केक
cake
उन्होंने मेज़ पर एक ज़ोरदार घूँसा मारा और मेज़ बहुत देर तक हिलती रही।
“मैं कहता हूँ जब तक ऐट ए टाइम पाँच सौ लोगों को गोली से नहीं उड़ा दिया जाएगा, हालात ठीक नहीं हो सकते।” अपनी ख़ासी स्पीकिंग-पावर नष्ट करके वह हाँफने लगे। फिर उन्होंने अपना ऊपरी होंठ निचले होंठ से दबाकर मुझे घूरना शुरू किया। वह अवश्य समझ गए थे कि मैं मुस्करा रहा हूँ। फिर उन्होंने घूरना बंद कर दिया और अपनी प्लेट पर पिल पड़े।
रोज़ ही रात को राजनीति पर बात होती है। दिन के दो बजे से रात आठ बजे तक प्रूफ़रीडिंग का घटिया काम करते-करते वह काफ़ी खिसिया उठते हैं। मैंने कहा, “उन पाँच सौ लोगों में आप अपने को भी जोड़ रहे हैं?”
“अपने को क्यों जोडूँ? क्या मैं कुक पॉलिटीशियन हूँ या स्मगलर हूँ या करोड़ों की चोरबाज़ारी करता हूँ?” वह फिर मुझे घूरने लगे तो मैं हँस दिया। वह अपनी प्लेट की ओर देखने लगे।
“आप लोग तो किसी भी चीज़ को सीरियसली नहीं लेते हैं।”
खाने के बाद उन्होंने जूठी प्लेटें उठाईं और किचन में चले गए। कुर्सी पर बैठे-ही-बैठे मिसेज़ डिसूज़ा ने कहा, “डेविड, मेरे लिए पानी लेते आना।”
डेविड जग भरकर पानी ले आए। मिसेज़ डिसूज़ा को एक गिलास देने के बाद बोले, “पी लीजिए मिस्टर, पी लीजिए।”
मेरे इनकार करने पर जले-कटे तरीक़े से चमके, “थैंक्स टू गॉड! यहाँ दिन-भर पानी तो मिल जाता है। अगर इंद्रपुरी में रहते तो पता चल जाता। ख़ैर, आप नहीं पीते तो मैं ही पिए लेता हूँ।” यह कहकर वह तीन गिलास पानी पी गए।
खाने के बाद इसी मेज़ पर डेविड साहब काम शुरू कर देते हैं। आज भी वह प्रूफ़ का पुलिंदा खोलकर बैठ गए। उन्होंने मेज़ साफ़ की। मेज़ के पाए की जगह लगी ईंटों को हाथ से ठीक किया, ताकि मेज़ हिल न सके। फिर टूटी कुर्सी पर बैठे-बैठे अचानक अकड़ गए और नाक का चश्मा इस तरह फ़िट किया जैसे बंदूक़ में गोलियाँ भर ली हों। होंठ ख़ास तरह से दबा लिए। प्रूफ़ पांडुलिपि से मिलाने लगे। गोलियाँ चलने लगीं। इसी तरह डेविड साहब रात बारह बजे तक प्रूफ़ देखते रहते हैं। इसी बीच वे कम-से-कम पचास बार चश्मा उतारते और लगाते हैं। बंदूक़ में कुछ ख़राबी है। पाँच साल पहले आँखें टैस्ट करवार्इ थीं और चश्मा ख़रीदा था। अब आँखें ज़्यादा कमज़ोर हो चुकी हैं, परंतु चश्मे का नंबर नहीं बढ़ पाया है। हर महीने की पंद्रह तारीख़ को वह अगले महीने आँखें टैस्ट करवाकर नया चश्मा ख़रीदने की बात करते हैं। बंदूक़ की क़ीमत बहुत बढ़ चुकी है। प्रूफ़ देखने के बीच पानी पीएँगे तो “बासु की जय” का नारा भी लगाएँगे। “बासु” उनका बॉस है जिससे न सिर्फ़ उन्हें बल्कि कई दर्जन शिकायतें मुझे भी हैं। ऐसी शिकायतें पेश्तर छोटा काम करने वालों को होती हैं।
“बड़ा जान लेवा काम है साहब।” वे दो-एक बार सिर उठाकर मुझसे कहते हैं। मैं “हूँ-हाँ” में जवाब देकर बात आगे बढ़ने नहीं देता। लेकिन वह चुप नहीं होते। चश्मा उतार कर आँखों की रगड़ाई करते हैं, “बड़ी हाई लेविल बंग्लिंग होती है। अब तो छोटे-मोटे करप्शन केस पर कोई चौंकता तक नहीं। पूरी मशीनरी सड़-गल चुकी है। ये आदमी नहीं, कुत्ते हैं कुत्ते...। मैं भी आज़ादी से पहले गाँधी का स्टांच सपोर्टर था और समझता था कि नॉन-वाइलेंस इज़ द बेस्ट पॉलिसी। लटका दो पाँच सौ आदमियों को सूली पर। अरे, इन सालों का पब्लिक ट्रायल होना चाहिए, पब्लिक ट्रायल!”
