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बस अड्डे पर

bas aDDe par

नजीब महफूज़

नजीब महफूज़

बस अड्डे पर

नजीब महफूज़

और अधिकनजीब महफूज़

    बादल घिर आए और इतने गहरा गए मानों रात हो आई हो। हल्की-हल्की बूँदें पड़ने लगीं। सड़क की धूल ठंडी हवाओं ने झाड़ दी थी, बस उसकी उमस भरी गंध रह गई थी। राहगीर तेज़-तेज़ भागे जा रहे थे। कुछ लोग बस-स्टॉप की शेड के नीचे सिमट आए थे। यह साधारण-सा दृश्य ठहरा-ठहरा ही रह गया होता, अगर बग़ल की गली से एक आदमी निकलकर पागलों की तरह दौड़ता सामने वाली गली में चला गया होता। उसके पीछे-पीछे लोगों का हुजूम था। वे चिल्ला रहे थे—’चोर-चोर, पकड़ो पकड़ो!’ शोर कम होते-होते अचानक बंद हो गया।

    बूंदाबाँदी रुकी नहीं। सड़क तक़रीबन सुनसान थी, बस कुछ लोग बस स्टॉप के शेड के नीचे खड़े थे। कुछ बस का इंतज़ार कर रहे थे, कुछ भीग जाने के डर से बूंदाबाँदी रुकने के इंतज़ार में खड़े थे।

    दौड़ा-दौड़ी की आवाज़ें फिर आने लगीं। वे नज़दीक आते जा रहे थे, उनकी आवाज़ें तेज़ हो रही थीं। सामने दिखने लगा था कि कुछ लोगों ने चोर को पकड़ रखा था। आसपास खड़े नौजवान ज़ोर-ज़ोर से चीख़ रहे थे चिल्ला रहे थे। रास्ते में उसने भागने की कोशिश भी की, लेकिन उन्होंने पकड़ लिया और लात-जूतों से उसकी ख़बर लेने लगे। इस ज़बरदस्त पिटाई के बीच वह हवा में हाथ-पाँव भाँज रहा था।

    वहाँ बस-स्टॉप के शेड में खड़े लोगों की निगाहें उसी लड़ाई पर टिकी थीं।

    —’हाय! कितनी बुरी तरह मार रहे हैं उसे।’

    —‘चोरी से बड़ा अपराध तो यें कर रहे हैं।’

    —‘देखो, वहाँ उस बिल्डिंग के बाहर पुलिस वाला भी खड़ा देख रहा है।’

    —‘लेकिन उसने तो अपना मुँह दूसरी ओर घुमा लिया।’

    बारिश तेज़ होती जा रही थी और अब चाँदी के तारों की तरह लटकती दिखने लगी थी। बाकी सड़क एक़दम सुनसान थी, सिवाए उन लड़ने वालों के...

    सिवाए बस-स्टॉप के शेड में खड़े लोगों के...

    चोर को पीट-पाटकर वे सब उसे वहाँ घेरे खड़े थे, कानफाड़ आवाज़ में पता नहीं क्या चीख़ चिल्ला रहे थे। बारिश से बेख़बर वे लोग पता नहीं किस बहस में उलझे हुए थे, कोई नहीं समझ सकता था। उनके कपड़े बदन से चिपक रहे थे, लेकिन वे बहस में उलझे हुए थे। बारिश पर उनका कोई ख़ास ध्यान नहीं था। चोर की हरकतों से लग रहा था कि वह अपने आपको बचाने की कोशिश कर रहा था, लेकिन किसी को उस पर विश्वास नहीं हो रहा था। वह ऐसे हाथ हिला रहा था कि भाषण दे रहा हो। लेकिन एक तो वह इतनी दूर था और दूसरे बारिश की आवाज़, कुछ भी सुनाई नहीं पड़ रहा था। इसमें कोई संदेह नहीं कि वह भाषण दे रहा था और लोग खड़े होकर उसे सुन रहे थे। बारिश हो रही थी, वे उसे चुपचाप देख रहे थे।

    बस-स्टॉप के शेड में खड़े लोगों की आँखें उसी पर लगी थीं।

    —‘वैसे यह समझ में नहीं रहा कि पुलिस वाला कुछ कर क्यों नहीं रहा है?’ पहले वाले आदमी ने फिर पूछा, मानों अपने आपसे।

    —‘वही तो, उसी से तो मुझे लग रहा है कि यह किसी फिल्म का सीन है। शूटिंग चल रही लगती है।’ दूसरा आदमी बोला।

    —‘लेकिन पिटाई तो सचमुच ही होती लग रही है।’

    —‘लेकिन इस बारिश में चलती यह बहस, यह भाषणबाज़ी। इसको क्या कहेंगे आप?’

