Font by Mehr Nastaliq Web

तिरिया जनम

tiriya janam

मिथिलेश्वर

अन्य

अन्य

मिथिलेश्वर

तिरिया जनम

मिथिलेश्वर

और अधिकमिथिलेश्वर

    गाँव की रात। प्रथम चरण में ही सन्नाटा। शहर में जहाँ दस बजने से पहले किसी को रात होने का आभास ही नहीं होता, वहीं गाँव में सात-आठ बजते-बजते लोग खा-पीकर सो जाते हैं। अपवादस्वरूप कुछ विद्यार्थी लालटेन जलाकर ज़रूर पढ़ रहे होते हैं। लेकिन उससे रात के सन्नाटे में कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता।

    सुनयना अपने कमरे में अकेली बैठी है। आज पति ने फिर उसे पीटा है। कमर और पीठ पर काफ़ी चोट लगी है। वैसे तो सुनयना काफ़ी समय से अपने पति की मार सहती रही है। लेकिन आज की मार की पीड़ा उसके लिए सबसे गहरी है। उसकी जवानी में ही पति ने दूसरी शादी कर ली है। आज ही तो उसके पति की नई पत्नी आई है। और वह अपने भाग्य पर आठ-आठ आँसू बहा रही है।

    प्रारंभ में सुनयना को लगता था कि दोष उसके पति का है। उसका पति कुविचारी और निर्दयी है। बात-बात पर हाथ चला देता है। फिर उसे लगता कि सास का दोष है। वे ही लगा-बुझा देती हैं। फिर ननद को दोष देती। कभी अपने माँ-बाप को ही दोषी ठहराने लगती कि ऐसे घर में उन लोगों ने उसकी शादी क्यों की? लेकिन काफ़ी समय बीत जाने के बाद अब सारी बातें उसके सामने स्पष्ट हो गई हैं। वह जान गई है दोष किसी और का नहीं, उसके स्वयं का है। उसने नारी जनम पाया है, यही उसका सबसे बड़ा कसूर है। वह देख रही है, दो-चार औरतों को छोड़कर गाँव की शेष सारी औरतों की स्थिति उसी की तरह है। यह बात अलग है कि किसी के साथ समस्या कुछ है तो किसी के साथ कुछ। लेकिन नारी होने का दंड सब अपनी-अपनी तरह से भुगत रही हैं।

    सुनयना को अच्छी तरह याद है, बचपन में लिखने-पढ़ने की उसकी बड़ी इच्छा थी। स्लेट-पेंसिल के लिए वह अपने बड़े भाइयों से झगड़ पड़ती थी। अपने हमउम्र बच्चों के साथ स्कूल जाना उसे बहुत भला लगता था। उसके भाई स्कूल जाने के बहाने घर से निकलते और गली में छिपकर कंची खेलने लगते। लेकिन वह नियमित स्कूल जाती। पेंसिल से स्लेट पर अक्षरों की दुनिया से वह परिचित होती तथा बच्चों की अपनी पुस्तिका में बाघ, भालू, सिंह, बानर, ऊँट आदि की तस्वीरें देखकर आश्चर्यचकित हो जाती। अक्षरों और चित्रों की दुनिया उसे बहुत मनोरम लगती। वह तन्मय हो उस दुनिया का रहस्य जानने के लिए जी-जान से जट जाती। शाम को दालान पर लालटेन के सामने जब बाबा सवाल पूछते तो उसके भाई अपना चेहरा छिपाने लगते। लेकिन वह बाबा के सवालों का जवाब धड़ाधड़ देती। एक से सौ तक गिनती करती। कोई भी पहाड़ा बाबा पछते मुँहज़बानी सुना देती। बच्चों की अपनी पुस्तिका बाबा के सामने ही बाँचकर दिखा देती। यह देखकर टोला-पड़ोस के बाबा से कहते—“बलभदरसिंह... छोकरों से बिटिया तेज़ है...पढ़ने-लिखने में बहुत क़ाबिल निकलेगी...इसे ऊपर तक पढ़ाना...”

    लेकिन अपर प्राइमरी स्कूल पास करने के बाद उसकी पढ़ाई बंद हो गई। गाँव में अपर प्राइमरी स्कूल तक की ही पढ़ाई की व्यवस्था है। मिडिल स्कूल और हाई स्कूल के लिए गाँव से दो मील दूर हसन बाज़ार क़स्बे में जाना पड़ता है। गाँव के लड़के जाते हैं; लेकिन लड़कियों को नहीं जाने दिया जाता। सुनयना ने अपने बाबा से बहुत ज़िद की थी कि भाइयों के साथ वह भी मिडिल स्कूल में पढ़ने जाएगी, लेकिन उसके बाबा ने कहा था—“लड़कियों का अधिक पढ़ना-लिखना ठीक नहीं होता, नौकरी तो उन्हें करनी है नहीं। घर-बार सँभालना है। चिट्ठी-पत्री लिखना बाँचना जान गई हो, बस यह काफ़ी है।”

    माँ-बाप ने भी यही कहा था। सुनयना को अपने घरवालों की इस बात से बहुत तकलीफ़ हुई थी। लेकिन यह देखकर कि गाँव की प्रायः सभी लड़कियों की पढ़ाई बंद कर दी गई थी, सुनयना ने इसे अपनी नियति मानकर स्वीकार कर लिया। उसके बाबा और घरवालों की राय गाँव के लोगों की राय से बिल्कुल मिलती-जुलती थी। अपवादस्वरूप गाँव की एक लड़की क़स्बे में पढ़ने जाती थी। उसके पिता शहर में नौकरी करते थे। लेकिन उस लड़की के बारे में गाँव के लोगों की अच्छी धारणा नहीं थी। लोगों के अनु‌सार वह शहरी थी। पढ़-लिखकर मर्दों के साथ नौकरी करेगी! उसकी कोई इज़्ज़त आबरू नहीं, आदि-आदि।

    सुनयना को आज लगता है कि उसके घरवालों ने पढ़ाई-लिखाई से उसे वंचित कर परकटे पक्षी की तरह एक घर के अंदर फुदकने और छटपटाने के लिए छोड़ दिया है। आज वह पढ़ी-लिखी होती तो उसकी यह दुर्गति कदापि होती। कोई नौकरी पकड़कर इस नारकीय जीवन से वह मुक्ति पा लेती। अपने मामा के गाँव में भुनेसर पांडे की पतोहू को उसने नौकरी करते देखा है। सुनयना ने महसूस किया है कि भुनेसर पांडे की पतोहू की स्थिति उस गाँव की अन्य नारियों से भिन्न है। अन्य नारियों की तरह नारी होने के चलते वह तुच्छ और हेय नहीं। उसके बाप ने उसे पढ़ा-लिखाकर मर्दों की बराबरी में खड़ा कर दिया है। काश, सुनयना के घरवालों ने भी उसे पढ़ाया होता! कितना अच्छा होता अगर उसकी तरह के किसान परिवारों की सभी लड़कियों को लड़कों की ही तरह पढ़ाया-लिखाया जाता। गाँव के लोग कहते हैं कि लड़कियों को तो दूसरों के घर जाना है। पढ़ा-लिखाकर क्या किया जाएगा? यानी सीधे-सीधे अपने फ़ायदे की बात। अपने ख़ून के साथ कितना घृणित बर्ताव!