“पब्लिक ट्रायल कौन करेगा, डेविड साहब।” मैं झल्ला जाता हूँ। इतनी देर से लगातार बकवास कर रहे हैं।
वे दोनों हाथों से अपना सिर पकड़कर बैठ जाते हैं।
“मासेज़ में अगर लेफ़्ट फोर्सेज़... वे धीरे-धीरे बहुत देर तक बड़बड़ाते रहते हैं।
मैं जासूसी उपन्यास के नायक को एक बार फिर गोलियों की बौछार से बचा देता हूँ।
वह कहते हैं, “आप भी क्या दो-ढाई सौ रुपए के लिए घटिया नॉवल लिखा करते हैं!” मैं मुस्कुराकर उनके प्रूफ़ के पुलिंदे की तरफ़ देखता हूँ और वह चुप हो जाते हैं। गंभीर हो जाते हैं।
“मैं सोचता हूँ, ब्रदर, क्या हम-तुम इसी तरह प्रूफ़ पढ़ते और जासूसी नॉवल लिखते रहेंगे? सोचो तो यार! दुनिया कितनी बड़ी है। यह हमें मालूम है कि कितनी अच्छी तरह से ज़िंदगी गुज़ारी जा सकती है। कितना आराम और सुख है, कितनी ब्यूटी है...।”
“परेशानी तो मेरे लिए है, डेविड साब। आप तो बहुत से काम कर सकते हैं। मुर्ग़ी-ख़ाना खोल सकते हैं। बेकरी लगा सकते हैं...।”
वह आँखें बंद करके अविश्वास-मिश्रित हँसी हँसने लगते हैं। और कमरे की हर ठोस चीज़ से टकराकर उनकी हँसी उनके मुँह में वापस चली जाती है।
अक्सर खाने के बाद वे ऐसी ही बात छेड़ देते हैं। काम में मन नहीं लगता और वक़्त बोझ लगने लगता है। जी में आता है कि लोहे की बड़ी-सी रॉड लेकर किसी फ़ैशनेबल कॉलोनी में निकल जाऊँ। डेविड साब तो साथ चलने पर तैयार हो जाएँगे। वह फिर बोलने लगते हैं और उनके प्रिय शब्द “बिच”, “कुक”, “नॉनसेंस”, “बंग्लिंग”, “पब्लिक ट्रायल”, “एक्सप्लॉइटेशन”, “क्लास स्ट्रगल” आदि बार-बार सुनार्इ पड़ते हैं। बीच-बीच में वह हिंदुस्तानी गालियाँ फ़र्राटे से बोलते हैं।
“अब क्या हो सकता है! पच्चीस साल तक प्रूफ़रीडरी के बाद अब और क्या कर सकता हूँ। सन 1948 में दिल्ली आया था। अरे साब, डिफ़ेंस कॉलोनी की ज़मीन तीन रुपए गज़ मेरे सामने बिकी है, जिसका दाम आज चार सौ रुपए है। निज़ामुद्दीन से ओखला तक जंगल था जंगल। कोई शरीफ़ आदमी रहने को तैयार ही नहीं होता था। अगर उस वक़्त उतना पैसा नहीं था और आज...। सीनियर कैम्ब्रिज में मेरे साथ पॉटी पढ़ता था। अब अगर आप आज उसे देख लें तो मान ही नहीं सकते कि मैं उसका क्लासफ़ेलो और दोस्त था। गोरा-चिट्टा रंग, ए-क्लास सेहत, एक जीप, एंबेसेडर और एक ट्रैक्टर है उसके पास। मिर्ज़ापुर के पास फ़ार्मिंग करवाता है। उस ज़माने में दस रुपए बीघा ज़मीन ख़रीदी थी उसने। मुझ से बहुत कहा था कि तुम भी ले लो डेविड भाई, चार-पाँच सौ बीघा। बिलकुल उसी के फ़ार्म के सामने पाँच सौ बीघे का प्लाट था। ए-क्लास फ़र्टाइल ज़मीन। लेकिन उस ज़माने में मैं कुछ और था।” वह खिसियानी हँसी हँसे, “आज उसकी आमदनी तीन लाख रुपए साल है। अपनी डेरी, अपना मुर्ग़ी-ख़ाना-ठाठ हैं, साब ठाठ।” डेविड साहब ख़ुश हो गए जैसे वह सब उन्हीं का हो। प्रूफ़ के पुलिंदे को उठाकर एक कोने में रखते हुए बोले, “मेरी तो क़िस्मत में इन शानदार कमरे में मिसेज़ डिसूज़ा का किराएदार होना लिखा था।”
मिसेज़ डिसूज़ा को पचास रुपए दो, कमरा मिल जाएगा। पच्चीस रुपए और दो तो सुबह नाश्ता मिल जाएगा और तीस रुपए दो रात का खाना, जिसे मिसेज़ डिसूज़ा अंग्रेज़ी खाना कहती हैं, मिल जाएगा। मिसेज़ डिसूज़ा के कमरे से लगी तस्वीरों को, जो प्राय: उनकी जवानी के दिनों की हैं, किराएदार हटा नहीं सकता। किसी तस्वीर में वह मोमबत्ती के सामने बैठी किताब पढ़ रही हैं, तो किसी में अपने हाथ गोद में रखे शून्य में देखने का प्रयत्न कर रही हैं। कुछ लोगों का परिचय अंग्रेज़ अफ़सर के रूप में करवाती हैं पर देखने में वे सब हिंदुस्तानी लगते हैं। एक चित्र मिसेज़ डिसूज़ा की लड़की का भी है जो डेविड साहब की मेज़ पर रखा रहता है। लड़की वास्तव में कंटाप है। छिनालपना उसके चेहरे से ऐसा टपकता है कि अगर सामने कोई बर्तन रख दे तो दिन में दसियों बार ख़ाली करना पड़े। उसे सिर्फ़ देखकर अच्छे-अच्छे दोनों हाथों से दबा लेते होंगे। कुछ पड़ोस वालों का यह भी कहना है कि इसी तस्वीर को देख-देखकर डेविड साहब ने शादी करने और बच्चा पैदा करने की क्षमता से हाथ धो लिए हैं। मिसेज़ डिसूज़ा देसी ईसाइयों की कई लड़कियाँ उनके लिए खोज चुकी हैं। परंतु सब बेकार। वह तो ढाई सौ वोल्टेज ही के करंट से जल-भुनकर राख हो चुके थे और एक दिन तंग आकर मिसेज़ डिसूज़ा ने मोहल्ले में उनको नामर्द घोषित कर दिया और उनके सामने कपड़े बदलने लगीं।
सुबह का दूसरा नाम होता है जल्दी। जल्दी-जल्दी बिना दूध की चाय के कुछ कप। रात के धोए कपड़ों पर उलटा-सीधा प्रेस। जूते पर पॉलिश। और दिन-भर फ्रूफ़ करेक्ट करते रहने के लिए आँखों की मसाज। फ्रूफ़ के पुलिंदे। करेक्ट किए हुए और प्रेस से आए हुए। फिर करेक्ट किए हुए फिर आए हुए। धम्! साला ज़ोर से गाली दे मारता है, “देख लो बाबू, जल्दी दे दो। बड़ा साहब कॉलम देखना मांगता है।” पूरी ज़िंदगी घटिया क़िस्म के काग़ज़ पर छपा प्रूफ़ हो गई है, जिसे हम लगातार करेक्ट कर रहे हैं।”
