रात के ख़ौफ़नाक अँधेरे को चीरते हुए मेरी ट्रेन भागती जा रही है। एक अँधेरी सुरंग है कि मेरे समूचे अस्तित्व को निगलती जा रही है। यूँ मैंने सारी खिड़कियाँ बंद कर ली हैं, फिर भी एक शोर है कि जिस्म के पुर्ज़े-पुर्ज़े धमक रहे हैं, यादों का एक क़ाफ़िला है कि मेरे मरु-मन का ज़र्रा-ज़र्रा कुनमुनाकर ताकने लगता है।
ज़ेहन में धीरे-धीरे आकार ले रही है एक हवेली...क़स्बे में व्यवस्था और सत्ता की प्रतीक मेरी हवेली—‘कंचनजंघा’। धीरे-धीरे कई चेहरे उभर रहे हैं, प्रभुसत्ता रोबीले सेशन जज-पापा, एस.पी.—बड़े भैया, ज़िलाधीश—छोटे भैया, गृह विभाग के सचिव—जीजा, उनके प्रभाव का एहसास कराती हुई गवीली बहन, सबके अपने-अपने पोस्टेड ज़िलों में चले जाने पर उदास राजमाता की तरह मम्मी, न जाने कितने मंत्रियों, अफ़सरों और ऊँचे ओहदे वालों के गड्डमड्ड चेहरे! एक अजीब-सा खिंचाव, एक अजीब-सा ख़ौफ़ समाया रहता है यहाँ के लोगों में कंचनजंघा के प्रति। मैंने बचपन से ही इस खिंचाव का अनुभव किया है। कपड़े की बॉल और पीढ़े का बल्ला बनाकर खेले जा रहे क्रिकेट या काँच की गोलियों जैसे खेल, गवर्नेस, ख़ानसामा, दाइयाँ, ट्यूटर्स, सेंट-विसेंट और सेंट पैट्रिक्स स्कूलों में पलते मेरे वजूद को देखकर थम जाते और वे मुझे टुकुर-टुकुर ताकने लगते। ऐसा लगता, मुझे मेरी इच्छा के विरुद्ध कुछ इतर, कुछ विशिष्ट बनाने का षड्यंत्र चल रहा है और एक अस्वीकार समाता रहा अवचेतन में। पापा कहते, “जाने किस धातु का बना है!” पूरे परिवार में ‘सिद्धार्थ’ की उपाधि से मैं आभूषित था।
“ख़ैर, एक लड़का ऐसा ही सही!” और माँ सबकी चिंताओं पर स्टॉप लगा दिया करतीं।
प्रेसिडेंसी कॉलेज में दाख़िले के बाद पहली बार परिवार की तमाम बंदिशों से मिली आज़ादी, जगह-जगह दीवारों पर लिखे—पॉलिटिकल पावर फ्लोज़ फ़्रॉम द बरेल ऑफ़ द गन!... नक्सलबाड़ीर पोथ आमादेर पोथ!...जैसे नारे। माओ की लाल किताब, कॉलेज स्ट्रीट के फुटपाथों तथा कॉलेज स्क्वायर पार्क के ‘गोलदीघी’ के होने वाले हेतमपुर, विद्यासागर, यादवपुर, शिवपुर इंजीनियरिंग कॉलेज के छात्रों के बीच के घुमंतू चर्चे!...ऐसे गर्म-परिवेश में पकने लगा था मेरा झिझक-भरा शाँत व्यक्तित्व। कुछ ही दिनों में मन के अवचेतन में दबा अस्वीकार सर उठाने लगा। क्लास तो हम नाममात्र को करते। हाँ, इस बीच बहुत-सा बाहरी साहित्य पढ़ने को मिला। मार्क्स, ऐंगेल्स, हेगेल, लेनिन और माओ पर विस्तृत चर्चाओं में शामिल होने का मौक़ा मिला और बुर्जुआ, पेटी बुर्जुआ, रिवीजनिस्ट, प्रतिक्रियावादी, होमोसेपियंस, लाल सलाम आदि नए-नए शब्द आ जुड़े मेरे शब्दकोश में और इन्हीं के साथ-साथ परिचय के फैलते दायरे में आ जुड़ा सचिन-संघमित्रा का परिवार, जहाँ अकसर ही मेरी शामें गुज़रने लगीं। उनके पिता ‘कल्याणी सेनिटोरियम’ में क्षय का उपचार करा रहे थे और उनकी अनुपस्थिति हमारे लिए वरदान साबित हो रही थी। कभी-कभी हमारे वाद-विवाद अतिरेक में इतने तीव्र हो उठते कि बग़ल के कक्ष में पढ़ती हुई संघमित्रा ग़ुस्से से उफनती हुई, भड़भड़ाकर किवाड़ खोलकर, धम-धम पाँव पटकती हुई हमारे बीच आ खड़ी होती, “आई से स्टॉप दिस नॉनसेंस! अपने कैरियर के साथ-साथ मेरा कैरियर भी ले डूबेगा। बुलबुल!” सचिन को वह उसके बुलाने वाले नाम ‘बुलबुल’ से ही बुलाया करती थी।...और हम सन्नाटा खींच लिया करते। वार्तालाप की चिंदियाँ बिखर जातीं।
वह मेडिकल की ओर मेधावी छात्र थी, सचिन से एक साल बड़ी होने का लाभ उठाकर गार्जियन की तरह डाँटा करती। इम्तिहान वग़ैरा के चक्कर न होते तो वह दरवाज़े पर खड़ी-खड़ी हमारी बातें सुनती और मूड में आने पर हमारी पूरी बटालियन पर अकेले ही तिलमिला देने वाला सधा वार करती, ‘जो अपना कैरियर नहीं बना सका, वह सोसाइटी और देश का क्या बनाएगा?’
“चुप कोर! प्रोतिभा थाकले जे कोने जाएगा थेके स्कोप कोरे नेवा जाए आर ना थाकले...”
“थाक! थाक!”
और दोनों भाई-बहन मुँह फुला लिया करते।
उन दिनों संघमित्रा को मैं कनखियों से देख लिया करता और यदा-कदा वह इसे मार्क कर लिया करती। मगर किसी बे-तकल्लुफ़ी के अभाव में उसका अस्तित्व मेरे मन में अँखुआ नहीं पाया था। आख़िर वह झिझक भी टूट गई ‘दीघा’ की पिकनिक पर। वहाँ पहली बार मैं उसके व्यक्तित्व के सौंदर्य के घटक पर अभिभूत हुआ।
मैं पानी के अंदर जाने से डर रहा था और वह ताने दे बैठी थी, ‘यह हिम्मत है और चले हो बग़ावत करने!’ मैंने बताया, ‘मेरी मम्मी को किसी साधु ने बताया था कि मेरी मौत पानी में होगी। इसीलिए वहाँ पास ही गंगा और यहाँ गोलदीघी के पास रहकर भी तैरना सीख नहीं सका आज तक।’ वह हँसते-हँसते गिर पड़ी थी मेरे बदन पर, “...ओह!...ओह!!...डोंट माइंड!” फिर सचिन को इशारा करते हुए बोली, “एई जे तुमार ‘जोद्धारा’ ...की बोलो तोमारा...लाल सिपाई!” सचिन अपनी शिकस्त से उबरने के लिए बोला, “दीदी कितनी बड़ी ‘जोद्धा’ है...जानते हो? पहली बार लैब में मुर्दे की चीर-फाड़ देखकर बेहोश हो गई थी।”—‘सच!’ मैंने चिढ़ाया तो वह छिछले पानी में मुझे ढकेलती हुई मारने दौड़ पड़ी।
“सत्ता पा जाने पर तुम भी वैसे ही ढल जाओगे...जे जाय लोंका, सेइ होय रावोन!” आँचल निचोड़ते हुए वह कहने लगी, “देखती हूँ, बड़े आए हो ख़ूनी क्रांति करने वाले, समाज और व्यवस्था बदलने वाले, डिस्पैरिटी मिटाने वाले! अरे, मैं कहती हूँ, चूल्हे में डालो मार्क्स, लेनिन, माओ, चाओ को! आदमी अपनी प्रवृत्ति से ही हिंसक होता है, अपराधवृत्ति ख़त्म करनी है तो जींस बदल डालो...जींस!”
पूजा की छुट्टियों में घर आया तो पापा सारा-कुछ सूँघ बैठे थे। आते वक़्त उन्होंने साफ़तौर पर मुझे बता दिया कि पढ़ना है तो ढंग से पढ़ो, वरना छोड़कर चले आओ। मम्मी ने तो मुझसे आश्वासन ही ले लिया कि मैं अपने पाँव डगमगाने नहीं दूँगा। लेकिन कलकत्ता आने पर ‘फिर बेताल डाल पर’ वाली बात हो जाया करती। मैं न भी जाता तो संघमित्रा मुझे हॉस्टल में ही बुलाने चली आती। मैं जब कहता, “विरोक्तो कोरो न रानी!” (उसका पुकारने का नाम रानी था) तो वह ठिठोली कर बैठती, “एसो आमार राजकुमार, एसो ना!” और मेरी मोर्चाबंदी भरभराकर गिर जाती।
मेरे साहित्यिक रुझान पर दोनों ही कुढ़ा करते। सचिन बिगड़कर बोलता, ‘भावुकता, चेतना का अपव्यय है, डिस्ट्रैक्शन है। ये लफ़्फ़ाज़, कामचोर, माटी के शेर, क्रांति का साहित्य लिखने वाले इन लोगों को फ़ील्ड में ले जाया जाए तो पेशाब कर दें। इन सबों को खेतों और फ़ैक्टरियों में लगा देना चाहिए!’ फिर वह वियतनाम, कंबोडिया, लाओस, कोरिया, चिली, क्यूबा, रूस, चीन आदि की बातें ले बैठता। संघमित्रा तो अकसर इससे भी बुरी खिंचाई पर उतर आती, “तुम्हारे जैसे नाइंटी परसेंट साहित्यकार घोर कामी, सुविधावादी और भ्रष्ट होते हैं। तुम तो विभीषण हो इस दल में...बन सकोगे मुकुंद दास...छेड़े दाउ बोंगो नारी, आर पोड़ो ना रेशमी चूड़ी...यू आर ए पेटी बुर्जुआ!”
“देखते जाओ...मेरा पहला वार होगा मेरी हवेली पर...!” मैं कॉलर हिला दिया करता और इस पर दोनों हँस पड़ते।
धीरे-धीरे सचिन की गतिविधियाँ बढ़ती गईं। इस बीच ‘ख़त्म करो’ अभियान भी चल निकला। दो-एक बार वह मुझे भी उत्तरी बंगाल के ग़रीब किसानों के बीच व्यवस्था से मोहभंग कराने के उद्देश्य से ले गया। हड्डियों पर मढ़े हुए चाम। धँसी पनीली आँखें, मैले-चिथड़े, शोषण की जड़ तक देखती हुई मेरी दृष्टि पारदर्शी हो उठी। अगर मैं नक्सल नहीं हुआ तो संघमित्रा की वजह से, जो वहाँ से लौटने पर मेरी नज़र उतारने के लिए नेशनल म्यूज़ियम, ट्रॉपिकल मेडिसिन, ऑल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ़ फ़िज़िकल हाइजिन एण्ड मेडिकल साइंसेज़ या और नहीं तो गंगा के किनारे पड़े बैंचों पर बैठाकर मुझे जीवों और सभ्यता का विकास समझाया करती। बातों ही बातों में उसने एक दिन बताया था कि वह सचमुच खोज करना चाहती है जींस पर और एक उत्साही निरपेक्ष अध्यापक की तरह बिना लज्जा के जेनेटिक्स और मनुष्य के अंग-प्रत्यंग की बहुत-सारी बातें बता डाली थीं।
सचिन ने बाद में क्लासें करना छोड़ ही दिया था। मैंने संघमित्रा से शिकायत की तो उसके आते ही वह फ़ट पड़ी, ‘क्यों रुलाते हो बुलबुल! जानते हो, बाबा टी.बी. के पेशेंट हैं, मैं उन्हें यह सब बता नहीं सकती। इसीलिए न...!’ लेकिन सचिन को न रानी के आँसू रोक पाए, न परिवार की ज़िम्मेदारी। थ्योरेटिकल परीक्षाओं में भी वह अनुपस्थित रहा तो आख़िरी पर्चा देते ही पता करने उनके घर जा पहुँचा। शाम की मरकरी नियोन की शोख़ बत्तियाँ जल उठी थीं सड़कों पर। मगर उस मकान में मात्र धुँधली रौशनी मातम-सी बरस रही थी।
“दीदी तोमाके जेतेड़ होबे!” सचिन रानी से अनुनय कर रहा था, “और हात-टा एक बारेकई उड़े गेछ। होय तो ब्लीडिंग होएई मारा जाबे।”
“आर काउ के पाओ नी?” रानी बोली।
“काउ के नीये गेले सोबी फास होये जाबे जे...”
फिर मेरे कंधे पर हाथ रखकर, ‘वेट टिल आई रिटर्न!’ कहकर रानी जो गई तो आज तक इंतिज़ार कराती रही।
बाद के चंद साल संक्रमण के साल रहे। टेररिस्ट सचिन पर तरह-तरह के मुक़दमों के फंदे लटक गए थे और संघमित्रा का नाम पार्टी के प्रवर संगठनकर्ताओं में गिना जाने लगा था। उसके विषय में तरह-तरह के मिथ प्रचलित हो चले थे...कि ख़ून करने में उसे कैसी ख़ुशी होती है!...अब फलाँ-फलाँ पूँजीपति, राजनेता, अफ़सर और पार्टी के विश्वासघातक उसकी सूची में है!...फलाँ-फलाँ घूसख़ोर अफ़सर और ऊँची फ़ीस लेने वाले डॉक्टर और वकील को तो धमकी का ख़त भी आ चुका है!...एक मुर्दे को चीरते देखकर बेहोश हो जाने वाली संघमित्रा कहाँ से कहाँ पहुँच गई थी!
मेरी स्थिति कुछ विचित्र थी। पापा ने ज़बरदस्ती ‘प्रेसिडेंसी’ छुड़वा दिया था। साइंस छोड़कर, आर्ट्स लेकर सोशोलॉजी में मैं एम.ए. कर चुका था और कई तरह के संकर संस्कार मुझे आधा तीतर, आधा बटेर बनाकर छोड़ गए थे। घर की समृद्ध परंपरा छोड़कर मैं यूनियन लीडरी, समाज-सेवा और प्राध्यापकी-तीनों को ही अपने प्रयोग का क्षेत्र बनाए हुए था। संघमित्रा से मिलने के लिए मैंने टाटा के जादूगोड़ा के जंगल, आंध्र के जंगल और धान के खेत, मध्य प्रदेश के बीहड़...कहाँ के चक्कर नहीं लगाए। मगर तब तक शायद वह भावनाओं, आवेगों से ऊपर उठ चुकी थी। शायद मेरी यूनियन, सोशल सर्विस और लेक्चररशिप हताशा के ज़ख़्म को ढकने के साधन-मात्र थे। माँ ने साफ़तौर पर ऐलान कर दिया था कि मुझे हर हालत में उनके पास रहना है। इतनी बड़ी हवेली अकेले भाँय-भाँय करती है और मैं हर हालत में वहाँ बना हुआ था। पिताजी कूड़े से भी काम लायक़ चीज़ें निकाल लिया करते थे। यह उनकी बणिक-बुद्धि कहूँ या विलक्षण बुद्धिमत्ता, वह हर चीज़ को कैश कराना जानते थे। अपने स्वभाव के विपरीत मुझे उन्होंने आड़े-उलटे प्रोत्साहन देना शुरू किया। उनकी कृपा से प्रारंभिक चरणों में ही सफलताएँ मिलती गईं और अब मैं कई यूनियनों का अध्यक्ष बन बैठा था। लेकिन पापा के लिए ये मात्र मील के पत्थर थे, मंज़िल नहीं। उनका इरादा था कि आगामी चुनावों में मुझे कहीं से खड़ा करवा देंगे। शायद प्रांतीय या केंद्रीय नेतृत्व के सामने की पंक्ति में आने की जो रिक्तता मेरे अक्षय-वट परिवार में रह गई थी, वह मुझसे पूरी की जानी थी। लेकिन इन सबसे उदासीन रहकर जब मुझे अपनी लेक्चररशिप और यूनियन वग़ैरा में ज़ियादा व्यस्त पाने लगे तो एक दिन ब्रेनवाश के लिए मेरे सोशोलॉजी विभाग के हेड के हाथों एक नए पर्चे के रूप में उनकी नई योजना सामने थी।
“इस पर साइन कर दो।” वो बोले।
“यह क्या है?”
“तुम्हें शोध करने की अनुमति देने के लिए दरख़्वास्त...मेरे गाइडेंस में।”
“लेकिन...!” मैं उलझन में पड़ गया।
“बिला वजह माथापच्ची कर रहे हो। विषय तुम्हारे परिवार के लोग रोज़ ही मथा करते हैं। तुम्हें बस इतना करना है कि पुरानी थीसिसें देख-सुनकर कुछ नए नोट्स जोड़कर लिख डालना है।”
“कौन-सा विषय है?” मैं उत्सुक हुआ।
“क्राइम!”
न जाने क्यों अंग्रेज़ी का यह शब्द सुनते ही बहेलिए द्वारा मिथुन-युगल क्रोंच को मारने की दर्दनाक और दहशत-भरी आवाज़ कानों में घुल उठती है...जैसे परिंदों के शोर से जंगल गूँज उठा हो और टप-टप ताज़ा रक्त टपक रहा हो।
मैंने अतिरेक में उनका हाथ पकड़ लिया, “मैं करूँगा, ज़रूर करूँगा मगर एक शर्त...थीसिसें देख-सुनकर नहीं, स्वयं स्वतंत्र सर्वेक्षण और अध्ययन करके।”
“ठीक है।” इस बार सामने बैठे पापा स्वयं बोल उठे। सामयिक रूप से मेरा ध्यान हटा पाने में सफल होकर वे राहत की नि:श्वास फेंक बैठे थे।
अपराध और अपराधी की प्रकृति और प्रकार, व्यक्तिगत और परिवेशगत संस्कार और उद्दीपनाएँ, मनोवैज्ञानिक तथा समाजशास्त्रीय विवेचन और विश्लेषण करने हेतु मैं एक थाने से दूसरे थाने की फ़ाइलों में बिखरी आँकड़ों की सांख्यिकी में भटक रहा था कि एक दिन एक थाने के बाहर सचिन के पिता राखाल बाबू ने पकड़ लिया। वे काफ़ी बदहवास लग रहे थे। उन्होंने बताया कि...अभी-अभी सचिन को पकड़कर इसी थाने में ले आया गया है। बहुत मारा है, पुलिस ने...कहते हुए आँखों से आँसू गिरने लगे उनके। मैंने दारोग़ा को अपना परिचय देते हुए इस मामले में सहानुभूति बरतने का अनुरोध किया। दारोग़ा मुझे लिए-लिए अंदर आए। सचिन को उनके कमरे में ले आया गया। उन्होंने नीचे पाँव हिलाते हुए नेतानुमा आदर्शवादिता वाले अंदाज़-ए-बयाँ में कहा, “तुम लोग कल के भविष्य हो। मुझे युवा शक्ति का इस प्रकार अपव्यय होना बिलकुल पसंद नहीं। ये बिलावजह का ख़ून-ख़राबा और अपराधकर्म छोड़कर आदर्श नागरिक क्यों नहीं बनते?”
सचिन, जिसके चेहरे पर पीटे जाने की स्पष्ट छाप थी, चुपचाप सीलिंग फ़ैन का नाचना देखता रहा। फिर नाक का ख़ून बाँहों से पोंछकर तिरस्कार-भरे स्वर में बोल पड़ा, “आपको यह बात समझ में नहीं आएगी दारोग़ाजी, आप अपने लड़के को भेज दीजिए, उसे समझा दूँगा।”
दारोग़ाजी एकबारगी अप्रतिहत हो उठे। उन्होंने थूक निगला और कंधे उचकाकर झेंप झाड़ते-से बोले, “दैन आ'म हेल्पलेस!”