    सुनयना को लगता है कि इस ग़लाज़त-भरी ज़िंदगी से छुटकारा पाने के लिए उसके सामने अब सिर्फ़ एक ही रास्ता है—मज़दूर औरतों की तरह खेत-खलिहानों में जाकर काम करना। लेकिन फिर उसे लगता है कि उसके मायके और ससुराल दोनों जगह के लोगों को यह बात गवारा नहीं होगी। बड़े घर की बेटी खेतों में काम करे, यह लोग कैसे सह पाएँगे? हत्यारों को पैसे देकर उसे रास्ते से हटवा देंगे। अपनी इज़्ज़त बर्बाद नहीं होने देंगे। हालाँकि सुनयना को अपने परिवार जैसे लोगों (जिनकी संख्या गाँवों में सबसे अधिक है) की बातें विचित्र लगती हैं। ये लोग मुश्किल से अपना गुज़र-बसर चलाते हैं, लेकिन अपने को बड़ा कहने में कितना गर्व महसूस करते हैं। छोटा और ग़रीब कहने पर तो मार-पीट कर बैठते हैं।

    रात गुज़रती जा रही है। सभी लोग अपने-अपने कमरे में सोए हैं। दालान के कमरे में सुनयना के ससुर सुनयना के छोटे देवर के साथ हैं। आँगन के बड़ेवाले कमरे में उसकी सास अपनी अनब्याही बेटी (सुनयना की ननद) के साथ है। और आँगन के कुएँ के बग़ल वाले कमरे में उसका पति सुहागरात मना रहा है—दूसरी सुहागरात। उस कमरे में पहले सुनयना रहती थी। उस कमरे की ज़मीन और दीवार को 'गोर की मिट्टी' और गोबर से लीप-पोतकर लीप- सुनयना ने उसे अन्य कमरों से विशिष्ट बना दिया था। लेकिन उस नई औरत के आने के बाद सुनयना को, उस कमरे से निकालकर इस उपेक्षित कमरे में कर दिया गया है। इस कमरे में घर की फ़ालतू और बेकार चीज़ें रखी जाती थीं। इसी कमरे में एक चारपाई डालकर सुनयना के रहने की व्यवस्था कर दी गई है।

    सुनयना ने आज खाना भी नहीं खाया है। आख़िर वह कैसे खाए? कोई पशु तो वह है नहीं कि दो डंडा लगाकर खाने पर जुटा दिया जाए। दुर्व्यवहार और मार के बाद खाने की इच्छा रहती ही कहाँ है? पिछले दिनों भी वह कई-कई रात बिना खाए ही रह गई है। प्रारंभ में वह पत्र लिखकर अपने बाबा को या बाबूजी को बुलाती थी। फिर अपना सारा दुःख उनसे कहती थी—रो-रोकर अपने ऊपर होनेवाले अत्याचार, अनाचार और ज़्यादतियों की कहानियाँ सुनाया करती थी। लेकिन इससे पहले कि उसके बाबा या बाबूजी उसके सास-ससुर को समझाते वे उल्टे उन्हें निर्देश देना शुरू कर देते थे—अपनी बिटिया को समझा दीजिए...इसने तो आकर हमारा घर बिगाड़ दिया...किसके साथ कैसा व्यवहार किया जाता है इसे आप लोगों ने कुछ नहीं सिखाया है इसका 'आँगछ' भी शुभ नहीं है...इसके आने के बाद हमारे परिवार में सिर्फ़ परेशानियाँ-ही-परेशानियाँ पैदा हो रही हैं...कितनी 'आस' लगाकर हम लोगों ने पतोह उतारा था कि आने के बाद यह करेगी वह करेगी...ऐसे रहेगी! वैसे रहेगी! लेकिन इसने तो सारी आशाओं पर ही पानी फेर दिया...”

    बाबा और बाबूजी ने एक-दो बार साहस करके सुनयना के सास और ससुर को उसके प्रति सहानुभूतिपूर्वक व्यवहार करने के लिए कहा था कि “सुनयना अभी बच्ची है...धीरे-धीरे सब सीख जाएगी...इसे आप लोग अपनी बेटी ही समझें...” लेकिन उसकी उल्टी प्रतिक्रिया हुई थी। सुनयना के सास-ससुर ने उसके बाबा-बाबूजी को ख़ूब खरी-खोटी सुनाई थी। उसके बाद तो उसके बाबा-बाबूजी ने उसे ही समझाना शुरू कर दिया था—“अब यही तुम्हारा घर है, बेटी! पति के मन में रहो। सास-ससुर की सेवा करो। हम लोगों ने तुम्हारी शादी कर दी। तुम्हारी क़िस्मत में सुख लिखा होगा तो सुख मिलेगा और दुःख लिखा होगा तो दुःख। इसे अब कौन दूर कर सकता है?”

    लेकिन बराबर सोचती है सुनयना, क्या बाबूजी, बाबा का दायित्व यहीं समाप्त हो जाता है? अगर भैया लोगों के साथ यह स्थिति होती तो क्या बाबा-बाबूजी इस तरह महटिया जाते? फिर उसे लगता है कि सिर्फ़ बाबा-बाबूजी ही क्यों, सारे गाँव की तो यही कहानी है। लड़का-लड़की दो होते हैं। लड़कों की तुलना में लड़कियों पर विचार करना मूर्खता है। लड़कियाँ पराई चीज़ होती हैं। शादी करके उन्हें उनके घर भेज दो। उनकी तक़दीर में होगा तो सुख करेंगी, नहीं तो दुख। इसमें दूसरे का क्या दोष?

