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‘हर आदमी में होते हैं दस बीस आदमी’

‘हर आदमी में होते हैं दस बीस आदमी’

देवेश पथ सारिया 21 नवम्बर 2023

यह स्कूल के दौरान की बात है। हमारे घर में ‘राजस्थान पत्रिका’ अख़बार आया करता था। तब तक मैंने शे’र-ओ-शायरी के नाम पर सस्ती और ग्रीटिंग कार्ड में लिखी जाने वाली शाइरी ही पढ़ी थी। उन्हीं दिनों ‘राजस्थान पत्रिका’ के साथ किसी परिशिष्ट के तौर शाइरी की एक बुकलेट आई। मुझे उसमें सबसे ज़्यादा पसंद एक ग़ज़ल आई। उस समय मालूम भी नहीं था कि उसे ग़ज़ल कहेंगे या नज़्म या कुछ और। उसके कुछ मिसरे मुझे याद रहे और शाइर का नाम याद रहा—निदा फ़ाज़ली।

वर्षों तक मैं तलाश करता रहा कि जो अधूरा याद रह गया था, वह पूरा लिखा कहीं मिल जाए। इंटरनेट इस्तेमाल करने के शुरुआती दौर में उसे गूगल पर भी ढूँढ़ा, पर वह नहीं मिली। ख़ैर, कुछ सालों बाद ‘शुक्रवार’ पत्रिका की साहित्यिक वार्षिकी में निदा फ़ाज़ली साहब का एक लेख प्रकाशित हुआ। यदि मैं ठीक से याद कर पा रहा हूँ तो उसका शीर्षक था—

‘जगजीत सिंह, मेरी ग़ज़लें तुम्हें याद करती हैं’

इस लेख के अंत में निदा साहब का मोबाइल नंबर भी था।

उस मोबाइल नंबर को यूँ पा जाना मेरे लिए वर्षों के इंतज़ार के बाद उस अधूरी ग़ज़ल को पूरी जान लेने का सुअवसर था। एक और कारण था। मेरे प्रिय गायक लकी अली हैं। लकी अली ने अपनी एल्बमों में अलहदा क़िस्म के गीत गाए हैं, जो उनके अपने समय से बहुत आगे का संगीत है। फिर भी एक बड़े वर्ग द्वारा लकी अली को याद ‘सुर’ फ़िल्म के गीतों के लिए किया जाता है। ‘सुर’ फ़िल्म के वे गीत निदा फ़ाज़ली साहब ने लिखे थे। मैं एक बार एक अख़बार द्वारा आयोजित सिंगिंग टैलेंट खोज प्रतियोगिता में अपने क़स्बे के गोल चक्कर पर भीड़ के सामने इसी फ़िल्म का गीत गा आया था। उस दिन सिर्फ़ दो ही लोगों की गाने की हिम्मत हुई थी, एक मैं और दूसरा सरस्वती बैंड के लिए शादियों में गीत गाने वाला लड़का। चयन तो होना था नहीं, पर गाने के बदले में मुझे एक पेन और कोल्ड ड्रिंक की बोतल मिली थी। उन गीतों के नाते भी मैं निदा साहब से एक रब्त महसूस करता था।

मेरे पास पर्याप्त पृष्ठभूमि तैयार थी। उलझन बस निदा साहब को फ़ोन मिला लेने की थी। इससे पहले मैं एक बार एक सेलिब्रिटी को फ़ोन मिलाने की ग़लती कर चुका था। मेरे एक क़रीबी रिश्तेदार दिल्ली में एक टी.वी. चैनल के लिए काम करते हैं। 22 साल की उम्र में, मैंने उनके फ़ोन से कुछ सेलिब्रिटीज के नंबर उनसे छुपकर नोट कर लिए थे। एक दिन किसी मानसिक द्वंद्व की अवस्था में मैंने एक प्रसिद्ध धर्मगुरु को फ़ोन मिला दिया था। मुझे लगा था कि गुरुजी अंतर्यामी टाइप होंगे और मेरी समस्याओं का समाधान बता देंगे। पर सामने से आ रही आवाज़ उनकी नहीं थी। लग रहा था कि वह उनके किसी चेले की है, या कोई सेक्रेटरी होगा शायद। मेरी समस्या दूर करना तो बहुत दूर की बात है, वह मेरे पीछे ही पड़ गया। वह जानना चाहता था कि मुझे नंबर मिला कैसे। मैंने एक झूठा नाम बता दिया। तब वह उस नामधारी का फोन नंबर जानना चाहता था। बड़ी मुश्किल से मैंने फ़ोन काटा और सिम तोड़कर फेंक दी। आज भी उस धर्मगुरु की जय जयकार होते देखता हूँ तो कोफ़्त होती है। वह अभी तक किसी ऐसे विवाद में नहीं आया है कि लोगों की श्रद्धा ख़त्म हो जाए।

