी ताले बना रहे हैं, दिन में एक दर्जन; दूसरे फ़र्नीचर में नक़्क़ाशी कर रहे हैं। परिस्थितियाँ उतनी ही हैं जितनी कहानियाँ हैं, जितने गलियारे हैं उतने ही वर्कशॉप। यहाँ लड़के लिख-पढ़ भी सकते हैं। यहाँ जेल में जहाँ एक शिक्षक ज्ञान के लिए है तो एक व्यायाम के लिए भी।
यह ख़ाम-ख़याली मत पाल लीजिएगा कि नम्रता और सौम्य व्यवहार के कारण जेल में दंड अपर्याप्त होंगे। नहीं, वे पर्याप्त पीड़ादायक हैं। सभी क़ैदियों पर दंड के अलग-अलग निशान स्पष्ट दिखते हैं।
आलोचना में तर्क तो बहुत से दिए जा सकते हैं, सेल (कोठरी) व्यवस्था को हीलें। बहुतेरे सुधार अपेक्षित हैं, लेकिन वर्तमान में वे आधे-अधूरे और अपर्याप्त हैं, यह अवश्य है कि अन्य जेल-व्यवस्थाओं से तुलना करें तो वे पर्याप्त प्रशंसनीय हैं।
क़ैदी-दसों दिशाओं से बंद—आज़ादी केवल काम करते समय उपलब्ध-रुचि मात्र उसमें जिसे वह बनाता है, बस। परिणामस्वरूप वह लड़का जो सभी काम-धंधों से घृणा करता था, वही सर्वाधिक मेहनती मैकनिक बन जाता है। जब भी किसी को एकांत कारावास बंद कर दिया जाता है तो वह अँधेरी कालकोठरी में भी रोशनी की किरण को तलाश ही लेता है।
अभी उस दिन मैं जेल देखने गया था तो साथ चल रहे गवर्नर से पूछा था, ‘क्या तुम्हारे यहाँ कोई मृत्युदंड प्राप्त व्यक्ति है?’
‘जी है! मारक्वीस नाम है उसका, जिसने एक लड़की की हत्या तौरिक्से में की थी, वह उसे लूटना चाहता था।’
‘मैं इस व्यक्ति से मिलना चाहूँगा,’ मैंने कहा था।
‘सर’, गवर्नर ने उत्तर दिया था, ‘मैं यहाँ आपके आदेशों का पालन करने के लिए हूँ, किंतु मैं आपको मृत्युदण्ड पाए व्यक्ति के सेल (कोठरी) में प्रवेश की अनुमति नहीं दे सकता।’
‘क्यों नहीं?’
‘सर, पुलिस नियमों के अनुसार मैं सभी को मृत्युदंड के सेलों में जाने की अनुमति नहीं दे सकता।’
इस पर प्रतिरोध करते मैंने कहा, ‘मैं पुलिस नियमों से तो परिचित नहीं हूँ जेल निदेशक, लेकिन मैं इतना जानता हूँ कि कानून मुझे अनुमति देता है। कानून के अनुसार जेल चैंबर्स के शासनाधीन है और जेल के सभी अधिकारी फ्रांस के पियर्स के अधीन हैं—जो उनके कार्यों की समीक्षा कर उचित निर्णय ले सकते हैं। जब भी कहीं कोई दुर्व्यवहार होता है, विधायिका उसकी जाँच कर सकती है। मृत्युदंड प्राप्त व्यक्ति के सेल (कोठरी) में नियम विरुद्ध क्रियाकलापों की पर्याप्त आशंका है। अत: उसमें जाना मेरा कर्त्तव्य है और उसे खोलना आपका।’
कोई उत्तर न दे गवर्नर मुझे साथ ले आगे बढ़ गया था।
फूलों के कुछ पौधे आँगन को घेरकर बने गलियारे में लगे थे। यह क़ैदियों के खेलने और कसरत करने का मैदान था। आँगन को चार ऊँची बिल्डिंग घेरे थीं। गलियारे की एक बिल्डिंग के बीचों-बीच लोहे का एक भारी भरकम दरवाज़ा था। उसका एक छोटा फाटक खुला और मैंने स्वयं को पत्थरों से बने छोटे कमरेनुमा धुँधले गलियारे में पाया। मेरे सामने ये तीन दरवाज़े—एक सामने और शेष दो दाएँ और बाएँ—तीन वज़नदार दरवाज़े जिनमें लोहे की जालियाँ मढ़ी थीं। ये तीन दरवाज़े तीन सेलों (कोठरियों) के थे, जिनमें प्राणदंड पाए अपराधी, न्यायाधीश और सुप्रीम कोर्ट में भेजी अपनी अपीलों के निर्णय की प्रतीक्षा करते हैं। इसका सामान्य अर्थ था दो माहों की प्रतीक्षा।
‘दो से अधिक सेल (कोठरियाँ) आज तक कभी भरे नहीं हैं,’ गवर्नर ने कहा था।
बीच वाले सेल (कोठरी) का दरवाज़ा खोला गया। इस समय केवल इसी सेल (कोठरी) में क़ैदी था। मैं भीतर चला गया था। मेरे दहलीज़ पार करते ही एक व्यक्ति तेज़ी से खड़ा हो गया था। वह आदमी सेल (कोठरी) के दूसरे छोर पर था। मैंने उसे आसानी से देख लिया था। मरियल-सी रोशनी ऊपर बनी गहरी-सी खिड़की से निकल उसके सिर पर पड़ रही थी, जिससे उसकी पीठ चमक रही थी। उसका सिर नंगा था और गर्दन भी। वह जूते और स्ट्रेट-वेस्ट कोट (जकड़-जामा) और भूरे रंग का ऊनी पतलून पहने था। मोटी भूरी लिनन की वेस्ट कोट की बाँहें सामने की ओर गाँठ लगाकर बंधी थीं। तंबाखू से भरे पाइप को पकड़े हाथ अलग ही दिखलाई पड़ रहा था। दरवाज़ा खुलने के समय वह उसे जलाने ही जा रहा था। यही था सज़ायाफ़्ता।
बरसते आकाश की हल्की-सी झलक के अतिरिक्त खिड़की से कुछ भी दिखलाई नहीं पड़ रहा था। कुछ समय तक वहाँ खामोशी पसरी रही। अंदर से मैं इतना विचलित था कि मैं कुछ भी कहने की स्थिति में नहीं था। वह बमुश्किल बाईस तेईस वर्ष का युवक था। उसके भूरे बाल स्वाभाविक रूप से घुँघराले थे और छोटे-छोटे कटे थे, लेकिन दाढ़ी बेतरतीब बढ़ी हुई थी। उसकी बड़ी-बड़ी सुंदर आँखें नीचे झुकी हुई थीं और दुष्टता उनसे स्पष्ट झलक रही थी, उसकी नाक चपटी और माथा संकरा, कान के पीछे की हड्डियाँ बढ़ी हुई थीं, जो अपशगुनी माना जाता है, गँवारों जैसा मुँह और बायाँ गाल सूजा हुआ था, जो किसी दर्द का परिणाम था। पीली रंगत के साथ उसका चेहरा खिंचा हुआ था। बहरहाल हमारे भीतर आते ही उसने मुस्कुराने की भरसक कोशिश की थी।
वह सीधे तनकर खड़ा था। उसका बिस्तर उसके बाएँ ओर था—पहिए वाला नीचा-सा पलंग जिस पर पूरी संभावना है वह हमारे आने के पहिले लेटा हुआ था, और उसके दाहिने अनाड़ी तरीक़े से पीले रंग से पेंट की गई छोटी-सी टेबिल थी, जिसका ऊपरी भाग संगमरमरी रंग से पेंट किया गया था। टेबिल पर चमकती मिट्टी की प्लेटों में सब्जियाँ, कुछ गोश्त, ब्रेड का टुकड़ा और तंबाखू से भरा चमड़े का पाउच रखा था। टेबिल के पास बाँस की एक कुर्सी रखी थी।
यह चौकीदारों वाला भयानक सेल (कोठरी) न था। अच्छा-ख़ासा लंबा चौड़ा हल्के पीले रंग से पुता कमरा था, जिसमें पलंग, टेबिल, कुर्सी, पालिश किया मिट्टी का स्टोव और खिड़की के सामने की दीवार पर शेल्फ था, जिसमें पुराने कपड़े और पुरानी क्राकरी रखी थी। एक कोने में एक गोल कुर्सी रखी थी, जिसने पुराने जेलों के घटिया टब की जगह ले ली थी।
सब कुछ साफ़-सुथरा-सा, पर्याप्त व्यवस्थित और घरेलूपन से भरा जिसकी अनुपस्थिति में वस्तुओं का आकर्षण खो जाता है। लोहे की सलाखें लगी खिड़की खुली थी। खिड़की की सहायता के लिए दो छोटी चेनें सज़ायाफ़्ता के सिर के ऊपर दो कीलों से लटकी थीं। स्टोव के पास दो व्यक्ति खड़े थे—तलवार लिए एक सिपाही और एक वार्डर। सज़ायाफ़्ता अपराधियों के साथ सदैव दो कर्मचारी तैनात रहते हैं, जो उन्हें दिन-रात कभी भी अकेले नहीं छोड़ते। हर तीन घंटों में उनका स्थान दूसरे पहरेदार ले लेते हैं।
इन सभी पर मेरा ध्यान एकसाथ नहीं गया था। मेरा पूरा ध्यान क़ैदी पर केंद्रित था।
एम० पिलार्ड डि विलेन्यू मेरे साथ ही थे। इस ख़ामोशी को तोड़ते कहा था, ‘मारक्वीस’ उन्होंने मेरी ओर इशारा करते कहा, ‘ये सज्जन तुम्हारे हित में तुमसे मिलना चाहते हैं।’
‘महोदय,’ मैंने कहा था ‘यदि आपको कोई शिकायत हो तो सुनने के लिए मैं उपस्थित हूँ।’
सज़ायाफ़्ता ने सिर झुका एक अजीब-सी मुस्कुराहट के साथ कहा, ‘मुझे कोई शिकायत नहीं है सर, मैं यहाँ पर्याप्त सुविधाओं के साथ हूँ। ये सज्जन (अपने गार्डों की ओर इशारा कर) पर्याप्त दयालु हैं और मुझसे बातचीत करने को सदैव तत्पर रहते हैं। गवर्नर भी मुझे देखने बीच-बीच में आते रहते हैं।’
‘तुम्हें भोजन किस प्रकार का मिलता है?’ मैंने पूछा था।
‘बहुत अच्छा है सर, मुझे दुगना राशन दिया जाता है।’
फिर कुछ पल रुककर कहा था, ‘दुगना राशन हमारा अधिकार है, और हाँ, मुझे सफ़ेद ब्रेड भी मिलती है।’
मैंने ब्रेड के दुकड़े पर नज़र घुमाई, वह सफ़ेद थी।
उसने अपनी बात पूरी करते हुए कहा था, ‘जेल में ब्रेड ऐसी मिलती है जिसकी मुझे आदत नहीं पड़ी है’ सेंटपेलाजी में जहाँ मुझे गिरफ़्तार कर रखा गया था, हम युवकों ने तो एक सोसायटी ही बना ली थी, दूसरों से अलग रहने के विचार से ताकि हमें सफ़ेद ब्रेड मिल सके।’
उसके उत्तर को कुरेदने के विचार से मैंने प्रश्न किया था ‘यहाँ की तुलना में क्या तुम सेंटपेलाजी में बेहतर महसूस करते थे?”