    सुनयना को याद है, उसके बाबा कहा करते थे कि शास्त्र में लिखा है—पुत्री के जन्म होने पर धरती एक बित्ता नीचे धँस जाती है और पुत्र के जन्म के अवसर पर एक बित्ता ऊपर उठ आती है।

    गाँवों में महिलाओं द्वारा गाया जानेवाला यह लोकगीत सुनयना को अभी तक याद है:

    'जाहू हम जनिती धियवा कोंखी रे जनमिहे।

    पिहितों में मरिच झराई रे।

    मरिच के झाके-झुके धियवा मरि जाइति,

    छुटि जाइते गरुवा संताप रे।'

    सुनयना को लगता है कि उसका सबसे बड़ा कसूर यही है कि अपने मायके और ससुराल की अन्य महिलाओं की तरह नारी की हीन और विवश स्थिति को वह सहज रूप से स्वीकार नहीं कर पाती है। हालाँकि उसने कई बार यह सोचा है कि सबकुछ सह-सुनकर उसे भी आम औरतों की तरह आचरण अपना लेना चाहिए। लेकिन यह उसके वश से बाहर की बात हो जाती है। उसके मन के अंदर किसी कोने से विद्रोह की आग सुलगने लगती है। लेकिन अनुकूल परिस्थिति पाकर वह आग स्वयं उसी को जलाती रहती है।

    सभी लोग गाढ़ी नींद सो गए हैं। लेकिन सुनयना की आँखों में नींद कहाँ? उसकी आँखों के सामने तो अपनी गुज़री ज़िंदगी के दृश्य एक-एक कर आते जा रहे हैं। बचपन बीतने के बाद माँ ने सुनयना को रसोई बनाना, कपड़े सीना, धान कूटना आदि सिखाना शुरू कर दिया था। सुनयना की शादी जहाँ हो, वहाँ से कोई शिकायत आए, इसके लिए माँ गृह कार्य में उसे पूरी तरह निपुण बनाने में लगी थी। रसोई बनाते हुए अगर कोई चीज़ जल जाती या किसी का स्वाद अच्छा नहीं आता तो माँ कहती—“जहाँ जाओगी वहाँ के लोग क्या कहेंगे? कहेंगे कि इसकी माँ ने इसे खाना बनाना भी नहीं सिखाया है...”

    कपड़े सीते वक़्त अगर सुनयना के हाथ में सुई चुभ जाती तो वह तुनककर फेंक देती। लेकिन माँ उसे समझाती—“अगर सास का लहँगा फट जाएगा तो फिर कैसे सियोगी? सभी कहेंगे कि इसे कपड़े सीना भी नहीं आता...

    धान कुटते हुए वह ऊब जाती और थक जाती। ढेकी से उतरकर अलग हट जाती। तब माँ उसे फिर समझाती—“गृहस्थ (किसान) के यहाँ जन्मी हो तो किसी गृहस्थ के यहाँ ही जाओगी। धान-पान का काम तो करना ही होगा। इससे छुटकारा कहाँ?”

    सुनयना समझ नहीं पाती कि जहाँ उसे जाना है वहाँ एक कुशल नौकर के रूप में ही वह क्यों जाएगी? उसे यह करना है, वह करना है। क्या शादी इसी के लिए होती है? लेकिन यह देखकर अंदर-ही-अंदर इस यथार्थ से वह समझौता कर लेती कि गाँव की सभी लड़कियों को उनकी माताएँ यही शिक्षा दे रही हैं। वह एक अकेली तो नहीं जिसके साथ यह घटना घट रही है।

    जैसे-जैसे सुनयना की उम्र बढ़ती गई थी वैसे-वैसे लड़के-लड़कियों के बीच भेदभाव की बातें उसे समझ आने लगी थीं बचपन में वह भाइयों की बराबरी करने के लिए लड़ने-झगडने लगती थी। लेकिन बड़ी होने के बाद वह समझ गई कि लड़के आकाश कुसुम होते हैं और लड़कियों पाँव की धूल।

    सुनयना देख रही थी कि लड़कियों के बीमार होने पर उतनी तत्परता नहीं बरती जाती थी, जबकि लड़कों के बीमार होने पर भाग-दौड़ शुरू हो जाती थी। लोगों की यह धारणा है कि लड़कियाँ कठजीवी होती हैं। जल्दी मरती नहीं। एक कहावत है।

    अनब्याही बेटी मरै, सारे दुख छुटि जाय।

    सुनयना के भाई स्कूल की पढ़ाई समाप्त कर कॉलेज जाने लगे थे। उनकी दुनिया विस्तृत होती जा रही थी। लेकिन सुनयना को सीमाओं में बाँधा जा रहा था। जैसे-जैसे सुनयना के शरीर के उभार परिलक्षित होते जा रहे थे, उसके चारों तरफ़ वर्जनाओं की दीवार खड़ी की जाने लगी थी, कि अब गाँव में उसे कम निकलना है, कि अब अपने शरीर को तोप-ढाँककर रखना है, कि गाँव के मर्दों के सामने अब बेझिझक होकर नहीं जाना है, आदि।

    खाने-पीने, ओढ़ने-पहनने, रहने-सहने और सुख-सुविधाओं के तमाम मामलों में सुनयना और उसके भाइयों के बीच काफ़ी फ़र्क़ पैदा कर दिया गया था। सुनयना के भाइयों के बदन पर नए कपड़े होते थे। पाँव में पॉलिश किए हुए जूते। बाल में ख़ुशबूदार तेल। उन्हें देखकर बाबा और बाबूजी का सीना गर्व से फूल जाता था। तिलक दहेज के लिए मोल-भाव शुरू हो गए थे। बाबा ने खूँटी गाड़ दिया था (प्रतिबद्ध होकर ऐलान करना) कि बड़े लड़के का पंद्रह हज़ार तिलक लूँगा और छोटे लड़के का बारह हज़ार। दोनों में से किसी के लिए भी एक पैसा कम नहीं होगा।

    सुनयना देख रही थी, जिस तरह जानवरों (गाय, बैल, भैंस आदि) को धो-पोंछकर, सींग में घी घसकर, गले में घंटी बाँधकर मेले में ऊँची राशि हथियाने के लिए मोल-भाव किया जाता है, उसी तरह सुनयना के बाबा और बाबूजी उसके भाइयों को सजा-सँवारकर मोल-भाव कर रहे थे। लेकिन सुनयना की स्थिति इसके बिल्कुल विपरीत थी। उसके लिए तो कोई लड़का ख़रीदना था। इसीलिए भाइयों की तुलना में उस पर विचार करने का सवाल ही नहीं उठता था। एक तरफ़ फ़ायदा जुड़ा था, दूसरी तरफ़ घाटा।

    सुनयना के लिए वर की तलाश शुरू हो गई थी। सुनयना की तीव्र बुद्धि और भिन्न स्वभाव को देखकर मामा उसकी शादी शहर के किसी पढ़े-लिखे परिवार में करना चाहते थे। लेकिन बाबा और बाबूजी अपने जैसे गृहस्थ (किसान) परिवार के पक्ष में थे। मामा ने शहर में दो-तीन जगह बात चलाई थी। मामा सुनयना को पूरा स्नेह देते थे। वे चाहते थे कि सुनयना की शादी किसी वैसे परिवार में हो जाए, जहाँ लिखने-पढ़ने की उसकी लालसा पूरी हो सके। लेकिन शहरी लोगों ने पढ़ी-लिखी लड़की की माँग की थी। सुनयना की प्राइमरी स्कूल तक की पढ़ाई उनके लिए पर्याप्त नहीं थी। बात ख़ारिज हो गई। अंततः बात एक गृहस्थ परिवार के साथ जाकर जुड़ी। बाबा और बाबूजी की राय ही सही साबित हई। अपने जैसे ही एक परिवार में आठ हज़ार नक़द पर सुनयना की शादी तय हो गई। सुनयना से कुछ नहीं पूछा गया। उससे क्या पूछा जाए? उसके जैसी गाँव की लड़कियाँ तो खूँटे की गाय हैं। एक जगह से खोलकर दूसरी जगह बाँध दो।

