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बोर्डिंग हाउस

borDing haus

जेम्स जॉयस

जेम्स जॉयस

बोर्डिंग हाउस

जेम्स जॉयस

और अधिकजेम्स जॉयस

    श्रीमती मूनी एक कसाई की बेटी थीं। वो ऐसी औरत थीं जो बात दबाकर रख सकती थीं, इरादे की पक्की भी। उन्होंने अपने पिता के फ़ोरमैन से शादी कर ली और एक कसाई की दुकान खोल ली स्प्रिंग गार्डन के पास ही। लेकिन ससुर की मौत के बाद से ही श्रीमान मूनी पर जैसे शैतान सवार हो गया। वह पीने लगे, दुकान के पैसे बरबाद करने लगे और उधार में डूबने लगे। उन्हें क़सम-तौबा दिलाने का कोई फ़ायदा नहीं था—वह सब क़समें तोड़ देते थे। ग्राहकों के सामने ही अपनी बीवी से झगड़ने और ख़राब मीट ख़रीदने की वजह से उन्होंने अपना कारोबार ठप कर लिया था। एक रात अपनी बीवी के पीछे हँसिया लेकर दौड़ पड़े और श्रीमती मूनी को अपने पड़ौसी के घर शरण लेनी पड़ी।

    उस दिन के बाद दोनों अलग रहने लगे। वह पादरी के पास गईं और पति से तलाक ले लिया बच्चों की देखभाल की ज़िम्मेदारी के साथ। वह उन्हें पैसे देती थीं, खाना और घर में जगह। और इसीलिए मजबूरन उन्हें अपना नाम शेरिफ़ के आदमी के रूप में दर्ज़ करना पड़ा। वह एक बेतरतीब झल्ले से, कुछ झुके से पियक्कड़ इंसान थे, जिसके बेरंग सफ़ेद चेहरे पर सफ़ेद मूछें थीं और छोटी-छोटी गुलाबी डोरों वाली अधमुँदी आँखों के ऊपर सफ़ेद भँवें थीं पेंसिल से खिंची लाइन जैसी, और सारादिन वह बेलिफ़ के कमरे में बैठे गुज़ारते किसी काम में लगाए जाने की प्रतीक्षा में श्रीमती मूनी, जिन्होंने कसाई के कारोबार से बचे-खुचे पैसे समेटे और एक बोर्डिंग हाउस खोल लिया था। वे हार्डविक स्ट्रीट पर, काफ़ी लंबी-चौड़ी रौबदार औरत थीं। उनके यहाँ लोगों की संख्या ज्वार-भाटे-सी घटती-बढ़ती रहती थी, जिनमें लिवरपूल और आइल ऑफ मैन से आए सैलानी और कभी-कभी म्यूज़िक हॉल के कलाकार होते थे। वहाँ के स्थाई वाशिंदे थे शहर से आए हुए क्लर्क लोग। वह बड़ी बुद्धिमत्ता से और सख़्ती से घर चलाती थीं और जानती थीं कि कहाँ तारीफ़ करनी है, कब कड़ाई से पेश आना है और कहाँ देखी-अनदेखी करनी है। वहाँ रहने वाले सारे लड़के उन्हें ‘मैडम’ कहते थे।

    ये लड़के हफ़्ते भर के रहने-खाने के एवज़ में पन्द्रह शिलिंग देते थे (रात के खाने में बीयर और स्टाउट के दाम अलग थे) उन लोगों की एक जैसी पसंद और एक जैसा कारोबार था, इसी वजह से वो सब एक-दूसरे के काफ़ी दोस्त बन गए थे। वो आपस में अपनी पसंद-नापसंद के लोगों की चर्चा करते। जैक मूनी, मैडम का बेटा, जो फ्लीट स्ट्रीट में एक कमीशन एजेंट के यहाँ क्लर्क था, अपने कड़क स्वभाव के कारण जाना जाता था। उसे सिपाहियों जैसी गंदी गालियाँ देनी पसंद थीं। वह अक्सर पौ फटे ही घर वापस लौटता। दोस्तों से जब भी मिलता, वह हमेशा कोई कोई रसीली कहानी सुनाता और अच्छी चीज़ों के बारे में अपनी पारखी नज़र पर उसे बड़ा भरोसा था—जीतने वाले घोड़े की बात हो या उभरते कलाकार की। वह हाथ चलाने में काफ़ी माहिर था और मज़ाकिया गीत गाता था। कई रविवार की रातों को श्रीमती मूनी की सामने वाली बैठक में सब मिलकर बैठते थे। म्यूज़िक हॉल के कलाकार भी साथ हो लेते थे संगीत सुनाने के लिए और शेरिडैन अपने ख़्याल से हेर-फेर करता हुआ वाल्ट्ज और पोल्का बजा कर साथ-संगत करता था। पॉली मूनी, मैडम की बेटी, भी गाती थी। उसने गाया—