‘हूँ ऽ ऽ सेंटपेलाजी में मैं ठीक था और यहाँ भी हूँ।’
‘तुमने कहा कि तुम दूसरों के साथ मेल-जोल पसंद नहीं करते, दूसरों से तुम्हारा क्या तात्पर्य है?”
‘दरअसल वहाँ बहुत बड़ी संख्या में साधारण लोग थे।’
उसका उत्तर था।
सज़ायाफ़्ता, चाबाने गली के एक पोर्टर का बेटा था।
‘अच्छा, क्या तुम्हारा पलंग आरामदायक है?’ मैंने जानना चाहा था।
उसके कुछ कहने के पूर्व ही गवर्नर ने चादर उठाते हुए कहा, ‘जी सर, बालों से भरे गद्दे, नहीं दो गद्दे और दो कंबल।’
‘और दो तकिए भी,’ मारक्वीस ने जोड़ा था।
‘और तुम्हें नींद तो अच्छी आती है न।’ मेरा प्रश्न था।
उसने कुछ हिचकते हुए कहा, ‘हाँ ऽ ऽ बहुत अच्छी।’ पलंग पर एक फटी-सी पुस्तक खुली रखी थी।
‘तुम पढ़ते भी हो?”
‘जी, सर।’
मैंने पुस्तक उठा ली थी। वह पिछली सदी में प्रकाशित ‘एब्रिजमेंट ऑफ ज्यॉग्रफी एण्ड हिस्ट्री’ थी। उसके शुरुआती पन्ने और जिल्द फटी हुई थी। कांसटेंस झील के वर्णन पर पुस्तक खुली हुई थी।
‘सर’ गवर्नर ने मुझसे कहा था ‘यह पुस्तक मैंने ही इसे पढ़ने को दी है।’
मैंने मारक्वीस की ओर मुड़कर कहा था, ‘क्या यह पुस्तक तुम्हें पसंद आ रही है?’
‘यस सर,’ उसने तुरंत उत्तर दिया था, ‘गवर्नर साहब ने मुझे ‘वायजेस ऑफ ला पेराउज’ और ‘कैप्टन कुक’ भी पढ़ने को दी हैं। मेरी रुचि अन्वेषकों के साहसिक अभियानों में है। मैं इन्हें पहिले भी पढ़ चुका हूँ, लेकिन मैं उन्हें दोबारा प्रसन्नता के साथ पढूँगा और उन्हें एक वर्ष या दस वर्ष बाद फिर से पढूँगा।’
उसने यह नहीं कहा था कि—मैं पढ़ सकता हूँ, वरन् मैं ‘पढूँगा’ कहा था। वह बातूनी था और उसे अपनी आवाज़ सुनना पसंद था। ‘हमारे महान् अन्वेषक, पाठ्य-पुस्तक जैसी है।’ वह एक अख़बार की तरह बात कर रहा था। उसकी कही बातों का सार यह था कि उसमें स्वाभाविकता का अभाव है। मृत्यु के सामने सब कुछ विलुप्त हो जाता है सिवाए कृत्रिमता के। भलाई और बुराई लुप्त हो जाती है, उदार व्यक्ति कटु, असभ्य विनम्र लेकिन कृत्रिम व्यक्ति कृत्रिम ही रह जाता है।
यह विचित्र ही है कि मृत्यु के स्पर्श के बावजूद वह आपको सहजता और सरलता प्रदान नहीं करती।
वह एक निर्धन लेकिन घमंडी कारीगर था, कुछ अंशों में कलाकार जिसे कमोवेश अहम् ने बर्बाद कर दिया था। अपनी औक़ात से बाहर निकल ऐशो-आराम करने का विचार उसके मन में दृढ़ था। अपने पिता की डेस्क से उसने सौ फ्रांक चुराए और दूसरे दिन मनोरंजन और दुर्व्यसनों में लिप्त रहने के बाद उसने एक लड़की को लूटने के प्रयास में उसकी हत्या कर दी थी। यह एक भयानक नसैनी है, जिसके बहुत से डंडे (पायदान) हैं, जिसका प्रारंभ घर में चोरी से लेकर हत्या तक, पिता की डाँट से हथकड़ियों तक हैं। लासेनेयर और पॉलमान जैसे शातिर अपराधियों को जिन्हें चढ़ने में बीस वर्ष लगे थे, लेकिन इस युवक ने जो कल तक एक सामान्य-सा किशोर था, उसने इन पायदनों को चौबीस घंटों में पार कर लिया था, जैसा गलियारे में मिले एक पूर्व स्कूल शिक्षक अपराधी ने कहा था—उसने सभी सीढ़ियाँ एक ही छलाँग में पार कर ली हैं।
कैसा नर्क है ऐसा भाग्य!
कुछ मिनिटों तक वह पुस्तक के पन्ने पलटता रहा था और मैंने कुछ समय बाद आगे प्रश्न किया था, ‘क्या तुम्हारे पास अपने जीवन-यापन का कभी कोई साधन नहीं रहा है?’
उत्तर में उसने सिर उठाकर पर्याप्त गर्व से कहा, ‘बिल्कुल था।’ फिर उसने विस्तार से बतलाना शुरू कर दिया। उसे रोकने का मैंने कोई प्रयास नहीं किया था।
‘मैं फ़र्नीचर डिज़ाइन किया करता था। मैंने वास्तुकला (आर्किटेक्चर) का अध्ययन किया है। मुझे मारक्वीस कहकर पुकारा जाता था। मैं शिष्य हूँ।’
उसने लूव्रे के पूर्व वास्तुविद् एम० वायलेट ले डुक का नाम लिया था। मैंने मारक्वीस के साथ ही ‘ले डुक’ का नाम लिया, लेकिन उसने अभी अपनी बात पूरी नहीं की थी।
‘मैंने कैबिनेट निर्माताओं के लिए ‘जर्नल ऑफ डिज़ाइन’ का प्रकाशन शुरू किया था। मैंने पर्याप्त प्रगति भी कर ली थी। कार्पेट (क़ालीन) निर्माताओं को मैं रेनेसां शैली में कुछ डिज़ाइनें देना चाहता था, जो उनके व्यवसाय के अनुकूल हों, ऐसी डिज़ाइनें जो उनके पास कभी रही ही नहीं और वे अक्सर अनुपयुक्त शैली में बनाने को बाध्य होते हैं।’
‘तुम्हारा विचार तो बहुत अच्छा था। तुमने उसे आगे क्यों नहीं बढ़ाया?’
‘मेरी योजना असफल हो गई थी सर।’
उसने बहुत जल्दी से उपरोक्त शब्द कहे और फिर आगे अपनी बात शुरू कर दी, ‘बहरहाल मेरा उद्देश्य उससे कमाई करने का था ही नहीं। मेरे पास प्रतिभा थी, अपनी डिज़ाइनें मैं बेच दिया करता था। उन्हें अपनी मनचाही क़ीमत पर बेचने की स्थिति में अंततः मैं पहुँच सकता था।’
‘फिर क्यों’—चाहकर भी मैं स्वयं को कहने से रोक नहीं सका था। उसने मेरा मंतव्य समझ उत्तर दिया था, ‘सच तो यह है कि मैं स्वयं भी नहीं जानता। मेरे मन में विचार आया तो था। लेकिन इस विषय पर चर्चा इस समय तो समीचीन नहीं है, कम से कम इस निर्णायक दिन में।’
‘निर्णायक दिन’ कह वह कुछ पल रुक गया था और फिर लापरवाही से कहा था,
‘खेद है कि मेरे पास यहाँ मेरी डिज़ाइनें नहीं हैं, अन्यथा मैं आपको उनमें से कुछ अवश्य ही दिखलाता। मैंने कुछ लैंडस्केप भी पेंट किए थे। एम० ले डुक ने मुझे वाटर-कलर पेंटिंग करना भी सिखलाया था। सिसेरी शैली में मैंने सफलता भी प्राप्त कर ली थी। मैंने कुछ काम ऐसे भी किए थे, जिन्हें देख आप सिसेरी घोषित कर देते। मुझे ड्राइंग बेहद पसंद है। सेंट पेलाजी में मैंने अपने बहुत से साथियों के पोर्टेट क्रेयॉन से ही बनाए थे। उन्होंने मुझे वाटर कलर भीतर ले जाने की अनुमति ही नहीं दी थी।’
‘क्यों?’ मैंने बिना कुछ सोचे-विचारे पूछा था।
उत्तर देने में वह कुछ हिचकिचा गया था। उधर प्रश्न के बाद मैं पछताने लगा था, क्योंकि मेरी समझ में कारण अचानक ही आ गया था।
‘सर’ कह कुछ देर रुकने के बाद कहा था, ‘कारण यह है कि उनका विचार है कि रंगों में ज़हर होता है, जबकि वे ग़लत थे। वे तो वाटर-कलर थे।’
‘लेकिन’, गवर्नर ने तुरंत ही टोक कर कहा था, ‘सिंदूर’ में कुछ मात्रा में ज़हर होता है?’
