बादल घिर आए और इतने गहरा गए मानों रात हो आई हो। हल्की-हल्की बूँदें पड़ने लगीं। सड़क की धूल ठंडी हवाओं ने झाड़ दी थी, बस उसकी उमस भरी गंध रह गई थी। राहगीर तेज़-तेज़ भागे जा रहे थे। कुछ लोग बस-स्टॉप की शेड के नीचे सिमट आए थे। यह साधारण-सा दृश्य ठहरा-ठहरा ही रह गया होता, अगर बग़ल की गली से एक आदमी निकलकर पागलों की तरह दौड़ता सामने वाली गली में न चला गया होता। उसके पीछे-पीछे लोगों का हुजूम था। वे चिल्ला रहे थे—’चोर-चोर, पकड़ो पकड़ो!’ शोर कम होते-होते अचानक बंद हो गया।
बूंदाबाँदी रुकी नहीं। सड़क तक़रीबन सुनसान थी, बस कुछ लोग बस स्टॉप के शेड के नीचे खड़े थे। कुछ बस का इंतज़ार कर रहे थे, कुछ भीग जाने के डर से बूंदाबाँदी रुकने के इंतज़ार में खड़े थे।
दौड़ा-दौड़ी की आवाज़ें फिर आने लगीं। वे नज़दीक आते जा रहे थे, उनकी आवाज़ें तेज़ हो रही थीं। सामने दिखने लगा था कि कुछ लोगों ने चोर को पकड़ रखा था। आसपास खड़े नौजवान ज़ोर-ज़ोर से चीख़ रहे थे चिल्ला रहे थे। रास्ते में उसने भागने की कोशिश भी की, लेकिन उन्होंने पकड़ लिया और लात-जूतों से उसकी ख़बर लेने लगे। इस ज़बरदस्त पिटाई के बीच वह हवा में हाथ-पाँव भाँज रहा था।
वहाँ बस-स्टॉप के शेड में खड़े लोगों की निगाहें उसी लड़ाई पर टिकी थीं।
—’हाय! कितनी बुरी तरह मार रहे हैं उसे।’
—‘चोरी से बड़ा अपराध तो यें कर रहे हैं।’
—‘देखो, वहाँ उस बिल्डिंग के बाहर पुलिस वाला भी खड़ा देख रहा है।’
—‘लेकिन उसने तो अपना मुँह दूसरी ओर घुमा लिया।’
बारिश तेज़ होती जा रही थी और अब चाँदी के तारों की तरह लटकती दिखने लगी थी। बाकी सड़क एक़दम सुनसान थी, सिवाए उन लड़ने वालों के...
सिवाए बस-स्टॉप के शेड में खड़े लोगों के...
चोर को पीट-पाटकर वे सब उसे वहाँ घेरे खड़े थे, कानफाड़ आवाज़ में पता नहीं क्या चीख़ चिल्ला रहे थे। बारिश से बेख़बर वे लोग पता नहीं किस बहस में उलझे हुए थे, कोई नहीं समझ सकता था। उनके कपड़े बदन से चिपक रहे थे, लेकिन वे बहस में उलझे हुए थे। बारिश पर उनका कोई ख़ास ध्यान नहीं था। चोर की हरकतों से लग रहा था कि वह अपने आपको बचाने की कोशिश कर रहा था, लेकिन किसी को उस पर विश्वास नहीं हो रहा था। वह ऐसे हाथ हिला रहा था कि भाषण दे रहा हो। लेकिन एक तो वह इतनी दूर था और दूसरे बारिश की आवाज़, कुछ भी सुनाई नहीं पड़ रहा था। इसमें कोई संदेह नहीं कि वह भाषण दे रहा था और लोग खड़े होकर उसे सुन रहे थे। बारिश हो रही थी, वे उसे चुपचाप देख रहे थे।
बस-स्टॉप के शेड में खड़े लोगों की आँखें उसी पर लगी थीं।
—‘वैसे यह समझ में नहीं आ रहा कि पुलिस वाला कुछ कर क्यों नहीं रहा है?’ पहले वाले आदमी ने फिर पूछा, मानों अपने आपसे।
—‘वही तो, उसी से तो मुझे लग रहा है कि यह किसी फिल्म का सीन है। शूटिंग चल रही लगती है।’ दूसरा आदमी बोला।
—‘लेकिन पिटाई तो सचमुच ही होती लग रही है।’
—‘लेकिन इस बारिश में चलती यह बहस, यह भाषणबाज़ी। इसको क्या कहेंगे आप?’