घर से बाहर निकलकर जल्दी-जल्दी बस स्टॉप की तरफ़ दौड़ना, जैसे किसी को पकड़ना हो। हम दोनों एक ही नंबर की बस पकड़ते हैं। रास्तें में डेविड साहब मुझसे रोज़ एक-सी बातें करते हैं कि हरी सब्ज़ियों से क्या फ़ायदा है, किस सब्ज़ी में कितना स्टार्च होता है। अंडे और मुर्ग़े खाते रहो तो अस्सी साल की उम्र में भी लड़का पैदा कर सकते हो। बकरी और भैंस के गोश्त का सूक्ष्म अंतर उन्हें अच्छी तरह मालूम है। अंग्रेज़ी खाने के बारे में उनकी जानकारी अथाह है। केक में कितना मैदा होना चाहिए। कितने अंडे डाले जाएँ। मेवा और जेली को कैसे मिलाया जाए। दूध कितना फेंटा जाए। केक की सिकाई के बारे में उनकी अलग धारणाएँ हैं। क्रीम लगाने और केक को सजाने के उनके पास सैकड़ों फ़ार्मूले हैं जिन्हें अब हिंदुस्तान में कोई नहीं जानता। कभी-कभी कहते हैं, “ये साले धोती बांधने वाले, खाना खाना क्या जानें! ढेर सारी सब्ज़ी ले ली, तेल में डाली और खा गए बस, खाना पकाना और खाना मुसलमान जानते हैं या अंग्रेज़। अंग्रेज़ तो चले गए, साले मुसलमानों के पास अब भैंसे का गोश्त खा-खाकर अक़ल मोटी करने के सिवा कोई चारा नहीं है। भैंसे का गोश्त खाओ, भैंसे की तरह अक़ल मोटी हो जाएगी और फिर भैंसे की तरह ही कोल्हू में पिले रहो। रात घर आकर बीवी पर भैंसे की तरह पिल पड़ो।”
आज फिर घूम-फिर कर वह अपने विषय पर आ गए।
“नाश्ता तो हैवी होना ही चाहिए।”
मैंने हामी भरी। इस बात से कोई उल्लू का पट्ठा ही इनकार कर सकता है।
“हैवी और एनरजेटिक?” चलते-चलते वह अचानक रुक गए। एक नए बनते हुए मकान को देखकर बोले, “किसी ब्लैक मार्केटियर का मालूम होता है। फिर उन्होंने अकड़कर जेब से चश्मा निकाला, आँखों पर फ़िट करके मकान की ओर देखा। फ़ायर हुआ ज़ोरदार धमाके के साथ और सारा मकान अड़-अड़ धड़ाम करके गिर गया।”
“बस, एक गिलास दूध, चार-टोस्ट और मक्खन, पौरिज और दो अंडे।” उन्होंने एक लंबी सांस खींची, जैसे गुब्बारे में से हवा निकल गई हो।
“नहीं, मैं आपसे एग्री नहीं करता, फ्रूट जूस बहुत ज़रूरी है। बिना...।”
“फ्रूट जूस? वह बोले, नहीं, अगर दूध हो तो उसकी ज़रूरत नहीं है।”
“पराठे और अंडे का नाश्ता कैसा रहेगा?”
“वैरी गुड, लेकिन पराठे हलके और नर्म हों।”
“और अगर नाश्ते में केक हो?” वह सपाट और फीकी हँसी हँसे।
कई साल हुए। मेरे दिल्ली आने के आसपास। डेविड साहब ने अपनी बर्थ-डे पर केक बनवाया था। पहले पूरा बजट तैयार कर लिया गया था। सब ख़र्च जोड़कर कुल सत्तर रुपए होते थे। पहली तारीख़ को डेविड साहब मैदा, शक्कर और मेवा लेने खारी बावली गए थे। सारा सामान घर में फिर से तौला गया था। फिर अच्छे बेकर का पता लगाया गया था। डेविड साहब के कई दोस्तों ने दरियागंज के एक बेकर की तारीफ़ की तो वह उससे एक दिन बात करने गए बिलकुल उसी तरह जैसे दो देशों के प्रधानमंत्री गंभीर समस्याओं पर बातचीत करते हैं। डेविड साहब ने उसके सामने एक ऐसा प्रश्न रख दिया कि वह लाजवाब हो गया, “अगर तुमने सारा सामान केक में न डाला और कुछ बचा लिया तो मुझे कैसे पता चलेगा?” इस समस्या का समाधान भी उन्होंने ख़ुद खोज लिया। कोई ऐसा आदमी मिले जो बेकर के पास उस समय तक बैठा रहे, जब तक कि केक बनकर तैयार न हो जाए। डेविड साहब को मिसेज़ डिसूज़ा ने इस काम के लिए अपने-आपको कई बार ‘ऑफ़र’ किया। मगर वास्तव में डेविड साहब को मिसेज़ डिसूज़ा पर भी एतिबार नहीं था। हो सकता है बेकर और मिसेज़ डिसूज़ा मिलकर डेविड साहब को चोट दे दें। जब पूरी दिल्ली में ‘मोतबर’ आदमी नहीं मिला तो डेविड साहब ने एक दिन की छुट्टी ली। मैंने इस काम में कोई रुचि नहीं दिखाई थी, इसलिए उन दिनों मुझसे नाराज़ थे और पीठ पीछे उन्होंने मिसेज़ डिसूज़ा से कई बार कहा कि जानता ही नहीं ‘केक’ क्या होता है। मैं जानता था कि केक बन जाने के बाद किसी भी रात को खाने के बाद मुर्ग़ी-ख़ाना खोलने वाली बात करके डेविड साहब को ख़ुश किया जा सकता है या उनके दोस्त के बारे में बात करके उन्हें उत्साहित किया जा सकता है, जिसका मिर्ज़ापुर के पास बड़ा फ़ार्म है और वह वहाँ कैसे रहता है।
‘केक’ बर्थ डे से एक दिन पहले आ गया था। अब उसे रखने की समस्या थी। मिसेज़ डिसूज़ा के घर में चूहे ज़रूरत से ज़्यादा हैं। इस आड़े वक़्त में मैंने उनकी मदद की। अपने टीन के बक्स में से कपड़े निकालकर तौलिए में लपेटकर मेज़ पर रख दिए और बक्स में केक रख दिया गया।
हम सबको उस ‘केक’ के बारे में बातचीत कर लेना बहुत अच्छा लगता है। डेविड साहब तो उसे अपना सबसे बड़ा ‘एचीवमेंट’ मानते हैं। और मैं अपने बक्स को ख़ाली कर देना कोई छोटा कारनामा नहीं समझता। उसके बाद से लेकर अब तक केक बनवाने के कई प्रोग्राम बन चुके हैं। अब डेविड साहब की शर्त यह होती है कि सब ‘शेयर’ करें। ज़्यादा मूड में आते हैं तो आधा ख़र्च उठाने के लिए तैयार हो जाते हैं।
उन्हीं के अनुसार, बचपन से उन्हें दो चीज़ें पंसद रही हैं जॉली और केक। जॉली की शादी किसी कैप्टन से हो गई, तो वह धीरे-धीरे उसे भूलते गए। पर केक अब भी पसंद है। केक के साथ कौन शादी कर सकता है? लेकिन खारी-बावली के कई चक्कर लगाने पर उन्होंने महसूस किया कि केक की भी शादी हो सकती है। फिर भी पसंद करना बंद न कर सके।