वह थाना भैया के अधिकार-क्षेत्र में आता था। मैंने राखाल बाबू को यह आश्वासन देकर विदा किया कि भैया से कहकर सचिन के लिए कोई कोर-कसर उठा नहीं रखूँगा। भैया के पास पहुँचा तो उन्हें बात करने-भर की फ़ुरसत नहीं थी। कोई पार्टी चल रही थी वहाँ, किसी मंत्री के दौरे के बाद। संभवतः आमंत्रित मेहमान पुलिस विभाग के ही लोग थे। मेरा परिचय और रिसर्च का उद्देश्य जानते ही चर्चा उतर पड़ी पुलिस पर... कि विदेशों में पुलिस को कितना वेतन, अत्याधुनिक उपकरण और सुविधाएँ तथा सम्मान प्राप्त हैं।
“मगर यहाँ की तरह वहाँ के पुलिस स्टेशन अपराध के ब्रीडिंग स्टेशन तो नहीं है!” मैंने हस्तक्षेप किया। मेरी बात को एक वरिष्ठ अधिकारी ने ‘हो-हो-हो-हो’ हँसकर उड़ाते हुए कहा, “अमाँ यार, हमीं पर सारी तोहमतें क्यों? हम तो नाचने वाले हैं, नचाने वाला कोई और है।”
“कुछ इसी से मिलती-जुलती बात वे अपराधी भी कह रहे थे, जिनसे शोध के दौरान मैं मिला।”
“क्या?” मेरी बात पर तक़रीबन सारे लोग मेरे आस-पास जमा हो गए थे।
“कहते थे...हम तो वेश्या है। सब छुप-छुपकर मिलते हैं और अपना उल्लू सीधा करते हैं। मगर बाहर शान दिखाने के लिए हमें गाली देते हैं।”
“राइट! अब हमारा ही देखा जाए। एक ओर तो हमारी अक्षमता के लिए हमें कोसा जाता है, दूसरी ओर हमारे काम में टाँग अड़ाई जाती है। एक उदाहरण लीजिए—हमने किसी गुंडे को पकड़ा। अब हर गुंड किसी-न-किसी एम.एल.ए., एम.पी., सेक्रेटराया मिनिस्टर वग़ैरा का आदमी, या आदमी का आदमी निकल आता है। फ़ोन पर फ़ोन! आख़िर वह बेदाग़ छूट जाता है...फिर क्या रह गई हमारी इज़्ज़त! कभी-कभी तो ईमानदारी की क़ीमत हमें सस्पेंशन में चुकानी पड़ जाती है।”
“एक तरफ़ कहेंगे, पुलिस को अपना आचरण बदलना चाहिए, दूसरी तरफ़ गंदे से गंदे काम के लिए इस्तेमाल करेंगे।” दूसरे कद्दावर अधिकारी ने कहा।
“यानी पुलिस अपने ग़लत कामों के लिए स्वयं दोषी नहीं है...यही न?”
इस पर एक सन्नाटा-सा खिंच गया। शराब के नशे में एक इंस्पेक्टर बहकने लगा, “अरे साब! सत्ता के इस थोड़े-से सुख में हमने अपना क्या-क्या नहीं गँवाया...जाति, धर्म, ईमान, सभ्यता, संस्कृति!...कहने को तो अपने थाने के सामने हमने भी लिखकर टॅगवा दिया है—“हम आपके सेवक हैं, हमारे योग्य कोई सेवा?” मगर सेवक की विनम्रता से काम करें तो हो गई छुट्टी। हमें ऑड, यूड, क्रूड बनकर स्लैंग। लैंग्वेजेज़ इस्तेमाल करनी पड़ती हैं, जल्लाद की तरह पेश आना पड़ता है, इसलिए एक अलग ही डिक्शनरी होती है हमारी, एक अलग ही आचार-संहिता होती है और अलग ही चरित्र होता है हमारा। सब-कुछ अलिखित, पर व्यावहारिक!”
काफ़ी रात गए भीड़ छँटी तो भाभी ने टोका, “कब तक छुटुवा घूमते रहोगे सिद्धार्थ! तुम्हारी यधोधरा रानी कब आएँगी?”
“रानी!” ज़ेहन में नाच उठी “रानी” ऐसो आमार राजकुमार, ऐसो ना...! एक मदिरिल सपना अंगड़ाई लेता हुआ पानी में रूपहले बिंब-सा थरथराया। सोचा, सचिन की बात भैया से शुरू कर दूँ, मगर इस बीच फ़ोन घनघना उठा और ऐसी बेवक़ूफ़ी करने से बच गया। भैया फ़ोन अटेंड करके आए तो कपड़े बदलने लगे, बोले, “तुम आए, कोई बात भी न हो सकी और उधर बुलावा आ गया...कोई ख़ून हो गया है....फ़ौरन पहुँचना है...कहाँ यह सोने की रात...ढीले कपड़े पहने वे मंत्री लोग सो रहे होंगे, जिनकी सुरक्षा-व्यवस्था के लिए सात दिनों से मुझे तथा डी.एम. को चैन नहीं था...और कहाँ ये पम्प-शू नुमा भारी बूट, क्रीज़दार चुभती पैंट और शर्ट, स्टार्स, बेल्ट, रिवॉल्वर वग़ैरा लेकर ख़ूनी डाकुओं, ख़तरनाक नक्सलियों के पीछे मारा-मारा फिरूँ...तुम्हें कैसे बताऊँ!”
भाभी का मज़ाकिया मूड उखड़ चुका था। वे बोलीं, “देखो, अपने को बचाना। बाहर तुलसी-चौरा पर मत्था टेकते जाना!” और भैया, भाभी की आज्ञा का पालन करते हुए चले गए। एक मातमी तनाव तन उठा। भाभी बड़ी देर तक रुआँसी, उनकी ख़ैर मनाती हुई, जिस-तिस को कोसती रहीं...ये आठ-नौ सौ की तनख़्वाह पर रात-रात भर ख़तरनाक अपराधियों का पीछा करना...लानत है ऐसी नौकरी पर! ब्लैक करने वाले सेठ, महीने-भर में लखपति बनने वाले इनकम टैक्स, सेल्स टैक्स, व्हीकल्स लाइसेंस वाले आराम से सो रहे होंगे। वे नेता तक किसी ख़रीदी हुई कनीज़ को चिपटाए, नर्म बिछौने पर सो रहे होंगे, जिनके लिए सारे प्रोग्राम साइडट्रैक करके उनकी सुरक्षा के लिए बैंड बजाने वालों की तरह ग़ुलाम बनकर आगे-पीछे चलना पड़ा। और वे...ऐसे में कहीं कुछ हो गया तो...? देवरजी, तुम चाहे कुछ भी बनना, पुलिस अफ़सर क़तई मत बनना।”
शुक्र था कि भैया सुबह तक सही-सलामत आ गए। थकावट के बावजूद मूड अच्छा देखकर जाते-जाते मैंने सचिन की बात छेड़ ही दी। मैंने उसके निर्दोष और ईमानदार होने की बात कहकर सचिन की रिहाई की बात की तो उनका मूड उखड़ गया।
“कल से ही देख रहा हूँ, मेरी नौकरी खाने पर तुले हो। इन चोर-डकैतों के लिए मैं हस्तक्षेप करूँ, तुम्हें हो क्या गया है?” वे घुड़क उठे।
मन में तो आया कि पूछूँ, अगर किसी मिनिस्टर ने किसी गुंडे के लिए यही बात कही होती तो वे क्या करते! मगर चुप रह गया। बाद में सुना, एक पूरे के पूरे नक्सल गाँव को आग लगा देने के पुरस्कार स्वरूप उनकी तरक़्क़ी हो गई थी।
याद आते हैं न्यायालयों के आँकड़े बटोरते वे भटकते हुए दिन। ग्राम पंचायतों के बने-बनाए फ़ार्मूलाबद्ध न्याय प्रहसन, दीवानी और फ़ौजदारी की रबर से भी लचीली और खिंचती हुई कार्रवाइयाँ। ऊँची कुर्सी पर बैठे अपनी तमाम ताम-झाम के बावजूद श्रीहीन जज, सरकारी और मुद्दई पक्ष के वकीलों के बहसने और विहँसने की कलाएँ। न्याय-मंदिरों के कितने ही मंज़र किसी डॉक्यूमेंटरी फ़िल्म की तरह यादों के परदे पर उभरने लगते हैं...न्याय की प्रत्याशा में आगत...ऊबती, मुरझाती भीड़, मिठाइयों की दुकानों पर डकारती और ललकारती हुई नकली गवाहों की टोलियाँ, पुराने परचे और काग़ज़ातों के बंडल सँभाले अहलमद और मुनीम, रंडियों के दलालों की तरह आसामी फँसाते हुए वकीलों के दलाल, काले कोट पहने हुए वकीलों की चहलक़दमी, 'बीच-बीच में आसामी हाज़िर हो' की आवाज़ लगाता कोर्ट अर्दली, ड्रायर खोलकर दो-दो रुपयों पर फ़र्ज़ी मुक़दमों की तारीख़ बढ़ाते पेशकार।
वे सर्दियों के दिन थे। कटखनी शीतलहर चल रही थी। मैं कचहरी के बाहर धूप में पापा के एक मित्र से बात कर रहा था कि एक रिक्शा रुका आकर मेरे पास। देखा तो जर्जर-क्लांत राखाल बाबू उतर रहे थे। काँपते हुए उन्होंने एक नज़र चारों तरफ़ का मुआयना किया, फिर एक कोने में मुझे ले आए।
“बड़ी मुश्किल से मिले...कहाँ-कहाँ नहीं पता लगाया मैंने!”
“कोई नई बात...?”
“हाँ, सचिन का मुक़दमा तुम्हारे बाबा (पापा) के पास आए, ऐसी व्यवस्था मैंने कर ली है।”
“अच्छा!”
“बाक़ी तुम्हें देखना है। मैं मरने के पहले उसे निर्दोष देखना चाहता हूँ। मेरा बेटा, मेरी बेटी निर्दोष हैं।”
“आपको सेनिटोरियम छोड़कर इस तरह नहीं आना चाहिए था, उनके लिए भी आपको ज़िंदा रहना है।” उन्हें रिक्शे पर बैठाकर मैं उसी दिन पापा के पास चला आया।
पापा मुझे आया देखकर ख़ुश हुए। शोध के विषय में मेरी प्रगति पर संतोष ज़ाहिर करते हुए, ‘न्याय’ के प्रति मेरे दृष्टिकोण का समर्थन करते हुए बोले, “देश-भर में जाने कितना अन्याय होता है और उसमें से जाने कितने आ पाते हैं हमारे पास और जाने कितनों का सही फ़ैसला कर पाते हैं हम! अब देखो, वकील न्याय के देवदूत हैं और इनका चरित्र...! जो जितने भयंकर अपराधी को, जितनी जल्दी निरपराध सिद्ध कर दे, वह उतना ही सफल वकील है। फिर जज का दिल और दिमाग़, न्याय की व्यवस्था भी कम करामाती नहीं है। एक कोर्ट से जो हार जाए, दूसरी कोर्ट से जीत जाता है। पेनलकोड में कई धाराएँ तक त्रुटिपूर्ण हैं।”
“यानी न्याय वह तरल पदार्थ है जिसे जिस पात्र में ढाल दें, वैसा ही ढल जाएगा।”
“साहित्य में तुम्हें ज़ोर आज़माना चाहिए।” पापा हँस पड़े थे।
“और सोने और चाँदी के पात्रों में यह ज़ियादा शोभता है।” पापा की हँसी मुरझाने लगी। वे चौकन्ने हो गए, “कुछ कहना चाहते हो?”
“पच्चीस तारीख़ को जिसका मुक़दमा आपकी आदलत में पेश होने वाला है, अपराधी नहीं है। मानवता के प्रति पूरी तरह निष्ठावान युवक है।”
“यू मीन दैट नक्सलाइट?”
“जी, चूँकि आप एक पिता है, अतः पिता के दिल का दर्द समझते हैं। टी.बी. से मरणासन्न पिता की एक ही ख़्वाहिश है कि वह अपने निर्दोष बेटे को निर्दोष बरी देखकर मरे।”
पापा ने सिगार जला लिया। कुछ देर तक ख़ाली-ख़ाली आँखों से दीवारों पर देखते रहे, फिर एक सधी हुई आवाज़ में बोले, “बेटे, हम जिसे न्याय कहते हैं, वह तथ्य-सापेक्ष है, सत्य सापेक्ष नहीं है। तथ्य का प्रमाण स्वयं में सामर्थ्य-सापेक्ष है, अतः निर्णय लचीला होता है। हमारा तो यूँ जान लो, बस एक दायरा होता है...पुलिस एफ.आई.आर. प्रस्तुत करती है, चार्जशीट पेश करती है, गवाह होते हैं, अपराध के सबूत, अभियुक्त की सफ़ाई का दौर आता है, वकील होते हैं, कानून की किताबें होती हैं। इन सबमें से परत-दर-परत जो निष्कर्ष छन-छनकर आता है, हम वही निर्णय तो दे सकते हैं...और फिर तुम जिसकी सिफ़ारिश करने आए हो, उसका तो मुक़ाबला ही सत्ता से है, जो हमेशा न्यायपालिका पर हावी रहती है!”
“यानी आपके सिद्धांत बाँझ है?”
पापा गंभीर हो गए। बोले, “देखो, ख़ून मेरी रगों में भी बहता है, पर मैं तुम्हारी तरह मूर्ख और भावना जीवी नहीं। तुम्हें मालूम नहीं होगा, सी.बी.आई. वाले कब के तुम्हारे विरुद्ध क़दम उठा चुके होते...बचते आए हो तो अपने जीजाजी के चलते। लेकिन यही रवैया रहा तो...आई फ़ाइनली वार्न यू टु मेंड योरसेल्फ़!” बुझा सिगार फेंककर वह उठकर बेचैनी में चलने लगे और मैं सर पकड़कर बैठ गया।
मुक़दमे का निर्णायक दिन भी आ गया। वकील के लाख समझाने के बावजूद सचिन ने एक शब्द तक न कहा अपनी सफ़ाई में, सिवाय उस बयान के, जो जब भी यादों को कुरेदता है तो हर्फ़-दर-हर्फ़ विस्फोट करता शोलों के अंबार भर देता है ज़ेहन में, “मुझे इस पूँजीवादी, प्रतिक्रियावादी, न्याय-व्यवस्था में विश्वास नहीं है। आम जनता भी जिसे न्याय का मंदिर कहती है, वह लुटेरों, पंडों और जूता-चोरों से भरा पड़ा है। यहाँ आते ही चपरासी, अहलमद, नाज़िर, पेशकार, क़ानूनगो से लेकर काला लिबादा ओढ़े वकील और गीता तथा गंगाजल की क़समें खाकर झूठी गवाहियाँ देने वाले गवाह, ये तमाम कुत्ते नोचने-खसोटने लगते हैं उसे। ये लाल थाने, लाल जेलखाने और लाल कचहरियाँ...इन पर कितने बे-क़सूरों का ख़ून पुता है। वकीलों और जजों का काला गाउन न जाने कितने ख़ून के धब्बों को छुपाए हुए है! परिवर्तन के महान रास्ते में एक मुकाम ऐसा भी आएगा, जिस दिन इन्हें अपना चरित्र बदलना होगा, वरना इनकी रोबीली बुलंदियाँ धूल चाटती नज़र आएँगी!”
वकील ज़ोरों से चीख पड़ा, “योर ऑनर, दिस इज क्लियरली द कॅण्टेम्प्ट ऑफ़ कोर्ट!”
बाहर शोर मच गया। जज की कुर्सी पर बैठे पापा चीख पड़े, “ऑर्डर! ऑर्डर!!” और मुद्दई पक्ष का वकील सचिन को पागल साबित करने में लग गया, ताकि उसे बचा सके।
सचिन को अपराधी करार देते हुए सज़ा हो गई। फ़ैसला सुनते ही मेरे पास ही बैठे राखाल बाबू फफक-फफक कर रो पड़े। मुझे याद है, मैंने उन्हें सहारा देकर रिक्शे पर बैठाया था। बाद में हमने सुना कि जेल से जाते समय, रास्ते में ही पेशाब करने के बहाने, जंगलों में सचिन ऐसा ग़ायब हुआ कि पुलिस ढूँढ़ती रह गई। रोग और चिन्ता से जर्जर राखाल बाबू यह सदमा बरदाश्त न कर पाए और ‘रानी’ और ‘बुलबुल’ को निर्दोष देखने का सपना लिए हुए ही दुनिया से चले गए। पुलिस उनकी मृत्यु के दो दिन बाद तक सेनिटोरियम के चारों ओर सादे लिबास में घूमती रही, मगर न रानी आई, ना बुलबुल! लाश जब सड़ने लगी तो पुलिस की मदद से सेनिटोरियम वालों ने ही उसकी अन्त्येष्टि की।
और अब नारी-निकेतन, बाल अपराध सुधार-गृह, रिफ़ॉर्मेटरीज़ होते हुए कारागृह! ऊँची-ऊँची दीवारें, सलाख़ोंदार मज़बूत फाटक, अपराधी-क़ैदियों का समुद्र! कोने-कोने पर ऊँचे मचानों पर बंदूक़ साधे ऊँघते सिपाही! विभिन्न सूत्रों से पता लगा था कि सचिन नाम का एक बंगाली युवक और संघमित्रा नाम की एक औरत, कुछ दिन हुए ट्राँसफ़र होकर, सेंट्रल जेल में आए हैं। जल्द ही मैंने शोध के निमित्त सेंट्रल जेल जाने की अनुमति प्राप्त कर ली।
विशाल रक़बे में बिखरी दुर्भेद्य बदसूरत दीवारों से घिरी केंद्रीय कारा! कारा अधीक्षक, जो मेरे मजिस्ट्रेट भैया के मित्र थे, मुझे बताते चल रहे थे, यह जेल भारत की सबसे बड़ी जेलों से एक सेल्यूलर जेल है। साइकिल स्पोक्स की आकृति में फैले हुए सेल धुरी पर केंद्रीभूत हो उठते हैं, जहाँ से कंट्रोल टावर इन सब पर निगरानी रख सकता है। ये रहे कारख़ाने...कपड़े, दरियाँ, काठ और लोहे के छिटपुट सामान बनाते हुए, ये रही लायब्रेरी, वह रहा मेडिकल, यह रहा पागलों का दड़बा, यह विशाल भीड़, जो देख रहे हो...ये रहे हाजती। उधर उन अलग-अलग क़तारों में रहते हैं स्टेट प्रिजनर्स...बड़े-बड़े नेता, विद्वान, लेखक रह चुके हैं यहाँ!' एक नज़र मेरे ऊपर पड़े प्रभाव का मुआयना करके वे फिर शुरू हो गए, “ये पार्टीशन जनाना सेल के लिए है। कोई पसंद आए तो बोलना।” अपने ही मज़ाक पर वे ‘खीं-खीं’ करते हुए हँस पड़े और दीवार के पास मेरी कल्पना में संघमित्रा उभरने लगी...मगर तत्क्षण ही स्वराघात से टूट गई।
“यह रहा ‘टी-सेल’... सबसे ख़तरनाक अपराधी यहाँ रखे जाते हैं। किस प्रकार के कितने क़ैदी हैं, उनकी संख्या तुम्हें इस सूची से मिल जाएगी।” उन्होंने दीवार पर टॅगी सूची की ओर इशारा किया, “ये जगह-जगह टँगी हुई हैं। मुझे, अफ़सोस है, तुम्हें हम फाँसी के किसी क़ैदी से नहीं मिलवा सकेंगे।” हँसते हुए उन्होंने सूची में मृत्युदंड दंडित क़ैदियों के आगे इशारा किया, वहाँ क्रॉस लगा हुआ है। कंट्रोलिंग टावर पर से उन्होंने मुझे दूर स्थित फाँसी के मंच और वीरान कंडेम्ड सेल भी दिखाए।
“कहाँ-कहाँ जाना है, क्या-क्या सवाल कर सकते हो, इसकी शर्तें तुम्हें दी जा चुकी है, फिर भी एहतियात के तौर पर बता दूँ, सेल नंबर 15, 16, 17 में मत जाना...नक्सली सेल है।'
कुछ ही दिनों में उन सबसे ऊब गया। सफ़ेद धोती, हाफ़ क़मीज़, टख़नों तक का पाजामा...मेरी पारदर्शिनी नज़र इनमें अपराध के चिन्ह ढूँढ़ने में असफल रही। यह सवाल बराबर कोंचता रहा कि आख़िर कौन-सी मजबूरी है कि लोग अपराध में प्रवृत्त हो जाते हैं...और वह कौन-सी विभाजन-रेखा है, जिसके तहत ये शिनाख़्त किए जा सकते हैं। सारा मामला सरसों में भूत जैसा विरोधाभासों से ग्रस्त था। नारी निकेतन, बाल अपराध सुधार-गृह और रिफ़ॉर्मेटरीज़ के सिद्धांतों और आचरणों में गहरी खाई थी। क़ैदियों के नाम पर मिलने वाला राशन खाते हुए जेल के कर्मचारी, के भेंट बन-बनकर राज करते हुए धाकड़ दादा क़ैदी, उसके तथा जेल के ज़रख़रीद ग़ुलाम बने रिसते और पिसते हुए पिद्दी क़ैदी, वही वर्ग-विभाजन, वही वर्ण-विभाजन, जेल की बदसूरत ऊँची प्राचीरों में घुटकर रह जाने वाली यातनाओं की चीख़ें और अलमारियों में क़रीने से सजी, पर जाले की ज़ंजीरों में बँधी जेल मैनुअल्स की पोथयाँ! वह सेल्यूलर जेल मुझे मकड़ी के जाले जैसा लगा। रेशे-रेशे में आ बिंधे थे इंसान और बीच में मकड़ी के स्थान पर खड़ा था कंट्रोलिंग टावर!