    I’m a...naughty girl

    इक नटखट लड़की...हूँ मैं।

    आँखें चुराओ तुम:

    मैं हूँ ये जान लो तुम।

    पॉली एक छरहरे बदन की उन्नीस साल की लड़की थी; उसके हल्के रंग के मुलायम बाल थे और भरा-भरा छोटा-सा मुँह था। उसकी आँखें, जो हरापन लिए हुए स्लेटी रंग की थीं, आदतन इस ढंग से ऊपर की ओर देखती थीं। जब भी वह किसी से बात करती, वह एक बिगड़ैल कुमारी कन्या-सी दिखती थी। श्रीमती मूनी ने पहले अपनी बेटी को टाइपिस्ट के काम के लिए मक्के के व्यापारी के दफ़्तर में भेजा, लेकिन एक बदनाम-सा, शेरिफ़ की दया पर जीता, आदमी हर दूसरे दिन इजाज़त माँग कर बेटी से कुछ कहने को आने लगा, तो उन्होंने बेटी को वापस घर पर बिठा लिया बोर्डिंग हाउस के काम में हाथ बँटाने के लिए। पॉली काफ़ी हँसमुख थी। माँ का इरादा था कि उसका लड़कों से मिलना-जुलना हो। और फिर, जवान लड़के अपने इर्द-गिर्द किसी जवान लड़की की मौजूदगी पसंद भी करते हैं।

    पॉली लड़कों से घुल-मिल गई। लेकिन श्रीमती मूनी, जो जाँचने के मामले में काफ़ी चालाक थीं, जानती थीं कि ये लड़के सिर्फ़ समय गुज़ार रहे हैं, कोई भी उनके मतलब का नहीं। ऐसे ही काफ़ी समय गुज़र गया और श्रीमती मूनी टाइपराइटिंग के लिए पॉली को फिर से भेजने की बात सोचने लगी थीं कि उन्हें पॉली और एक लड़के के बीच कुछ-कुछ होता हुआ नज़र आया। उन्होंने जोड़ी पर नज़र रखी और अपनी सोच को अपने आप तक रखा।

    पॉली जानती थी कि उस पर नज़र रखी जा रही है, फिर भी उसकी माँ की लगातार ख़ामोशी के बारे में उसे गलतफ़हमी नहीं थी। माँ-बेटी में कभी भी कोई खुल्लमखुल्ला साँठ-गाँठ नहीं थी, कोई आपसदारी भी नहीं। लेकिन हालाँकि हाउस के लोग इस अफेयर को लेकर बातें भी बनाने लगे, फिर भी श्रीमती मूनी बीच-बचाव को नहीं आईं। पॉली की चाल-ढाल कुछ अजीब-सी होने लगी और वह लड़का तो सचमुच परेशान-सा दिखने लगा। आखिर, जब उन्हें लगा कि यह सही समय है, श्रीमती मूनी ने हस्तक्षेप किया। वह सही-ग़लत के सवाल को उसी तरह से सुलझाती थीं, जिस तरह से हँसुआ माँस की साफ़-सफ़ाई करता था, और इस मसले पर उनको क्या करना है, इसका निश्चय हो गया था।

