हे गणेशजी के वाहन महागणेशमूषक! छोटा-सा रूप धारण करके कई मन के मोटे ताजे गणेशजी को उठा ले जाना या तो आपका ही काम है या इष्टीम ऐन् जीन् का ही काम है। यदि गणेशजी हजारों विघ्न नाश करते हैं तो आप करोड़ों अवश्य नाश करेंगे, तिसमें अपने ही स्त्रोत में। इसी से हम आप ही के स्त्रोत में आप ही का मंगलाचरण करते हैं! ‘‘ओं श्री मन्महा महा गणाधिपतये मूषकेशाय नम:।।’’ हे मूसे राम मामा! बालक जब उनके दुग्ध के दांत गिरते हैं, तब आपके बिल में रख देते हैं और आपसे प्रार्थना करते हैं कि हमें अपने से दन्त दो, पर आप न उनके लेते न अपने देते, इसी से न आप उघो के लेने में न माधो के देने में, अतएव आपको राम राम!
हे मूसासिंह महाराज! आप दान करने में तो राजा कर्ण हैं। बहुधा बड़े आदमियों कि परम सुकुमारी कुमारी भूषण के भार से इधर-उधर अपने आभूषण रख देती, आप चट उन्हें डोरा काटने के लोभ से बिल में खींच ले जाते। जब कोई भाग्यवान आपके बिल स्पर्श का मार्जन करता तो उसे सुवर्ण के दाने, मोतियों के गुच्छे, हीरे की कनी मिलती हैं, अतएव आपकी बिल्ली पर विजय हो, मुझ दरिद्र ब्राह्मण को भी भिक्षान्देहि कृपावलम्बन करो हे मूषकाधीश्वरी!’’
हे मूसामल भगत! हमने पुराणों से सुना है कि एक दिन आप किसी दीपक की जलती बत्ती मुँह में दाबकर कहीं भगवान मंदिर में चले गए, भगवान ने आपको दीपक दिखलाने वाला जान कर बैकुंठ दिया, अतएव जय श्री कृष्ण! जय श्री कृष्ण!
हे मूषक महा मति! हमने रुक्मिणी मंडल में सुना है कि जब श्री कृष्ण ने अपनी बरात में गणेशजी को बहुत मोटे, अतएव हास्यास्पद होने के कारण निमंत्रण नहीं दिया, तो तुमने बरात का सारा रास्ता पोला कर दिया। ज्योंही बरात चली कि धमाधम गड्ढों में गिर पड़ी, लाचार श्री कृष्ण को गणेश बुलाने पड़े। हम अभी से अपने पड़पोते के विवाह का निमंत्रण दिए देते है, ज़रूर पधारिएगा।
मूसा पैगम्बर! दुनियां के आधे लोग तुम्हें परमेश्वर का दूत मान कर पूजा करते हैं, अतएव हमारा भी आदाब अर्ज।
हे मिस्टर रैट्! एक दफा पूना के निकटस्थ जिलों में आपने हजारों खेतों का नाश कर दिया, तब लाचार सरकार ने रैट कमीशन बिठलाया, पर आप ऐसे बे शरम—कि अब तक जीते हैं, अतएव गुड् मॉर्निंग्।
हे चतुर्भुज! आपकी चारों भुजा धर्म अर्थ काम मोक्ष देती हैं, और दूसरे पक्ष में आपके वह पाँव भी हैं, इससे आप चतुर्भुज और चतुष्पाद भी हैं, केवल शंख, चक्र या फिटन की देर है।
हे बगुलाभगत! लोग तो बगुला को ही बहुत बदनाम करते हैं, पर मेरी बुद्धि में आप उसके भी गुरु हैं, जैसा आप ध्यान लगाना, निगाह चूकने पर माल उड़ाना, देखते-देखते लोप हो जाना जानते हैं, बगुला के सहस्त्र पुरुष भी नही जानते। इस कर्तव्य में तो आप ‘तांतिया भील’ हैं।
हे गोपाल! दिन में तो आप बिल रूपी वृज में बैठे-बैठे गोचारणा करते, पर जहाँ रात्रि हुई कि आप अपनी गोपियों को लेकर गृहस्थियों में घरों में रासलीला करते, अतएव हे रासबिहारी! हम आपकी नई रास-पंचाध्यायी बनाएँगे!
हे राजस की कतरनी, यदि चलुकमान हकीम ने आपके पकड़ने के लिए पिंजड़े बनवाए,पर आप उनको भी काट कर निकल जाते, अतएव आप बम्बई कलकत्ते की पिंजरापोल में भी न रहेंगे, हाँ इसी से हम भी मरे, और आप भी मरे!
हे इतिश्री इतिश्री! शास्त्र में खेतों के नाश करने के लिए छ: इति लिखी है, उनमे एक नंबर आप का भी है। हम एग्रीकल्चर डिपार्टमेंट के डाईरेक्टर साहब को परामर्श देते हैं कि आपके लिए कोई जल्दी तजबीज करें।
हे अनेक रूप रूपाय विष्णवे प्रभविष्णवै! आपके अनेक रूप हैं! कोई छोटे बालखिल्य के समान, कोई मोटे भीमसेन के प्रमान, कोई खोटे रावन की संतान, कोई उपद्रव करने में शैतान के शैतान, बस हम आपकी स्तुति गान करते हैं।
हे गुरु गोविंद! सब जातियों में गुरु, पुरोहित, पादरी होते हैं। आपकी जाति में भी पहाड़ी मूसा कुछ गौरवास्पद है, उसे देखकर आप कुछ डरते पर जहाँ वह आपके साथ घड़ी दो घड़ी किसी गृहस्थ के घर में रहे कि आपने उनका अदब कायदा सब छोड़ा। इससे यह दृष्टांत सच हुआ कि ''गुरु गुड़ ही रहे और चेला चीनी हो गए।''
हे शिक्षा गुरु वा परीक्षा गुरु! सबका कोई ना कोई गुरु अवश्य है, आपने भी यह चीरहरण माखन चोरी अवश्य किसी से सीखी होगी, कृपापूर्वक अपनी भगवद्गीता तो सिखाइए।
हे प्रवाद प्रतिवाद! संसार का यह प्रवाद भी आप ही में घटता है कि जिस हँड़िया में खाय, उसी में छेद करै। बस आपसे बढ़कर कौन परच्छिद्रान्वेषी है?
हे मुक्तिदाता! जब बिल्ली ने नौ सौ मूसे खा लिए, तब उसे ज्ञान हुआ, वह मक्के को हज करने गई, और उसे मोक्ष हुआ, पर यदि वह सौ मूसे और खा लेती, तो फिर सदेह स्वर्ग को ही चली जाती।
हे सिद्धि श्री सर्वोपरि विराजमान सकल गुणनिधांन! आपकी कहाँ तक स्तुति करें। आपके गुण गाते-गाते हम तो क्या शेष शारदा भी थक गए, बस आपकी प्रशंसा यहीं समाप्त करते हैं, और यह वर माँगते हैं कि और सब कुछ चाहे काट डालिए, पर इस मूषकस्त्रोत को न काटिए। यह आपका उन्नीसवीं शताब्दी का सर्टिफिकेट है, इसे यत्न से अपने बिल में रखिए, और इसे गले में तगमे की तरह लटका कर निकलिए।
- पुस्तक : भारतेंदु कालीन व्यंग परम्परा (पृष्ठ 25)
- संपादक : ब्रेजेंद्रनाथ पांडेय
- रचनाकार : राधाचरण गोस्वामी
- प्रकाशन : कल्याणदास एंड ब्रदर्स
- संस्करण : 2013
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