मूर्खता बहुत चिंतन नहीं माँगती। थोड़ा-सा कर लो, यही बहुत है। न भी करो तो चलता है। तो फिर मैं क्यों कर रहा हूँ? यों ही मूर्खतावश तो करने नहीं बैठ गया? नहीं साहब। हमसे बाक़ायदा कहा गया है कि करके दीजिए। इसीलिए कर रहे हैं। संपादक ने तो यहाँ तक कहा कि यह काम आपसे बेहतर कोई नहीं कर सकता और मूर्खता की बात चलते ही सबसे पहले आपका ही ख़याल आया था। शायद ऐसा उन्होंने मेरी फ़ोटो देखकर कहा हो। कुछ ऐसी मूर्खतापूर्ण कशिश है मेरे चेहरे में कि आप किसी भी कोण से फ़ोटो खींच लें, चीज़ छुपती नहीं। मूर्ख लगने, न लगने के बीच का एक संदेहास्पद क्षण हमेशा के लिए ठहर गया है चेहरे पर सो लगता तो हूँ। पर आप जान लें कि ऐसा हूँ नहीं। फ़ोटो तो हमेशा धोखा देते हैं। कुछ जो हैं, बल्कि ख़ासे हैं वज्र टाइप हैं, वे फ़ोटो में ऐसे नज़र नहीं आते। कई बार तो ख़ासे होशियार नज़र आते हैं। कुछ मूर्ख तो समझदारीवश कुछ इस धज में फ़ोटो खिंचवाते हैं कि होशियारी का भ्रम खड़ा हो जाए। ठुड्डी पर हाथ रखकर मुँदी-सी आँखें रखे। चिंतन में मग्न, बग़ल में चार किताबें धर के या किताबों की रैक के बग़ल में खड़े होकर, या चेहरे पर आधी रोशनी, आधी छाया डालकर यदि फ़ोटो खिंचता हो तो आदमी बिना किसी और कारण के ही बुद्धिमान नज़र आने लगता है।
चिंतन में पहला पेंच यही आता है कि मूर्ख किसे कहें? परिभाषा क्या है? मूर्खता नापने का कोई यंत्र नहीं। इसकी नपती का फ़ीता भी उपलब्ध नहीं। बस अंदाज़ से पता करना होता है। मूर्खता हो सामने तो अंदाज़-सा होने लगता है। फिर थोड़ी देर बात करो तो वह प्रकट भी हो जाती है।
परंतु कई बार बातों से भी कुछ पता नहीं चल पाता। कठिन होता है, क्योंकि कई मूर्ख भी रटी-रटाई बुद्धिमत्तापूर्ण बातें करते हैं। साहित्य तथा चिंतन में तो हम नित्य ही इस दुनिया से गुज़रा करते हैं कि भाषा की आड़ से मूर्खता बोल रही है या विद्वत्ता? इसे समझना आवश्यक है कि मूर्ख इतना भी मूर्ख नहीं होता है कि सीधे-सीधे पकड़ में आ जाए। मूर्ख हमेशा मूर्ख ही नहीं होता। वह विद्वान तक हो सकता है।
मूर्ख टाइप के भी विद्वान होते ही हैं या कहें कि विद्वान टाइप के मूर्ख। पर ऐसे मूर्ख तब ज़्यादा ख़तरनाक मूर्ख साबित होते हैं और उनसे बचकर निकलने में ही होशियारी कहलाती है। ऐसे मूर्ख विद्वान या विद्वत् मूर्ख किसी ऊँची कुर्सी पर बिराजे भी मिल सकते हैं। अब यह मत पूछिएगा कि मूर्ख होते हुए भी वह ऊँची कुर्सी पर कैसे पहुँचा।
आपके मूर्खतापूर्ण प्रश्न का उत्तर यही है कि एक तो मूर्खता की वजह से ही उसे यहाँ बिठाया जाता है। फिर कई की मूर्खता कुर्सी पर बैठने पर ही प्रकट होती है। बैठने से पहले ठीक-ठाक लगते थे बल्कि थे ही। कुर्सी की अपनी मूर्खताएँ होती हैं। उस पर मूर्ख भी बैठ जाते हैं।