दफ़्तर से लौटकर आया तो सारा बदन इस तरह दर्द कर रहा था, जैसे बुरी तरह से मारा गया हो। बाहरी दरवाज़ा खोलने के लए मिसेज़ डिसूज़ा आईं। वह शायद किचन में अपने खटोले पर सो रही थीं। अंदर आँगन में उनके गुप्त वस्त्र सूख रहे थे। “गुप्त वस्त्र” शब्द सोचकर हँसी आई। कोई अंग गुप्त ही कहाँ रह गया है! डी.टी.सी. की बसों में चढ़ते-उतरते गुप्त अंगों के भूगोल का अच्छा-ख़ासा ज्ञान हो गया है। उनकी गरमाहट, चिकनाई, खुरदरेपन, गंदेपन और लुभावनेपन के बारे में अच्छी जानकारी है। “आज जल्दी चले आए।” मिसेज़ डिसूज़ा ‘गुप्त वस्त्र’ उतारने लगीं, “चाय पीयोगे? मैंने अभी तक नहीं पी है।”
“हाँ, ज़रूर।” सोचा अगर साली ने पी ली होती तो कभी न पूछती।
कमरे के अंदर चला आया। पत्थर की छत के नीचे खाने की मेज़ है। जिसके एक पाए की जगह ईंटें लगी हैं। दूसरे पायों को टीन की पट्टियों से जकड़ कर कीलें ठोंक दी गर्इ हैं। रस्सी, टीन, लोहा, तार और ईंटों के सहारे खड़ी मेज़ पहली नज़र में आदिकालीन मशीन-सी लगती है। मेज़ के उपर मिसेज़ डिसूज़ा की सिलाई-मशीन रखी है। खाना खाते समय मशीन को उठाकर मेज़ के नीचे रख दिया जाता है। खाने के बाद मशीन फिर मेज़ पर आ जाती है। रात में डेविड साहब इसी मेज़ पर बैठकर प्रूफ़ देखते हैं। कई गिलास पानी पीते हैं और एक बजते-बजते उठते हैं तो कमरा अकेला हो जाता है। मैं कमरे में रखी सिलाई-मशीन या मेज़ की तरह कमरे का एक हिस्सा बन जाता हूँ।
“ये लो टी, ग्रीनलेबुल है!” मिसेज़ डिसूज़ा ने चाय की प्याली थमा दी।
वह खानों के नाम अंग्रेज़ी में लेती हैं। रोटी को ब्रेड कहती हैं, दाल को, पता नहीं क्यों उन्होंने सूप कहना शुरू कर दिया है। तरकारी को “बॉयल्ड वेजिटेबुल्स” कहती हैं। करेलों को “हॉटडिश” कहती हैं। मिसेज़ डिसूज़ा थोड़ी बहुत गोराशाही अंग्रेज़ी भी बोल लेती हैं, जिससे मोहल्ले के लोग काफ़ी प्रभावित होते हैं। मैंने टी ले ली। मिसेज़ डिसूज़ा आज के ज़माने की तुलना पहले ज़माने से करने लगीं। उन्हें चालीस साल तक पुराने दाम याद हैं। इसके बाद अपने मकान की चर्चा उनका प्रिय विषय है, जिसका सीधा मतलब हम लोगों पर रोब डालना होता है। वैसे रोब डालते वक़्त यह भूल जाया करती हैं कि दोनों कमरे किराए पर उठा देने के बाद वह स्वयं किचन में सोती हैं। मैं उनकी बकवास से तंग आकर बाथरूम में चला गया। अगर डेविड साहब होते तो मज़ा आता। मिसेज़ डिसूज़ा मुँह खोलकर और आँखें फाड़कर मुर्ग़ी-पालन की बारीकियों को समझने का प्रयत्न करतीं।
“ज़ियाद नहीं, सिर्फ़ दो हज़ार रुपए से काम शुरू करे कोई। चार सौ मुर्ग़ियों से शानदार काम चालू हो सकता है। चार सौ अंडे रोज़ का मतलब है कम-से-कम सौ रुपए रोज़। एक महीने में तीन हज़ार रुपए और एक साल में छत्तीस हज़ार रुपए। मैं तो आँटी, लाइफ़ में कभी-न-कभी ज़रूर करूँगा कारोबार। फ़ायदा...? मैं कहता हूँ चार साल में लखपति। फिर अंडे, मुर्ग़ी-खाने का आराम अलग। रोज़ एक मुर्गी काटिए। बीस अंडों की पुडिंग बनाइए। तब यह मकान आप छोड़ दीजिएगा, आँटी। यह भी कोई आदमियों के रहने लायक़ मकान है। फिर तो महारानी बाग़ या बसंत विहार में कोठी बनवाइएगा। एक गाड़ी ले लीजिएगा।”
तब थोड़ी देर के लिए वे दोनों ‘बसंत विहार’ पहुँच जाया करते। बड़ी-सी कोठी के फाटक की दाहिनी तरफ़ पीतल की चमचमाती हुई प्लेट पर एरिक डेविड और मिसेज़ जे. डिसूज़ा के अक्षर इस तरह चमकते जैसे छोटा-मोटा सूरज।
मैं लौटकर आया तो डेविड साहब आ चुके थे। कपड़े बदलकर आँगन में बैठे वह बासु को थोक में गालियँ दे रहे थे, “यह साला बासु इस लायक़ है कि इसका ‘पब्लिक ट्रायल’ किया जाए।” उनकी आँखों में नफ़रत और उकताहट थी। चश्मा थोड़ा नीचे खिसक गया था। उन्होंने अपनी गर्दन अकड़ाकर चश्मा चेहरे पर फ़िट किया। मैंने तिलक ब्रिज के सामने एक पेड़ की बड़ी-सी डाल पर रस्से के सहारे बासु की लाश को झूलते हुए देखा। लहरें मारती भीड़-अथाह भीड़। और कुछ ही क्षण बाद डेविड साहब को एक नन्हें से मुर्ग़ी-ख़ाने में बंद पाया। चारों ओर जालियाँ लगी हुई हैं। और उसके अंदर दो सौ मुर्ग़ियों के साथ डेविड साहब दाना चुग रहे हैं। गर्दन डालकर पानी पी रहे हैं और अंडे दे रहे हैं। अंडों के एक ढेर पर बैठे हैं। मुर्ग़ीख़ाने की जालियों से बाहर ‘बसंत विहार’ साफ़ दिखाई पड़ रहा है।
मैंने कहा, “आप क्यों परेशान हैं डेविड साहब? छोड़िए साली नौकरी को। एक मुर्ग़ी-ख़ाना खोल लीजिए। फिर बसंत विहार में मकान।”
“नहीं-नहीं, मैं बसंत विहार में मकान नहीं बनवा सकता। वहाँ तो बासु का मकान बन रहा है। भाई साहब, यह तो दावा है कि इस देश में बग़ैर चार सौ बीसी किए कोई आदमी की तरह नहीं रह सकता। आदमियों की तरह रहने के लिए आपको ब्लैक मार्केर्टिंग करनी पड़ेगी, लोगों को एक्सप्लायट करना पड़ेगा...अब आप सोचिए, मैं किसी साले से कम काम करता हूँ। रोज़ आठ घंटे ड्यूटी और दो घंटे बस के इंतिज़ार में...।”
“तुम बहुत गाली बकते हो।” मिसेज़ डिसूज़ा बोलीं।
“फिर क्या करूँ आँटी? गाली न बकूँ तो क्या ईशू से प्रार्थना करूँ, जिसने कम-से-कम मेरे साथ बड़ा ‘जोक’ किया है?”