अचानक कोई हरकत हुई। चौराहे की ओर से दो कारें तूफ़ानी गति से आती दिखीं। ऐसा लग रहा था कि एक गाड़ी दूसरी का पीछा कर रही हो, जो काफ़ी ख़तरनाक दिख रही थी। आगे वाली गाड़ी भीषण रफ़्तार में भागी जा रही थी, दूसरी उसको छूने-छूने को थी।
अचानक सामने वाली गाड़ी के ड्राइवर ने इतना तेज़ ब्रेक लगाया कि दूर तक सड़क पर वह गाड़ी फिसलती चली गई। इस बीच दूसरी गाड़ी ने उसमें तेज़ी से ठोकर मार दी। इतनी ज़ोर से कि उसकी आवाज़ से फिज़ा गूँज उठी। दोनों ही गाड़ियाँ पलट गईं और ज़ोर का धमाका हुआ। दोनों ही गाड़ियों में आग लग गई। रिमझिम बारिश की फिज़ा चीख़-पुकारों से गूँज उठी।
लेकिन दुर्घटना स्थल की ओर कोई नहीं बढ़ा। चोर का भाषण नहीं रुका, नहीं आसपास से कोई कुछ मीटर ही दूर पड़े दोनों गाड़ियों के मलबे की ओर बढ़ा, जिनमें कुछ ही देर पहले आग लगी थी।
उन लोगों ने उस पर वैसे ही कोई ध्यान नहीं दिया, जैसे बारिश पर उनका कोई ध्यान नहीं था। बस-स्टॉप के उस शेड के नीचे खड़े एक आदमी की नज़र ख़ून में लथपथ एक आदमी पर पड़ी। वह दुर्घटना के शिकारों में एक था, जिसने गाड़ी के नीचे से रेंगकर निकलने की कोशिश की और मुँह के बल भरभराकर गिर पड़ा।
—‘बहुत बड़ी दुर्घटना हुई है, नहीं?’ पहला बोला।
—‘लेकिन पुलिस वाला तो हिलना ही नहीं चाहता।’ दूसरा बोला।
—‘आसपास कोई टेलिफोन हो शायद।’
लेकिन वहाँ से कोई हिला नहीं, बारिश का भय सबको था। बारिश काफ़ी तेज़ थी, बीच-बीच में बिजली की कड़क भय पैदा करती थी।
चोर का भाषण लगता था पूरा हो चुका था, वह सुनने वालों के मुक़ाबले अधिक निश्चित दिख रहा था। अचानक वह अपने कपड़े ज़मीन से उठाने लगा। उस समय तक वह नंगा ही खड़ा था। उसने अपने कपड़े उन गाड़ियों के मलबे पर फेंक दिए, बरसात की झड़ी ने जिनकी आग को ठंडा कर दिया था। वह इधर से उधर ऐसे टहलने लगा था, मानों अपने नंग-धड़ंग बदन का प्रदर्शन कर रहा हो।
वह दो क़दम आगे बढ़ा, फिर वापस। फिर बड़े ही मोहक ढंग से नाचने लगा। इस बीच उसे खदेड़ने वाले लोग तालियाँ पीट रहे थे। चारों ओर से नौजवानों ने घेरा बना रखा था।
बस-स्टॉप के शेड के नीचे खड़े लोग साँस थामे यह नज़ारा देख रहे थे।
—‘अगर यह किसी फिल्म का सीन नहीं है तो पागलपन ही है।’ पहला बोला।
—‘मुझे इसमें कोई शक नहीं कि यह किसी फिल्म की शूटिंग ही है और वह पुलिस वाला भी कलाकारों में एक है और इसीलिए वहाँ खड़ा अपनी बारी का इंतज़ार कर रहा है।’ दूसरे ने अपनी बात जोड़ी।
—‘और वह कार हादसा?’
—‘क्या पता कोई स्पेशल इफ़ेक्ट हो? क्या पता सामने किसी खिड़की से सिनेमा का निर्देशक ही झाँकता मिल जाए।’
उस शेड के सामने एक खिड़की खुली दिखाई दे रही थी, वहाँ से कोई आवाज़ आ रही थी, जिसने सबका ध्यान खींचा। एक तरफ़ तालियों की थपक, ऊपर से बारिश की झमक लेकिन फिर भी उधर सबका ध्यान चला गया। एक बना-ठना आदमी खिड़की से दिखने लगा। खिड़की पर आकर उसने एक ख़ास तरह से सीटी बजाई। थोड़ी देर बाद बिल्डिंग की एक और खिड़की खुली और वहाँ एक औरत प्रकट हुई। वह भी ख़ासी बनी-सँवरी थी। सीटी का जवाब उसने सिर हिलाकर हामी भरते हुए दिया। वे दोनों ही अपनी-अपनी खिड़कियों से ओझल हो गए। कुछ देर बाद दोनों ही बिल्डिंग से एकसाथ निकलते दिखे। बिना बारिश की परवाह किए दोनों हाथ में हाथ डाले चलते रहे। वे गाड़ियों के मलबे के पास आकर खड़े हो गए, आपस में कुछ बतियाते हुए दोनों अपने कपड़े उतारने लगे। वे बिल्कुल नंगे हो गए।
औरत गाड़ी के बाहर पड़े मृत व्यक्ति की लाश पर सिर रखकर लेट गई। पुरुष भी उसकी बगल में लेट गया। दोनों गुत्थमगुत्था हो गए। इस बीच उस चोर का नाचना, मजमे का ताली बजाना और बारिश की झमाझम, सब चलते रहे।
—‘यह तो भयानक है।’ पहला बोला।
—‘अगर यह फिल्म का सीन है तो भी भयानक है। अगर सचमुच का सीन है तो पागलपन ही कहा जा सकता है।’ दूसरा बोला।
—‘और वह पुलिस वाला उधर सिगरेट सुलगा रहा है।’
अचानक लगभग ख़ाली-सी पड़ी उस सड़क पर नया कुछ धड़कने लगा। दक्षिण दिशा से ऊँटों का एक कारवाँ आ रहा था। वे अपना खेमे नाचते चोर के उस मजमे से कुछ ही दूर गाड़ने लगे।
उत्तर दिशा से एक बस यूरोपीय सैलानियों को लेकर आ गई। वह उस नाचते चोर के मजमे से कुछ पीछे की ओर रुक गई। बस में सवार लोग इधर-उधर फैल गए। वे उस प्रेमालिंगन, चोर के नाच, मौत और बारिश से बेख़बर ही दिख रहे थे।
फिर पता नहीं कहाँ से बहुत सारे राज मजदूर आ गए। पीछे से ट्रकों में भरकर पत्थर, सीमेंट आदि आने लगे। आनन-फानन में उन मज़दूरों ने वहाँ बड़ा ही सुंदर एक मकबरा बना दिया। उसके बगल में एक ऊँचा सिंहासन लगाकर, उसे फूलों से सजाने लगे—बारिश हो ही रही थी।
—‘ऐसा लग रहा है मानों हम सपना देख रहे हों।’ पहले ने कहा।
—‘एक दु:स्वप्न, अब यहाँ से निकल लेना चाहिए।’ दूसरे ने कहा।
—’नहीं! इंतज़ार करते हैं। ‘
—‘किस बात का?’
