क्रोध और वेदना के कारण उसकी वाणी में गहरी तलख़ी आ गई थी और वह बात-बात में चिनचिना उठता था। यदि उस समय गोपी न आ जाता, तो संभव था कि वह किसी बच्चे को पीट कर अपने दिल का ग़ुबार निकालता। गोपी ने आ कर दूर से ही पुकारा—“साहब सलाम भाई रहमान। कहो क्या बना रहे हो?”
रहमान के मस्तिष्क का पारा सहसा कई डिग्री नीचे आ गया, यद्यपि क्रोध की मात्रा अभी भी काफ़ी थी, बोला—“आओ गोपी काका। साहब सलाम।”
“बड़े तेज़ हो, क्या बात है?”
गोपी बैठ गया। रहमान ने उसके सामने बीड़ी निकाल कर रखी और फिर सुलगा कर बोला—“क्या बात होगी काका! आजकल के छोकरों का दिमाग़ बिगड़ गया है। जाने कैसी हवा चल पड़ी है। माँ-बाप को कुछ समझते ही नहीं।”
गोपी ने बीड़ी का लंबा कश खींचा और मुस्कुरा कर कहा—“रहमान, बात सदा ही ऐसी रही है। मुझे तो अपनी याद है। बाबा सिर पटक कर रह गए, मगर मैंने चटशाला में जाकर हाज़िरी ही नहीं दी। आज बुढ़ापे में वे दिन याद आते हैं। सोचता हूँ, दो अच्छर पेट में पड़ जाते तो...”
बीच में बात काट कर रहमान ने तेज़ी से कहा—“तो काका, नशा चढ़ जाता। अच्छरों में नाज़ से ज़ियादा नशा होवे है, यह दो अच्छर का नशा ही तो है जो सलीम को उड़ाए लिए जावे है। कहवे है इस बस्ती में मेरा जी नहीं लगे। सब गंदे रहते हैं। बात करने की तमीज़ नहीं। चोरी से नहीं चूकें...”
गोपी चौंक कर बोला—“सलीम ने कहा ऐसे?”
“जी हाँ, सलीम ने कहा ऐसे और कहा, हम इंसान नहीं हैं, हैवान हैं। फिर हम जैसे नाली में कीड़े बिलबिलाए हैं न, उसी तरह की हमारी ज़िंदगी है…” कहते-कहते रहमान की आँखें चढ़ गईं। बदन काँपने लगा। हुक्के को जिसे उसने अभी तक छुआ नहीं था, इतने ज़ोर से पैर से सरकाया कि चिलम नीचे गिर पड़ी और आग बिखर कर चारों ओर फैल गई। तेज़ी से पुकारा—“करीमन! ओ हरामज़ादी करीमन! कहाँ मर गई जा कर? ले जा इस हुक्के को। साला आज हमें गुंडा कहवे है...”
गोपी ने रहमान की तेज़ी देख कर कहा—“उसका बाप स्कूल में चपरासी था न…!”
“जी हाँ, वही असर तो ख़राब करे है। पढ़ा नहीं था तो क्या, हर वक़्त पढ़े-लिखे के बीच रहवे था। मगर साले ने किया क्या? भरी जवानी में पैर फैला कर मर गया। बीवी को कहीं का भी नहीं छोड़ा। न जाने किसके पड़ती, वह तो उसकी माँ ने मेरे आगे धरना दे दिया। वह दिन और आज का दिन, सिर पर रखा है। कह दे कोई, सलीम रहमान की औलाद नहीं है। पर वह बात है काका...”
आगे जैसे रहमान की आँख में कहीं से आ कर कुणक पड़ गई। ज़ोर-ज़ोर से मलने लगा। उसी क्षण शून्य में ताकते-ताकते गोपी ने कहा—“सलीम की माँ बड़ी नेकदिल औरत है।”
रहमान एकदम बोला—“काका, फ़रिश्ता है। ऐसी नेकदिल औरत कहाँ देखने को मिले है आजकल। क्या मजाल जो कभी पहले शौहर का नाम लिया हो! ऐसी जी-जान से ख़िदमत करे है कि बस सिर नहीं उठता। और काका उसी का नतीजा है। तुमसे कुछ छुपा है। कभी इधर-उधर देखा है मुझे?”