    गर्मियों की शुरुआत की वह एक उजली-उजली सुबह थी रविवार की, जिसमें गरमाहट की आँच थी, पर ताज़ी हवा के झोंके भी थे। बोर्डिंग हाउस की सारी खिड़कियाँ खुली थीं और लेस के पर्दे कुछ ऊँचे बँधे सैश के नीचे गुब्बारों जैसे फूल-फूल कर सड़क की ओर लहरा रहे थे। जॉर्जस् चर्च का घड़ियाल लगातार बजता रहा और इबादत के लिए लोग अकेले या झुँड में ग़िरजे के सामने वाले छोटे गोल-चक्कर के आस-पास जाते दिखे। नज़र पड़ते ही उनके उद्देश्य का पता लगाना आसान कर रही थी उन सबके हाथों में छोटी-सी बाइबिल की किताब। बोर्डिंग हाउस में सुबह का नाश्ता निपट चुका था और नाश्ते के कमरे की मेज़ तश्तरियों से भरी पड़ी थीं, जिन पर अंडों की ज़र्दी के साथ बेकन की चर्बी के टुकड़े और छिलके लिपटे पड़े थे। श्रीमती मूनी बेंत की कुर्सी पर बैठी नौकरानी मेरी को नाश्ते की मेज़ साफ़ करते हुए देख रही थीं। उन्होंने मेरी को ब्रेड के चूरों और टुकड़ों को मंगलवार की ब्रेड-पुडिंग के लिए इकट्ठा करके रखने की हिदायत दी। जब मेज़ साफ़ हो गई, रोटी के टुकड़े इकट्ठे कर लिए गए, चीनी और मक्खन ताले और चाभी से सुरक्षित जगह पहुँचा दिए गए, वह पिछली रात पॉली से हुई बातचीत तरतीब से याद करने लगीं। उनका संदेह ठीक ही निकला। उन्होंने बेधड़क सीधे-पैने सवाल किये और पॉली ने खुल्लमखुल्ला जवाब दिया।

    उनको बड़ा अजीब लगा अपने सवाल का बेधड़क जवाब सुनना। वह ऐसा महसूस होने देना नहीं चाहती थीं कि यह एक साज़िश है। और पॉली को सिर्फ़ इसलिए अजीब नहीं लग रहा था कि इस तरह के ख़्याल उसे हमेशा अजीब लगते थे, लेकिन इसलिए भी कि वह यह नहीं लगने देना चाहती थी कि अपने समझदार अल्हड़पन में उसने अपनी माँ के धीरज के पीछे छिपे इरादों को भाँप लिया था।

    श्रीमती मूनी की नज़र अपने आप ही मैंटलपीस पर रखे सोने के जल चढ़ी छोटी-सी घड़ी पर पड़ी, जैसे ही अपने ख़यालों की दुनिया में भी उनको गिरजे के घड़ियाल के ख़ामोश होने का अहसास हुआ। उस समय ग्यारह बज कर सत्रह मिनट हुए थे। उनके पास काफ़ी समय था श्री डोरैन से बातचीत करने का और बारह बजे से पहले ही मार्लबोरो स्ट्रीट पहुँचने का। उन्हें पूरा भरोसा था—जीत उन्हीं की होगी। छूटते ही तो उनका पलड़ा भारी रहेगा, क्योंकि उनकी ओर समाज और जनमत है, क्योंकि वो एक ऐसी माँ हैं, जिसकी इज़्ज़त पर हमला हुआ है। उन्होंने उसे अपनी छत के नीचे रहने की इजाज़त दी इस विश्वास से कि वह एक इज़्ज़तदार आदमी है। और उसने उनकी मेहमाननवाज़ी का ऐसा बदला दिया। उसकी उम्र चौंतीस-पैंतीस की है, इसलिए तो कच्ची उम्र का बहाना ही खड़ा कर सकेगा और ना ही नातजुर्बेकारी को बहाना बना सकेगा, क्योंकि उसने दुनिया कुछ तो देखी ही है। उसने पॉली की कच्ची उम्र और भोलेपन का पूरा फ़ायदा उठाया है; यह तो बिल्कुल साफ़ है। अब सवाल यह था—इसकी क्या भरपाई करेगा वह?

    इन मामलों की भरपाई होनी चाहिए। आदमियों के लिए तो सात ख़ून माफ़ हैं, वह तो अपनी राह ऐसे चल देगा, जैसे कुछ हुआ ही नहीं मज़ा लूटने के बावजूद। लेकिन बेचारी लड़की को सब झेलना पड़ता है। कुछ माँएँ ऐसे हालात में कुछ रुपयों के बदले मामले को दबा कर संतुष्ट हो लेती हैं। उन्हें ऐसे कई वाक़ए मालूम हैं, लेकिन वो ऐसा नहीं करेंगीं। उनके हिसाब से एक ही रास्ते उनकी बेटी की खोई इज़्ज़त का हिसाब पूरा हो सकता है—वह है शादी।