—‘सुखद अंत का।’
—‘या प्रोड्यूसर से बोल दो, वह तबाह हो जाएगा।’
इस बीच कारवाँ सवारों और यूरोपियों में लड़ाई होने लगी। बाकी लोग नाचने-गाने लगे। उस मकबरे के इर्द-गिर्द कई जोड़े आए और गुत्थमगुत्था हो गए। एकदम नग्न। चोर और ज़ोर ज़ोर से नाचने लगा। अचानक सब कुछ अपने चरम पर अ गया। हत्या और नृत्य, संभोग और मृत्यु, बिजली और वर्षा।
एक लंबा-तगड़ा आदमी हाथ में दूरबीन लिए प्रकट हुआ। वह भीड़ से बचता-बचाता सड़क को चारों ओर से दूरबीन से देख-देखकर कहने लगा-बुरा नहीं है...बुरा नहीं है।’
भीड़ भर की निगाहें उस ओर जा लगीं।
—‘क्या यही है?’ पहले ने जैसे प्रश्न पूछा ही।
—‘हाँ, यही निर्देशक है।’ दूसरे ने जैसे जवाब दिया।
वह बिना किसी को देखे सड़क की ओर देखकर बुदबुदा रहा था—‘इसी तरह लगे रहो, नहीं तो हर चीज़ शुरुआत से शुरू कर दूँगा।’
पहले ने आगे बढ़कर साहस करते हुए पूछा—‘तो आप ही निर्देशक हैं?’
वह बिना कोई जवाब दिए अपने काम में लगा रहा। इतने में धड़ से कटा एक सिर लुढ़कता हुआ बस स्टॉप की ओर आया। वह उसकी ओर देखकर बुदबुदाने लगा—‘बहुत अच्छा, बहुत अच्छा।’
‘लेकिन यह सचमुच का सिर है और सचमुच ख़ून बह रहा है।’ दूसरा आदमी उस पर चिल्लाया।
उस आदमी ने उस पर कोई ध्यान नहीं दिया। दूरबीन से उसने गुत्थमगुत्था जोडों को देखा और जैसे आदेश दिया—‘आसन बदल लो, नहीं तो ऊबाऊ लगने लगेगा।’
—‘देखिए, यह सचमुच का सिर है और आपको बताना पड़ेगा कि यह सब क्या हो रहा है?’ —कहते हुए दोनों उसकी ओर बढ़े।
अचानक वह दूरबीन वाला आदमी ऐसे पीछे मुड़ा, जैसे वह अपने आपको उनके पीछे छुपा लेना चाहता हो। अचानक वह बूढ़ा और बीमार दिखने लगा। अचानक वह आदमी उस तेज़ बारिश में तेजी से भागा, पता नहीं कहाँ से उसके पीछे कुछ लोग भागने लगे।
फिर दृश्य से सब ग़ायब हो गए। हत्या, संभोग, नृत्य और बारिश रह गए।
—‘चलो, कम से कम वह निर्देशक तो नहीं था।’ पहला बोला।
—‘फिर, यह था कौन?’
—‘शायद चोर।’
—‘शायद लुटेरा।’
—‘या शायद वह और उसका पीछा करने वाले सिनेमा के सीन का ही हिस्सा रहे हों।’
—‘ये सारी सचमुच की घटनाएँ हैं और इनका किसी फिल्म के दृश्य से कुछ लेना-देना नहीं है।’
—‘इस सबका तो यही तर्क बचता है।’
—‘हमें यहाँ से हर हाल में भाग लेना चाहिए।’
—‘कहीं हमें किसी जाँच दल के सामने गवाही न देनी पड़े।’
—‘कुछ उम्मीद की जा सकती है।’
कहने वाला आदमी पुलिस की ओर बढ़ा और चिल्लाया—‘सार्जेंट!’
उस सिपाही ने खिन्नता से बारिश की ओर देखा, अपना ओवरकोट चढ़ाया और उसकी ओर यानी शेड की ओर बढ़ा। उसने दोनों को सख्ती से घूरते हुए पूछा—‘क्या बात है?”
बिना आँखें हटाए वह बोला—‘इस बस स्टॉप का एक-एक आदमी बस में चढ़कर जा चुका है। तुम यहाँ क्यों खड़े हो?’
‘वह देखिए, आदमी का सिर!’ —पहला आदमी बोला।
—‘अपने-अपने पहचान-पत्र दिखाओ।’
पहचान-पत्रों के निरीक्षण के बाद वह क्रूर हँसी हँसते हुए बोला, ‘आपके यहाँ जमा होने का मकसद क्या था? यहाँ क्यों जुटे थे आप सब?’