गोपी ने तत्परता से कहा—“कभी नहीं रहमान, मुँह देखे की नहीं ईमान की बात है। पाँच पंचों में कहने को तैयार हूँ।”
“और रही चोरी की बात! किसी के घर डाका मारने कौन जावे है। यूँ खेत में से घास-पात तुम भी लावो ही हो काका।”
गोपी बोला—“हाँ लावूँ हूँ। इसमें लुकाव की क्या बात है। और लावें क्यों न? हम क्या इतने से भी गए? बाबू लोग रोज़ जेब भर कर घर लौटे हैं। सच कहूँ रहमान! तनख़्वाह बाँटते वक़्त अँगूठा पहले लगवा लेवे हैं और पैसों के वक़्त किसी ग़रीब को ऐसी दुत्कार देवें कि बिचारा मुँह ताकता रह जावे है। इस सत्यानाशी राज में कम अंधेर नहीं है। पर बेमाता ने हमारी सरकार की क़िस्मत में न जाने क्या लिख दिया है, दिन-रात चौगुनी तरक़्क़ी होवे है। गाँधी बाबा की कुछ भी पेश नहीं आवे।”
रहमान ने सारी बातें बिना सुने उसी तेज़ी से कहा—“बाबू क्यों? वे जो अफ़सर होते हैं, साब बहादुर, वे क्या कम हैं? किसी चीज़ पर पैसा नहीं डालें हैं। और काका! यह कल का छोकरा सलीम हमें गुंडा बतावे है। गुंडे साले तो वे हैं। सच काका! कलब में सिवाय बदमाशी के वे करें क्या हैं। शराब वे पिएँ, जुआ वे खेलें और...।”
“और क्या? हमारे साब के पास आए दिन कलब का चपरासी आवे है। कभी सौ, कभी डेढ़ सौ, सदा हारे ही हैं, पर रहमान, उसकी मेम बड़ी तक़दीर की सिकंदर है। जब जावे तब सौ-सवा सौ खींच लावे है।”
“मेम साब... काका, तुम क्या जानो। उसकी बात और है। जितने ये साब बहादुर हैं, और साब क्यों, बड़े-बड़े वकील, बलिस्टर, लाला, सभी आजकल कलब जावे हैं। मुसलमान को शराब पीना हराम है, पर वहाँ बैठ कर विस्की, ज़िन, पोरट, सेरी सब चढ़ा जावे हैं। औरतें ऐसी गिर गई हैं कि पराए मर्द के कमर में हाथ डाल कर लिए फिरे हैं, और वे हँस-हँस कर खिलर-खिलर बातें करे हैं। काका! जितनी देर वे वहाँ रहवे हैं, ये यही कहते रहे हैं—उसकी बीवी ख़ूबसूरत है। इसकी ज़ोरदार है। सरमा ख़ुशक़िस्मत है, रफ़ीक़ की लौंडिया उसके घर जावे। गुप्ता की बीवी उसके पास रहे है। सारा वक़्त यही घुसर-पुसर होती रहे और मौक़ा देख कोई किसी के साथ उड़ चला। उस दिन जीत की ख़ुशी में ड्रामा हुआ था। पुलिस के कप्तान लालाजी बने थे। वे लालाजी लोगों को हँसाते रहे और मेजर साहब उनकी बीवी को ले कर डाक बँगले की सैर करने चले गए। ये हैं, बड़े लोगन की चाल-चलन। ये हमारे आका... हमारे भाग की लकीर इन्हीं की क़लम से खिंचे है।”
गोपी ने फिर ज़ोर से बीड़ी का कश खींचा और गंभीरता से कहा—“रहमान! देखने में जितना बड़ा है, असल में वह उतना छोटा।”
“और खोटा भी।”
“और क्या।”
“ओर इन्हीं के लिए सलीम हमें बदतमीज़, बदसहूर, बेअक़ल, न जाने क्या कहवे है। मैंने भी सोच लिया है, आज उससे फ़ैसला करके रहूँगा। मैंने हमेशा उसे अपना समझा है। नहीं तो... नहीं तो...।”
गोपी ने अब अपना डंडा उठा लिया। बोला—“रहमान, कुछ भी हो, सलीम तेरा ही लड़का माना जावे है, जवान है, अबे-तबे से न बोलना। समझा, आजकल हवा ऐसी चल पड़ी है। और चली कब नहीं थी! फ़रक़ इतना है, पहले मार खा कर बोलते नहीं थे, अब सीधे जवाब देवे हैं...”