    उन्होंने अपने दाँव के पत्ते फिर से गिन लिए। वो मेरी को डोरैन के कमरे में भेजेंगी कि वह उससे बात करना चाहती हैं। उनको भरोसा हुआ कि वह ज़रूर जीतेंगी। वह एक संजीदा आदमी था, दूसरे लड़कों-सा बदतमीज़ या चिल्लाकर बोलने वालों में नहीं था। अगर वो होकर शेरिडैन या मीड या बैनटैम लियोन्स होता तो उनका काम काफ़ी मुश्किल हो जाता। उन्हें नहीं लगता कि इस बात की लोग चर्चा करें, ऐसा वह सह पाएगा। बोर्डिंग हाउस में रहने वाले सभी लोगों को इस वाक़ए का पता चल चुका था, कुछ तो उसमें मिर्च-मसाला भी लगा रहे थे। उधर वह पिछले तेरह वर्षों से ग्रेट कैथलिक वाइन मर्चेंट के दफ्तर में नौकरी कर रहा था और ऐसी चर्चा उसके लिए काफ़ी मायने रखती थी, शायद नौकरी से हाथ भी धोना पड़े। जबकि अगर वह राज़ी हो जाए तो सब ठीक हो जाएगा। उन्हें मालूम था उसे अच्छी भली तनख़्वाह मिलती है और अंदेशा था कि काफ़ी कुछ जमा भी कर रखा था उसने।

    क़रीब आधा घंटा! वह खड़ी हो गई और शीशे में अपना मुआयना किया। अपने चौड़े, तमतमाए से चेहरे का भाव, जिससे उनका पक्का इरादा झलक रहा था, उन्हें संतुष्टि दे गया और उन्हें अपनी परिचित कुछ माँओं का ख़याल आया, जो अपनी बेटियों का बोझ उतार नहीं सकी थीं।

    इस रविवार की सुबह डोरैन बहुत परेशान था। उसने दो बार दाढ़ी बनाने की कोशिश की, लेकिन उसके हाथ इतने काँप रहे थे कि मजबूरन इरादा बदलना पड़ा। तीन दिन की बासी सुर्ख रंग की दाढ़ी उसकी ठुड्डी पर उगी थी और हर दो-तीन मिनट पर उसके चश्मे पर भाप बनती, जिसकी वजह से उन्हें उतारकर जेब से रूमाल निकाल कर पोंछना पड़ रहा था। पिछली रात का कन्फ़ेशन उसकी पीड़ा का कारण था। पादरी ने इस प्रेम कहानी की छोटी से छोटी बात भी उगलवाकर उसके पाप को इतना बढ़ा-चढ़ा कर दिखाया कि वह उस समय शुक्रगुज़ार-सा हुआ, जब उसे सुधार के रास्ते की दिशा दी गई। जो होना था सो हो गया। अब वह क्या कर सकता था उससे शादी या पलायन? वह इसका सामना नहीं कर पा रहा था। इस दास्ताने-इश्क की चर्चा तो ज़रूर होगी और उसका मालिक भी ज़रूर सुनेगा। डबलिन इतना छोटा शहर है; हरेक को हर किसी की ख़बर है यहाँ। अपनी ख़याली परेशानी में उसने अपने मालिक श्री लियोनार्ड को खुरदुरी आवाज़ में पुकार कर कहते सुना! ‘डोरैन को यहाँ भेजो, प्लीज़!’

    उसकी इतने दिन की नौकरी बिना बात के चली गई। इतनी मेहनत और लगन बेकार गई। जवानी में उसने ज़रूर बबूल का बीज बोया था, अपनी आधुनिक सोच को लेकर अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बना था, ईश्वर के लिए अनास्था की बात को खुल्लमखुल्ला अपने साथियों से कहा था। पर वह तो कब की बाते हैं, भूली-बिसरी...क़रीब-क़रीब। वह अब भी हर हफ़्ते रेनॉल्ड्स के अख़बार की एक प्रति ख़रीदता था, लेकिन अपने धार्मिक कर्तव्यों को भी निभाता। और सालभर कमोवेश क़ायदे से रहता। उसके पास इतने पैसे थे कि वह ठीक से रह सकता था। बात यह नहीं थी, दरअसल उसके परिवार के लोग इस लड़की को नीची निगाह से देखेंगे। एक उसका बदनाम बाप, उस पर उसकी माँ का यह बोर्डिंग हाउस जिसकी काफ़ी चर्चा शुरू हो गई थी। उसे यह अंदेशा था कि उसे फँसाया जा रहा है। वह कल्पना में अपने दोस्तों की बातचीत और हँसी सुनता। पॉली कुछ हद तक फूहड़ थी। कभी-कभी वह कहती ‘मैं देखी’ और ‘अगर मुझे पता था’। लेकिन व्याकरण का प्रेम से क्या वास्ता? वह इसी उधेड़बुन में था कि उस लड़की ने उसके साथ जो कुछ किया उसके लिए उसे प्यार करे या नफ़रत! वह ख़ुद भी ज़िम्मेदार है इसका, ज़रूर। उसकी अंदर की आवाज़ कह रही थी आज़ाद रहो, शादी करो। एक बार शादी हो गई तो काम तमाम हुआ, आत्मा चेतावनी दे रही थी।