    शादी से पहले माँ ने सुनयना को कुछ ख़ास उपदेश अनेक बार दिए कि पति की बात मान लेना, कि उनके मन में रहना, कि वे मार भी दें तो सह जाना। सास-ससुर को देवता समझना। उनकी सेवा करना। घर से बाहर निकलना। माथे पर घूँघट बराबर रखना। उसी घर को अपना समझना। सुबह के एकदम तड़के उठ जाना। समय पर सबको खाना-नाश्ता देना। सबकी बातों का ख़याल रखना। रात को सबसे आख़िर में सोना और हाँ, सोने मे पहले सास के पाँव में तेल ज़रूर लगाना, आदि।

    शादी होने तक सुनयना यह समझ गई कि उसकी जैसी लड़कियों का जन्म किसलिए हुआ है? गाँव में सुनयना ने देखा था कि पुत्र-जन्म के अवसर पर सोहर गाए जाते हैं, लेकिन पुत्री-जन्म पर कुछ नहीं गाए जाते। उसने अपनी माँ से रहस्य जानने की जिज्ञासा प्रकट की थी। तब उसकी माँ ने बताया था कि पुत्र-जन्म शुभ माना जाता है, पुत्री-जन्म अशुभ। जिस औरत को सिर्फ़ लड़कियाँ ही होती हैं, उसे अभागिन समझा जाता है। सोहर मंगल-गीत है। शुभ के अवसर पर ही गाया जाता है।

    अपनी चारपाई पर पड़ी-पड़ी सुनयना सोच रही है—यह शुभ, अशुभ का निर्धारण किसने किया है? होश सँभालने के बाद से अब तक सुनयना इस सवाल पर अनेक बार सोच चुकी है। अब तक इस सवाल का उत्तर अगर किसी ने उसे दिया है तो मामा ने। उसके मामा विचित्र जीव हैं। गाँव में रहकर भी अपने गाँव के लोगों से बिल्कुल पृथक्। शहर की नौकरी से रिटायर होकर अपनी शेष ज़िंदगी गाँव में गुज़ार रहे हैं। सुनयना के जानते उसके मामा अपने गाँव के पहले व्यक्ति है, जो अपनी पत्नी को बराबरी का दर्जा देते हैं। उनका दांपत्य जीवन देखकर सुनयना दंग रह गयी है। दोनों पति-पत्नी के बीच इतना प्रेम...इतनी ख़ुशी...! लेकिन गाँव में उनकी इस नीति की बड़ी आलोचना है। लोग कहते हैं—“मेहर को माथे पर चढ़ा लिया है...मउगड़ा है...औरत तो मर्द के पाँव की जूती होती है...उसे बराबरी का दर्जा क्या देना...अगर नाक नहीं होती तो औरतें मैला खातीं...धर्मशास्त्र से लेकर रामायण तक में औरत का दर्जा मर्द के नीचे ही दिया गया है...”

    लेकिन मामा बताते हैं, यह मर्दों की चाल है। पुरुष ने औरतों पर शासन चलाने के लिए अपने पक्ष में धर्मशास्त्र की रचना की है, अन्यथा औरतें मर्दों से किसी मायने में कम नहीं, उदाहरण के रूप में मामा बताते हैं कि शहरों में जहाँ औरतों को मर्दों की तुलना में आगे बढ़ने का मौक़ा मिला है, उन्होंने हर क्षेत्र में मर्दों की बराबरी की और उनसे भी आगे बढ़-चढ़कर दिखाया है। कल-कारख़ानों में काम करने, स्कूल-कॉलेजों में पढ़ाने, राजनीतिक नेता बनकर देश पर शासन चलाने आदि में पुरुषों के मुक़ाबले औरतों ने अपनी योग्यता और क्षमता का भरपूर परिचय दिया है। लेकिन उनकी संख्या नहीं के बराबर ही है। क्योंकि यह देश शहरों का नहीं, गाँवों का है। शहर की मुट्ठी-भर औरतों को औरत बनकर मानव बनकर जीने का अवसर प्राप्त हो गया है, लेकिन गाँव की औरतों (मध्यमवर्गीय किसान परिवार की औरतों) को तो इस परिवर्तित यथार्थ की जानकारी तक नहीं। वे तो यह सुनकर दंग रह जाती हैं कि औरतें भी पढ़-लिखकर मर्दों की तरह शासन चलाती हैं...

    अपने मामा के साथ दशहरा घूमने के लिए शहर जाने का अवसर सुनयना को सिर्फ़ एक बार मिला है। शहर में जाकर सुनयना की आँखें खुली-की-खुली रह गई थीं। पहली बार उसने देखा था कि शहर की औरतें मर्दों के साथ सड़कों पर चल रही हैं—एकदम बेझिझक। खुलकर हँस-बोल रही हैं। तनिक लाज और संकोच नहीं। माथे पर घूँघट भी नहीं। दुकानों पर ख़रीद-फ़रोख़्त कर रही हैं। रिक्शे में जा रही हैं। औरत होने के चलते तनिक भी घबराहट नहीं। उनका पहनावा भी एक तरह का होकर विभिन्न तरह का था। कहीं-कहीं तो औरत और मर्द के बीच फ़र्क़ भी मालूम नहीं पड़ता। लेकिन दशहरे की भीड़ में गाँव की औरतें अलग से ही पहचान में रही थीं—सहमी, सकची, लजाई, मदों के सामने भीगी बिल्ली बनी हुई। इसके अतिरिक्त शहर में कल-कारख़ाने, रेलगाड़ी, मोटर-कार, जीप, स्कूटर, विकास की ओर भागती दुनिया। मामा उसे एक-एक चीज़ के बारे में बताते और विज्ञान के मानव से परिचित कराते। टेलीफ़ोन टेलीविज़न, हवाई जहाज़...उस दिन सुनयना के पर में सबकुछ जानने-समझने और विकसित दनिया के साथ आगे बढ़ने की कितनी प्रचल इच्छा जाग उठी थी। लेकिन उस जैसी नारी के नसीब में यह सब कहाँ संभव? उसकी दुनिया तो रसोईघर, धान की ठेकी, पति की मार, सास की गाली इसी के बीच क़ैद है। बाहर क्या हो रहा है उस जैसी नारी को क्या पता? अपनी अब तक की ज़िंदगी में तो वह मायके से लेकर ससुराल तक एक ही धुरी पर चक्कर काट रही है।

    ससुराल में एक बार ज़्यादतियों से तंग आकर सुनयना ने अपने मामा को बुलाया था। शायद मामा आकर कोई रास्ता निकाल दें। लेकिन कुछ नहीं हुआ। उसका पत्र पाकर मामा आए थे। उन्होंने उसके पति और सास-ससुर को समझाने की पूरी कोशिश की। लेकिन उन्होंने मामा की एक सुनी। उल्टे गाली-बात देकर मामा को घर से निकाल दिया। कहा—“फिर दुबारा हमारे दरवाज़े मत आना हमारी पतोहू है हम उसके साथ चाहे जैसा व्यवहार करें तुम बोलने वाले कौन होते हो?”