रहमान तेज़ ही था। कहा—“मैं उसके जवाबों की क्या परवा करूँ काका। जावे जहन्नुम में। मेरा लगे क्या है?... और काका। मैं उसे मारूँगा क्यों। मेरे क्या हाथ खुले हैं। मैं तो उससे दो बात पूछूँगा, रास्ता इधर या उधर। और काका, मुझे उस साले की ज़रा भी फ़िकर नहीं—फ़िकर उसकी माँ की है। यूँ तो औलाद और क्या कम हैं, पर ज़रा यही कुछ सहूरदार था... काका, सोचता था पढ़-लिख कर कहीं मुंशी बनेगा, ज़ात-बिरादरी में नाम होगा। लेकिन लिखा क्या किसी से मिटा है?”
गोपी बोला—“हाँ रहमान। लिखा किसी से नहीं मिटा! अब चाहे तो मालिक भी नहीं मेट सकता। ऐसी गहरी लकीर बेमाता ने खींची है। सो भइया अपनी इज़्ज़त अपने हाथ है। ज़ियादा कुछ मत कहना। पढ़ों-लिखों को ग़ैरत जल्दी आ जावे है। समझा...।”
“समझा काका।”
और फिर गोपी डंडा उठा, घास की गठरी कंधे पर डाल, साहब सलाम करके चला गया। रहमान कुछ देर वहीं शून्य में बैठा धुँधले होते वातावरण को देखता रहा। मन में उमड़-घुमड़ कर विचार आते और आपस में टकरा कर शीघ्रता से निकल जाते। वे झील के गिरते पानी के समान थे, गहरे और तेज़। इतने तेज़ कि उफन कर रह जाते। उनका तात्कालिक मूल्य कुछ नहीं था, इसीलिए उससे मन की झुँझलाहट और गहरी होती गई। करुणा और विषाद कोई उसे कम नहीं कर सका। आख़िर वह उठा और अंदर चला गया।
घर में सन्नाटा था। बच्चे अभी तक खेल कर नहीं लौटे थे। उसकी बीवी रोटियाँ सेंक रही थी। सालन की ख़ुश्बू उसकी नाक में भर उठी। उसने एक नज़र उठा कर अपनी बीवी को देखा—शांत-चित्त वह काम में लगी है। उसके कानों में लंबे बाले रोटी बढ़ाते समय वेग से हिलते हैं। उसके सिर का गंदा कपड़ा खिसक कर कंधे पर आ पड़ा है। यद्यपि जवानी बीत गई है, तो भी चेहरे का भराव अभी हल्का नहीं पड़ा है। गोरी न हो कर भी वह काली नहीं है। उसकी आँखों में एक अजीब नशा है। वही नशा उसे बरबस ख़ूबसूरत बना देता है। जिसकी ओर वह देख लेती है एक बार, तो वह ठिठक जाता है। रहमान सहसा ठिठका—उन दिनों इन्हीं आँखों ने मुझे बेबस बना दिया था। नहीं तो...
सहसा उसे देख कर उसकी बीवी बोल उठी—“इतने तेज़ क्यों हो रहे थे। ग़ैरों के आगे क्या इस तरह घर की बात कहते हैं?”
रहमान कुछ तलख़ी से बोला—“ग़ैरों के आगे क्या? पानी अब सर से उतर गया है। कल को जब घर से निकल जावेगा, तब क्या दुनिया कानों में रुई ठूँस लेगी या आँखें फोड़ लेगी?”
बीवी को दुख पहुँचा। बोली—“बाप-बेटे क्या दुनिया में कभी अलग नहीं होते?”