फिर कुर्सी के लिए चालाकी की आवश्यकता होती है, होशियारी की नहीं और मूर्ख होने का मतलब यह क़तई नहीं कि मूर्ख आदमी चालाक नहीं हो सकता। वह चालाक क़िस्म का मूर्ख हो सकता है, सो चालाकी से कुर्सी हथिया ले और मूर्खता के कारण कुर्सी पर सफल भी हो जाए। यह बात अवश्य है कि मूर्खता बहुत समय तक छिपकर नहीं रह पाती।
वह प्रकट होने के लिए कसमसाती रहती है। वह मौक़ा ताड़ती रहती है। आदमी लाख विद्वत्ता, लेखन, बड़प्पन, पद, कवित्त, बयानों भाषणों आदि से ढाँकने की कोशिश कर ले, मूर्खता कहीं न कहीं से झाँकने ही लगती है। यदि आप मूर्ख न हों या अंधे ही न हों तो झाँकती मूर्खता को पकड़ सकते हैं।
अब चिंतन में दूसरा पेंच यह है कि अंततः कितनी मूर्खता हो कि एक आदमी ठीक-ठाक सा मूर्ख कहा जा सके? या यह भी कि कितनी होशियारी के रहते आप मूर्खता पर ध्यान न देंगे? याद रहे कि दुनिया के बाज़ार में मूर्खता भी मूल्य की तरह है राजनीति से चलकर कवि सम्मेलन तक इसी मूल्य पर आधारित सिस्टम है।
कई मामलों में मूर्खता होशियारी से भी बड़ा मूल्य माना जाता है, क्योंकि होशियारी की एक सीमा होती है, जबकि मूर्खता सीमाहीन हो सकती है। आप जितना समझ रहे थे, सामने वाला उससे बड़ा निकल सकता है। उसे ख़ुद पता नहीं होता कि उसमें मूर्खता की कितनी क्षमता भरी पड़ी है।
मूर्खता कुछ तो जन्मजात होती है, पर बहुत-सी अर्जित की जाती है। छोटे मूर्ख बाद में बड़े वाले होते देखे गए हैं। जैसे हमारे कुछ लेखक मित्र शुरू से थे, पर बाद में किसी संघ या 'वाद' से जुड़कर मानो मूर्खता को ही समर्पित हो गए और लेखन में भले ही रह गए हों, पर मूर्खता में ऐसी ऊँचाइयों को हुआ कि लोग हमेशा भयभीत रहे कि वहाँ से हम पर ही न कूद पड़ें।
तीसरा पेंच यह कि क्या मूर्खता ऐसी ही बेकार की चीज़ है और होशियारी बहुत बड़ी बात? मूर्खता को छुपाना चाहिए या होशियारी को? हमारे पिता जी हमें डाँटते थे तो यही कहते थे कि हमारे सामने ज़्यादा होशियारी दिखाई तो ठीक कर देंगे। उनसे ही हमने जाना था कि होशियारी भी एक लानत हो सकती है और होशियारी प्रदर्शित करना भी कई जगह मूर्खता की बात हो सकती है। आगे के जीवन में भी मैंने ही सीखा कि इस देश में मूर्खता के प्रदर्शन पर तो कोई बुरा नहीं मानता, बल्कि अपने जैसा पाकर प्रायः लोग ख़ुश ही होते हैं।
होशियार भी मूर्खता देखकर ख़ुश होते हैं कि वे कितने होशियार हैं, जबकि सब कैसे मूरख हैं। मूर्खता को प्रश्रय, बढ़ावा और सम्मान तक मिलता है, क्योंकि मूर्ख आदमी किसी के लिए न तो ख़तरा बनता है, न ही उनसे प्रतियोगिता में रह पाता है। सो दुनिया मूर्खों से प्रसन्न है। वह तो होशियारों, समझदारों और बुद्धिमानों से भय खाती है। चिढ़ती भी है। परेशान भी रहती है। वह बुद्धिमान को बर्दाश्त नहीं कर पाती। ख़िलाफ़ हो जाती है। विरोध करती है। किताबें प्रतिबंधित करती है। किताबें, अख़बार जला डालती हैं। पेंटिंग नष्ट कर डालती है। देश निकाला कर देती है। फ़तवे जारी करती है।गालियाँ देती है। प्रदर्शन करती है। दुनिया बुद्धिमानों के ख़िलाफ़ ही रहती रही है। जीसस से लगाकर ओशो तक दुनिया की इसी सामूहिक मूर्खता के शिकार हुए हैं।