उन्होंने एक-दूसरे को देखा और मासूमियत से बोले—‘हममें से कोई पहले से एक-दूसरे को नहीं जानता था।’
‘तुम्हारा यह झूठ चलने वाला नहीं है।’
वह सिपाही दो क़दम पीछे हटा। बंदूक़ से निशाना साधकर उसने घोड़ा दबा दिया। निशाना अचूक था। दोनों एक के बाद एक कटे पेड़ की तरह गिर गए। उनके शरीर तो बस स्टॉप के शेड के नीचे थे और सिर बाहर पैदल चलने वाली पटरी पर बारिश में भीग रहे थे।
badal ghir aaye aur itne gahra ge manon raat ho aai ho. halki halki bunden paDne lagin. saDak ki dhool thanDi havaon ne jhaaD di thi, bas uski umas bhari gandh rah gai thi. rahgir tez tez bhage ja rahe the. kuch log bas staup ki sheD ke niche simat aaye the. ye sadharan sa drishya thahra thahra hi rah gaya hota, agar baghal ki gali se ek adami nikalkar paglon ki tarah dauDta samne vali gali mein na chala gaya hota. uske pichhe pichhe logon ka hujum tha. ve chilla rahe the—’chor chor, pakDo pakDo!’ shor kam hote hote achanak band ho gaya.
bundabandi ruki nahin. saDak taqriban sunsan thi, bas kuch log bas staup ke sheD ke niche khaDe the. kuch bas ka intzaar kar rahe the, kuch bheeg jane ke Dar se bundabandi rukne ke intzaar mein khaDe the.
dauDa dauDi ki avazen phir aane lagin. ve nazdik aate ja rahe the, unki avazen tez ho rahi theen. samne dikhne laga tha ki kuch logon ne chor ko pakaD rakha tha. asapas khaDe naujavan zor zor se cheekh rahe the chilla rahe the. raste mein usne bhagne ki koshish bhi ki, lekin unhonne pakaD liya aur laat juton se uski khabar lene lage. is zabardast pitai ke beech wo hava mein haath paanv bhaanj raha tha.
vahan bas staup ke sheD mein khaDe logon ki nigahen usi laDai par tiki theen.
—’haay! kitni buri tarah maar rahe hain use. ’
—‘chori se baDa apradh to yen kar rahe hain. ’
—‘dekho, vahan us bilDing ke bahar pulis vala bhi khaDa dekh raha hai. ’
—‘lekin usne to apna munh dusri or ghuma liya. ’
barish tez hoti ja rahi thi aur ab chandi ke taron ki tarah latakti dikhne lagi thi. baki saDak eqdam sunsan thi, sivaye un laDne valon ke. . .
sivaye bas staup ke sheD mein khaDe logon ke. . .
chor ko peet patkar ve sab use vahan ghere khaDe the, kanphaD avaz mein pata nahin kya cheekh chilla rahe the. barish se bekhbar ve log pata nahin kis bahs mein uljhe hue the, koi nahin samajh sakta tha. unke kapDe badan se chipak rahe the, lekin ve bahs mein uljhe hue the. barish par unka koi khaas dhyaan nahin tha. chor ki harakton se lag raha tha ki wo apne aapko bachane ki koshish kar raha tha, lekin kisi ko us par vishvas nahin ho raha tha. wo aise haath hila raha tha ki bhashan de raha ho. lekin ek to wo itni door tha aur dusre barish ki avaz, kuch bhi sunai nahin paD raha tha. ismen koi sandeh nahin ki wo bhashan de raha tha aur log khaDe hokar use sun rahe the. barish ho rahi thi, ve use chupchap dekh rahe the.
bas staup ke sheD mein khaDe logon ki ankhen usi par lagi theen.
—‘vaise ye samajh mein nahin aa raha ki pulis vala kuch kar kyon nahin raha hai?’ pahle vale adami ne phir puchha, manon apne aapse.
—‘vahi to, usi se to mujhe lag raha hai ki ye kisi philm ka seen hai. shuting chal rahi lagti hai. ’ dusra adami bola.
—‘lekin pitai to sachmuch hi hoti lag rahi hai. ’
—‘lekin is barish mein chalti ye bahs, ye bhashanbazi. isko kya kahenge aap?’
achanak koi harkat hui. chaurahe ki or se do karen tufani gati se aati dikhin. aisa lag raha tha ki ek gaDi dusri ka pichha kar rahi ho, jo kafi khatarnak dikh rahi thi. aage vali gaDi bhishan raftar mein bhagi ja rahi thi, dusri usko chhune chhune ko thi.
achanak samne vali gaDi ke Draivar ne itna tez break lagaya ki door tak saDak par wo gaDi phisalti chali gai. is beech dusri gaDi ne usmen tezi se thokar maar di. itni zor se ki uski avaz se phiza goonj uthi. donon hi gaDiyan palat gain aur zor ka dhamaka hua. donon hi gaDiyon mein aag lag gai. rimjhim barish ki phiza cheekh pukaron se goonj uthi.
lekin durghatna sthal ki or koi nahin baDha. chor ka bhashan nahin ruka, nahin asapas se koi kuch mitar hi door paDe donon gaDiyon ke malbe ki or baDha, jinmen kuch hi der pahle aag lagi thi.
un logon ne us par vaise hi koi dhyaan nahin diya, jaise barish par unka koi dhyaan nahin tha. bas staup ke us sheD ke niche khaDe ek adami ki nazar khoon mein lathpath ek adami par paDi. wo durghatna ke shikaron mein ek tha, jisne gaDi ke niche se rengkar nikalne ki koshish ki aur munh ke bal bharabhrakar gir paDa.
—‘lekin pulis vala to hilna hi nahin chahta. ’ dusra bola.