जज़्बातों की तरह जलते हुए दिन क़ैदियों के समुद्र में डूबते-उतराते, संतरण करते हुए बुझ रहे थे और दुःस्वप्नों जैसी नाउम्मीद लंबी रातें पुलिस मैनुअल्स, जेल मैनुअल्स, सोशोलॉजी, साइकोलॉजी, आँकड़ों, ग्राफ़ों में तिरोहित हो रही थीं। मेरी एक खोज पूरी हो रही थी और एक का कूल-किनारा भी नज़र नहीं आ रहा था। डेस्परेट होकर एक दिन जेल सुपरिटेंडेंट के दफ़्तर में जा पहुँचा। वे उस समय एक नवागत नक्सली क़ैदी से जाने क्या उगलवाने के चक्कर में परेशान हो रहे थे। मेरे सामने एक ही ज़ोरों का मुक्का उसके जड़ों पर पड़ा और उसका चश्मा दूर जा छिटका। वे फिर से बड़ी निर्दयतापूर्वक उसके बालों को पकड़कर नचाने लगे। मुझे देखा तो वापस ले जाने का हुक्म देकर बैठ गए। नक्सली युवक अपना ख़ून पोंछने की बजाए अपना चश्मा टटोलने लगा। चश्मे के अभाव में उसकी स्थिति अंधे जैसी हो रही थी। मुझसे रहा न गया। मैंने स्वयं चश्मा उठाकर उसे दिया, तो पता चला, उसके काँच दरक चुके थे।
“साले ने मूड ऑफ़ कर दिया। हाँ, तुम कहो अपनी...” जेल अधीक्षक प्रकृतिस्थ होने की कोशिश में मुस्काए।
“मुझे संघमित्रा और सचिन से मिलना है...ज़रूरी तफ़तीश के लिए।”
“सचिन से तो नहीं मिल सकते, ऊपर से बिना अनुमति प्राप्त किए। हाँ, संघमित्रा को बुलवाए देता हूँ।” उनके हुक्म पर थोड़ी देर में एक मेट एक युवती को लेकर उपस्थित हुआ।
“लो, आ गई!” वे भद्दे अंदाज में मुस्कुराए।
“इसे वापस पहुँचाने को कह दीजिए।” मैं झुंझला पड़ा, “मुझे जिस संघमित्रा की तलाश थी, वह यह नहीं।”
“बड़ा संगीन अपराध किया है उसने तुम्हारे साथ...ऐसा लगता है। मगर तुम उसे जेल में क्यों ढूँढ़ते फिर रहे हो?”
“फिर बताऊँगा कभी।” निराशा में मेरे होंठ जड़ हो रहे थे। संघमित्रा मेरे लिए अब भी मरीचिका ही थी।
आख़िर वे क्षण आ गए, जबकि प्रतिबंधित सेलों का तिलिस्म सैलाब बनकर जेल की दीवारों के बाहर बहने लगा। दीवाली की रात थी वह। क्रेकर और आतिशबाज़ियाँ छूट रही थीं। मगर जेल के अंदर भला क्यों...? और वह दहशत-भरी पगली घंटी पर पगलाता हुआ पुलिस दस्ता! अंदर के कई फाटक तोड़कर नक्सली अब सदर फाटक पर बम बरसा रहे थे। पुलिस के सिपाहियों ने कई एक को ज़मीन पर सुला दिया, मगर वे सामूहिक रूप से पुलिस दस्ते से भिड़ गए और थोड़ी ही देर में बंदूक़ें उनके हाथों में थीं। लगा कि फाटक अब टूटा कि तब। तभी हमने देखा, क़ैदियों की विशाल भीड़, जो बंदूक़ों और अन्य शस्त्रों से लैस थी, नक्सली क़ैदियों पर टूट पड़ी। सदर दरवाज़े के ऊपर के दो मंज़िलों की खिड़की से मैंने वह रोंगटे खड़े कर देने वाली क़ैदियों की लड़ाई देखी। थोड़े ही देर में फूलों और सब्ज़ियों की क्यारियाँ, बजरी की सड़कें लाशों और घायलों से पट गईं। माइक से जब यह ऐलान किया गया कि बाक़ी क़ैदी नक्सल क़ैदियों को उनके सेलों में पहुँचाकर, अपने-अपने वार्डनों के पास गिनती के लिए चले जाएँ, तो घायल और बचे-खुचे नक्सली क़ैदियों को ढोर डंगरे की तरह मारते और हाँफते हुए क़ैदी लौट पड़े।
थोड़ी देर बाद अधीक्षक महोदय के दफ़्तर में प्रतिबंधित नक्सली सेलों का एक वार्डन पूरी कहानी बताने लगा, “गश्त का सिपाही जमुनालाल जब एक नक्सल क़ैदी नं. सात सौ पचहत्तर...” मैं चौंका, ‘सचिन!’ ‘जो भी हो’ उसने बात आगे बढ़ाई, “उसके कमरे को संदिग्ध जान खोलकर देखना चाहा तो उसने जंजीर बँधे हाथों का फँदा लगाकर उसके गले को कस दिया। फिर उसकी जेब से चाबी निकालकर सेल नं. सत्रह को आज़ाद कर दिया। इसी तरह शायद और सेल भी...दीवाली की रात होने के नाते थोड़ी ग़लतफ़हमी भी हुई। साब, अगर मेट ने चालाकी करके बिना पूछे ही तमाम ख़तरनाक अपराधियों को नहीं छोड़ दिया होता, उन्हें ठंडा करने को, तो नाक कट ही गई होती।”
“स्टील टर्निंग्स तो लेथ और ड्रिल मशीनों से उन्होंने बरामद किया होगा, मगर पिक्रिक एसिड, पोटाश वग़ैरा...??” बम के एक खोल को देखते हुए अधीक्षक ग़ुस्से से पागल हो गए। डर के मारे लोग सन्नाटे में आ गए। वे दहाड़ने लगे, “पुलिस की ज़ात साली ठीक ही घूस के लिए बदनाम है। ज़रा-से पैसों के लिए साले बिक गए, वरना जहाँ परिंदा तक पर नहीं मार सकता, वहाँ बम आ जाए!” धीरे-धीरे लोग खिसक गए। मृत और घायलों को शहर भेज दिया गया और दीवाली की रात मातम की काली रात बनकर डसने लगी हमें। बचपन में यदा-कदा दूर से काली मंदिर की पाठशालाओं को देखा करता था, जहाँ गुरुजी लड़कों से ही श्रेष्ठ हुआ करते थे। और यहाँ चोर, डाकू, व्यभिचारी, सज़ा-याफ़्ता क़ैदी, बुद्धिजीवी नक्सलियों को पीट रहे थे। मुझे अपराध और अपराधी का वृत्त फैलता-सा लगा। मन रुआँसा हो चला, न खाना गले से नीचे उतरा, न किसी से बात ही करने को जी चाहा। तन और मन की हरारत टाइफ़ाइड में तब्दील हो गई और मैं एक लंबे अरसे तक बीमारी से निबटने और स्वास्थ्य-लाभ करने में लगा रहा। इस बीच मेरे गाइड ‘हेड साहब’, शोध को देखकर, ‘यूनीक’ क़रार दे गए थे। जेल अधीक्षक मेरे पापा के प्रभाव के कारण मुअत्तल होने से बच गए थे। उनकी कृपा से प्राँत की सारी जेलों की महिला क़ैदियों की सूची मैंने देख ली थी। संघमित्रा का पता नहीं चल सका था। शोध का काट समेटने की गरज़ से, जिस दिन पुनः केंद्रीय कारा पहुँचा, तो पापा की जल्दी वापस आ जाने की हिदायती चिट्ठी और नक्सली सेलों में एक बार जाने की अनुमति-पत्र साथ ही मिला।
मेरे प्रतीक्षित दिवस का एक-एक दृश्य टँगा है आँखों के सामने। मेरे साथ-साथ पुलिस का एक सिपाही, सेल नं. सत्रह का वार्डन और मेट भी चल रहे थे। मेरे हाथों में शोध की फ़ाइल थी। सारे के सारे क़ैदी जवान थे और निचुड़े चेहरों के बावजूद मस्त थे। वे हमें देखकर अजीब ढंग से सीटियाँ बजा रहे थे। कुछ पूछने पर कहते, “कहाँ का पिल्ला टहल रहा है?” बहनोई खोजने चला है शायद!...यह चलेगा...?
मेट बताने लगा, “इन्क्वायरी कमीशन के सामने भी इनकी यही गंदी हरकतें रही। आप सोच सकते हैं, उसमें क्या हुआ होगा” एक कमरे के सामने रुक गया वार्डन। सलाख़ोंदार फाटक के अंदर से झाँकते सचिन को मैं सहसा पहचान न पाता, अगर वार्डन ने बताया न होता। उसके हाथ-पाँव ज़ंजीरों से बँधे थे। बढ़े हुए रूखे बाल, बढ़ी हुई दाढ़ी, कोटरों में फँसी जलती आँखें और बढ़े हुए नाख़ून...कुल मिलाकर कोढ़ियों की शक्ल दे गए थे। आत्मीयता में डूबते-उतराते मैं बोल पड़ा, “सचिन, मुझे पहचानते हो, मैं...!”
“हाँ-हाँ, पहचानूँगा क्यों नहीं...ख़ूनी जज का बेटा, लुटेरे और मक्कार एस.पी. और मजिस्ट्रेट का भाई, बदलते भ्रष्ट मंत्रियों के शाश्वत ग़ुलाम सेक्रेटरी का साला!”
मैं किंचित अप्रतिभ हुआ, पर उसकी बात हँसकर उड़ा दी, “बुलबुल, सच मानो, मेरा कोई बुरा इरादा नहीं है, क्राइम पर शोध कर रहा हूँ। तुम्हारा एक इंटरव्यू...!!”
“पूछो।”
फ़ाइल खोल क़लम निकालकर पूरी गंभीरता से मैंने सवाल किया, “लोग व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए या अत्याचार के ख़िलाफ़ अस्त्र उठाते हैं, तुम लोग सामूहिक स्वार्थ और एक्सप्लायटेशन के ख़िलाफ़... मगर करते हो तुम भी अपराध ही। क्या हिंसा से हिंसा को और नफ़रत से नफ़रत को दबाया जा सकता है?” सवाल के शेष होते न होते उसने अभद्रता से पाद दिया। मैं भिन्ना उठा। मुझे नफ़ासत सिखाने वाला सचिन क्या यही था! मैं बिफर पड़ा, “मेरा अपमान करने से सवाल नहीं टल जाएगा बुलबुल, तुम लोग किसी पर तो विश्वास करोगे...! यह संशय का महाभारत कब तक?”
“माफ़ करना यार, इतना गरिष्ठ सवाल सुनकर पेट में ज़रा गैस हो गई थी। इतनी भारी बातें पच नहीं पातीं?” फिर उसने लहजा बदलते हुए पूछा, “तो तुम पी.एच.डी. पाओगे न?”
“हाँ!” मैं उसके तेवर को तौलने लगा।
“फिर कोई ऊँचा ओहदा...?”
“शायद!”
“ज़रा फ़ाइल देख सकता हूँ?”
मैं पहले हिचका। मगर उसकी पुरानी अन्तरंगता का ख़याल करके फ़ाइल उसे दे दी, फिर मन की लालसा ज़बान पर आई, “बुलबुल, प्लीज बताओगे रानी कहाँ है?” मेरी बात जैसे उसने सुनी ही नहीं। फ़ाइल के पन्ने पलटते हुए बोल पड़ा, तो तुमने इतने विभिन्न प्रकार के अपराधियों और क़ैदियों का अध्ययन किया है?... वाह!...और यह दार्शनिक पक्ष...टैपेन, रेकबेस, मारिस, टैफ्ट, कोल्डराइन, प्लेटो...कमाल है! इत्ते-सारे आँकड़े, ग्राफ़्स, काम्पेरेटिव एंड रिलेटिव एनलिसिस...सर्वे...जेल में मिले इन लोगों से?”
“हाँ!” मैं फूल गया अपनी प्रशंसा पर। मगर एकाएक उसे जैसे सन्निपात हो गया, “तो तुमने इतने क़ैदियों का अपमान किया है!... और इस अपमान को भुनाकर तुम सम्मानित होना चाहते हो!... इसीलिए यह दलाली और सवालों के चोंचले! तुम्हारी नीयत अपराध मिटाने की नहीं, उस पर फलने-फूलने की है! मैं पूछता हूँ, किसने तुम्हें आने दिया अंदर? इसे चिडियाख़ाना समझ रखा है क्या? इजंट टोटली इन्ह्यमेन टू एंज्वाय एंड कैश ए प्रिज़नर्स ट्रेजडी? इजंट मोस्ट हीनियस क्राइम...आई आस्क! आई वोट एलाउ यू!”...उसने फ़ाइल उठा ली। हाथ की ज़ंजीरें झनक उठी...मेरे दिल की धड़कनें बढ़ गईं।
“रुको-रुको!” पीछे से कारा अधीक्षक आते हुए बोले, “मुझे मालूम नहीं था कि तुम इनके दोस्त हो। देखो, डोंट बी इंपेशेंट। अफ़सोस है, इतने संगीन अपराध तुमने किए हैं कि कोर्ट से कभी भी फाँसी का परवाना आ सकता है। तुम्हारे सामने तुम्हारे मित्र एक आदर्श हैं। तुम अपराध में प्रवृत्त हो और वह उससे निवृत्ति के उपायों पर शोध कर रहा है। अगर तुम अभी से भी रिपेंट करते हुए अपने आप को सुधारो तो राष्ट्रपति के पास मर्सी पेटीशन के तहत तुम्हें बचा लेने में हम कुछ उठा नहीं रखेंगे।” उनका इतना कहना था कि सचिन के मुँह का बलग़म उनके मुख पर ताले-सा जा चिपका और फ़ाइल मेरे मुँह पर। पन्ने-पन्ने छितरा गए और मैं पागलों की तरह जल्दी-जल्दी बटोरने लगा, अपनी अमूल्य निधि को।
वार्डन दौड़कर पानी लाने चला गया और मेट और सिपाही, कहीं से दो छड़ लाकर लगे कोंचने और पीटने बेरहमी से उसे...जैसे सर्कस के किसी ख़ँखार पशु के अचानक हिंसक हो उठने पर सर्कस के नौकर किया करते हैं। वह ‘घों-घों’ करके चीत्कार कर रहा था। कारा अधीक्षक ने ही न छुड़वाया होता तो शायद उसकी जान लेकर छोड़ते।
सामान जीप में रखा जा चुका था। बस, कारा अधीक्षक की राह देख रहा था। जेलर को कुछ हिदायतें देकर उन्हें लौट आना था। यूँ और दिन होता तो जेल के अंदर ही उनसे मिल आता, पर उस घटना के बाद से मन कैसा कैसा हो गया था और बीच के तीन दिन, शोध के बिखरे कामों को तरतीब देने के उद्देश्य से, मैं अपने मँझले भैया के यहाँ गुज़ारकर आया था। कारा अधीक्षक उदास-सा चेहरा लिए आकर रुके मेरे पास, “जब तुम पहले-पहल आए थे तो मैंने मज़ाक किया था कि मुझे अफ़सोस है, फाँसी के क़ैदी से नहीं मिलवा सकूँगा तुम्हें...मगर तब नहीं जानता था कि जाते समय मज़ाक क्रूर सत्य बनकर सामने आएगा।”
मैं चुपचाप ताकने लगा उन्हें।
“सचिन को कंडेम्ड में ले जाया गया है। फाँसी तक वहीं रहेगा वह। मिलोगे नहीं उससे जाते समय?” उनकी आवाज़ भीगी हुई थी।
मेरे होंठ थरथराए, पर आवाज़ नहीं फूटी। यंत्रचलित-सा उनके पीछे-पीछे चल पड़ा। मैंने ग़ौर किया, मुख्यद्वार से कंट्रोलिंग टावर तक की सभी सूचियों में परिवर्तन कर दिया गया था—मृत्युदंड दंडित क़ैदी, कुल संख्या-एक।
सचिन मुझे देखते ही सींखचों के पास आ गया, “आज शायद जा रहे हो?” पहल उसी ने की।
“ ... ”
“मेरी फाँसी तक नहीं रुकोगे? व्यवस्था की पीठिका पर टँगे मेरे वजूद के सवालिया निशान से कतराने लगा है तुम्हारा शोध!” उसकी व्यंग्य-भरी हँसी निरुत्तर कर गई मुझे। मैं निर्वाक्-निर्निमेष ताकता रहा उसे।
“रानी को पूछ रहे थे न उस दिन?”
“हाँ!” मेरी सारी चेतना मिसट आई उसके सवाल पर।
“शी हैड बीन ब्रूटली बूचर्ड लाँग एगो।”
“कैसे?” मैं चीख़ पड़ा।
“उसके गुप्तांग में रूल घुसाकर...मथकर मारा गया।”
“ओह! ओह!!” करहाते हुए आवेग में मैंने सींखचों को पकड़कर झकझोर देना चाहा, मगर वे सर्द और सख़्त थे। आँखों के आगे अँधेरा छा गया। मेडिकल की मेधावी छात्रा, जेनेटिक्स पर रिसर्च करने का दम भरने वाली रानी, एक सामान्य पुलिस के हाथों...क्राइम! लगा, अभी-अभी क्रोंचवध हुआ है। फ़िज़ा में दूर-दूर तक दहशत-भरी दर्दनाक चीख़ें भर उठी है।
इसके बाद न कुछ वह बोल पाया, न मैं। उसने मेरा कंधा थपथपाया...और पथराई आँखों से हम जुदा हो गए।
जेल से अपनी एक पूरी दुनिया गँवाकर लौट रहा हूँ। पता नहीं पापा मेरे शोधकार्य को कैसे भुनाएँगे! मगर शोध अभी हुआ कहाँ पूरा! हाइड्रोजन बम के न्यूक्लियर फ़ीज़न की श्रृंखला की तरह अपराध का रक्तबीज़ फैलता ही जा रहा है...ठहराव? ट्रेन चली जा रही है और शोध के पन्ने फड़फड़ा रहे हैं मेरे दिमाग़ में...अनाक्सिमेंडर काल्डरान के अनुसार क्या यही मान लेना होगा कि मनुष्य का सबसे बड़ा अपराध यही है कि जन्मा होने मात्र से वह दूसरे के अस्तित्व में बाधक है? प्लेटो ने यहाँ तक कहा है कि अपराध भी प्रतिभासंपन्न व्यक्ति ही कर सकते हैं। डारविन की थ्योरी ऑफ़ इवोल्यूशन में ज़िंदा रहने के लिए सबलों, समर्थों का निर्बलों, असमर्थों पर यही अपराध-भरा संघर्ष नहीं है? हेगेल ने भी क्या संक्रमण और संधात के इसी नायकत्व को नहीं स्वीकारा? मार्क्स की वस्तु और क्रियाओं के घात-प्रतिघात की बात में इसी संघर्ष का दूसरा रूप नहीं है? आगे बढ़ने की अंधी दौड़ में कौन देखने जाता है कि कौन कुचला गया? शायद रानी ही ठीक कहती थी, अपराध ख़त्म करना है तो नस्ल ही बदल डालो।
दिमाग़ नाना प्रकार के गड्डमड्ड विचारों से बजबजा उठा है। नाना प्रकार के दृश्यों के बुलबुले उठ-उठकर फूट रहे हैं। आँखों में पूरा का पूरा गाँव धू-धू करके जल रहा है, कंकालनुमा चेहरे किन्हीं अज्ञात पंजों से बचने के लिए बेतहाशा भागे जा रहे हैं, सहमी हुई, कोसती और मनौतियाँ करती भाभी, बड़े और बड़े होते हुए भैया तथा पापा के चेहरे, ठेंठते हुए पुलिस और गुंडे, डकारते हुए नकली गवाह, बाल पकड़ झटके जा रहे...पेट पकड़े नक्सलाइट युवक का दरका चश्मा! ठीक आँखों के सामने रानी तड़प-तड़पकर...ऐंठ-ढेंठकर मर रही है, सचिन को कोंच-कोंचकर मारा जा रहा है। शर्मिंदगी और संत्रास और मातम! इनके ऊपर धीरे-धीरे एक सवालिया निशान की तरह झूल रही है...फाँसी के फंदे में सचिन की लाश!