‘हो सकता है, उसने उत्तर दिया था, ‘सच यह है कि उन्होंने मुझे अनुमति नहीं दी थी और मुझे क्रेयॉन से ही संतुष्ट होना पड़ा था। कुछ पोट्रेट अच्छी बनी थीं।’
‘अच्छा, तुम यहाँ क्या करते हो?’
‘अपने आपको व्यस्त रखता हूँ।’
इतना कह वह ख़ामोश रह कुछ सोचता रहा था और फिर कहा था, ‘मैं अच्छे रेखांकन कर सकता हूँ।’ अपनी वेस्ट कोट की ओर इशारा कर कहा था, ‘वह मुझे परेशान नहीं करती। कितनी ही विरोधी परिस्थितियाँ क्यों न हों व्यक्ति चित्र तो बना ही सकता है।’ उसने हथकड़ियों में बंद हाथों को हिलाते कहा और फिर ये लोग (सिपाहियों की ओर इशारा कर) पर्याप्त सज्जन हैं। इन्होंने मुझे बाँहें मोड़ने की अनुमति पहिले ही दे दी है, लेकिन मैं तो इसके अतिरिक्त भी कुछ करता हूँ—मैं पढ़ता हूँ।’
‘तुम पादरी से भी तो मिलते होंगे?’
‘जी सर, वे मुझसे मिलने आते हैं।’ इतना कह उसने गवर्नर की ओर मुड़कर कहा, ‘लेकिन मैंने अभी तक एबे मांतेस को नहीं देखा है।’
उसके मुँह से इस नाम को सुनना मुझे ख़ासा शैतानियत भरा लगा। अपनी ज़िंदगी में मैंने केवल एक ही बार एबे मांतेस को देखा है—वे गर्मियों के दिन थे, तभी मैंने उसे पॉन्ट-ओ-चेंज में एक गाड़ी में लाउवेल को फाँसी चढ़ाने ले जाते देखा था।
बहरहाल गवर्नर ने ही उसे उत्तर दिया था ‘आह! वह दरअसल बूढ़ा हो गया है। छयासी वर्ष का होने को आ गया है। बेचारा तभी आ पाता है, जब उसकी सेहत अनुमति देती है।’
‘छयासीऽऽ’, मेरे मुँह से निकल गया था, ‘चूँकि उसकी देह शक्तिहीन हो गई है—इसी की तो उसे लंबे समय से आवश्यकता थी। उसकी उम्र में पहुँच व्यक्ति ईश्वर के इतने निकट पहुँच जाता है कि वह आराम से प्यारे सुंदर शब्दों का उच्चारण कर सकता है।’
‘उससे मिल मुझे तो प्रसन्नता ही होगी’, मारक्वीस ने हड़बड़ाते हुए कहा था।
‘अरे, आस पर आसमान टिका है’, मैंने कहा था।
‘ओह’ उसने कहा था, ‘प्लीज़ मुझे निराश न करें। अभी तो अपील-अदालत को भेजा मेरा आवेदन है और साथ ही मैंने ‘एन ग्रेस’ (धर्माचार्य) से भी प्रार्थना की है। जो सज़ा मुझे दी गई है, हो सकता है, उसे रोक दिया जाए। मेरा यह तात्पर्य नहीं है कि जो सज़ा दी गई है वह न्यायोचित नहीं है, लेकिन वह कुछ अधिक कठोर अवश्य है। उन्हें कम से कम मेरी आयु पर तो ध्यान देना चाहिए था, साथ ही मुझे बाह्य परिस्थितियों का लाभ भी देना था। और कम से कम मेरी आयु पर तो ध्यान देना चाहिए था। और फिर मैंने सम्राट से भी क्षमा याचना की अपील की है। मेरे पिता ने, जो मुझसे भेंट करने आते रहते हैं, उन्होंने इस संबंध में मुझे बहुत विश्वास दिलाया है। स्वयं एम० ले डुक ने सम्राट को पिटीशन दी है। एम० ले डुक मुझसे भली-भाँति परिचित हैं, वे अपने शिष्य मारक्वीस को जानते हैं। सम्राट उनकी बात को टालने के आदी नहीं हैं। उनके लिए मेरे क्षमादान को नकारना तो असंभव ही है—मैं जेल मुक्ति नहीं चाहता, लेकिन—’इतना कह वह ख़ामोश हो गया था।
‘हाँऽऽ’, मैंने उसे आश्वस्त करते कहा था, ‘हिम्मत रखो, तुम्हारे एक ओर हैं तुम्हारे न्यायाधीश और दूसरी ओर हैं तुम्हारे पिता। लेकिन इन दोनों के ऊपर हैं तुम्हारे वास्तविक पिता और न्यायाधीशों के भी न्यायाधीश स्वयं प्रभु, जो तुम्हें दंड देने की क़तई आवश्यकता महसूस नहीं करते, साथ ही वे क्षमा सागर हैं, अत: आशा रखना ही श्रेयस्कर है।’
धन्यवाद, सर,’ मारक्वीस ने उत्तर दिया था।
एक बार फिर वहाँ मौन पसरकर गहरा गया था। कुछ देर बाद मैंने ही उसे तोड़ते हुए कहा था, ‘क्या तुम्हें किसी वस्तु की आवश्यकता है?’
आँगन में टहलने के लिए कभी-कभार जाना चाहता हूँ, बस। अभी मुझे दिन में मात्र 15 मिनट की ही अनुमति है।’
‘यह तो पर्याप्त नहीं है, ‘मैंने गवर्नर से कहा था’, मैं समझ गया आप क्या कहना चाहते हैं। ऐसा कीजिए, यदि दो सिपाही पर्याप्त न हों तो चार की व्यवस्था कर लीजिए, लेकिन इस युवक को शुद्ध हवा और सूरज की रोशनी से वंचित न रखें। आख़िर जेल के बीचों-बीच है आँगन, हर कहीं दरवाज़े और लोहे के सींकचे हैं, इन सबको घेरे हैं चार ऊँची-ऊँची दीवारें। चौबीस घंटों का चार सिपाहियों का पहरा, स्ट्रेट वेस्ट कोट, प्रत्येक मोड़ पर संतरी, दो संतरी चक्कर लगाते रहते हैं और सात फुट ऊँचे दो परकोटे-भला आपको आशंका किस बात की है? एक क़ैदी को आंगन में चहलकदमी की अनुमति तो देनी ही चाहिए—यदि उसकी इच्छा है तो।’
गवर्नर ने सिर झुकाते हुए कहा था, ‘आपका कथन उचित है सर, मैं आपके सुझाव पर अमल करूँगा।’ इस पर सज़ायाफ़्ता ने गद्गद हो बार-बार आभार प्रकट किया था।
‘अब मेरे जाने का समय हो गया है,’ मैंने उससे कहा था, ‘ईश्वर पर ध्यान लगाओ और हिम्मत रखो, बस।’ ‘रखूँगा सर, हिम्मत रखूँगा।’ वह मेरे साथ दरवाज़े तक आया था, लेकिन मेरे बाहर निकलते ही दरवाज़ा बंद हो गया था। गवर्नर मुझे दाहिनी ओर के सेल (कोठरी) में ले गया था। पहिले की तुलना में यह कुछ बड़ा था। उसमें मात्र एक पलंग और बर्तन रखे थे।
यहीं, इसी सेल में पॉलमान को रखा गया था। जो छह सप्ताह उसने यहाँ व्यतीत किए थे, उनमें उसने इन्हीं पटियों के फ़र्श पर चल-चलकर तीन जोड़ी जूते घिस डाले थे। वह चलना कभी बंद ही नहीं करता था। अपनी कोठरी में प्रतिदिन पंद्रह लीग (एक लीग = 3 मील) चला करता था। यह तो भयानक ही था।
‘यहीं पर जोज़फ हेनरी भी रहा है न?’ मैंने गवर्नर से पूछा था।
‘जी हाँ, लेकिन वह पूरे समय अस्पताल में ही रहा था। वह बीमार था, लेकिन हमेशा पत्र लिखता रहता था—मोहर लगाने वाले को, राज्यपाल प्रमुख को, चांसलर को, महान रिफाउंड्री को पत्र-चार-चार पृष्ठों के पत्र वह भी बारीक हस्तलिपि में। एक दिन मैंने उससे हँसते हुए कहा था—‘यह तो तुम्हारा सौभाग्य है कि तुम्हें अपना लिखा पढ़ने को बाध्य नहीं किया जाता, समझे।’ उन पत्रों को कभी भी किसी ने नहीं पढ़ा था। वह मूर्ख था मूर्ख।’
जेल से बाहर निकलने के पहिले गवर्नर ने दो घेरे या घिरी हुई दो गलियों, ऊँची दीवारों, कहीं-कहीं लगी हरियाली प्रत्येक तीस क़दम पर बने संतरी-बाक्सों को एक-एक कर इशारा कर दिखलाया। इसके बाद उसने सज़ायाफ़्ताओं के सेलों (कोठरियों) की खिड़कियों की ओर इशारा किया था, जहाँ एक वर्ष पूर्व दो संतरियों ने स्वयं को गोली मार ली थी। उन्होंने राइफ़लों से अपने सिर ही उड़ा दिए थे। गोलियों के खोल संतरी बाक्स में मिले थे। दीवार पर लगे ख़ून के धब्बों को बरसात ने धो दिया है। एक ने इसलिए गोली चला ली थी, क्योंकि उसके पास से गुज़रते आफ़ीसर ने उसे बिना राइफल के पकड़ लिया था, जिसे वह संतरी बाक्स में छोड़ आया था। उसके पास से गुज़रते आफ़ीसर ने कहा था, ‘पुलिस हिरासत में पंद्रह दिन।’ दूसरे ने गोली क्यों मारी, हमें कभी पता नहीं चल सका।’
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dusri or us vishal timanjila bilDing ke apne apne sel (kothari) mein qaidi madhumakkhiyon ke chhatte ki tarah band hain. paDosi hain jo kabhi ek dusre ko nahin dekhte, chhoti chhoti kutiyon se basa ek shahr hi hai jahan bachchon ke sivaye koi nahin rahta. aise bachche jo ek dusre se aprichit hain, jo barson paDos mein rahne ke bavjud ek dusre ke pairon ki padchap ki goonj ya avaz tak nahin sunte. divaron mein band nark—mehnat, paDhai, auzar, pustken, neend aath ghante, aram—ek ghanta, divaron se ghire angan mein ek ghanta khelna, subah shaam
pararthna—kabhi socha bhi hai.