“छोड़िए यार डेविड साहब। कुछ और बात कीजिए। कहीं प्रूफ़ का काम ज़्यादा तो नहीं मिला।”
“ठीक है, छोड़िए। दिल्ली में अभी तीन साल हुए हैं न! कुछ जवानी भी है। अभी शायद आपने दिल्ली की चमक-दमक भी नहीं देखी? क्या हमारा कुछ भी हिस्सा नहीं है उसमें? कनाट प्लेस में बहते हुए पैसे को देखा है कभी?” वह हाथ चला-चलाकर पैसे के बहाव के बारे में बताने लगे, “लाखों-करोड़ों रुपए लोग उड़ा रहे हैं। औरतों के जिस्मों पर से बहता पैसा। कारों की शक्ल में तैरता हुआ।” वह उत्तेजित हो गए, और उन्होंने जेब से चश्मा निकाला, गर्दन अकड़ार्इ और चश्मा आँखों पर फ़िट कर लिया।
मुझे उकताहट होने लगी। तबीअत घबराने लगी, जैसे उम्र एकदम बैठ गई हो। साँस लेने में तकलीफ़ होने लगी। लोहे का सलाख़ोंदार कमरा मुर्ग़ी-ख़ाना लगने लगा जिसमें सख़्त बदबू भर गई हो। मिसेज़ डिसूज़ा कई बार भविष्यवाणी कर चुकी हैं कि डेविड साहब एक दिन हम लोगों को एरेस्ट करवाएँगे और डेविड साहब कहते हैं कि मैं उस दिन का ‘वेलकम’ करूँगा।
ग़ुस्से में लगातार होंठ दबाए रहने के कारण उनका निचला होंठ काफी मोटा हो गया है। चेहरे पर तीन लकीरें पड़ जाती हैं। बचपन में सुना करते थे कि माथे पर तीन लकीरें पड़ने वाला राजा होता है।
कुछ ही देर में वह काफ़ी शांत हो चुके थे। खाने की मेज़ पर उन्होंने ‘बासु की जय’ का नारा लगाया और दो गिलास पानी पी गए। मिसेज़ डिसूज़ा की ‘हॉटडिश’, ‘सूप’ और ‘ब्रेड’ तैयार थी।
“करेले की सब्जी पकाना भी आर्ट है, साब!” डेविड साहब ने ज़ोर-ज़ोर से मुँह चलाया।
“तीन डिश के बराबर एक डिश है।” मिसेज़ डिसूज़ा ने एहसान लादा।
डेविड उनकी बात अनसुनी करते हुए बोले, “करेले खाने का मज़ा तो सीतापुर में आता था आँटी। कोठी के पीछे किचन-गार्डन में डैडी तरह-तरह की सब्ज़ी बुआते थे। ढेर सारी प्याज़ के साथ इन करेलों में अगर क़ीमा भर कर पकाया जाए तो क्या कहना!
हम लोग समझ गए कि अब डेविड साहब बचपन के क़िस्से सुनाएँगे। इन क़िस्सों के बीच नसीबन गवर्नेंस का ज़िक्र भी आएगा जो केवल एक रुपया महीना तनख़्वाह पाकर भी कितनी प्रसन्न रहा करती थी और जिसका मुख्य काम डेविड बाबा की देखभाल करना था और जो डेविड बाबा को दीपक बाबा ही कहती रही। इसी सिलसिले में उस पिकनिक पार्टी का ज़िक्र आएगा जिसमें डेविड बाबा ने जमुना के स्लोप पर गाड़ी चढ़ा दी थी। तजुर्बेकार ड्राइवर इस्माइल ख़ाँ को पसीना छूट आया था। डेविड साब ने उसको डाँटकर गाड़ी से उतार दिया था। सब लड़के और लड़कियाँ उतर गए थे। अंग्रेज़ लड़कों की हिम्मत छूट गई थी। परंतु जूली ने उतरने से इंकार कर दिया था। डेविड बाबा ने गाड़ी स्टार्ट की। दो मिनट सोचा। गियर बदलकर एक्सीलेटर पर दबाव डाला और गाड़ी एक फ़र्राटे के साथ ऊपर चढ़ गई। इस्माइल ख़ाँ ने ऊपर आकर डेविड बाबा के हाथ चूम लिए थे। वह बड़े-बड़े अंग्रेज़ अफ़सरों को गाड़ी चलाते देख चुका था मगर डेविड बाबा ने कमाल ही कर दिया था। जूली ने डेविड बाबा को उसी दिन “किस” देने का प्रॉमिस किया था।
इन बातों को सुनाते समय डेविड साहब की ‘बिटरनेस’ ग़ायब हो जाती है। वह डेविड साहब नहीं, दीपक बाबा लगते हैं। हलकी-सी धूल उड़ती है और सीतापुर की सिविल लाइंस पर बनी बड़ी-सी कोठी के फाटक में 1930 की फ़ोर्ड मुड़ जाती है। फाटक के एक खंभे पर साफ़ अक्षरों में लिखा हुआ है, “पीटर जे. डेविड, डिप्टी कलेक्टर”। कोठी की छत खपरैलों की बनी हुई है। कोठी के चारों ओर कई बीघे का कंपाउंड। पीछे आम और संतरे का बाग़। दाहिनी तरफ़ टेनिस कोर्ट की बाईं तरफ़ बड़ा-सा किचन गार्डन, कोठी के ऊँचे बरामदे में बावर्दी चपरासी ऊँघता हुआ दिखाई पड़ेगा। अंदर हाल में विक्टोरियन फ़र्नीचर और छत पर लटकता हुआ हाथ से खींचने वाला पंखा। दोपहर में पंखा-कुली पंखा खींचते-खींचते ऊँघ जाता है तो मिस्टर पीटर जे. डेविड डिप्टी कलेक्टर अपने विलायती जूतों की ठोकरों से उसके काले बदन पर नीले रंग के फल उगा देते हैं। बाबा लोग टाई बांधकर खाने की मेज़ पर बैठकर चिकन-सूप पीते हैं। खाना खाने के बाद आइसक्रीम खाते हैं और मम्मी-डैडी को गुड नाइट कहकर अपने कमरे में चले जाते हैं। साढ़े नौ बजे के आस-पास 1930 की फ़ोर्ड गाड़ी फिर स्टार्ट होती है। अब वह या तो क्लब चली जाती है या किसी देशी रईस की कोठी के अंदर घुसकर आधी रात को डगमगाती हुई लौटती है।
मिसेज़ डिसूज़ा के मकान की छत के ऊपर से दिल्ली की रोशनियाँ दिखाई पड़ती हैं। सैकड़ों जंगली जानवरों की आँखें रात में चमक उठती है। पानी पीने के लिए नीचे आता हूँ तो डेविड साहब प्रूफ़ पढ़ रहे हैं। मुझे देखकर मुस्कुराते हैं, कलम बंद कर देते हैं और बैठने के लिए कहते हैं। आँखों में नींद भरी हुई है। वह मुझे धीरे-धीरे समझाते हैं। उनके इस समझाने से मैं तंग आ गया हूँ। शुरू-शुरू में तो मैं उनको उल्लू का पट्ठा समझता था, परंतु बाद में पता नहीं क्यों उनकी बातें मेरे ऊपर असर करने लगीं, “भाग जाओ इस शहर से। जितनी जल्दी हो सके, भाग जाओ। मैं भी तुम्हारी तरह कॉलेज से निकलकर सीधे इस शहर में आ गया था राजधानी को जीतने। लेकिन देख रहे हो, कुछ नहीं है इस शहर में, कुछ नहीं। मेरी बात छोड़ दो। मैं कहाँ चला जाऊँ! गाँड़ के रास्ते यह शहर मेरे अंदर घुस चुका है।”
“लेकिन कब तक कुछ नहीं होगा, डेविड साहब?”
