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धूप का टुकड़ा

dhoop ka tukDa

यासुनारी कवाबाता

यासुनारी कवाबाता

धूप का टुकड़ा

यासुनारी कवाबाता

और अधिकयासुनारी कवाबाता

    मेरी आयु उन दिनों चौबीस वर्ष की थी। पतझड़ का मौसम था। सागर तट की एक आरामगाह में मेरी भेंट उस लड़की से हुई। यह प्यार की शुरुआत थी।

    उस लड़की ने अकस्मात् अपना सिर ऊपर उठाया और फिर अपने चेहरे को किमोनो की आस्तीन के पीछे छिपा दिया। जब मेरा ध्यान उसकी इस हरकत की ओर गया तो मुझे लगा कि मैंने अनजाने ही अपनी पुरानी बुरी आदत को दोहराया होगा? यह सोच कर मैं परेशान हो गया और मेरे चेहरे पर दर्द का अहसास उभर आया।

    ‘मैं तुम्हारी ओर टकटकी बाँधे देख रहा था। क्यों यही बात है न?’

    ‘हाँ, किंतु यह बुरी नज़र नहीं थी।’ उसकी आवाज़ कोमल थी और उसके शब्द स्वाभाविक थे। मैंने स्वयं को हलका-सा महसूस किया।

    ‘किंतु मेरे इस प्रकार घूरने से तुम्हें कष्ट हुआ होगा?’

    ‘नहीं ऐसी कोई बात नहीं—तुम चिंता मत करो।’

    उसने अपने किमोनो की आस्तीन चेहरे से हटा ली। उसके हाव-भाव से लगता था कि उसे अपना चेहरा दिखाने में शर्म महसूस हो रही है। मैंने अपनी गर्दन घुमा ली और समुद्र की ओर देखने लगा। अपने निकट बैठे लोगों की ओर घूर-घूर कर देखने की मेरी-पुरानी आदत है। मैंने अनेक बार अपनी इस आदत छुटकारा पाने के बारे में सोचा था, किंतु अपने आसपास के लोगों के चेहरों की ओर देखने से मुझे अजीब-सी बेचैनी होने लगती। पर जब मेरा ध्यान अपनी इस घूरती नज़र की ओर आता मुझे आत्मग्लानि का अहसास होने लगता। शायद मेरी इस आदत के पीछे मेरे बचपन की कोई घटना थी। बचपन में ही अपने माँ-बाप का साया उठ जाने और घर से बेघर हो जाने के कारण मुझे पराए लोगों के साथ रहना पड़ा। इसीलिए मैं उनके चेहरों के हाव-भाव की पड़ताल करता रहता था। शायद यहीं से मेरी घूरने की आदत की नींव पड़ी होगी—मैं उस लड़की के सामने बैठा सोच रहा था।

    मैंने कितनी बार याद करने कोशिश की कि मेरी इस आदत का आधार कितने दिनों में पुख्ता हुआ था। कभी मुझे लगता कि यह आदत मेरे अपने घर में ही पड़ चुकी थी और कभी मुझे लगता कि मेरी परवरिश दूसरे लोगों के द्वारा होने के दिनों में मेरी यह आदत विकसित हुई थी। किंतु मैं किसी अंतिम निर्णय पर पहुँच पाता।

    पर ख़ैर, जब मैंने अपनी नज़र उस लड़की पर से हटा ली तो मेरा ध्यान सागर तट पर फैली पतझड़ी धूप की ओर चला गया। धूप के इस टुकड़े ने विस्मृत हुई एक घटना को ताज़ा कर दिया।