ek or hai malkunD aur dusri or kheti.
aap sel (kothari) mein jate hain—ek laDka gandi si khiDki se aati roshni mein bench ke paas khaDa dikhta hai, khiDki ka ek phuta palla uupar tak uthaya ja sakta hai. laDka nha dhokar mota sarj pahine shaant, gambhir khaDa haii kaam band kar wo selyut karta hai, aap usse parashn karte hain aur wo uttar deta hai, gambhir nazron ke saath dabi zuban mein.
vahan kuch qaidi tale bana rahe hain, din mein ek darjan; dusre farnichar mein naqqashi kar rahe hain. paristhitiyan utni hi hain jitni kahaniyan hain, jitne galiyare hain utne hi varkashap. yahan laDke likh paDh bhi sakte hain. yahan jel mein jahan ek shikshak gyaan ke liye hai to ek vyayam ke liye bhi.
ye khamakhyali mat paal lijiyega ki namrata aur saumya vyvahar ke karan jel mein danD aparyapt honge. nahin, ve paryapt piDadayak hain. sabhi qaidiyon par danD ke alag alag nishan aspasht dikhte hain.
alochana mein tark to bahut se diye ja sakte hain, sel (kothari) vyavastha ko hilen. bahutere sudhar apekshit hain, lekin vartaman mein ve aadhe adhure aur apay hain, ye avashya hai ki anya jel vyvasthaon se tulna karen to ve paryapt prshansniy hain.
qaidi dason dishaon se band—azadi keval kaam karte samay uplabdh ruchi maatr usmen jise wo banata hai, bas. parinamasvrup wo laDka jo sabhi kaam dhandhon se ghrina karta tha, vahi sarvadhik mehnati maiknik ban jata hai. jab bhi kisi ko ekaant karavas band kar diya jata hai to wo andheri kalakothari mein bhi roshni ki kiran ko talash hi leta hai.
abhi us din main jel dekhne gaya tha to saath chal rahe gavarnar se puchha tha, ‘kya tumhare yahan koi mrityudanD praapt vyakti hai?’
‘ji hai! marakvis naam hai uska, jisne ek laDki ki hatya taurikse mein ki thi, wo use lutna chahta tha. ’
‘main is vyakti se milna chahunga,’ mainne kaha tha.
‘sar’, gavarnar ne uttar diya tha, ‘main yahan aapke adeshon ka palan karne ke liye hoon, kintu main aapko mrityudanD pae vyakti ke sel (kothari) mein pravesh ki anumti nahin de sakta. ’
‘kyon nahin?’
‘sar, pulis niymon ke anusar main sabhi ko mrityudanD ke selon mein jane ki anumti nahin de sakta. ’
is par pratirodh karte mainne kaha, ‘main pulis niymon se to parichit nahin hoon jel nideshak, lekin main itna janta hoon ki kanun mujhe anumti deta hai. kanun ke anusar jel chaimbars ke shasanadhin hai aur jel ke sabhi adhikari phraans ke piyars ke adhin hain—jo unke karyon ki samiksha kar uchit nirnay le sakte hain. jab bhi kahin koi durvyavhar hota hai, vidhayika uski jaanch kar sakti hai. mrityudanD praapt vyakti ke sel (kothari) mein niyam viruddh kriyaklapon ki paryapt ashanka hai. atah usmen jana mera karttavya hai aur use kholana aapka. ’
koi uttar na de gavarnar mujhe saath le aage baDh gaya tha.
phulon ke kuch paudhe angan ko gherkar bane galiyare mein lage the. ye qaidiyon ke khelne aur kasrat karne ka maidan tha. angan ko chaar uunchi bilDing ghere theen. galiyare ki ek bilDing ke bichon beech lohe ka ek bhari bharkam darvaza tha. uska ek chhota phatak khula aur mainne svayan ko patthron se bane chhote kamrenuma dhundhale galiyare mein paya. mere samne ye teen darvaze ek samne aur shesh do dayen aur bayen teen vazandar darvaze jinmen lohe ki jaliyan maDhi theen. ye teen darvaze teen selon (kothariyon) ke the, jinmen prandanD pae apradhi, nyayadhish aur suprim kort mein bheji apni apilon ke nirnay ki prtiksha karte hain. iska samanya arth tha do mahon ki prtiksha.
‘do se adhik sel (kothriyan) aaj tak kabhi bhare nahin hain,’ gavarnar ne kaha tha.
beech vale sel (kothari) ka darvaza khola gaya. is samay keval isi sel (kothari) mein qaidi tha. main bhitar chala gaya tha. mere dahliz paar karte hi ek vyakti tezi se khaDa ho gaya tha. wo adami sel (kothari) ke dusre chhor par tha. mainne use asani se dekh liya tha. mariyal si roshni uupar bani gahri si khiDki se nikal uske sir par paD rahi thi, jisse uski peeth chamak rahi thi. uska sir nanga tha aur gardan bhi. wo jute aur stret vest kot (jakaD jama) aur bhure rang ka uuni patlun pahne tha. moti bhuri linan ki vest kot ki banhen samne ki or gaanth lagakar bandhi theen. tambakhu se bhare paip ko pakDe haath alag hi dikhlai paD raha tha. darvaza khulne ke samay wo use jalane hi ja raha tha. yahi tha sazayafta.
baraste akash ki halki si jhalak ke atirikt khiDki se kuch bhi dikhlai nahin paD raha tha. kuch samay tak vahan khamoshi pasri rahi. andar se main itna vichlit tha ki main kuch bhi kahne ki sthiti mein nahin tha. wo bamushkil bais teis varsh ka yuvak tha. uske bhure baal svabhavik roop se ghunghrale the aur chhote chhote kate the, lekin daDhi betartib baDhi hui thi. uski baDi baDi sundar ankhen niche jhuki hui theen aur dushtata unse aspasht jhalak rahi thi, uski naak chapti aur matha sankra, kaan ke pichhe ki haDDiyan baDhi hui theen, jo apashaguni mana jata hai, ganvaron jaisa munh aur bayan gaal suja hua tha, jo kisi dard ka parinam tha. pili rangat ke saath uska chehra khincha hua tha. baharhal hamare bhitar aate hi usne muskurane ki bharsak koshish ki thi.
wo sidhe tankar khaDa tha. uska bistar uske bayen or tha—pahiye vala nicha sa palang jis par puri sambhavna hai wo hamare aane ke pahile leta hua tha, aur uske dahine anaDi tariqe se pile rang se pent ki gai chhoti si tebil thi, jiska uupri bhaag sangamaramri rang se pent kiya gaya tha. tebil par chamakti mitti ki pleton mein sabjiyan, kuch gosht, breD ka tukDa aur tambakhu se bhara chamDe ka pauch rakha tha. tebil ke paas baans ki ek kursi rakhi thi.
ye chaukidaron vala bhayanak sel (kothari) na tha. achchha khasa lamba chauDa halke pile rang se puta kamra tha, jismen palang, tebil, kursi, palish kiya mitti ka stov aur khiDki ke samne ki divar par shelph tha, jismen purane kapDe aur purani krakri rakhi thi. ek kone mein ek gol kursi rakhi thi, jisne purane jelon ke ghatiya tab ki jagah le li thi.
sab kuch saaf suthra sa, paryapt vyavasthit aur gharelupan se bhara jiski anupasthiti mein vastuon ka akarshan kho jata hai. lohe ki salakhen lagi khiDki khuli thi. khiDki ki sahayata ke liye do chhoti chenen sazayafta ke sir ke uupar do kilon se latki theen. stov ke paas do vyakti khaDe the—talvar liye ek sipahi aur ek varDar. sazayafta apradhiyon ke saath sadaiv do karmachari tainat rahte hain, jo unhen din raat kabhi bhi akele nahin chhoDte. har teen ghanton mein unka sthaan dusre pahredar le lete hain.
in sabhi par mera dhyaan eksaath nahin gaya tha. mera pura dhyaan qaidi par kendrit tha.
em० pilarD Di vilenyu mere saath hi the. is khamoshi ko toDte kaha tha, ‘‘marakvis’ unhonne meri or ishara karte kaha, “ye sajjan tumhare hit mein tumse milna chahte hain. ’
‘mahoday,’ mainne kaha tha ‘yadi aapko koi shikayat ho to sunne ke liye main upasthit hoon. ’
sazayafta ne sir jhuka ek ajib si muskurahat ke saath kaha, ‘mujhe koi shikayat nahin hai sar, main yahan paryapt suvidhaon ke saath hoon. ye sajjan (apne garDon ki or ishara kar) paryapt dayalu hain aur mujhse batachit karne ko sadaiv tatpar rahte hain. gavarnar bhi mujhe dekhne beech beech mein aate rahte hain. ’
‘tumhen bhojan kis prakar ka milta hai?’ mainne puchha tha.
‘bahut achchha hai sar, mujhe dugna rashan diya jata hai,’
phir kuch pal rukkar kaha tha, ‘dugna rashan hamara adhikar hai, aur haan, mujhe safed breD bhi milti hai. ’
mainne breD ke dukDe par nazar ghumai, wo safed thi.
usne apni baat puri karte hue kaha tha, ‘jel mein breD aisi milti hai jiski mujhe aadat nahin paDi hai’ sentpelaji mein jahan mujhe giraftar kar rakha gaya tha, hum yuvkon ne to ek sosayti hi bana li thi, dusron se alag rahne ke vichar se taki hamein safed breD mil sake. ’
uske uttar ko kuredne ke vichar se mainne parashn kiya tha ‘yahan ki tulna mein kya tum sentpelaji mein behtar mahsus karte the?”
uske kuch kahne ke poorv hi gavarnar ne chadar uthate hue kaha, ‘ji sar, balon se bhare gadde, nahin do gadde aur do kambal. ’
‘aur do takiye bhi,’ marakvis ne joDa tha.