    सुनयना ने मामा का अपमान सहा नहीं गया। वह बोल पड़ी—“शादी का अर्थ बेचना नहीं होता...मैं मनुष्य हूँ, कोई वस्तु नहीं कि जो जैसे चाहे इस्तेमाल करे...”

    लेकिन इस विरोध के उत्तर में उसके ऊपर डंडों की मार पड़ी। उसे चुप करा दिया गया। उसके मामा उसके माँ-बाप से जाकर मिले और सुनयना को ससुराल से बुलाकर मायके में रखने के लिए कहा। लेकिन सुनयना के बाबा और बाबूजी मामा पर बिगड़ पड़े—“जवान बेटी को घर में रखने के लिए ही शादी नहीं किया है गाँव-घर हँसने लगेगा। लड़ाई-झगड़ा किसके परिवार में नहीं होता...धीरे-धीरे सब ठीक हो जाएगा...उसे वहीं रचने-बसने दिया जाए…”

    सुनयना को अच्छी तरह याद है, दुलहन बनकर जब वह इस घर में आई थी तो उसके रूप और जवानी के प्रभाव में आकर पति ने प्रारंभ में उसकी आवभगत शुरू की थी। लेकिन वह देख रही थी, पहले से बने एक पिंजड़े में उसे धीरे-धीरे फिट किया जा रहा है। सास-ससुर, ननद, देवर सबको उससे अपेक्षाएँ थीं। अमुक के लिए उसे यह करना है। अमुक के लिए उसे वह करना है। लेकिन उसके लिए किसी को कोई ख़ास चिंता नहीं। वह क्या चाहती है, किसी ने जानने की कभी कोशिश नहीं की। किसी घर की बहू उस घर के बँधे हुए विचारों से अलग स्वतंत्र विचार रख सकती है, यह तो कोई सोच भी नहीं सकता है।

    सुनयना का पति बेहिसाब खैनी खाता है और बीड़ी पीता है। बीड़ी पीने की वजह से ही उसके मुँह से बराबर दुर्गंध आती रहती है। अपने ससुराल के प्रांभिक दिनों में एक दिन सुनयना ने पति को बड़े प्रेम से समझाया था—“खैनी और बीड़ी गंदी चीज़ें हैं। इन्हें छोड़ दीजिए। मेरे मामा कहते हैं, इनसे विभिन्न प्रकार की बीमारियाँ पैदा होती हैं। बीड़ी पीने की वजह से ही आपके मुँह से बदबू आती रहती है।”

    लेकिन यह क्या? सुनयना की बात की बहुत तीखी प्रतिक्रिया उसके पति के ऊपर हुई थी। वह ग़ुस्से में बोला था—“मेरे मुँह से बदबू आती है और तुम्हारे मुँह से चंदन की बास! औरत तो नरक होती है, नरक!”

    सुनयना ने पति को समझाने और शांत करने की बहुत कोशिश की, लेकिन उसका ग़ुस्सा जो भड़का तो फिर भड़कता ही चला गया। अभी तक गाँव में खैनी-बीड़ी को किसी ने भी दुर्गुन नहीं कहा था। खेत, खलिहान, मड़ई, बग़ीचा, बैठकें, हर जगह अपने जैसे लोगों के बीच खैनी-बीड़ी का मुक्त प्रयोग होते उसने देखा था। घर में भी माँ-बाप ने कभी इस पर रोक नहीं लगाई थी। लेकिन...!

    बात बढ़ते-बढ़ते सारे घर में फैल गई। सभी लोग जान गए। फिर तो सास और ननद ने सुनयना को ख़ूब धिक्कारा—“छिः-छः! कैसी औरत है...मर्द का मुँह सूँघती है...इसका लक्षण ठीक नहीं...भला औरतें मर्द का मुँह सूँघती हैं...यह तो रंडियों का लक्षण है गाँव में किसका मर्द खैनी-बीड़ी नहीं खाता-पीता?”

    लेकिन सुनयना ने सबकी बात को सुनकर भी अनसुनी कर दिया। उसने तो अपने मामा के दांपत्य जीवन को आदर्श बनाया था। सोचा, प्रेम से दुबारा फिर समझायेगी। शायद बार-बार समझाने से पति उसकी बात मान जाएँ। लेकिन उसके पति तो पहले से ही ख़फ़ा थे। सुनयना के मुँह से दुबारा बदबू और दुर्गंध की बात सुनते ही वे उसे मार बैठे। और फिर जब एक बार हाथ खुल गया तो बराबर खुलता ही चला गया। तब से आज तक सुनयना अनेक बार पीटी जा चुकी है।

    मायके में तो सुनयना कभी-कभार गाँव में भी निकल जाती थी। टोला-पड़ोस के घरों में घूम आती थी। लेकिन ससुराल में आकर तो एक घर के अंदर उसे क़ैद हो जाना पड़ा है। उसके ऊपर सख़्त नियंत्रण है कि घर के अंदर यह सारा काम करे। लेकिन बाहर झाँकने की कोशिश करें। कमरे की खिड़की भी कभी खोले। लोगों की यह धारणा कि जिसकी बहू जितने लंबे समय तक बहरिया बनकर घर के अंदर छिपी रह सकेगी, वह उतनी ही अधिक इज़्ज़तवाली समझी जाएगी। लोगों की नज़र में उसके घर की प्रतिष्ठा भी वढ़ेगी कि इतने दिनों बाद भी अमुक की घरवाली का कोई पाँव भी नहीं देख सका। लेकिन खुले विचारों वाली सुनयना के लिए यह बंधन असह्य है। घर से बाहर की दुनिया को देखने-समझने के लिए उसका मन छटपटा उठता है। एक दिन जब उससे रहा नहीं गया तो कमरे की खिड़की खोलकर गली में खेलते बच्चों को देखने लगी। लेकिन उसकी ननद ने यह देख लिया। उसने जाकर सास में कहा। सास ने पति से। फिर उसके ऊपर मार पड़ी—“कुल्टा है...बदचलन है... किसी से फँसी है...खिड़की खोलकर उसी को बुला रही है...” आदि-आदि।