तो सारे पेंचों से घूमकर चिंतन का निचोड़ यही निकल रहा है कि इस दुनिया में आमतौर पर, और इस देश में विशेष तौर पर मूर्ख बने रहने में ही भलाई है। यह तथ्य सभी बुद्धिमान जानते हैं। इसी कारण जब यहाँ किसी मूर्ख को देखो तो उसे मूर्ख ही मत मान बैठना। हो सकता है कि वह इतना होशियार हो कि दुनिया में मूर्ख बना पेश आ रहा हो। जब मूर्खता एक अप्रतिम मूल्य बन जाए तो मूर्ख बनने में ही होशियारी है।
murkhata bahut chintan nahin mangti. thoDa sa kar lo, yahi bahut hai. na bhi karo to chalta hai. to phir main kyon kar raha hoon? yon hi murkhtavash to karne nahin baith gaya? nahin sahab. hamse bakayada kaha gaya hai ki karke dijiye. isiliye kar rahe hain. sanpadak ne to yahan tak kaha ki ye kaam aapse behtar koi nahin kar sakta aur murkhata ki baat chalte hi sabse pahle aapka hi khayal aaya tha. shayad aisa unhonne meri photo dekhkar kaha ho. kuch aisi murkhtapurn kashish hai mere chehre mein ki aap kisi bhi kon se photo kheench len, cheez chhupti nahin. moorkh lagne, na lagne ke beech ka ek sandehaspad kshan hamesha ke liye thahar gaya hai chehre par so lagta to hoon. par aap jaan len ki aisa hoon nahin. photo to hamesha dhokha dete hain. kuch jo hain, balki khase hain vajr type hain, ve photo mein aise nazar nahin aate. kai baar to khase hoshiyar nazar aate hain. kuch moorkh to samajhdarivash kuch is dhaj mein photo khinchvate hain ki hoshiyari ka bhram khaDa ho jaye. thuDDi par haath rakhkar mundi si ankhen rakhe. chintan mein magn, bagal mein chaar kitaben dhar ke ya kitabon ki rack ke bagal mein khaDe hokar, ya chehre par aadhi roshni, aadhi chhaya Dalkar yadi photo khinchta ho to adami bina kisi aur karan ke hi buddhiman nazar aane lagta hai.
chintan mein pahla pench yahi aata hai ki moorkh kise kahen? paribhasha kya hai? murkhata napne ka koi yantr nahin. iski napti ka fita bhi uplabdh nahin. bus andaz se pata karna hota hai. murkhata ho samne to andaz sa hone lagta hai. phir thoDi der baat karo to wo prakat bhi ho jati hai.
parantu kai baar baton se bhi kuch pata nahin chal pata. kathin hota hai, kyonki kai moorkh bhi rati ratai buddhimattapurn baten karte hain. sahity tatha chintan mein to hum nity hi is duniya se guzra karte hain ki bhasha ki aaD se murkhata bol rahi hai ya vidvatta? ise samajhna avashyak hai ki moorkh itna bhi moorkh nahin hota hai ki sidhe sidhe pakaD mein aa jaye. moorkh hamesha moorkh hi nahin hota. wo vidvan tak ho sakta hai.