मैं पसीना-पसीना हो उठता हूँ। स्वस्थ होने के लिए खिड़की खोलकर बाहर झाँकता हूँ तो लगता है, अँधेरे की सुरंग किसी रक्तस्नान प्रांतर में आकर विलीन हो चली है। गाड़ी धीमे-धीमे गंगा के पुल पर रेंग रही है। यानी चंद मिनटों में मेरे स्टेशन में दाख़िल हो जाएगी। सुबह की लाली से लाल हुई गंगा देखकर लगता है, आदिम पाषाण युग से ख़ून ही बहता रहा है इसमें! क्या है मेरी और मेरे शोध की सामर्थ्य और सीमा? अपराध की लप-लपाती बर्बर लपटों में...उन्हीं लपटों में, जिनमें आहुति बनकर लाखों करोड़ों निरपराध, निष्ठावान तेजस्वी आत्माएँ, मेरा मित्र, मेरी रानी तक समा चुके हैं, अपने हाथ सेंकने के सिवा यह है क्या? इससे बढ़कर गर्हित अपराध और क्या हो सकता है? कर सकूँगा मैं सत्ता, व्यवस्था और समाज के तमाम अपराधी पुर्ज़ों को जेल में? शायद नहीं, क्योंकि मैं पैरासाइट हूँ उनका, क्योंकि वे मेरे अपने पिता, भाई स्वजन, मित्र और औज़ार हैं। फिर यह शोध...? कितना गंदा मज़ाक है यह शोध! मेरे हाथ लहराते हैं और शोध की पूरी फ़ाइल छपाक से गंगा में जा गिरती है। लगता है, सीने पर पड़ा हुआ अपराध का पहाड़ फिसलकर जा गिरा है गंगा में।
स्टेशन पर उतरते ही अगवानी के लिए आए विभागाध्यक्ष के साथ माँ को देखकर याद आता है...साधु ने शायद ठीक ही कहा था...कि मेरी मौत पानी में होगी!...पूरा भविष्य डुबा दिया है मैंने पानी में और विद्रूप में मेरे होंठ टेढ़े हो उठे हैं।
raat ke khaufnak andhere ko chirte hue meri train bhagti ja rahi hai ek andheri surang hai ki mere samuche astitw ko nigalti ja rahi hai yoon mainne sari khiDkiyan band kar li hain, phir bhi ek shor hai ki jism ke purze purze dhamak rahe hain, yadon ka ek qafila hai ki mere maru man ka zarra zarra kunamunakar takne lagta hai
zehn mein dhire dhire akar le rahi hai ek haweli qasbe mein wyawastha aur satta ki pratik meri haweli—kanchanjangha dhire dhire kai chehre ubhar rahe hain, prabhusatta robile session jaj papa, s pi —baDe bhaiya, jiladhish—chhote bhaiya, grih wibhag ke sachiw—jija, unke prabhaw ka ehsas karati hui gawili bahan, sabke apne apne posteD jilon mein chale jane par udas rajmata ki tarah mammy, na jane kitne mantriyon, afsaron aur unche ohde walon ke gaDDmaDD chehre! ek ajib sa khinchaw, ek ajib sa khauf samaya rahta hai yahan ke logon mein kanchanjangha ke prati mainne bachpan se hi is khinchaw ka anubhaw kiya hai kapDe ki ball aur piDhe ka balla banakar khele ja rahe cricket ya kanch ki goliyon jaise khel, gawarnes, khansama, daiyan, tyutars, sent wisent aur sent paitriks schoolon mein palte mere wajud ko dekhkar tham jate aur we mujhe tukur tukur takne lagte aisa lagta, mujhe meri ichha ke wiruddh kuch itar, kuch wishisht banane ka saDyantr chal raha hai aur ek aswikar samata raha awchetan mein papa kahte, jane kis dhatu ka bana hai! pure pariwar mein siddharth ki upadhi se main abhushait tha
“khair, ek laDka aisa hi sahi!” aur man sabki chintaon par staup laga diya kartin
presiDensi college mein dakhle ke baad pahli bar pariwar ki tamam bandishon se mili azadi, jagah jagah diwaron par likhe—paulitikal pawar phloz fraum d barel off d gun! naksalbaDir poth amader poth! jaise nare mao ki lal kitab, college street ke phutpathon tatha college skwayar park ke goldighi ke hone wale hetampur, widyasagar, yadawpur, shiwpur injiniyring college ke chhatron ke beech ke ghumantu charche! aise garm pariwesh mein pakne laga tha mera jhijhak bhara shant wyaktitw kuch hi dinon mein man ke awchetan mein daba aswikar sar uthane laga class to hum namamatr ko karte han, is beech bahut sa bahari sahity paDhne ko mila marx, aingels, hegel, lenin aur mao par wistrit charchaon mein shamil hone ka mauqa mila aur burjua, peti burjua, riwijnist, pratikriyawadi, homosepiyans, lal salam aadi nae nae shabd aa juDe mere shabdkosh mein aur inhin ke sath sath parichai ke phailte dayre mein aa juDa sachin sanghmitra ka pariwar, jahan aksar hi meri shamen guzarne lagin unke pita kalyanai sanatorium mein kshay ka upchaar kara rahe the aur unki anupasthiti hamare liye wardan sabit ho rahi thi kabhi kabhi hamare wad wiwad atirek mein itne teewr ho uthte ki baghal ke kaksh mein paDhti hui sanghmitra ghusse se uphanti hui, bhaDabhDakar kiwaD kholkar, dham dham panw patakti hui hamare beech aa khaDi hoti, i se staup dis naunsens! apne career ke sath sath mera career bhi le Dubega bulbul! sachin ko wo uske bulane wale nam bulbul se hi bulaya karti thi aur hum sannata kheench liya karte wartalap ki chinndiyan bikhar jatin
wo medical ki or medhawi chhatr thi, sachin se ek sal baDi hone ka labh uthakar guardian ki tarah Danta karti imtihan waghaira ke chakkar na hote to wo darwaze par khaDi khaDi hamari baten sunti aur mood mein aane par hamari puri battalion par akele hi tilmila dene wala sadha war karti, jo apna career nahin bana saka, wo society aur desh ka kya banayega?
“chup kor! protibha thakle je kone jayega theke scope kore newa jaye aar na thakle ”
“thak! thak!”
aur donon bhai bahan munh phula liya karte
un dinon sanghmitra ko main kanakhiyon se dekh liya karta aur yadakda wo ise mark kar liya karti magar kisi betakallufi ke abhaw mein uska astitw mere man mein ankhua nahin paya tha akhir wo jhijhak bhi toot gai digha ki picnic par wahan pahli bar main uske wyaktitw ke saundarya ke ghatak par abhibhut hua
main pani ke andar jane se Dar raha tha aur wo tane de baithi thi, ye himmat hai aur chale ho baghawat karne! mainne bataya, meri mammy ko kisi sadhu ne bataya tha ki meri maut pani mein hogi isiliye wahan pas hi ganga aur yahan goldighi ke pas rahkar bhi tairna seekh nahin saka aaj tak wo hanste hanste gir paDi thi mere badan par, “ oh! oh!! Dont mainD!” phir sachin ko ishara karte hue boli, ei je tumar joddhara ki bolo tomara lal sipai! sachin apni shikast se ubarne ke liye bola, didi kitni baDi ‘joddha hai jante ho? pahli bar lab mein murde ki cheer phaD dekhkar behosh ho gai thi —sach! mainne chiDhaya to wo chhichhle pani mein mujhe Dhakelti hui marne dauD paDi
“satta pa jane par tum bhi waise hi Dhal jaoge je jay lonka, sei hoy rawon!” anchal nichoDte hue wo kahne lagi, “dekhti hoon, baDe aaye ho khuni kranti karne wale, samaj aur wyawastha badalne wale, Dispairiti mitane wale! are, main kahti hoon, chulhe mein Dalo marx, lenin, mao, chao ko! adami apni prawrtti se hi hinsak hota hai, apradhwritti khatm karni hai to jeans badal Dalo jeens!”
puja ki chhuttiyon mein ghar aaya to papa sara kuch soongh baithe the aate waqt unhonne saftaur par mujhe bata diya ki paDhna hai to Dhang se paDho, warna chhoDkar chale aao mammy ne to mujhse ashwasan hi le liya ki main apne panw Dagmagane nahin dunga lekin kalkatta aane par phir betal Dal par wali baat ho jaya karti main na bhi jata to sanghmitra mujhe hostel mein hi bulane chali aati main jab kahta, wirokto koro na rani! (uska pukarne ka nam rani tha) to wo thitholi kar baithti, eso amar rajakumar, eso na! aur meri morchabandi bharabhrakar gir jati
mere sahityik rujhan par donon hi kuDha karte sachin bigaDkar bolta, bhawukta, chetna ka apawyay hai, Distraikshan hai ye laffaz, kamachor, mati ke sher, kranti ka sahity likhne wale in logon ko field mein le jaya jaye to peshab kar den in sabon ko kheton aur faiktariyon mein laga dena chahiye! phir wo wietnam, kamboDiya, laos, koriya, chili, kyuba, roos, cheen aadi ki baten le baithta sanghmitra to aksar isse bhi buri khinchai par utar aati, “tumhare jaise nainti parsent sahityakar ghor kami, suwidhawadi aur bhrasht hote hain tum to wibhishan ho is dal mein ban sakoge mukund das chheDe dau bongo nari, aar poDo na reshmi chuDi yu aar e peti burjua!”
“dekhte jao mera pahla war hoga meri haweli par !” main collar hila diya karta aur is par donon hans paDte
dhire dhire sachin ki gatiwidhiyan baDhti gain is beech ‘khatm karo abhiyan bhi chal nikla do ek bar wo mujhe bhi uttari bangal ke gharib kisanon ke beech wyawastha se mohbhang karane ke uddeshy se le gaya haDDiyon par maDhe hue cham dhansi panili ankhen, maile chithDe, shoshan ki jaD tak dekhti hui meri drishti paradarshi ho uthi agar main naksal nahin hua to sanghmitra ki wajah se, jo wahan se lautne par meri nazar utarne ke liye neshnal myuziyam, traupikal medicine, all india institute off fizikal haijin and medical sainsez ya aur nahin to ganga ke kinare paDe bainchon par baithakar mujhe jiwon aur sabhyata ka wikas samjhaya karti baton hi baton mein usne ek din bataya tha ki wo sachmuch khoj karna chahti hai jeans par aur ek utsahi nirpeksh adhyapak ki tarah bina lajja ke jenetiks aur manushya ke ang pratyang ki bahut sari baten bata Dali theen
sachin ne baad mein classen karna chhoD hi diya tha mainne sanghmitra se shikayat ki to uske aate hi wo fat paDi, kyon rulate ho bulbul! jante ho, baba t b ke peshent hain, main unhen ye sab bata nahin sakti isiliye na ! lekin sachin ko na rani ke ansu rok pae, na pariwar ki zimmedari thyoretikal parikshaon mein bhi wo anupasthit raha to akhiri parcha dete hi pata karne unke ghar ja pahuncha sham ki marakri niyon ki shokh battiyan jal uthi theen saDkon par magar us makan mein matr dhundhli raushani matam si baras rahi thi
“didi tomake jeteD howe! sachin rani se anunay kar raha tha, aur hat ta ek bareki uDe gechh hoy to bliDing hoei mara jabe ”
“ar kau ke pao nee?” rani boli
“kau ke niye gele sobi phas hoye jabe je ”
phir mere kandhe par hath rakhkar, weight til i ritarn! kahkar rani jo gai to aaj tak intizar karati rahi
baad ke chand sal sankramn ke sal rahe terrist sachin par tarah tarah ke muqadmon ke phande latak gaye the aur sanghmitra ka nam party ke prawar sangathankartaon mein gina jane laga tha uske wishay mein tarah tarah ke mith prachalit ho chale the ki khoon karne mein use kaisi khushi hoti hai! ab phalan phalan punjipati, rajaneta, afsar aur party ke wishwasaghatak uski suchi mein hai! phalan phalan ghuskhor afsar aur unchi fees lene wale doctor aur wakil ko to dhamki ka khat bhi aa chuka hai! ek murde ko chirte dekhkar behosh ho jane wali sanghmitra kahan se kahan pahunch gai thee!
meri sthiti kuch wichitr thi papa ne zabardasti presiDensi chhoDwa diya tha science chhoDkar, aarts lekar sosholauji mein main em e kar chuka tha aur kai tarah ke sankar sanskar mujhe aadha titar, aadha bater banakar chhoD gaye the ghar ki samrddh paranpra chhoDkar main union leaderi, samaj sewa aur pradhyapki tinon ko hi apne prayog ka kshaetr banaye hue tha sanghmitra se milne ke liye mainne tata ke jadugoDa ke jangal, andhr ke jangal aur dhan ke khet, madhya pardesh ke bihaD kahan ke chakkar nahin lagaye magar tab tak shayad wo bhaunaun, awegon se upar uth chuki thi shayad meri union, social serwice aur lekchararship hatasha ke zakhm ko dhakne ke sadhan matr the man ne saftaur par ailan kar diya tha ki mujhe har haalat mein unke pas rahna hai itni baDi haweli akele bhanya bhanya karti hai aur main har haalat mein wahan bana hua tha pitaji kuDe se bhi kaam layaq chizen nikal liya karte the ye unki banik buddhi kahun ya wilakshan buddhimatta, wo har cheez ko cash karana jante the apne swbhaw ke wiprit mujhe unhonne aaDe ulte protsahan dena shuru kiya unki kripa se prarambhik charnon mein hi saphaltayen milti gain aur ab main kai yuniynon ka adhyaksh ban baitha tha lekin papa ke liye ye matr meel ke patthar the, manzil nahin unka irada tha ki agami chunawon mein mujhe kahin se khaDa karwa denge shayad prantiy ya kendriy netritw ke samne ki pankti mein aane ki jo riktata mere akshay wat pariwar mein rah gai thi, wo mujhse puri ki jani thi lekin in sabse udasin rahkar jab mujhe apni lekchararship aur union waghaira mein ziyada wyast pane lage to ek din brenwash ke liye mere sosholauji wibhag ke head ke hathon ek nae parche ke roop mein unki nai yojna samne thi
“is par sain kar do ” wo bole
“yah kya hai?”
“tumhen shodh karne ki anumti dene ke liye darkhwast mere gaiDens mein ”
“lekin !” main uljhan mein paD gaya
“bila wajah mathapachchi kar rahe ho wishay tumhare pariwar ke log roz hi matha karte hain tumhein bus itna karna hai ki purani thisisen dekh sunkar kuch nae nots joDkar likh Dalna hai ”
“kaun sa wishay hai?” main utsuk hua
“crime!”
na jane kyon angrezi ka ye shabd sunte hi baheliye dwara mithun yugal kronch ko marne ki dardanak aur dahshat bhari awaz kanon mein ghul uthti hai jaise parindon ke shor se jangal goonj utha ho aur tap tap taza rakt tapak raha ho
mainne atirek mein unka hath pakaD liya, “main karunga, zarur karunga magar ek shart thisisen dekh sunkar nahin, swayan swatantr sarwekshan aur adhyayan karke ”
“theek hai ” is bar samne baithe papa swayan bol uthe samayik roop se mera dhyan hata pane mein saphal hokar we rahat ki nihashwas phenk baithe the
apradh aur apradhi ki prakrti aur prakar, wyaktigat aur pariweshgat sanskar aur uddipnayen, manowaij~nanik tatha samajashastriy wiwechan aur wishleshan karne hetu main ek thane se dusre thane ki filon mein bikhri ankaDon ki sankhyiki mein bhatak raha tha ki ek din ek thane ke bahar sachin ke pita rakhal babu ne pakaD liya we kafi badahwas lag rahe the unhonne bataya ki abhi abhi sachin ko pakaDkar isi thane mein le aaya gaya hai bahut mara hai, police ne kahte hue ankhon se ansu girne lage unke mainne darogha ko apna parichai dete hue is mamle mein sahanubhuti baratne ka anurodh kiya darogha mujhe liye liye andar aaye sachin ko unke kamre mein le aaya gaya unhonne niche panw hilate hue netanuma adarshwadita wale andaz e bayan mein kaha, “tum log kal ke bhawishya ho mujhe yuwa shakti ka is prakar apawyay hona bilkul pasand nahin ye bilawjah ka khoon kharaba aur apradhkarm chhoDkar adarsh nagarik kyon nahin bante?”
sachin, jiske chehre par pite jane ki aspasht chhap thi, chupchap ceiling fan ka nachna dekhta raha phir nak ka khoon banhon se ponchhkar tiraskar bhare swar mein bol paDa, “apko ye baat samajh mein nahin ayegi daroghaji, aap apne laDke ko bhej dijiye, use samjha dunga ”
daroghaji ekbargi apratihat ho uthe unhonne thook nigla aur kandhe uchkakar jhenp jhaDte se bole, “dain amadh helples!”
wo thana bhaiya ke adhikar kshaetr mein aata tha mainne rakhal babu ko ye ashwasan dekar wida kiya ki bhaiya se kahkar sachin ke liye koi kor kasar utha nahin rakhunga bhaiya ke pas pahuncha to unhen baat karne bhar ki fursat nahin thi koi party chal rahi thi wahan, kisi mantari ke daure ke baad sambhwat amantrit mehman police wibhag ke hi log the mera parichai aur research ka uddeshy jante hi charcha utar paDi police par ki wideshon mein police ko kitna wetan, atyadhunik upkarn aur suwidhayen tatha samman prapt hain
“magar yahan ki tarah wahan ke police station apradh ke briDing station to nahin hai!” mainne hastakshaep kiya meri baat ko ek warishth adhikari ne ho ho ho ho hansakar uDate hue kaha, “aman yar, hamin par sari tohmaten kyon? hum to nachne wale hain, nachane wala koi aur hai ”
“kuchh isi se milti julti baat we apradhi bhi kah rahe the, jinse shodh ke dauran main mila ”
“kya?” meri baat par taqriban sare log mere aas pas jama ho gaye the
“kahte the hum to weshya hai sab chhup chhupkar milte hain aur apna ullu sidha karte hain
magar bahar shan dikhane ke liye hamein gali dete hain ”
“rait! ab hamara hi dekha jaye ek or to hamari akshamata ke liye hamein kosa jata hai, dusri or hamare kaam mein tang aDai jati hai ek udaharn lijiye—hamne kisi ghunDe ko pakDa ab har gunD kisi na kisi em l e, em pi, sekretraya minister waghaira ka adami, ya adami ka adami nikal aata hai phone par phone! akhir wo bedagh chhoot jata hai phir kya rah gai hamari izzat! kabhi kabhi to imandari ki qimat hamein saspenshan mein chukani paD jati hai ”
“ek taraf kahenge, police ko apna acharn badalna chahiye, dusri taraf gande se gande kaam ke liye istemal karenge ” dusre kaddawar adhikari ne kaha
“yani police apne ghalat kamon ke liye swayan doshi nahin hai yahi n?”
is par ek sannata sa khinch gaya sharab ke nashe mein ek inspektar bahakne laga, “are sab! satta ke is thoDe se sukh mein hamne apna kya kya nahin ganwaya jati, dharm, iman, sabhyata, sanskriti! kahne ko to apne thane ke samne hamne bhi likhkar tegwa diya hai—“ham aapke sewak hain, hamare yogya koi sewa?” magar sewak ki winamrata se kaam karen to ho gai chhutti hamein ऑD, yooD, krooD bankar slang laingwejez istemal karni paDti hain, jallad ki tarah pesh aana paDta hai, isliye ek alag hi dictionary hoti hai hamari, ek alag hi achar sanhita hoti hai aur alag hi charitr hota hai hamara sab kuch alikhit, par wyawaharik!”
kafi raat gaye bheeD chhanti to bhabhi ne toka, “kab tak chhutuwa ghumte rahoge siddharth! tumhari yadhodhra rani kab ayengi?”