    अचानक कोई हरकत हुई। चौराहे की ओर से दो कारें तूफ़ानी गति से आती दिखीं। ऐसा लग रहा था कि एक गाड़ी दूसरी का पीछा कर रही हो, जो काफ़ी ख़तरनाक दिख रही थी। आगे वाली गाड़ी भीषण रफ़्तार में भागी जा रही थी, दूसरी उसको छूने-छूने को थी।

    अचानक सामने वाली गाड़ी के ड्राइवर ने इतना तेज़ ब्रेक लगाया कि दूर तक सड़क पर वह गाड़ी फिसलती चली गई। इस बीच दूसरी गाड़ी ने उसमें तेज़ी से ठोकर मार दी। इतनी ज़ोर से कि उसकी आवाज़ से फिज़ा गूँज उठी। दोनों ही गाड़ियाँ पलट गईं और ज़ोर का धमाका हुआ। दोनों ही गाड़ियों में आग लग गई। रिमझिम बारिश की फिज़ा चीख़-पुकारों से गूँज उठी।

    लेकिन दुर्घटना स्थल की ओर कोई नहीं बढ़ा। चोर का भाषण नहीं रुका, नहीं आसपास से कोई कुछ मीटर ही दूर पड़े दोनों गाड़ियों के मलबे की ओर बढ़ा, जिनमें कुछ ही देर पहले आग लगी थी।

    उन लोगों ने उस पर वैसे ही कोई ध्यान नहीं दिया, जैसे बारिश पर उनका कोई ध्यान नहीं था। बस-स्टॉप के उस शेड के नीचे खड़े एक आदमी की नज़र ख़ून में लथपथ एक आदमी पर पड़ी। वह दुर्घटना के शिकारों में एक था, जिसने गाड़ी के नीचे से रेंगकर निकलने की कोशिश की और मुँह के बल भरभराकर गिर पड़ा।

    —‘बहुत बड़ी दुर्घटना हुई है, नहीं?’ पहला बोला।

    —‘लेकिन पुलिस वाला तो हिलना ही नहीं चाहता।’ दूसरा बोला।

    —‘आसपास कोई टेलिफोन हो शायद।’

    लेकिन वहाँ से कोई हिला नहीं, बारिश का भय सबको था। बारिश काफ़ी तेज़ थी, बीच-बीच में बिजली की कड़क भय पैदा करती थी।

    चोर का भाषण लगता था पूरा हो चुका था, वह सुनने वालों के मुक़ाबले अधिक निश्चित दिख रहा था। अचानक वह अपने कपड़े ज़मीन से उठाने लगा। उस समय तक वह नंगा ही खड़ा था। उसने अपने कपड़े उन गाड़ियों के मलबे पर फेंक दिए, बरसात की झड़ी ने जिनकी आग को ठंडा कर दिया था। वह इधर से उधर ऐसे टहलने लगा था, मानों अपने नंग-धड़ंग बदन का प्रदर्शन कर रहा हो।

    वह दो क़दम आगे बढ़ा, फिर वापस। फिर बड़े ही मोहक ढंग से नाचने लगा। इस बीच उसे खदेड़ने वाले लोग तालियाँ पीट रहे थे। चारों ओर से नौजवानों ने घेरा बना रखा था।

    बस-स्टॉप के शेड के नीचे खड़े लोग साँस थामे यह नज़ारा देख रहे थे।

    —‘अगर यह किसी फिल्म का सीन नहीं है तो पागलपन ही है।’ पहला बोला।

    —‘मुझे इसमें कोई शक नहीं कि यह किसी फिल्म की शूटिंग ही है और वह पुलिस वाला भी कलाकारों में एक है और इसीलिए वहाँ खड़ा अपनी बारी का इंतज़ार कर रहा है।’ दूसरे ने अपनी बात जोड़ी।

    —‘और वह कार हादसा?’