    सुनयना के ऊपर जब मार पड़ती तो उसे अजीब महसूस होता। पति कभी हाथों से, कभी जूते से, कभी डंडे से मारने लगता। मारने से पहले तनिक भी सोच-विचार नहीं करता कि जिस पत्नी के साथ वह हर रात सोता है, उसी को निर्दयता से क्यों पीटता है? जो उसकी धर्मपत्नी है, जीवन संगिनी है, उसके साथ प्रेम से विचार-विमर्श कर किसी भी समस्या को सुलझा लेता। लेकिन उसके पति की व्याख्या यह है कि ‘औरतें लतियानेवाली जाति होती है, बतियानेवाली नहीं।’

    जिस किसी दिन भी सुनयना को मार पड़ती है, उसे दो-तीन दिनों तक खाने-पीने की इच्छा नहीं करती। भूख मर जाती है। इतनी ज़्यादती! इतना शोषण!! इतना अत्याचार!!! लेकिन मार के बाद उसे रोने-कलपने के लिए, भी इत्मीनान से छोड़ नहीं दिया जाता है। सास उसके पास आकर समझाती हैं—“पति की मार पर 'इरखा' नहीं करनी चाहिए। पति की मार तो ‘सुहाग-भाग’ होता है। गाँव में कौन मर्द अपनी पत्नी को नहीं पीटता? लेकिन सभी तुम्हारी तरह खाना-पीना और काम-धाम छोड़कर तो नहीं बैठ जातीं...जो मारता है, वही दुलारता है...”

    सुनयना को भी अपने मायके की कुछ बहुओं की याद आती। उसने देखा था, मर्द निर्दयता से उन्हें पीटते थे। लेकिन मर्द द्वारा पीटे जाने के कुछ ही देर बाद वे मर्द के पाँव में जाकर तेल मलने लगती थीं। पिटे जाने के प्रति कोई रोष नहीं। कोई विद्रोह नहीं। सुनयना सोचती है कि कितना अच्छा होता अगर उसका मन भी उन बहुओं की तरह नपुंसक समझौता करना सीख लेता। लेकिन चाहकर भी वह अपने मन को इस मुद्दे पर राज़ी नहीं कर पाती ज़ोर-ज़बरदस्ती के माध्यम से उसके तन पर लोग अधिकार जमा लेते हैं। लेकिन उसका मन सड़े-गले इन दक़ियानूसी विचारों और घृणित परंपराओं के ख़िलाफ़ निरंतर सुलगता रहता है।

    मार खाने के बाद भी सुनयना को बैठकर रोने नहीं दिया जाता है। उसकी सास उसे ज़बरन काम में जुटा देती है। अपनी सास के बारे में जब सुनयना यह सोचती है कि एक नारी होकर एक नारी पर वह इतना ज़ुल्म क्यों दाती है, तब उसे अपने मामा की एक बात याद आती है। उसके मामा कहते थे कि जिसके साथ जिस तरह का शोषण किया जाता है, अधिकार पाने पर वह आदमी उसी तरह का शोषण शुरू कर देता है। सुनयना को लगता है कि प्रारंभ में उसकी सास को ज़रूर उसी के संदर्भ से गुज़रना पड़ा होगा, तभी वह उसके साथ इतनी निर्वयता बरतती है।

    मार-गाली, तिरस्कार-अपमान सब कुछ सहकर भी सुनयना ने प्रारंभ में यह चाहा था कि पति को समझा-बुझाकर अनुकूल स्थिति बना ले। जब वह इन स्थितियों में घिर गई है, इनसे छुटकारा नहीं, तब इनके बीच जीने लायक़ एक रास्ता निकाल लेना ही बेहतर है। यही सोचकर बहुत अनुनय-विनय के साथ वह पति को मामा के दांपत्य जीवन के बारे में बताने लगी थी। लेकिन बात आगे बढ़ते-बढ़ते बराबर उनके अपने दांपत्य जीवन पर जाती। फिर पति-पत्नी के समान अधिकार पर। लेकिन समता की बात आते ही उसका पति आग-बबूला हो उठता। इसके बाद कुछ भी सुनने को वह तैयार नहीं होता। बकने लगता—“पति-पत्नी के अधिकारों की समता कैसी? तुम्हारे सिवा तो इस गाँव में किसी और के मुँह से हमने ये बात सुनी ही नहीं...यह तो बिगड़ियों का लक्षण है...औरत बराबर मर्द के नीचे रही है, नीचे रहेगी...एक मर्द अनेक औरतों को रख सकता है, लेकिन एक औरत अनेक मर्दों को नहीं रख सकती...किसी मर्द के संपर्क से औरत अपवित्र हो जाती है, लेकिन मर्द में दोष नहीं लगता...पुरानों में सती प्रथा के बारे में लिखा है...मर्द के मर जाने के बाद औरतें सती होती थीं...लेकिन किसी औरत के मर जाने के बाद कोई मर्द आज तक तो सती नहीं हुआ है...यह सब फ़ालतू बातें बतियाकर मेरा दिमाग़ मत ख़राब करो...तुम्हें खाना, कपड़ा मिल रहा है न? बस, औरत को और क्या चाहिए?”

    लेकिन एक दिन सुनयना के मुँह से जवाब निकल गया—“औरत कोई जानवर तो नहीं होती कि उसे खाना कपड़ा दे देने से ही काम समाप्त हो गया...?”

    सुनयना की बात तीर की तरह उसके पति को जा चुभी। कड़वा यथार्थ चुभता ही है। एक क्षण के लिए वह निरुत्तर हो गया। फिर सुनयना को उसने दोनों हाथों से पीटना शुरू कर दिया—“साली, ज़बान लड़ाती है...एक भी बात ज़मीन पर नहीं गिरने देती...तड़ाक से जवाब दे देती है...बोल, कि अब से जवाब नहीं देगी? जो कहूँगा, उसे मानेगी? भला बिना पीटे औरत जात रास्ते पर आती है...” और उसका पति तब तक उसे पीटता रहा था जब तक उसने यह क़बूल नहीं कर लिया कि वह अब दुबारा ज़बान नहीं लड़ाएगी। इसके बार तो पति को समझाने और जीने के लिए कोई रास्ता निकालने की बात ही ख़त्म हो गई। पति को पत्नी समझा नहीं सकती है। पति की तुलना में उसका स्थान बहुत नीचे है। पति सही कहे या ग़लत, पत्नी को तड़ाक से जवाब नहीं देना है, ज़बान लड़ाना हो जाएगा। पति की बात मानना ही पत्नी का धर्म है। बराबरी की बात सोचना तो कुकर्म है। पति ही सबकुछ है। पति परमेश्वर है...