“उस वक़्त तक, जब तक तुम्हारे पास देने के लिए कुछ नहीं है। और मैं जानता हूँ, तुम्हारे पास वह सब कुछ नहीं है जो लोगों को दिया जा सकता है।”
मैं लौटकर ऊपर आ जाता हूँ। मेरे पास क्या है देने के लिए? ऊँची कुर्सियाँ, कॉकटेल पार्टियाँ, लंबे-चौड़े लॉन, अंग्रेज़ी में अभिवादन, सूट और टाइयाँ, लड़कियाँ, मोटरें, शॉपिंग! तब ये लोग, जो तंग गलियारों में मुझसे वादे करते हैं, मुस्कुराते हैं, कौन हैं? इसके बारे में फिर सोचना पड़ेगा। और काफ़ी देर तक फिर मैं सोचने का साहस जुटाता हूँ। परंतु वह पीछे हटता जाता है। मैं उसकी बाँहें पकड़कर आगे घसीटता हूँ। एक बिगड़े हुए ख़च्चर की तरह वह अपनी रस्सी तुड़ाकर भाग निकलता है।
मैं फिर पानी के लिए नीचे उतरता हूँ। अपनी मेज़ पर सिर रखे वह सो रहे हैं। प्रूफ़ का पुलिंदा सामने पड़ा है। मैं उनका कंधा पकड़कर जगा देता हूँ, “अब सो जाइए। कल आपको साइट देखने जाना है।” उनके चेहरे पर मुस्कुराहट आती है। कल वह मुर्ग़ी-ख़ाना खोलने की साइट देखने जा रहे हैं। इससे पहले भी हम लोग कई साइट देख चुके हैं। डेविड साहब उठकर पानी पीते हैं। फिर अपने पलंग पर इस तरह गिर पड़ते हैं जैसे राजधनी के पैरों पर पड़ गए हों।
मैं फिर ऊपर आकर लेट जाता हूँ, “मैंने कॉलेज में इतना पढ़ा ही क्यों? इतना और उतना की बात नहीं है, मुझे कॉलेज में पढ़ना ही नहीं चाहिए था और अब दो साल तक ढाई सौ रुपए की नौकरी करते हुए क्या किया जा सकता है? मैं क्यों मुस्कुराता और क्यों शाँत रहा? दो साल से दोपहर का खाना गोल करते रहने के पीछे क्या था?” नीचे से भैंस के हगने की आवाज़ आती है। एक परिचित गंध फैल जाती है। उस अर्द्धपरिचित क़स्बे की गंध, जिसे मैं अपना घर समझता हूँ, जहाँ मुझे बहुत ही कम लोग जानते हैं। उस छोटे से स्टेशन पर यदि मैं उतरूँ तो गाड़ी चली जाने के बाद कई लोग मुझे घूर कर देखेंगे। और इक्का-दुक्का इक्के वाले भी मुझसे बात करते डरेंगे। उनका डर दूर करने के लिए मुझे अपना परिचय देना पड़ेगा अर्थात अपने पिता का परिचय देना पड़ेगा। तब उनके चेहरे पर मुस्कुराहट आएगी और वे मुझे इक्के पर बैठने के लिए कहेंगे। दस मिनट इक्का चलता रहेगा तो सारी बस्ती समाप्त हो जाएगी। उस पार खेत हैं जिनका सीधा मतलब है उस पार ग़रीबी है। वे ग़रीबी के अभ्यस्त हैं। पुलिस उनके लिए सर्वशक्तिमान है और अपनी हर होशियारी में वे काफ़ी मूर्ख हैं...ऊपर आसमान में पालम की ओर जाने वाले हवाई जहाज़ की संयत आवाज़ सुनाई पड़ती है। नीचे सड़क पर बालू वाले ट्रक गुज़र रहे हैं। लदी हुई बालू के ऊपर मज़दूर सो रहे हैं, जो कभी-कभी किसान बन जाने का स्वप्न देख लेते हैं, अपने गाँव की बात करते हैं, अपने खेतों की बात करते हैं, जो कभी उनके थे। ट्रक तेज़ी से चलता हुआ ओखला मोड़ से मथुरा रोड पर मुड़ जाएगा। फ्रेंड्स कालोनी और आश्रम होता हुआ ‘राजदूत’ होटल के सामने से गुज़रेगा जहाँ रात-भर कैबरे और रेस्तराँ के विज्ञापन नियॉनलाइट में जलते-बुझते रहते हैं। उसी के सामने फुटपाथ पर बहुत से दुबले-पतले, काले और सूखे आदमी सोते हुए मिलेंगे, जिनकी नींद ट्रक की कर्कश आवाज़ से भी नहीं खुलती। ऊपर तेज़ बल्ब की रोशनी में उनके अंग-प्रत्यंग बिखरे दिखाई पड़ते हैं। मैं अक्सर हैरान रहता हूँ कि वे इस चौड़े फुटपाथ पर छत क्यों नहीं डाल लेते। उसके चारों ओर, कच्ची ही सही दीवार तो उठाई जा सकती है। इन सब बातों पर सरसरी निगाह डाली जाए, जैसी कि हमारी आदत है, तो इनका कोई महत्व नहीं है। बेवक़ूफ़ी और भावुकता से भरी बातें। परंतु यदि कोई ऊपर से कीड़े की तरह फुटपाथ पर टपक पड़े तो उसका समझ में सब कुछ आ जाएगा।