“कौन कहे कि वह मेरा बेटा है?”
“और किसका है?”
“मैं क्या जानूँ?”
“ज़रा देखना मेरी तरफ़! मैं भी तो सुनूँ।”
तिनक कर उसने कहा—“क्या सुनेगी? मेरा होता तो क्या इस तरह कहता? ज़बान खींच लेता साले की।”
“देखूँगी किस-किसकी ज़बान खींचोगे। अभी तक तो एक भी बात नहीं सराहता।”
“बच्चे और जवान बराबर होते हैं।”
“नहीं होवें पर पूत के पाँव पालने में नज़र आ जावे है। और फिर वही कौन-सा जवान है? अल्हड़ उमर है। एक बात मुँह से निकल गई, तो सिर पर उठा लिया। तुम्हारा नहीं तभी तो। अपना होता, तो क्या इस तरह ढोल पीटते। अपनों के हज़ार ऐब नज़र नहीं आवे है। दूसरों का एक ज़री-सा पहाड़ बन जावे है...”
रहमान कुछ भी हो, इतना मूर्ख नहीं था। उसने समझ लिया, उसने बीवी के दिल को दुखाया है, पर वह क्या करे। सलीम से उसे क्या कम मोहब्बत है! पेट काट कर उसे रहमान ने ही तो स्कूल भेजा है। उसके लिए अब भी कभी बड़े बाबू, कभी डिप्टी, कभी बड़े साहब के आगे गिड़गिड़ाता रहता है। इतनी गहरी मोहब्बत है, तभी तो इतना दुख है। कोई ग़ैर होता तो...।
तभी उसके चारों बच्चे बाहर से शोर मचाते हुए आ पहुँचे। वे धूल-मिट्टी से लिथड़े पड़े थे। परंतु गंदे और अर्द्धनग्न होने पर भी प्रसन्न थे। सबसे बड़ी लड़की लगभग बारह वर्ष की थी। आते ही ख़ुशी-ख़ुशी बोली—“अम्मी! आज हम भइया की जगह गए थे।”
रहमान को कुछ अचरज हुआ, पर वह जला-भुना बैठा था। कड़क कर बोला—“कहाँ गई थी चुड़ैल?”
लड़की सहम गई। घबरा कर बोली—“भइया की जगह।”
“कौन-सी जगह?”
“जहाँ भइया जाते हैं। दूर...।”
छोटा लड़का जो दस बरस का था, अब एकदम बोला—“अब्बा, वहाँ बहुत सारे आदमी थे।”
तीसरा भी आठ बरस का लड़का। आगे बढ़ आया, कहा—“वहाँ लेक्चर हुए थे।”
रहमान अचकचाया—“लेक्चर?”
लड़की ने कहा—“हाँ, अब्बा! लेक्चर हुए थे। भइया भी बोले थे। लोगों ने बड़ी तालियाँ पीटीं।”
अम्मा का मुख सहसा खिल उठा। गर्व से एक बार उसने रहमान को देखा।
फिर बोली—“क्या कहा उसने?”
लड़की जो मुरझा चली थी, अब दुगने उत्साह से कहने लगी—“अम्मी, भइया ने बहुत-सी बातें कही थीं। हम गंदे रहते हैं, हम अनपढ़ हैं, हम चोरी करते हैं। हमें बोलना नहीं आता। हमें खाने को नहीं मिलता।”
रहमान चिहुँक कर बोला—“देखा तुमने।”
बीवी ने तिनक कर कहा—“सुनो तो। हाँ, और क्या लाली?”
लड़का बोला—“मैं बताऊँ अम्मी! भइया ने कहा था, इसमें हमारा ही क़ुसूर है।”
“हाँ,” लड़की बोली—“उन्होंने कहा था, बड़े लोग हमें जान-बूझ कर नीचे गिराते जावे हैं और हम बोलें ही नहीं।”
और फिर अब्बा की तरफ़ मुड़ कर बोली—“क्यों अब्बा, वे लोग कौन हैं?”
अब्बा तो बुत बने बैठे थे; क्या कहते?