—‘asapas koi teliphon ho shayad. ’
lekin vahan se koi hila nahin, barish ka bhay sabko tha. barish kafi tez thi, beech beech mein bijli ki kaDak bhay paida karti thi.
chor ka bhashan lagta tha pura ho chuka tha, wo sunne valon ke muqable adhik nishchit dikh raha tha. achanak wo apne kapDe zamin se uthane laga. us samay tak wo nanga hi khaDa tha. usne apne kapDe un gaDiyon ke malbe par phenk diye, barsat ki jhaDi ne jinki aag ko thanDa kar diya tha. wo idhar se udhar aise tahalne laga tha, manon apne nang dhaDang badan ka pradarshan kar raha ho.
wo do qadam aage baDha, phir vapas. phir baDe hi mohak Dhang se nachne laga. is beech use khadeDne vale log taliyan peet rahe the. charon or se naujvanon ne ghera bana rakha tha.
bas staup ke sheD ke niche khaDe log saans thame ye nazara dekh rahe the.
—‘agar ye kisi philm ka seen nahin hai to pagalpan hi hai. ’ pahla bola.
—‘mujhe ismen koi shak nahin ki ye kisi philm ki shuting hi hai aur wo pulis vala bhi kalakaron mein ek hai aur isiliye vahan khaDa apni bari ka intzaar kar raha hai. ’ dusre ne apni baat joDi.
—‘aur wo kaar hadasa?’
—‘kya pata koi speshal ifekt ho? kya pata samne kisi khiDki se sinema ka nirdeshak hi jhankta mil jaye. ’
us sheD ke samne ek khiDki khuli dikhai de rahi thi, vahan se koi avaz aa rahi thi, jisne sabka dhyaan khincha. ek taraf taliyon ki thapak, uupar se barish ki jhamak lekin phir bhi udhar sabka dhyaan chala gaya. ek bana thana adami khiDki se dikhne laga. khiDki par aakar usne ek khaas tarah se siti bajai. thoDi der baad bilDing ki ek aur khiDki khuli aur vahan ek aurat prakat hui. wo bhi khasi bani sanvari thi. siti ka javab usne sir hilakar hami bharte hue diya. ve donon hi apni apni khiDakiyon se ojhal ho ge. kuch der baad donon hi bilDing se eksaath nikalte dikhe. bina barish ki parvah kiye donon haath mein haath Dale chalte rahe. ve gaDiyon ke malbe ke paas aakar khaDe ho ge, aapas mein kuch batiyate hue donon apne kapDe utarne lage. ve bilkul nange ho ge.
aurat gaDi ke bahar paDe mrit vyakti ki laash par sir rakhkar let gai. purush bhi uski bagal mein let gaya. donon gutthamguttha ho ge. is beech us chor ka nachna, majme ka tali bajana aur barish ki jhamajham, sab chalte rahe.
—‘yah to bhayanak hai. ’ pahla bola.
—‘agar ye philm ka seen hai to bhi bhayanak hai. agar sachmuch ka seen hai to pagalpan hi kaha ja sakta hai. ’ dusra bola.
—‘aur wo pulis vala udhar sigret sulga raha hai. ’
achanak lagbhag khali si paDi us saDak par naya kuch dhaDakne laga. dakshin disha se uunton ka ek karvan aa raha tha. ve apna kheme nachte chor ke us majme se kuch hi door gaDne lage.
uttar disha se ek bas yuropiy sailaniyon ko lekar aa gai. wo us nachte chor ke majme se kuch pichhe ki or ruk gai. bas mein savar log idhar udhar phail ge. ve us premalingan, chor ke naach, maut aur barish se bekhbar hi dikh rahe the.
phir pata nahin kahan se bahut sare raaj majdur aa ge. pichhe se trkon mein bharkar patthar, siment aadi aane lage. aanan phanan mein un mazduron ne vahan baDa hi sundar ek makabra bana diya. uske bagal mein ek uncha sinhasan lagakar, use phulon se sajane lage—barish ho hi rahi thi.
—‘aisa lag raha hai manon hum sapna dekh rahe hon. ’ pahle ne kaha.
—‘ek duhasvapn, ab yahan se nikal lena chahiye. ’ dusre ne kaha.
—’nahin! intzaar karte hain. ‘
—‘kis baat ka?’
—‘sukhad ant ka. ’
—‘ya proDyusar se bol do, wo tabah ho jayega. ’
is beech karvan savaron aur yuropiyon mein laDai hone lagi. baki log nachne gane lage. us makabre ke ird gird kai joDe aaye aur gutthamguttha ho ge. ekdam nagn. chor aur zor zor se nachne laga. achanak sab kuch apne charam par a gaya. hatya aur nritya, sambhog aur mrityu, bijli aur varsha.
ek lamba tagDa adami haath mein durabin liye prakat hua. wo bheeD se bachta bachata saDak ko charon or se durabin se dekh dekhkar kahne laga bura nahin hai. . . bura nahin hai. ’
bheeD bhar ki nigahen us or ja lagin.
—‘kya yahi hai?’ pahle ne jaise parashn puchha hi.
