विएना के एक बड़े स्टोर की सबसे ऊपर की मंज़िल पर बने एक स्वयंसेवी रेस्तराँ में मैं इन्हीं दिनों गया। मुझे तीसरी मंज़िल पर स्थित टॉयज़ की दुकान से अपने भतीजे के लिए खिलौने वाला घोड़ा ख़रीदना था, उनमें से एक, जो आँखें झपकाते हैं, शोर मचाते हैं और जब गिरते हैं तो ‘होट्टेह्यू’ कहते हैं। मुश्किल यह है कि मैं शहर के एक छोर पर बनी एक कॉलोनी में रहता हूँ और सफ़र बहुत थकाने वाला था। मैंने फ़ैसला किया कि पहले कुछ नाश्ता कर लूँ।
भाप छोड़ते बर्तनों के सामने लगी क़तार बहुत लंबी थी। मैं एक पाँव से दूसरे पाँव पर खड़ा हो रहा था, बार-बार अपने से आगे खड़े आदमी की पड़ताल कर रहा था, ऊँची आवाज़ में अपना असंतोष प्रकट कर रहा था। आख़िर मेरी भी बारी आई। मैंने अपने ट्रे पर गुलाश सूप रखा, पैसे चुकाए, और कुछ ठीक से साफ़ न की गई ट्रे को एक साफ़ मेज़ पर रखा, अपनी जैकेट उतारी और उसे कुर्सी पर टाँग दिया। तभी मुझे ख़याल आया कि मैं छोटी गोल डबलरोटी लेना भूल गया था। ख़ुद को कोसते हुए मैं एक बार फिर क़तार में लग गया। अपनी कनपटियाँ मसलीं। बड़े स्टोरों की हवा में मुझे सरदर्द होने लगता है।
जब मैं डबलरोटी लिए अपनी मेज़ को लौटा तो देखा कि वहाँ बैठा एक काला मज़े से मेरे गुलाश सूप में चम्मच मार-मार कर खा रहा था।
मैं कोई नस्लवादी नहीं हूँ। विदेशियों से मुझे कोई तकलीफ़ नहीं होती, लेकिन मैं किसी को अपना सूप तो नहीं पीने दूँगा।
असमंजस की स्थिति में मैं उस ढीठ बंदे के सामने बैठ गया और नज़र में चुनौती भरे उसे घूरने लगा। वह नज़रें झुकाये सुड़कता रहा। बंदे की हिम्मत तो देखो, मैंने सोचा, देखते हैं। मैंने डबलरोटी का एक टुकड़ा सूप में डुबोया और उसे अपने मुँह में डाल लिया। उसने सर उठा कर मुझे देखा और फिर सूप पीने में जुट गया।
समझ नहीं आ रहा, मैंने सोचा।
यह दिखाने के लिए कि मैं विदेशियों का दुश्मन नहीं हूँ, लेकिन फिर भी अपना सूप नहीं गँवाना चाहता, मैंने गोल डबलरोटी के छोटे-छोटे टुकड़े किए और उन्हें डुबो डुबो कर खाना शुरू किया। मैं डुबोता गया और खाता गया। काला इतना ‘मेहरबान’ था कि उसने प्लेट कुछ मेरे नज़दीक ढकेल दी, मेरी तरफ़ उसने नहीं देखा। मैं हक्का-बक्का था। इस बेशर्मी का मुक़ाबला कैसे किया जाए? शोर मचाऊँ? औरों को मदद के लिए बुलाऊँ? लोगों, मेरी मदद करो, मैं कोई नस्लवादी नहीं हूँ, लेकिन यह आदमी मेरा गुलाश सूप भकोसे जा रहा है। मेरा ख़ुद का मज़ाक बन कर रह जाएगा।
एक मिनट बाद प्लेट साफ़ थी, सारे सोच-विचार वहीं के वहीं धरे रह गए।
काले ने मेरे नैपकिन से अपना मुँह पोछा। मेरी ओर देख कर सिर हिलाया, खड़ा हुआ और चला गया। मैं मुँह बाए देखता ही रह गया।
उसी लम्हे मेरा ध्यान गया कि मेरी जैकेट ग़ायब थी।
“रुक जा! खड़ा हो जा!” मैं चिल्लाया और उछल कर खड़ा हो गया।
“रोको इसे! इसने मेरी जैकेट चुराई है!”
मेरे चीख़ने-चिल्लाने से आस-पास की मेज़ों पर बैठे लोगों का ध्यान मेरी ओर खिंचा। मेरी नज़र रेस्तराँ में इधर से उधर घूम रही थी—क्या कोई मेरी सुनेगा, क्या हम एक साथ मिल कर इस शख़्स का पीछा करेंगे?
तभी मेरी नज़र साथ वाली मेज़ की कुर्सी पर टंगी मेरी जैकेट पर पड़ी। मेरा गुलाश सूप भी वहाँ पड़ा था। छुआ तक नहीं था किसी ने।
कमाल है, इस स्वयंसेवी रेस्तराँ में सभी मेज़ें सचमुच एक सरीखी लगती हैं।
- पुस्तक : विश्व की श्रेष्ठ कहानियाँ (खण्ड-2) (पृष्ठ 196)
- संपादक : ममता कालिया
- रचनाकार : थॉमस ग्लैविनिक
- प्रकाशन : लोकभारती प्रकाशन
- संस्करण : 2005
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