    अपने माँ-बाप की मृत्यु के पश्चात् मैं अपने दादा के साथ रहने लगा था। अपने दादा के साथ उस घर में मैं दस वर्ष तक रहा। मेरे दादा दृष्टिहीन थे। पूर्व की ओर दृष्टि करके, अपने सामने कोयले की अँगीठी जलाए मेरे दादा वर्षों से उस कमरे की उसी जगह पर बैठते रहे थे। कभी-कभार वह अपना चेहरा दक्षिण की ओर फेर लेते, किंतु मैंने उन्हें उत्तर की ओर मुँह किए कभी नहीं देखा था। एक दिन अचानक मुझे अपने दादा के एक ओर देखने की इस आदत का अहसास हुआ। मैंने और अधिक ध्यान से देखना आरंभ कर दिया। कितनी बार देर तक मैं अपने दादा के सामने बैठा उसके चेहरे पर टकटकी लगाए रहता। मैं इस प्रतीक्षा में रहता कि शायद वे एक बार उत्तर की तरफ़ भी अपना मुँह घुमा लें, किंतु मेरे दादा स्वचालित खिलौने की भाँति हर पाँच मिनट के बाद सिर्फ़ दक्षिण की ओर ही मुँह घुमाते। उनके बार-बार ऐसा करने से मैं उदास हो जाता। मुझे अजीब-सा लगने लगता, किंतु वास्तव में दक्षिण दिशा की ओर एक धूप वाली जगह थी। मुझे हैरानी होती थी कि एक अंधे आदमी को दक्षिण दिशा के उस धूप के टुकड़े का अहसास कैसे हो जाता था?

    अब सागर तट की ओर देखते ही मुझे उस धूप के टुकड़े का अहसास हो आया, जिसे मैं भूल चुका था।

    उन दिनों मैं अपने दादा के चेहरे को घूरा करता था और इच्छा करता था कि वे उत्तर दिशा की ओर मुँह घुमा लें, क्योंकि वे अंधे थे इसलिए मैं एकटक उनकी ओर देखता रहता था। अब मुझे लग रहा है कि यही बात और लोगों के चेहरों को घूरने की मेरी आदत का आधार बनी होगी। इसका मतलब हुआ कि मेरी इस आदत की बुनियाद मेरे अपने घर में ही पड़ चुकी थी, अर्थात् आदत मेरे मूल स्वभाव से उत्पन्न नहीं हुई। अब मैं स्वयं को आदत के कारण उत्पन्न आत्मग्लानि से बचा सकता था। इस विचार से मैं बेहद ख़ुश हो गया। बड़ी बात थी कि मेरे मन में उस लड़की के लिए निश्चल होने की इच्छा जागृत हो गई थी।

    वह लड़की दोबारा बोली—‘मुझे इसकी आदत पड़ गई है, किंतु फिर भी मुझे शर्म रही है।’

    उसके इस तरह कहने का अर्थ था कि मैं उसके चेहरे की ओर फिर देख सकता हूँ।

    मैंने उसकी ओर देखा तो मेरा चेहरा पहले से अधिक चमक रहा था। उसके चेहरे पर लाज की लाली बिखर गई और उसने मारक निगाहों से मेरी ओर देखते हुए कहा —‘मेरे चेहरे का सौंदर्य दिन-प्रतिदिन घटता जाएगा, इसलिए तुम्हारे इस तरह घूरने की मुझे कोई चिंता नहीं है।’ यह कहते समय वह बच्चों की तरह लग रही थी।

    मैं मुस्कुराने लगा, मुझे लगा जैसे हमारे संबंधों में विशेष प्रकार की निकटता रही हो।

    अकस्मात् मेरा मन हुआ कि मैं उस लड़की और अपने दादा की स्मृतियों को साथ लेकर सागर तट पर फैले उस धूप के टुकड़े के निकट चला जाऊँ।

    स्रोत :
    • पुस्तक : विश्व की श्रेष्ठ कहानियाँ (खण्ड-2) (पृष्ठ 328)
    • संपादक : ममता कालिया
    • रचनाकार : यासुनारी कबावाता
    • प्रकाशन : लोकभारती प्रकाशन
    • संस्करण : 2005
    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

    ‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।

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