‘aur tumhein neend to achchhi aati hai na. ’ mera parashn tha.
usne kuch hichakte hue kaha, ‘haan ऽ ऽ bahut achchhi. ’ palang par ek phati si pustak khuli rakhi thi.
‘tum paDhte bhi ho?”
‘ji, sar. ’
mainne pustak utha li thi. wo pichhli sadi mein prakashit ‘ebrijment auph jyaugrphi enD histri’ thi. uske shuruati panne aur jild phati hui thi. kanstens jheel ke varnan par pustak khuli hui thi.
‘sar’ gavarnar ne mujhse kaha tha ‘yah pustak mainne hi ise paDhne ko di hai. ’
mainne marakvis ki or muDkar kaha tha, ‘kya ye pustak tumhein pasand aa rahi hai?’
‘yas sar,’ usne turant uttar diya tha, ‘gavarnar sahab ne mujhe ‘vayjes auph la perauj’ aur ‘kaiptan kuk’ bhi paDhne ko di hain. meri ruchi anveshkon ke sahasik abhiyanon mein hai. main inhen pahile bhi paDh chuka hoon, lekin main unhen dobara prasannata ke saath paDhunga aur unhen ek varsh ya das varsh baad phir se paDhunga. ’
usne ye nahin kaha tha ki—main paDh sakta hoon, varan main ‘paDhunga’ kaha tha. wo batuni tha aur use apni avaz sunna pasand tha. hamare mahan anveshak, pathya pustak jaisi hai. ’ wo ek akhbar ki tarah baat kar raha tha. uski kahi baton ka saar ye tha ki usmen svabhavikta ka abhav hai. mrityu ke samne sab kuch vilupt ho jata hai sivaye kritrimta ke. bhalai aur burai lupt ho jati hai, udaar vyakti katu, asabhya vinamr lekin kritrim vyakti kritrim hi rah jata hai.
ye vichitr hi hai ki mrityu ke sparsh ke bavjud wo aapko sahajta aur saralta pradan nahin karti.
wo ek nirdhan lekin ghamanDi karigar tha, kuch anshon mein kalakar jise kamovesh aham ne barbad kar diya tha. apni auqat se bahar nikal aisho aram karne ka vichar uske man mein driDh tha. apne pita ki Desk se usne sau phraank churaye aur dusre din manoranjan aur durvyasnon mein lipt rahne ke baad usne ek laDki ko lutne ke prayas mein uski hatya kar di thi. ye ek bhayanak nasaini hai, jiske bahut se DanDe (payadan) hain, jiska prarambh ghar mein chori se lekar hatya tak, pita ki Daant se hathakaDiyon tak hain. laseneyar aur paulman jaise shatir apradhiyon ko jinhen chaDhne mein bees varsh lage the, lekin is yuvak ne jo kal tak ek samanya sa kishor tha, usne in payadnon ko chaubis ghanton mein paar kar liya tha, jaisa galiyare mein mile ek poorv skool shikshak apradhi ne kaha tha—usne sabhi siDhiyan ek hi chhalang mein paar kar li hain.
kaisa nark hai aisa bhagya!
kuch miniton tak wo pustak ke panne palatta raha tha aur mainne kuch samay baad aage parashn kiya tha, “kya tumhare paas apne jivan yapan ka kabhi koi sadhan nahin raha hai?’
uttar mein usne sir uthakar paryapt garv se kaha, ‘bilkul tha. ’ phir usne vistar se batlana shuru kar diya. use rokne ka mainne koi prayas nahin kiya tha.
‘main farnichar Dizain kiya karta tha. mainne vastukla (arkitekchar) ka adhyayan kiya hai. mujhe marakvis kahkar pukara jata tha. main shishya hoon. ’
usne luvre ke poorv vastuvid em० vaylet le Duk ka naam liya tha. mainne marakvis ke saath hi ‘le Duk’ ka naam liya, lekin usne abhi apni baat puri nahin ki thi.
‘mainne kaibinet nirmataon ke liye ‘jarnal auph Dizain’ ka prakashan shuru kiya tha. mainne paryapt pragti bhi kar li thi. karpet (qalin) nirmataon ko main renesan shaili mein kuch Dizainen dena chahta tha, jo unke vyavsay ke anukul hon, aisi Dizainen jo unke paas kabhi rahi hi nahin aur ve aksar anupyukt shaili mein banane ko badhya hote hain. ’
‘tumhara vichar to bahut achchha tha. tumne use aage kyon nahin baDhaya’
‘meri yojna asaphal ho gai thi sar. ’
usne bahut jaldi se uprokt shabd kahe aur phir aage apni baat shuru kar di, ‘baharhal mera uddeshya usse kamai karne ka tha hi nahin. mere paas pratibha thi, apni Dizainen main bech diya karta tha. unhen apni manchahi qimat par bechne ki sthiti mein antatः main pahunch sakta tha. ’
‘phir kyon’—chahkar bhi main svayan ko kahne se rok nahin saka tha. usne mera mantavya samajh uttar diya tha, ‘sach to ye hai ki main svayan bhi nahin janta. mere man mein vichar aaya to tha. lekin is vishay par charcha is samay to samichin nahin hai, kam se kam is nirnayak din mein. ’
‘nirnayak din’ kah wo kuch pal ruk gaya tha aur phir laparvahi se kaha tha,
‘khed hai ki mere paas yahan meri Dizainen nahin hain, anyatha main aapko unmen se kuch avashya hi dikhlata. mainne kuch lainDaskep bhi pent kiye the. em० le Duk ne mujhe vatar kalar penting karna bhi sikhlaya tha. siseri shaili mein mainne saphalta bhi praapt kar li thi. mainne kuch kaam aise bhi kiye the, jinhen dekh aap siseri ghoshit kar diye hote. mujhe Draing behad pasand hai. sent pelaji mein mainne apne bahut se sathiyon ke portet kreyaun se hi banaye the. unhonne mujhe vatar kalar bhitar le jane ki anumti hi nahin di thi. ’
‘kyon?’ mainne bina kuch soche vichare puchha tha.
uttar dene mein wo kuch hichkicha gaya tha. udhar parashn ke baad main pachhtane laga tha, kyonki meri samajh mein karan achanak hi aa gaya tha.
‘sar’ kah kuch der rukne ke baad kaha tha, ‘karan ye hai ki unka vichar hai ki rangon mein jahar hota hai, jabki ve galat the. ve to vatar kalar the. ’
‘lekin’, gavarnar ne turant hi tok kar kaha tha, ‘sindur’ mein kuch matra mein zahr hota hai?”
‘ho sakta hai, usne uttar diya tha, ‘sach ye hai ki unhonne mujhe anumti nahin di thi aur mujhe kreyaun se hi santusht hona paDa tha. kuch potret achchhi bani theen. ’
‘achchha, tum yahan kya karte ho?’
‘apne aapko vyast rakhta hoon. ’
itna kah wo khamosh rah kuch sochta raha tha aur phir kaha tha, ‘main achchhe rekhankan kar sakta hoon. ’ apni vest kot ki or ishara kar kaha tha, ‘vah mujhe pareshan nahin karti. kitni hi virodhi paristhitiyan kyon na hon vyakti chitr to bana hi sakta hai. ’ usne hathakaDiyon mein band hathon ko hilate kaha aur phir ye log (sipahiyon ki or ishara kar) paryapt sajjan hain. inhonne mujhe banhen moDne ki anumti pahile hi de di hai, lekin main to iske atirikt bhi kuch karta hun—main paDhta hoon. ’
‘tum padari se bhi to milte honge?’
‘ji sar, ve mujhse milne aate hain. ’ itna kah usne gavarnar ki or muDkar kaha, ‘lekin mainne abhi tak ebe mantes ko nahin dekha hai. ’
uske munh se is naam ko sunna mujhe khasa shaitaniyat bhara laga. apni zindagi mein mainne keval ek hi baar ebe mantes ko dekha hai—ve garmiyon ke din the, tabhi mainne use paunt o chenj mein ek gaDi mein lauvel ko phansi chaDhane le jate dekha tha.
baharhal gavarnar ne hi use uttar diya tha ‘aah! wo darasal buDha ho gaya hai. chhayasi varsh ka hone ko aa gaya hai. bechara tabhi aa pata hai, jab uski sehat anumti deti hai. ’
‘chhayasiऽऽ’, mere munh se nikal gaya tha, ‘chunki uski deh shaktihin ho gai hai—isi ki to use lambe samay se avashyakta thi. uski umr mein pahunch vyakti iishvar ke itne nikat pahunch jata hai ki wo aram se pyare sundar shabdon ka uchcharan kar sakta hai. ’
‘usse mil mujhe to prasannata hi hogi’, marakvis ne haDabDate hue kaha tha.
‘are, aas par asman tika hai’, mainne kaha tha.
‘oh’ usne kaha tha, ‘pleez mujhe nirash na karen. abhi to apil adalat ko bheja mera avedan hai aur saath hi mainne ‘en gres’ (dharmacharya) se bhi pararthna ki hai. jo saja mujhe di gai hai, ho sakta hai, use rok diya jaye. mera ye tatparya nahin hai ki jo saza di gai hai wo nyayochit nahin hai, lekin wo kuch adhik kathor avashya hai. unhen kam se kam meri aayu par to dhyaan dena chahiye tha, saath hi mujhe bahya paristhitiyon ka laabh bhi dena tha. aur kam se kam meri aayu par to dhyaan dena chahiye tha. aur phir mainne samrat se bhi kshama yachana ki apil ki hai. mere pita ne, jo mujhse bhent karne aate rahte hain, unhonne is sambandh mein mujhe bahut vishvas dilaya hai. svayan em. le Duk ne samrat ko pitishan di hai em. le Duk mujhse bhalibhanti parichit hain, ve apne shishya marakvis ko jante hain samrat unki baat ko talne ke aadi nahin hain. unke liye mere kshmadan ko nakarna to asambhav hi hai—main jel mukti nahin chahta, lekin—’itna kah wo khamosh ho gaya tha.