लड़का कहने लगा—“अब्बा! और जो उनमें बड़े आदमी थे, सबने यही कहा—हम भी आदमी हैं। हम भी जिएँगे। हम अब जाग गए हैं।”
अम्मी ने एक लंबी साँस खींची। चेहरा प्रकाश से भर उठा—“सुनते हो सलीम की बातें।”
रहमान अब भी नहीं बोला। लड़की बोली—“और अम्मी। भइया ने मुझसे कहा था कि मैं अब घर नहीं आऊँगा।”
“नहीं आएगा?”
“हाँ, अम्मी।”
रहमान की निद्रा टूटी—“क्यों नहीं आएगा? क्योंकि हम गंदे...?”
“नहीं अब्बा!” लड़की आप ही आप कुछ गंभीरता से बोली—“भइया ने मुझसे कहा था कि अब इस घर में नहीं रहूँगा। नया घर लूँगा, बहुत साफ़। अब्बा से कह दीजो कि वहाँ रहने से गड़बड़ हो सकती है। हम लोगों के पीछे पुलिस लगी रहती है। वहाँ आएगी तो शायद अब्बा की नौकरी छूट जावेगी...?”
लेकिन अब्बा हों तो बोलें। उनके तो सिर में भूचाल आ गया है। वह घूम रहा है, रुकता नहीं...
krodh aur wedna ke karan uski wani mein gahri talkhi aa gai thi aur wo baat baat mein chinachina uthta tha yadi us samay gopi na aa jata, to sambhaw tha ki wo kisi bachche ko peet kar apne dil ka ghubar nikalta gopi ne aa kar door se hi pukara—sahab salam bhai rahman kaho kya bana rahe ho?
rahman ke mastishk ka para sahsa kai degre niche aa gaya, yadyapi krodh ki matra abhi bhi kafi thi, bola—ao gopi kaka sahab salam
baDe tez ho, kya baat hai?
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gopi chaunk kar bola—salim ne kaha aise?
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kaun si jagah?
jahan bhaiya jate hain door
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rahman achakchaya—lecture?
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rahman chihunk kar bola—dekha tumne
biwi ne tinak kar kaha—suno to han, aur kya lali?
laDka bola—main bataun ammi! bhaiya ne kaha tha, ismen hamara hi qusur hai
han, laDki boli—unhonne kaha tha, baDe log hamein jaan boojh kar niche girate jawe hain aur hum bolen hi nahin
aur phir abba ki taraf muD kar boli—kyon abba, we log kaun hain?
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laDka kahne laga—abba! aur jo unmen baDe adami the, sabne yahi kaha—ham bhi adami hain hum bhi jiyenge hum ab jag gaye hain
ammi ne ek lambi sans khinchi chehra parkash se bhar utha—sunte ho salim ki baten
rahman ab bhi nahin bola laDki boli—aur ammi bhaiya ne mujhse kaha tha ki main ab ghar nahin aunga
nahin ayega?
han, ammi
rahman ki nidra tuti—kyon nahin ayega? kyonki hum gande ?
nahin abba! laDki aap hi aap kuch gambhirta se boli—bhaiya ne mujhse kaha tha ki ab is ghar mein nahin rahunga naya ghar lunga, bahut saf abba se kah dijo ki wahan rahne se gaDbaD ho sakti hai hum logon ke pichhe police lagi rahti hai wahan ayegi to shayad abba ki naukari chhoot jawegi ?
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baDe tez ho, kya baat hai?
gopi baith gaya rahman ne uske samne biDi nikal kar rakhi aur phir sulga kar bola—kya baat hogi kaka! ajkal ke chhokron ka dimagh bigaD gaya hai jane kaisi hawa chal paDi hai man bap ko kuch samajhte hi nahin
gopi ne biDi ka lamba kash khincha aur muskura kar kaha—rahman, baat sada hi aisi rahi hai mujhe to apni yaad hai baba sir patak kar rah gaye, magar mainne chatshala mein jakar haziri hi nahin di aaj buDhape mein we din yaad aate hain sochta hoon, do achchhar pet mein paD jate to
beech mein baat kat kar rahman ne tezi se kaha—to kaka, nasha chaDh jata achchhron mein naz se ziyada nasha howe hai, ye do achchhar ka nasha hi to hai jo salim ko uDaye liye jawe hai kahwe hai is basti mein mera ji nahin lage sab gande rahte hain baat karne ki tamiz nahin chori se nahin chuken
gopi chaunk kar bola—salim ne kaha aise?
