वासना सौंदर्य को देखने की इच्छा है
‘वासना’ इच्छाओं का संतुलित नाम अर्थों के कई संदर्भों में समाहित है। सकारात्मक और नकारात्मक ऊर्जाओं की संगीन गुफ़्तगू अपने विस्तारित क्षेत्र में जो कुछ कहती है, उसका सहजता से निर्मित एक वैचारिक आलोक जिसके अर्थ अपना आख्यान रचते हैं।
काव्य रचना एक बीहड़ पार करना है, जो अंत में उद्देश्य की सफलता का अपना पक्ष है। फिर भी बहुत कुछ बचा रह जाना कवि का भावी विस्तार है जो अलिखित है। इस अलिखित तक जाती पगडंडियाँ कवि का वृहत्तर पता देती है, जहाँ निष्पक्षता के आँकड़े अपना स्वतंत्र अस्तित्व अंकित करते हैं।
कवि सविता सिंह का काव्य-लेखन आत्मबोध की काव्यात्मक परिधि तय करता कल्पना का ऐसा विस्तार है, जिसके कई विकल्प हैं, जो उनकी कलम से एक यात्रा तय करते हैं।
सविता सिंह की लेखनी और उनकी कविता ‘अपने जैसा जीवन’, ‘नींद थी और रात थी’, स्वप्न समय’, ‘खोयी हुईं चीजों का शोक’—से होती हुई प्रकृति, सौंदर्य, स्वप्न से ‘वासना एक नदी का नाम है’ तक पहुँचती है।
अक्क महादेवी, मृदुला गर्ग, हेलेन सिक्सू को समर्पित ‘वासना एक नदी का नाम है’—सविता सिंह का नया काव्य-संग्रह ‘वाणी प्रकाशन’ से इस वर्ष ही प्रकाशित हुआ है। कई भाषाओं में अनूदित होती रही सविता सिंह की कविताएँ एक अलहदा आकर्षण लिए हुए हैं। ‘वासना एक नदी का नाम है’ प्रकृति की काल्पनिक हरियाली में बहते आह्लाद का गूढ़ार्थ विस्तार है। प्रकृति के रफ़्तार को स्पर्श करती उसके परिवर्तित स्वरूप को दर्ज करती उपस्थिति पर पड़ती रौशनी, विशेष दृष्टिकोण पर अपना परिप्रेक्ष्य इंगित करती है, अनोखी है।
यह स्त्री-कवि का अपना संसार है, जिसके विस्तार को दर्ज करना उनकी अपनी रचनात्मकता का आख्यान है। प्रकृति से परस्पर आत्मिक काव्यात्मक जुड़ाव कवि के काव्य की विशेषता है। प्रकृति के बोल, हट, पहल, उत्तेजना, संगीत, रौशनी, दीप्ति, राग, मत, छंद से वे अपना गुणात्मक लगाव पक्ष सहेजती शब्दों के कलात्मक रचना-कर्म में प्रवीण है।
कवि की कविता में बारिश की आवाज़ सुनने के लिए रातों में जागता इंतज़ार है। यह ‘आवाज़ सुनना’ अलग परिदृश्य रचना है जिसमें स्याह रात के बैंगनी, हल्के नीले यानी रंगों के शेड की व्याख्या है। रात के भीतर की आवाज़ें, फुसफुसाहटें, बहते पानी का शोर जैसे कवि प्रकृति की भाषा को समझने का कौतुक रचती हैं। रात की धड़कनों के रहस्य को गुनती हैं।
पानी, बाढ़ के रूप में समझना चाहता है, भयानक होने की मंशा; बावजूद इसके रात के अंतस में कवि मनुष्य की वासना यानी इच्छा की तृप्ति के लिए हवा से तारतम्य जोड़ते हुए अप्रतिम सौंदर्य से भरी रात्रि के आह्वान का इंतज़ार रचती है। यह प्रेम की अनुभूति किसी की भी हो सकती है जिसका पता नहीं।