‘haanऽऽ’, mainne use ashvast karte kaha tha, ‘himmat rakho, tumhare ek or hain tumhare nyayadhish aur dusri or hain tumhare pita. lekin in donon ke uupar hain tumhare vastavik pita aur nyayadhishon ke bhi nyayadhish svayan prabhu, jo tumhein danD dene ki qatii avashyakta mahsus nahin karte, saath hi ve kshama sagar hain, atah aasha rakhna hi shreyaskar hai. ’
dhanyavad, sar,’ marakvis ne uttar diya tha.
ek baar phir vahan maun pasarkar gahra gaya tha. kuch der baad mainne hi use toDte hue kaha tha, ‘kya tumhein kisi vastu ki avashyakta hai?’
angan mein tahalne ke liye kabhi kabhar jana chahta hoon, bas. abhi mujhe din mein maatr 15 minat ki hi anumti hai. ’
‘yah to paryapt nahin hai, ‘mainne gavarnar se kaha tha’, main samajh gaya aap kya kahna chahte hain. aisa kijiye, yadi do sipahi paryapt na hon to chaar ki vyavastha kar lijiye, lekin is yuvak ko shuddh hava aur suraj ki roshni se vanchit na rakhen. akhir jel ke bichon beech hai angan, har kahin darvaze aur lohe ke sinkche hain, in sabko ghere hain chaar uunchi uunchi divaren. chaubis ghanton ka chaar sipahiyon ka pahra, stet vest kot, pratyek moD par santri, do santri chakkar lagate rahte hain aur saat phut uunche do parkote bhala aapko ashanka kis baat ki hai? ek qaidi ko angan mein chahalkadmi ki anumti to deni hi chahiye—yadi uski ichchha hai to. ’
gavarnar ne sir jhukate hue kaha tha, ‘apka kathan uchit hai sar, main aapke sujhav par amal karunga. ’ is par sazayafta ne gadgad ho baar baar abhar prakat kiya tha.
‘ab mere jane ka samay ho gaya hai,’ mainne usse kaha tha, ‘iishvar par dhyaan lagao aur himmat rakho, bas. ’ ‘rakhunga sar, himmat rakhunga. ’ wo mere saath darvaze tak aaya tha, lekin mere bahar nikalte hi darvaza band ho gaya tha. gavarnar mujhe dahini or ke sel (kothari) mein le gaya tha. pahile ki tulna mein ye kuch baDa tha. usmen maatr ek palang aur bartan rakhe the.
yahin, isi sel mein paulman ko rakha gaya tha. jo chhah saptah usne yahan vyatit kiye the, unmen usne inhin patiyon ke farsh par chal chal kar teen joDi jute ghis Dale the. wo chalna kabhi band hi nahin karta tha. apni kothari mein pratidin pandrah leeg (ek leeg 3 meel) chala karta tha. ye to bhayanak hi tha.
‘yahin par jojaph henri bhi raha hai na?’ mainne gavarnar se puchha tha.
‘ji haan, lekin wo pure samay aspatal mein hi raha tha. wo bimar tha, lekin hamesha patr likhta rahta tha—mohar lagane vale ko, rajyapal pramukh ko, chanslar ko, mahan riphaunDri ko patr chaar chaar prishthon ke patr wo bhi barik hastalipi mein. ek din mainne usse hanste hue kaha tha—‘yah to tumhara saubhagya hai ki tumhein apna likha paDhne ko badhya nahin kiya jata, samjhe. un patron ko kabhi bhi kisi ne nahin paDha tha. wo moorkh tha moorkh. ’
jel se bahar nikalne ke pahile gavarnar ne do ghere ya ghiri hui do galiyon, uunchi divaron, kahin kahin lagi hariyali pratyek tees kadam par bane santri bakson ko ek ek kar ishara kar dikhlaya. iske baad usne sazayaftaon ke selon (kothariyon) ki khiDakiyon ki or ishara kiya tha, jahan ek varsh poorv do santariyon ne svayan ko goli maar li thi. unhonne raiflon se apne sir hi uDa diye the. goliyon ke khol santri baanks mein mile the. divar par lage khoon ke dhabbon ko barsat ne dho diya hai. ek ne isliye goli chala li thi, kyonki uske afisar ne use bina raiphal ke pakaD liya tha, jise wo santri baaks mein chhoD aaya tha. uske paas se guzarte afisar ne kaha tha, ‘pulis hirasat mein pandrah din. ’ dusre ne goli kyon mari, hamein kabhi pata nahin chal saka. ’
apradh ki duniya ke navagantukon ke liye bani jel ke saath bana sazayafta qaidiyon ka jel ek jivant virodhabhas hai. na keval dushkarmiyon ka prarambh aur ant hi aamne samne hai, varan donon vyvasthayen bhi aamne samne hain—ekant karavas aur samuhik karavas. is parashn ka uttar bhi isi se nishchit ho jata hai. ekaant karavas ki kaal kothari aur tahkhana (sel) purane aur ne jel ke maun dvandv yuddh ki tarah hai. ek or hain sabhi sazayafta qaidi satrah varshiy bachche, sattar varshiy vriddhon ke saath, terah maah ki jel ke saath ajanm karavasi. daDhi rahit laDka jisne sev churaya tha aur bhari saDak ka hatyara jise ples sait jaiks mein jhuma jhapti ke baad pratyakshadarshi gavahon ke chalte tulon bheja gaya, kuch had tak nirapradh aur samaybaddh sazayafta bhi, nili ankhon vala aur safed daDhi vala sabhi kiDe makoDon se bhare, varkashap mein neem andhere mein silai aur anya kaam bina ek dusre ko dekhe majburi mein karte rahte hain, jahan ek samuh umr se Darta rahta hai aur dusra unke garm khoon se.
dusri or us vishal timanjila bilDing ke apne apne sel (kothari) mein qaidi madhumakkhiyon ke chhatte ki tarah band hain. paDosi hain jo kabhi ek dusre ko nahin dekhte, chhoti chhoti kutiyon se basa ek shahr hi hai jahan bachchon ke sivaye koi nahin rahta. aise bachche jo ek dusre se aprichit hain, jo barson paDos mein rahne ke bavjud ek dusre ke pairon ki padchap ki goonj ya avaz tak nahin sunte. divaron mein band nark—mehnat, paDhai, auzar, pustken, neend aath ghante, aram—ek ghanta, divaron se ghire angan mein ek ghanta khelna, subah shaam
pararthna—kabhi socha bhi hai.
ek or hai malkunD aur dusri or kheti.
aap sel (kothari) mein jate hain—ek laDka gandi si khiDki se aati roshni mein bench ke paas khaDa dikhta hai, khiDki ka ek phuta palla uupar tak uthaya ja sakta hai. laDka nha dhokar mota sarj pahine shaant, gambhir khaDa haii kaam band kar wo selyut karta hai, aap usse parashn karte hain aur wo uttar deta hai, gambhir nazron ke saath dabi zuban mein.
vahan kuch qaidi tale bana rahe hain, din mein ek darjan; dusre farnichar mein naqqashi kar rahe hain. paristhitiyan utni hi hain jitni kahaniyan hain, jitne galiyare hain utne hi varkashap. yahan laDke likh paDh bhi sakte hain. yahan jel mein jahan ek shikshak gyaan ke liye hai to ek vyayam ke liye bhi.
ye khamakhyali mat paal lijiyega ki namrata aur saumya vyvahar ke karan jel mein danD aparyapt honge. nahin, ve paryapt piDadayak hain. sabhi qaidiyon par danD ke alag alag nishan aspasht dikhte hain.
alochana mein tark to bahut se diye ja sakte hain, sel (kothari) vyavastha ko hilen. bahutere sudhar apekshit hain, lekin vartaman mein ve aadhe adhure aur apay hain, ye avashya hai ki anya jel vyvasthaon se tulna karen to ve paryapt prshansniy hain.
qaidi dason dishaon se band—azadi keval kaam karte samay uplabdh ruchi maatr usmen jise wo banata hai, bas. parinamasvrup wo laDka jo sabhi kaam dhandhon se ghrina karta tha, vahi sarvadhik mehnati maiknik ban jata hai. jab bhi kisi ko ekaant karavas band kar diya jata hai to wo andheri kalakothari mein bhi roshni ki kiran ko talash hi leta hai.
abhi us din main jel dekhne gaya tha to saath chal rahe gavarnar se puchha tha, ‘kya tumhare yahan koi mrityudanD praapt vyakti hai?’
‘ji hai! marakvis naam hai uska, jisne ek laDki ki hatya taurikse mein ki thi, wo use lutna chahta tha. ’
‘main is vyakti se milna chahunga,’ mainne kaha tha.
‘sar’, gavarnar ne uttar diya tha, ‘main yahan aapke adeshon ka palan karne ke liye hoon, kintu main aapko mrityudanD pae vyakti ke sel (kothari) mein pravesh ki anumti nahin de sakta. ’
‘kyon nahin?’
‘sar, pulis niymon ke anusar main sabhi ko mrityudanD ke selon mein jane ki anumti nahin de sakta. ’
is par pratirodh karte mainne kaha, ‘main pulis niymon se to parichit nahin hoon jel nideshak, lekin main itna janta hoon ki kanun mujhe anumti deta hai. kanun ke anusar jel chaimbars ke shasanadhin hai aur jel ke sabhi adhikari phraans ke piyars ke adhin hain—jo unke karyon ki samiksha kar uchit nirnay le sakte hain. jab bhi kahin koi durvyavhar hota hai, vidhayika uski jaanch kar sakti hai. mrityudanD praapt vyakti ke sel (kothari) mein niyam viruddh kriyaklapon ki paryapt ashanka hai. atah usmen jana mera karttavya hai aur use kholana aapka. ’
koi uttar na de gavarnar mujhe saath le aage baDh gaya tha.
phulon ke kuch paudhe angan ko gherkar bane galiyare mein lage the. ye qaidiyon ke khelne aur kasrat karne ka maidan tha. angan ko chaar uunchi bilDing ghere theen. galiyare ki ek bilDing ke bichon beech lohe ka ek bhari bharkam darvaza tha. uska ek chhota phatak khula aur mainne svayan ko patthron se bane chhote kamrenuma dhundhale galiyare mein paya. mere samne ye teen darvaze ek samne aur shesh do dayen aur bayen teen vazandar darvaze jinmen lohe ki jaliyan maDhi theen. ye teen darvaze teen selon (kothariyon) ke the, jinmen prandanD pae apradhi, nyayadhish aur suprim kort mein bheji apni apilon ke nirnay ki prtiksha karte hain. iska samanya arth tha do mahon ki prtiksha.