—‘haan, yahi nirdeshak hai. ’ dusre ne jaise javab diya.
wo bina kisi ko dekhe saDak ki or dekhkar budbuda raha tha—‘isi tarah lage raho, nahin to har cheez shuruat se shuru kar dunga. ’
pahle ne aage baDhkar sahas karte hue puchha—‘to aap hi nirdeshak hain?’
wo bina koi javab diye apne kaam mein laga raha. itne mein dhaD se kata ek sir luDhakta hua bas staup ki or aaya. wo uski or dekhkar budbudane laga—‘bahut achchha, bahut achchha. ’
‘lekin ye sachmuch ka sir hai aur sachmuch khoon bah raha hai. ’ dusra adami us par chillaya.
us adami ne us par koi dhyaan nahin diya. durabin se usne gutthamguttha joDon ko dekha aur jaise adesh diya—‘asan badal lo, nahin to uubau lagne lagega. ’
—‘dekhiye, ye sachmuch ka sir hai aur aapko batana paDega ki ye sab kya ho raha hai?’ —kahte hue donon uski or baDhe.
achanak wo durabin vala adami aise pichhe muDa, jaise wo apne aapko unke pichhe chhupa lena chahta ho. achanak wo buDha aur bimar dikhne laga. achanak wo adami us tez barish mein teji se bhaga, pata nahin kahan se uske pichhe kuch log bhagne lage.
phir drishya se sab ghayab ho ge. hatya, sambhog, nritya aur barish rah ge.
—‘chalo, kam se kam wo nirdeshak to nahin tha. ’ pahla bola.
—‘phir, ye tha kaun?’
—‘shayad chor. ’
—‘shayad lutera. ’
—‘ya shayad wo aur uska pichha karne vale sinema ke seen ka hi hissa rahe hon. ’
—‘ye sari sachmuch ki ghatnayen hain aur inka kisi philm ke drishya se kuch lena dena nahin hai. ’
—‘is sabka to yahi tark bachta hai. ’
—‘hamen yahan se har haal mein bhaag lena chahiye. ’
—‘kahin hamein kisi jaanch dal ke samne gavahi na deni paDe. ’
—‘kuchh ummid ki ja sakti hai. ’
kahne vala adami pulis ki or baDha aur chillaya—‘sarjent!’
us sipahi ne khinnata se barish ki or dekha, apna ovarkot chaDhaya aur uski or yani sheD ki or baDha. usne donon ko sakhti se ghurte hue puchha—‘kya baat hai?”
bina ankhen hataye wo bola—‘is bas staup ka ek ek adami bas mein chaDhkar ja chuka hai. tum yahan kyon khaDe ho?’
‘vah dekhiye, adami ka sir!’ —pahla adami bola.
—‘apne apne pahchan patr dikhao. ’
pahchan patron ke nirikshan ke baad wo kroor hansi hanste hue bola, ‘apke yahan jama hone ka maksad kya tha? yahan kyon jute the aap sab?’
unhonne ek dusre ko dekha aur masumiyat se bole—‘hammen se koi pahle se ek dusre ko nahin janta tha. ’
‘tumhara ye jhooth chalne vala nahin hai. ’
wo sipahi do qadam pichhe hata. banduq se nishana sadhkar usne ghoDa daba diya. nishana achuk tha. donon ek ke baad ek kate peD ki tarah gir ge. unke sharir to bas staup ke sheD ke niche the aur sir bahar paidal chalne vali patri par barish mein bheeg rahe the.
badal ghir aaye aur itne gahra ge manon raat ho aai ho. halki halki bunden paDne lagin. saDak ki dhool thanDi havaon ne jhaaD di thi, bas uski umas bhari gandh rah gai thi. rahgir tez tez bhage ja rahe the. kuch log bas staup ki sheD ke niche simat aaye the. ye sadharan sa drishya thahra thahra hi rah gaya hota, agar baghal ki gali se ek adami nikalkar paglon ki tarah dauDta samne vali gali mein na chala gaya hota. uske pichhe pichhe logon ka hujum tha. ve chilla rahe the—’chor chor, pakDo pakDo!’ shor kam hote hote achanak band ho gaya.
bundabandi ruki nahin. saDak taqriban sunsan thi, bas kuch log bas staup ke sheD ke niche khaDe the. kuch bas ka intzaar kar rahe the, kuch bheeg jane ke Dar se bundabandi rukne ke intzaar mein khaDe the.
dauDa dauDi ki avazen phir aane lagin. ve nazdik aate ja rahe the, unki avazen tez ho rahi theen. samne dikhne laga tha ki kuch logon ne chor ko pakaD rakha tha. asapas khaDe naujavan zor zor se cheekh rahe the chilla rahe the. raste mein usne bhagne ki koshish bhi ki, lekin unhonne pakaD liya aur laat juton se uski khabar lene lage. is zabardast pitai ke beech wo hava mein haath paanv bhaanj raha tha.
vahan bas staup ke sheD mein khaDe logon ki nigahen usi laDai par tiki theen.
—’haay! kitni buri tarah maar rahe hain use. ’
—‘chori se baDa apradh to yen kar rahe hain. ’
—‘dekho, vahan us bilDing ke bahar pulis vala bhi khaDa dekh raha hai. ’
—‘lekin usne to apna munh dusri or ghuma liya. ’
barish tez hoti ja rahi thi aur ab chandi ke taron ki tarah latakti dikhne lagi thi. baki saDak eqdam sunsan thi, sivaye un laDne valon ke. . .
sivaye bas staup ke sheD mein khaDe logon ke. . .
chor ko peet patkar ve sab use vahan ghere khaDe the, kanphaD avaz mein pata nahin kya cheekh chilla rahe the. barish se bekhbar ve log pata nahin kis bahs mein uljhe hue the, koi nahin samajh sakta tha. unke kapDe badan se chipak rahe the, lekin ve bahs mein uljhe hue the. barish par unka koi khaas dhyaan nahin tha. chor ki harakton se lag raha tha ki wo apne aapko bachane ki koshish kar raha tha, lekin kisi ko us par vishvas nahin ho raha tha. wo aise haath hila raha tha ki bhashan de raha ho. lekin ek to wo itni door tha aur dusre barish ki avaz, kuch bhi sunai nahin paD raha tha. ismen koi sandeh nahin ki wo bhashan de raha tha aur log khaDe hokar use sun rahe the. barish ho rahi thi, ve use chupchap dekh rahe the.
bas staup ke sheD mein khaDe logon ki ankhen usi par lagi theen.
