अली पगे रँगे जे रँग सावरे
ali page range je rang sawre
अली पगे रँगे जे रँग सावरे मो पै न आवत लालची नैना।
धावत है उतही जित मोहन रोके एकै नहिं घूँघट रोना॥
काननि कौ कल नाहि परै सखी प्रेम सो भीजे सुनै बिन बैना।
रसखानि भई मधु की मखियाँ अब नेह को बँधन क्यों हूँ छुटै ना॥
कोई गोपी अपनी सखी से अपने प्रेम का वर्णन करती हुई कहती है कि हे सखि! मेरे ये लालची नेत्र कृष्ण के प्रेम में इस प्रकार बंदी हो गए है कि अब ये मेरे वश में नहीं रहे। ये जिस ओर भी कृष्ण को देखते हैं, उसी ओर दौड़ने लगते हैं और घूँघट के घर में भी नहीं रुकते, अर्थात् चाहे जितना आवरण इनके ऊपर डाला जाए, ये उस आवरण को भेद कर भी कृष्ण की ओर दौड़ते हैं। हे सखि! प्रेम से भीगे हुए नयनों को सुने बिना इन कानों को चैन नहीं मिलता, अर्थात् ये कान प्रिय की मधुर बातों को सुनने के लिए सदैव आकुल रहते हैं। रसखान कहते हैं कि मेरी ये आँखें शहद की मक्खियाँ बन गई हैं, अब प्रेम का बंधन किस प्रकार छूट सकता है? कहने का भाव यह है कि जिस प्रकार शहद की मक्खियाँ अपने ही बनाए हुए शहद के छाते में बंदी हो जाती है, उसी प्रकार मेरे नेत्र अपने द्वारा ही उत्पन्न किए गए प्रेम में बंदी बन गए हैं।
- पुस्तक : रसखान ग्रंथावली सटीक (पृष्ठ 244)
- रचनाकार : प्रो. देशराजसिंह भाटी
- प्रकाशन : अशोक प्रकाशन
- संस्करण : 1966
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