    रात के तीन पहर गुज़र जाते हैं। अतीत के चुभते न‌कीले कोने सुनयना को सालते रहते हैं। करवट बदलती है सुनयना। बदन पर पड़े डंडों का दर्द ताज़ा हो जाता है। जिस तरह की घुटन-भरी ज़िंदगी जी रही थी सुनयना, वह ज़िंदगी तो अपने-आपमें कष्टदायक थी ही। लेकिन शादी के दस साल बीत जाने के बाद अचानक अपमान, तिरस्कार, उपेक्षा और प्रताड़ना की एक और भयावह पीड़ादायक दुनिया के बीच वह घिरी। पति के साथ रहते सुनयना को दस साल बीत गए थे, लेकिन कोई बच्चा नहीं हुआ था। घर-परिवार और गाँव के लिए यह मामूली बात नहीं थी। बच्चा अब होगा...अब होगा...यह देखते हुए एक दशक गुज़र गया। उसके बाद फिर किसी को आशा नहीं रही। दस वर्ष कम नहीं होते। सास ने ऐलान कर दिया...“बाँझ है...बहिला है...इसे बच्चा नहीं होगा यह हमारे पूरे ख़ानदान को चौपट करने आई है...अब इस पर आस लगाना ठीक नहीं...अब बेटे की दूसरी शादी करनी होगी...”

    और सुनयना के पति की दूसरी शादी की बात ज़ोर पकड़ने लगी थी। घर का पूरा माहौल बदल गया था। अब सुनयना का पति रात में उसके पास सोने भी नहीं आता था। दालान की कोठरी में ही सो जाता था। हालाँकि उसके आने और आने के बीच सुनयना के लिए कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा था। रात में सुनयना के साथ सोकर ही वह सुनयना को कौन-सा सुख दे देता था?

    गाँव-जवार, परिचित-मित्र और रिश्ते-नातों में सुनयना के पति की दूसरी शादी की बात चलने लगी थी। यह सूचना सुनयना के मायके वालों को भी मिली थी। एक क्षण के लिए उन्हें तकलीफ़ ज़रूर हुई थी लेकिन गाँव-घर द्वारा यह कहे जाने के बाद कि दस साल तक जब बच्चा नहीं हुआ तब तो आदमी दूसरी शादी करेगा ही वे महटिया गए। गाँव में आए दिन वंश चलाने के लिए दूसरी शादियाँ होती ही है। यह कोई नई बात तो थी नहीं। लेकिन पत्र लिखकर मामा ने सुझाव दिया कि किसी अच्छे डॉक्टर से दिखा लेना ठीक होगा। पत्र में मामा ने तीन-चार वैसे पति-पत्नियों का उदाहरण दिया था जिन्हें प्रारंभ में बच्चे नहीं हो रहे थे। लेकिन डॉक्टरी इलाज के बाद बच्चे हुए थे।

    मामा की बात मानने के लिए सास तैयार नहीं थीं। पति को भी मामा की बात पसंद नहीं। सुनयना मामा की बात को अच्छी तरह समझती थी। लेकिन उसकी बात का तो घर में कोई महत्व ही नहीं था। पता नहीं, उसके ससुर के दिमाग़ में मामा की बात कैसे घर कर गई थी? फिर उन्होंने समझा-बुझाकर सुनयना के पति को राज़ी कर दिया। सुनयना के ससुर के कहने के चलते ही सुनयना का पति उसे लेकर डॉक्टर के पास गया, अन्यथा डॉक्टर के पास जाने की उसकी अपनी इच्छा क़तई नहीं। उस जैसे लोगों की धारणा तो यह है कि अगर डॉक्टर ही बच्चा दे देगा तब फिर ईश्वर किस चिड़िया का नाम है... अरे ‘डॉक्टरी-वॉक्टरी’ सब कमाने का धँधा है...होता वही है जो ईश्वर चाहता है। ईश्वर ने जिस औरत को बाँझ बना दिया, डॉक्टर की क्या मज़ाल कि उसे पुत्रवती बना दे... सुनयना के ससुर की मानसिकता भी अपने बेटे और पत्नी की तरह की ही मानसिकता थी। लेकिन इस बार जाने कैसे मामा की बात पर अमल करने के लिए उन्होंने आदेश दे दिया था। शायद सुनयना की स्थिति पर तरस खाकर। घर में वही तो एक थे जो कभी-कभी सुनयना पर द्रवित हो जाते थे।

    डॉक्टर से जाँच कराने के बाद एक बिल्कुल नई स्थिति सामने गई थी, जिसकी किसी ने कल्पना भी नहीं की थी। डॉक्टर के अनुसार सुनयना ठीक थी। उसमें कोई कमी नहीं। सुनयना के पति के वीर्य में ही दोष साबित हुआ। वह बच्चा पैदा करने में अक्षम पाया गया।

    एकाएक सुनयना के पति को तो जैसे काठ मार गया। डॉक्टर के सामने उसकी बोलती ही बंद हो गई। लेकिन घर आने पर उसने सुनयना को ख़ूब लताड़ा—“साली ने डॉक्टर के पास ले जाकर बेइज़्ज़त किया साला डॉक्टर क्या कहेगा? भला मर्द में दोष होता है बाँझ तो औरतें होती हैं...”

    सास और ननद ने भी डॉक्टर की बात को कोई महत्व नहीं दिया, बल्कि डॉक्टर के पास ले जाने के लिए सुनयना को ही खरी-खोटी सुनाई। टोला-पड़ोस और गाँव के अधिकांश लोगों ने भी डॉक्टर की बात मिथ्या बता दूसरी शादी करने की सलाह दी। इसके बाद दो-तीन दिनों के लिए गितई दूसरी शादी की चर्चा फिर चल निकली।