    असहाय-सा वह जिस समय बिस्तर के एक किनारे अपनी पतलून-क़मीज़ में बैठा था, पॉली ने दरवाज़े पर हल्की दस्तक दी और अंदर आई। उसने सब बता दिया उसे, यही कि उसने अपनी माँ से दिल खोलकर बात की है और यह कि उसकी माँ बात करना चाहती हैं उससे, उसी सुबह। वह रोने लगी और अपनी बाहें उसके गले में डाल दीं यह कहते हुए—‘ओ बॉब। बॉब! मैं क्या करूँ? क्या कर सकती हूँ मैं भला?’

    वह अपने आप को मिटा देगी, उसने कहा। उसने कमज़ोर-सा ढाढ़स दिया, यह कहते हुए कि वह रोए नहीं। सब ठीक हो जाएगा, डरने की बात नहीं। उसके सीने की हलचल को अपनी क़मीज़ के ऊपर से महसूस किया उसने।

    यह उसका दोष नहीं था कि ऐसा हुआ। उसे अच्छी तरह याद है, कुँआरे लड़कों की उत्सुक धीरज वाली याददाश्त के बल पर, जो उसके कपड़ों की, साँस की, उँगलियों की पहली छुवन ने किया था उसके साथ। फिर एक रात को जब वह सोने से पहले कपड़े उतार रहा था उसने उसके दरवाज़े पर दस्तक दी, हल्की सी। वह मोमबत्ती फिर जलाना चाहती थी उसकी मोमबत्ती से, क्योंकि हवा के झोंके से उसकी बत्ती बुझ गई थी। वह उसके नहाने की रात थी। उसने एक ढीला सा सामने से खुला जैकेट पहन रखा था प्रिंटेड फलालेन का। उसकी चप्पलों से उसके गोरे पैर झलक रहे थे और ख़ुशबू से तर उसकी त्वचा के नीचे ख़ून की लाली छलक आई थी। जब उसने अपनी मोमबत्ती जलाई और सीधी की, उसकी कलाइयों और हाथों से भी एक भीनी-सी ख़ुशबू आती रही थी।

    जिन रातों को वह देर से लौटता था, पॉली उसका रात का खाना गर्म कर देती। उसे ख़याल ही नहीं रहता कि वह क्या खाता था—उस सोते हुए घर में रात के अकेलेपन में पॉली का अपने पास होने का अहसास ही बहुत था। और उसका कितना ख़याल रखती थी वह! कभी अगर रात को ठंड ज़्यादा पड़ी, या बरसात हुई या तेज़ हवा चली तो गिलास में पंच तैयार रखा मिलता उसे। गरज कि दोनों साथ-साथ ख़ुश रहते।

    वो दोनों दबे पाँव ऊपर जाते एक साथ, हाथों में मोमबत्ती लिए, और ज़ीने की तीसरी लैंडिंग पर चाहते हुए भी गुडनाइट कहते। दोनों चूमते थे एक-दूसरे को। उसे भलीभाँति याद हैं उसकी आँखें, उसके हाथों का स्पर्श और अपना नशा...पर नशा छूटता भी है। पॉली की आवाज़ में जैसे उसके अपने दिल की बात गूँज उठी—क्या करूँ मैं? कुँआरे की आत्मा ने उसे रुक जाने की हिदायत दी। पाप सामने था। उसके अपने आत्मसम्मान की भावना ने भी कहा कि इस पाप का प्रायश्चित्त होना ही चाहिए।

    जिस समय उसके साथ वह बिस्तर के एक छोर पर बैठा था, मेरी दरवाज़े पर आई और बोली कि मैडम उससे बैठक में मिलना चाहती हैं। वह अपना कोट और जैकेट पहनने के लिए खड़ा हुआ बड़ी मजबूरी की हालत में! कपड़े पहन कर वह ढाढ़स बँधाने उसके पास गया। ‘हे भगवान’! कह कर रोती हुई पॉली को वह छोड़ कर नीचे चला गया।