“rani!” zehn mein nach uthi “rani” aiso amar rajakumar, aiso na ! ek madiril sapna angDai leta hua pani mein rupahle bimb sa thartharaya socha, sachin ki baat bhaiya se shuru kar doon, magar is beech phone ghanaghna utha aur aisi bewaqufi karne se bach gaya bhaiya phone atenD karke aaye to kapDe badalne lage, bole, “tum aaye, koi baat bhi na ho saki aur udhar bulawa aa gaya koi khoon ho gaya hai fauran pahunchna hai kahan ye sone ki raat Dhile kapDe pahne we mantari log so rahe honge, jinki suraksha wyawastha ke liye sat dinon se mujhe tatha d em ko chain nahin tha aur kahan ye pamp shu numa bhari boot, krizdar chubhti pant aur shirt, stars, belt, riwaulwar waghaira lekar khuni dakuon, khatarnak naksaliyon ke pichhe mara mara phirun tumhein kaise bataun!”
bhabhi ka mazakiya mood ukhaD chuka tha we bolin, “dekho, apne ko bachana bahar tulsi chaura par mattha tekte jana!” aur bhaiya, bhabhi ki aagya ka palan karte hue chale gaye ek matami tanaw tan utha bhabhi baDi der tak ruansi, unki khair manati hui, jis tis ko kosti rahin ye aath nau sau ki tankhwah par raat raat bhar khatarnak apradhiyon ka pichha karna lanat hai aisi naukari par! black karne wale seth, mahine bhar mein lakhapati banne wale income tax, sels tax, whikals laisens wale aram se so rahe honge we neta tak kisi kharidi hui kaniz ko chiptaye, narm bichhaune par so rahe honge, jinke liye sare program saiDatraik karke unki suraksha ke liye band bajane walon ki tarah ghulam bankar aage pichhe chalna paDa aur we aise mein kahin kuch ho gaya to ? dewarji, tum chahe kuch bhi banna, police afsar qati mat banna ”
shukr tha ki bhaiya subah tak sahi salamat aa gaye thakawat ke bawjud mood achchha dekhkar jate jate mainne sachin ki baat chheD hi di mainne uske nirdosh aur imanadar hone ki baat kahkar sachin ki rihai ki baat ki to unka mood ukhaD gaya
“kal se hi dekh raha hoon, meri naukari khane par tule ho in chor Dakaiton ke liye main hastakshaep karun, tumhein ho kya gaya hai?” we ghuDak uthe
man mein to aaya ki puchhun, agar kisi minister ne kisi ghunDe ke liye yahi baat kahi hoti to we kya karte! magar chup rah gaya baad mein suna, ek pure ke pure naksal ganw ko aag laga dene ke puraskar swarup unki taraqqi ho gai thi
yaad aate hain nyayalyon ke ankaDe batorte we bhatakte hue din gram panchayton ke bane banaye farmulabaddh nyay prahsan, diwani aur faujadari ki rabar se bhi lachili aur khinchti hui karrwaiyan unchi kursi par baithe apni tamam tam jham ke bawjud shrihin jaj, sarkari aur muddi paksh ke wakilon ke bahsne aur wihansane ki kalayen nyay mandiron ke kitne hi manzar kisi documentary film ki tarah yadon ke parde par ubharne lagte hain nyay ki pratyasha mein aagat ubti, murjhati bheeD, mithaiyon ki dukanon par Dakarti aur lalkarti hui nakli gawahon ki toliyan, purane parche aur kaghzaton ke banDal sambhale ahalmad aur munim, ranDiyon ke dalalon ki tarah asami phansate hue wakilon ke dalal, kale coat pahne hue wakilon ki chahalaqadmi, beech beech mein asami hazir ho ki awaz lagata court ardali, dryer kholkar do do rupyon par farzi muqadmon ki tarikh baDhate peshakar
we sardiyon ke din the katakhani shitalhar chal rahi thi main kachahri ke bahar dhoop mein papa ke ek mitr se baat kar raha tha ki ek rickshaw ruka aakar mere pas dekha to jarjar klant rakhal babu utar rahe the kanpte hue unhonne ek nazar charon taraf ka muayna kiya, phir ek kone mein mujhe le aaye
“baDi mushkil se mile kahan kahan nahin pata lagaya mainne!”
“koi nai baat ?”
“han, sachin ka muqadma tumhare baba (papa) ke pas aaye, aisi wyawastha mainne kar li hai ”
“achchha!”
“baqi tumhein dekhana hai main marne ke pahle use nirdosh dekhana chahta hoon mera beta, meri beti nirdosh hain ”
“apko sanatorium chhoDkar is tarah nahin aana chahiye tha, unke liye bhi aapko zinda rahna hai ” unhen rikshe par baithakar main usi din papa ke pas chala aaya
papa mujhe aaya dekhkar khush hue shodh ke wishay mein meri pragti par santosh zahir karte hue, nyay ke prati mere drishtikon ka samarthan karte hue bole, “desh bhar mein jane kitna annyaye hota hai aur usmen se jane kitne aa pate hain hamare pas aur jane kitnon ka sahi faisla kar pate hain ham! ab dekho, wakil nyay ke dewadut hain aur inka charitr ! jo jitne bhayankar apradhi ko, jitni jaldi nirapradh siddh kar de, wo utna hi saphal wakil hai phir jaj ka dil aur dimagh, nyay ki wyawastha bhi kam karamati nahin hai ek court se jo haar jaye, dusri court se jeet jata hai penalkoD mein kai dharayen tak trutipurn hain ”
“yani nyay wo taral padarth hai jise jis patr mein Dhaal den, waisa hi Dhal jayega ”
“sahity mein tumhein zor azmana chahiye ” papa hans paDe the
“aur sone aur chandi ke patron mein ye ziyada shobhta hai ” papa ki hansi murjhane lagi we chaukanne ho gaye, “kuchh kahna chahte ho?”
“pachchis tarikh ko jiska muqadma apaki adlat mein pesh hone wala hai, apradhi nahin hai manawta ke prati puri tarah nishthawan yuwak hai ”
“yu meen dait nakslait?”
“ji, chunki aap ek pita hai, at pita ke dil ka dard samajhte hain t b se marnasann pita ki ek hi khwahish hai ki wo apne nirdosh bete ko nirdosh bari dekhkar mare ”
papa ne cigar jala liya kuch der tak khali khali ankhon se diwaron par dekhte rahe, phir ek sadhi hui awaz mein bole, “bete, hum jise nyay kahte hain, wo tathy sapeksh hai, saty sapeksh nahin hai tathy ka praman swayan mein samarthy sapeksh hai, at nirnay lachila hota hai hamara to yoon jaan lo, bus ek dayara hota hai police eph i aar prastut karti hai, charjshit pesh karti hai, gawah hote hain, apradh ke sabut, abhiyukt ki safai ka daur aata hai, wakil hote hain, kanun ki kitaben hoti hain in sabmen se parat dar parat jo nishkarsh chhan chhankar aata hai, hum wahi nirnay to de sakte hain aur phir tum jiski sifarish karne aaye ho, uska to muqabala hi satta se hai, jo hamesha nyayapalika par hawi rahti hai!”
“yani aapke siddhant banjh hai?”
papa gambhir ho gaye bole, “dekho, khoon meri ragon mein bhi bahta hai, par main tumhari tarah moorkh aur bhawnajiwi nahin tumhein malum nahin hoga, si b i wale kab ke tumhare wiruddh qadam utha chuke hote bachte aaye ho to apne jijaji ke chalte lekin yahi rawaiya raha to i fainli warn yu tu meinD yorselph!” bujha cigar phenkkar wo uthkar bechaini mein chalne lage aur main sar pakaDkar baith gaya
muqadme ka nirnayak din bhi aa gaya wakil ke lakh samjhane ke bawjud sachin ne ek shabd tak na kaha apni safai mein, siway us byan ke, jo jab bhi yadon ko kuredta hai to harf dar harf wisphot karta sholon ke ambar bhar deta hai zehn mein, “mujhe is punjiwadi, pratikriyawadi, nyay wyawastha mein wishwas nahin hai aam janta bhi jise nyay ka mandir kahti hai, wo luteron, panDon aur juta choron se bhara paDa hai yahan aate hi chaprasi, ahalmad, nazir, peshakar, qanungo se lekar kala libada oDhe wakil aur gita tatha gangajal ki qasmen khakar jhuthi gawahiyan dene wale gawah, ye tamam kutte nochne khasotne lagte hain use ye lal thane, lal jelkhane aur lal kachahariyan in par kitne beqsuron ka khoon puta hai wakilon aur jajon ka kala gown na jane kitne khoon ke dhabbon ko chhupaye hue hai! pariwartan ke mahan raste mein ek mukam aisa bhi ayega, jis din inhen apna charitr badalna hoga, warna inki robili bulandiyan dhool chatti nazar ayengi!”
wakil zoron se cheekh paDa, “yor ऑnar, dis ij kliyarli d kentempt off court!”
bahar shor mach gaya jaj ki kursi par baithe papa cheekh paDe, “order! order!!” aur muddi paksh ka wakil sachin ko pagal sabit karne mein lag gaya, taki use bacha sake
sachin ko apradhi karar dete hue saza ho gai faisla sunte hi mere pas hi baithe rakhal babu phaphak phaphak kar ro paDe mujhe yaad hai, mainne unhen sahara dekar rikshe par baithaya tha baad mein hamne suna ki jel se jate samay, raste mein hi peshab karne ke bahane, jangalon mein sachin aisa ghayab hua ki police DhunDhati rah gai rog aur chinta se jarjar rakhal babu ye sadma bardasht na kar pae aur rani aur bulbul ko nirdosh dekhne ka sapna liye hue hi duniya se chale gaye police unki mirtyu ke do din baad tak sanatorium ke charon or sade libas mein ghumti rahi, magar na rani i, na bulbul! lash jab saDne lagi to police ki madad se sanatorium walon ne hi uski antyeshti ki
aur ab nari niketan, baal apradh sudhar grih, rifaurmetriz hote hue karagrih! unchi unchi diwaren, salakhondar mazbut phatak, apradhi qaidiyon ka samudr! kone kone par unche machanon par banduq sadhe unghte sipahi! wibhinn sutron se pata laga tha ki sachin nam ka ek bangali yuwak aur sanghmitra nam ki ek aurat, kuch din hue transafar hokar, sentral jel mein aaye hain jald hi mainne shodh ke nimitt sentral jel jane ki anumti prapt kar li
wishal raqbe mein bikhri durbhedy badsurat diwaron se ghiri kendriy kara! kara adhikshak, jo mere magistrate bhaiya ke mitr the, mujhe batate chal rahe the, ye jel bharat ki sabse baDi jailon se ek selyular jel hai cycle spoks ki akriti mein phaile hue cell dhuri par kendribhut ho uthte hain, jahan se control tower in sab par nigrani rakh sakta hai ye rahe karkhane kapDe, dariyan, kath aur lohe ke chhitput saman banate hue, ye rahi layabreri, wo raha medical, ye raha pagalon ka daDba, ye wishal bheeD, jo dekh rahe ho ye rahe hajati udhar un alag alag qataron mein rahte hain state prijnars baDe baDe neta, widwan, lekhak rah chuke hain yahan! ek nazar mere upar paDe prabhaw ka muayna karke we phir shuru ho gaye, “ye partition janana cell ke liye hai koi pasand aaye to bolna ” apne hi mazak par we kheen kheen karte hue hans paDe aur diwar ke pas meri kalpana mein sanghmitra ubharne lagi magar tatkshan hi swaraghat se toot gai
“yah raha t cell sabse khatarnak apradhi yahan rakhe jate hain kis prakar ke kitne qaidi hain, unki sankhya tumhein is suchi se mil jayegi ” unhonne diwar par tegi suchi ki or ishara kiya, “ye jagah jagah tangi hui hain mujhe, afsos hai, tumhein hum phansi ke kisi qaidi se nahin milwa sakenge ” hanste hue unhonne suchi mein mrityudanD danDit qaidiyon ke aage ishara kiya, wahan cross laga hua hai kantroling tower par se unhonne mujhe door sthit phansi ke manch aur wiran kanDemD cell bhi dikhaye
“kahan kahan jana hai, kya kya sawal kar sakte ho, iski sharten tumhein di ja chuki hai, phir bhi ehtiyat ke taur par bata doon, cell number 15, 16, 17 mein mat jana naksali cell hai
kuch hi dinon mein un sabse ub gaya safed dhoti, haf qamiz, takhnon tak ka pajama meri pardarshini nazar inmen apradh ke chinh DhunDhane mein asaphal rahi ye sawal barabar konchta raha ki akhir kaun si majburi hai ki log apradh mein prawrtt ho jate hain aur wo kaun si wibhajan rekha hai, jiske tahat ye shinakht kiye ja sakte hain sara mamla sarson mein bhoot jaisa wirodhabhason se grast tha nari niketan, baal apradh sudhar grih aur rifaurmetriz ke siddhanton aur acharnon mein gahri khai thi qaidiyon ke nam par milne wala rashan khate hue jel ke karmachari, ke bhent ban bankar raj karte hue dhakaD dada qaidi, uske tatha jel ke zarakhrid ghulam bane riste aur piste hue piddi qaidi, wahi warg wibhajan, wahi warn wibhajan, jel ki badsurat unchi prachiron mein ghutkar rah jane wali yatnaon ki chikhen aur almariyon mein qarine se saji, par jale ki zanjiron mein bandhi jel mainuals ki pothyan! wo selyular jel mujhe makDi ke jale jaisa laga reshe reshe mein aa bindhe the insan aur beech mein makDi ke sthan par khaDa tha kantroling tower!
jazbaton ki tarah jalte hue din qaidiyon ke samudr mein Dubte utrate, santarn karte hue bujh rahe the aur duःswapnon jaisi naummid lambi raten police mainuals, jel mainuals, sosholauji, saikolaॉji, ankaDon, grafon mein tirohit ho rahi theen meri ek khoj puri ho rahi thi aur ek ka kool kinara bhi nazar nahin aa raha tha Despret hokar ek din jel supritenDent ke daftar mein ja pahuncha we us samay ek nawagat naksali qaidi se jane kya ugalwane ke chakkar mein pareshan ho rahe the mere samne ek hi zoron ka mukka uske jaDon par paDa aur uska chashma door ja chhitka we phir se baDi nirdaytapurwak uske balon ko pakaDkar nachane lage mujhe dekha to wapas le jane ka hukm dekar baith gaye naksali yuwak apna khoon ponchhne ki bajay apna chashma tatolne laga chashme ke abhaw mein uski sthiti andhe jaisi ho rahi thi mujhse raha na gaya mainne swayan chashma uthakar use diya, to pata chala, uske kanch darak chuke the
“sale ne mood off kar diya han, tum kaho apni ” jel adhikshak prakrtisth hone ki koshish mein muskaye
“mujhe sanghmitra aur sachin se milna hai zaruri tafati ke liye ”
“sachin se to nahin mil sakte, upar se bina anumti prapt kiye han, sanghmitra ko bulwaye deta hoon ” unke hukm par thoDi der mein ek met ek yuwati ko lekar upasthit hua
“lo, aa gai!” we bhadde andaj mein muskuraye
“ise wapas pahunchane ko kah dijiye ” main jhunjhla paDa, “mujhe jis sanghmitra ki talash thi, wo ye nahin ”
“baDa sangin apradh kiya hai usne tumhare sath aisa lagta hai magar tum use jel mein kyon DhunDhate phir rahe ho?”
“phir bataunga kabhi ” nirasha mein mere honth jaD ho rahe the sanghmitra mere liye ab bhi marichika hi thi
akhir we kshan aa gaye, jabki pratibandhit selon ka tilism sailab bankar jel ki diwaron ke bahar bahne laga diwali ki raat thi wo krekar aur atishbaziyan chhoot rahi theen magar jel ke andar bhala kyon ? aur wo dahshat bhari pagli ghanti par paglata hua police dasta! andar ke kai phatak toDkar naksali ab sadar phatak par bam barsa rahe the police ke sipahiyon ne kai ek ko zamin par sula diya, magar we samuhik roop se police daste se bhiD gaye aur thoDi hi der mein banduqen unke hathon mein theen laga ki phatak ab tuta ki tab tabhi hamne dekha, qaidiyon ki wishal bheeD, jo banduqon aur any shastron se lais thi, naksali qaidiyon par toot paDi sadar darwaze ke upar ke do manzilon ki khiDki se mainne wo rongte khaDe kar dene wali qaidiyon ki laDai dekhi thoDe hi der mein phulon aur sabziyon ki kyariyan, bajri ki saDken lashon aur ghaylon se pat gain maik se jab ye ailan kiya gaya ki baqi qaidi naksal qaidiyon ko unke selon mein pahunchakar, apne apne warDnon ke pas ginti ke liye chale jayen, to ghayal aur bache khuche naksali qaidiyon ko Dhor Dangre ki tarah marte aur hanphate hue qaidi laut paDe
thoDi der baad adhikshak mahoday ke daftar mein pratibandhit naksali selon ka ek warDan puri kahani batane laga, “gasht ka sipahi jamunalal jab ek naksal qaidi nan sat sau pachhattar ” main chaunka, sachin! jo bhi ho usne baat aage baDhai, “uske kamre ko sandigdh jaan kholkar dekhana chaha to usne janjir bandhe hathon ka phanda lagakar uske gale ko kas diya phir uski jeb se chabi nikalkar cell nan satrah ko azad kar diya isi tarah shayad aur cell bhi diwali ki raat hone ke nate thoDi ghaltafahmi bhi hui sab, agar met ne chalaki karke bina puchhe hi tamam khatarnak apradhiyon ko nahin chhoD diya hota, unhen thanDa karne ko, to nak kat hi gai hoti ”
“steel tarnings to leth aur Dril mashinon se unhonne baramad kiya hoga, magar pikrik esiD, potash waghaira ??” bam ke ek khol ko dekhte hue adhikshak ghusse se pagal ho gaye Dar ke mare log sannate mein aa gaye we dahaDne lage, “police ki zat sali theek hi ghoos ke liye badnam hai zara se paison ke liye sale bik gaye, warna jahan parinda tak par nahin mar sakta, wahan bam aa jaye!” dhire dhire log khisak gaye mrit aur ghaylon ko shahr bhej diya gaya aur diwali ki raat matam ki kali raat bankar Dasne lagi hamein bachpan mein yada kada door se kali mandir ki pathshalaon ko dekha karta tha, jahan guruji laDkon se hi shreshth hua karte the aur yahan chor, Daku, wyabhichari, sazayafta qaidi, buddhijiwi naksaliyon ko peet rahe the mujhe apradh aur apradhi ka writt phailta sa laga man ruansa ho chala, na khana gale se niche utra, na kisi se baat hi karne ko ji chaha tan aur man ki hararat taifaiD mein tabdil ho gai aur main ek lambe arse tak bimari se nibatne aur swasthy labh karne mein laga raha is beech mere guide head sahab, shodh ko dekhkar, yunik qarar de gaye the jel adhikshak mere papa ke prabhaw ke karan muattal hone se bach gaye the unki kripa se prant ki sari jailon ki mahila qaidiyon ki suchi mainne dekh li thi sanghmitra ka pata nahin chal saka tha shodh ka kat sametne ki garaz se, jis din pun kendriy kara pahuncha, to papa ki jaldi wapas aa jane ki hidayti chitthi aur naksali selon mein ek bar jane ki anumti patr sath hi mila
mere pratikshait diwas ka ek ek drishya tanga hai ankhon ke samne mere sath sath police ka ek sipahi, cell nan satrah ka warDan aur met bhi chal rahe the mere hathon mein shodh ki file thi sare ke sare qaidi jawan the aur nichuDe chehron ke bawjud mast the we hamein dekhkar ajib Dhang se sitiyan baja rahe the kuch puchhne par kahte, “kahan ka pilla tahal raha hai?” bahnoi khojne chala hai shayad! ye chalega ?
met batane laga, “inkwayri commission ke samne bhi inki yahi gandi harkaten rahi aap soch sakte hain, usmen kya hua hoga” ek kamre ke samne ruk gaya warDan salakhondar phatak ke andar se jhankte sachin ko main sahsa pahchan na pata, agar warDan ne bataya na hota uske hath panw zanjiron se bandhe the baDhe hue rukhe baal, baDhi hui daDhi, kotron mein phansi jalti ankhen aur baDhe hue nakhun kul milakar koDhiyon ki shakl de gaye the atmiyata mein Dubte utrate main bol paDa, “sachin, mujhe pahchante ho, main !”