—‘vaise ye samajh mein nahin aa raha ki pulis vala kuch kar kyon nahin raha hai?’ pahle vale adami ne phir puchha, manon apne aapse.
—‘vahi to, usi se to mujhe lag raha hai ki ye kisi philm ka seen hai. shuting chal rahi lagti hai. ’ dusra adami bola.
—‘lekin pitai to sachmuch hi hoti lag rahi hai. ’
—‘lekin is barish mein chalti ye bahs, ye bhashanbazi. isko kya kahenge aap?’
achanak koi harkat hui. chaurahe ki or se do karen tufani gati se aati dikhin. aisa lag raha tha ki ek gaDi dusri ka pichha kar rahi ho, jo kafi khatarnak dikh rahi thi. aage vali gaDi bhishan raftar mein bhagi ja rahi thi, dusri usko chhune chhune ko thi.
achanak samne vali gaDi ke Draivar ne itna tez break lagaya ki door tak saDak par wo gaDi phisalti chali gai. is beech dusri gaDi ne usmen tezi se thokar maar di. itni zor se ki uski avaz se phiza goonj uthi. donon hi gaDiyan palat gain aur zor ka dhamaka hua. donon hi gaDiyon mein aag lag gai. rimjhim barish ki phiza cheekh pukaron se goonj uthi.
lekin durghatna sthal ki or koi nahin baDha. chor ka bhashan nahin ruka, nahin asapas se koi kuch mitar hi door paDe donon gaDiyon ke malbe ki or baDha, jinmen kuch hi der pahle aag lagi thi.
un logon ne us par vaise hi koi dhyaan nahin diya, jaise barish par unka koi dhyaan nahin tha. bas staup ke us sheD ke niche khaDe ek adami ki nazar khoon mein lathpath ek adami par paDi. wo durghatna ke shikaron mein ek tha, jisne gaDi ke niche se rengkar nikalne ki koshish ki aur munh ke bal bharabhrakar gir paDa.
—‘lekin pulis vala to hilna hi nahin chahta. ’ dusra bola.
—‘asapas koi teliphon ho shayad. ’
lekin vahan se koi hila nahin, barish ka bhay sabko tha. barish kafi tez thi, beech beech mein bijli ki kaDak bhay paida karti thi.
chor ka bhashan lagta tha pura ho chuka tha, wo sunne valon ke muqable adhik nishchit dikh raha tha. achanak wo apne kapDe zamin se uthane laga. us samay tak wo nanga hi khaDa tha. usne apne kapDe un gaDiyon ke malbe par phenk diye, barsat ki jhaDi ne jinki aag ko thanDa kar diya tha. wo idhar se udhar aise tahalne laga tha, manon apne nang dhaDang badan ka pradarshan kar raha ho.
wo do qadam aage baDha, phir vapas. phir baDe hi mohak Dhang se nachne laga. is beech use khadeDne vale log taliyan peet rahe the. charon or se naujvanon ne ghera bana rakha tha.
bas staup ke sheD ke niche khaDe log saans thame ye nazara dekh rahe the.
—‘agar ye kisi philm ka seen nahin hai to pagalpan hi hai. ’ pahla bola.
—‘mujhe ismen koi shak nahin ki ye kisi philm ki shuting hi hai aur wo pulis vala bhi kalakaron mein ek hai aur isiliye vahan khaDa apni bari ka intzaar kar raha hai. ’ dusre ne apni baat joDi.
—‘aur wo kaar hadasa?’
—‘kya pata koi speshal ifekt ho? kya pata samne kisi khiDki se sinema ka nirdeshak hi jhankta mil jaye. ’
us sheD ke samne ek khiDki khuli dikhai de rahi thi, vahan se koi avaz aa rahi thi, jisne sabka dhyaan khincha. ek taraf taliyon ki thapak, uupar se barish ki jhamak lekin phir bhi udhar sabka dhyaan chala gaya. ek bana thana adami khiDki se dikhne laga. khiDki par aakar usne ek khaas tarah se siti bajai. thoDi der baad bilDing ki ek aur khiDki khuli aur vahan ek aurat prakat hui. wo bhi khasi bani sanvari thi. siti ka javab usne sir hilakar hami bharte hue diya. ve donon hi apni apni khiDakiyon se ojhal ho ge. kuch der baad donon hi bilDing se eksaath nikalte dikhe. bina barish ki parvah kiye donon haath mein haath Dale chalte rahe. ve gaDiyon ke malbe ke paas aakar khaDe ho ge, aapas mein kuch batiyate hue donon apne kapDe utarne lage. ve bilkul nange ho ge.
aurat gaDi ke bahar paDe mrit vyakti ki laash par sir rakhkar let gai. purush bhi uski bagal mein let gaya. donon gutthamguttha ho ge. is beech us chor ka nachna, majme ka tali bajana aur barish ki jhamajham, sab chalte rahe.
—‘yah to bhayanak hai. ’ pahla bola.
—‘agar ye philm ka seen hai to bhi bhayanak hai. agar sachmuch ka seen hai to pagalpan hi kaha ja sakta hai. ’ dusra bola.
—‘aur wo pulis vala udhar sigret sulga raha hai. ’
achanak lagbhag khali si paDi us saDak par naya kuch dhaDakne laga. dakshin disha se uunton ka ek karvan aa raha tha. ve apna kheme nachte chor ke us majme se kuch hi door gaDne lage.
uttar disha se ek bas yuropiy sailaniyon ko lekar aa gai. wo us nachte chor ke majme se kuch pichhe ki or ruk gai. bas mein savar log idhar udhar phail ge. ve us premalingan, chor ke naach, maut aur barish se bekhbar hi dikh rahe the.
phir pata nahin kahan se bahut sare raaj majdur aa ge. pichhe se trkon mein bharkar patthar, siment aadi aane lage. aanan phanan mein un mazduron ne vahan baDa hi sundar ek makabra bana diya. uske bagal mein ek uncha sinhasan lagakar, use phulon se sajane lage—barish ho hi rahi thi.
—‘aisa lag raha hai manon hum sapna dekh rahe hon. ’ pahle ne kaha.
—‘ek duhasvapn, ab yahan se nikal lena chahiye. ’ dusre ne kaha.
—’nahin! intzaar karte hain. ‘
—‘kis baat ka?’
—‘sukhad ant ka. ’
—‘ya proDyusar se bol do, wo tabah ho jayega. ’
is beech karvan savaron aur yuropiyon mein laDai hone lagi. baki log nachne gane lage. us makabre ke ird gird kai joDe aaye aur gutthamguttha ho ge. ekdam nagn. chor aur zor zor se nachne laga. achanak sab kuch apne charam par a gaya. hatya aur nritya, sambhog aur mrityu, bijli aur varsha.
ek lamba tagDa adami haath mein durabin liye prakat hua. wo bheeD se bachta bachata saDak ko charon or se durabin se dekh dekhkar kahne laga bura nahin hai. . . bura nahin hai. ’
bheeD bhar ki nigahen us or ja lagin.
—‘kya yahi hai?’ pahle ne jaise parashn puchha hi.
—‘haan, yahi nirdeshak hai. ’ dusre ne jaise javab diya.
wo bina kisi ko dekhe saDak ki or dekhkar budbuda raha tha—‘isi tarah lage raho, nahin to har cheez shuruat se shuru kar dunga. ’
pahle ne aage baDhkar sahas karte hue puchha—‘to aap hi nirdeshak hain?’
wo bina koi javab diye apne kaam mein laga raha. itne mein dhaD se kata ek sir luDhakta hua bas staup ki or aaya. wo uski or dekhkar budbudane laga—‘bahut achchha, bahut achchha. ’
‘lekin ye sachmuch ka sir hai aur sachmuch khoon bah raha hai. ’ dusra adami us par chillaya.
us adami ne us par koi dhyaan nahin diya. durabin se usne gutthamguttha joDon ko dekha aur jaise adesh diya—‘asan badal lo, nahin to uubau lagne lagega. ’
—‘dekhiye, ye sachmuch ka sir hai aur aapko batana paDega ki ye sab kya ho raha hai?’ —kahte hue donon uski or baDhe.
achanak wo durabin vala adami aise pichhe muDa, jaise wo apne aapko unke pichhe chhupa lena chahta ho. achanak wo buDha aur bimar dikhne laga. achanak wo adami us tez barish mein teji se bhaga, pata nahin kahan se uske pichhe kuch log bhagne lage.
phir drishya se sab ghayab ho ge. hatya, sambhog, nritya aur barish rah ge.
—‘chalo, kam se kam wo nirdeshak to nahin tha. ’ pahla bola.
—‘phir, ye tha kaun?’
—‘shayad chor. ’
—‘shayad lutera. ’
—‘ya shayad wo aur uska pichha karne vale sinema ke seen ka hi hissa rahe hon. ’
—‘ye sari sachmuch ki ghatnayen hain aur inka kisi philm ke drishya se kuch lena dena nahin hai. ’
—‘is sabka to yahi tark bachta hai. ’
—‘hamen yahan se har haal mein bhaag lena chahiye. ’
—‘kahin hamein kisi jaanch dal ke samne gavahi na deni paDe. ’
—‘kuchh ummid ki ja sakti hai. ’
kahne vala adami pulis ki or baDha aur chillaya—‘sarjent!’
us sipahi ne khinnata se barish ki or dekha, apna ovarkot chaDhaya aur uski or yani sheD ki or baDha. usne donon ko sakhti se ghurte hue puchha—‘kya baat hai?”
bina ankhen hataye wo bola—‘is bas staup ka ek ek adami bas mein chaDhkar ja chuka hai. tum yahan kyon khaDe ho?’
‘vah dekhiye, adami ka sir!’ —pahla adami bola.
—‘apne apne pahchan patr dikhao. ’
pahchan patron ke nirikshan ke baad wo kroor hansi hanste hue bola, ‘apke yahan jama hone ka maksad kya tha? yahan kyon jute the aap sab?’
unhonne ek dusre ko dekha aur masumiyat se bole—‘hammen se koi pahle se ek dusre ko nahin janta tha. ’
‘tumhara ye jhooth chalne vala nahin hai. ’
wo sipahi do qadam pichhe hata. banduq se nishana sadhkar usne ghoDa daba diya. nishana achuk tha. donon ek ke baad ek kate peD ki tarah gir ge. unke sharir to bas staup ke sheD ke niche the aur sir bahar paidal chalne vali patri par barish mein bheeg rahe the.
स्रोत :
पुस्तक : विश्व की श्रेष्ठ कहानियाँ (खण्ड-2) (पृष्ठ 297)
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।