ji han, salim ne kaha aise aur kaha, hum insan nahin hain, haiwan hain phir hum jaise nali mein kiDe bilabilaye hain na, usi tarah ki hamari zindagi hai…kahte kahte rahman ki ankhen chaDh gain badan kanpne laga hukke ko jise usne abhi tak chhua nahin tha, itne zor se pair se sarkaya ki chilam niche gir paDi aur aag bikhar kar charon or phail gai tezi se pukara—kariman! o haramzadi kariman! kahan mar gai ja kar? le ja is hukke ko sala aaj hamein ghunDa kahwe hai
gopi ne rahman ki tezi dekh kar kaha—uska bap school mein chaprasi tha n…!
ji han, wahi asar to kharab kare hai paDha nahin tha to kya, har waqt paDhe likhe ke beech rahwe tha magar sale ne kiya kya? bhari jawani mein pair phaila kar mar gaya biwi ko kahin ka bhi nahin chhoDa na jane kiske paDti, wo to uski man ne mere aage dharna de diya wo din aur aaj ka din, sir par rakha hai kah de koi, salim rahman ki aulad nahin hai par wo baat hai kaka
age jaise rahman ki ankh mein kahin se aa kar kunak paD gai zor zor se malne laga usi kshan shunya mein takte takte gopi ne kaha—salim ki man baDi nekadil aurat hai
rahman ekdam bola—kaka, farishta hai aisi nekadil aurat kahan dekhne ko mile hai ajkal kya majal jo kabhi pahle shauhar ka nam liya ho! aisi ji jaan se khidmat kare hai ki bus sir nahin uthta aur kaka usi ka natija hai tumse kuch chhupa hai kabhi idhar udhar dekha hai mujhe?
gopi ne tatparta se kaha—kabhi nahin rahman, munh dekhe ki nahin iman ki baat hai panch panchon mein kahne ko taiyar hoon
aur rahi chori ki baat! kisi ke ghar Daka marne kaun jawe hai yoon khet mein se ghas pat tum bhi lawo hi ho kaka
gopi bola—han lawun hoon ismen lukaw ki kya baat hai aur lawen kyon n? hum kya itne se bhi gaye? babu log roz jeb bhar kar ghar laute hain sach kahun rahman! tankhwah bantte waqt angutha pahle lagwa lewe hain aur paison ke waqt kisi gharib ko aisi dutkar dewen ki bichara munh takta rah jawe hai is satyanashi raj mein kam andher nahin hai par bemata ne hamari sarkar ki qimat mein na jane kya likh diya hai, din raat chauguni taraqqi howe hai gandhi baba ki kuch bhi pesh nahin aawe
rahman ne sari baten bina sune usi tezi se kaha—babu kyon? we jo afsar hote hain, sab bahadur, we kya kam hain? kisi cheez par paisa nahin Dalen hain aur kaka! ye kal ka chhokra salim hamein ghunDa batawe hai ghunDe sale to we hain sach kaka! kalab mein siway badmashi ke we karen kya hain sharab we piyen, jua we khelen aur
aur kya? hamare sab ke pas aaye din kalab ka chaprasi aawe hai kabhi sau, kabhi DeDh sau, sada hare hi hain, par rahman, uski mem baDi taqdir ki sikandar hai jab jawe tab sau sawa sau kheench lawe hai
mem sab kaka, tum kya jano uski baat aur hai jitne ye sab bahadur hain, aur sab kyon, baDe baDe wakil, balistar, lala, sabhi ajkal kalab jawe hain musalman ko sharab pina haram hai, par wahan baith kar wisky, zin, porat, seri sab chaDha jawe hain aurten aisi gir gai hain ki paraye mard ke kamar mein hath Dal kar liye phire hain, aur we hans hans kar khilar khilar baten kare hain kaka! jitni der we wahan rahwe hain, ye yahi kahte rahe hain—uski biwi khubsurat hai iski zordar hai sarma khushqismat hai, rafiq ki launDiya uske ghar jawe gupta ki biwi uske pas rahe hai sara waqt yahi ghusar pusar hoti rahe aur mauqa dekh koi kisi ke sath uD chala us din jeet ki khushi mein Drama hua tha police ke kaptan lalaji bane the we lalaji logon ko hansate rahe aur major sahab unki biwi ko le kar Dak bangale ki sair karne chale gaye ye hain, baDe logan ki chaal chalan ye hamare aaka hamare bhag ki lakir inhin ki qalam se khinche hai