“han han, pahchanunga kyon nahin khuni jaj ka beta, lutere aur makkar s pi aur magistrate ka bhai, badalte bhrasht mantriyon ke shashwat ghulam sekretari ka sala!”
main kinchit apratibh hua, par uski baat hansakar uDa di, “bulbul, sach mano, mera koi bura irada nahin hai, crime par shodh kar raha hoon tumhara ek interwiew !!”
“puchho ”
file khol qalam nikalkar puri gambhirta se mainne sawal kiya, “log wyaktigat swarth ke liye ya attyachar ke khilaf astra uthate hain, tum log samuhik swarth aur eksaplayteshan ke khilaf magar karte ho tum bhi apradh hi kya hinsa se hinsa ko aur nafar se nafar ko dabaya ja sakta hai?” sawal ke shesh hote na hote usne abhadrata se pad diya main bhinna utha mujhe nafasat sikhane wala sachin kya yahi tha! main biphar paDa, “mera apman karne se sawal nahin tal jayega bulbul, tum log kisi par to wishwas karoge ! ye sanshay ka mahabharat kab tak?”
“maf karna yar, itna garishth sawal sunkar pet mein zara gas ho gai thi itni bhari baten pach nahin patin?” phir usne lahja badalte hue puchha, “to tum pi ech d paoge n?”
“han!” main uske tewar ko taulne laga
“phir koi uncha ohda ?”
“shayad!”
“zara file dekh sakta hoon?”
main pahle hichka magar uski purani antrangta ka khayal karke file use de di, phir man ki lalsa zaban par i, “bulbul, pleej bataoge rani kahan hai?” meri baat jaise usne suni hi nahin file ke panne palatte hue bol paDa, to tumne itne wibhinn prakar ke apradhiyon aur qaidiyon ka adhyayan kiya hai? wah! aur ye darshanik paksh taipen, rekbes, maris, taipht, kolDrain, plato kamal hai! itte sare ankaDe, grafs, kamperetiw enD riletiw enalisis sarwe jel mein mile in logon se?”
“han!” main phool gaya apni prashansa par magar ekayek use jaise sannipat ho gaya, “to tumne itne qaidiyon ka apman kiya hai! aur is apman ko bhunakar tum sammanit hona chahte ho! isiliye ye dalali aur sawalon ke chonchle! tumhari niyat apradh mitane ki nahin, us par phalne phulne ki hai! main puchhta hoon, kisne tumhein aane diya andar? ise chiDiyakhana samajh rakha hai kya? ijant totli inhymen two enjway enD cash e priznars tragedy? ijant most hiniyas crime i aask! i wote elau yoo!” usne file utha li hath ki zanjiren jhanak uthi mere dil ki dhaDkanen baDh gain
“ruko ruko!” pichhe se kara adhikshak aate hue bole, “mujhe malum nahin tha ki tum inke dost ho dekho, Dont b impeshent afsos hai, itne sangin apradh tumne kiye hain ki court se kabhi bhi phansi ka parwana aa sakta hai tumhare samne tumhare mitr ek adarsh hain tum apradh mein prawrtt ho aur wo usse niwrtti ke upayon par shodh kar raha hai agar tum abhi se bhi ripent karte hue apne aap ko sudharo to rashtrapti ke pas marsi petishan ke tahat tumhein bacha lene mein hum kuch utha nahin rakhenge ” unka itna kahna tha ki sachin ke munh ka balgham unke mukh par tale sa ja chipka aur file mere munh par panne panne chhitra gaye aur main pagalon ki tarah jaldi jaldi batorne laga, apni amuly nidhi ko
warDan dauDkar pani lane chala gaya aur met aur sipahi, kahin se do chhaD lakar lage konchne aur pitne berahmi se use jaise circus ke kisi khankhar pashu ke achanak hinsak ho uthne par circus ke naukar kiya karte hain wo ghon ghon karke chitkar kar raha tha kara adhikshak ne hi na chhuDwaya hota to shayad uski jaan lekar chhoDte
saman jeep mein rakha ja chuka tha bus, kara adhikshak ki rah dekh raha tha jailor ko kuch hidayaten dekar unhen laut aana tha yoon aur din hota to jel ke andar hi unse mil aata, par us ghatna ke baad se man kaisa kaisa ho gaya tha aur beech ke teen din, shodh ke bikhre kamon ko tartib dene ke uddeshy se, main apne manjhale bhaiya ke yahan guzarkar aaya tha kara adhikshak udas sa chehra liye aakar ruke mere pas, “jab tum pahle pahal aaye the to mainne mazak kiya tha ki mujhe afsos hai, phansi ke qaidi se nahin milwa sakunga tumhein magar tab nahin janta tha ki jate samay mazak kroor saty bankar samne ayega ”
main chupchap takne laga unhen
“sachin ko kanDemD mein le jaya gaya hai phansi tak wahin rahega wo miloge nahin usse jate samay?” unki awaz bhigi hui thi
mere honth thartharaye, par awaz nahin phuti yantrachlit sa unke pichhe pichhe chal paDa mainne ghaur kiya, mukhyadwar se kantroling tower tak ki sabhi suchiyon mein pariwartan kar diya gaya tha—mrityudanD danDit qaidi, kul sankhya ek
sachin mujhe dekhte hi sinkhchon ke pas aa gaya, “aj shayad ja rahe ho?” pahal usi ne ki
“ ”
“meri phansi tak nahin rukoge? wyawastha ki pithika par tange mere wajud ke sawaliya nishan se katrane laga hai tumhara shodh!” uski wyangya bhari hansi niruttar kar gai mujhe main nirwak nirnimesh takta raha use
“rani ko poochh rahe the na us din?”
“han!” meri sari chetna misat i uske sawal par
“shi haiD been brutli bucharD lang ego ”
“kaise?” main cheekh paDa
“uske guptang mein rool ghusakar mathkar mara gaya ”
“oh! oh!!” karhate hue aaweg mein mainne sinkhchon ko pakaDkar jhakjhor dena chaha, magar we sard aur sakht the ankhon ke aage andhera chha gaya medical ki medhawi chhatra, jenetiks par research karne ka dam bharne wali rani, ek samany police ke hathon crime! laga, abhi abhi kronchwadh hua hai fi mein door door tak dahshat bhari dardanak chikhen bhar uthi hai
iske baad na kuch wo bol paya, na main usne mera kandha thapthapaya aur pathrai ankhon se hum juda ho gaye
jel se apni ek puri duniya ganwakar laut raha hoon pata nahin papa mere shodhkarya ko kaise bhunayenge! magar shodh abhi hua kahan pura! hydrogen bam ke nyukliyar fizan ki shrrinkhla ki tarah apradh ka raktbiz phailta hi ja raha hai thahraw? train chali ja rahi hai aur shodh ke panne phaDphaDa rahe hain mere dimagh mein anaksimenDar kalDran ke anusar kya yahi man lena hoga ki manushya ka sabse baDa apradh yahi hai ki janma hone matr se wo dusre ke astitw mein badhak hai? plato ne yahan tak kaha hai ki apradh bhi pratibhasampann wekti hi kar sakte hain Darwin ki theory off iwolyushan mein zinda rahne ke liye sablon, samarthon ka nirblon, asmarthon par yahi apradh bhara sangharsh nahin hai? hegel ne bhi kya sankramn aur sandhat ke isi nayakatw ko nahin swikara? marx ki wastu aur kriyaon ke ghat pratighat ki baat mein isi sangharsh ka dusra roop nahin hai? aage baDhne ki andhi dauD mein kaun dekhne jata hai ki kaun kuchla gaya? shayad rani hi theek kahti thi, apradh khatm karna hai to nasl hi badal Dalo
dimagh nana prakar ke gaDDmaDD wicharon se bajabja utha hai nana prakar ke drishyon ke bulbule uth uthkar phoot rahe hain ankhon mein pura ka pura ganw dhu dhu karke jal raha hai, kankalanuma chehre kinhin agyat panjon se bachne ke liye betahasha bhage ja rahe hain, sahmi hui, kosti aur manautiyan karti bhabhi, baDe aur baDe hote hue bhaiya tatha papa ke chehre, thenthte hue police aur ghunDe, Dakarte hue nakli gawah, baal pakaD jhatke ja rahe pet pakDe nakslait yuwak ka darka chashma! theek ankhon ke samne rani taDap taDapkar ainth Dhenthkar mar rahi hai, sachin ko konch konchkar mara ja raha hai sharmindagi aur santras aur matam! inke upar dhire dhire ek sawaliya nishan ki tarah jhool rahi hai phansi ke phande mein sachin ki lash!
main pasina pasina ho uthta hoon swasth hone ke liye khiDki kholkar bahar jhankta hoon to lagta hai, andhere ki surang kisi raktasnan prantar mein aakar wilin ho chali hai gaDi dhime dhime ganga ke pul par reng rahi hai yani chand minton mein mere station mein dakhil ho jayegi subah ki lali se lal hui ganga dekhkar lagta hai, aadim pashan yug se khoon hi bahta raha hai ismen! kya hai meri aur mere shodh ki samarthy aur sima? apradh ki lap lapati barbar lapton mein unhin lapton mein, jinmen ahuti bankar lakhon karoDon nirapradh, nishthawan tejaswi atmayen, mera mitr, meri rani tak sama chuke hain, apne hath senkne ke siwa ye hai kya? isse baDhkar garhit apradh aur kya ho sakta hai? kar sakunga main satta, wyawastha aur samaj ke tamam apradhi purzon ko jel mein? shayad nahin, kyonki main pairasait hoon unka, kyonki we mere apne pita, bhai swajan, mitr aur auzar hain phir ye shodh ? kitna ganda mazak hai ye shodh! mere hath lahrate hain aur shodh ki puri file chhapak se ganga mein ja girti hai lagta hai, sine par paDa hua apradh ka pahaD phisalkar ja gira hai ganga mein
station par utarte hi agwani ke liye aaye wibhagadhyaksh ke sath man ko dekhkar yaad aata hai sadhu ne shayad theek hi kaha tha ki meri maut pani mein hogi! pura bhawishya Duba diya hai mainne pani mein aur widrup mein mere honth teDhe ho uthe hain
raat ke khaufnak andhere ko chirte hue meri train bhagti ja rahi hai ek andheri surang hai ki mere samuche astitw ko nigalti ja rahi hai yoon mainne sari khiDkiyan band kar li hain, phir bhi ek shor hai ki jism ke purze purze dhamak rahe hain, yadon ka ek qafila hai ki mere maru man ka zarra zarra kunamunakar takne lagta hai
zehn mein dhire dhire akar le rahi hai ek haweli qasbe mein wyawastha aur satta ki pratik meri haweli—kanchanjangha dhire dhire kai chehre ubhar rahe hain, prabhusatta robile session jaj papa, s pi —baDe bhaiya, jiladhish—chhote bhaiya, grih wibhag ke sachiw—jija, unke prabhaw ka ehsas karati hui gawili bahan, sabke apne apne posteD jilon mein chale jane par udas rajmata ki tarah mammy, na jane kitne mantriyon, afsaron aur unche ohde walon ke gaDDmaDD chehre! ek ajib sa khinchaw, ek ajib sa khauf samaya rahta hai yahan ke logon mein kanchanjangha ke prati mainne bachpan se hi is khinchaw ka anubhaw kiya hai kapDe ki ball aur piDhe ka balla banakar khele ja rahe cricket ya kanch ki goliyon jaise khel, gawarnes, khansama, daiyan, tyutars, sent wisent aur sent paitriks schoolon mein palte mere wajud ko dekhkar tham jate aur we mujhe tukur tukur takne lagte aisa lagta, mujhe meri ichha ke wiruddh kuch itar, kuch wishisht banane ka saDyantr chal raha hai aur ek aswikar samata raha awchetan mein papa kahte, jane kis dhatu ka bana hai! pure pariwar mein siddharth ki upadhi se main abhushait tha
“khair, ek laDka aisa hi sahi!” aur man sabki chintaon par staup laga diya kartin
presiDensi college mein dakhle ke baad pahli bar pariwar ki tamam bandishon se mili azadi, jagah jagah diwaron par likhe—paulitikal pawar phloz fraum d barel off d gun! naksalbaDir poth amader poth! jaise nare mao ki lal kitab, college street ke phutpathon tatha college skwayar park ke goldighi ke hone wale hetampur, widyasagar, yadawpur, shiwpur injiniyring college ke chhatron ke beech ke ghumantu charche! aise garm pariwesh mein pakne laga tha mera jhijhak bhara shant wyaktitw kuch hi dinon mein man ke awchetan mein daba aswikar sar uthane laga class to hum namamatr ko karte han, is beech bahut sa bahari sahity paDhne ko mila marx, aingels, hegel, lenin aur mao par wistrit charchaon mein shamil hone ka mauqa mila aur burjua, peti burjua, riwijnist, pratikriyawadi, homosepiyans, lal salam aadi nae nae shabd aa juDe mere shabdkosh mein aur inhin ke sath sath parichai ke phailte dayre mein aa juDa sachin sanghmitra ka pariwar, jahan aksar hi meri shamen guzarne lagin unke pita kalyanai sanatorium mein kshay ka upchaar kara rahe the aur unki anupasthiti hamare liye wardan sabit ho rahi thi kabhi kabhi hamare wad wiwad atirek mein itne teewr ho uthte ki baghal ke kaksh mein paDhti hui sanghmitra ghusse se uphanti hui, bhaDabhDakar kiwaD kholkar, dham dham panw patakti hui hamare beech aa khaDi hoti, i se staup dis naunsens! apne career ke sath sath mera career bhi le Dubega bulbul! sachin ko wo uske bulane wale nam bulbul se hi bulaya karti thi aur hum sannata kheench liya karte wartalap ki chinndiyan bikhar jatin
wo medical ki or medhawi chhatr thi, sachin se ek sal baDi hone ka labh uthakar guardian ki tarah Danta karti imtihan waghaira ke chakkar na hote to wo darwaze par khaDi khaDi hamari baten sunti aur mood mein aane par hamari puri battalion par akele hi tilmila dene wala sadha war karti, jo apna career nahin bana saka, wo society aur desh ka kya banayega?
“chup kor! protibha thakle je kone jayega theke scope kore newa jaye aar na thakle ”
“thak! thak!”
aur donon bhai bahan munh phula liya karte
un dinon sanghmitra ko main kanakhiyon se dekh liya karta aur yadakda wo ise mark kar liya karti magar kisi betakallufi ke abhaw mein uska astitw mere man mein ankhua nahin paya tha akhir wo jhijhak bhi toot gai digha ki picnic par wahan pahli bar main uske wyaktitw ke saundarya ke ghatak par abhibhut hua
main pani ke andar jane se Dar raha tha aur wo tane de baithi thi, ye himmat hai aur chale ho baghawat karne! mainne bataya, meri mammy ko kisi sadhu ne bataya tha ki meri maut pani mein hogi isiliye wahan pas hi ganga aur yahan goldighi ke pas rahkar bhi tairna seekh nahin saka aaj tak wo hanste hanste gir paDi thi mere badan par, “ oh! oh!! Dont mainD!” phir sachin ko ishara karte hue boli, ei je tumar joddhara ki bolo tomara lal sipai! sachin apni shikast se ubarne ke liye bola, didi kitni baDi ‘joddha hai jante ho? pahli bar lab mein murde ki cheer phaD dekhkar behosh ho gai thi —sach! mainne chiDhaya to wo chhichhle pani mein mujhe Dhakelti hui marne dauD paDi
“satta pa jane par tum bhi waise hi Dhal jaoge je jay lonka, sei hoy rawon!” anchal nichoDte hue wo kahne lagi, “dekhti hoon, baDe aaye ho khuni kranti karne wale, samaj aur wyawastha badalne wale, Dispairiti mitane wale! are, main kahti hoon, chulhe mein Dalo marx, lenin, mao, chao ko! adami apni prawrtti se hi hinsak hota hai, apradhwritti khatm karni hai to jeans badal Dalo jeens!”
puja ki chhuttiyon mein ghar aaya to papa sara kuch soongh baithe the aate waqt unhonne saftaur par mujhe bata diya ki paDhna hai to Dhang se paDho, warna chhoDkar chale aao mammy ne to mujhse ashwasan hi le liya ki main apne panw Dagmagane nahin dunga lekin kalkatta aane par phir betal Dal par wali baat ho jaya karti main na bhi jata to sanghmitra mujhe hostel mein hi bulane chali aati main jab kahta, wirokto koro na rani! (uska pukarne ka nam rani tha) to wo thitholi kar baithti, eso amar rajakumar, eso na! aur meri morchabandi bharabhrakar gir jati
mere sahityik rujhan par donon hi kuDha karte sachin bigaDkar bolta, bhawukta, chetna ka apawyay hai, Distraikshan hai ye laffaz, kamachor, mati ke sher, kranti ka sahity likhne wale in logon ko field mein le jaya jaye to peshab kar den in sabon ko kheton aur faiktariyon mein laga dena chahiye! phir wo wietnam, kamboDiya, laos, koriya, chili, kyuba, roos, cheen aadi ki baten le baithta sanghmitra to aksar isse bhi buri khinchai par utar aati, “tumhare jaise nainti parsent sahityakar ghor kami, suwidhawadi aur bhrasht hote hain tum to wibhishan ho is dal mein ban sakoge mukund das chheDe dau bongo nari, aar poDo na reshmi chuDi yu aar e peti burjua!”