‘do se adhik sel (kothriyan) aaj tak kabhi bhare nahin hain,’ gavarnar ne kaha tha.
beech vale sel (kothari) ka darvaza khola gaya. is samay keval isi sel (kothari) mein qaidi tha. main bhitar chala gaya tha. mere dahliz paar karte hi ek vyakti tezi se khaDa ho gaya tha. wo adami sel (kothari) ke dusre chhor par tha. mainne use asani se dekh liya tha. mariyal si roshni uupar bani gahri si khiDki se nikal uske sir par paD rahi thi, jisse uski peeth chamak rahi thi. uska sir nanga tha aur gardan bhi. wo jute aur stret vest kot (jakaD jama) aur bhure rang ka uuni patlun pahne tha. moti bhuri linan ki vest kot ki banhen samne ki or gaanth lagakar bandhi theen. tambakhu se bhare paip ko pakDe haath alag hi dikhlai paD raha tha. darvaza khulne ke samay wo use jalane hi ja raha tha. yahi tha sazayafta.
baraste akash ki halki si jhalak ke atirikt khiDki se kuch bhi dikhlai nahin paD raha tha. kuch samay tak vahan khamoshi pasri rahi. andar se main itna vichlit tha ki main kuch bhi kahne ki sthiti mein nahin tha. wo bamushkil bais teis varsh ka yuvak tha. uske bhure baal svabhavik roop se ghunghrale the aur chhote chhote kate the, lekin daDhi betartib baDhi hui thi. uski baDi baDi sundar ankhen niche jhuki hui theen aur dushtata unse aspasht jhalak rahi thi, uski naak chapti aur matha sankra, kaan ke pichhe ki haDDiyan baDhi hui theen, jo apashaguni mana jata hai, ganvaron jaisa munh aur bayan gaal suja hua tha, jo kisi dard ka parinam tha. pili rangat ke saath uska chehra khincha hua tha. baharhal hamare bhitar aate hi usne muskurane ki bharsak koshish ki thi.
wo sidhe tankar khaDa tha. uska bistar uske bayen or tha—pahiye vala nicha sa palang jis par puri sambhavna hai wo hamare aane ke pahile leta hua tha, aur uske dahine anaDi tariqe se pile rang se pent ki gai chhoti si tebil thi, jiska uupri bhaag sangamaramri rang se pent kiya gaya tha. tebil par chamakti mitti ki pleton mein sabjiyan, kuch gosht, breD ka tukDa aur tambakhu se bhara chamDe ka pauch rakha tha. tebil ke paas baans ki ek kursi rakhi thi.
ye chaukidaron vala bhayanak sel (kothari) na tha. achchha khasa lamba chauDa halke pile rang se puta kamra tha, jismen palang, tebil, kursi, palish kiya mitti ka stov aur khiDki ke samne ki divar par shelph tha, jismen purane kapDe aur purani krakri rakhi thi. ek kone mein ek gol kursi rakhi thi, jisne purane jelon ke ghatiya tab ki jagah le li thi.
sab kuch saaf suthra sa, paryapt vyavasthit aur gharelupan se bhara jiski anupasthiti mein vastuon ka akarshan kho jata hai. lohe ki salakhen lagi khiDki khuli thi. khiDki ki sahayata ke liye do chhoti chenen sazayafta ke sir ke uupar do kilon se latki theen. stov ke paas do vyakti khaDe the—talvar liye ek sipahi aur ek varDar. sazayafta apradhiyon ke saath sadaiv do karmachari tainat rahte hain, jo unhen din raat kabhi bhi akele nahin chhoDte. har teen ghanton mein unka sthaan dusre pahredar le lete hain.
in sabhi par mera dhyaan eksaath nahin gaya tha. mera pura dhyaan qaidi par kendrit tha.
em० pilarD Di vilenyu mere saath hi the. is khamoshi ko toDte kaha tha, ‘‘marakvis’ unhonne meri or ishara karte kaha, “ye sajjan tumhare hit mein tumse milna chahte hain. ’
‘mahoday,’ mainne kaha tha ‘yadi aapko koi shikayat ho to sunne ke liye main upasthit hoon. ’
sazayafta ne sir jhuka ek ajib si muskurahat ke saath kaha, ‘mujhe koi shikayat nahin hai sar, main yahan paryapt suvidhaon ke saath hoon. ye sajjan (apne garDon ki or ishara kar) paryapt dayalu hain aur mujhse batachit karne ko sadaiv tatpar rahte hain. gavarnar bhi mujhe dekhne beech beech mein aate rahte hain. ’
‘tumhen bhojan kis prakar ka milta hai?’ mainne puchha tha.
‘bahut achchha hai sar, mujhe dugna rashan diya jata hai,’
phir kuch pal rukkar kaha tha, ‘dugna rashan hamara adhikar hai, aur haan, mujhe safed breD bhi milti hai. ’
mainne breD ke dukDe par nazar ghumai, wo safed thi.
usne apni baat puri karte hue kaha tha, ‘jel mein breD aisi milti hai jiski mujhe aadat nahin paDi hai’ sentpelaji mein jahan mujhe giraftar kar rakha gaya tha, hum yuvkon ne to ek sosayti hi bana li thi, dusron se alag rahne ke vichar se taki hamein safed breD mil sake. ’
uske uttar ko kuredne ke vichar se mainne parashn kiya tha ‘yahan ki tulna mein kya tum sentpelaji mein behtar mahsus karte the?”
uske kuch kahne ke poorv hi gavarnar ne chadar uthate hue kaha, ‘ji sar, balon se bhare gadde, nahin do gadde aur do kambal. ’
‘aur do takiye bhi,’ marakvis ne joDa tha.
‘aur tumhein neend to achchhi aati hai na. ’ mera parashn tha.
usne kuch hichakte hue kaha, ‘haan ऽ ऽ bahut achchhi. ’ palang par ek phati si pustak khuli rakhi thi.
‘tum paDhte bhi ho?”
‘ji, sar. ’
mainne pustak utha li thi. wo pichhli sadi mein prakashit ‘ebrijment auph jyaugrphi enD histri’ thi. uske shuruati panne aur jild phati hui thi. kanstens jheel ke varnan par pustak khuli hui thi.
‘sar’ gavarnar ne mujhse kaha tha ‘yah pustak mainne hi ise paDhne ko di hai. ’
mainne marakvis ki or muDkar kaha tha, ‘kya ye pustak tumhein pasand aa rahi hai?’
‘yas sar,’ usne turant uttar diya tha, ‘gavarnar sahab ne mujhe ‘vayjes auph la perauj’ aur ‘kaiptan kuk’ bhi paDhne ko di hain. meri ruchi anveshkon ke sahasik abhiyanon mein hai. main inhen pahile bhi paDh chuka hoon, lekin main unhen dobara prasannata ke saath paDhunga aur unhen ek varsh ya das varsh baad phir se paDhunga. ’
usne ye nahin kaha tha ki—main paDh sakta hoon, varan main ‘paDhunga’ kaha tha. wo batuni tha aur use apni avaz sunna pasand tha. hamare mahan anveshak, pathya pustak jaisi hai. ’ wo ek akhbar ki tarah baat kar raha tha. uski kahi baton ka saar ye tha ki usmen svabhavikta ka abhav hai. mrityu ke samne sab kuch vilupt ho jata hai sivaye kritrimta ke. bhalai aur burai lupt ho jati hai, udaar vyakti katu, asabhya vinamr lekin kritrim vyakti kritrim hi rah jata hai.
ye vichitr hi hai ki mrityu ke sparsh ke bavjud wo aapko sahajta aur saralta pradan nahin karti.
wo ek nirdhan lekin ghamanDi karigar tha, kuch anshon mein kalakar jise kamovesh aham ne barbad kar diya tha. apni auqat se bahar nikal aisho aram karne ka vichar uske man mein driDh tha. apne pita ki Desk se usne sau phraank churaye aur dusre din manoranjan aur durvyasnon mein lipt rahne ke baad usne ek laDki ko lutne ke prayas mein uski hatya kar di thi. ye ek bhayanak nasaini hai, jiske bahut se DanDe (payadan) hain, jiska prarambh ghar mein chori se lekar hatya tak, pita ki Daant se hathakaDiyon tak hain. laseneyar aur paulman jaise shatir apradhiyon ko jinhen chaDhne mein bees varsh lage the, lekin is yuvak ne jo kal tak ek samanya sa kishor tha, usne in payadnon ko chaubis ghanton mein paar kar liya tha, jaisa galiyare mein mile ek poorv skool shikshak apradhi ne kaha tha—usne sabhi siDhiyan ek hi chhalang mein paar kar li hain.
kaisa nark hai aisa bhagya!
kuch miniton tak wo pustak ke panne palatta raha tha aur mainne kuch samay baad aage parashn kiya tha, “kya tumhare paas apne jivan yapan ka kabhi koi sadhan nahin raha hai?’
uttar mein usne sir uthakar paryapt garv se kaha, ‘bilkul tha. ’ phir usne vistar se batlana shuru kar diya. use rokne ka mainne koi prayas nahin kiya tha.
‘main farnichar Dizain kiya karta tha. mainne vastukla (arkitekchar) ka adhyayan kiya hai. mujhe marakvis kahkar pukara jata tha. main shishya hoon. ’
usne luvre ke poorv vastuvid em० vaylet le Duk ka naam liya tha. mainne marakvis ke saath hi ‘le Duk’ ka naam liya, lekin usne abhi apni baat puri nahin ki thi.