दिन और रात की अपनी अतृप्तियाँ, लक्ष्य तक पहुँचने को अवरुद्ध करती कामनाएँ, बावजूद इसके एक निर्वसन होती स्त्री पर पड़ती चाँदनी रहस्यमयी लगती है। कवि, स्त्री का अतृप्त मन रचती है। जुगुनुओं से भरी रात, रातरानी की कल्पना में मासूम आँखें और बेटी की याद तो कहीं सड़क की जलती बत्ती में गिरते फतिंगों की बेचैनी जिसे रौशनी उठा रही है, बताती है।
‘वासना’—यह सौंदर्य को देखने की इच्छा है। पृथ्वी पर कीट, पतंगों, चिड़ियों से होती हुईं जाने कब से बसी। कवि कहती हैं—बारिश, आँधियाँ, रेत, गिरते पत्ते, कई पृथ्वी और ग्रह बिना रहस्य के नियमबद्ध कुछ भी नहीं।
कवि का कहना है, सत्य को जानती स्त्री प्रकृति, निर्जीव, सजीव और घास में होती सिहरन, हवा से उसके संबंध, अनुभव-सिद्धांत को भी जानती है। ख़ुद के होने के सत्य स्त्री को रिझाते हैं, प्रफुल्लित करते हैं, उसका आत्मविश्वास बढ़ाते हैं। उसका मनोरम होना, स्त्री को कवि सृष्टि की सबसे सुंदर रचना मानती है। स्तन, बाँहें, केश, योनि की देह-संपदा जिससे आकृष्ट होते भैरव, धड़कती हुई धरती, फूलों पर थिरकते हुए भँवरे, उसे सुंदरता के रहस्य का भान कराते हैं।
स्त्री और सृष्टि में कोई भेद नहीं। कवि, स्त्री के सौंदर्य से विस्मित है। मिलन के तेज और ऊष्मा की कहानी मृत्यु तक, जिसे वासना यानी इच्छा की रौशनी से संचालित करती है।
आस-पास और ख़ुद से बात करती कवि कहती हैं—शब्द जब यातनाओं को बढ़ाने के लिए ही इस्तेमाल किए जा रहे हैं, वह चुप रहना पसंद करती है; ताकि हिंसा से बचा जा सके। सुबह रात से, रात साँझ से, साँझ स्त्री से मिलना चाहती है, जिसका प्रेम महुए के फूल की तरह टपकता है। सभी एक दूसरे से मिलना चाहते हैं, सब संभोगरत हैं।
बेचैन पेड़, तितली, टूटता तारा, बच्ची जिनकी भाषाएँ समझती स्त्री, अपने उम्र के कारण चुप है। जबकि सुबह उसे सैर के लिए बुलाती है। कवि कहती हैं—झड़ना भी हो सकती है सौंदर्य की एक प्रक्रिया। जैसे हवा नहीं लौटती, जब लौटती है, बदल जाती है। ठीक उसी तरह नहीं मरता कुछ भी अच्छी यादों में शुमार होकर जीवित रहता है।
वह पारदर्शी आसमान-सा रिश्ता चाहती है, जिसमें प्रेम के बदलते मतलब दिखाई दें। उदासी का देह से रग-रग में उतर जाना देखती है, हवा की तरह पानी पर।
कवि प्रकृति में समाए प्रेम को प्राकृतिक रूप में आत्मसात करती है, जिसमें मनुष्य की नियति के लिए अफ़सोस दर्ज है। सृष्टि अपनी रहस्यमयता और मनुष्य अपनी सहज मनुष्यता की बात करते हैं। पूरी प्रकृति, हवा, स्त्री, तानाशाह और तमाम ख़राबियों के बीच अच्छे के भी बचे रहने की बात करती है।
जीवन की वासना यानी इच्छा नहीं मरती, ठीक स्त्री की तरह जो चिरकाल से रचने में लगी है। भीतर के ख़ालीपन को शून्य में मथती हुईं। मनुष्यता उसकी धरोहर है, जिसके बिना वह कुछ नहीं।