“dekhte jao mera pahla war hoga meri haweli par !” main collar hila diya karta aur is par donon hans paDte
dhire dhire sachin ki gatiwidhiyan baDhti gain is beech ‘khatm karo abhiyan bhi chal nikla do ek bar wo mujhe bhi uttari bangal ke gharib kisanon ke beech wyawastha se mohbhang karane ke uddeshy se le gaya haDDiyon par maDhe hue cham dhansi panili ankhen, maile chithDe, shoshan ki jaD tak dekhti hui meri drishti paradarshi ho uthi agar main naksal nahin hua to sanghmitra ki wajah se, jo wahan se lautne par meri nazar utarne ke liye neshnal myuziyam, traupikal medicine, all india institute off fizikal haijin and medical sainsez ya aur nahin to ganga ke kinare paDe bainchon par baithakar mujhe jiwon aur sabhyata ka wikas samjhaya karti baton hi baton mein usne ek din bataya tha ki wo sachmuch khoj karna chahti hai jeans par aur ek utsahi nirpeksh adhyapak ki tarah bina lajja ke jenetiks aur manushya ke ang pratyang ki bahut sari baten bata Dali theen
sachin ne baad mein classen karna chhoD hi diya tha mainne sanghmitra se shikayat ki to uske aate hi wo fat paDi, kyon rulate ho bulbul! jante ho, baba t b ke peshent hain, main unhen ye sab bata nahin sakti isiliye na ! lekin sachin ko na rani ke ansu rok pae, na pariwar ki zimmedari thyoretikal parikshaon mein bhi wo anupasthit raha to akhiri parcha dete hi pata karne unke ghar ja pahuncha sham ki marakri niyon ki shokh battiyan jal uthi theen saDkon par magar us makan mein matr dhundhli raushani matam si baras rahi thi
“didi tomake jeteD howe! sachin rani se anunay kar raha tha, aur hat ta ek bareki uDe gechh hoy to bliDing hoei mara jabe ”
“ar kau ke pao nee?” rani boli
“kau ke niye gele sobi phas hoye jabe je ”
phir mere kandhe par hath rakhkar, weight til i ritarn! kahkar rani jo gai to aaj tak intizar karati rahi
baad ke chand sal sankramn ke sal rahe terrist sachin par tarah tarah ke muqadmon ke phande latak gaye the aur sanghmitra ka nam party ke prawar sangathankartaon mein gina jane laga tha uske wishay mein tarah tarah ke mith prachalit ho chale the ki khoon karne mein use kaisi khushi hoti hai! ab phalan phalan punjipati, rajaneta, afsar aur party ke wishwasaghatak uski suchi mein hai! phalan phalan ghuskhor afsar aur unchi fees lene wale doctor aur wakil ko to dhamki ka khat bhi aa chuka hai! ek murde ko chirte dekhkar behosh ho jane wali sanghmitra kahan se kahan pahunch gai thee!
meri sthiti kuch wichitr thi papa ne zabardasti presiDensi chhoDwa diya tha science chhoDkar, aarts lekar sosholauji mein main em e kar chuka tha aur kai tarah ke sankar sanskar mujhe aadha titar, aadha bater banakar chhoD gaye the ghar ki samrddh paranpra chhoDkar main union leaderi, samaj sewa aur pradhyapki tinon ko hi apne prayog ka kshaetr banaye hue tha sanghmitra se milne ke liye mainne tata ke jadugoDa ke jangal, andhr ke jangal aur dhan ke khet, madhya pardesh ke bihaD kahan ke chakkar nahin lagaye magar tab tak shayad wo bhaunaun, awegon se upar uth chuki thi shayad meri union, social serwice aur lekchararship hatasha ke zakhm ko dhakne ke sadhan matr the man ne saftaur par ailan kar diya tha ki mujhe har haalat mein unke pas rahna hai itni baDi haweli akele bhanya bhanya karti hai aur main har haalat mein wahan bana hua tha pitaji kuDe se bhi kaam layaq chizen nikal liya karte the ye unki banik buddhi kahun ya wilakshan buddhimatta, wo har cheez ko cash karana jante the apne swbhaw ke wiprit mujhe unhonne aaDe ulte protsahan dena shuru kiya unki kripa se prarambhik charnon mein hi saphaltayen milti gain aur ab main kai yuniynon ka adhyaksh ban baitha tha lekin papa ke liye ye matr meel ke patthar the, manzil nahin unka irada tha ki agami chunawon mein mujhe kahin se khaDa karwa denge shayad prantiy ya kendriy netritw ke samne ki pankti mein aane ki jo riktata mere akshay wat pariwar mein rah gai thi, wo mujhse puri ki jani thi lekin in sabse udasin rahkar jab mujhe apni lekchararship aur union waghaira mein ziyada wyast pane lage to ek din brenwash ke liye mere sosholauji wibhag ke head ke hathon ek nae parche ke roop mein unki nai yojna samne thi
“is par sain kar do ” wo bole
“yah kya hai?”
“tumhen shodh karne ki anumti dene ke liye darkhwast mere gaiDens mein ”
“lekin !” main uljhan mein paD gaya
“bila wajah mathapachchi kar rahe ho wishay tumhare pariwar ke log roz hi matha karte hain tumhein bus itna karna hai ki purani thisisen dekh sunkar kuch nae nots joDkar likh Dalna hai ”
“kaun sa wishay hai?” main utsuk hua
“crime!”
na jane kyon angrezi ka ye shabd sunte hi baheliye dwara mithun yugal kronch ko marne ki dardanak aur dahshat bhari awaz kanon mein ghul uthti hai jaise parindon ke shor se jangal goonj utha ho aur tap tap taza rakt tapak raha ho
mainne atirek mein unka hath pakaD liya, “main karunga, zarur karunga magar ek shart thisisen dekh sunkar nahin, swayan swatantr sarwekshan aur adhyayan karke ”
“theek hai ” is bar samne baithe papa swayan bol uthe samayik roop se mera dhyan hata pane mein saphal hokar we rahat ki nihashwas phenk baithe the
apradh aur apradhi ki prakrti aur prakar, wyaktigat aur pariweshgat sanskar aur uddipnayen, manowaij~nanik tatha samajashastriy wiwechan aur wishleshan karne hetu main ek thane se dusre thane ki filon mein bikhri ankaDon ki sankhyiki mein bhatak raha tha ki ek din ek thane ke bahar sachin ke pita rakhal babu ne pakaD liya we kafi badahwas lag rahe the unhonne bataya ki abhi abhi sachin ko pakaDkar isi thane mein le aaya gaya hai bahut mara hai, police ne kahte hue ankhon se ansu girne lage unke mainne darogha ko apna parichai dete hue is mamle mein sahanubhuti baratne ka anurodh kiya darogha mujhe liye liye andar aaye sachin ko unke kamre mein le aaya gaya unhonne niche panw hilate hue netanuma adarshwadita wale andaz e bayan mein kaha, “tum log kal ke bhawishya ho mujhe yuwa shakti ka is prakar apawyay hona bilkul pasand nahin ye bilawjah ka khoon kharaba aur apradhkarm chhoDkar adarsh nagarik kyon nahin bante?”
sachin, jiske chehre par pite jane ki aspasht chhap thi, chupchap ceiling fan ka nachna dekhta raha phir nak ka khoon banhon se ponchhkar tiraskar bhare swar mein bol paDa, “apko ye baat samajh mein nahin ayegi daroghaji, aap apne laDke ko bhej dijiye, use samjha dunga ”
daroghaji ekbargi apratihat ho uthe unhonne thook nigla aur kandhe uchkakar jhenp jhaDte se bole, “dain amadh helples!”
wo thana bhaiya ke adhikar kshaetr mein aata tha mainne rakhal babu ko ye ashwasan dekar wida kiya ki bhaiya se kahkar sachin ke liye koi kor kasar utha nahin rakhunga bhaiya ke pas pahuncha to unhen baat karne bhar ki fursat nahin thi koi party chal rahi thi wahan, kisi mantari ke daure ke baad sambhwat amantrit mehman police wibhag ke hi log the mera parichai aur research ka uddeshy jante hi charcha utar paDi police par ki wideshon mein police ko kitna wetan, atyadhunik upkarn aur suwidhayen tatha samman prapt hain
“magar yahan ki tarah wahan ke police station apradh ke briDing station to nahin hai!” mainne hastakshaep kiya meri baat ko ek warishth adhikari ne ho ho ho ho hansakar uDate hue kaha, “aman yar, hamin par sari tohmaten kyon? hum to nachne wale hain, nachane wala koi aur hai ”
“kuchh isi se milti julti baat we apradhi bhi kah rahe the, jinse shodh ke dauran main mila ”
“kya?” meri baat par taqriban sare log mere aas pas jama ho gaye the
“kahte the hum to weshya hai sab chhup chhupkar milte hain aur apna ullu sidha karte hain
magar bahar shan dikhane ke liye hamein gali dete hain ”
“rait! ab hamara hi dekha jaye ek or to hamari akshamata ke liye hamein kosa jata hai, dusri or hamare kaam mein tang aDai jati hai ek udaharn lijiye—hamne kisi ghunDe ko pakDa ab har gunD kisi na kisi em l e, em pi, sekretraya minister waghaira ka adami, ya adami ka adami nikal aata hai phone par phone! akhir wo bedagh chhoot jata hai phir kya rah gai hamari izzat! kabhi kabhi to imandari ki qimat hamein saspenshan mein chukani paD jati hai ”
“ek taraf kahenge, police ko apna acharn badalna chahiye, dusri taraf gande se gande kaam ke liye istemal karenge ” dusre kaddawar adhikari ne kaha
“yani police apne ghalat kamon ke liye swayan doshi nahin hai yahi n?”
is par ek sannata sa khinch gaya sharab ke nashe mein ek inspektar bahakne laga, “are sab! satta ke is thoDe se sukh mein hamne apna kya kya nahin ganwaya jati, dharm, iman, sabhyata, sanskriti! kahne ko to apne thane ke samne hamne bhi likhkar tegwa diya hai—“ham aapke sewak hain, hamare yogya koi sewa?” magar sewak ki winamrata se kaam karen to ho gai chhutti hamein ऑD, yooD, krooD bankar slang laingwejez istemal karni paDti hain, jallad ki tarah pesh aana paDta hai, isliye ek alag hi dictionary hoti hai hamari, ek alag hi achar sanhita hoti hai aur alag hi charitr hota hai hamara sab kuch alikhit, par wyawaharik!”
kafi raat gaye bheeD chhanti to bhabhi ne toka, “kab tak chhutuwa ghumte rahoge siddharth! tumhari yadhodhra rani kab ayengi?”
“rani!” zehn mein nach uthi “rani” aiso amar rajakumar, aiso na ! ek madiril sapna angDai leta hua pani mein rupahle bimb sa thartharaya socha, sachin ki baat bhaiya se shuru kar doon, magar is beech phone ghanaghna utha aur aisi bewaqufi karne se bach gaya bhaiya phone atenD karke aaye to kapDe badalne lage, bole, “tum aaye, koi baat bhi na ho saki aur udhar bulawa aa gaya koi khoon ho gaya hai fauran pahunchna hai kahan ye sone ki raat Dhile kapDe pahne we mantari log so rahe honge, jinki suraksha wyawastha ke liye sat dinon se mujhe tatha d em ko chain nahin tha aur kahan ye pamp shu numa bhari boot, krizdar chubhti pant aur shirt, stars, belt, riwaulwar waghaira lekar khuni dakuon, khatarnak naksaliyon ke pichhe mara mara phirun tumhein kaise bataun!”
bhabhi ka mazakiya mood ukhaD chuka tha we bolin, “dekho, apne ko bachana bahar tulsi chaura par mattha tekte jana!” aur bhaiya, bhabhi ki aagya ka palan karte hue chale gaye ek matami tanaw tan utha bhabhi baDi der tak ruansi, unki khair manati hui, jis tis ko kosti rahin ye aath nau sau ki tankhwah par raat raat bhar khatarnak apradhiyon ka pichha karna lanat hai aisi naukari par! black karne wale seth, mahine bhar mein lakhapati banne wale income tax, sels tax, whikals laisens wale aram se so rahe honge we neta tak kisi kharidi hui kaniz ko chiptaye, narm bichhaune par so rahe honge, jinke liye sare program saiDatraik karke unki suraksha ke liye band bajane walon ki tarah ghulam bankar aage pichhe chalna paDa aur we aise mein kahin kuch ho gaya to ? dewarji, tum chahe kuch bhi banna, police afsar qati mat banna ”
shukr tha ki bhaiya subah tak sahi salamat aa gaye thakawat ke bawjud mood achchha dekhkar jate jate mainne sachin ki baat chheD hi di mainne uske nirdosh aur imanadar hone ki baat kahkar sachin ki rihai ki baat ki to unka mood ukhaD gaya
“kal se hi dekh raha hoon, meri naukari khane par tule ho in chor Dakaiton ke liye main hastakshaep karun, tumhein ho kya gaya hai?” we ghuDak uthe
man mein to aaya ki puchhun, agar kisi minister ne kisi ghunDe ke liye yahi baat kahi hoti to we kya karte! magar chup rah gaya baad mein suna, ek pure ke pure naksal ganw ko aag laga dene ke puraskar swarup unki taraqqi ho gai thi
yaad aate hain nyayalyon ke ankaDe batorte we bhatakte hue din gram panchayton ke bane banaye farmulabaddh nyay prahsan, diwani aur faujadari ki rabar se bhi lachili aur khinchti hui karrwaiyan unchi kursi par baithe apni tamam tam jham ke bawjud shrihin jaj, sarkari aur muddi paksh ke wakilon ke bahsne aur wihansane ki kalayen nyay mandiron ke kitne hi manzar kisi documentary film ki tarah yadon ke parde par ubharne lagte hain nyay ki pratyasha mein aagat ubti, murjhati bheeD, mithaiyon ki dukanon par Dakarti aur lalkarti hui nakli gawahon ki toliyan, purane parche aur kaghzaton ke banDal sambhale ahalmad aur munim, ranDiyon ke dalalon ki tarah asami phansate hue wakilon ke dalal, kale coat pahne hue wakilon ki chahalaqadmi, beech beech mein asami hazir ho ki awaz lagata court ardali, dryer kholkar do do rupyon par farzi muqadmon ki tarikh baDhate peshakar
we sardiyon ke din the katakhani shitalhar chal rahi thi main kachahri ke bahar dhoop mein papa ke ek mitr se baat kar raha tha ki ek rickshaw ruka aakar mere pas dekha to jarjar klant rakhal babu utar rahe the kanpte hue unhonne ek nazar charon taraf ka muayna kiya, phir ek kone mein mujhe le aaye
“baDi mushkil se mile kahan kahan nahin pata lagaya mainne!”
“koi nai baat ?”
“han, sachin ka muqadma tumhare baba (papa) ke pas aaye, aisi wyawastha mainne kar li hai ”
“achchha!”
“baqi tumhein dekhana hai main marne ke pahle use nirdosh dekhana chahta hoon mera beta, meri beti nirdosh hain ”
“apko sanatorium chhoDkar is tarah nahin aana chahiye tha, unke liye bhi aapko zinda rahna hai ” unhen rikshe par baithakar main usi din papa ke pas chala aaya
papa mujhe aaya dekhkar khush hue shodh ke wishay mein meri pragti par santosh zahir karte hue, nyay ke prati mere drishtikon ka samarthan karte hue bole, “desh bhar mein jane kitna annyaye hota hai aur usmen se jane kitne aa pate hain hamare pas aur jane kitnon ka sahi faisla kar pate hain ham! ab dekho, wakil nyay ke dewadut hain aur inka charitr ! jo jitne bhayankar apradhi ko, jitni jaldi nirapradh siddh kar de, wo utna hi saphal wakil hai phir jaj ka dil aur dimagh, nyay ki wyawastha bhi kam karamati nahin hai ek court se jo haar jaye, dusri court se jeet jata hai penalkoD mein kai dharayen tak trutipurn hain ”
“yani nyay wo taral padarth hai jise jis patr mein Dhaal den, waisa hi Dhal jayega ”
“sahity mein tumhein zor azmana chahiye ” papa hans paDe the
“aur sone aur chandi ke patron mein ye ziyada shobhta hai ” papa ki hansi murjhane lagi we chaukanne ho gaye, “kuchh kahna chahte ho?”
“pachchis tarikh ko jiska muqadma apaki adlat mein pesh hone wala hai, apradhi nahin hai manawta ke prati puri tarah nishthawan yuwak hai ”
“yu meen dait nakslait?”
“ji, chunki aap ek pita hai, at pita ke dil ka dard samajhte hain t b se marnasann pita ki ek hi khwahish hai ki wo apne nirdosh bete ko nirdosh bari dekhkar mare ”
papa ne cigar jala liya kuch der tak khali khali ankhon se diwaron par dekhte rahe, phir ek sadhi hui awaz mein bole, “bete, hum jise nyay kahte hain, wo tathy sapeksh hai, saty sapeksh nahin hai tathy ka praman swayan mein samarthy sapeksh hai, at nirnay lachila hota hai hamara to yoon jaan lo, bus ek dayara hota hai police eph i aar prastut karti hai, charjshit pesh karti hai, gawah hote hain, apradh ke sabut, abhiyukt ki safai ka daur aata hai, wakil hote hain, kanun ki kitaben hoti hain in sabmen se parat dar parat jo nishkarsh chhan chhankar aata hai, hum wahi nirnay to de sakte hain aur phir tum jiski sifarish karne aaye ho, uska to muqabala hi satta se hai, jo hamesha nyayapalika par hawi rahti hai!”
“yani aapke siddhant banjh hai?”
papa gambhir ho gaye bole, “dekho, khoon meri ragon mein bhi bahta hai, par main tumhari tarah moorkh aur bhawnajiwi nahin tumhein malum nahin hoga, si b i wale kab ke tumhare wiruddh qadam utha chuke hote bachte aaye ho to apne jijaji ke chalte lekin yahi rawaiya raha to i fainli warn yu tu meinD yorselph!” bujha cigar phenkkar wo uthkar bechaini mein chalne lage aur main sar pakaDkar baith gaya
muqadme ka nirnayak din bhi aa gaya wakil ke lakh samjhane ke bawjud sachin ne ek shabd tak na kaha apni safai mein, siway us byan ke, jo jab bhi yadon ko kuredta hai to harf dar harf wisphot karta sholon ke ambar bhar deta hai zehn mein, “mujhe is punjiwadi, pratikriyawadi, nyay wyawastha mein wishwas nahin hai aam janta bhi jise nyay ka mandir kahti hai, wo luteron, panDon aur juta choron se bhara paDa hai yahan aate hi chaprasi, ahalmad, nazir, peshakar, qanungo se lekar kala libada oDhe wakil aur gita tatha gangajal ki qasmen khakar jhuthi gawahiyan dene wale gawah, ye tamam kutte nochne khasotne lagte hain use ye lal thane, lal jelkhane aur lal kachahariyan in par kitne beqsuron ka khoon puta hai wakilon aur jajon ka kala gown na jane kitne khoon ke dhabbon ko chhupaye hue hai! pariwartan ke mahan raste mein ek mukam aisa bhi ayega, jis din inhen apna charitr badalna hoga, warna inki robili bulandiyan dhool chatti nazar ayengi!”
wakil zoron se cheekh paDa, “yor ऑnar, dis ij kliyarli d kentempt off court!”