दिन इस तरह गुज़रते हैं जैसे कोई लंगड़ा आदमी चलता है। और तब इस महानगरी में अपने बहुत साधारण और असहाय होने का भाव सब कुछ करवा लेता है। और अपमान, जो इस महानगर में लोग तफ़रीहन कर देते हैं, अब उतने बुरे नहीं लगते, जितने पहले लगते थे। ऑफ़िस में अधिकारी की मेज़ पर तिवारी का सुअर की तरह गंदा मुँह, जो एक ही समय में पक्का समाजवादी भी है और प्रो-अमरीकन भी। उसकी तंग बुशर्ट में से झाँकता हुआ हराम की कमाई का पला तंदुरुस्त जिस्म और उसकी समाजवादी लेखनी जो हर दूसरी पंक्ति केवल इसलिए काट देती है कि वह दूसरे की लिखी हुई है। उसका रोब-दाब, गंभीर हँसी, षड्यंत्र-भरी मुस्कान और उसकी मेज़ के सामने उसके साम्राज्य में बैठे हुए चार निरीह प्राणी, जो क़लम घिसने के अलावा और कुछ नहीं जानते। उन लोगों के चेहरे के टाइपराइटरों की खड़खड़ाहट। इन सब चीज़ों को मुट्ठी में दबाकर ‘क्रश’ कर देने को जी चाहता है। भूख भी कमबख़्त लगती है तो इस जैसे सारे शहर का खाना खाकर ही ख़त्म होगी। शुरू में पेट गड़गड़ाता है। यदि डेविड साहब होते तो बात यहीं पे झटक लेते, “जी, नहीं, भूख जब ज़ोर से लगती है तो ऐसा लगता है जैसे बिल्लियाँ लड़ रही हों। फिर पेट में हलका-सा दर्द शुरू होता है जो शुरू में मीठा लगता है। फिर दर्द तेज़ हो जाता है। उस समय यदि आप तीन-चार गिलास पानी पी लें तो पेट कुछ समय के लिए शाँत हो जाएगा और आप दो-एक घंटा कोई भी काम कर सकते हैं।
इतना सब-कुछ कहने के बाद वह अवश्य सलाह देंगे कि इस महानगरी में भूखे मरने से अच्छा है कि मैं लौट जाऊँ। लेकिन यहाँ से निकलकर वहाँ जाने का मतलब है एक ग़रीबी और भुखमरी से निकलकर दूसरी भुखमरी में फँस जाना। इसी तरह की बहुत सारी बातें एक साथ दिमाग़ में कबड्डी खेलती रहती हैं। तंग आकर ऐसे मौक़े पर डेविड साहब से पूछता हूँ, “ग्रेटर कैलाश की मार्केट चल रहे हैं?”
वह मुस्कुराते हैं और कहते हैं, “अच्छा, तैयार हो जाऊँ।” मैं जानता हूँ उनके तैयार होने में काफ़ी समय लगेगा। इसलिए मैं बड़े प्रेम से जूते पॉलिश करता हूँ। एक मैला कपड़ा लेकर जूते की घिसाई करता हूँ। जूते में अपनी शक्ल देख सकता हूँ। टिप-टाप होकर डेविड साहब से पूछता हूँ, ‘तैयार हैं?’
हम दोनों बस-स्टॉप की तरफ़ जाते हुए एक-दूसरे के जूते देखकर उत्साहित होते हैं। एक अजीब तरह का साहस आ जाता है।
ग्रेटर कैलाश की मार्किट की हर दूकान का नाम हमें ज़बानी याद है। बस से उतरकर हम पेशाब-ख़ाने में जाकर अपने बाल ठीक करते हैं। वह मेरी ओर देखते हैं। दो जोड़ा चमचमाते जूते बरामदे में घूमते हैं। मैं फर्नीचर की दूकान के सामने रुक जाता हूँ। थोड़ी देर तक देखता रहता हूँ। डेविड साहब अंदर चलने के लिए कहते हैं और मैं सारा साहस बटोर कर अंदर घुस जाता हूँ। यहाँ के लोग बड़े सभ्य हैं। एक वाक्य में दो बार ‘सर’ बोलते हैं। चमकदार जूते दूकान के अंदर टहलते हैं। डेविड साहब यहाँ कमाल की अंग्रेज़ी बोलते हैं, कंधे उचकाकर और आँखें निकालकर। चीज़ों को इस प्रकार देखते हैं जैसे वे काफ़ी घटिया हों। मैं ऐसे मौक़ों पर उनसे प्रभावित होकर उन्हीं की तरह बिहेव करने की कोशिश करता हूँ।
कंफ़ेक्शनरी की दूकान के सामने वह बहुत देर तक रुकते हैं। शो-विंडो में सब कुछ सजा हुआ है। पहली बार में भ्रम हो सकता है कि सारा सामान दिखावटी है, मिट्टी का, परंतु निश्चय ही ऐसा नहीं है।
“जल्दी चलिए। साला देखकर मुस्कुरा रहा है।”
“कौन?” डेविड साहब पूछते हैं, मैं आँख से दूकान के अंदर इशारा करता हूँ और वह अचानक दूकान के अंदर घुस जाते हैं। मैं हिचकिचाहट के साथ बरामदे में आगे बढ़ जाता हूँ। “पकड़े गए बेटा! बड़े लाटसाहब की औलाद बने फिरते हैं। उनकी जेब में दस पैसे का बस का टिकट और कुल साठ पैसे निकलते हैं। सारे लोग हँस रहे हैं। डेविड साहब ने चमचमाता जूता उतारकर हाथ में पकड़ा और दूकान से भागे।” मैं साहस करके दूकान के अंदर जाता हूँ। डेविड साहब दूकानदार से बहुत फ़र्राटेदार अंग्रेज़ी बोल रहे हैं और वह बेचारा घबरा रहा है। मैं ख़ुश होता हूँ। “ले साले, कर दिया न डेविड साहब ने डंडा! बड़ा मुस्कुरा रहे थे।” डेविड साहब अंग्रेज़ी में उससे ऐसा केक माँग रहे हैं जिसका नाम उसके बाप, दादा, परदादा ने भी कभी न सुना होगा।
बाहर निकलकर डेविड साहब ने मेरे कंधे पर हाथ रख दिया।
रोज़ की तरह खाने की मेज़ पर यहाँ से वहाँ तक विलायती खाने सजे हुए हैं। मिसेज़ डिसूज़ा का मूड़ कुछ आफ़ है। कारण केवल इतना है कि मैं इस महीने की पहली तारीख़ को पैसा नहीं दे पाया हूँ। एक-आध दिन मुँह फूला रहेगा। फिर वे महँगाई के क़िस्से सुनाने लगेंगी। चीज़ों की बढ़ती क़ीमतें सुनते हम लोग तंग आ जाएँगे।
बात करने के लिए कुछ ज़रूरी था और चुप टूटती नहीं लग रही थी तो मिसेज़ डिसूज़ा ने पूछा, “आज तुम डिफ़ेंस कॉलोनी जाने वाले थे?”