    सीढ़ियों से उतरते समय उसका चश्मा ऐसा धुँधला गया कि उसे उतारकर पोंछना पड़ा। उसका जी चाह रहा था कि वह छत पर चढ़ जाए और किसी दूसरे देश को उड़ जाए, जहाँ ऐसी परेशानी की भनक भी नहीं सुनाई दे, और फिर भी अपने आप को सीढ़ी-दर-सीढ़ी नीचे धकेलता रहा। उसके मालिक और मैडम के अदृश्य चेहरे उसकी इस परेशानी को देख रहे थे। सीढ़ियों के आख़री छोर पर उसे जैक मूनी मिला, जो ऊपर जा रहा था रसोई से दो ‘बास’ की बोतलें गोद में लिए। दोनों ने एक-दूसरे को ठंडा-सा सलाम किया और इस आशिक़ की निगाहें एक पल को उसके बुल डॉग से चौड़े चेहरे और मोटे-मोटे हाथों पर ठहरीं। जब वह सीढ़ियों के नीचे पहुँचा और नज़रें ऊपर उठाईं तो पाया कि जैक उसे अपने कमरे के दरवाज़े से ध्यान से देख रहा था।

    अचानक उसे याद आई वह रात जब म्यूज़िक हॉल के कलाकारों में से एक ने, उस सुनहरे बालों वाले लंदन के छोकरे ने, पॉली को ज़रा ज़्यादा टेढ़ा-तिरछा कुछ कहा था। उस दिन की बैठक जैक की मारपीट की वजह से बरबाद ही हो चली थी। सबने जैक को शांत करने की कोशिश की। म्यूज़िक हॉल का वह आर्टिस्ट, पहले से कुछ पीले पड़े चेहरे पर मुस्कान ओढ़े कहता ही रहा कि उसके इरादे बुरे नहीं थे, पर जैक उस पर चिल्लाता ही रहा कि अगर किसी बंदे ने इस तरह की चाल चली और उसकी बहन को परेशान किया तो वह उस साले की बत्तीसी गले में उतार देगा, ऐसा ही करेगा वह।

    पॉली बिस्तर के छोर पर रोती हुई बैठी रही कुछ देर तक। फिर उसने आँखें पोछीं और आइने के सामने गई। उसने तौलिए के किनारे को पानी के जग में डुबोया और ठंडे पानी से आँखों में ताज़गी लाने के लिए उसे आँखों पर रखा। उसने चेहरे को तिरछा करके देखा और बालों के पिन को कान के ऊपर फिर से ठीक किया। फिर वह बिस्तर के पैताने पर जाकर बैठी। काफ़ी देर तक वह तकियों की ओर टकटकी लगाए देखती रही और उनको देखते-देखते उसके दिमाग़ में छुपी मीठी-मीठी यादें अँगड़ाइयाँ लेने लगीं। उसने अपनी गर्दन को बिस्तर के ठंडे लोहे की छड़ पर रखा और ख़यालों में खो गई। उसके चेहरे पर किसी परेशानी का नामोनिशान नहीं था।

    वह धीरज के साथ इंतज़ार करती रही ख़ुश-ख़ुश, बिना डर के। उसकी यादों ने धीरे-धीरे आशा और भविष्य के नज़ारों का रूप लिया। उसकी उम्मीदें और नज़ारे कुछ इतने पेचीदा बन गए कि उसको सामने बड़े सफ़ेद तकिए अब नहीं दिख रहे थे—जिन पर उसकी निगाह जमी थी। उसे यह भी नहीं याद रहा कि वह किसी बात का इंतज़ार कर रही थी। आख़िरकार उसने माँ की पुकार सुनी। वह चौंककर उठी और सीढ़ियों की ओर दौड़ी।

    —पॉली, पॉली!

    —हाँ, माँ?

    —नीचे आओ बेटी, श्री डोरैन तुमसे कुछ कहना चाहते हैं। तब उसे, वह बात याद आई जिसका उसे इंतज़ार था।

    स्रोत :
    • पुस्तक : विश्व की श्रेष्ठ कहानियाँ (खण्ड-2) (पृष्ठ 47)
    • संपादक : ममता कालिया
    • रचनाकार : जेम्स जॉयस
    • प्रकाशन : लोकभारती प्रकाशन
    • संस्करण : 2005
    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

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