bahar shor mach gaya jaj ki kursi par baithe papa cheekh paDe, “order! order!!” aur muddi paksh ka wakil sachin ko pagal sabit karne mein lag gaya, taki use bacha sake
sachin ko apradhi karar dete hue saza ho gai faisla sunte hi mere pas hi baithe rakhal babu phaphak phaphak kar ro paDe mujhe yaad hai, mainne unhen sahara dekar rikshe par baithaya tha baad mein hamne suna ki jel se jate samay, raste mein hi peshab karne ke bahane, jangalon mein sachin aisa ghayab hua ki police DhunDhati rah gai rog aur chinta se jarjar rakhal babu ye sadma bardasht na kar pae aur rani aur bulbul ko nirdosh dekhne ka sapna liye hue hi duniya se chale gaye police unki mirtyu ke do din baad tak sanatorium ke charon or sade libas mein ghumti rahi, magar na rani i, na bulbul! lash jab saDne lagi to police ki madad se sanatorium walon ne hi uski antyeshti ki
aur ab nari niketan, baal apradh sudhar grih, rifaurmetriz hote hue karagrih! unchi unchi diwaren, salakhondar mazbut phatak, apradhi qaidiyon ka samudr! kone kone par unche machanon par banduq sadhe unghte sipahi! wibhinn sutron se pata laga tha ki sachin nam ka ek bangali yuwak aur sanghmitra nam ki ek aurat, kuch din hue transafar hokar, sentral jel mein aaye hain jald hi mainne shodh ke nimitt sentral jel jane ki anumti prapt kar li
wishal raqbe mein bikhri durbhedy badsurat diwaron se ghiri kendriy kara! kara adhikshak, jo mere magistrate bhaiya ke mitr the, mujhe batate chal rahe the, ye jel bharat ki sabse baDi jailon se ek selyular jel hai cycle spoks ki akriti mein phaile hue cell dhuri par kendribhut ho uthte hain, jahan se control tower in sab par nigrani rakh sakta hai ye rahe karkhane kapDe, dariyan, kath aur lohe ke chhitput saman banate hue, ye rahi layabreri, wo raha medical, ye raha pagalon ka daDba, ye wishal bheeD, jo dekh rahe ho ye rahe hajati udhar un alag alag qataron mein rahte hain state prijnars baDe baDe neta, widwan, lekhak rah chuke hain yahan! ek nazar mere upar paDe prabhaw ka muayna karke we phir shuru ho gaye, “ye partition janana cell ke liye hai koi pasand aaye to bolna ” apne hi mazak par we kheen kheen karte hue hans paDe aur diwar ke pas meri kalpana mein sanghmitra ubharne lagi magar tatkshan hi swaraghat se toot gai
“yah raha t cell sabse khatarnak apradhi yahan rakhe jate hain kis prakar ke kitne qaidi hain, unki sankhya tumhein is suchi se mil jayegi ” unhonne diwar par tegi suchi ki or ishara kiya, “ye jagah jagah tangi hui hain mujhe, afsos hai, tumhein hum phansi ke kisi qaidi se nahin milwa sakenge ” hanste hue unhonne suchi mein mrityudanD danDit qaidiyon ke aage ishara kiya, wahan cross laga hua hai kantroling tower par se unhonne mujhe door sthit phansi ke manch aur wiran kanDemD cell bhi dikhaye
“kahan kahan jana hai, kya kya sawal kar sakte ho, iski sharten tumhein di ja chuki hai, phir bhi ehtiyat ke taur par bata doon, cell number 15, 16, 17 mein mat jana naksali cell hai
kuch hi dinon mein un sabse ub gaya safed dhoti, haf qamiz, takhnon tak ka pajama meri pardarshini nazar inmen apradh ke chinh DhunDhane mein asaphal rahi ye sawal barabar konchta raha ki akhir kaun si majburi hai ki log apradh mein prawrtt ho jate hain aur wo kaun si wibhajan rekha hai, jiske tahat ye shinakht kiye ja sakte hain sara mamla sarson mein bhoot jaisa wirodhabhason se grast tha nari niketan, baal apradh sudhar grih aur rifaurmetriz ke siddhanton aur acharnon mein gahri khai thi qaidiyon ke nam par milne wala rashan khate hue jel ke karmachari, ke bhent ban bankar raj karte hue dhakaD dada qaidi, uske tatha jel ke zarakhrid ghulam bane riste aur piste hue piddi qaidi, wahi warg wibhajan, wahi warn wibhajan, jel ki badsurat unchi prachiron mein ghutkar rah jane wali yatnaon ki chikhen aur almariyon mein qarine se saji, par jale ki zanjiron mein bandhi jel mainuals ki pothyan! wo selyular jel mujhe makDi ke jale jaisa laga reshe reshe mein aa bindhe the insan aur beech mein makDi ke sthan par khaDa tha kantroling tower!
jazbaton ki tarah jalte hue din qaidiyon ke samudr mein Dubte utrate, santarn karte hue bujh rahe the aur duःswapnon jaisi naummid lambi raten police mainuals, jel mainuals, sosholauji, saikolaॉji, ankaDon, grafon mein tirohit ho rahi theen meri ek khoj puri ho rahi thi aur ek ka kool kinara bhi nazar nahin aa raha tha Despret hokar ek din jel supritenDent ke daftar mein ja pahuncha we us samay ek nawagat naksali qaidi se jane kya ugalwane ke chakkar mein pareshan ho rahe the mere samne ek hi zoron ka mukka uske jaDon par paDa aur uska chashma door ja chhitka we phir se baDi nirdaytapurwak uske balon ko pakaDkar nachane lage mujhe dekha to wapas le jane ka hukm dekar baith gaye naksali yuwak apna khoon ponchhne ki bajay apna chashma tatolne laga chashme ke abhaw mein uski sthiti andhe jaisi ho rahi thi mujhse raha na gaya mainne swayan chashma uthakar use diya, to pata chala, uske kanch darak chuke the
“sale ne mood off kar diya han, tum kaho apni ” jel adhikshak prakrtisth hone ki koshish mein muskaye
“mujhe sanghmitra aur sachin se milna hai zaruri tafati ke liye ”
“sachin se to nahin mil sakte, upar se bina anumti prapt kiye han, sanghmitra ko bulwaye deta hoon ” unke hukm par thoDi der mein ek met ek yuwati ko lekar upasthit hua
“lo, aa gai!” we bhadde andaj mein muskuraye
“ise wapas pahunchane ko kah dijiye ” main jhunjhla paDa, “mujhe jis sanghmitra ki talash thi, wo ye nahin ”
“baDa sangin apradh kiya hai usne tumhare sath aisa lagta hai magar tum use jel mein kyon DhunDhate phir rahe ho?”
“phir bataunga kabhi ” nirasha mein mere honth jaD ho rahe the sanghmitra mere liye ab bhi marichika hi thi
akhir we kshan aa gaye, jabki pratibandhit selon ka tilism sailab bankar jel ki diwaron ke bahar bahne laga diwali ki raat thi wo krekar aur atishbaziyan chhoot rahi theen magar jel ke andar bhala kyon ? aur wo dahshat bhari pagli ghanti par paglata hua police dasta! andar ke kai phatak toDkar naksali ab sadar phatak par bam barsa rahe the police ke sipahiyon ne kai ek ko zamin par sula diya, magar we samuhik roop se police daste se bhiD gaye aur thoDi hi der mein banduqen unke hathon mein theen laga ki phatak ab tuta ki tab tabhi hamne dekha, qaidiyon ki wishal bheeD, jo banduqon aur any shastron se lais thi, naksali qaidiyon par toot paDi sadar darwaze ke upar ke do manzilon ki khiDki se mainne wo rongte khaDe kar dene wali qaidiyon ki laDai dekhi thoDe hi der mein phulon aur sabziyon ki kyariyan, bajri ki saDken lashon aur ghaylon se pat gain maik se jab ye ailan kiya gaya ki baqi qaidi naksal qaidiyon ko unke selon mein pahunchakar, apne apne warDnon ke pas ginti ke liye chale jayen, to ghayal aur bache khuche naksali qaidiyon ko Dhor Dangre ki tarah marte aur hanphate hue qaidi laut paDe
thoDi der baad adhikshak mahoday ke daftar mein pratibandhit naksali selon ka ek warDan puri kahani batane laga, “gasht ka sipahi jamunalal jab ek naksal qaidi nan sat sau pachhattar ” main chaunka, sachin! jo bhi ho usne baat aage baDhai, “uske kamre ko sandigdh jaan kholkar dekhana chaha to usne janjir bandhe hathon ka phanda lagakar uske gale ko kas diya phir uski jeb se chabi nikalkar cell nan satrah ko azad kar diya isi tarah shayad aur cell bhi diwali ki raat hone ke nate thoDi ghaltafahmi bhi hui sab, agar met ne chalaki karke bina puchhe hi tamam khatarnak apradhiyon ko nahin chhoD diya hota, unhen thanDa karne ko, to nak kat hi gai hoti ”
“steel tarnings to leth aur Dril mashinon se unhonne baramad kiya hoga, magar pikrik esiD, potash waghaira ??” bam ke ek khol ko dekhte hue adhikshak ghusse se pagal ho gaye Dar ke mare log sannate mein aa gaye we dahaDne lage, “police ki zat sali theek hi ghoos ke liye badnam hai zara se paison ke liye sale bik gaye, warna jahan parinda tak par nahin mar sakta, wahan bam aa jaye!” dhire dhire log khisak gaye mrit aur ghaylon ko shahr bhej diya gaya aur diwali ki raat matam ki kali raat bankar Dasne lagi hamein bachpan mein yada kada door se kali mandir ki pathshalaon ko dekha karta tha, jahan guruji laDkon se hi shreshth hua karte the aur yahan chor, Daku, wyabhichari, sazayafta qaidi, buddhijiwi naksaliyon ko peet rahe the mujhe apradh aur apradhi ka writt phailta sa laga man ruansa ho chala, na khana gale se niche utra, na kisi se baat hi karne ko ji chaha tan aur man ki hararat taifaiD mein tabdil ho gai aur main ek lambe arse tak bimari se nibatne aur swasthy labh karne mein laga raha is beech mere guide head sahab, shodh ko dekhkar, yunik qarar de gaye the jel adhikshak mere papa ke prabhaw ke karan muattal hone se bach gaye the unki kripa se prant ki sari jailon ki mahila qaidiyon ki suchi mainne dekh li thi sanghmitra ka pata nahin chal saka tha shodh ka kat sametne ki garaz se, jis din pun kendriy kara pahuncha, to papa ki jaldi wapas aa jane ki hidayti chitthi aur naksali selon mein ek bar jane ki anumti patr sath hi mila
mere pratikshait diwas ka ek ek drishya tanga hai ankhon ke samne mere sath sath police ka ek sipahi, cell nan satrah ka warDan aur met bhi chal rahe the mere hathon mein shodh ki file thi sare ke sare qaidi jawan the aur nichuDe chehron ke bawjud mast the we hamein dekhkar ajib Dhang se sitiyan baja rahe the kuch puchhne par kahte, “kahan ka pilla tahal raha hai?” bahnoi khojne chala hai shayad! ye chalega ?
met batane laga, “inkwayri commission ke samne bhi inki yahi gandi harkaten rahi aap soch sakte hain, usmen kya hua hoga” ek kamre ke samne ruk gaya warDan salakhondar phatak ke andar se jhankte sachin ko main sahsa pahchan na pata, agar warDan ne bataya na hota uske hath panw zanjiron se bandhe the baDhe hue rukhe baal, baDhi hui daDhi, kotron mein phansi jalti ankhen aur baDhe hue nakhun kul milakar koDhiyon ki shakl de gaye the atmiyata mein Dubte utrate main bol paDa, “sachin, mujhe pahchante ho, main !”
“han han, pahchanunga kyon nahin khuni jaj ka beta, lutere aur makkar s pi aur magistrate ka bhai, badalte bhrasht mantriyon ke shashwat ghulam sekretari ka sala!”
main kinchit apratibh hua, par uski baat hansakar uDa di, “bulbul, sach mano, mera koi bura irada nahin hai, crime par shodh kar raha hoon tumhara ek interwiew !!”
“puchho ”
file khol qalam nikalkar puri gambhirta se mainne sawal kiya, “log wyaktigat swarth ke liye ya attyachar ke khilaf astra uthate hain, tum log samuhik swarth aur eksaplayteshan ke khilaf magar karte ho tum bhi apradh hi kya hinsa se hinsa ko aur nafar se nafar ko dabaya ja sakta hai?” sawal ke shesh hote na hote usne abhadrata se pad diya main bhinna utha mujhe nafasat sikhane wala sachin kya yahi tha! main biphar paDa, “mera apman karne se sawal nahin tal jayega bulbul, tum log kisi par to wishwas karoge ! ye sanshay ka mahabharat kab tak?”
“maf karna yar, itna garishth sawal sunkar pet mein zara gas ho gai thi itni bhari baten pach nahin patin?” phir usne lahja badalte hue puchha, “to tum pi ech d paoge n?”
“han!” main uske tewar ko taulne laga
“phir koi uncha ohda ?”
“shayad!”
“zara file dekh sakta hoon?”
main pahle hichka magar uski purani antrangta ka khayal karke file use de di, phir man ki lalsa zaban par i, “bulbul, pleej bataoge rani kahan hai?” meri baat jaise usne suni hi nahin file ke panne palatte hue bol paDa, to tumne itne wibhinn prakar ke apradhiyon aur qaidiyon ka adhyayan kiya hai? wah! aur ye darshanik paksh taipen, rekbes, maris, taipht, kolDrain, plato kamal hai! itte sare ankaDe, grafs, kamperetiw enD riletiw enalisis sarwe jel mein mile in logon se?”
“han!” main phool gaya apni prashansa par magar ekayek use jaise sannipat ho gaya, “to tumne itne qaidiyon ka apman kiya hai! aur is apman ko bhunakar tum sammanit hona chahte ho! isiliye ye dalali aur sawalon ke chonchle! tumhari niyat apradh mitane ki nahin, us par phalne phulne ki hai! main puchhta hoon, kisne tumhein aane diya andar? ise chiDiyakhana samajh rakha hai kya? ijant totli inhymen two enjway enD cash e priznars tragedy? ijant most hiniyas crime i aask! i wote elau yoo!” usne file utha li hath ki zanjiren jhanak uthi mere dil ki dhaDkanen baDh gain
“ruko ruko!” pichhe se kara adhikshak aate hue bole, “mujhe malum nahin tha ki tum inke dost ho dekho, Dont b impeshent afsos hai, itne sangin apradh tumne kiye hain ki court se kabhi bhi phansi ka parwana aa sakta hai tumhare samne tumhare mitr ek adarsh hain tum apradh mein prawrtt ho aur wo usse niwrtti ke upayon par shodh kar raha hai agar tum abhi se bhi ripent karte hue apne aap ko sudharo to rashtrapti ke pas marsi petishan ke tahat tumhein bacha lene mein hum kuch utha nahin rakhenge ” unka itna kahna tha ki sachin ke munh ka balgham unke mukh par tale sa ja chipka aur file mere munh par panne panne chhitra gaye aur main pagalon ki tarah jaldi jaldi batorne laga, apni amuly nidhi ko
warDan dauDkar pani lane chala gaya aur met aur sipahi, kahin se do chhaD lakar lage konchne aur pitne berahmi se use jaise circus ke kisi khankhar pashu ke achanak hinsak ho uthne par circus ke naukar kiya karte hain wo ghon ghon karke chitkar kar raha tha kara adhikshak ne hi na chhuDwaya hota to shayad uski jaan lekar chhoDte
saman jeep mein rakha ja chuka tha bus, kara adhikshak ki rah dekh raha tha jailor ko kuch hidayaten dekar unhen laut aana tha yoon aur din hota to jel ke andar hi unse mil aata, par us ghatna ke baad se man kaisa kaisa ho gaya tha aur beech ke teen din, shodh ke bikhre kamon ko tartib dene ke uddeshy se, main apne manjhale bhaiya ke yahan guzarkar aaya tha kara adhikshak udas sa chehra liye aakar ruke mere pas, “jab tum pahle pahal aaye the to mainne mazak kiya tha ki mujhe afsos hai, phansi ke qaidi se nahin milwa sakunga tumhein magar tab nahin janta tha ki jate samay mazak kroor saty bankar samne ayega ”
main chupchap takne laga unhen
“sachin ko kanDemD mein le jaya gaya hai phansi tak wahin rahega wo miloge nahin usse jate samay?” unki awaz bhigi hui thi
mere honth thartharaye, par awaz nahin phuti yantrachlit sa unke pichhe pichhe chal paDa mainne ghaur kiya, mukhyadwar se kantroling tower tak ki sabhi suchiyon mein pariwartan kar diya gaya tha—mrityudanD danDit qaidi, kul sankhya ek
sachin mujhe dekhte hi sinkhchon ke pas aa gaya, “aj shayad ja rahe ho?” pahal usi ne ki
“ ”
“meri phansi tak nahin rukoge? wyawastha ki pithika par tange mere wajud ke sawaliya nishan se katrane laga hai tumhara shodh!” uski wyangya bhari hansi niruttar kar gai mujhe main nirwak nirnimesh takta raha use
“rani ko poochh rahe the na us din?”
“han!” meri sari chetna misat i uske sawal par
“shi haiD been brutli bucharD lang ego ”
“kaise?” main cheekh paDa
“uske guptang mein rool ghusakar mathkar mara gaya ”
“oh! oh!!” karhate hue aaweg mein mainne sinkhchon ko pakaDkar jhakjhor dena chaha, magar we sard aur sakht the ankhon ke aage andhera chha gaya medical ki medhawi chhatra, jenetiks par research karne ka dam bharne wali rani, ek samany police ke hathon crime! laga, abhi abhi kronchwadh hua hai fi mein door door tak dahshat bhari dardanak chikhen bhar uthi hai
iske baad na kuch wo bol paya, na main usne mera kandha thapthapaya aur pathrai ankhon se hum juda ho gaye
jel se apni ek puri duniya ganwakar laut raha hoon pata nahin papa mere shodhkarya ko kaise bhunayenge! magar shodh abhi hua kahan pura! hydrogen bam ke nyukliyar fizan ki shrrinkhla ki tarah apradh ka raktbiz phailta hi ja raha hai thahraw? train chali ja rahi hai aur shodh ke panne phaDphaDa rahe hain mere dimagh mein anaksimenDar kalDran ke anusar kya yahi man lena hoga ki manushya ka sabse baDa apradh yahi hai ki janma hone matr se wo dusre ke astitw mein badhak hai? plato ne yahan tak kaha hai ki apradh bhi pratibhasampann wekti hi kar sakte hain Darwin ki theory off iwolyushan mein zinda rahne ke liye sablon, samarthon ka nirblon, asmarthon par yahi apradh bhara sangharsh nahin hai? hegel ne bhi kya sankramn aur sandhat ke isi nayakatw ko nahin swikara? marx ki wastu aur kriyaon ke ghat pratighat ki baat mein isi sangharsh ka dusra roop nahin hai? aage baDhne ki andhi dauD mein kaun dekhne jata hai ki kaun kuchla gaya? shayad rani hi theek kahti thi, apradh khatm karna hai to nasl hi badal Dalo
dimagh nana prakar ke gaDDmaDD wicharon se bajabja utha hai nana prakar ke drishyon ke bulbule uth uthkar phoot rahe hain ankhon mein pura ka pura ganw dhu dhu karke jal raha hai, kankalanuma chehre kinhin agyat panjon se bachne ke liye betahasha bhage ja rahe hain, sahmi hui, kosti aur manautiyan karti bhabhi, baDe aur baDe hote hue bhaiya tatha papa ke chehre, thenthte hue police aur ghunDe, Dakarte hue nakli gawah, baal pakaD jhatke ja rahe pet pakDe nakslait yuwak ka darka chashma! theek ankhon ke samne rani taDap taDapkar ainth Dhenthkar mar rahi hai, sachin ko konch konchkar mara ja raha hai sharmindagi aur santras aur matam! inke upar dhire dhire ek sawaliya nishan ki tarah jhool rahi hai phansi ke phande mein sachin ki lash!
main pasina pasina ho uthta hoon swasth hone ke liye khiDki kholkar bahar jhankta hoon to lagta hai, andhere ki surang kisi raktasnan prantar mein aakar wilin ho chali hai gaDi dhime dhime ganga ke pul par reng rahi hai yani chand minton mein mere station mein dakhil ho jayegi subah ki lali se lal hui ganga dekhkar lagta hai, aadim pashan yug se khoon hi bahta raha hai ismen! kya hai meri aur mere shodh ki samarthy aur sima? apradh ki lap lapati barbar lapton mein unhin lapton mein, jinmen ahuti bankar lakhon karoDon nirapradh, nishthawan tejaswi atmayen, mera mitr, meri rani tak sama chuke hain, apne hath senkne ke siwa ye hai kya? isse baDhkar garhit apradh aur kya ho sakta hai? kar sakunga main satta, wyawastha aur samaj ke tamam apradhi purzon ko jel mein? shayad nahin, kyonki main pairasait hoon unka, kyonki we mere apne pita, bhai swajan, mitr aur auzar hain phir ye shodh ? kitna ganda mazak hai ye shodh! mere hath lahrate hain aur shodh ki puri file chhapak se ganga mein ja girti hai lagta hai, sine par paDa hua apradh ka pahaD phisalkar ja gira hai ganga mein
station par utarte hi agwani ke liye aaye wibhagadhyaksh ke sath man ko dekhkar yaad aata hai sadhu ne shayad theek hi kaha tha ki meri maut pani mein hogi! pura bhawishya Duba diya hai mainne pani mein aur widrup mein mere honth teDhe ho uthe hain
स्रोत :
पुस्तक : श्रेष्ठ हिन्दी कहानियाँ (1980-1990) (पृष्ठ 37)
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।