gopi ne phir zor se biDi ka kash khincha aur gambhirta se kaha—rahman! dekhne mein jitna baDa hai, asal mein wo utna chhota
aur khota bhi
aur kya
or inhin ke liye salim hamein badtamiz, badashur, beaqal, na jane kya kahwe hai mainne bhi soch liya hai, aaj usse faisla karke rahunga mainne hamesha use apna samjha hai nahin to nahin to
gopi ne ab apna DanDa utha liya bola—rahman, kuch bhi ho, salim tera hi laDka mana jawe hai, jawan hai, abe tabe se na bolna samjha, ajkal hawa aisi chal paDi hai aur chali kab nahin thee! faraq itna hai, pahle mar kha kar bolte nahin the, ab sidhe jawab dewe hain
rahman tez hi tha kaha—main uske jawabon ki kya parwa karun kaka jawe jahannum mein mera lage kya hai? aur kaka main use marunga kyon mere kya hath khule hain main to usse do baat puchhunga, rasta idhar ya udhar aur kaka, mujhe us sale ki zara bhi fikar nahin—fikar uski man ki hai yoon to aulad aur kya kam hain, par zara yahi kuch sahurdar tha kaka, sochta tha paDh likh kar kahin munshi banega, zat biradri mein nam hoga lekin likha kya kisi se mita hai?
gopi bola—han rahman likha kisi se nahin mita! ab chahe to malik bhi nahin met sakta aisi gahri lakir bemata ne khinchi hai so bhaiya apni izzat apne hath hai ziyada kuch mat kahna paDhon likhon ko ghairat jaldi aa jawe hai samjha
samjha kaka
aur phir gopi DanDa utha, ghas ki gathri kandhe par Dal, sahab salam karke chala gaya rahman kuch der wahin shunya mein baitha dhundhale hote watawarn ko dekhta raha man mein umaD ghumaD kar wichar aate aur aapas mein takra kar shighrata se nikal jate we jheel ke girte pani ke saman the, gahre aur tez itne tez ki uphan kar rah jate unka tatkalik mooly kuch nahin tha, isiliye usse man ki jhunjhlahat aur gahri hoti gai karuna aur wishad koi use kam nahin kar saka akhir wo utha aur andar chala gaya
ghar mein sannata tha bachche abhi tak khel kar nahin laute the uski biwi rotiyan senk rahi thi salan ki khushbu uski nak mein bhar uthi usne ek nazar utha kar apni biwi ko dekha—shant chitt wo kaam mein lagi hai uske kanon mein lambe bale roti baDhate samay weg se hilte hain uske sir ka ganda kapDa khisak kar kandhe par aa paDa hai yadyapi jawani beet gai hai, to bhi chehre ka bharaw abhi halka nahin paDa hai gori na ho kar bhi wo kali nahin hai uski ankhon mein ek ajib nasha hai wahi nasha use barbas khubsurat bana deta hai jiski or wo dekh leti hai ek bar, to wo thithak jata hai rahman sahsa thithka—un dinon inhin ankhon ne mujhe bebas bana diya tha nahin to
sahsa use dekh kar uski biwi bol uthi—itne tez kyon ho rahe the ghairon ke aage kya is tarah ghar ki baat kahte hain?
rahman kuch talkhi se bola—ghairon ke aage kya? pani ab sar se utar gaya hai kal ko jab ghar se nikal jawega, tab kya duniya kanon mein rui thoons legi ya ankhen phoD legi?