“नहीं जा सकता।” डेविड साहब ने मुँह उठाकर कहा।
“अब तुम्हारा सामान कैसे आएगा?” मिसेज़ डिसूज़ा बड़बड़ाईं, “बेचारी कैथी ने कितनी मोहब्बत से भेजा है।”
“मोहब्बत से भिजवाया है, आँटी?” डेविड साहब चौंके, “आँटी, उसका हस्बैंड दो हज़ार रुपए कमाता है। कैथी एक दिन बाज़ार गई होगी। सवा सौ रुपए की एक घड़ी और दो क़मीज़ें ख़रीद ली होंगी। और डीनू के हाथ दिल्ली भिजवा दीं। इसमें मोहब्बत कहाँ से आ गई?”
“मगर तुम उन्हें जाकर ले तो जाओ।”
“डीनू उस सामान को यहाँ ला सकता है।”
डीनू का डिफ़ेंस कॉलोनी में अपना मकान है। कार है। डेविड साहब का बचपन का दोस्त है। वह उस शिकार पार्टी में भी था, जिसमें हाथी पर बैठकर डेविड साहब ने फ़्लाइंग शॉट में चार गाजें गिरा दी थीं।
“डिफ़ेंस कॉलोनी से यहाँ आना दूर पड़ेगा। और वह बिजी आदमी है।”
“मैं बिज़ी प्रूफ़रीडर नहीं हूँ?” वह हँसे, “और वह तो अपनी कार से आ सकता है, जबकि मुझे दो बसें बदलनी पड़ेंगी।” वह दाल-चावल इस तरह खा रहे थे, जैसे ‘केक’ की याद में हस्तमैथुन कर रहे हों।
“जैसी तुम्हारी मर्ज़ी।”
खाना ख़त्म होने पर कुछ देर के लिए महफ़िल जम गई। मिसेज़ डिसूज़ा पता नहीं कहाँ से उस बड़े ज़मींदार का ज़िक्र ले बैठीं जो जवानी के दिनों में उन पर दिल-ओ-जान से आशिक़ था, और उनके अवकाश प्राप्त कर लेने के बाद भी एक दिन पता लगाता हुआ दिल्ली के उनके घर आया था। वह पहला दिन था जब इस मकान के सामने सेकेंड-हैंड एंबेसडर खड़ी हुई थी और डेविड साहब को किचन में सोना पड़ा था। उस ज़मींदार का ज़िक्र डेविड साहब को बड़ा भाता है। मैं तो फ़ौरन उस ज़मींदार की जगह अपने-आपको ‘फ़िट’ करके स्थिति का पूरा मज़ा उठाने लगता हूँ।
कुछ देर बाद इधर-उधर घूम-घामकर बात फिर खानों पर आ गई। डेविड साहब सेंवई पकाने की तरकीब बताने लगे। फिर सबने अपने-अपने प्रिय खानों के बारे में बात की। सबसे ज़्यादा डेविड साहब बोले।
खाने की बात समाप्त हुई तो मैंने धीरे से कहा, “यार डेविड साहब, इस गाँव में कोई लड़की ऐसी नज़र पड़ जाती है कि पाँव कांपने लगते हैं।”
“कैसी थी, मुझे बताओ? छिद्दू की बहू होगी या...।”
“बस डेविड, तुम लड़कियों की बात न किया करो। मैंने कितनी ख़ूबसूरत लड़की से तुम्हारा ‘इंगेजमेंट’ तय किया था।”
“क्या ख़ूबसूरती की बात करती हैं आँटी! अगर जूली को आपने देखा होता...।”
“जूली? ख़ैर, उसको तो मैंने नहीं देखा। तुमने अगर मेरी लड़की को देखा होता।” उनकी आँखें डबडबा आईं, “मगर वह हाजी उसे...” कुछ देर बाद बोलीं, “अगर वह होती तो यह दिन न देखना पड़ता। मैं उसकी शादी किसी मिलिटरी अफ़सर से कर देती। उससे तो कोई भी शादी कर सकता था।”
“मैं शादी कैसे कर लूँ आँटी? दो सौ पचहत्तर रुपए इक्कीस पैसे से एक पेट नहीं भरता। एक और लड़की की जान लेने से क्या फ़ायदा। मेरी ज़िंदगी तो गुज़र ही जाएगी। मगर मैं यह नहीं चाहता कि अपने पीछे एक ग़रीब औरत और दो-तीन प्रूफ़रीडर छोड़कर मर जाऊँ जो दिन-रात मशीनों की कान फाड़ देने वाली आवाज़ में बैठकर आँखें फोड़ा करें।” वह कुछ रुके, “यही बात मैं इनसे कहता हूँ।” उन्होंने मेरी ओर संकेत किया, “इस आदमी के पास गाँव में थोड़ी-सी ज़मीन है जहाँ गेहूँ और धान की फ़सल होती है। इसको चाहिए कि अपने खेत के पास एक कच्चा घर बना ले। उसके सामने एक छप्पर डाल ले, बस, उस पर लौकी की बेल चढ़ानी पडेगी। देहात में आराम से एक भैंस पाली जा सकती है। कुछ दिनों बाद मुर्ग़ी-ख़ाना खोल सकते हैं। खाने और रहने की फ़िक्र नहीं रह जाएगी। ठाठ से काम करे और खाएँ।”
“उसके बाद आप वहाँ आइएगा तो ‘केक’ बनाया जाएगा। बहुत से अंडे मिलाकर” मैंने मज़ाक़ किया।
दीपक बाबा हँसने लगे। बिलकुल बच्चों की-सी मासूम हँसी।
- पुस्तक : हिन्दी कहानी संग्रह (पृष्ठ 374)
- संपादक : भीष्म साहनी
- रचनाकार : असग़र वज़ाहत
- प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
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