चंद चकोर की चाह करै
chand chakor ki chah karai
चंद चकोर की चाह करै घनआनँद स्वाति पपीहा कौं धावै।
त्यौं असरेनि के ऐन बसै रबि मीन पै दीन ह्वै सागर आवै।
मोसों तुम्हें सुनौ जान कृपानिधि नेह निबाहिबो यौं छबि पावै।
ज्यौं अपनी रुचि राचि कुबेर सु रंकहि लै निज अंक बसावै॥
चंद्रमा ही चकोर की चाह करने लगे, आनंद के बादलों वाला स्वाति पपीहे की ओर दौड़ पड़े। सूर्य स्वयं जाकर रात्रि के घर में निवास करने लगे, मछली के निकट समुद्र दीनता के भाव से आ उपस्थित हो और अपनी इच्छा से अनुरक्त होकर कुबेर भी रंक को अपनी गोद में बिठा ले (अत्यधिक प्रेम प्रदर्शित करें)। हे सुजान! आप मुझसे प्रेम का निर्वाह करें तो उस स्थिति की छटा कुछ इस प्रकार की होगी।
- पुस्तक : घनानंद-कवित्त (पृष्ठ 185)
- संपादक : चंद्रशेखर मिश्र
- रचनाकार : घनानंद
- प्रकाशन : वाणी वितान प्रकाशन, वाराणसी-1
- संस्करण : 1972
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