बहरहाल, एक दिन हिम्मत करके मैंने निदा फ़ाज़ली साहब को फ़ोन मिला ही दिया। मुझे अब भी याद है कि मैं नैनीताल ऑब्जर्वेटरी के रोहिणी हॉस्टल के अपने कमरे में लेटा हुआ था और मुझे लगा था कि रिंग जाकर फ़ोन बंद हो जाएगा। पर उन्होंने फ़ोन उठाया। उनके फ़ोन उठाते ही मैं बिस्तर से उठ बैठा। मैंने कहा, ‘‘सर, मैं आपका बहुत बड़ा फ़ैन हूँ। आपको बहुत पढ़ता रहता हूँ।’’ यह मैंने झूठ बोला था, क्योंकि तब तक मैंने शाइरी की ज़्यादा किताबें नहीं पढ़ी थीं। ख़ैर, अब मैं बचपन वाली घटना पर आने वाला था। मैंने उन्हें बुकलेट वाली पूरी बात बताई। उन्होंने कहा कि ज़रा सुनाओ तो, क्या पंक्तियाँ थीं। मैंने बदहवास होती अपनी आवाज़ को सँभालते हुए वे पंक्तियाँ उन्हें सुना दीं। उन्होंने बड़े इत्मीनान से सुना और कहा, ‘‘आपने अभी यह जो ग़ज़ल सुनाई है, यह मेरी लिक्खी हुई नहीं है।’’

अगर वे शुरुआत में ही टोक देते, पूरी न सुनते तो शायद मुझे कम शर्मिंदगी होती। मुझे लगता है कि यह उनके भीतर का शाइर था जो यह सम्मान देना जानता था कि किसी कृति का पाठ बीच में रोका न जाए। अपने हिस्से की तमीज़ निभाते हुए मैं उन पंक्तियों को उद्धृत नहीं कर रहा हूँ, क्योंकि अब मुझे उनके असली शाइर का नाम मालूम हो चुका है।

मेरी हालत काटो तो ख़ून नहीं वाली हो गई। कुछ कहते न बना। सालों का इंतज़ार मिट्टी हुआ; वह अलग बात थी, पर इतने बड़े शाइर के सामने ऐसी ग़लती! इसे गुस्ताख़ी ही कह सकते हैं। असमंजस में डूबा बस इतना कह पाया, ‘‘सर, आपका बहुत बड़ा फ़ैन हूँ और आपको बहुत पढ़ता रहता हूँ।’’ और कुछ सूझ नहीं रहा था तो दुबारा वही झूठ निकल गया। उधर से फ़ोन काटने से पहले आवाज सुनाई दी, ‘‘ना जाने कहाँ-कहाँ से…।’’‌‌ ‘आ जाते हैं…’ सुनने से पहले फ़ोन कट चुका था।

इस घटना के दो साल के भीतर ही निदा साहब का इंतिक़ाल हो गया। तब तक थोड़ा-बहुत साहित्य पढ़ने लगा था।

उस घटना के इतने वर्षों बाद महसूस होता है कि भले ही मैंने मूर्खता की, पर अच्छा हुआ कि कम-से-कम एक बार उनसे बात तो कर सका। यदि दो ही विकल्प होते तो बिना मूर्खता किए निदा फ़ाज़ली साहब से बात न करने की तुलना में, मैं उनसे बात करते समय नौसिखिया और बेवकूफ़ होना ही चुनता। आख़िर में निदा साहब का शे’र :

‘‘हर आदमी में होते हैं दस बीस आदमी
जिसको भी देखना हो कई बार देखना’’

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