    —‘क्या पता कोई स्पेशल इफ़ेक्ट हो? क्या पता सामने किसी खिड़की से सिनेमा का निर्देशक ही झाँकता मिल जाए।’

    उस शेड के सामने एक खिड़की खुली दिखाई दे रही थी, वहाँ से कोई आवाज़ रही थी, जिसने सबका ध्यान खींचा। एक तरफ़ तालियों की थपक, ऊपर से बारिश की झमक लेकिन फिर भी उधर सबका ध्यान चला गया। एक बना-ठना आदमी खिड़की से दिखने लगा। खिड़की पर आकर उसने एक ख़ास तरह से सीटी बजाई। थोड़ी देर बाद बिल्डिंग की एक और खिड़की खुली और वहाँ एक औरत प्रकट हुई। वह भी ख़ासी बनी-सँवरी थी। सीटी का जवाब उसने सिर हिलाकर हामी भरते हुए दिया। वे दोनों ही अपनी-अपनी खिड़कियों से ओझल हो गए। कुछ देर बाद दोनों ही बिल्डिंग से एकसाथ निकलते दिखे। बिना बारिश की परवाह किए दोनों हाथ में हाथ डाले चलते रहे। वे गाड़ियों के मलबे के पास आकर खड़े हो गए, आपस में कुछ बतियाते हुए दोनों अपने कपड़े उतारने लगे। वे बिल्कुल नंगे हो गए।

    औरत गाड़ी के बाहर पड़े मृत व्यक्ति की लाश पर सिर रखकर लेट गई। पुरुष भी उसकी बगल में लेट गया। दोनों गुत्थमगुत्था हो गए। इस बीच उस चोर का नाचना, मजमे का ताली बजाना और बारिश की झमाझम, सब चलते रहे।

    —‘यह तो भयानक है।’ पहला बोला।

    —‘अगर यह फिल्म का सीन है तो भी भयानक है। अगर सचमुच का सीन है तो पागलपन ही कहा जा सकता है।’ दूसरा बोला।

    —‘और वह पुलिस वाला उधर सिगरेट सुलगा रहा है।’

    अचानक लगभग ख़ाली-सी पड़ी उस सड़क पर नया कुछ धड़कने लगा। दक्षिण दिशा से ऊँटों का एक कारवाँ रहा था। वे अपना खेमे नाचते चोर के उस मजमे से कुछ ही दूर गाड़ने लगे।

    उत्तर दिशा से एक बस यूरोपीय सैलानियों को लेकर गई। वह उस नाचते चोर के मजमे से कुछ पीछे की ओर रुक गई। बस में सवार लोग इधर-उधर फैल गए। वे उस प्रेमालिंगन, चोर के नाच, मौत और बारिश से बेख़बर ही दिख रहे थे।

    फिर पता नहीं कहाँ से बहुत सारे राज मजदूर गए। पीछे से ट्रकों में भरकर पत्थर, सीमेंट आदि आने लगे। आनन-फानन में उन मज़दूरों ने वहाँ बड़ा ही सुंदर एक मकबरा बना दिया। उसके बगल में एक ऊँचा सिंहासन लगाकर, उसे फूलों से सजाने लगे—बारिश हो ही रही थी।

    —‘ऐसा लग रहा है मानों हम सपना देख रहे हों।’ पहले ने कहा।

    —‘एक दु:स्वप्न, अब यहाँ से निकल लेना चाहिए।’ दूसरे ने कहा।

    —’नहीं! इंतज़ार करते हैं।

    —‘किस बात का?’

    —‘सुखद अंत का।’

    —‘या प्रोड्यूसर से बोल दो, वह तबाह हो जाएगा।’

    इस बीच कारवाँ सवारों और यूरोपियों में लड़ाई होने लगी। बाकी लोग नाचने-गाने लगे। उस मकबरे के इर्द-गिर्द कई जोड़े आए और गुत्थमगुत्था हो गए। एकदम नग्न। चोर और ज़ोर ज़ोर से नाचने लगा। अचानक सब कुछ अपने चरम पर गया। हत्या और नृत्य, संभोग और मृत्यु, बिजली और वर्षा।

    एक लंबा-तगड़ा आदमी हाथ में दूरबीन लिए प्रकट हुआ। वह भीड़ से बचता-बचाता सड़क को चारों ओर से दूरबीन से देख-देखकर कहने लगा-बुरा नहीं है...बुरा नहीं है।’

    भीड़ भर की निगाहें उस ओर जा लगीं।

    —‘क्या यही है?’ पहले ने जैसे प्रश्न पूछा ही।

    —‘हाँ, यही निर्देशक है।’ दूसरे ने जैसे जवाब दिया।

    वह बिना किसी को देखे सड़क की ओर देखकर बुदबुदा रहा था—‘इसी तरह लगे रहो, नहीं तो हर चीज़ शुरुआत से शुरू कर दूँगा।’

    पहले ने आगे बढ़कर साहस करते हुए पूछा—‘तो आप ही निर्देशक हैं?’