    सुनयना को अजीब लगता। पति बच्चा पैदा करने में अक्षम है फिर भी दूसरी पत्नी उतारने की तैयारी में लगा है। औरतें कितनी सस्ती हो गई है। यह कैसा ग्रामीण समाज है जहाँ पुरुषों के दोष पर विचार ही नहीं किया जाता। सुनयना को लग रहा था कि डॉक्टर द्वारा उसके पति को अक्षम मावित किए जाने के बाद शायद कोई लड़की वाला अपनी बेटी उसके साथ ब्याहे। लेकिन सुनयना की सोचावट ग़लत साबित हुई। डॉक्टर की घोषणा को कभी एक महीना भी नहीं हुआ था कि सुनयना के पति की दूसरी शादी एक जगह तय हो गई। लेकिन फिर एक करिश्मा हो गया। सुनयना के मामा ने लड़कीवालों को सारी स्थिति समझा, शादी करने से मना कर दिया। लेकिन यह जानकारी मिलते ही सुनयना की जमकर पिटाई हुई। मामा के ऊपर पैदा हुआ क्रोध सुनयना पर उतारा गया। मामा के नाम के साथ सुनयना के नाम को जोड़कर उसकी सास भद्दी-भद्दी गालियाँ देतीं। उन लोगों को लगता कि सुनयना ने ही चुपके से पत्र लिखकर या किसी के माध्यम से कहवाकर तय हुई शादी कटवाई है। लेकिन सुनयना कुछ नहीं बोलती। मार-गाली सहते-सहते तो वह अभ्यस्त हो गई थी। सुनयना की यातनाओं से भरी निराश ज़िंदगी में पहली बार आशा की कोई किरण जागी थी। मामा के प्रति उसके मन में अपार श्रद्धा पैदा हो गई थी। कोई तो इस दुनिया में है जो उसे समझ रहा है। उसे न्याय दिलाने के लिए लड़ रहा है। लेकिन नक्कारख़ाने में तूती की आवाज़ का महत्व ही क्या? एक जगह से शादी कटी, दस जगह से रिश्ते आने लगे। मामा के समझाने के बाद भी एक लड़कीवाला नहीं माना। उसका कहना था—“लड़की को खाना-कपड़ा मिलेगा...और क्या चाहिए...बच्चे देना तो ईश्वर के हाथ की बात है...आदमी की क्या औकात?”

    और सुनयना के पति की दूसरी शादी हो गई। शादी के अवसर पर अगर सुनयना से किसी काम में देर हो जाती या उदास होकर गुमसुम वह कहीं बैठी रहती तो यह कहकर उसे पीटा जाता कि शुभ के अवसर पर वह अपशकुन मना रही है। इस शादी को देखकर जल रही है। ख़ानदान चौपट करने पर तुली हुई है।

    आज ही सुनयना के पति की नई पत्नी आई है। उसके आगमन के उपलक्ष्य में सुनयना को आज फिर मार पड़ी है। सुनयना का दोष यही था कि नई बहुरिया के आने पर उसकी आँखों में आँसू गए थे, यह सोचकर कि बेचारी की क़िस्मत फूट गई...लेकिन उसकी आँखों में आँसू देखकर घर में कहराम मच गया—“नई बहुरिया के आने पर आँसू बहाकर अपशकुन कर ही है...चुड़ेल...बाँझिन...खनगिन... !” और पति ने एक कमरे में ले जाकर दो-तीन डंडे कसकर जमा दिए।

    सुनयना सोचती है, निरंतर बदतर होती जा रही इस ज़िंदगी से छुटकारा पाने के लिए वह क्या करे? हालाँकि इस सवाल पर वह अनेक बार सोच चुकी है। कभी उसकी इच्छा होती है कि वह आत्महत्या कर ले—छत में साड़ी फँसाकर फँदा बना गर्दन में डाल ले या आँगन के कुएँ में कूद जाए। रात में कई बार उठकर वह कुएँ के पास चुकी है। लेकिन हर बार उसे लगता है कि यह कोई उचित रास्ता नहीं है। मामा कहते हैं, आत्महत्या जीत नहीं, हार होती है।

    बचपन में अपने गाँव में औरतों द्वारा आए दिन की जानेवाली आत्महत्या को देखकर सुनयना अपने बाबा से पूछती थी कि सिर्फ़ औरतें ही आत्महत्या क्यों करती हैं? तब उसके बाबा जवाब देते थे कि औरतें मूर्ख होती हैं। लेकिन अब सुनयना सच्चाई से अवगत हो गई है। जिस मानसिक और शारीरिक यातना के बीच वह जी रही है, उसमें किसी औरत द्वारा आत्महत्या कर लेना कोई आश्चर्य नहीं।

    ससुराल के इस यातना-गृह से मुक्ति पाने के लिए सुनयना मायके में जाकर रहना चाहती है। लेकिन मायकेवाले इसके पक्ष में नहीं। शादी की हुई जवान लड़की को अपने यहाँ रखने में मायकेवाले अपनी बेइज़्ज़ती महसूस करते हैं—गाँव क्या कहेगा? और सुनयना मामा के यहाँ जाकर रहना चाहती है तो सुसरालवाले अड़ंगा लगा देते हैं—“जिस-तिसके यहाँ अपनी बहू को नहीं जाने देंगे अपने यहाँ काटकर गाड़ देंगे, लेकिन दूसरे के यहाँ भेजकर अपनी बेइज़्ज़ती नहीं कराएँगे...अगर कुछ हुआ तो सारा गाँव यही कहेगा कि अमुक की पत्नी के साथ यह हुआ... !”

    लेकिन सुनयना ने सोच लिया है, अब और अधिक दिनों तक वह प्रतीक्षा नहीं करेगी, एक रात यहाँ से भागकर मामा के यहाँ चली जाएगी। मामा का गाँव उसने देखा है। मामा के पाँव पकड़कर वह कहेगी कि अब उसे कहीं भेजें। भले ही वह दाई का काम करेगी, लेकिन अब ससुराल में नहीं जाएगी। उसे विश्वास है, मामा अवश्य उसकी मदद करेंगे।

    सोचते-सोचते सुबह हो जाती है। वह अपनी खटिया पर चुपचाप पड़ी रहती है। उठने की इच्छा नहीं होती उसकी। उसे अब दिन पसंद नहीं। रात ही उसके लिए अच्छी है कि वह अपनी यातनाओं के बारे में शांति से सोच तो लेती है।

    लेकिन यह क्या? सुहागरात मनाकर उसका पति अपने कमरे से निकलकर उसके दरवाज़े खड़ा हुआ है। सुनयना पर नज़र पड़ते ही उसके पति की आँखें लाल-लाल हो जाती हैं। वह ग़ुस्से में कहता है, “दो डंडा मार क्या दिया, कोप-भवन में पड़ गई हो...इतना दिन चढ़ गया लेकिन अभी तक चूल्हा नहीं जला...जल्दी चलकर चूल्हा जलाओ...नई बहुरिया आई है। अभी वह खाना नहीं बनाएगी।

    सुनयना खटिया से उठकर चुपचाप चल देती है। उसकी इच्छा होती है कि कह दे—“अब और अधिक दिनों तक तुम्हारा ज़ुल्म नहीं सह पाऊँगी।”

    लेकिन नहीं कह पाती है। अपनी इस योजना को गोपनीय ही रखती है। मामा कहते हैं, संकटग्रस्त क्षणों में बहुत सारी योजनाओं को गोपनीय रखकर ही मंज़िल तक पहुँचा जा सकता है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : प्रतिनिधि कहानियाँ
    • रचनाकार : मिथिलेश्वर
    • प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
    • संस्करण : 2017

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY