नदी के किनारे, लालमंडी की सड़क पर धीरे-धीरे डोलता-सा चला आ रहा था। धूसर रंग का चोग़ा पहने था और दूर से लगता था कि बौद्ध भिक्षुओं की ही भाँति उसका सिर भी घुटा हुआ है। पीछे शंकराचार्य की ऊँची पहाड़ी थी और ऊपर स्वच्छ नीला आकाश। सड़क के दोनों ओर ऊँचे-ऊँचे सफ़ेदे के पेड़ों की क़तारें। क्षण-भर के लिए मुझे लगा, जैसे वाङ्चू इतिहास के पन्नों पर से उतरकर आ गया है। प्राचीनकाल में इसी भाँति देश-विदेश से आने वाले चीवरधारी भिक्षु पहाड़ों और घाटियों को लाँघकर भारत में आया करते होंगे। अतीत के ऐसे ही रोमांचकारी धुँधलके में मुझे वाङ्चू भी चलता हुआ नज़र आया। जब से वह श्रीनगर में आया था, बौद्ध विहारों के खंडहरों और संग्रहालयों में घूम रहा था। इस समय भी वह लालमंडी के संग्रहालय में से निकलकर आ रहा था जहाँ बौद्धकाल के अनेक अवशेष रखे हैं। उसकी मनःस्थिति को देखते हुए वह सचमुच ही वर्तमान से कटकर अतीत के ही किसी कालखंड में विचर रहा था।
‘बोधिसत्वों से भेंट हो गई?’ पास आने पर मैंने चुटकी ली।’
वह मुस्कुरा दिया, हल्की टेढ़ी-सी मुस्कान, जिसे मेरी मौसेरी बहन डेढ़ दाँत की मुस्कान कहा करती थी, क्योंकि मुस्कुराते वक़्त वाङ्चू का ऊपर का होंठ केवल एक ओर से थोड़ा-सा ऊपर को उठता था।
‘संग्रहालय के बाहर बहुत-सी मूर्तियाँ रखी हैं। मैं वही देखता रहा।’ उसने धीमे से कहा, फिर वह सहसा भावुक होकर बोला, ‘एक मूर्ति के केवल पैर ही पैर बचे हैं...’
मैंने सोचा, आगे कुछ कहेगा, परंतु वह इतना भावविह्वल हो उठा था कि उसका गला रुँध गया और उसके लिए बोलना असंभव हो गया।
हम एक साथ घर की ओर लौटने लगे।
‘महाप्राण के भी पैर ही पहले दिखाए जाते थे।’ उसने काँपती-सी आवाज़ में कहा और अपना हाथ मेरी कोहनी पर रख दिया। उसके हाथ का हल्का-सा कंपन धड़कते दिल की तरह महसूस हो रहा था।
‘आरंभ में महाप्राण की मूर्तियाँ नहीं बनाई जाती थीं ना! तुम तो जानते हो, पहले स्तूप के नीचे केवल पैर ही दिखाए जाते थे। मूर्तियाँ तो बाद में बनाई जाने लगी थी।’
ज़ाहिर है, बोधिसत्त्व के पैर देखकर उसे महाप्राण के पैर याद हो आए थे और वह भावुक हो उठा था। कुछ पता नहीं चलता था, कौन-सी बात किस वक़्त वाङ्चू को पुलकाने लगे, किस वक़्त वह गदगद होने लगे।
‘तुमने बहुत देर कर दी। सभी लोग तुम्हारा इंतज़ार कर रहे हैं। मैं चिनारों के नीचे भी तुम्हें खोज आया हूँ।’ मैंने कहा।
‘मैं संग्रहालय में था...’
‘वह तो ठीक है, पर दो बजे तक हमें हब्बाकदल पहुँच जाना चाहिए, वरना जाने का कोई लाभ नहीं।’
उसने छोटे-छोटे झटकों के साथ तीन बार सिर हिलाया और क़दम बढ़ा दिए।
वाङ्चू भारत में मतवाला बना घूम रहा था। वह महाप्राण के जन्मस्थान लुंबिनी की यात्रा नंगे पाँव कर चुका था, सारा रास्ता हाथ जोड़े हुए। जिस-जिस दिशा में महाप्राण के चरण उठे थे, वाङ्चू मंत्रमुग्ध-सा उसी-उसी दिशा में घूम आया था। सारनाथ में, जहाँ महाप्राण ने अपना पहला प्रवचन दिया था और दो मृगशावक मंत्रमुग्ध-से झाड़ियों में से निकलकर उनकी ओर देखते रह गए थे, वाङ्चू एक पीपल के पेड़ के नीचे घंटों नतमस्तक बैठा रहा था, यहाँ तक कि उसके कथानुसार उसके मस्तक से अस्फुट-से वाक्य गूँजने लगे थे और उसे लगा था, जैसे महाप्राण का पहला प्रवचन सुन रहा है। वह इस भक्तिपूर्ण कल्पना में इतना गहरा डूब गया था कि सारनाथ में ही रहने लगा था। गंगा की धार को वह दसियों शताब्दियों के धुँधलके में पावन जलप्रवाह के रूप में देखता। जब से वो श्रीनगर में आया था, बर्फ़ के ढ़के पहाड़ों की चोटियों की ओर देखते हुए अक्सर मुझसे कहता—वह रास्ता ल्हासा को जाता है ना, उसी रास्ते बौद्धग्रंथ तिब्बत में भेजे गए थे। वह उस पर्वतमाला को भी पुण्य-पावन मानता था क्योंकि उस पर बिछी पगडंडियों के रास्ते बौद्ध भिक्षु तिब्बत की ओर गए थे।
वाङ्चू कुछ वर्षों पहले वृद्ध प्रोफ़ेसर तान-शान के साथ भारत आया था। कुछ दिनों तक तो वह उन्हीं के साथ रहा और हिंदी और अँग्रेज़ी भाषाओं का अध्ययन करता रहा, फिर प्रोफ़ेसर शान चीन लौट गए और वह यहीं बना रहा और किसी बौद्ध सोसाइटी से अनुदान प्राप्त कर सारनाथ में आकर बैठ गया। भावुक, काव्यमयी प्राकृति का जीवन, जो प्राचीनता के मनमोहक वातावरण में विचरते रहना चाहता था...वह यहाँ तथ्यों की खोज करने कहीं आया था, वह तो बोधिसत्त्वों की मूर्तियों को देखकर गदगद होने आया था। महीने-भर से संग्रहालयों से चक्कर काट रहा था, लेकिन उसने कभी नहीं बताया कि बौद्ध धर्म की किस शिक्षा से उसे सबसे अधिक प्ररेणा मिलती है। न तो वह किसी तथ्य को पाकर उत्साह से खिल उठता, न उसे कोई संशय परेशान करता। वह भक्त अधिक और जिज्ञासु कम था।
मुझे याद नहीं कि उसने हमारे साथ कभी खुलकर बात की हो या किसी विषय पर अपना मत पेश किया हो। उन दिनों मेरे और मेरे दोस्तों के बीच घंटों बहसें चला करतीं, कभी देश की राजनीति के बारे में, कभी धर्म मे बारे में, लेकिन वाङ्चू इनमें कभी भाग नहीं लेता था। वह सारा वक़्त धीमे-धीमे मुस्कुराता रहता और कमरे के एक कोने में दुबक कर बैठा रहता। उन दिनों देश में वलवलों का सैलाब-सा उठ रहा था। स्वतंत्रता-आंदोलन ज़ोरों पर था और हमारे बीच उसी की चर्चा रहती—कांग्रेस कौन-सी नीति अपनाएगी, आंदोलन कौन-सा रुख़ पकड़ेगा। क्रियात्मक स्तर पर तो हम लोग कुछ करते-कराते नहीं थे, लेकिन भावनात्मक स्तर पर उसके साथ बहुत कुछ जुड़े हुए थे। इस पर वाङ्चू की तटस्थता कभी हमें अखरने लगाती, तो कभी अचंभे में डाल देती। वह हमारे देश की ही गतिविधि के बारे में नहीं, अपने देश की गतिविधि में भी कोई विशेष दिलचस्पी नहीं लेता था। उससे उसके अपने देश के बारे में भी पूछो, तो मुस्कुराता सिर हिलाता रहता था।
कुछ दिनों से श्रीनगर की हवा भी बदली हुई थी। कुछ मास पहले यहाँ गोली चली थी। कश्मीर के लोग महाराजा के ख़िलाफ़ उठ खड़े हुए थे और अब कुछ दिनों से शहर में एक नई उत्तेजना पाई जाती थी। नेहरू जी श्रीनगर आने वाले थे और उनका स्वागत करने के लिए नगर को दुल्हन की तरह सजाया जा रहा था। आज ही दुपहर को नेहरू जी श्रीनगर पहुँच रहे हैं। नदी के रास्ते नावों के जुलूस की शक्ल में उन्हें लाने की योजना थी और इसी कारण मैं वाङ्चू को खोजता हुआ उस ओर आ निकला था।
हम घर की ओर बढ़े जा रहे थे, जब सहसा वाङ्चू ठिठक कर खड़ा हो गया।
‘क्या मेरा जाना बहुत ज़रूरी है? जैसा तुम कहो...’
मुझे धक्का-सा लगा। ऐसे समय में, जब लाखों लोग नेहरू जी के स्वागत के लिए इकट्ठे हो रहे थे, वाङ्चू का यह कहना कि अगर वह साथ न जाए, तो कैसा रहे, मुझे सचमुच बुरा लगा। लेकिन फिर स्वयं ही कुछ सोचकर उसने अपने आग्रह को दोहराया नहीं और हम घर की ओर साथ-साथ जाने लगे।
कुछ देर बाद हब्बाकदल के पुल के निकट लाखों की भीड़ में हम लोग खड़े थे—मैं, वाङ्चू तथा मेरे दो-तीन मित्र। चारों ओर जहाँ तक नज़र जाती, लोग ही लोग थे—मकानों की छतों पर, पुल पर, नदी के ढलवाँ किनारों पर। मैं बार-बार कनखियों से वाङ्चू के चेहरे की ओर देख रहा था कि उसकी क्या प्रतिक्रिया हुई है, कि हमारे दिल में उठने वाले वलवलों का उस पर क्या असर हुआ है। यूँ भी यह मेरी आदत-सी बन गई है, जब भी कोई विदेशी साथ में हो, मैं उसके चेहरे का भाव पढ़ने की कोशिश करता रहता हूँ कि हमारे रीति-रिवाज, हमारे जीवनयापन के बारे में उसकी क्या प्रतिक्रिया होती है। वाङ्चू अधमुँदी आँखों से सामने का दृश्य देखे जा रहा था। जिस समय नेहरू जी की नाव सामने आई, तो जैसे मकानों की छतें भी हिल उठीं। राजहंस शक्ल की सफ़ेद नाव में नेहरू जी स्थानीय नेताओं के साथ खड़े हाथ हिला-हिलाकर लोगों का अभिवादन कर रहे थे। और हवा में फूल-ही-फूल बिखर गए। मैंने पलटकर वाङ्चू के चेहरे की ओर देखा। वह पहले ही की तरह निश्चेष्ट-सा सामने का दृश्य देखे जा रहा था।
‘आपको नेहरू जी कैसे लगे?’ मेरे एक साथी ने वाङ्चू से पूछा।
वाङ्चू ने अपनी टेढ़ी-सी आँखें उठाकर चेहरे की ओर देखा, फिर अपनी डेढ़ दाँत की मुस्कान के साथ कहा, ‘अच्चा, बहुत अच्चा!’
वाङ्चू मामूली-सी हिंदी और अँग्रेज़ी जानता था। अगर तेज़ बोलो, तो उसके पल्ले कुछ नहीं पड़ता था।
नेहरू जी की नाव दूर जा चुकी थी लेकिन नावों का जुलूस अभी भी चलता जा रहा था, जब वाङ्चू सहसा मुझसे बोला, ‘मैं थोड़ी देर के लिए संग्रहालय में जाना चाहूँगा। इधर से रास्ता जाता है, मैं स्वयं चला जाऊँगा।’ और वह बिना कुछ कहे, एक बार अधमिची आँखों से मुस्काया और हल्के से हाथ हिलाकर मुड़ गया।
हम सभी हैरान रह गए। इसे सचमुच जुलूस में रुचि नहीं रही होगी जो इतनी जल्दी संग्रहालय की ओर अकेला चल दिया है।
‘यार, किस बूदम को उठा लाए हो? यह क्या चीज़ है? कहाँ से पकड़ लाए हो इसे?’ मेरे एक मित्र ने कहा।
‘बाहर का रहने वाला है, इसे हमारी बातों में कैसे रुचि हो सकती है!’ मैंने सफ़ाई देते हुए कहा।
'वाह, देश में इतना कुछ हो रहा हो और इसे रुचि न हो!’
वाङ्चू अब तक दूर जा चुका था और भीड़ में से निकलकर पेड़ों की क़तार के नीचे आँखों से ओझल होता जा रहा था।
‘मगर यह है कौन?’ दूसरा एक मित्र बोला, ‘न यह बोलता है, न चहकता है। कुछ पता नहीं चलता, हँस रहा है या रो रहा है। सारा वक़्त एक कोने में दुबककर बैठा रहता है।’
‘नहीं, नहीं बड़ा समझदार आदमी है। पिछले पाँच साल से यहाँ पर रह रहा है। बड़ा पढ़ा-लिखा आदमी है। बौद्ध धर्म के बारे में बहुत कुछ जानता है।’ मैंने फिर उसकी सफ़ाई देते हुए कहा।
मेरी नज़र में इस बात का बड़ा महत्व था कि वह बौद्ध ग्रंथ बाँचता है और उन्हें बाँचने के लिए इतनी दूर से आया है।
‘अरे भाड़ में जाए ऐसी पढ़ाई। वाह जी, जुलूस को छोड़कर म्यूज़ियम की ओर चल दिया है!’
'सीधी-सी बात है यार!’ मैंने जोड़ा, 'इसे यहाँ भारत का वर्तमान खींचकर नहीं लाया, भारत का अतीत लाया है। ह्यू नत्सांग भी तो यहाँ बौद्ध ग्रंथ ही बाँचने आया था। यह भी शिक्षार्थी है। बौद्ध मत में इसकी रुचि है।’
घर लौटते हुए हम लोग सारा रास्ता वाङ्चू की ही चर्चा करते रहे। अजय का मत था, अगर वह पाँच साल भारत में काट गया है, तो अब वह ज़िंदगी-भर यहीं पर रहेगा।
‘अब आ गया है, तो लौटकर नहीं जाएगा। भारत में एक बार परदेशी आ जाए, तो लौटने का नाम नहीं लेता।’
‘भारत देश वह दलदल है कि जिसमें एक बार बाहर के आदमी का पाँव पड़ जाए, तो धँसता ही चला जाता है, निकलना चाहे भी, तो नहीं निकल सकता!’ दिलीप ने मज़ाक़ में कहा, 'न जाने कौन-से कमल-फूल तोड़ने के लिए इस दलदल में घुसा है!’
‘हमारा देश हम हिंदुस्तानियों को पसंद नहीं, बाहर के लोगों को तो बहुत पसंद है!’ मैंने कहा।
‘पसंद क्यों न होगा! यहाँ थोड़े में गुज़र हो जाती है, सारा वक़्त धूप खिली रहती है, फिर बाहर के आदमी को लोग परेशान नहीं करते, जहाँ बैठा है वहीं बैठा रहने देते हैं। इस पर उन्हें तुम जैसे झुड्डू भी मिल जाते हैं, जो उनका गुणगान करते रहते हैं और उनकी आवभगत करते रहते हैं! तुम्हारा वाङ्चू भी यहीं पर मरेगा...।’
हमारे यहाँ उन दिनों मेरी छोटी मौसेरी बहन ठहरी हुई थी, वही जो वाङ्चू की मुस्कान को डेढ़ दाँत की मुस्कान कहा करती थी। चुलबुली-सी लड़की बात-बात पर ठिठोली करती रहती थी। मैंने दो-एक बार वाङ्चू को कनखियों से उसकी ओर देखते पाया था, लेकिन कोई विशेष ध्यान नहीं दिया, क्योंकि वह सभी को कनखियों से ही देखता था। पर उस शाम नीलम मेरे पास आई और बोली, 'आपके दोस्त ने मुझे उपहार दिया है। प्रेमोपहार!’
मेरे कान खड़े हो गए, ‘क्या दिया है?’
‘झूमरों का जोड़ा।’
और उसने दोनों मुट्ठियाँ खोल दीं जिनमें चाँदी के कश्मीरी चलन के दो सफ़ेद झूमर चमक रहे थे। और फिर वह दोनों झूमर अपने कानों के पास ले जाकर बोली, ‘कैसे लगते हैं?’
मैं हत्बुद्धि-सा नीलम की ओर देख रहा था।
‘उसके अपने कान कैसे भूरे-भूरे हैं!’ नीलम ने हँसकर कहा।
‘किसके?’
‘मेरे इस प्रेमी के।’
‘तुम्हें उसके भूरे कान पसंद हैं?’
‘बहुत ज़्यादा। जब शर्माता है, तो ब्राउन हो जाते हैं गहरे ब्राउन।’ और नीलम खिलखिलाकर हँस पड़ी।
लड़कियाँ कैसे उस आदमी के प्रेम का मज़ाक़ उड़ा सकती है, जो उन्हें पसंद न हो! या कहीं नीलम मुझे बना तो नहीं रही है?
पर मैं इस सूचना से बहुत विचलित नहीं हुआ था। नीलम लाहौर में पढ़ती थी और वाङ्चू सारनाथ में रहता था और अब वह हफ़्ते-भर में श्रीनगर से वापस जाने वाला था। इस प्रेम का अंकुर अपने-आप ही जल-भुन जाएगा।
‘नीलम, ये झूमर तो तुमने उससे ले लिए हैं, पर इस प्रकार की दोस्ती अंत में उसके लिए दुखदायी होगी। बने-बनाएगा कुछ नहीं।’
'वाह भैया, तुम भी कैसे दक़ियानूसी हो! मैंने भी चमड़े का एक राइटिंग पैड उसे उपहार में दिया है। मेरे पास पहले से पड़ा था, मैंने उसे दे दिया। जब लौटेगा तो प्रेम-पत्र लिखने में उसे आसानी होगी।’
‘वह क्या कहता था?’
'कहता क्या था, सारा वक़्त उसके हाथ काँपते रहे और चेहरा कभी लाल होता रहा, कभी पीला। कहता था, मुझे पत्र लिखना, मेरे पत्रों का जवाब देना। और क्या कहेगा बेचारा, भूरे कानोंवाला।’
मैंने ध्यान से नीलम की ओर देखा, पर उसकी आँखों में मुझे हँसी के अतिरिक्त कुछ दिखाई नहीं दिया। लड़कियाँ दिल की बात छिपाना ख़ूब जानती हैं। मुझे लगा, नीलम उसे बढ़ावा दे रही है। उसके लिए वह खिलवाड़ था, लेकिन वाङ्चू ज़रूर इसका दूसरा ही अर्थ निकालेगा।
इसके बाद मुझे लगा कि वाङ्चू अपना संतुलन खो रहा है। उसी रात मैं अपने कमरे की खिड़की के पास खड़ा बाहर मैदान में चिनारों की पाँत की ओर देख रहा था, जब चाँदनी में, कुछ दूरी पर पेड़ों के नीचे मुझे वाङ्चू टहलता दिखाई दिया। वह अक्सर रात को देर तक पेड़ों के नीचे टहलता रहता था। पर आज वह अकेला नहीं था। नीलम भी उसके साथ ठुमक-ठुमक कर चलती जा रही थी। मुझे नीलम पर ग़ुस्सा आया। लड़कियाँ कितनी ज़ालिम होती हैं! यह जानते हुए भी कि इस खिलवाड़ से वाङ्चू की बेचैनी बढ़ेगी, वह उसे बढ़ावा दिए जा रही थी।
दूसरे रोज़ खाने की मेज़ पर नीलम फिर उसके साथ ठिठोली करने लगी। किचन में से एक चैड़ा-सा एलुमीनियम का डिब्बा उठा लाई। उसका चेहरा तपे ताँबे जैसा लाल हो रहा था।
‘आपके लिए रोटियाँ और आलू बना लाई हूँ। आम के अचार की फाँक भी रखी है। आप जानते हैं फाँक किसे कहते हैं? एक बार कहो तो ‘फाँक’। कहो वाङ्चू जी, ‘फाँक'!’
उसने नीलम की ओर खोई-खोई आँखों से देखा और बोला, ‘बाँक!’
हम सभी खिलखिलाकर हँस पड़े।
‘बाँक नहीं, फाँक!’
‘वाँक!’ फिर हँसी का फ़व्वारा फूट पड़ा।
नीलम ने डिब्बा खोला। उसमें से आम के अचार का टुकड़ा निकालकर उसे दिखाते हुए बोली, ‘यह है फाँक, फाँक इसे कहते हैं!’ और उसे वाङ्चू की नाक के पास ले जाकर बोली, ‘इसे सूँघने पर मुँह में पानी भर आता है। आया मुँह में पानी? अब कहो, ‘फाँक’!’
‘नीलम, क्या फ़िज़ूल बातें कर रही हो! बैठो आराम से!’ मैंने डाँटते हुए कहा।
नीलम बैठ गई, पर उसकी हरकतें बंद नहीं हुई। बड़े आग्रह से वाङ्चू से कहने लगी, 'बनारस जाकर हमें भूल नहीं जाइएगा। हमें ख़त ज़रूर लिखिएगा और अगर किसी चीज़ की ज़रूरत हो तो संकोच नहीं कीजिएगा।’
वाङ्चू शब्दों के अर्थ तो समझ लेता था लेकिन उनके व्यंग्य की ध्वनि वह नहीं पकड़ पाता था। वह अधिकाधिक विचलित महसूस कर रहा था।
‘भेड़ की खाल की ज़रूरत हो या कोई नमदा, या अखरोट...’
‘नीलम!’
‘क्यों भैया, भेड़ की खाल पर बैठकर ग्रंथ बाँचेंगे!’
वाङ्चू के कान लाल होने लगे। शायद पहली बार उसे भास होने लगा था कि नीलम ठिठोली कर रही है। उसके कान सचमुच भूरे रंग के हो रहे थे, जिनका नीलम मज़ाक़ उड़ाया करती थी।
‘नीलम जी, आप लोगों ने मेरा बड़ा अतिथि-सत्कार किया है। मैं बड़ा कृतज्ञ हूँ।’
हम सब चुप हो गए। नीलम भी झेंप-सी गई। वाङ्चू ने ज़रूर ही उसकी ठिठोली को समझ लिया होगा। उसके मन को ज़रूर ठेस लगी होगी। पर मेरे मन में यह विचार भी उठा कि एक तरह से यह अच्छा ही है कि नीलम के प्रति उसकी भावना बदले, वरना उसे ही सबसे अधिक परेशानी होगी।
शायद वाङ्चू अपनी स्थिति को जानते-समझते हुए भी एक स्वाभाविक आकर्षण की चपेट में आ गया था। भावुक व्यक्ति का अपने पर कोई क़बू नहीं होता। वह पछाड़ खाकर गिरता है, तभी अपनी भूल को समझ पाता है।
सप्ताह के अंतिम दिनों में वह रोज़ कोई-न-कोई उपहार ले कर आने लगा। एक बार मेरे लिए भी एक चोग़ा ले आया और बच्चों की तरह ज़िद करने लगा कि मैं और वह अपना-अपना चोग़ा पहनकर एक साथ घूमने जाएँ। संग्रहालय में वह अब भी जाता था, दो-एक बार नीलम को भी अपने साथ ले गया था और लौटने पर सारी शाम नीलम बोधिसत्त्वों की खिल्ली उड़ाती रही थीं मैं मन-ही-मन नीलम के इस व्यवहार का स्वागत ही करता रहा, क्योंकि मैं नहीं चाहता था कि वाङ्चू की कोई भावना हमारे घर में जड़ जमा पाए। सप्ताह बीत गया और वाङ्चू सारनाथ लौट गया।
वाङ्चू के चले जाने के बाद उसके साथ मेरा संपर्क वैसा ही रहा, जैसा आमतौर पर एक परिचित व्यक्ति के साथ रहता है। गाहे-ब-गाहे कभी ख़त आ जाता, कभी किसी आते-जाते व्यक्ति से उसकी सूचना मिल जाती। वह उन लोगों में से था, जो बरसों तक औपचारिक परिचय की परिधि पर ही डोलते रहते हैं, न परिधि लाँघकर अंदर आते हैं और न ही पीछे हटकर आँखों से ओझल होते हैं। मुझे इतनी ही जानकारी रही कि उसकी समतल और बँधी-बँधाई दिनचर्या में कोई अंतर नहीं आया। कुछ देर तक मुझे कुतूहल-सा बना रहा कि नीलम और वाङ्चू के बीच की बात आगे बढ़ी या नहीं, लेकिन लगा कि वह प्रेम भी वाङ्चू के जीवन पर हावी नहीं हो पाया।
बरस और साल बीतते गए। हमारे देश में उन दिनों बहुत कुछ घट रहा था। आए दिन सत्याग्रह होते, बंगाल में दुर्भिक्ष फूटा, ‘भारत छोड़ो’ का आंदोलन हुआ, सड़कों पर गोलियाँ चली, बंबई में नाविकों का विद्रोह हुआ, देश में ख़ूँरेज़ी हुई, फिर देश का बँटवारा हुआ, और सारा वक़्त वाङ्चू सारनाथ में ही बना रहा। वह अपने में संतुष्ट जान पड़ता था। कभी लिखता कि तंत्रज्ञान का अध्ययन कर रहा है, कभी पता चलता कि कोई पुस्तक लिखने की योजना बना रहा है।
इसके बाद मेरी मुलाक़ात वाङ्चू से दिल्ली में हुई। यह उन दिनों की बात है, जब चीन के प्रधानमंत्री चाऊ-एन-लाई भारत-यात्रा पर आने वाले थे। वाङ्चू अचानक सड़क पर मुझे मिल गया और मैं उसे अपने घर ले आया। मुझे अच्छा लगा कि चीन के प्रधानमंत्री के आगमन पर वह सारनाथ से दिल्ली चला आया है। पर जब उसने मुझे बताया कि वह अपने अनुदान के सिलसिले में आया है और यहीं पहुँचने पर उसे ऊ-एन-लाई के आगमन की सूचना मिली है, तो मुझे उसकी मनोवृत्ति पर अचंभा हुआ। उसका स्वभाव वैसा-का-वैसा ही था। पहले की ही तरह हौले-हौले अपनी डेढ़ दाँत की मुस्कान मुस्कुराता रहा। वैसा ही निश्चेष्ट, संपृक्त। इस बीच उसने कोई पुस्तक अथवा लेखादि भी नहीं लिखे थे। मेरे पूछने पर इस काम में उसने कोई विशेष रुचि भी नहीं दिखाई। तंत्रज्ञान की चर्चा करते समय भी वह बहुत चहका नहीं। दो-एक ग्रंथों के बारे में बताता रहा, जिसमें से वह कुछ टिप्पणियाँ लेता रहा था। अपने किसी लेख की भी चर्चा उसने की, जिस पर वह अभी काम कर रहा था। नीलम के साथ उसकी चिट्ठी-पत्री चलती रही, उसने बताया, हालाँकि नीलम कब की ब्याही जा चुकी थी और दो बच्चो की माँ बन चुकी थी। समय की गति के साथ हमारी मूल धारणाएँ भले ही न बदलें, पर उनके आग्रह और उत्सुकता में स्थिरता-सी आ गई थी पहले जैसी भावविह्वलता नहीं थी। बोधिसत्त्वों के पैरों पर अपने प्राण निछावर नहीं करता फिरता था। लेकिन अपने जीवन से संतुष्ट था। पहले की ही भाँति थोड़ा खाता, थोड़ा पढ़ता, थोड़ा भ्रमण करता और थोड़ा सोता था। और दूर लड़कपन से झुटपुटे में किसी भावावेश में चुने गए अपने जीवन-पथ पर कछुए की चाल मज़े से चलता आ रहा था।
खाना खाने के बाद हमारे बीच बहस छिड़ गई—‘सामाजिक शक्तियों को समझे बिना तुम बौद्ध धर्म को भी कैसे समझ पाओगे? ज्ञान का प्रत्येक क्षेत्र एक-दूसरे से जुड़ा है, जीवन से जुड़ा है। कोई चीज़ जीवन से अलग नहीं है। तुम जीवन से अलग होकर धर्म को भी कैसे समझ सकते हो?’
कभी वह मुस्कुराता, कभी सिर हिलाता और सारा वक़्त दार्शनिकों की तरह मेरे चेहरे की ओर देखता रहा। मुझे लग रहा था कि मेरे कहे का उस पर कोई असर नहीं हो रहा, कि चिकने घड़े पर मैं पानी उँड़ेले जा रहा हूँ।
‘हमारे देश में न सही, तुम अपने देश के जीवन में तो रुचि लो! इतना जानो-समझो कि वहाँ पर क्या हो रहा है!’
इस पर भी वह सिर हिलाता और मुस्कुराता रहा। मैं जानता था कि एक भाई को छोड़कर चीन में उसका कोई नहीं है। 1929 में वहाँ पर कोई राजनीतिक उथल-पुथल हुई थी, उसमें उसका गाँव जला डाला गया था और सब सगे-संबंधी मर गए थे, या भाग गए थे। ले-देकर एक भाई बचा था और वह पेकिंग के निकट किसी गाँव में रहता था। बरसों से वाङ्चू का संपर्क उसके साथ टूट चूका था। वाङ्चू पहले गाँव के स्कूल में पढ़ता रहा था, बाद में पेकिंग के एक विद्यालय में पढ़ने लगा था। वहीं से वह प्रोफ़ेसर शान के साथ भारत चला आया था।
‘सुनो, वाङ्चू, भारत और चीन के बीच बंद दरवाज़े अब खुल रहे हैं। अब दोनों देशों के बीच संपर्क स्थापित हो रहे हैं और इसका बड़ा महत्व है। अध्ययन का जो काम तुम अभी तक अलग-थलग करते रहे हो, वही अब तुम अपने देश के मान्य प्रतिनिधि के रूप में कर सकते हो। तुम्हारी सरकार तुम्हारे अनुदान का प्रबंध करेगी। अब तुम्हें अलग-थलग पड़े नहीं रहना पड़ेगा। तुम पंद्रह साल से अधिक समय से भारत में रह रहे हो, अँग्रेज़ी और हिंदी भाषाएँ जानते हो, बौद्ध ग्रंथों का अध्ययन करते रहे हो, तुम दोनों देशों के सांस्कृतिक संपर्क में एक बहूमूल्य कड़ी बन सकते हो...’
उसकी आँखों में हल्की-सी चमक आई। सचमुच उसे कुछ सुविधाएँ मिल सकती थीं। क्यों न उनसे लाभ उठाया जाए! दोनों देशों के बीच पाई जाने वाली सद्भावना से वह भी प्रभावित हुआ था। उसने बताया कि कुछ ही दिनों पहले अनुदान की रक़म लेने जब वह बनारस गया, तो सड़कों पर राह चलते लोग उससे गले मिल रहे थे। मैंने उसे मशवरा दिया कि कुछ समय के लिए ज़रूर अपने देश लौट जाए और वहाँ होने वाले विराट परिवर्तनों को देखे और समझे कि सारनाथ में अलग--लग बैठे रहने से उसे कुछ लाभ नहीं होगा, आदि-आदि।
वह सुनता रहा, सिर हिलाता और मुस्कुराता रहा, लेकिन मुझे कुछ मालूम नहीं हो पाया कि उस पर कोई असर हुआ है या नहीं। लगभग छह महीने बाद उसका पत्र आया कि वह चीन जा रहा है। मुझे बड़ा संतोष हुआ। अपने देश में जाएगा तो धोबी के कुत्तेवाली उसकी स्थिति ख़त्म होगी, कहीं का होकर तो रहेगा। उसके जीवन में नई स्फूर्ति आएगी। उसने लिखा कि वह अपना एक ट्रंक सारनाथ में छोड़े जा रहा है जिसमें उसकी कुछ किताबें और शोध के काग़ज़ आदि रखे हैं, कि बरसों तक भारत में रह चुकने के बाद वह अपने को भारत का ही निवासी मानता है, कि वह शीघ्र ही लौट आएगा और फिर अपना अध्ययन-कार्य करने लगेगा। मैं मन-ही-मन हँस दिया, एक बार अपने देश में गया लौटकर यहाँ नहीं आने का।
चीन में वह लगभग दो वर्षों तक रहा। वहाँ से उसने मुझे पेकिंग के प्राचीन राजमहल का चित्रकार्ड भेजा, दो-एक पत्र भी लिखे, पर उनसे उसकी मनःस्थिति के बारे में कोई विशेष जानकारी नहीं मिली।
उन दिनों चीन में भी बड़े वलवले उठ रहे थे, बड़ा जोश था और उस जोश की लपेट में लगभग सभी लोग थे। जीवन नई करवट ले रहा था। लोग काम करने जाते, तो टोलियाँ बनाकर, गाते हुए, लाल ध्वज हाथ में उठाए हुए। वाङ्चू सड़क के किनारे खड़ा उन्हें देखता रह जाता। अपने संकोची स्वभाव के कारण वह टोलियों के साथ गाते हुए जा तो नहीं सकता था, लेकिन उन्हें जाते देखकर हैरान-सा खड़ा रहता, मानों किसी दूसरी दुनिया में पहुँच गया हो।
उसे अपना भाई तो नहीं मिला, लेकिन एक पुराना अध्यापक, दूर-पार की उसकी मौसी और दो-एक परिचित मिल गए थे। वह अपने गाँव गया। गाँव में बहुत कुछ बदल गया था। स्टेशन से घर की ओर जाते हुए उसका एक सहयात्री उसे बताने लगा—वहाँ, उस पेड़ के नीचे, ज़मींदार के सभी काग़ज़, सभी दस्तावेज़ जला डाले गए थे और ज़मींदार हाथ बाँधे खड़ा रहा था।
वाङ्चू ने बचपन में ज़मींदार का बड़ा घर देखा था, उसकी रंगीन खिड़कियाँ उसे अभी भी याद थीं। दो-एक बार ज़मींदार की बग्घी को भी क़स्बे की सड़कों पर जाते देखा था। अब वह घर ग्राम-प्रशासन-केंद्र बना हुआ था और भी बहुत कुछ बदला था। पर यहाँ पर भी उसके लिए वैसी ही स्थिति थी जैसी भारत में रही थी। उसके मन में उछाह नहीं उठता था। दूसरों का उत्साह उसके दिल पर से फिसल-फिसल जाता था। वह यहाँ भी दर्शक ही बना घूमता था। शुरू-शुरू के दिनों में उसकी आवभगत भी हुई। उसके पुराने अध्यापक की पहल-क़दमी पर उसे स्कूल में आमंत्रित किया गया। भारत-चीन सांस्कृतिक संबंधों की महत्वपूर्ण कड़ी के रूप में उसे सम्मानित भी किया गया। वहाँ वाङ्चू देर तक लोगों को भारत के बारे में बताता रहा। लोगों ने तरह-तरह के सवाल पूछे, रीति-रिवाज के बारे में, तीर्थों, मेलों-पर्वों के बारे में, वाङ्चू केवल उन्हीं प्रश्नों का संतोषप्रद उत्तर दे पाता जिनके बारे में वह अपने अनुभव के आधार पर कुछ जानता था। लेकिन बहुत कुछ ऐसा था जिसके बारे में भारत में रहते हुए भी वह कुछ नहीं जानता था।
कुछ दिनों बाद चीन में ‘बड़ी छलाँग’ की मुहिम ज़ोर पकड़ने लगी। उसके गाँव में भी लोग लोहा इकट्ठा कर रहे थे। एक दिन सुबह उसे भी रद्दी लोहा बटोरने के लिए एक टोली के साथ भेज दिया गया था। दिन-भर वह लोगों के साथ रहा था। एक नया उत्साह चारों ओर व्याप रहा था। एक-एक लोहे का टुकड़ा लोग बड़े गर्व से दिखा-दिखाकर ला रहे थे और साझे ढेर पर डाल रहे थे। रात के वक़्त आग के लपलपाते शोलों के बीच उस ढेर को पिघलाया जाने लगा। आग के इर्द-गिर्द बैठे लोग क्रांतिकारी गीत गा रहे थे। सभी लोग एक स्वर में सहगान में भाग ले रहे थे। अकेला वाङ्चू मुँह बाए बैठा था।
चीन में रहते, धीरे-धीरे वातावरण में तनाव-सा आने लगा और एक झुटपुटा-सा घिरने लगा। एक रोज़ एक आदमी नीले रंग का कोट और नीले ही रंग की पतलून पहने उसके पास आया और उसे अपने साथ ग्राम प्रशासन केंद्र में लिवा ले गया। रास्ते भर वह आदमी चुप बना रहा। केंद्र में पहुँचने पर उसने पाया कि एक बड़े-से कमरे में पाँच व्यक्तियों का एक दल मेज़ के पीछे बैठा उसकी राह देख रहा है।
जब वाङ्चू उनके सामने बैठ गया, तो वे बारी-बारी से उसके भारत निवास के बारे में पूछने लगे—‘तुम भारत में कितने वर्षों तक रहे?...’ वहाँ पर क्या करते थे?’...‘कहाँ-कहाँ घूमे?’ आदि-आदि। फिर बौद्ध धर्म के प्रति वाङ्चू की जिज्ञासा के बारे में जानकर उनमें से एक व्यक्ति बोला, ‘तुम क्या सोचते हो, बौद्ध धर्म का भौतिक आधार क्या है?’
सवाल वाङ्चू की समझ में नहीं आया। उसने आँखें मिचमिचाईं।
‘द्वंद्वात्मक भौतिकवादी की दृष्टि से तुम बौद्ध धर्म को कैसे आँकते हो?’
सवाल फिर भी वाङ्चू की समझ में नहीं आया, लेकिन उसने बुदबुदाते हुए उत्तर दिया, ‘मनुष्य के आध्यात्मिक विकास के लिए उसके सुख और शांति के लिए बौद्ध धर्म का पथ-प्रदर्शन बहुत ही महत्वपूर्ण है। महाप्राण के उपदेश...’
और वाङ्चू बौद्ध धर्म के आठ उपदेशों की व्याख्या करने लगा। वह अपना कथन अभी समाप्त नहीं कर पाया था जब प्रधान की कुर्सी पर बैठे पैनी तिरछी आँखों वाले एक व्यक्ति ने बात काटकर कहा, ‘भारत की विदेशी-नीति के बारे में तुम क्या सोचते है?’
वाङ्चू मुस्कुराया अपनी डेढ़ दाँत की मुस्कान, फिर बोला, ‘आप भद्रजन इस संबंध में ज़्यादा जानते हैं। मैं तो साधारण बौद्ध जिज्ञासु हूँ। पर भारत बड़ा प्राचीन देश है। उसकी संस्कृति शांति और मानवीय सद्भावना की संस्कृति है...
‘नेहरू के बारे में तुम क्या सोचते हो?’
'नेहरू को मैंने तीन बार देखा है। एक बार तो उनसे बातें भी की हैं। उन पर पश्चिमी विज्ञान का प्रभाव है, परंतु प्राचीन संस्कृति के वह भी बड़े प्रशंसक हैं।’
उसके उत्तर सुनते हुए कुछ सदस्य तो सिर हिलाने लगे, कुछ का चेहरा तमतमाने लगा। फिर तरह-तरह के पैने सवाल पूछे जाने लगे। उन्होंने पाया कि जहाँ तक तथ्यों का और भारत के वर्तमान जीवन का सवाल है, वाङ्चू की जानकारी अधूरी और हास्यास्पद है।
‘राजनीतिक दृष्टि से तो तुम शून्य हो। बौद्ध धर्म की अवधारणाओं को भी समाजशास्त्र की दृष्टि से तुम आँक नहीं सकते। न जाने वहाँ बैठे क्या करते रहे हो! पर हम तुम्हारी मदद करेंगे।’
पूछताछ घंटों तक चलती रही। पार्टी-अधिकारियों ने उसे हिंदी पढ़ाने का काम दे दिया, साथ ही पेकिंग के संग्रहालय मे सप्ताह में दो दिन काम करने की भी इजाज़त दे दी।
जब वाङ्चू पार्टी-दफ़्तर से लौटा तो थका हुआ था। उसका सिर भन्ना रहा था। अपने देश में उसका दिल जम नहीं पाया था। आज वह और भी ज़्यादा उखड़ा-उखड़ा महसूस कर रहा था। छप्पर के नीचे लेटा तो उसे सहसा ही भारत की याद सताने लगी। उसे सारनाथ की अपनी कोठरी याद आई जिसमें दिन-भर बैठा पोथी बाँचा करता था। नीम का घना पेड़ याद आया जिसके नीचे कभी-कभी सुस्ताया करता था। स्मृतियों की शृंखला लंबी होती गई। सारनाथ की कैंटीन का रसोइया याद आया जो सदा प्यार से मिलता था, सदा हाथ जोड़कर ‘कहो भगवान’ कहकर अभिवादन करता था।
एक बार वाङ्चू बीमार पड़ गया था तो दूसरे रोज़ कैंटीन का रसोईया अपने-आप उसकी कोठरी में चला आया था—‘मैं भी कहूँ, चीनी बाबू चाय पीने नहीं आए, दो दिन हो गए! पहले आते थे, तो दर्शन हो जाते थे। हमें ख़बर की होती भगवान, तो हम डाक्टर बाबू को बुला लाते...मैं भी कहूँ, बात क्या है।’ फिर उसकी आँखों के सामने गंगा का तट आया जिस पर वह घंटों घूमा करता था। फिर सहसा दृश्य बदल गया और कश्मीर की झील आँखों के सामने आ गई और पीछे हिमाच्छादित पर्वत, फिर नीलम सामने आई, उसकी खुली-खुली आँखें, मोतियों-सी झिलमिलाती दंतपंक्ति...उसका दिल बेचैन हो उठा।
ज्यों-ज्यों दिन बीतने लगे, भारत की याद उसे ज़्यादा परेशान करने लगी। वह जल में से बाहर फेंकी हुई मछली की तरह तड़पने लगा। सारनाथ के विहार में सवाल-जवाब नहीं होते थे। जहाँ पड़े रहो, पड़े रहो। रहने के लिए कोठरी और भोजन का प्रबंध विहार की ओर से था। यहाँ पर नई दृष्टि से धर्मग्रंथों को पढ़ने और समझने के लिए उसमें धैर्य नहीं था, जिज्ञासा भी नहीं थी। बरसों तक एक ढर्रे पर चलते रहने के कारण वह परिवर्तन से कतराता था। इस बैठक के बाद वह फिर से सकुचाने-सिमटने लगा था। कहीं-कहीं पर उसे भारत सरकार-विरोधी वाक्य सुनने को मिलते। सहसा वाङ्चू बेहद अकेला महसूस करने लगा और उसे लगा कि ज़िंदा रह पाने के लिए उसे अपने लड़कपन के उस ‘दिवा-स्वप्न’ में फिर से लौट जाना होगा, जब वह बौद्ध भिक्षु बनकर भारत में विचरने की कल्पना करता था।
उसने सहसा भारत लौटने की ठान ली। लौटना आसान नहीं था। भारतीय दूतावास से तो वीज़ा मिलने में कठिनाई नहीं हुई, लेकिन चीन की सरकार ने बहुत-से ऐतराज़ उठाए। वाङ्चू की नागरिकता का सवाल था, और अनेक सवाल थे। पर भारत और चीन के संबंध अभी तक बहुत बिगड़े नहीं थे, इसलिए अंत में वाङ्चू को भारत लौटने की इजाज़त मिल गई। उसने मन-ही-मन निश्चय कर लिया कि वह भारत में ही अब ज़िंदगी के दिन काटेगा। बौद्ध भिक्षु ही बने रहना उसकी नियति थी।
जिस रोज़ वह कलकत्ता पहुँचा, उसी रोज़ सीमा पर चीनी और भारतीय सैनिकों के बीच मुठभेड़ हुई थी और दस भारतीय सैनिक मारे गए थे। उसने पाया कि लोग घूर-घूरकर उसकी ओर देख रहे हैं। वह स्टेशन के बाहर अभी निकला ही था, जब दो सिपाही आकर उसे पुलिस के दफ़्तर में ले गए और वहाँ घंटे-भर एक अधिकारी उसके पासपोर्ट और काग़ज़ों की छानबीन करता रहा।
‘दो बरस पहले आप चीन गए थे। वहाँ जाने का क्या प्रयोजन था?’
‘मैं बहुत बरस तक यहाँ रहता रहा था, कुछ समय के लिए अपने देश जाना चाहता था।’ पुलिस-अधिकारी ने उसे सिर से पैर तक देखा। वाङ्चू आश्वस्त था और मुस्कुरा रहा था—वही टेढ़ी-सी मुस्कान।
‘आप वहाँ क्या करते रहे?’
‘वहाँ एक कम्यून में मैं खेती-बारी की टोली में काम करता था।’
‘मगर आप तो कहते हैं कि आप बौद्ध ग्रंथ पढ़ते हैं?’
‘हाँ, पेकिंग में मैं एक संस्था में हिंदी पढ़ाने लगा था और पेकिंग म्यूज़ियम में मुझे काम करने की इजाज़त मिल गई थी।’
‘अगर इजाज़त मिल गई थी तो आप अपने देश से भाग क्यों आए?’ पुलिस-अधिकारी ने ग़ुस्से में कहा।
वाङ्चू क्या जवाब दे? क्या कहे?
'मैं कुछ समय के लिए ही वहाँ गया था, अब लौट आया हूँ...’
पुलिस-अधिकारी ने फिर से सिर से पाँव तक उसे घूर कर देखा, उसकी आँखों में संशय उतर आया था। वाङ्चू अटपटा-सा महसूस करने लगा। भारत में पुलिस-अधिकारियों के सामने खड़े होने का उसका पहला अनुभव था। उससे जामिनी के लिए पूछा गया, तो उसने प्रोफ़ेसर तानशान का नाम लिया, फिर गुरुदेव का, पर दोनों मर चुके थे। उसने सारनाथ की संस्था के मंत्री का नाम लिया, शांतिनिकेतन के पुराने दो-एक सहयोगियों के नाम लिए, जो उसे याद थे। सुपरिंटेंडेंट ने सभी नाम और पते नोट कर लिए। उसके कपड़ों की तीन बार तलाशी ली गई। उसकी डायरी को रख लिया गया जिसमें उसने अनेक उद्धरण और टिप्पणियाँ लिख रहे थे और सुपरिंटेंडेंट ने उसके नाम के आगे टिप्पणी लिख दी कि इस आदमी पर नज़र रखने की ज़रूरत है।
रेल के डिब्बे में बैठा, तो मुसाफ़िर गोली-कांड की चर्चा कर रहे थे उसे बैठते देख सब चुप हो गए और उसकी ओर घूरने लगे।
कुछ देर बाद जब मुसाफ़िरों ने देखा कि वह थोड़ी-बहुत बंगाली और हिंदी बोल लेता है, तो एक बंगाली बाबू उचक कर उठ खड़े हुए और हाथ झटक-झटक कर कहने लगे, ‘या तो कहो कि तुम्हारे देशवालों ने विश्वासघात किया है, नहीं तो हमारे देश से निकल जाओ...निकल जाओ...निकल जाओ!’
डेढ़ दाँत की मुस्कान जाने कहाँ ओझल हो चुकी थी। उसकी जगह चेहरे पर त्रास उतर आया था। भयाकुल और मौन वाङ्चू चुपचाप बैठा रहा। कहे भी तो क्या कहे? गोली-कांड के बारे में जानकर उसे भी गहरा धक्का लगा था। उस झगड़े के कारण के बारे में उसे कुछ भी स्पष्ट मालूम नहीं था और वह जानना चाहता भी नहीं था।
हाँ, सारनाथ में पहुँचकर वह सचमुच भाव-विह्वल हो उठा। अपना थैला रिक्शा में रखे जब वह आश्रम के निकट पहुँचा, तो कैंटीन का रसोइया सचमुच लपक कर बाहर निकल आया—‘आ गए भगवान! आ गए मेरे चीनी बाबू! बहुत दिनों बाद दर्शन दिए! हम भी कहें, इतना अरसा हो गया चीनी बाबू नहीं लौटे! और कहिए, सब कुशल-मंगल है? आप यहाँ नहीं थे, हम कहें जाने कब लौटेंगे। यहाँ पर थे तो दिन में दो बातें हो जाती थीं, भले आदमी के दर्शन हो जाते थे। इससे बड़ा पुण्य होता है।’ और उसने हाथ बढ़ाकर थैला उठा लिया, ‘हम दें पैसे, चीनी बाबू?’
वाङ्चू को लगा, जैसे वह अपने घर पहुँच गया है।
‘आपकी ट्रंक, चीनी बाबू, हमारे पास रखी है। मंत्रीजी से हमने ले ली। आपकी कोठरी में एक दूसरे सज्जन रहने आए, तो हमने कहा कोई चिंता नहीं, यह ट्रंक हमारे पास रख जाइए, और चीनी बाबू, आप अपना लोटा बाहर ही भूल गए थे? हमने मंत्रीजी से कहा, यह लोटा चीनी बाबू का है, हम जानते हैं, हमारे पास छोड़ जाइए।’
वाङ्चू का दिल भर-भर आया। उसे लगा, जैसे उसकी डावाँडोल ज़िंदगी में संतुलन आ गया है। डगमगाती जीवन-नौका फिर से स्थिर गति से चलने लगी है।
मंत्रीजी भी स्नेह से मिले। पुरानी जान-पहचान के आदमी थे। उन्होंने एक कोठरी भी खोलकर दे दी, परंतु अनुदान के बारे में कहा कि उसके लिए फिर से कोशिश करनी होगी। वाङ्चू ने फिर से कोठरी के बीचोंबीच चटाई बिछा ली, खिड़की के बाहर वही दृश्य फिर से उभर आया। खोया हुआ जीव अपने स्थान पर लौट आया।
तभी मुझे उसका पत्र मिला कि वह भारत लौट आया है और फिर से जम कर बौद्धग्रंथों का अध्ययन करने लगा है। उसने यह भी लिखा कि उसे मासिक अनुदान के बारे में थोड़ी चिंता है और इस सिलसिले में मैं बनारस में यदि अमुक सज्जन को पत्र लिख दूँ, तो अनुदान मिलने में सहायता होगी।
पत्र पाकर मुझे खटका हुआ। कौन-सी मृगतृष्णा इसे फिर से वापस खींच लाई है? यह लौट क्यों आया है? अगर कुछ दिन और वहाँ बना रहता तो अपने लोगों के बीच इसका मन लगने लगता। पर किसी की सनक का कोई इलाज नहीं। अब जो लौट आया है, तो क्या चारा है! मैंने ‘अमुक’ जी को पत्र लिख दिया और वाङ्चू के अनुदान का छोटा-मोटा प्रबंध हो गया।
पर लौटने के दसेक दिन बाद वाङ्चू एक दिन प्रातः चटाई पर बैठा एक ग्रंथ पढ़ रहा था और बार-बार पुलक रहा था, जब उसकी किताब पर किसी का साया पड़ा। उसने नज़र उठाकर देखा, तो पुलिस का थानेदार खड़ा था, हाथ में एक पर्चा उठाए हुए था। वाङ्चू को बनारस के बड़े पुलिस स्टेशन में बुलाया गया था। वाङ्चू का मन आशंका से भर उठा था।
तीन दिन बाद वाङ्चू बनारस के पुलिस स्टेशन के बरामदे में बैठा था। उसी के साथ बेंच पर बड़ी उम्र का एक और चीनी व्यक्ति बैठा था जो जूते बनाने का काम करता था। आख़िर बुलावा आया और वाङ्चू चिक उठाकर बड़े अधिकारी की मेज़ के सामने जा खड़ा हुआ।
‘तुम चीन से कब लौटे?’
वाङ्चू ने बता दिया।
'कलकत्ता में तुमने अपने बयान में कहा कि तुम शांतिनिकेतन जा रहे हो, फिर तुम यहाँ क्यों चले आए? पुलिस को पता लगाने में बड़ी परेशानी उठानी पड़ी है।’
‘मैंने दोनों स्थानों के बारे में कहा था। शांतिनिकेतन तो मैं केवल दो दिन के लिए जाना चाहता था।’
‘मैं भारत में रहना चाहता हूँ...।’ उसने पहले का जवाब दोहरा दिया।
‘जो लौट आना था, तो गए क्यों थे?’
यह सवाल वह बहुत बार पहले भी सुन चुका था। जवाब में बौद्धग्रंथों का हवाला देने के अतिरिक्त उसे कोई और उत्तर नहीं सूझ पाता था।
बहुत लंबी इंटरव्यू नहीं हुई। वाङ्चू को हिदायत की गई कि हर महीने के पहले सोमवार को बनारस के बड़े पुलिस स्टेशन में उसे आना होगा और अपनी हाज़िरी लिखानी होगी।
वाङ्चू बाहर आ गया, पर खिन्न-सा महसूस करने लगा। महीने में एक बार आना कोई बड़ी बात नहीं थी, लेकिन वह उसके समतल जीवन में बाधा थी, व्यवधान था।
वाङ्चू मन-ही-मन इतना खिन्न-सा महसूस कर रहा था कि बनारस से लौटने के बाद कोठरी में जाने की बजाय वह सबसे पहले उस नीरव पुण्य स्थान पर जाकर बैठ गया, जहाँ शताब्दियों पहले महाप्राण ने अपना पहला प्रवचन किया था, और देर तक बैठा मनन करता रहा। बहुत देर बाद उसका मन फिर से ठिकाने पर आने लगा और दिल में फिर से भावना की तरंगे उठने लगीं।
पर वाङ्चू को चैन नसीब नहीं हुआ। कुछ ही दिन बाद सहसा चीन और भारत के बीच जंग छिड़ गई। देश-भर में जैसे तूफ़ान उठा खड़ा हुआ। उसी रोज़ शाम को पुलिस के कुछ अधिकारी एक जीप में आए और वाङ्चू को हिरासत में लेकर बनारस चले गए। सरकार यह न करती, तो और क्या करती? शासन करने वालों को इतनी फ़ुरसत कहाँ कि संकट के समय संवेदना और सद्भावना के साथ दुश्मन के एक-एक नागरिक की स्थिति की जाँच करते फिरें?
दो दिनों तक दोनों चीनियों को पुलिस स्टेशन की एक कोठरी में रखा गया। दोनों के बीच किसी बात में भी समानता नहीं थी। जूते बनाने वाला चीनी सारा वक़्त सिगरेट फूँकता रहता और घुटनों पर कोहनियाँ टिकाए बड़बड़ाता रहता, जबकि वाङ्चू उद्भ्रांत और निढाल-सा दीवार के साथ पीठ लगाए बैठा शून्य में देखता रहता।
जिस समय वाङ्चू अपनी स्थिति को समझने की कोशिश कर रहा था, उसी समय दो-तीन कमरे छोड़कर पुलिस सुपरिंटेंडेंट की मेज़ पर उसकी छोटी-सी पोटली की तलाशी ली जा रही थी। उसकी ग़ैर-मौजूदगी में पुलिस के सिपाही कोठरी में से उसका ट्रंक उठा लाए थे। सुपरिंटेंडेंट के सामने काग़ज़ों का पुलिंदा रखा था, जिस पर कहीं पाली में तो कहीं संस्कृत भाषा में उद्धरण लिखे थे, लेकिन बहुत-सा हिस्सा चीनी भाषा में था। साहब कुछ देर तक तो काग़ज़ों में उलटते-पलटे रहे, रौशनी के सामने रखकर उनमें लिखी किसी गुप्त भाषा को ढूँढ़ते भी रहे, अंत में उन्होंने हुक्म दिया कि काग़ज़ों के पुलिंदे को बाँध कर दिल्ली के अधिकारियों के पास भेज दिया जाए, क्योंकि बनारस में कोई आदमी चीनी भाषा नहीं जानता था।
पाँचवें दिन लड़ाई बंद हो गई, लेकिन वाङ्चू के सारनाथ लौटने की इजाज़त एक महीने के बाद मिली। चलते समय जब उसे उसका ट्रंक दिया गया और उसने उसे खोलकर देखा, तो सकते में आ गया। उसके काग़ज़ उसमें नहीं थे, जिस पर वह बरसों से अपनी टिप्पणियाँ और लेखादि लिखता रहा था और जो एक तरह से उसके सर्वस्व थे। पुलिस अधिकारी के कहने पर कि उन्हें दिल्ली भेज दिया गया है, वह सिर से पैर तक काँप उठा था।
‘वे मेरे काग़ज़ आप मुझे दे दीजिए। उन पर मैंने बहुत कुछ लिखा है, वे बहुत ज़रूरी हैं।’
इस पर अधिकारी रुखाई से बोला, ‘मुझे उन काग़ज़ों का क्या करना है, आपके हैं, आपको मिल जाएँगे।’ और उसने वाङ्चू को चलता किया। वाङ्चू अपनी कोठरी में लौट आया। अपने काग़ज़ों के बिना वह अधमरा-सा हो रहा था। न पढ़ने में मन लगता, न काग़ज़ों पर नए उद्धरण उतारने में। और फिर उस पर कड़ी निगरानी रखी जाने लगी थी। खिड़की से थोड़ा हट कर नीम के पेड़ के नीचे एक आदमी रोज़ बैठा नज़र आने लगा। डंडा हाथ में लिए वह कभी एक करवट बैठता, कभी दूसरी करवट। कभी उठकर डोलने लगता। कभी कुएँ की जगत पर जा बैठता, कभी कैंटीन की बेंच पर आ बैठता, कभी गेट पर जा खड़ा होता। इसके अतिरिक्त अब वाङ्चू को महीने में एक बार के स्थान पर सप्ताह में एक बार बनारस में हाज़िरी लगवाने जाना पड़ता था।
तभी मुझे वाङ्चू की चिट्ठी मिली। सारा ब्यौरा देने के बाद उसने लिखा कि बौद्ध विहार का मंत्री बदल गया है और नए मंत्री को चीन से नफ़रत है और वाङ्चू को डर है कि अनुदान मिलना बंद हो जाएगा। दूसरे, कि मैं जैसे भी हो उसके काग़ज़ों को बचा लूँ। जैसे भी बन पड़े, उन्हें पुलिस के हाथों से निकलवा कर सारनाथ में उसके पास भिजवा दूँ। और अगर बनारस के पुलिस स्टेशन में प्रति सप्ताह पेश होने की बजाय उसे महीने में एक बार जाना पड़े तो उसके लिए सुविधाजनक होगा, क्योंकि इस तरह महीने में लगभग दस रुपए आने-जाने में लग जाते हैं और फिर काम में मन ही नहीं लगता, सिर पर तलवार टँगी रहती है।
वाङ्चू ने पत्र तो लिख दिया, लेकिन उसने यह नहीं सोचा कि मुझ जैसे आदमी से यह काम नहीं हो पाएगा। हमारे यहाँ कोई काम बिना जान-पहचान और सिफ़ारिश के नहीं हो सकता। और मेरे परिचय का बड़े-से बड़ा आदमी मेरे कॉलेज का प्रिंसिपल था। फिर भी मैं कुछेक संसद-सदस्यों के पास गया, एक ने दूसरे की ओर भेजा, दूसरे ने तीसरे की ओर। भटक-भटक कर लौट आया। आश्वासन तो बहुत मिले, पर सब यही पूछते—‘वह चीन जो गया था वहाँ से लौट क्यों आया?’ या फिर पूछते—‘पिछले बीस साल से अध्ययन ही कर रहा है?’
पर जब मैं उसकी पांडुलिपियों का ज़िक्र करता, तो सभी यही कहते, ‘हाँ, यह तो कठिन नहीं होना चाहिए।’ और सामने रखे काग़ज़ पर कुछ नोट कर लेते। इस तरह के आश्वासन मुझे बहुत मिले। सभी सामने रखे काग़ज़ पर मेरा आग्रह नोट कर लेते। पर सरकारी काम के रास्ते चक्रव्यूह के रास्तों के सामने होते हैं और हर मोड़ पर कोई-न-कोई आदमी तुम्हें तुम्हारी हैसियत का बोध कराता रहता है। मैंने जवाब में उसे अपनी कोशिशों का पूरा ब्यौरा दिया, यह भी आश्वासन दिया कि मैं फिर लोगों से मिलूँगा, पर साथ ही मैंने यह भी सुझाव दिया कि जब स्थिति बेहतर हो जाए, तो वह अपने देश वापस लौट जाए, उसके लिए यही बेहतर है।
ख़त से उसके दिल की क्या प्रतिक्रिया हुई, मैं नहीं जानता। उसने क्या सोचा होगा? पर उन तनाव के दिनों में जब मुझे स्वयं चीन के व्यवहार पर ग़ुस्सा आ रहा था, मैं वाङ्चू की स्थिति को बहुत सहानुभूति के साथ नहीं देख सकता था।
उसका फिर एक ख़त आया। उसमें चीन लौट जाने का कोई ज़िक्र नहीं था। उसमें केवल अनुदान की चर्चा की गई थी। अनुदान की रक़म अभी भी चालीस रुपए ही थी, लेकिन उसे पूर्व-सूचना दे दी गई थी कि साल ख़त्म होने पर उस पर फिर से विचार किया जाएगा कि वह मिलती रहेगी या बंद कर दी जाएगी।
लगभग साल-भर बाद वाङ्चू को एक पुर्ज़ा मिला कि तुम्हारे काग़ज़ वापस किए जा सकते हैं, कि तुम पुलिस स्टेशन आकर उन्हें ले जा सकते हो। उन दिनों वह बीमार पड़ा था, लेकिन बीमारी की हालत में भी वह गिरता-पड़ता बनारस पहुँचा। लेकिन उसके हाथ एक-तिहाई काग़ज़ लगे। पोटली अभी भी अधखुली थी। वाङ्चू को पहले तो यक़ीन नहीं आया, फिर उसका चेहरा ज़र्द पड़ गया और हाथ-पैर काँपने लगे। इस पर थानेदार रुखाई के साथ बोला, ‘हम कुछ नहीं जानते! इन्हें उठाओ और यहाँ से ले जाओ वरना इधर लिख दो कि हम लेने से इनकार करते हैं।’
काँपती टाँगों से वाङ्चू पुलिंदा बग़ल में दबाए लौट आया। काग़ज़ों में केवल एक पूरा निबंध और कुछ टिप्पणियाँ बची थीं।
उसी दिन से वाङ्चू की आँखों के सामने धूल उड़ने लगी थी।
वाङ्चू की मौत की ख़बर मुझे महीने-भर बाद मिली, वह भी बौद्ध विहार के मंत्री की ओर से। मरने से पहले वाङ्चू ने आग्रह किया था उसका छोटा-सा ट्रंक और उसकी गिनी चुनी किताबें मुझे पहुँचा दी जाएँ।
उम्र के इस हिस्से में पहुँचकर इंसान बुरी ख़बरें सुनने का आदी हो जाता है और वे दिल पर गहरा आघात नहीं करतीं।
मैं फ़ौरन सारनाथ नहीं जा पाया, जाने में कोई तुक भी नहीं थी, क्योंकि वहाँ वाङ्चू का कौन बैठा था, जिसके सामने अफ़सोस करता, वहाँ तो केवल ट्रंक ही रखा था। पर कुछ दिनों बाद मौक़ा मिलने पर मैं गया। मंत्रीजी ने वाङ्चू के प्रति सद्भावना के शब्द कहे—‘बड़ा नेकदिल आदमी था, सच्चे अर्थों में बौद्ध भिक्षु था,’ आदि-आदि। मेरे दस्तख़त लेकर उन्होंने ट्रंक मेरे हवाले की। ट्रंक में वाङ्चू के कपड़े थे, वह फटा-पुराना चोग़ा था, जो नीलम ने उसे उपहारस्वरूप दिया था। तीन-चार किताबें थीं, पाली की और संस्कृत की। चिट्ठियाँ थीं, जिनमें कुछ चिट्ठियाँ मेरी, कुछ नीलम की रही होंगी, कुछ और लोगों की।
ट्रंक उठाए मैं बाहर की ओर जा रहा था जब मुझे अपने पीछे क़दमों की आहट मिली। मैंने मुड़कर देखा, कैंटीन का रसोइया भागता चला आ रहा था। अपने पत्रों में अक्सर वाङ्चू उसका ज़िक्र किया करता था...
‘बाबू आपको बहुत याद करते थे। मेरे साथ आपकी चर्चा बहुत करते थे। बहुत भले आदमी थे...’
और उसकी आँखें डबडबा गईं। सारे संसार में शायद यही अकेला जीव था, जिसने वाङ्चू की मौत पर दो आँसू बहाए थे।
‘बड़ी भोली तबीयत थी। बेचारे को पुलिसवालों ने बहुत परेशान किया। शुरू-शुरू में तो चैबीस घंटे की निगरानी रहती थी। मैं उस हवलदार से कहूँ, भैया, तू क्यों इस बेचारे को परेशान करता है? वह कहे, मैं तो ड्यूटी कर रहा हूँ...!’
मैं ट्रंक और काग़ज़ों का पुलिंदा ले आया हूँ। इस पुलिंदे का क्या करूँ? कभी सोचता हूँ, इसे छपवा डालूँ। पर अधूरी पांडुलिपि को कौन छापेगा? पत्नी रोज़ बिगड़ती है कि मैं घर में कचरा भरता रहता हूँ। दो-तीन बार वह फेंकने की धमकी भी दे चुकी है, पर मैं इसे छिपाता रहता हूँ। कभी किसी तख़्ते पर रख देता हूँ, कभी पलँग के नीचे छिपा देता हूँ। पर मैं जानता हूँ किसी दिन ये भी गली में फेंक दिए जाएँगे।
tabhi door se vanchu aata dikhai diya.
nadi ke kinare, lalmanDi ki saDak par dhire dhire Dolta sa chala aa raha tha. dhusar rang ka chogha pahne tha aur door se lagta tha ki bauddh bhikshuon ki hi bhanti uska sir bhi ghuta hua hai. pichhe shankracharya ki uunchi pahaDi thi aur uupar svachchh nila akash. saDak ke donon or uunche uunche safede ke peDon ki qataren. kshan bhar ke liye mujhe laga, jaise vanchu itihas ke pannon par se utarkar aa gaya hai. prachinkal mein isi bhanti desh videsh se aane vale chivardhari bhikshu pahaDon aur ghatiyon ko langhakar bharat mein aaya karte honge. atit ke aise hi romanchkari dhundhalake mein mujhe vanchu bhi chalta hua nazar aaya. jab se wo shringar mein aaya tha, bauddh viharon ke khanDahron aur sangrhalyon mein ghoom raha tha. is samay bhi wo lalmanDi ke sangrhalay mein se nikalkar aa raha tha jahan bauddhkal ke anek avshesh rakhe hain. uski manःsthiti ko dekhte hue wo sachmuch hi vartaman se katkar atit ke hi kisi kalkhanD mein vichar raha tha.
‘bodhisatvon se bhent ho gai?’ paas aane par mainne chutki li. ’
wo muskura diya, halki teDhi si muskan, jise meri mauseri bahan DeDh daant ki muskan kaha karti thi, kyonki muskurate vaqt vanchu ka uupar ka honth keval ek or se thoDa sa uupar ko uthta tha.
‘sangrhalay ke bahar bahut si murtiyan rakhi hain. main vahi dekhta raha. ’ usne dhime se kaha, phir wo sahsa bhavuk hokar bola, ‘ek murti ke keval pair hi pair bache hain. . . ’
mainne socha, aage kuch kahega, parantu wo itna bhavavihval ho utha tha ki uska gala rundh gaya aur uske liye bolna asambhav ho gaya.
hum ek saath ghar ki or lautne lage.
‘mahapran ke bhi pair hi pahle dikhaye jate the. ’ usne kanpti si avaz mein kaha aur apna haath meri kohni par rakh diya. uske haath ka halka sa kampan dhaDakte dil ki tarah mahsus ho raha tha.
‘arambh mein mahapran ki murtiyan nahin banai jati theen na! tum to jante ho, pahle stoop ke niche keval pair hi dikhaye jate the. murtiyan to baad mein banai jane lagi thi. ’
zahir hai, bodhisattv ke pair dekhkar use mahapran ke pair yaad ho aaye the aur wo bhavuk ho utha tha. kuch pata nahin chalta tha, kaun si baat kis vaqt vanchu ko pulkane lage, kis vaqt wo gadgad hone lage.
‘tumne bahut der kar di. sabhi log tumhara intzaar kar rahe hain. main chinaron ke niche bhi tumhein khoj aaya hoon. ’ mainne kaha.
‘main sangrhalay mein tha. . . ’
‘vah to theek hai, par do baje tak hamein habbakdal pahunch jana chahiye, varna jane ka koi laabh nahin. ’
usne chhote chhote jhatkon ke saath teen baar sir hilaya aur qadam baDha diye.
vanchu bharat mein matvala bana ghoom raha tha. wo mahapran ke janmasthan lumbini ki yatra nange paanv kar chuka tha, sara rasta haath joDe hue. jis jis disha mein mahapran ke charan uthe the, vanchu mantrmugdh sa usi usi disha mein ghoom aaya tha. saranath mein, jahan mahapran ne apna pahla pravchan diya tha aur do mrigashavak mantrmugdh se jhaDiyon mein se nikalkar unki or dekhte rah ge the, vanchu ek pipal ke peD ke niche ghanton natmastak baitha raha tha, yahan tak ki uske kathanusar uske mastak se asphut se vakya gunjne lage the aur use laga tha, jaise mahapran ka pahla pravchan sun raha hai. wo is bhaktipurn kalpana mein itna gahra Doob gaya tha ki saranath mein hi rahne laga tha. ganga ki dhaar ko wo dasiyon shatabdiyon ke dhundhalake mein pavan jalapravah ke roop mein dekhta. jab se wo shringar mein aaya tha, barf ke Dhake pahaDon ki chotiyon ki or dekhte hue aksar mujhse kahta—vah rasta lhasa ko jata hai na, usi raste bauddhagranth tibbat mein bheje ge the. wo us parvatmala ko bhi punya pavan manata tha kyonki us par bichhi pagDanDiyon ke raste bauddh bhikshu tibbat ki or ge the.
vanchu kuch varshon pahle vriddh profesar taan shaan ke saath bharat aaya tha. kuch dinon tak to wo unhin ke saath raha aur hindi aur angrezi bhashaon ka adhyayan karta raha, phir profesar shaan cheen laut ge aur wo yahin bana raha aur kisi bauddh sosaiti se anudan praapt kar saranath mein aakar baith gaya. bhavuk, kavyamyi prakriti ka jivan, jo prachinata ke manmohak vatavran mein vicharte rahna chahta tha. . . wo yahan tathyon ki khoj karne kahin aaya tha, wo to bodhisattvon ki murtiyon ko dekhkar gadgad hone aaya tha. mahine bhar se sangrhalyon se chakkar kaat raha tha, lekin usne kabhi nahin bataya ki bauddh dharm ki kis shiksha se use sabse adhik prrena milti hai. na to wo kisi tathya ko pakar utsaah se khil uthta, na use koi sanshay pareshan karta. wo bhakt adhik aur jigyasu kam tha.
mujhe yaad nahin ki usne hamare saath kabhi khulkar baat ki ho ya kisi vishay par apna mat pesh kiya ho. un dinon mere aur mere doston ke beech ghanton bahsen chala kartin, kabhi desh ki rajaniti ke bare mein, kabhi dharm mae bare mein, lekin vanchu inmen kabhi bhaag nahin leta tha. wo sara vaqt dhime dhime muskurata rahta aur kamre ke ek kone mein dubak kar baitha rahta. un dinon desh mein valavlon ka sailab sa uth raha tha. svtantrta andolan zoron par tha aur hamare beech usi ki charcha rahti—kangres kaun si niti apnayegi, andolan kaun sa rukh pakDega. kriyatmak star par to hum log kuch karte karate nahin the, lekin bhavanatmak star par uske saath bahut kuch juDe hue the. is par vanchu ki tatasthata kabhi hamein akharne lagati, to kabhi achambhe mein Daal deti. wo hamare desh ki hi gatividhi ke bare mein nahin, apne desh ki gatividhi mein bhi koi vishesh dilchaspi nahin leta tha. usse uske apne desh ke bare mein bhi puchho, to muskurata sir hilata rahta tha.
kuch dinon se shringar ki hava bhi badli hui thi. kuch maas pahle yahan goli chali thi. kashmir ke log maharaja ke khilaf uth khaDe hue the aur ab kuch dinon se shahr mein ek nai uttejna pai jati thi. nehru ji shringar aane vale the aur unka svagat karne ke liye nagar ko dulhan ki tarah sajaya ja raha tha. aaj hi duphar ko nehru ji shringar pahunch rahe hain. nadi ke raste navon ke julus ki shakl mein unhen lane ki yojna thi aur isi karan main vanchu ko khojta hua us or aa nikla tha.
hum ghar ki or baDhe ja rahe the, jab sahsa vanchu thithak kar khaDa ho gaya.
‘kya mera jana bahut zaruri hai? jaisa tum kaho. . . ’
mujhe dhakka sa laga. aise samay mein, jab lakhon log nehru ji ke svagat ke liye ikatthe ho rahe the, vanchu ka ye kahna ki agar wo saath na jaye, to kaisa rahe, mujhe sachmuch bura laga. lekin phir svayan hi kuch sochkar usne apne agrah ko dohraya nahin aur hum ghar ki or saath saath jane lage.
kuch der baad habbakdal ke pul ke nikat lakhon ki bheeD mein hum log khaDe the—main, vanchu tatha mere do teen mitr. charon or jahan tak nazar jati, log hi log the—makanon ki chhaton par, pul par, nadi ke Dhalvan kinaron par. main baar baar kanakhiyon se vanchu ke chehre ki or dekh raha tha ki uski kya pratikriya hui hai, ki hamare dil mein uthne vale valavlon ka us par kya asar hua hai. yoon bhi ye meri aadat si ban gai hai, jab bhi koi videshi saath mein ho, main uske chehre ka bhaav paDhne ki koshish karta rahta hoon ki hamare riti rivaj, hamare jivanyapan ke bare mein uski kya pratikriya hoti hai. vanchu adhmundi ankhon se samne ka drishya dekhe ja raha tha. jis samay nehru ji ki naav samne aai, to jaise makanon ki chhaten bhi hil uthin. rajhans shakl ki safed naav mein nehru ji sthaniy netaon ke saath khaDe haath hila hilakar logon ka abhivadan kar rahe the. aur hava mein phool hi phool bikhar ge. mainne palatkar vanchu ke chehre ki or dekha. wo pahle hi ki tarah nishchesht sa samne ka drishya dekhe ja raha tha.
‘apko nehru ji kaise lage?’ mere ek sathi ne vanchu se puchha.
vanchu ne apni teDhi si ankhen uthakar chehre ki or dekha, phir apni DeDh daant ki muskan ke saath kaha, ‘achcha, bahut achcha!’
vanchu mamuli si hindi aur angrezi janta tha. agar tez bolo, to uske palle kuch nahin paDta tha.
nehru ji ki naav door ja chuki thi lekin navon ka julus abhi bhi chalta ja raha tha, jab vanchu sahsa mujhse bola, ‘main thoDi der ke liye sangrhalay mein jana chahunga. idhar se rasta jata hai, main svayan chala jaunga. ’ aur wo bina kuch kahe, ek baar adhamichi ankhon se muskaya aur halke se haath hilakar muD gaya.
hum sabhi hairan rah ge. ise sachmuch julus mein ruchi nahin rahi hogi jo itni jaldi sangrhalay ki or akela chal diya hai.
‘yaar, kis budam ko utha laye ho? ye kya cheez hai? kahan se pakaD laye ho ise?’ mere ek mitr ne kaha.
‘bahar ka rahne vala hai, ise hamari baton mein kaise ruchi ho sakti hai!’ mainne safai dete hue kaha.
vaah, desh mein itna kuch ho raha ho aur ise ruchi na ho!’
vanchu ab tak door ja chuka tha aur bheeD mein se nikalkar peDon ki qatar ke niche ankhon se ojhal hota ja raha tha.
‘magar ye hai kaun?’ dusra ek mitr bola, ‘na ye bolta hai, na chahakta hai. kuch pata nahin chalta, hans raha hai ya ro raha hai. sara vaqt ek kone mein dubakkar baitha rahta hai. ’
‘nahin, nahin baDa samajhdar adami hai. pichhle paanch saal se yahan par rah raha hai. baDa paDha likha adami hai. bauddh dharm ke bare mein bahut kuch janta hai. ’ mainne phir uski safai dete hue kaha.
meri nazar mein is baat ka baDa mahatv tha ki wo bauddh granth banchata hai aur unhen banchane ke liye itni door se aaya hai.
‘are bhaaD mein jaye aisi paDhai. vaah ji, julus ko chhoDkar myuziyam ki or chal diya hai!’
sidhi si baat hai yaar!’ mainne joDa, ise yahan bharat ka vartaman khinchkar nahin laya, bharat ka atit laya hai. hyu natsang bhi to yahan bauddh granth hi banchane aaya tha. ye bhi shiksharthi hai. bauddh mat mein iski ruchi hai. ’
ghar lautte hue hum log sara rasta vanchu ki hi charcha karte rahe. ajay ka mat tha, agar wo paanch saal bharat mein kaat gaya hai, to ab wo zindagi bhar yahin par rahega.
‘ab aa gaya hai, to lautkar nahin jayega. bharat mein ek baar pardeshi aa jaye, to lautne ka naam nahin leta. ’
‘bharat desh wo daldal hai ki jismen ek baar bahar ke adami ka paanv paD jaye, to dhansta hi chala jata hai, nikalna chahe bhi, to nahin nikal sakta!’ dilip ne mazaq mein kaha, na jane kaun se kamal phool toDne ke liye is daldal mein ghusa hai!’
‘hamara desh hum hindustaniyon ko pasand nahin, bahar ke logon ko to bahut pasand hai!’ mainne kaha.
‘pasand kyon na hoga! yahan thoDe mein guzar ho jati hai, sara vaqt dhoop khili rahti hai, phir bahar ke adami ko log pareshan nahin karte, jahan baitha hai vahin baitha rahne dete hain. is par unhen tum jaise jhuDDu bhi mil jate hain, jo unka gungan karte rahte hain aur unki avabhgat karte rahte hain! tumhara vanchu bhi yahin par marega. . . . ’
hamare yahan un dinon meri chhoti mauseri bahan thahri hui thi, vahi jo vanchu ki muskan ko DeDh daant ki muskan kaha karti thi. chulbuli si laDki baat baat par thitholi karti rahti thi. mainne do ek baar vanchu ko kanakhiyon se uski or dekhte paya tha, lekin koi vishesh dhyaan nahin diya, kyonki wo sabhi ko kanakhiyon se hi dekhta tha. par us shaam nilam mere paas aai aur boli, apke dost ne mujhe uphaar diya hai. premophar!’
mere kaan khaDe ho ge, ‘kya diya hai?’
‘jhumron ka joDa. ’
aur usne donon mutthiyan khol deen jinmen chandi ke kashmiri chalan ke do safed jhumar chamak rahe the. aur phir wo donon jhumar apne kanon ke paas le jakar boli, ‘kaise lagte hain?’
‘bahut zyada. jab sharmata hai, to braun ho jate hain gahre braun. ’ aur nilam khilakhilakar hans paDi.
laDkiyan kaise us adami ke prem ka mazaq uDa sakti hai, jo unhen pasand na ho! ya kahin nilam mujhe bana to nahin rahi hai?
par main is suchana se bahut vichlit nahin hua tha. nilam lahaur mein paDhti thi aur vanchu saranath mein rahta tha aur ab wo hafte bhar mein shringar se vapas jane vala tha. is prem ka ankur apne aap hi jal bhun jayega.
‘nilam, ye jhumar to tumne usse le liye hain, par is prakar ki dosti ant mein uske liye dukhdayi hogi. bane banayega kuch nahin. ’
vaah bhaiya, tum bhi kaise daqiyanusi ho! mainne bhi chamDe ka ek raiting paiD use uphaar mein diya hai. mere paas pahle se paDa tha, mainne use de diya. jab lautega to prem patr likhne mein use asani hogi. ’
‘vah kya kahta tha?’
kahta kya tha, sara vaqt uske haath kanpte rahe aur chehra kabhi laal hota raha, kabhi pila. kahta tha, mujhe patr likhna, mere patron ka javab dena. aur kya kahega bechara, bhure kanonvala. ’
mainne dhyaan se nilam ki or dekha, par uski ankhon mein mujhe hansi ke atirikt kuch dikhai nahin diya. laDkiyan dil ki baat chhipana khoob janti hain. mujhe laga, nilam use baDhava de rahi hai. uske liye wo khilvaD tha, lekin vanchu zarur iska dusra hi arth nikalega.
iske baad mujhe laga ki vanchu apna santulan kho raha hai. usi raat main apne kamre ki khiDki ke paas khaDa bahar maidan mein chinaron ki paant ki or dekh raha tha, jab chandni mein, kuch duri par peDon ke niche mujhe vanchu tahalta dikhai diya. wo aksar raat ko der tak peDon ke niche tahalta rahta tha. par aaj wo akela nahin tha. nilam bhi uske saath thumak thumak kar chalti ja rahi thi. mujhe nilam par ghussa aaya. laDkiyan kitni zalim hoti hain! ye jante hue bhi ki is khilvaD se vanchu ki bechaini baDhegi, wo use baDhava diye ja rahi thi.
dusre roz khane ki mez par nilam phir uske saath thitholi karne lagi. kichan mein se ek chaiDa sa eluminiyam ka Dibba utha lai. uska chehra tape tanbe jaisa laal ho raha tha.
‘apke liye rotiyan aur aalu bana lai hoon. aam ke achar ki phaank bhi rakhi hai. aap jante hain phaank kise kahte hain? ek baar kaho to ‘phaank’. kaho vanchu ji, ‘phaank!’
usne nilam ki or khoi khoi ankhon se dekha aur bola, ‘baank!’
hum sabhi khilakhilakar hans paDe.
‘baank nahin, phaank!’
‘vaank!’ phir hansi ka favvara phoot paDa.
nilam ne Dibba khola. usmen se aam ke achar ka tukDa nikalkar use dikhate hue boli, ‘yah hai phaank, phaank ise kahte hain!’ aur use vanchu ki naak ke paas le jakar boli, ‘ise sunghne par munh mein pani bhar aata hai. aaya munh mein pani? ab kaho, ‘phaank’!’
‘nilam, kya fizul baten kar rahi ho! baitho aram se!’ mainne Dantte hue kaha.
nilam baith gai, par uski harakten band nahin hui. baDe agrah se vanchu se kahne lagi, banaras jakar hamein bhool nahin jaiyega. hamein khat zarur likhiyega aur agar kisi cheez ki zarurat ho to sankoch nahin kijiyega. ’
vanchu shabdon ke arth to samajh leta tha lekin unke vyangya ki dhvani wo nahin pakaD pata tha. wo adhikadhik vichlit mahsus kar raha tha.
‘bheD ki khaal ki zarurat ho ya koi namda, ya akhrot. . . ’
‘nilam!’
‘kyon bhaiya, bheD ki khaal par baithkar granth banchenge!’
vanchu ke kaan laal hone lage. shayad pahli baar use bhaas hone laga tha ki nilam thitholi kar rahi hai. uske kaan sachmuch bhure rang ke ho rahe the, jinka nilam mazaq uDaya karti thi.
‘nilam ji, aap logon ne mera baDa atithi satkar kiya hai. main baDa kritagya hoon. ’
hum sab chup ho ge. nilam bhi jhemp si gai. vanchu ne zarur hi uski thitholi ko samajh liya hoga. uske man ko zarur thes lagi hogi. par mere man mein ye vichar bhi utha ki ek tarah se ye achchha hi hai ki nilam ke prati uski bhavna badle, varna use hi sabse adhik pareshani hogi.
shayad vanchu apni sthiti ko jante samajhte hue bhi ek svabhavik akarshan ki chapet mein aa gaya tha. bhavuk vyakti ka apne par koi qabu nahin hota. wo pachhaD khakar girta hai, tabhi apni bhool ko samajh pata hai.
saptah ke antim dinon mein wo roz koi na koi uphaar le kar aane laga. ek baar mere liye bhi ek chogha le aaya aur bachchon ki tarah zid karne laga ki main aur wo apna apna chogha pahankar ek saath ghumne jayen. sangrhalay mein wo ab bhi jata tha, do ek baar nilam ko bhi apne saath le gaya tha aur lautne par sari shaam nilam bodhisattvon ki khilli uDati rahi theen main man hi man nilam ke is vyvahar ka svagat hi karta raha, kyonki main nahin chahta tha ki vanchu ki koi bhavna hamare ghar mein jaD jama pae. saptah beet gaya aur vanchu saranath laut gaya.
vanchu ke chale jane ke baad uske saath mera sampark vaisa hi raha, jaisa amtaur par ek parichit vyakti ke saath rahta hai. gahe ba gahe kabhi khat aa jata, kabhi kisi aate jate vyakti se uski suchana mil jati. wo un logon mein se tha, jo barson tak aupacharik parichay ki paridhi par hi Dolte rahte hain, na paridhi langhakar andar aate hain aur na hi pichhe hatkar ankhon se ojhal hote hain. mujhe itni hi jankari rahi ki uski samtal aur bandhi bandhai dincharya mein koi antar nahin aaya. kuch der tak mujhe kutuhal sa bana raha ki nilam aur vanchu ke beech ki baat aage baDhi ya nahin, lekin laga ki wo prem bhi vanchu ke jivan par havi nahin ho paya.
baras aur saal bitte ge. hamare desh mein un dinon bahut kuch ghat raha tha. aaye din satyagrah hote, bangal mein durbhiksh phuta, ‘bharat chhoDo’ ka andolan hua, saDkon par goliyan chali, bambii mein navikon ka vidroh hua, desh mein khunrezi hui, phir desh ka bantvara hua, aur sara vaqt vanchu saranath mein hi bana raha. wo apne mein santusht jaan paDta tha. kabhi likhta ki tantragyan ka adhyayan kar raha hai, kabhi pata chalta ki koi pustak likhne ki yojna bana raha hai.
iske baad meri mulaqat vanchu se dilli mein hui. ye un dinon ki baat hai, jab cheen ke prdhanmantri chau en lai bharat yatra par aane vale the. vanchu achanak saDak par mujhe mil gaya aur main use apne ghar le aaya. mujhe achchha laga ki cheen ke prdhanmantri ke agaman par wo saranath se dilli chala aaya hai. par jab usne mujhe bataya ki wo apne anudan ke silsile mein aaya hai aur yahin pahunchne par use uu en lai ke agaman ki suchana mili hai, to mujhe uski manovritti par achambha hua. uska svbhaav vaisa ka vaisa hi tha. pahle ki hi tarah haule haule apni DeDh daant ki muskan muskurata raha. vaisa hi nishchesht, samprikt. is beech usne koi pustak athva lekhadi bhi nahin likhe the. mere puchhne par is kaam mein usne koi vishesh ruchi bhi nahin dikhai. tantragyan ki charcha karte samay bhi wo bahut chahka nahin. do ek granthon ke bare mein batata raha, jismen se wo kuch tippaniyan leta raha tha. apne kisi lekh ki bhi charcha usne ki, jis par wo abhi kaam kar raha tha. nilam ke saath uski chitthi patri chalti rahi, usne bataya, halanki nilam kab ki byahi ja chuki thi aur do bachcho ki maan ban chuki thi. samay ki gati ke saath hamari mool dharnayen bhale hi na badlen, par unke agrah aur utsukta mein sthirta si aa gai thi pahle jaisi bhavavihvalta nahin thi. bodhisattvon ke pairon par apne praan nichhavar nahin karta phirta tha. lekin apne jivan se santusht tha. pahle ki hi bhanti thoDa khata, thoDa paDhta, thoDa bhrman karta aur thoDa sota tha. aur door laDakpan se jhutpute mein kisi bhavavesh mein chune ge apne jivan path par kachhue ki chaal maze se chalta aa raha tha.
khana khane ke baad hamare beech bahs chhiD gai—‘samajik shaktiyon ko samjhe bina tum bauddh dharm ko bhi kaise samajh paoge? gyaan ka pratyek kshetr ek dusre se juDa hai, jivan se juDa hai. koi cheez jivan se alag nahin hai. tum jivan se alag hokar dharm ko bhi kaise samajh sakte ho?’
kabhi wo muskurata, kabhi sir hilata aur sara vaqt darshanikon ki tarah mere chehre ki or dekhta raha. mujhe lag raha tha ki mere kahe ka us par koi asar nahin ho raha, ki chikne ghaDe par main pani unDele ja raha hoon.
‘hamare desh mein na sahi, tum apne desh ke jivan mein to ruchi lo! itna jano samjho ki vahan par kya ho raha hai!’
is par bhi wo sir hilata aur muskurata raha. main janta tha ki ek bhai ko chhoDkar cheen mein uska koi nahin hai. 1929 mein vahan par koi rajnitik uthal puthal hui thi, usmen uska gaanv jala Dala gaya tha aur sab sage sambandhi mar ge the, ya bhaag ge the. le dekar ek bhai bacha tha aur wo peking ke nikat kisi gaanv mein rahta tha. barson se vanchu ka sampark uske saath toot chuka tha. vanchu pahle gaanv ke skool mein paDhta raha tha, baad mein peking ke ek vidyalay mein paDhne laga tha. vahin se wo profesar shaan ke saath bharat chala aaya tha.
‘suno, vanchu, bharat aur cheen ke beech band darvaze ab khul rahe hain. ab donon deshon ke beech sampark sthapit ho rahe hain aur iska baDa mahatv hai. adhyayan ka jo kaam tum abhi tak alag thalag karte rahe ho, vahi ab tum apne desh ke manya pratinidhi ke roop mein kar sakte ho. tumhari sarkar tumhare anudan ka prbandh karegi. ab tumhein alag thalag paDe nahin rahna paDega. tum pandrah saal se adhik samay se bharat mein rah rahe ho, angrezi aur hindi bhashayen jante ho, bauddh granthon ka adhyayan karte rahe ho, tum donon deshon ke sanskritik sampark mein ek bahumulya kaDi ban sakte ho. . . ’
uski ankhon mein halki si chamak aai. sachmuch use kuch suvidhayen mil sakti theen. kyon na unse laabh uthaya jaye! donon deshon ke beech pai jane vali sadbhavana se wo bhi prabhavit hua tha. usne bataya ki kuch hi dinon pahle anudan ki raqam lene jab wo banaras gaya, to saDkon par raah chalte log usse gale mil rahe the. mainne use mashvara diya ki kuch samay ke liye zarur apne desh laut jaye aur vahan hone vale virat parivartnon ko dekhe aur samjhe ki saranath mein alag lag baithe rahne se use kuch laabh nahin hoga, aadi aadi.
wo sunta raha, sir hilata aur muskurata raha, lekin mujhe kuch malum nahin ho paya ki us par koi asar hua hai ya nahin. lagbhag chhah mahine baad uska patr aaya ki wo cheen ja raha hai. mujhe baDa santosh hua. apne desh mein jayega to dhobi ke kuttevali uski sthiti khatm hogi, kahin ka hokar to rahega. uske jivan mein nai sphurti ayegi. usne likha ki wo apna ek trank saranath mein chhoDe ja raha hai jismen uski kuch kitaben aur shodh ke kaghaz aadi rakhe hain, ki barson tak bharat mein rah chukne ke baad wo apne ko bharat ka hi nivasi manata hai, ki wo sheeghr hi laut ayega aur phir apna adhyayan karya karne lagega. main man hi man hans diya, ek baar apne desh mein gaya lautkar yahan nahin aane ka.
cheen mein wo lagbhag do varshon tak raha. vahan se usne mujhe peking ke prachin rajamhal ka chitrkarD bheja, do ek patr bhi likhe, par unse uski manःsthiti ke bare mein koi vishesh jankari nahin mili.
un dinon cheen mein bhi baDe valvale uth rahe the, baDa josh tha aur us josh ki lapet mein lagbhag sabhi log the. jivan nai karvat le raha tha. log kaam karne jate, to toliyan banakar, gate hue, laal dhvaj haath mein uthaye hue. vanchu saDak ke kinare khaDa unhen dekhta rah jata. apne sankochi svbhaav ke karan wo toliyon ke saath gate hue ja to nahin sakta tha, lekin unhen jate dekhkar hairan sa khaDa rahta, manon kisi dusri duniya mein pahunch gaya ho.
use apna bhai to nahin mila, lekin ek purana adhyapak, door paar ki uski mausi aur do ek parichit mil ge the. wo apne gaanv gaya. gaanv mein bahut kuch badal gaya tha. steshan se ghar ki or jate hue uska ek sahyatri use batane laga—vahan, us peD ke niche, zamindar ke sabhi kaghaz, sabhi dastavez jala Dale ge the aur zamindar haath bandhe khaDa raha tha.
vanchu ne bachpan mein zamindar ka baDa ghar dekha tha, uski rangin khiDkiyan use abhi bhi yaad theen. do ek baar zamindar ki bagghi ko bhi qasbe ki saDkon par jate dekha tha. ab wo ghar gram prashasan kendr bana hua tha aur bhi bahut kuch badla tha. par yahan par bhi uske liye vaisi hi sthiti thi jaisi bharat mein rahi thi. uske man mein uchhaah nahin uthta tha. dusron ka utsaah uske dil par se phisal phisal jata tha. wo yahan bhi darshak hi bana ghumta tha. shuru shuru ke dinon mein uski avabhgat bhi hui. uske purane adhyapak ki pahal qadmi par use skool mein amantrit kiya gaya. bharat cheen sanskritik sambandhon ki mahatvpurn kaDi ke roop mein use sammanit bhi kiya gaya. vahan vanchu der tak logon ko bharat ke bare mein batata raha. logon ne tarah tarah ke saval puchhe, riti rivaj ke bare mein, tirthon, melon parvon ke bare mein, vanchu keval unhin prashnon ka santoshaprad uttar de pata jinke bare mein wo apne anubhav ke adhar par kuch janta tha. lekin bahut kuch aisa tha jiske bare mein bharat mein rahte hue bhi wo kuch nahin janta tha.
kuch dinon baad cheen mein ‘baDi chhalang’ ki muhim zor pakaDne lagi. uske gaanv mein bhi log loha ikattha kar rahe the. ek din subah use bhi raddi loha batorne ke liye ek toli ke saath bhej diya gaya tha. din bhar wo logon ke saath raha tha. ek naya utsaah charon or vyaap raha tha. ek ek lohe ka tukDa log baDe garv se dikha dikhakar la rahe the aur sajhe Dher par Daal rahe the. raat ke vaqt aag ke laplapate sholon ke beech us Dher ko pighlaya jane laga. aag ke ird gird baithe log krantikari geet ga rahe the. sabhi log ek svar mein sahgan mein bhaag le rahe the. akela vanchu munh baye baitha tha.
cheen mein rahte, dhire dhire vatavran mein tanav sa aane laga aur ek jhutputa sa ghirne laga. ek roz ek adami nile rang ka kot aur nile hi rang ki patlun pahne uske paas aaya aur use apne saath gram prashasan kendr mein liva le gaya. raste bhar wo adami chup bana raha. kendr mein pahunchne par usne paya ki ek baDe se kamre mein paanch vyaktiyon ka ek dal mez ke pichhe baitha uski raah dekh raha hai.
jab vanchu unke samne baith gaya, to ve bari bari se uske bharat nivas ke bare mein puchhne lage—‘tum bharat mein kitne varshon tak rahe?. . . ’ vahan par kya karte the?’. . . ‘kahan kahan ghume?’ aadi aadi. phir bauddh dharm ke prati vanchu ki jigyasa ke bare mein jankar unmen se ek vyakti bola, ‘tum kya sochte ho, bauddh dharm ka bhautik adhar kya hai?’
saval vanchu ki samajh mein nahin aaya. usne ankhen michamichain.
‘dvandvatmak bhautikvadi ki drishti se tum bauddh dharm ko kaise ankate ho?’
saval phir bhi vanchu ki samajh mein nahin aaya, lekin usne budbudate hue uttar diya, ‘manushya ke adhyatmik vikas ke liye uske sukh aur shanti ke liye bauddh dharm ka path pradarshan bahut hi mahatvpurn hai. mahapran ke updesh. . . ’
aur vanchu bauddh dharm ke aath updeshon ki vyakhya karne laga. wo apna kathan abhi samapt nahin kar paya tha jab pardhan ki kursi par baithe paini tirchhi ankhon vale ek vyakti ne baat katkar kaha, ‘bharat ki videshi niti ke bare mein tum kya sochte hai?’
vanchu muskuraya apni DeDh daant ki muskan, phir bola, ‘aap bhadrajan is sambandh mein zyada jante hain. main to sadharan bauddh jigyasu hoon. par bharat baDa prachin desh hai. uski sanskriti shanti aur manaviy sadbhavana ki sanskriti hai. . .
‘nehru ke bare mein tum kya sochte ho?’
nehru ko mainne teen baar dekha hai. ek baar to unse baten bhi ki hain. un par pashchimi vigyan ka prabhav hai, parantu prachin sanskriti ke wo bhi baDe prshansak hain. ’
uske uttar sunte hue kuch sadasya to sir hilane lage, kuch ka chehra tamtamane laga. phir tarah tarah ke paine saval puchhe jane lage. unhonne paya ki jahan tak tathyon ka aur bharat ke vartaman jivan ka saval hai, vanchu ki jankari adhuri aur hasyaspad hai.
‘rajnitik drishti se to tum shunya ho. bauddh dharm ki avdharnaon ko bhi samajashastr ki drishti se tum aank nahin sakte. na jane vahan baithe kya karte rahe ho! par hum tumhari madad karenge. ’
puchhatachh ghanton tak chalti rahi. parti adhikariyon ne use hindi paDhane ka kaam de diya, saath hi peking ke sangrhalay mae saptah mein do din kaam karne ki bhi ijazat de di.
jab vanchu parti daftar se lauta to thaka hua tha. uska sir bhanna raha tha. apne desh mein uska dil jam nahin paya tha. aaj wo aur bhi zyada ukhDa ukhDa mahsus kar raha tha. chhappar ke niche leta to use sahsa hi bharat ki yaad satane lagi. use saranath ki apni kothari yaad aai jismen din bhar baitha pothi bancha karta tha. neem ka ghana peD yaad aaya jiske niche kabhi kabhi sustaya karta tha. smritiyon ki shrinkhla lambi hoti gai. saranath ki kaintin ka rasoiya yaad aaya jo sada pyaar se milta tha, sada haath joDkar ‘kaho bhagvan’ kahkar abhivadan karta tha.
ek baar vanchu bimar paD gaya tha to dusre roz kaintin ka rasoiya apne aap uski kothari mein chala aaya tha—‘main bhi kahun, chini babu chaay pine nahin aaye, do din ho ge! pahle aate the, to darshan ho jate the. hamein khabar ki hoti bhagvan, to hum Daktar babu ko bula late. . . main bhi kahun, baat kya hai. ’ phir uski ankhon ke samne ganga ka tat aaya jis par wo ghanton ghuma karta tha. phir sahsa drishya badal gaya aur kashmir ki jheel ankhon ke samne aa gai aur pichhe himachchhadit parvat, phir nilam samne aai, uski khuli khuli ankhen, motiyon si jhilmilati dantpankti. . . uska dil bechain ho utha.
jyon jyon din bitne lage, bharat ki yaad use zyada pareshan karne lagi. wo jal mein se bahar phenki hui machhli ki tarah taDapne laga. saranath ke vihar mein saval javab nahin hote the. jahan paDe raho, paDe raho. rahne ke liye kothari aur bhojan ka prbandh vihar ki or se tha. yahan par nai drishti se dharmagranthon ko paDhne aur samajhne ke liye usmen dhairya nahin tha, jigyasa bhi nahin thi. barson tak ek Dharre par chalte rahne ke karan wo parivartan se katrata tha. is baithak ke baad wo phir se sakuchane simatne laga tha. kahin kahin par use bharat sarkar virodhi vakya sunne ko milte. sahsa vanchu behad akela mahsus karne laga aur use laga ki zinda rah pane ke liye use apne laDakpan ke us ‘diva svapn’ mein phir se laut jana hoga, jab wo bauddh bhikshu bankar bharat mein vicharne ki kalpana karta tha.
usne sahsa bharat lautne ki thaan li. lautna asan nahin tha. bharatiy dutavas se to viza milne mein kathinai nahin hui, lekin cheen ki sarkar ne bahut se aitraz uthaye. vanchu ki nagarikta ka saval tha, aur anek saval the. par bharat aur cheen ke sambandh abhi tak bahut bigDe nahin the, isliye ant mein vanchu ko bharat lautne ki ijazat mil gai. usne man hi man nishchay kar liya ki wo bharat mein hi ab zindagi ke din katega. bauddh bhikshu hi bane rahna uski niyti thi.
jis roz wo kalkatta pahuncha, usi roz sima par chini aur bharatiy sainikon ke beech muthbheD hui thi aur das bharatiy sainik mare ge the. usne paya ki log ghoor ghurkar uski or dekh rahe hain. wo steshan ke bahar abhi nikla hi tha, jab do sipahi aakar use pulis ke daftar mein le ge aur vahan ghante bhar ek adhikari uske pasport aur kaghzon ki chhanabin karta raha.
‘do baras pahle aap cheen ge the. vahan jane ka kya prayojan tha?’
‘main bahut baras tak yahan rahta raha tha, kuch samay ke liye apne desh jana chahta tha. ’ pulis adhikari ne use sir se pair tak dekha. vanchu ashvast tha aur muskura raha tha—vahi teDhi si muskan.
‘aap vahan kya karte rahe?’
‘vahan ek kamyun mein main kheti bari ki toli mein kaam karta tha. ’
‘magar aap to kahte hain ki aap bauddh granth paDhte hain?’
‘haan, peking mein main ek sanstha mein hindi paDhane laga tha aur peking myuziyam mein mujhe kaam karne ki ijazat mil gai thi. ’
‘agar ijazat mil gai thi to aap apne desh se bhaag kyon aye?’ pulis adhikari ne ghusse mein kaha.
vanchu kya javab de? kya kahe?
main kuch samay ke liye hi vahan gaya tha, ab laut aaya hoon. . . ’
pulis adhikari ne phir se sir se paanv tak use ghoor kar dekha, uski ankhon mein sanshay utar aaya tha. vanchu atpata sa mahsus karne laga. bharat mein pulis adhikariyon ke samne khaDe hone ka uska pahla anubhav tha. usse jamini ke liye puchha gaya, to usne profesar tanshan ka naam liya, phir gurudev ka, par donon mar chuke the. usne saranath ki sanstha ke mantri ka naam liya, shantiniketan ke purane do ek sahyogiyon ke naam liye, jo use yaad the. suprintenDent ne sabhi naam aur pate not kar liye. uske kapDon ki teen baar talashi li gai. uski Dayri ko rakh liya gaya jismen usne anek uddhran aur tippaniyan likh rahe the aur suprintenDent ne uske naam ke aage tippni likh di ki is adami par nazar rakhne ki zarurat hai.
rel ke Dibbe mein baitha, to musafir goli kaanD ki charcha kar rahe the use baithte dekh sab chup ho ge aur uski or ghurne lage.
kuch der baad jab musafiron ne dekha ki wo thoDi bahut bangali aur hindi bol leta hai, to ek bangali babu uchak kar uth khaDe hue aur haath jhatak jhatak kar kahne lage, ‘ya to kaho ki tumhare deshvalon ne vishvasghat kiya hai, nahin to hamare desh se nikal jao. . . nikal jao. . . nikal jao!’
DeDh daant ki muskan jane kahan ojhal ho chuki thi. uski jagah chehre par traas utar aaya tha. bhayakul aur maun vanchu chupchap baitha raha. kahe bhi to kya kahe? goli kaanD ke bare mein jankar use bhi gahra dhakka laga tha. us jhagDe ke karan ke bare mein use kuch bhi aspasht malum nahin tha aur wo janna chahta bhi nahin tha.
haan, saranath mein pahunchakar wo sachmuch bhaav vihval ho utha. apna thaila riksha mein rakhe jab wo ashram ke nikat pahuncha, to kaintin ka rasoiya sachmuch lapak kar bahar nikal aya—‘a ge bhagvan! aa ge mere chini babu! bahut dinon baad darshan diye! hum bhi kahen, itna arsa ho gaya chini babu nahin laute! aur kahiye, sab kushal mangal hai? aap yahan nahin the, hum kahen jane kab lautenge. yahan par the to din mein do baten ho jati theen, bhale adami ke darshan ho jate the. isse baDa punya hota hai. ’ aur usne haath baDhakar thaila utha liya, ‘ham den paise, chini babu?’
vanchu ko laga, jaise wo apne ghar pahunch gaya hai.
‘apaki trank, chini babu, hamare paas rakhi hai. mantriji se hamne le li. apaki kothari mein ek dusre sajjan rahne aaye, to hamne kaha koi chinta nahin, ye trank hamare paas rakh jaiye, aur chini babu, aap apna lota bahar hi bhool ge the? hamne mantriji se kaha, ye lota chini babu ka hai, hum jante hain, hamare paas chhoD jaiye. ’
vanchu ka dil bhar bhar aaya. use laga, jaise uski DavanDol zindagi mein santulan aa gaya hai. Dagmagati jivan nauka phir se sthir gati se chalne lagi hai.
mantriji bhi sneh se mile. purani jaan pahchan ke adami the. unhonne ek kothari bhi kholkar de di, parantu anudan ke bare mein kaha ki uske liye phir se koshish karni hogi. vanchu ne phir se kothari ke bichombich chatai bichha li, khiDki ke bahar vahi drishya phir se ubhar aaya. khoya hua jeev apne sthaan par laut aaya.
tabhi mujhe uska patr mila ki wo bharat laut aaya hai aur phir se jam kar bauddhagranthon ka adhyayan karne laga hai. usne ye bhi likha ki use masik anudan ke bare mein thoDi chinta hai aur is silsile mein main banaras mein yadi amuk sajjan ko patr likh doon, to anudan milne mein sahayata hogi.
patr pakar mujhe khatka hua. kaun si mrigtrishna ise phir se vapas kheench lai hai? ye laut kyon aaya hai? agar kuch din aur vahan bana rahta to apne logon ke beech iska man lagne lagta. par kisi ki sanak ka koi ilaaj nahin. ab jo laut aaya hai, to kya chara hai! mainne ‘amuk’ ji ko patr likh diya aur vanchu ke anudan ka chhota mota prbandh ho gaya.
par lautne ke dasek din baad vanchu ek din praatः chatai par baitha ek granth paDh raha tha aur baar baar pulak raha tha, jab uski kitab par kisi ka saya paDa. usne nazar uthakar dekha, to pulis ka thanedar khaDa tha, haath mein ek parcha uthaye hue tha. vanchu ko banaras ke baDe pulis steshan mein bulaya gaya tha. vanchu ka man ashanka se bhar utha tha.
teen din baad vanchu banaras ke pulis steshan ke baramde mein baitha tha. usi ke saath bench par baDi umr ka ek aur chini vyakti baitha tha jo jute banane ka kaam karta tha. akhir bulava aaya aur vanchu chik uthakar baDe adhikari ki mez ke samne ja khaDa hua.
‘tum cheen se kab laute?’
vanchu ne bata diya.
kalkatta mein tumne apne byaan mein kaha ki tum shantiniketan ja rahe ho, phir tum yahan kyon chale aaye? pulis ko pata lagane mein baDi pareshani uthani paDi hai. ’
‘mainne donon sthanon ke bare mein kaha tha. shantiniketan to main keval do din ke liye jana chahta tha. ’
ye saval wo bahut baar pahle bhi sun chuka tha. javab mein bauddhagranthon ka havala dene ke atirikt use koi aur uttar nahin soojh pata tha.
bahut lambi intravyu nahin hui. vanchu ko hidayat ki gai ki har mahine ke pahle somvar ko banaras ke baDe pulis steshan mein use aana hoga aur apni haziri likhani hogi.
vanchu bahar aa gaya, par khinn sa mahsus karne laga. mahine mein ek baar aana koi baDi baat nahin thi, lekin wo uske samtal jivan mein badha thi, vyavdhan tha.
vanchu man hi man itna khinn sa mahsus kar raha tha ki banaras se lautne ke baad kothari mein jane ki bajay wo sabse pahle us nirav punya sthaan par jakar baith gaya, jahan shatabdiyon pahle mahapran ne apna pahla pravchan kiya tha, aur der tak baitha manan karta raha. bahut der baad uska man phir se thikane par aane laga aur dil mein phir se bhavna ki tarange uthne lagin.
par vanchu ko chain nasib nahin hua. kuch hi din baad sahsa cheen aur bharat ke beech jang chhiD gai. desh bhar mein jaise tufan utha khaDa hua. usi roz shaam ko pulis ke kuch adhikari ek jeep mein aaye aur vanchu ko hirasat mein lekar banaras chale ge. sarkar ye na karti, to aur kya karti? shasan karne valon ko itni fursat kahan ki sankat ke samay sanvedna aur sadbhavana ke saath dushman ke ek ek nagarik ki sthiti ki jaanch karte phiren?
do dinon tak donon chiniyon ko pulis steshan ki ek kothari mein rakha gaya. donon ke beech kisi baat mein bhi samanata nahin thi. jute banane vala chini sara vaqt sigret phunkta rahta aur ghutnon par kohaniyan tikaye baDbaData rahta, jabki vanchu udbhraant aur niDhal sa divar ke saath peeth lagaye baitha shunya mein dekhta rahta.
jis samay vanchu apni sthiti ko samajhne ki koshish kar raha tha, usi samay do teen kamre chhoDkar pulis suprintenDent ki mez par uski chhoti si potli ki talashi li ja rahi thi. uski ghair maujudgi mein pulis ke sipahi kothari mein se uska trank utha laye the. suprintenDent ke samne kaghzon ka pulinda rakha tha, jis par kahin pali mein to kahin sanskrit bhasha mein uddhran likhe the, lekin bahut sa hissa chini bhasha mein tha. sahab kuch der tak to kaghzon mein ulatte palte rahe, raushani ke samne rakhkar unmen likhi kisi gupt bhasha ko DhunDhate bhi rahe, ant mein unhonne hukm diya ki kaghzon ke pulinde ko baandh kar dilli ke adhikariyon ke paas bhej diya jaye, kyonki banaras mein koi adami chini bhasha nahin janta tha.
panchaven din laDai band ho gai, lekin vanchu ke saranath lautne ki ijazat ek mahine ke baad mili. chalte samay jab use uska trank diya gaya aur usne use kholkar dekha, to sakte mein aa gaya. uske kaghaz usmen nahin the, jis par wo barson se apni tippaniyan aur lekhadi likhta raha tha aur jo ek tarah se uske sarvasv the. pulis adhikari ke kahne par ki unhen dilli bhej diya gaya hai, wo sir se pair tak kaanp utha tha.
‘ve mere kaghaz aap mujhe de dijiye. un par mainne bahut kuch likha hai, ve bahut zaruri hain. ’
is par adhikari rukhai se bola, ‘mujhe un kaghzon ka kya karna hai, aapke hain, aapko mil jayenge. ’ aur usne vanchu ko chalta kiya. vanchu apni kothari mein laut aaya. apne kaghzon ke bina wo adhamra sa ho raha tha. na paDhne mein man lagta, na kaghzon par ne uddhran utarne mein. aur phir us par kaDi nigrani rakhi jane lagi thi. khiDki se thoDa hat kar neem ke peD ke niche ek adami roz baitha nazar aane laga. DanDa haath mein liye wo kabhi ek karvat baithta, kabhi dusri karvat. kabhi uthkar Dolne lagta. kabhi kuen ki jagat par ja baithta, kabhi kaintin ki bench par aa baithta, kabhi get par ja khaDa hota. iske atirikt ab vanchu ko mahine mein ek baar ke sthaan par saptah mein ek baar banaras mein haziri lagvane jana paDta tha.
tabhi mujhe vanchu ki chitthi mili. sara byaura dene ke baad usne likha ki bauddh vihar ka mantri badal gaya hai aur ne mantri ko cheen se nafrat hai aur vanchu ko Dar hai ki anudan milna band ho jayega. dusre, ki main jaise bhi ho uske kaghzon ko bacha loon. jaise bhi ban paDe, unhen pulis ke hathon se nikalva kar saranath mein uske paas bhijva doon. aur agar banaras ke pulis steshan mein prati saptah pesh hone ki bajay use mahine mein ek baar jana paDe to uske liye suvidhajanak hoga, kyonki is tarah mahine mein lagbhag das rupe aane jane mein lag jate hain aur phir kaam mein man hi nahin lagta, sir par talvar tangi rahti hai.
vanchu ne patr to likh diya, lekin usne ye nahin socha ki mujh jaise adami se ye kaam nahin ho payega. hamare yahan koi kaam bina jaan pahchan aur sifarish ke nahin ho sakta. aur mere parichay ka baDe se baDa adami mere kaulej ka prinsipal tha. phir bhi main kuchhek sansad sadasyon ke paas gaya, ek ne dusre ki or bheja, dusre ne tisre ki or. bhatak bhatak kar laut aaya. ashvasan to bahut mile, par sab yahi puchhte—‘vah cheen jo gaya tha vahan se laut kyon aya?’ ya phir puchhte—‘pichhle bees saal se adhyayan hi kar raha hai?’
par jab main uski panDulipiyon ka zikr karta, to sabhi yahi kahte, ‘haan, ye to kathin nahin hona chahiye. ’ aur samne rakhe kaghaz par kuch not kar lete. is tarah ke ashvasan mujhe bahut mile. sabhi samne rakhe kaghaz par mera agrah not kar lete. par sarkari kaam ke raste chakravyuh ke raston ke samne hote hain aur har moD par koi na koi adami tumhein tumhari haisiyat ka bodh karata rahta hai. mainne javab mein use apni koshishon ka pura byaura diya, ye bhi ashvasan diya ki main phir logon se milunga, par saath hi mainne ye bhi sujhav diya ki jab sthiti behtar ho jaye, to wo apne desh vapas laut jaye, uske liye yahi behtar hai.
khat se uske dil ki kya pratikriya hui, main nahin janta. usne kya socha hoga? par un tanav ke dinon mein jab mujhe svayan cheen ke vyvahar par ghussa aa raha tha, main vanchu ki sthiti ko bahut sahanubhuti ke saath nahin dekh sakta tha.
uska phir ek khat aaya. usmen cheen laut jane ka koi zikr nahin tha. usmen keval anudan ki charcha ki gai thi. anudan ki raqam abhi bhi chalis rupe hi thi, lekin use poorv suchana de di gai thi ki saal khatm hone par us par phir se vichar kiya jayega ki wo milti rahegi ya band kar di jayegi.
lagbhag saal bhar baad vanchu ko ek purza mila ki tumhare kaghaz vapas kiye ja sakte hain, ki tum pulis steshan aakar unhen le ja sakte ho. un dinon wo bimar paDa tha, lekin bimari ki haalat mein bhi wo girta paDta banaras pahuncha. lekin uske haath ek tihai kaghaz lage. potli abhi bhi adhakhuli thi. vanchu ko pahle to yaqin nahin aaya, phir uska chehra zard paD gaya aur haath pair kanpne lage. is par thanedar rukhai ke saath bola, ‘ham kuch nahin jante! inhen uthao aur yahan se le jao varna idhar likh do ki hum lene se inkaar karte hain. ’
kanpti tangon se vanchu pulinda baghal mein dabaye laut aaya. kaghzon mein keval ek pura nibandh aur kuch tippaniyan bachi theen.
usi din se vanchu ki ankhon ke samne dhool uDne lagi thi.
vanchu ki maut ki khabar mujhe mahine bhar baad mili, wo bhi bauddh vihar ke mantri ki or se. marne se pahle vanchu ne agrah kiya tha uska chhota sa trank aur uski gini chuni kitaben mujhe pahuncha di jayen.
umr ke is hisse mein pahunchakar insaan buri khabren sunne ka aadi ho jata hai aur ve dil par gahra aghat nahin kartin.
main fauran saranath nahin ja paya, jane mein koi tuk bhi nahin thi, kyonki vahan vanchu ka kaun baitha tha, jiske samne afsos karta, vahan to keval trank hi rakha tha. par kuch dinon baad mauqa milne par main gaya. mantriji ne vanchu ke prati sadbhavana ke shabd kahe—‘baDa nekadil adami tha, sachche arthon mein bauddh bhikshu tha,’ aadi aadi. mere dastkhat lekar unhonne trank mere havale ki. trank mein vanchu ke kapDe the, wo phata purana chogha tha, jo nilam ne use upharasvrup diya tha. teen chaar kitaben theen, pali ki aur sanskrit ki. chitthiyan theen, jinmen kuch chitthiyan meri, kuch nilam ki rahi hongi, kuch aur logon ki.
trank uthaye main bahar ki or ja raha tha jab mujhe apne pichhe qadmon ki aahat mili. mainne muDkar dekha, kaintin ka rasoiya bhagta chala aa raha tha. apne patron mein aksar vanchu uska zikr kiya karta tha. . .
aur uski ankhen DabDaba gain. sare sansar mein shayad yahi akela jeev tha, jisne vanchu ki maut par do ansu bahaye the.
‘baDi bholi tabiyat thi. bechare ko pulisvalon ne bahut pareshan kiya. shuru shuru mein to chaibis ghante ki nigrani rahti thi. main us havaldar se kahun, bhaiya, tu kyon is bechare ko pareshan karta hai? wo kahe, main to Dyuti kar raha hoon. . . !’
main trank aur kaghzon ka pulinda le aaya hoon. is pulinde ka kya karun? kabhi sochta hoon, ise chhapva Dalun. par adhuri panDulipi ko kaun chhapega? patni roz bigaDti hai ki main ghar mein kachra bharta rahta hoon. do teen baar wo phenkne ki dhamki bhi de chuki hai, par main ise chhipata rahta hoon. kabhi kisi takhte par rakh deta hoon, kabhi palang ke niche chhipa deta hoon. par main janta hoon kisi din ye bhi gali mein phenk diye jayenge.
tabhi door se vanchu aata dikhai diya.
nadi ke kinare, lalmanDi ki saDak par dhire dhire Dolta sa chala aa raha tha. dhusar rang ka chogha pahne tha aur door se lagta tha ki bauddh bhikshuon ki hi bhanti uska sir bhi ghuta hua hai. pichhe shankracharya ki uunchi pahaDi thi aur uupar svachchh nila akash. saDak ke donon or uunche uunche safede ke peDon ki qataren. kshan bhar ke liye mujhe laga, jaise vanchu itihas ke pannon par se utarkar aa gaya hai. prachinkal mein isi bhanti desh videsh se aane vale chivardhari bhikshu pahaDon aur ghatiyon ko langhakar bharat mein aaya karte honge. atit ke aise hi romanchkari dhundhalake mein mujhe vanchu bhi chalta hua nazar aaya. jab se wo shringar mein aaya tha, bauddh viharon ke khanDahron aur sangrhalyon mein ghoom raha tha. is samay bhi wo lalmanDi ke sangrhalay mein se nikalkar aa raha tha jahan bauddhkal ke anek avshesh rakhe hain. uski manःsthiti ko dekhte hue wo sachmuch hi vartaman se katkar atit ke hi kisi kalkhanD mein vichar raha tha.
‘bodhisatvon se bhent ho gai?’ paas aane par mainne chutki li. ’
wo muskura diya, halki teDhi si muskan, jise meri mauseri bahan DeDh daant ki muskan kaha karti thi, kyonki muskurate vaqt vanchu ka uupar ka honth keval ek or se thoDa sa uupar ko uthta tha.
‘sangrhalay ke bahar bahut si murtiyan rakhi hain. main vahi dekhta raha. ’ usne dhime se kaha, phir wo sahsa bhavuk hokar bola, ‘ek murti ke keval pair hi pair bache hain. . . ’
mainne socha, aage kuch kahega, parantu wo itna bhavavihval ho utha tha ki uska gala rundh gaya aur uske liye bolna asambhav ho gaya.
hum ek saath ghar ki or lautne lage.
‘mahapran ke bhi pair hi pahle dikhaye jate the. ’ usne kanpti si avaz mein kaha aur apna haath meri kohni par rakh diya. uske haath ka halka sa kampan dhaDakte dil ki tarah mahsus ho raha tha.
‘arambh mein mahapran ki murtiyan nahin banai jati theen na! tum to jante ho, pahle stoop ke niche keval pair hi dikhaye jate the. murtiyan to baad mein banai jane lagi thi. ’
zahir hai, bodhisattv ke pair dekhkar use mahapran ke pair yaad ho aaye the aur wo bhavuk ho utha tha. kuch pata nahin chalta tha, kaun si baat kis vaqt vanchu ko pulkane lage, kis vaqt wo gadgad hone lage.
‘tumne bahut der kar di. sabhi log tumhara intzaar kar rahe hain. main chinaron ke niche bhi tumhein khoj aaya hoon. ’ mainne kaha.
‘main sangrhalay mein tha. . . ’
‘vah to theek hai, par do baje tak hamein habbakdal pahunch jana chahiye, varna jane ka koi laabh nahin. ’
usne chhote chhote jhatkon ke saath teen baar sir hilaya aur qadam baDha diye.
vanchu bharat mein matvala bana ghoom raha tha. wo mahapran ke janmasthan lumbini ki yatra nange paanv kar chuka tha, sara rasta haath joDe hue. jis jis disha mein mahapran ke charan uthe the, vanchu mantrmugdh sa usi usi disha mein ghoom aaya tha. saranath mein, jahan mahapran ne apna pahla pravchan diya tha aur do mrigashavak mantrmugdh se jhaDiyon mein se nikalkar unki or dekhte rah ge the, vanchu ek pipal ke peD ke niche ghanton natmastak baitha raha tha, yahan tak ki uske kathanusar uske mastak se asphut se vakya gunjne lage the aur use laga tha, jaise mahapran ka pahla pravchan sun raha hai. wo is bhaktipurn kalpana mein itna gahra Doob gaya tha ki saranath mein hi rahne laga tha. ganga ki dhaar ko wo dasiyon shatabdiyon ke dhundhalake mein pavan jalapravah ke roop mein dekhta. jab se wo shringar mein aaya tha, barf ke Dhake pahaDon ki chotiyon ki or dekhte hue aksar mujhse kahta—vah rasta lhasa ko jata hai na, usi raste bauddhagranth tibbat mein bheje ge the. wo us parvatmala ko bhi punya pavan manata tha kyonki us par bichhi pagDanDiyon ke raste bauddh bhikshu tibbat ki or ge the.
vanchu kuch varshon pahle vriddh profesar taan shaan ke saath bharat aaya tha. kuch dinon tak to wo unhin ke saath raha aur hindi aur angrezi bhashaon ka adhyayan karta raha, phir profesar shaan cheen laut ge aur wo yahin bana raha aur kisi bauddh sosaiti se anudan praapt kar saranath mein aakar baith gaya. bhavuk, kavyamyi prakriti ka jivan, jo prachinata ke manmohak vatavran mein vicharte rahna chahta tha. . . wo yahan tathyon ki khoj karne kahin aaya tha, wo to bodhisattvon ki murtiyon ko dekhkar gadgad hone aaya tha. mahine bhar se sangrhalyon se chakkar kaat raha tha, lekin usne kabhi nahin bataya ki bauddh dharm ki kis shiksha se use sabse adhik prrena milti hai. na to wo kisi tathya ko pakar utsaah se khil uthta, na use koi sanshay pareshan karta. wo bhakt adhik aur jigyasu kam tha.
mujhe yaad nahin ki usne hamare saath kabhi khulkar baat ki ho ya kisi vishay par apna mat pesh kiya ho. un dinon mere aur mere doston ke beech ghanton bahsen chala kartin, kabhi desh ki rajaniti ke bare mein, kabhi dharm mae bare mein, lekin vanchu inmen kabhi bhaag nahin leta tha. wo sara vaqt dhime dhime muskurata rahta aur kamre ke ek kone mein dubak kar baitha rahta. un dinon desh mein valavlon ka sailab sa uth raha tha. svtantrta andolan zoron par tha aur hamare beech usi ki charcha rahti—kangres kaun si niti apnayegi, andolan kaun sa rukh pakDega. kriyatmak star par to hum log kuch karte karate nahin the, lekin bhavanatmak star par uske saath bahut kuch juDe hue the. is par vanchu ki tatasthata kabhi hamein akharne lagati, to kabhi achambhe mein Daal deti. wo hamare desh ki hi gatividhi ke bare mein nahin, apne desh ki gatividhi mein bhi koi vishesh dilchaspi nahin leta tha. usse uske apne desh ke bare mein bhi puchho, to muskurata sir hilata rahta tha.
kuch dinon se shringar ki hava bhi badli hui thi. kuch maas pahle yahan goli chali thi. kashmir ke log maharaja ke khilaf uth khaDe hue the aur ab kuch dinon se shahr mein ek nai uttejna pai jati thi. nehru ji shringar aane vale the aur unka svagat karne ke liye nagar ko dulhan ki tarah sajaya ja raha tha. aaj hi duphar ko nehru ji shringar pahunch rahe hain. nadi ke raste navon ke julus ki shakl mein unhen lane ki yojna thi aur isi karan main vanchu ko khojta hua us or aa nikla tha.
hum ghar ki or baDhe ja rahe the, jab sahsa vanchu thithak kar khaDa ho gaya.
‘kya mera jana bahut zaruri hai? jaisa tum kaho. . . ’
mujhe dhakka sa laga. aise samay mein, jab lakhon log nehru ji ke svagat ke liye ikatthe ho rahe the, vanchu ka ye kahna ki agar wo saath na jaye, to kaisa rahe, mujhe sachmuch bura laga. lekin phir svayan hi kuch sochkar usne apne agrah ko dohraya nahin aur hum ghar ki or saath saath jane lage.
kuch der baad habbakdal ke pul ke nikat lakhon ki bheeD mein hum log khaDe the—main, vanchu tatha mere do teen mitr. charon or jahan tak nazar jati, log hi log the—makanon ki chhaton par, pul par, nadi ke Dhalvan kinaron par. main baar baar kanakhiyon se vanchu ke chehre ki or dekh raha tha ki uski kya pratikriya hui hai, ki hamare dil mein uthne vale valavlon ka us par kya asar hua hai. yoon bhi ye meri aadat si ban gai hai, jab bhi koi videshi saath mein ho, main uske chehre ka bhaav paDhne ki koshish karta rahta hoon ki hamare riti rivaj, hamare jivanyapan ke bare mein uski kya pratikriya hoti hai. vanchu adhmundi ankhon se samne ka drishya dekhe ja raha tha. jis samay nehru ji ki naav samne aai, to jaise makanon ki chhaten bhi hil uthin. rajhans shakl ki safed naav mein nehru ji sthaniy netaon ke saath khaDe haath hila hilakar logon ka abhivadan kar rahe the. aur hava mein phool hi phool bikhar ge. mainne palatkar vanchu ke chehre ki or dekha. wo pahle hi ki tarah nishchesht sa samne ka drishya dekhe ja raha tha.
‘apko nehru ji kaise lage?’ mere ek sathi ne vanchu se puchha.
vanchu ne apni teDhi si ankhen uthakar chehre ki or dekha, phir apni DeDh daant ki muskan ke saath kaha, ‘achcha, bahut achcha!’
vanchu mamuli si hindi aur angrezi janta tha. agar tez bolo, to uske palle kuch nahin paDta tha.
nehru ji ki naav door ja chuki thi lekin navon ka julus abhi bhi chalta ja raha tha, jab vanchu sahsa mujhse bola, ‘main thoDi der ke liye sangrhalay mein jana chahunga. idhar se rasta jata hai, main svayan chala jaunga. ’ aur wo bina kuch kahe, ek baar adhamichi ankhon se muskaya aur halke se haath hilakar muD gaya.
hum sabhi hairan rah ge. ise sachmuch julus mein ruchi nahin rahi hogi jo itni jaldi sangrhalay ki or akela chal diya hai.
‘yaar, kis budam ko utha laye ho? ye kya cheez hai? kahan se pakaD laye ho ise?’ mere ek mitr ne kaha.
‘bahar ka rahne vala hai, ise hamari baton mein kaise ruchi ho sakti hai!’ mainne safai dete hue kaha.
vaah, desh mein itna kuch ho raha ho aur ise ruchi na ho!’
vanchu ab tak door ja chuka tha aur bheeD mein se nikalkar peDon ki qatar ke niche ankhon se ojhal hota ja raha tha.
‘magar ye hai kaun?’ dusra ek mitr bola, ‘na ye bolta hai, na chahakta hai. kuch pata nahin chalta, hans raha hai ya ro raha hai. sara vaqt ek kone mein dubakkar baitha rahta hai. ’
‘nahin, nahin baDa samajhdar adami hai. pichhle paanch saal se yahan par rah raha hai. baDa paDha likha adami hai. bauddh dharm ke bare mein bahut kuch janta hai. ’ mainne phir uski safai dete hue kaha.
meri nazar mein is baat ka baDa mahatv tha ki wo bauddh granth banchata hai aur unhen banchane ke liye itni door se aaya hai.
‘are bhaaD mein jaye aisi paDhai. vaah ji, julus ko chhoDkar myuziyam ki or chal diya hai!’
sidhi si baat hai yaar!’ mainne joDa, ise yahan bharat ka vartaman khinchkar nahin laya, bharat ka atit laya hai. hyu natsang bhi to yahan bauddh granth hi banchane aaya tha. ye bhi shiksharthi hai. bauddh mat mein iski ruchi hai. ’
ghar lautte hue hum log sara rasta vanchu ki hi charcha karte rahe. ajay ka mat tha, agar wo paanch saal bharat mein kaat gaya hai, to ab wo zindagi bhar yahin par rahega.
‘ab aa gaya hai, to lautkar nahin jayega. bharat mein ek baar pardeshi aa jaye, to lautne ka naam nahin leta. ’
‘bharat desh wo daldal hai ki jismen ek baar bahar ke adami ka paanv paD jaye, to dhansta hi chala jata hai, nikalna chahe bhi, to nahin nikal sakta!’ dilip ne mazaq mein kaha, na jane kaun se kamal phool toDne ke liye is daldal mein ghusa hai!’
‘hamara desh hum hindustaniyon ko pasand nahin, bahar ke logon ko to bahut pasand hai!’ mainne kaha.
‘pasand kyon na hoga! yahan thoDe mein guzar ho jati hai, sara vaqt dhoop khili rahti hai, phir bahar ke adami ko log pareshan nahin karte, jahan baitha hai vahin baitha rahne dete hain. is par unhen tum jaise jhuDDu bhi mil jate hain, jo unka gungan karte rahte hain aur unki avabhgat karte rahte hain! tumhara vanchu bhi yahin par marega. . . . ’
hamare yahan un dinon meri chhoti mauseri bahan thahri hui thi, vahi jo vanchu ki muskan ko DeDh daant ki muskan kaha karti thi. chulbuli si laDki baat baat par thitholi karti rahti thi. mainne do ek baar vanchu ko kanakhiyon se uski or dekhte paya tha, lekin koi vishesh dhyaan nahin diya, kyonki wo sabhi ko kanakhiyon se hi dekhta tha. par us shaam nilam mere paas aai aur boli, apke dost ne mujhe uphaar diya hai. premophar!’
mere kaan khaDe ho ge, ‘kya diya hai?’
‘jhumron ka joDa. ’
aur usne donon mutthiyan khol deen jinmen chandi ke kashmiri chalan ke do safed jhumar chamak rahe the. aur phir wo donon jhumar apne kanon ke paas le jakar boli, ‘kaise lagte hain?’
‘bahut zyada. jab sharmata hai, to braun ho jate hain gahre braun. ’ aur nilam khilakhilakar hans paDi.
laDkiyan kaise us adami ke prem ka mazaq uDa sakti hai, jo unhen pasand na ho! ya kahin nilam mujhe bana to nahin rahi hai?
par main is suchana se bahut vichlit nahin hua tha. nilam lahaur mein paDhti thi aur vanchu saranath mein rahta tha aur ab wo hafte bhar mein shringar se vapas jane vala tha. is prem ka ankur apne aap hi jal bhun jayega.
‘nilam, ye jhumar to tumne usse le liye hain, par is prakar ki dosti ant mein uske liye dukhdayi hogi. bane banayega kuch nahin. ’
vaah bhaiya, tum bhi kaise daqiyanusi ho! mainne bhi chamDe ka ek raiting paiD use uphaar mein diya hai. mere paas pahle se paDa tha, mainne use de diya. jab lautega to prem patr likhne mein use asani hogi. ’
‘vah kya kahta tha?’
kahta kya tha, sara vaqt uske haath kanpte rahe aur chehra kabhi laal hota raha, kabhi pila. kahta tha, mujhe patr likhna, mere patron ka javab dena. aur kya kahega bechara, bhure kanonvala. ’
mainne dhyaan se nilam ki or dekha, par uski ankhon mein mujhe hansi ke atirikt kuch dikhai nahin diya. laDkiyan dil ki baat chhipana khoob janti hain. mujhe laga, nilam use baDhava de rahi hai. uske liye wo khilvaD tha, lekin vanchu zarur iska dusra hi arth nikalega.
iske baad mujhe laga ki vanchu apna santulan kho raha hai. usi raat main apne kamre ki khiDki ke paas khaDa bahar maidan mein chinaron ki paant ki or dekh raha tha, jab chandni mein, kuch duri par peDon ke niche mujhe vanchu tahalta dikhai diya. wo aksar raat ko der tak peDon ke niche tahalta rahta tha. par aaj wo akela nahin tha. nilam bhi uske saath thumak thumak kar chalti ja rahi thi. mujhe nilam par ghussa aaya. laDkiyan kitni zalim hoti hain! ye jante hue bhi ki is khilvaD se vanchu ki bechaini baDhegi, wo use baDhava diye ja rahi thi.
dusre roz khane ki mez par nilam phir uske saath thitholi karne lagi. kichan mein se ek chaiDa sa eluminiyam ka Dibba utha lai. uska chehra tape tanbe jaisa laal ho raha tha.
‘apke liye rotiyan aur aalu bana lai hoon. aam ke achar ki phaank bhi rakhi hai. aap jante hain phaank kise kahte hain? ek baar kaho to ‘phaank’. kaho vanchu ji, ‘phaank!’
usne nilam ki or khoi khoi ankhon se dekha aur bola, ‘baank!’
hum sabhi khilakhilakar hans paDe.
‘baank nahin, phaank!’
‘vaank!’ phir hansi ka favvara phoot paDa.
nilam ne Dibba khola. usmen se aam ke achar ka tukDa nikalkar use dikhate hue boli, ‘yah hai phaank, phaank ise kahte hain!’ aur use vanchu ki naak ke paas le jakar boli, ‘ise sunghne par munh mein pani bhar aata hai. aaya munh mein pani? ab kaho, ‘phaank’!’
‘nilam, kya fizul baten kar rahi ho! baitho aram se!’ mainne Dantte hue kaha.
nilam baith gai, par uski harakten band nahin hui. baDe agrah se vanchu se kahne lagi, banaras jakar hamein bhool nahin jaiyega. hamein khat zarur likhiyega aur agar kisi cheez ki zarurat ho to sankoch nahin kijiyega. ’
vanchu shabdon ke arth to samajh leta tha lekin unke vyangya ki dhvani wo nahin pakaD pata tha. wo adhikadhik vichlit mahsus kar raha tha.
‘bheD ki khaal ki zarurat ho ya koi namda, ya akhrot. . . ’
‘nilam!’
‘kyon bhaiya, bheD ki khaal par baithkar granth banchenge!’
vanchu ke kaan laal hone lage. shayad pahli baar use bhaas hone laga tha ki nilam thitholi kar rahi hai. uske kaan sachmuch bhure rang ke ho rahe the, jinka nilam mazaq uDaya karti thi.
‘nilam ji, aap logon ne mera baDa atithi satkar kiya hai. main baDa kritagya hoon. ’
hum sab chup ho ge. nilam bhi jhemp si gai. vanchu ne zarur hi uski thitholi ko samajh liya hoga. uske man ko zarur thes lagi hogi. par mere man mein ye vichar bhi utha ki ek tarah se ye achchha hi hai ki nilam ke prati uski bhavna badle, varna use hi sabse adhik pareshani hogi.
shayad vanchu apni sthiti ko jante samajhte hue bhi ek svabhavik akarshan ki chapet mein aa gaya tha. bhavuk vyakti ka apne par koi qabu nahin hota. wo pachhaD khakar girta hai, tabhi apni bhool ko samajh pata hai.
saptah ke antim dinon mein wo roz koi na koi uphaar le kar aane laga. ek baar mere liye bhi ek chogha le aaya aur bachchon ki tarah zid karne laga ki main aur wo apna apna chogha pahankar ek saath ghumne jayen. sangrhalay mein wo ab bhi jata tha, do ek baar nilam ko bhi apne saath le gaya tha aur lautne par sari shaam nilam bodhisattvon ki khilli uDati rahi theen main man hi man nilam ke is vyvahar ka svagat hi karta raha, kyonki main nahin chahta tha ki vanchu ki koi bhavna hamare ghar mein jaD jama pae. saptah beet gaya aur vanchu saranath laut gaya.
vanchu ke chale jane ke baad uske saath mera sampark vaisa hi raha, jaisa amtaur par ek parichit vyakti ke saath rahta hai. gahe ba gahe kabhi khat aa jata, kabhi kisi aate jate vyakti se uski suchana mil jati. wo un logon mein se tha, jo barson tak aupacharik parichay ki paridhi par hi Dolte rahte hain, na paridhi langhakar andar aate hain aur na hi pichhe hatkar ankhon se ojhal hote hain. mujhe itni hi jankari rahi ki uski samtal aur bandhi bandhai dincharya mein koi antar nahin aaya. kuch der tak mujhe kutuhal sa bana raha ki nilam aur vanchu ke beech ki baat aage baDhi ya nahin, lekin laga ki wo prem bhi vanchu ke jivan par havi nahin ho paya.
baras aur saal bitte ge. hamare desh mein un dinon bahut kuch ghat raha tha. aaye din satyagrah hote, bangal mein durbhiksh phuta, ‘bharat chhoDo’ ka andolan hua, saDkon par goliyan chali, bambii mein navikon ka vidroh hua, desh mein khunrezi hui, phir desh ka bantvara hua, aur sara vaqt vanchu saranath mein hi bana raha. wo apne mein santusht jaan paDta tha. kabhi likhta ki tantragyan ka adhyayan kar raha hai, kabhi pata chalta ki koi pustak likhne ki yojna bana raha hai.
iske baad meri mulaqat vanchu se dilli mein hui. ye un dinon ki baat hai, jab cheen ke prdhanmantri chau en lai bharat yatra par aane vale the. vanchu achanak saDak par mujhe mil gaya aur main use apne ghar le aaya. mujhe achchha laga ki cheen ke prdhanmantri ke agaman par wo saranath se dilli chala aaya hai. par jab usne mujhe bataya ki wo apne anudan ke silsile mein aaya hai aur yahin pahunchne par use uu en lai ke agaman ki suchana mili hai, to mujhe uski manovritti par achambha hua. uska svbhaav vaisa ka vaisa hi tha. pahle ki hi tarah haule haule apni DeDh daant ki muskan muskurata raha. vaisa hi nishchesht, samprikt. is beech usne koi pustak athva lekhadi bhi nahin likhe the. mere puchhne par is kaam mein usne koi vishesh ruchi bhi nahin dikhai. tantragyan ki charcha karte samay bhi wo bahut chahka nahin. do ek granthon ke bare mein batata raha, jismen se wo kuch tippaniyan leta raha tha. apne kisi lekh ki bhi charcha usne ki, jis par wo abhi kaam kar raha tha. nilam ke saath uski chitthi patri chalti rahi, usne bataya, halanki nilam kab ki byahi ja chuki thi aur do bachcho ki maan ban chuki thi. samay ki gati ke saath hamari mool dharnayen bhale hi na badlen, par unke agrah aur utsukta mein sthirta si aa gai thi pahle jaisi bhavavihvalta nahin thi. bodhisattvon ke pairon par apne praan nichhavar nahin karta phirta tha. lekin apne jivan se santusht tha. pahle ki hi bhanti thoDa khata, thoDa paDhta, thoDa bhrman karta aur thoDa sota tha. aur door laDakpan se jhutpute mein kisi bhavavesh mein chune ge apne jivan path par kachhue ki chaal maze se chalta aa raha tha.
khana khane ke baad hamare beech bahs chhiD gai—‘samajik shaktiyon ko samjhe bina tum bauddh dharm ko bhi kaise samajh paoge? gyaan ka pratyek kshetr ek dusre se juDa hai, jivan se juDa hai. koi cheez jivan se alag nahin hai. tum jivan se alag hokar dharm ko bhi kaise samajh sakte ho?’
kabhi wo muskurata, kabhi sir hilata aur sara vaqt darshanikon ki tarah mere chehre ki or dekhta raha. mujhe lag raha tha ki mere kahe ka us par koi asar nahin ho raha, ki chikne ghaDe par main pani unDele ja raha hoon.
‘hamare desh mein na sahi, tum apne desh ke jivan mein to ruchi lo! itna jano samjho ki vahan par kya ho raha hai!’
is par bhi wo sir hilata aur muskurata raha. main janta tha ki ek bhai ko chhoDkar cheen mein uska koi nahin hai. 1929 mein vahan par koi rajnitik uthal puthal hui thi, usmen uska gaanv jala Dala gaya tha aur sab sage sambandhi mar ge the, ya bhaag ge the. le dekar ek bhai bacha tha aur wo peking ke nikat kisi gaanv mein rahta tha. barson se vanchu ka sampark uske saath toot chuka tha. vanchu pahle gaanv ke skool mein paDhta raha tha, baad mein peking ke ek vidyalay mein paDhne laga tha. vahin se wo profesar shaan ke saath bharat chala aaya tha.
‘suno, vanchu, bharat aur cheen ke beech band darvaze ab khul rahe hain. ab donon deshon ke beech sampark sthapit ho rahe hain aur iska baDa mahatv hai. adhyayan ka jo kaam tum abhi tak alag thalag karte rahe ho, vahi ab tum apne desh ke manya pratinidhi ke roop mein kar sakte ho. tumhari sarkar tumhare anudan ka prbandh karegi. ab tumhein alag thalag paDe nahin rahna paDega. tum pandrah saal se adhik samay se bharat mein rah rahe ho, angrezi aur hindi bhashayen jante ho, bauddh granthon ka adhyayan karte rahe ho, tum donon deshon ke sanskritik sampark mein ek bahumulya kaDi ban sakte ho. . . ’
uski ankhon mein halki si chamak aai. sachmuch use kuch suvidhayen mil sakti theen. kyon na unse laabh uthaya jaye! donon deshon ke beech pai jane vali sadbhavana se wo bhi prabhavit hua tha. usne bataya ki kuch hi dinon pahle anudan ki raqam lene jab wo banaras gaya, to saDkon par raah chalte log usse gale mil rahe the. mainne use mashvara diya ki kuch samay ke liye zarur apne desh laut jaye aur vahan hone vale virat parivartnon ko dekhe aur samjhe ki saranath mein alag lag baithe rahne se use kuch laabh nahin hoga, aadi aadi.
wo sunta raha, sir hilata aur muskurata raha, lekin mujhe kuch malum nahin ho paya ki us par koi asar hua hai ya nahin. lagbhag chhah mahine baad uska patr aaya ki wo cheen ja raha hai. mujhe baDa santosh hua. apne desh mein jayega to dhobi ke kuttevali uski sthiti khatm hogi, kahin ka hokar to rahega. uske jivan mein nai sphurti ayegi. usne likha ki wo apna ek trank saranath mein chhoDe ja raha hai jismen uski kuch kitaben aur shodh ke kaghaz aadi rakhe hain, ki barson tak bharat mein rah chukne ke baad wo apne ko bharat ka hi nivasi manata hai, ki wo sheeghr hi laut ayega aur phir apna adhyayan karya karne lagega. main man hi man hans diya, ek baar apne desh mein gaya lautkar yahan nahin aane ka.
cheen mein wo lagbhag do varshon tak raha. vahan se usne mujhe peking ke prachin rajamhal ka chitrkarD bheja, do ek patr bhi likhe, par unse uski manःsthiti ke bare mein koi vishesh jankari nahin mili.
un dinon cheen mein bhi baDe valvale uth rahe the, baDa josh tha aur us josh ki lapet mein lagbhag sabhi log the. jivan nai karvat le raha tha. log kaam karne jate, to toliyan banakar, gate hue, laal dhvaj haath mein uthaye hue. vanchu saDak ke kinare khaDa unhen dekhta rah jata. apne sankochi svbhaav ke karan wo toliyon ke saath gate hue ja to nahin sakta tha, lekin unhen jate dekhkar hairan sa khaDa rahta, manon kisi dusri duniya mein pahunch gaya ho.
use apna bhai to nahin mila, lekin ek purana adhyapak, door paar ki uski mausi aur do ek parichit mil ge the. wo apne gaanv gaya. gaanv mein bahut kuch badal gaya tha. steshan se ghar ki or jate hue uska ek sahyatri use batane laga—vahan, us peD ke niche, zamindar ke sabhi kaghaz, sabhi dastavez jala Dale ge the aur zamindar haath bandhe khaDa raha tha.
vanchu ne bachpan mein zamindar ka baDa ghar dekha tha, uski rangin khiDkiyan use abhi bhi yaad theen. do ek baar zamindar ki bagghi ko bhi qasbe ki saDkon par jate dekha tha. ab wo ghar gram prashasan kendr bana hua tha aur bhi bahut kuch badla tha. par yahan par bhi uske liye vaisi hi sthiti thi jaisi bharat mein rahi thi. uske man mein uchhaah nahin uthta tha. dusron ka utsaah uske dil par se phisal phisal jata tha. wo yahan bhi darshak hi bana ghumta tha. shuru shuru ke dinon mein uski avabhgat bhi hui. uske purane adhyapak ki pahal qadmi par use skool mein amantrit kiya gaya. bharat cheen sanskritik sambandhon ki mahatvpurn kaDi ke roop mein use sammanit bhi kiya gaya. vahan vanchu der tak logon ko bharat ke bare mein batata raha. logon ne tarah tarah ke saval puchhe, riti rivaj ke bare mein, tirthon, melon parvon ke bare mein, vanchu keval unhin prashnon ka santoshaprad uttar de pata jinke bare mein wo apne anubhav ke adhar par kuch janta tha. lekin bahut kuch aisa tha jiske bare mein bharat mein rahte hue bhi wo kuch nahin janta tha.
kuch dinon baad cheen mein ‘baDi chhalang’ ki muhim zor pakaDne lagi. uske gaanv mein bhi log loha ikattha kar rahe the. ek din subah use bhi raddi loha batorne ke liye ek toli ke saath bhej diya gaya tha. din bhar wo logon ke saath raha tha. ek naya utsaah charon or vyaap raha tha. ek ek lohe ka tukDa log baDe garv se dikha dikhakar la rahe the aur sajhe Dher par Daal rahe the. raat ke vaqt aag ke laplapate sholon ke beech us Dher ko pighlaya jane laga. aag ke ird gird baithe log krantikari geet ga rahe the. sabhi log ek svar mein sahgan mein bhaag le rahe the. akela vanchu munh baye baitha tha.
cheen mein rahte, dhire dhire vatavran mein tanav sa aane laga aur ek jhutputa sa ghirne laga. ek roz ek adami nile rang ka kot aur nile hi rang ki patlun pahne uske paas aaya aur use apne saath gram prashasan kendr mein liva le gaya. raste bhar wo adami chup bana raha. kendr mein pahunchne par usne paya ki ek baDe se kamre mein paanch vyaktiyon ka ek dal mez ke pichhe baitha uski raah dekh raha hai.
jab vanchu unke samne baith gaya, to ve bari bari se uske bharat nivas ke bare mein puchhne lage—‘tum bharat mein kitne varshon tak rahe?. . . ’ vahan par kya karte the?’. . . ‘kahan kahan ghume?’ aadi aadi. phir bauddh dharm ke prati vanchu ki jigyasa ke bare mein jankar unmen se ek vyakti bola, ‘tum kya sochte ho, bauddh dharm ka bhautik adhar kya hai?’
saval vanchu ki samajh mein nahin aaya. usne ankhen michamichain.
‘dvandvatmak bhautikvadi ki drishti se tum bauddh dharm ko kaise ankate ho?’
saval phir bhi vanchu ki samajh mein nahin aaya, lekin usne budbudate hue uttar diya, ‘manushya ke adhyatmik vikas ke liye uske sukh aur shanti ke liye bauddh dharm ka path pradarshan bahut hi mahatvpurn hai. mahapran ke updesh. . . ’
aur vanchu bauddh dharm ke aath updeshon ki vyakhya karne laga. wo apna kathan abhi samapt nahin kar paya tha jab pardhan ki kursi par baithe paini tirchhi ankhon vale ek vyakti ne baat katkar kaha, ‘bharat ki videshi niti ke bare mein tum kya sochte hai?’
vanchu muskuraya apni DeDh daant ki muskan, phir bola, ‘aap bhadrajan is sambandh mein zyada jante hain. main to sadharan bauddh jigyasu hoon. par bharat baDa prachin desh hai. uski sanskriti shanti aur manaviy sadbhavana ki sanskriti hai. . .
‘nehru ke bare mein tum kya sochte ho?’
nehru ko mainne teen baar dekha hai. ek baar to unse baten bhi ki hain. un par pashchimi vigyan ka prabhav hai, parantu prachin sanskriti ke wo bhi baDe prshansak hain. ’
uske uttar sunte hue kuch sadasya to sir hilane lage, kuch ka chehra tamtamane laga. phir tarah tarah ke paine saval puchhe jane lage. unhonne paya ki jahan tak tathyon ka aur bharat ke vartaman jivan ka saval hai, vanchu ki jankari adhuri aur hasyaspad hai.
‘rajnitik drishti se to tum shunya ho. bauddh dharm ki avdharnaon ko bhi samajashastr ki drishti se tum aank nahin sakte. na jane vahan baithe kya karte rahe ho! par hum tumhari madad karenge. ’
puchhatachh ghanton tak chalti rahi. parti adhikariyon ne use hindi paDhane ka kaam de diya, saath hi peking ke sangrhalay mae saptah mein do din kaam karne ki bhi ijazat de di.
jab vanchu parti daftar se lauta to thaka hua tha. uska sir bhanna raha tha. apne desh mein uska dil jam nahin paya tha. aaj wo aur bhi zyada ukhDa ukhDa mahsus kar raha tha. chhappar ke niche leta to use sahsa hi bharat ki yaad satane lagi. use saranath ki apni kothari yaad aai jismen din bhar baitha pothi bancha karta tha. neem ka ghana peD yaad aaya jiske niche kabhi kabhi sustaya karta tha. smritiyon ki shrinkhla lambi hoti gai. saranath ki kaintin ka rasoiya yaad aaya jo sada pyaar se milta tha, sada haath joDkar ‘kaho bhagvan’ kahkar abhivadan karta tha.
ek baar vanchu bimar paD gaya tha to dusre roz kaintin ka rasoiya apne aap uski kothari mein chala aaya tha—‘main bhi kahun, chini babu chaay pine nahin aaye, do din ho ge! pahle aate the, to darshan ho jate the. hamein khabar ki hoti bhagvan, to hum Daktar babu ko bula late. . . main bhi kahun, baat kya hai. ’ phir uski ankhon ke samne ganga ka tat aaya jis par wo ghanton ghuma karta tha. phir sahsa drishya badal gaya aur kashmir ki jheel ankhon ke samne aa gai aur pichhe himachchhadit parvat, phir nilam samne aai, uski khuli khuli ankhen, motiyon si jhilmilati dantpankti. . . uska dil bechain ho utha.
jyon jyon din bitne lage, bharat ki yaad use zyada pareshan karne lagi. wo jal mein se bahar phenki hui machhli ki tarah taDapne laga. saranath ke vihar mein saval javab nahin hote the. jahan paDe raho, paDe raho. rahne ke liye kothari aur bhojan ka prbandh vihar ki or se tha. yahan par nai drishti se dharmagranthon ko paDhne aur samajhne ke liye usmen dhairya nahin tha, jigyasa bhi nahin thi. barson tak ek Dharre par chalte rahne ke karan wo parivartan se katrata tha. is baithak ke baad wo phir se sakuchane simatne laga tha. kahin kahin par use bharat sarkar virodhi vakya sunne ko milte. sahsa vanchu behad akela mahsus karne laga aur use laga ki zinda rah pane ke liye use apne laDakpan ke us ‘diva svapn’ mein phir se laut jana hoga, jab wo bauddh bhikshu bankar bharat mein vicharne ki kalpana karta tha.
usne sahsa bharat lautne ki thaan li. lautna asan nahin tha. bharatiy dutavas se to viza milne mein kathinai nahin hui, lekin cheen ki sarkar ne bahut se aitraz uthaye. vanchu ki nagarikta ka saval tha, aur anek saval the. par bharat aur cheen ke sambandh abhi tak bahut bigDe nahin the, isliye ant mein vanchu ko bharat lautne ki ijazat mil gai. usne man hi man nishchay kar liya ki wo bharat mein hi ab zindagi ke din katega. bauddh bhikshu hi bane rahna uski niyti thi.
jis roz wo kalkatta pahuncha, usi roz sima par chini aur bharatiy sainikon ke beech muthbheD hui thi aur das bharatiy sainik mare ge the. usne paya ki log ghoor ghurkar uski or dekh rahe hain. wo steshan ke bahar abhi nikla hi tha, jab do sipahi aakar use pulis ke daftar mein le ge aur vahan ghante bhar ek adhikari uske pasport aur kaghzon ki chhanabin karta raha.
‘do baras pahle aap cheen ge the. vahan jane ka kya prayojan tha?’
‘main bahut baras tak yahan rahta raha tha, kuch samay ke liye apne desh jana chahta tha. ’ pulis adhikari ne use sir se pair tak dekha. vanchu ashvast tha aur muskura raha tha—vahi teDhi si muskan.
‘aap vahan kya karte rahe?’
‘vahan ek kamyun mein main kheti bari ki toli mein kaam karta tha. ’
‘magar aap to kahte hain ki aap bauddh granth paDhte hain?’
‘haan, peking mein main ek sanstha mein hindi paDhane laga tha aur peking myuziyam mein mujhe kaam karne ki ijazat mil gai thi. ’
‘agar ijazat mil gai thi to aap apne desh se bhaag kyon aye?’ pulis adhikari ne ghusse mein kaha.
vanchu kya javab de? kya kahe?
main kuch samay ke liye hi vahan gaya tha, ab laut aaya hoon. . . ’
pulis adhikari ne phir se sir se paanv tak use ghoor kar dekha, uski ankhon mein sanshay utar aaya tha. vanchu atpata sa mahsus karne laga. bharat mein pulis adhikariyon ke samne khaDe hone ka uska pahla anubhav tha. usse jamini ke liye puchha gaya, to usne profesar tanshan ka naam liya, phir gurudev ka, par donon mar chuke the. usne saranath ki sanstha ke mantri ka naam liya, shantiniketan ke purane do ek sahyogiyon ke naam liye, jo use yaad the. suprintenDent ne sabhi naam aur pate not kar liye. uske kapDon ki teen baar talashi li gai. uski Dayri ko rakh liya gaya jismen usne anek uddhran aur tippaniyan likh rahe the aur suprintenDent ne uske naam ke aage tippni likh di ki is adami par nazar rakhne ki zarurat hai.
rel ke Dibbe mein baitha, to musafir goli kaanD ki charcha kar rahe the use baithte dekh sab chup ho ge aur uski or ghurne lage.
kuch der baad jab musafiron ne dekha ki wo thoDi bahut bangali aur hindi bol leta hai, to ek bangali babu uchak kar uth khaDe hue aur haath jhatak jhatak kar kahne lage, ‘ya to kaho ki tumhare deshvalon ne vishvasghat kiya hai, nahin to hamare desh se nikal jao. . . nikal jao. . . nikal jao!’
DeDh daant ki muskan jane kahan ojhal ho chuki thi. uski jagah chehre par traas utar aaya tha. bhayakul aur maun vanchu chupchap baitha raha. kahe bhi to kya kahe? goli kaanD ke bare mein jankar use bhi gahra dhakka laga tha. us jhagDe ke karan ke bare mein use kuch bhi aspasht malum nahin tha aur wo janna chahta bhi nahin tha.
haan, saranath mein pahunchakar wo sachmuch bhaav vihval ho utha. apna thaila riksha mein rakhe jab wo ashram ke nikat pahuncha, to kaintin ka rasoiya sachmuch lapak kar bahar nikal aya—‘a ge bhagvan! aa ge mere chini babu! bahut dinon baad darshan diye! hum bhi kahen, itna arsa ho gaya chini babu nahin laute! aur kahiye, sab kushal mangal hai? aap yahan nahin the, hum kahen jane kab lautenge. yahan par the to din mein do baten ho jati theen, bhale adami ke darshan ho jate the. isse baDa punya hota hai. ’ aur usne haath baDhakar thaila utha liya, ‘ham den paise, chini babu?’
vanchu ko laga, jaise wo apne ghar pahunch gaya hai.
‘apaki trank, chini babu, hamare paas rakhi hai. mantriji se hamne le li. apaki kothari mein ek dusre sajjan rahne aaye, to hamne kaha koi chinta nahin, ye trank hamare paas rakh jaiye, aur chini babu, aap apna lota bahar hi bhool ge the? hamne mantriji se kaha, ye lota chini babu ka hai, hum jante hain, hamare paas chhoD jaiye. ’
vanchu ka dil bhar bhar aaya. use laga, jaise uski DavanDol zindagi mein santulan aa gaya hai. Dagmagati jivan nauka phir se sthir gati se chalne lagi hai.
mantriji bhi sneh se mile. purani jaan pahchan ke adami the. unhonne ek kothari bhi kholkar de di, parantu anudan ke bare mein kaha ki uske liye phir se koshish karni hogi. vanchu ne phir se kothari ke bichombich chatai bichha li, khiDki ke bahar vahi drishya phir se ubhar aaya. khoya hua jeev apne sthaan par laut aaya.
tabhi mujhe uska patr mila ki wo bharat laut aaya hai aur phir se jam kar bauddhagranthon ka adhyayan karne laga hai. usne ye bhi likha ki use masik anudan ke bare mein thoDi chinta hai aur is silsile mein main banaras mein yadi amuk sajjan ko patr likh doon, to anudan milne mein sahayata hogi.
patr pakar mujhe khatka hua. kaun si mrigtrishna ise phir se vapas kheench lai hai? ye laut kyon aaya hai? agar kuch din aur vahan bana rahta to apne logon ke beech iska man lagne lagta. par kisi ki sanak ka koi ilaaj nahin. ab jo laut aaya hai, to kya chara hai! mainne ‘amuk’ ji ko patr likh diya aur vanchu ke anudan ka chhota mota prbandh ho gaya.
par lautne ke dasek din baad vanchu ek din praatः chatai par baitha ek granth paDh raha tha aur baar baar pulak raha tha, jab uski kitab par kisi ka saya paDa. usne nazar uthakar dekha, to pulis ka thanedar khaDa tha, haath mein ek parcha uthaye hue tha. vanchu ko banaras ke baDe pulis steshan mein bulaya gaya tha. vanchu ka man ashanka se bhar utha tha.
teen din baad vanchu banaras ke pulis steshan ke baramde mein baitha tha. usi ke saath bench par baDi umr ka ek aur chini vyakti baitha tha jo jute banane ka kaam karta tha. akhir bulava aaya aur vanchu chik uthakar baDe adhikari ki mez ke samne ja khaDa hua.
‘tum cheen se kab laute?’
vanchu ne bata diya.
kalkatta mein tumne apne byaan mein kaha ki tum shantiniketan ja rahe ho, phir tum yahan kyon chale aaye? pulis ko pata lagane mein baDi pareshani uthani paDi hai. ’
‘mainne donon sthanon ke bare mein kaha tha. shantiniketan to main keval do din ke liye jana chahta tha. ’
ye saval wo bahut baar pahle bhi sun chuka tha. javab mein bauddhagranthon ka havala dene ke atirikt use koi aur uttar nahin soojh pata tha.
bahut lambi intravyu nahin hui. vanchu ko hidayat ki gai ki har mahine ke pahle somvar ko banaras ke baDe pulis steshan mein use aana hoga aur apni haziri likhani hogi.
vanchu bahar aa gaya, par khinn sa mahsus karne laga. mahine mein ek baar aana koi baDi baat nahin thi, lekin wo uske samtal jivan mein badha thi, vyavdhan tha.
vanchu man hi man itna khinn sa mahsus kar raha tha ki banaras se lautne ke baad kothari mein jane ki bajay wo sabse pahle us nirav punya sthaan par jakar baith gaya, jahan shatabdiyon pahle mahapran ne apna pahla pravchan kiya tha, aur der tak baitha manan karta raha. bahut der baad uska man phir se thikane par aane laga aur dil mein phir se bhavna ki tarange uthne lagin.
par vanchu ko chain nasib nahin hua. kuch hi din baad sahsa cheen aur bharat ke beech jang chhiD gai. desh bhar mein jaise tufan utha khaDa hua. usi roz shaam ko pulis ke kuch adhikari ek jeep mein aaye aur vanchu ko hirasat mein lekar banaras chale ge. sarkar ye na karti, to aur kya karti? shasan karne valon ko itni fursat kahan ki sankat ke samay sanvedna aur sadbhavana ke saath dushman ke ek ek nagarik ki sthiti ki jaanch karte phiren?
do dinon tak donon chiniyon ko pulis steshan ki ek kothari mein rakha gaya. donon ke beech kisi baat mein bhi samanata nahin thi. jute banane vala chini sara vaqt sigret phunkta rahta aur ghutnon par kohaniyan tikaye baDbaData rahta, jabki vanchu udbhraant aur niDhal sa divar ke saath peeth lagaye baitha shunya mein dekhta rahta.
jis samay vanchu apni sthiti ko samajhne ki koshish kar raha tha, usi samay do teen kamre chhoDkar pulis suprintenDent ki mez par uski chhoti si potli ki talashi li ja rahi thi. uski ghair maujudgi mein pulis ke sipahi kothari mein se uska trank utha laye the. suprintenDent ke samne kaghzon ka pulinda rakha tha, jis par kahin pali mein to kahin sanskrit bhasha mein uddhran likhe the, lekin bahut sa hissa chini bhasha mein tha. sahab kuch der tak to kaghzon mein ulatte palte rahe, raushani ke samne rakhkar unmen likhi kisi gupt bhasha ko DhunDhate bhi rahe, ant mein unhonne hukm diya ki kaghzon ke pulinde ko baandh kar dilli ke adhikariyon ke paas bhej diya jaye, kyonki banaras mein koi adami chini bhasha nahin janta tha.
panchaven din laDai band ho gai, lekin vanchu ke saranath lautne ki ijazat ek mahine ke baad mili. chalte samay jab use uska trank diya gaya aur usne use kholkar dekha, to sakte mein aa gaya. uske kaghaz usmen nahin the, jis par wo barson se apni tippaniyan aur lekhadi likhta raha tha aur jo ek tarah se uske sarvasv the. pulis adhikari ke kahne par ki unhen dilli bhej diya gaya hai, wo sir se pair tak kaanp utha tha.
‘ve mere kaghaz aap mujhe de dijiye. un par mainne bahut kuch likha hai, ve bahut zaruri hain. ’
is par adhikari rukhai se bola, ‘mujhe un kaghzon ka kya karna hai, aapke hain, aapko mil jayenge. ’ aur usne vanchu ko chalta kiya. vanchu apni kothari mein laut aaya. apne kaghzon ke bina wo adhamra sa ho raha tha. na paDhne mein man lagta, na kaghzon par ne uddhran utarne mein. aur phir us par kaDi nigrani rakhi jane lagi thi. khiDki se thoDa hat kar neem ke peD ke niche ek adami roz baitha nazar aane laga. DanDa haath mein liye wo kabhi ek karvat baithta, kabhi dusri karvat. kabhi uthkar Dolne lagta. kabhi kuen ki jagat par ja baithta, kabhi kaintin ki bench par aa baithta, kabhi get par ja khaDa hota. iske atirikt ab vanchu ko mahine mein ek baar ke sthaan par saptah mein ek baar banaras mein haziri lagvane jana paDta tha.
tabhi mujhe vanchu ki chitthi mili. sara byaura dene ke baad usne likha ki bauddh vihar ka mantri badal gaya hai aur ne mantri ko cheen se nafrat hai aur vanchu ko Dar hai ki anudan milna band ho jayega. dusre, ki main jaise bhi ho uske kaghzon ko bacha loon. jaise bhi ban paDe, unhen pulis ke hathon se nikalva kar saranath mein uske paas bhijva doon. aur agar banaras ke pulis steshan mein prati saptah pesh hone ki bajay use mahine mein ek baar jana paDe to uske liye suvidhajanak hoga, kyonki is tarah mahine mein lagbhag das rupe aane jane mein lag jate hain aur phir kaam mein man hi nahin lagta, sir par talvar tangi rahti hai.
vanchu ne patr to likh diya, lekin usne ye nahin socha ki mujh jaise adami se ye kaam nahin ho payega. hamare yahan koi kaam bina jaan pahchan aur sifarish ke nahin ho sakta. aur mere parichay ka baDe se baDa adami mere kaulej ka prinsipal tha. phir bhi main kuchhek sansad sadasyon ke paas gaya, ek ne dusre ki or bheja, dusre ne tisre ki or. bhatak bhatak kar laut aaya. ashvasan to bahut mile, par sab yahi puchhte—‘vah cheen jo gaya tha vahan se laut kyon aya?’ ya phir puchhte—‘pichhle bees saal se adhyayan hi kar raha hai?’
par jab main uski panDulipiyon ka zikr karta, to sabhi yahi kahte, ‘haan, ye to kathin nahin hona chahiye. ’ aur samne rakhe kaghaz par kuch not kar lete. is tarah ke ashvasan mujhe bahut mile. sabhi samne rakhe kaghaz par mera agrah not kar lete. par sarkari kaam ke raste chakravyuh ke raston ke samne hote hain aur har moD par koi na koi adami tumhein tumhari haisiyat ka bodh karata rahta hai. mainne javab mein use apni koshishon ka pura byaura diya, ye bhi ashvasan diya ki main phir logon se milunga, par saath hi mainne ye bhi sujhav diya ki jab sthiti behtar ho jaye, to wo apne desh vapas laut jaye, uske liye yahi behtar hai.
khat se uske dil ki kya pratikriya hui, main nahin janta. usne kya socha hoga? par un tanav ke dinon mein jab mujhe svayan cheen ke vyvahar par ghussa aa raha tha, main vanchu ki sthiti ko bahut sahanubhuti ke saath nahin dekh sakta tha.
uska phir ek khat aaya. usmen cheen laut jane ka koi zikr nahin tha. usmen keval anudan ki charcha ki gai thi. anudan ki raqam abhi bhi chalis rupe hi thi, lekin use poorv suchana de di gai thi ki saal khatm hone par us par phir se vichar kiya jayega ki wo milti rahegi ya band kar di jayegi.
lagbhag saal bhar baad vanchu ko ek purza mila ki tumhare kaghaz vapas kiye ja sakte hain, ki tum pulis steshan aakar unhen le ja sakte ho. un dinon wo bimar paDa tha, lekin bimari ki haalat mein bhi wo girta paDta banaras pahuncha. lekin uske haath ek tihai kaghaz lage. potli abhi bhi adhakhuli thi. vanchu ko pahle to yaqin nahin aaya, phir uska chehra zard paD gaya aur haath pair kanpne lage. is par thanedar rukhai ke saath bola, ‘ham kuch nahin jante! inhen uthao aur yahan se le jao varna idhar likh do ki hum lene se inkaar karte hain. ’
kanpti tangon se vanchu pulinda baghal mein dabaye laut aaya. kaghzon mein keval ek pura nibandh aur kuch tippaniyan bachi theen.
usi din se vanchu ki ankhon ke samne dhool uDne lagi thi.
vanchu ki maut ki khabar mujhe mahine bhar baad mili, wo bhi bauddh vihar ke mantri ki or se. marne se pahle vanchu ne agrah kiya tha uska chhota sa trank aur uski gini chuni kitaben mujhe pahuncha di jayen.
umr ke is hisse mein pahunchakar insaan buri khabren sunne ka aadi ho jata hai aur ve dil par gahra aghat nahin kartin.
main fauran saranath nahin ja paya, jane mein koi tuk bhi nahin thi, kyonki vahan vanchu ka kaun baitha tha, jiske samne afsos karta, vahan to keval trank hi rakha tha. par kuch dinon baad mauqa milne par main gaya. mantriji ne vanchu ke prati sadbhavana ke shabd kahe—‘baDa nekadil adami tha, sachche arthon mein bauddh bhikshu tha,’ aadi aadi. mere dastkhat lekar unhonne trank mere havale ki. trank mein vanchu ke kapDe the, wo phata purana chogha tha, jo nilam ne use upharasvrup diya tha. teen chaar kitaben theen, pali ki aur sanskrit ki. chitthiyan theen, jinmen kuch chitthiyan meri, kuch nilam ki rahi hongi, kuch aur logon ki.
trank uthaye main bahar ki or ja raha tha jab mujhe apne pichhe qadmon ki aahat mili. mainne muDkar dekha, kaintin ka rasoiya bhagta chala aa raha tha. apne patron mein aksar vanchu uska zikr kiya karta tha. . .
aur uski ankhen DabDaba gain. sare sansar mein shayad yahi akela jeev tha, jisne vanchu ki maut par do ansu bahaye the.
‘baDi bholi tabiyat thi. bechare ko pulisvalon ne bahut pareshan kiya. shuru shuru mein to chaibis ghante ki nigrani rahti thi. main us havaldar se kahun, bhaiya, tu kyon is bechare ko pareshan karta hai? wo kahe, main to Dyuti kar raha hoon. . . !’
main trank aur kaghzon ka pulinda le aaya hoon. is pulinde ka kya karun? kabhi sochta hoon, ise chhapva Dalun. par adhuri panDulipi ko kaun chhapega? patni roz bigaDti hai ki main ghar mein kachra bharta rahta hoon. do teen baar wo phenkne ki dhamki bhi de chuki hai, par main ise chhipata rahta hoon. kabhi kisi takhte par rakh deta hoon, kabhi palang ke niche chhipa deta hoon. par main janta hoon kisi din ye bhi gali mein phenk diye jayenge.
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।