    वह बिना कोई जवाब दिए अपने काम में लगा रहा। इतने में धड़ से कटा एक सिर लुढ़कता हुआ बस स्टॉप की ओर आया। वह उसकी ओर देखकर बुदबुदाने लगा—‘बहुत अच्छा, बहुत अच्छा।’

    ‘लेकिन यह सचमुच का सिर है और सचमुच ख़ून बह रहा है।’ दूसरा आदमी उस पर चिल्लाया।

    उस आदमी ने उस पर कोई ध्यान नहीं दिया। दूरबीन से उसने गुत्थमगुत्था जोडों को देखा और जैसे आदेश दिया—‘आसन बदल लो, नहीं तो ऊबाऊ लगने लगेगा।’

    —‘देखिए, यह सचमुच का सिर है और आपको बताना पड़ेगा कि यह सब क्या हो रहा है?’ —कहते हुए दोनों उसकी ओर बढ़े।

    अचानक वह दूरबीन वाला आदमी ऐसे पीछे मुड़ा, जैसे वह अपने आपको उनके पीछे छुपा लेना चाहता हो। अचानक वह बूढ़ा और बीमार दिखने लगा। अचानक वह आदमी उस तेज़ बारिश में तेजी से भागा, पता नहीं कहाँ से उसके पीछे कुछ लोग भागने लगे।

    फिर दृश्य से सब ग़ायब हो गए। हत्या, संभोग, नृत्य और बारिश रह गए।

    —‘चलो, कम से कम वह निर्देशक तो नहीं था।’ पहला बोला।

    —‘फिर, यह था कौन?’

    —‘शायद चोर।’

    —‘शायद लुटेरा।’

    —‘या शायद वह और उसका पीछा करने वाले सिनेमा के सीन का ही हिस्सा रहे हों।’

    —‘ये सारी सचमुच की घटनाएँ हैं और इनका किसी फिल्म के दृश्य से कुछ लेना-देना नहीं है।’

    —‘इस सबका तो यही तर्क बचता है।’

    —‘हमें यहाँ से हर हाल में भाग लेना चाहिए।’

    —‘कहीं हमें किसी जाँच दल के सामने गवाही देनी पड़े।’

    —‘कुछ उम्मीद की जा सकती है।’

    कहने वाला आदमी पुलिस की ओर बढ़ा और चिल्लाया—‘सार्जेंट!’

    उस सिपाही ने खिन्नता से बारिश की ओर देखा, अपना ओवरकोट चढ़ाया और उसकी ओर यानी शेड की ओर बढ़ा। उसने दोनों को सख्ती से घूरते हुए पूछा—‘क्या बात है?”

    बिना आँखें हटाए वह बोला—‘इस बस स्टॉप का एक-एक आदमी बस में चढ़कर जा चुका है। तुम यहाँ क्यों खड़े हो?’

    ‘वह देखिए, आदमी का सिर!’ —पहला आदमी बोला।

    —‘अपने-अपने पहचान-पत्र दिखाओ।’

    पहचान-पत्रों के निरीक्षण के बाद वह क्रूर हँसी हँसते हुए बोला, ‘आपके यहाँ जमा होने का मकसद क्या था? यहाँ क्यों जुटे थे आप सब?’

    उन्होंने एक-दूसरे को देखा और मासूमियत से बोले—‘हममें से कोई पहले से एक-दूसरे को नहीं जानता था।’

    ‘तुम्हारा यह झूठ चलने वाला नहीं है।’

    वह सिपाही दो क़दम पीछे हटा। बंदूक़ से निशाना साधकर उसने घोड़ा दबा दिया। निशाना अचूक था। दोनों एक के बाद एक कटे पेड़ की तरह गिर गए। उनके शरीर तो बस स्टॉप के शेड के नीचे थे और सिर बाहर पैदल चलने वाली पटरी पर बारिश में भीग रहे थे।

    स्रोत :
    • पुस्तक : विश्व की श्रेष्ठ कहानियाँ (खण्ड-2) (पृष्ठ 297)
    • संपादक : ममता कालिया
    • रचनाकार : नजीब महफूज़
    • प्रकाशन : लोकभारती प्रकाशन
    • संस्करण : 2005
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