कवि बताती है—स्त्री के हृदय में बसी हैं पितृसत्ता की गालियाँ और बाड़े, ग़लतफ़हमियों के अपने दायरे। जबकि वह अपनी इच्छाओं की नदी और रफ़्तार से संचालित होती है। अकेलेपन से जूझती स्त्री ख़राब नींद और जीवन के स्वप्न के साथ मौत के इंतज़ार में विचरती है।
यह घृणा का दारुण समय है, फिर भी प्रेम के तिलिस्म को याद रखना होगा। प्रेम के मालकौंस राग की ज़रूरत को महसूस करना होगा। दुख और धोखे ने मनुष्यता के इंतज़ार में एक स्त्री को काठ का बना दिया है। मनुष्यों की बर्बरता पर स्त्री, प्रकृति से प्रश्न करती करुणा का पता जानना चाहती है।
कवि, युद्ध से काँपते उदास समय में भीतरी आह लिए बिलखते स्वर को शब्द देती है। फ़िलिस्तीन जैसे युद्ध की कलाकृति चारों ओर अन्याय, मरते बच्चे, क़ब्रगाह, बमबारी, बारूद, देह सड़ने की बू, मिसाइल, घर में दबकर मरते लोग, तबाही, अशांति के बावजूद कवि कहती हैं—एक बच्चे को चाहिए माथे को चूमते उसके पिता। लेकिन माँ की लाचारी ही दिखाई पड़ती है।
सुहेर हम्माद के बारे में कवि कहती हैं कि जिसने अपने देश में बच्चों की बिखरी अस्थियाँ देखी। वह आहत है, युद्ध में बेटे और बेटियों की हालत देखकर। वह पितृसत्ता से लड़ने का मंसूबा तय करती है। चुप्पियों के बावजूद घनीभूत होती घृणाओं के साथ चिंतित है—पृथ्वी के लिए भी। दुख और सुख जैसी भ्रम की स्थिति में भी कवि प्रेम बचाए रखना चाहती है सभी जीवों के लिए। स्त्री होने से मिले ‘सर्वस्व’ से आह्लादित कवि आगे की पीढ़ियों की ख़ातिर दुनिया बदल देना चाहती है।
शीतलता, उन्मुक्तता, उन्माद, साँझ की सहेलियाँ और उनकी अठखेलियाँ कवि को आत्मविभोर करती है। नई सुबह में, नई किरणों के साथ, ख़ुशी के साथ, यातनाओं का साथ भी कवि इंकार नहीं करती। सारी क़ायनात को कवि, स्त्री के प्रेम का रहस्य बताती है।
वह कहती हैं—दो प्यासे ही पृथ्वी पर आकर मिलते हैं, जो ख़त्म हो जाने को है, वे लौटती साँसें बदलती पृथ्वी को देखना चाहती हैं। यह बात कवि की इच्छा का भी संज्ञान लेती है। फूलों, पेड़ों, पक्षियों, सुबह, दिन, रात, पहाड़ की विराटता, आसमान, तारे, रौशनी, अजगर, हिरण, बाघ, चीता के बाद मनुष्य में भी कवि ईश्वर का वास देखती है। दुख की शाश्वतता और अकेलेपन के वहशीपन, यातना हो या स्वप्न, संभोग, शौच, आलस, बिछड़ना, विवशता जिसे कवि ईश्वर की लीला कहती है। कर्ता-धर्ता इंसान के भीतर बैठा ईश्वर ही है। नीलकंठ, नीलगाय, सारस, हारिल सभी को कवि प्रकृति से जोड़कर देखती मन को जंगल कहती है।
हमेशा साथ रहते आसमान, बादल में वह माँ की छवि पाती है। क्रांति, अत्याचार, न्याय, संघर्ष को कवि समय का खेल मानती है। वह कहती हैं, प्रेम और घृणा बदलते रहते हैं। तिरस्कृत स्त्री चलती रहती है। मणिपुर-सी आत्मा छलनी होने के बावजूद कवि हाथ में शमशीर होने की बात करती है, जंगल माँगते आदिवासी की बात करती है।