‘mainne kaibinet nirmataon ke liye ‘jarnal auph Dizain’ ka prakashan shuru kiya tha. mainne paryapt pragti bhi kar li thi. karpet (qalin) nirmataon ko main renesan shaili mein kuch Dizainen dena chahta tha, jo unke vyavsay ke anukul hon, aisi Dizainen jo unke paas kabhi rahi hi nahin aur ve aksar anupyukt shaili mein banane ko badhya hote hain. ’
‘tumhara vichar to bahut achchha tha. tumne use aage kyon nahin baDhaya’
‘meri yojna asaphal ho gai thi sar. ’
usne bahut jaldi se uprokt shabd kahe aur phir aage apni baat shuru kar di, ‘baharhal mera uddeshya usse kamai karne ka tha hi nahin. mere paas pratibha thi, apni Dizainen main bech diya karta tha. unhen apni manchahi qimat par bechne ki sthiti mein antatः main pahunch sakta tha. ’
‘phir kyon’—chahkar bhi main svayan ko kahne se rok nahin saka tha. usne mera mantavya samajh uttar diya tha, ‘sach to ye hai ki main svayan bhi nahin janta. mere man mein vichar aaya to tha. lekin is vishay par charcha is samay to samichin nahin hai, kam se kam is nirnayak din mein. ’
‘nirnayak din’ kah wo kuch pal ruk gaya tha aur phir laparvahi se kaha tha,
‘khed hai ki mere paas yahan meri Dizainen nahin hain, anyatha main aapko unmen se kuch avashya hi dikhlata. mainne kuch lainDaskep bhi pent kiye the. em० le Duk ne mujhe vatar kalar penting karna bhi sikhlaya tha. siseri shaili mein mainne saphalta bhi praapt kar li thi. mainne kuch kaam aise bhi kiye the, jinhen dekh aap siseri ghoshit kar diye hote. mujhe Draing behad pasand hai. sent pelaji mein mainne apne bahut se sathiyon ke portet kreyaun se hi banaye the. unhonne mujhe vatar kalar bhitar le jane ki anumti hi nahin di thi. ’
‘kyon?’ mainne bina kuch soche vichare puchha tha.
uttar dene mein wo kuch hichkicha gaya tha. udhar parashn ke baad main pachhtane laga tha, kyonki meri samajh mein karan achanak hi aa gaya tha.
‘sar’ kah kuch der rukne ke baad kaha tha, ‘karan ye hai ki unka vichar hai ki rangon mein jahar hota hai, jabki ve galat the. ve to vatar kalar the. ’
‘lekin’, gavarnar ne turant hi tok kar kaha tha, ‘sindur’ mein kuch matra mein zahr hota hai?”
‘ho sakta hai, usne uttar diya tha, ‘sach ye hai ki unhonne mujhe anumti nahin di thi aur mujhe kreyaun se hi santusht hona paDa tha. kuch potret achchhi bani theen. ’
‘achchha, tum yahan kya karte ho?’
‘apne aapko vyast rakhta hoon. ’
itna kah wo khamosh rah kuch sochta raha tha aur phir kaha tha, ‘main achchhe rekhankan kar sakta hoon. ’ apni vest kot ki or ishara kar kaha tha, ‘vah mujhe pareshan nahin karti. kitni hi virodhi paristhitiyan kyon na hon vyakti chitr to bana hi sakta hai. ’ usne hathakaDiyon mein band hathon ko hilate kaha aur phir ye log (sipahiyon ki or ishara kar) paryapt sajjan hain. inhonne mujhe banhen moDne ki anumti pahile hi de di hai, lekin main to iske atirikt bhi kuch karta hun—main paDhta hoon. ’
‘tum padari se bhi to milte honge?’
‘ji sar, ve mujhse milne aate hain. ’ itna kah usne gavarnar ki or muDkar kaha, ‘lekin mainne abhi tak ebe mantes ko nahin dekha hai. ’
uske munh se is naam ko sunna mujhe khasa shaitaniyat bhara laga. apni zindagi mein mainne keval ek hi baar ebe mantes ko dekha hai—ve garmiyon ke din the, tabhi mainne use paunt o chenj mein ek gaDi mein lauvel ko phansi chaDhane le jate dekha tha.
baharhal gavarnar ne hi use uttar diya tha ‘aah! wo darasal buDha ho gaya hai. chhayasi varsh ka hone ko aa gaya hai. bechara tabhi aa pata hai, jab uski sehat anumti deti hai. ’
‘chhayasiऽऽ’, mere munh se nikal gaya tha, ‘chunki uski deh shaktihin ho gai hai—isi ki to use lambe samay se avashyakta thi. uski umr mein pahunch vyakti iishvar ke itne nikat pahunch jata hai ki wo aram se pyare sundar shabdon ka uchcharan kar sakta hai. ’
‘usse mil mujhe to prasannata hi hogi’, marakvis ne haDabDate hue kaha tha.
‘are, aas par asman tika hai’, mainne kaha tha.
‘oh’ usne kaha tha, ‘pleez mujhe nirash na karen. abhi to apil adalat ko bheja mera avedan hai aur saath hi mainne ‘en gres’ (dharmacharya) se bhi pararthna ki hai. jo saja mujhe di gai hai, ho sakta hai, use rok diya jaye. mera ye tatparya nahin hai ki jo saza di gai hai wo nyayochit nahin hai, lekin wo kuch adhik kathor avashya hai. unhen kam se kam meri aayu par to dhyaan dena chahiye tha, saath hi mujhe bahya paristhitiyon ka laabh bhi dena tha. aur kam se kam meri aayu par to dhyaan dena chahiye tha. aur phir mainne samrat se bhi kshama yachana ki apil ki hai. mere pita ne, jo mujhse bhent karne aate rahte hain, unhonne is sambandh mein mujhe bahut vishvas dilaya hai. svayan em. le Duk ne samrat ko pitishan di hai em. le Duk mujhse bhalibhanti parichit hain, ve apne shishya marakvis ko jante hain samrat unki baat ko talne ke aadi nahin hain. unke liye mere kshmadan ko nakarna to asambhav hi hai—main jel mukti nahin chahta, lekin—’itna kah wo khamosh ho gaya tha.
‘haanऽऽ’, mainne use ashvast karte kaha tha, ‘himmat rakho, tumhare ek or hain tumhare nyayadhish aur dusri or hain tumhare pita. lekin in donon ke uupar hain tumhare vastavik pita aur nyayadhishon ke bhi nyayadhish svayan prabhu, jo tumhein danD dene ki qatii avashyakta mahsus nahin karte, saath hi ve kshama sagar hain, atah aasha rakhna hi shreyaskar hai. ’
dhanyavad, sar,’ marakvis ne uttar diya tha.
ek baar phir vahan maun pasarkar gahra gaya tha. kuch der baad mainne hi use toDte hue kaha tha, ‘kya tumhein kisi vastu ki avashyakta hai?’
angan mein tahalne ke liye kabhi kabhar jana chahta hoon, bas. abhi mujhe din mein maatr 15 minat ki hi anumti hai. ’
‘yah to paryapt nahin hai, ‘mainne gavarnar se kaha tha’, main samajh gaya aap kya kahna chahte hain. aisa kijiye, yadi do sipahi paryapt na hon to chaar ki vyavastha kar lijiye, lekin is yuvak ko shuddh hava aur suraj ki roshni se vanchit na rakhen. akhir jel ke bichon beech hai angan, har kahin darvaze aur lohe ke sinkche hain, in sabko ghere hain chaar uunchi uunchi divaren. chaubis ghanton ka chaar sipahiyon ka pahra, stet vest kot, pratyek moD par santri, do santri chakkar lagate rahte hain aur saat phut uunche do parkote bhala aapko ashanka kis baat ki hai? ek qaidi ko angan mein chahalkadmi ki anumti to deni hi chahiye—yadi uski ichchha hai to. ’
gavarnar ne sir jhukate hue kaha tha, ‘apka kathan uchit hai sar, main aapke sujhav par amal karunga. ’ is par sazayafta ne gadgad ho baar baar abhar prakat kiya tha.
‘ab mere jane ka samay ho gaya hai,’ mainne usse kaha tha, ‘iishvar par dhyaan lagao aur himmat rakho, bas. ’ ‘rakhunga sar, himmat rakhunga. ’ wo mere saath darvaze tak aaya tha, lekin mere bahar nikalte hi darvaza band ho gaya tha. gavarnar mujhe dahini or ke sel (kothari) mein le gaya tha. pahile ki tulna mein ye kuch baDa tha. usmen maatr ek palang aur bartan rakhe the.
yahin, isi sel mein paulman ko rakha gaya tha. jo chhah saptah usne yahan vyatit kiye the, unmen usne inhin patiyon ke farsh par chal chal kar teen joDi jute ghis Dale the. wo chalna kabhi band hi nahin karta tha. apni kothari mein pratidin pandrah leeg (ek leeg 3 meel) chala karta tha. ye to bhayanak hi tha.
‘yahin par jojaph henri bhi raha hai na?’ mainne gavarnar se puchha tha.
‘ji haan, lekin wo pure samay aspatal mein hi raha tha. wo bimar tha, lekin hamesha patr likhta rahta tha—mohar lagane vale ko, rajyapal pramukh ko, chanslar ko, mahan riphaunDri ko patr chaar chaar prishthon ke patr wo bhi barik hastalipi mein. ek din mainne usse hanste hue kaha tha—‘yah to tumhara saubhagya hai ki tumhein apna likha paDhne ko badhya nahin kiya jata, samjhe. un patron ko kabhi bhi kisi ne nahin paDha tha. wo moorkh tha moorkh. ’
jel se bahar nikalne ke pahile gavarnar ne do ghere ya ghiri hui do galiyon, uunchi divaron, kahin kahin lagi hariyali pratyek tees kadam par bane santri bakson ko ek ek kar ishara kar dikhlaya. iske baad usne sazayaftaon ke selon (kothariyon) ki khiDakiyon ki or ishara kiya tha, jahan ek varsh poorv do santariyon ne svayan ko goli maar li thi. unhonne raiflon se apne sir hi uDa diye the. goliyon ke khol santri baanks mein mile the. divar par lage khoon ke dhabbon ko barsat ne dho diya hai. ek ne isliye goli chala li thi, kyonki uske afisar ne use bina raiphal ke pakaD liya tha, jise wo santri baaks mein chhoD aaya tha. uske paas se guzarte afisar ne kaha tha, ‘pulis hirasat mein pandrah din. ’ dusre ne goli kyon mari, hamein kabhi pata nahin chal saka. ’
स्रोत :
पुस्तक : विश्व की श्रेष्ठ कहानियाँ (खण्ड-2) (पृष्ठ 85)
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।