biwi ko dukh pahuncha boli—bap bete kya duniya mein kabhi alag nahin hote?
kaun kahe ki wo mera beta hai?
aur kiska hai?
main kya janun?
zara dekhana meri taraf! main bhi to sunun
tinak kar usne kaha—kya sunegi? mera hota to kya is tarah kahta? zaban kheench leta sale ki
dekhungi kis kiski jaban khinchoge abhi tak to ek bhi baat nahin sarahta
bachche aur jawan barabar hote hain
nahin howen par poot ke panw palne mein nazar aa jawe hai aur phir wahi kaun sa jawan hai? alhaD umar hai ek baat munh se nikal gai, to sir par utha liya tumhara nahin tabhi to apna hota, to kya is tarah Dhol pitte apnon ke hazar aib nazar nahin aawe hai dusron ka ek zari sa pahaD ban jawe hai
rahman kuch bhi ho, itna moorkh nahin tha usne samajh liya, usne biwi ke dil ko dukhaya hai, par wo kya kare salim se use kya kam mohabbat hai! pet kat kar use rahman ne hi to school bheja hai uske liye ab bhi kabhi baDe babu, kabhi deputy, kabhi baDe sahab ke aage giDgiData rahta hai itni gahri mohabbat hai, tabhi to itna dukh hai koi ghair hota to
tabhi uske charon bachche bahar se shor machate hue aa pahunche we dhool mitti se lithDe paDe the parantu gande aur arddhnagn hone par bhi prasann the sabse baDi laDki lagbhag barah warsh ki thi aate hi khushi khushi boli—ammi! aaj hum bhaiya ki jagah gaye the
rahman ko kuch achraj hua, par wo jala bhuna baitha tha kaDak kar bola—kahan gai thi chuDail?
laDki saham gai ghabra kar boli—bhaiya ki jagah
kaun si jagah?
jahan bhaiya jate hain door
chhota laDka jo das baras ka tha, ab ekdam bola—abba, wahan bahut sare adami the
tisra bhi aath baras ka laDka aage baDh aaya, kaha—wahan lecture hue the
rahman achakchaya—lecture?
laDki ne kaha—han, abba! lecture hue the bhaiya bhi bole the logon ne baDi taliyan pitin
amma ka mukh sahsa khil utha garw se ek bar usne rahman ko dekha
phir boli—kya kaha usne?
laDki jo murjha chali thi, ab dugne utsah se kahne lagi—ammi, bhaiya ne bahut si baten kahi theen hum gande rahte hain, hum anpaDh hain, hum chori karte hain hamein bolna nahin aata hamein khane ko nahin milta
rahman chihunk kar bola—dekha tumne
biwi ne tinak kar kaha—suno to han, aur kya lali?
laDka bola—main bataun ammi! bhaiya ne kaha tha, ismen hamara hi qusur hai
han, laDki boli—unhonne kaha tha, baDe log hamein jaan boojh kar niche girate jawe hain aur hum bolen hi nahin
aur phir abba ki taraf muD kar boli—kyon abba, we log kaun hain?
abba to but bane baithe the; kya kahte?
laDka kahne laga—abba! aur jo unmen baDe adami the, sabne yahi kaha—ham bhi adami hain hum bhi jiyenge hum ab jag gaye hain
ammi ne ek lambi sans khinchi chehra parkash se bhar utha—sunte ho salim ki baten
rahman ab bhi nahin bola laDki boli—aur ammi bhaiya ne mujhse kaha tha ki main ab ghar nahin aunga
nahin ayega?
han, ammi
rahman ki nidra tuti—kyon nahin ayega? kyonki hum gande ?
nahin abba! laDki aap hi aap kuch gambhirta se boli—bhaiya ne mujhse kaha tha ki ab is ghar mein nahin rahunga naya ghar lunga, bahut saf abba se kah dijo ki wahan rahne se gaDbaD ho sakti hai hum logon ke pichhe police lagi rahti hai wahan ayegi to shayad abba ki naukari chhoot jawegi ?
lekin abba hon to bolen unke to sir mein bhuchal aa gaya hai wo ghoom raha hai, rukta nahin
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।