कवि पेड़ को पूर्वज कहती है, जो युग बीतने को सहेजते, जीते आए हैं। पेड़-पौधों को अन्न देना जैसे दादी का परपौत्रों के लिए दाने बीनना है। परिवर्तन की आस में स्त्री मन का कोई तिरस्कृत कोना हमेशा आशंका से भीगता रहा है।
कवि मनुष्यों को दास बनाने वाली प्रविधि के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाती है, जिन्होंने स्त्रियों को गणिका बनाया। इच्छाओं के लिए पुनर्जन्म चाहती कवि अपनी-सी सोच का प्रारूप सामने रखती है। मृत्यु समय में जीवन शून्य में रहना महसूस करती कवि सूत से बँधे रिश्ते के टूटने से डरती है। बस एक ‘इंतज़ार’ कवि में मिलन की ख़ुशी को मादक बनाता है। अपने होने का यथार्थ बोध देती कवि अपनी बेटियों में स्त्री होने के वैभव का स्थापन्न देखती महुए की महक से भरपूर तारों भरी रात देना चाहती है।
अपनों के बीच चाँद की तरह अकेला होना अनाथ बच्चों की ख़ुशी को तलाशने की, अपनी ख़ुशी है। बेजार दिल की अपनी दास्तान है, जिसे कवि चाँद से बयान करती है। चाँद और आसमान से पुराना रिश्ता महसूस करती है। कविता में पूर्णता पाती कवि की पंक्ति देखिए, “वध करो कविता का मरेगी एक स्त्री ही”।
स्त्री कोहरे के बाद भी साफ़ नीले आसमान की आशा सँजोती है। प्रेम अपने अस्तित्व की रूपरेखा का बेहतर माप है, कवि जिस पर अपने भरोसे को आजमाना चाहती है। हवा और बारिश का सान्निध्य रेगिस्तान और बियाबानों को संतुष्टि का एहसास देता है। प्रकृति की मिठास देख चकित कहती है—कवि, निसर्ग से जब प्रेम हो तो ‘शत्रु’ कोई नहीं। वह कहती है, पत्ते के टूटने की पीड़ा, हिरण की भूख जिनकी कोई भाषा नहीं जैसे प्रेम की कोई भाषा नहीं।
सविता सिंह की कविताएँ प्रेम, प्राकृतिक सौंदर्य, पर्यावरण से बतियाती रसबोध उत्पन्न करती यथार्थ की पृष्ठभूमि पर समय को दर्ज करती है। प्रकृति में ख़ुद को आत्मसात कर काल्पनिकता को विस्तार देना कवि का शगल है। उनके लिए प्रेम का आधार प्रकृति है, जो उन्हें खुल कर जीना सीखाती है। जीवन से जुड़ती और नए विस्तृत क्षेत्र का आयोजन रचती है।
रात, देह, वासना, प्रेम प्रकृति के सान्निध्य में वह अपना होना साबित करती है, जिनके मध्य उनका आत्मिक संबल संतोष पाता है। उनकी बेचैनी अपनी बेबसी पर खुल कर चर्चा करती है। विचारों की कलात्मकता और सुंदर शब्दों का स्पर्श उनकी कविताएँ है।
संग्रह की भाषा रोचकता सहेजती सरलता पिरोती मधुर है। विचार कोमलता और सुंदरता का बयान है। यथार्थ और समाज की परवाह के साथ सरोकार अपनी बात रखते हैं, जिस पर रात्रिकालीन हरियाली का साफ प्रभाव दिखाई पड़ता है। वासना अपना बृहतर संज्ञान लेती सभी परिप्रेक्ष्य में बिंबों, प्रतीकों, रंगबोध और रसबोध पर अपनी बात रखती है। कवि का नितांत अकेलापन भी काल्पनिक गुलमोहर सी उत्पत्ति का भरा-पूरा एहसास कराता है, जहाँ उनका स्वच्छंद हस्तक्षेप है।