moorkh type ke bhi vidvan hote hi hain ya kahen ki vidvan type ke moorkh. par aise moorkh tab zyada khatarnak moorkh sabit hote hain aur unse bachkar nikalne mein hi hoshiyari kahati hai. aise moorkh vidvan ya vidvat moorkh kisi unchi kursi par biraje bhi mil sakte hain. ab ye mat puchiyega ki moorkh hote hue bhi wo unchi kursi par kaise pahuncha.
aapke murkhtapurn parashn ka uttar yahi hai ki ek to murkhata ki vajah se hi use yahan bithaya jata hai. phir kai ki murkhata kursi par baithne par hi prakat hoti hai. baithne se pahle theek thaak lagte the. balki the hi. kursi ki apni murkhtayen hoti hain. us par moorkh bhi baith jate hain.
phir kursi ke liye chalaki ki avashyakta hoti hai, hoshiyari ki nahin aur moorkh hone ka matlab ye qatii nahin ki moorkh adami chalak nahin ho sakta. wo chalak qim ka moorkh ho sakta hai, so chalaki se kursi hathiya le aur murkhata ke karan kursi par saphal bhi ho jaye. ye baat avashy hai ki murkhata bahut samay tak chhipkar nahin rah pati.
wo prakat hone ke liye kasmasati rahti hai. wo mauqa taDti rahti hai. adami laakh vidvatta, lekhan, baDappan, pad, kavitt, bayanon bhashnon aadi se Dhankne ki koshish kar le, murkhata kahin na kahin se jhankne hi lagti hai. yadi aap moorkh na hon ya andhe hi na hon to jhankti murkhata ko pakaD sakte hain.
ab chintan mein dusra pench ye hai ki antat kitni murkhata ho ki ek adami theek thaak sa moorkh kaha ja sake? ya ye bhi ki kitni hoshiyari ke rahte aap murkhata par dhyaan na denge? yaad rahe ki duniya ke bazar mein murkhata bhi mooly ki tarah hai rajaniti se chalkar kavi sammelan tak isi mooly par adharit sistam hai.
kai mamlon mein murkhata hoshiyari se bhi baDa mooly mana jata hai, kyonki hoshiyari ki ek sima hoti hai, jabki murkhata simahin ho sakti hai. aap jitna samajh rahe the, samne vala usse baDa nikal sakta hai. use khu pata nahin hota ki usmen murkhata ki kitni kshamata bhari paDi hai.
murkhata kuch to janmajat hoti hai, par bahut si arjit ki jati hai. chhote moorkh baad mein baDe vale hote dekhe gaye hain. jaise hamare kuch lekhak mitr shuru se the, par baad mein kisi sangh ya vaad se juDkar mano murkhata ko hi samarpit ho gaye aur lekhan mein bhale hi rah gaye hon, par murkhata mein aisi unchaiyon ko hua ki log hamesha bhaybhit rahe ki vahan se hum par hi na kood paDen.
tisra pench ye ki kya murkhata aisi hi bekar ki cheez hai aur hoshiyari bahut baDi baat? murkhata ko chhupana chahiye ya hoshiyari ko? hamare pita ji hamein Dantte the to yahi kahte the ki hamare samne zyada hoshiyari dikhai to theek kar denge. unse hi hamne jana tha ki hoshiyari bhi ek lanat ho sakti hai aur hoshiyari pradarshit karna bhi kai jagah murkhata ki baat ho sakti hai. aage ke jivan mein bhi mainne hi sikha ki is desh mein murkhata ke pradarshan par to koi bura nahin manata, balki apne jaisa pakar praya log khush hi hote hain.
hoshiyar bhi murkhata dekhkar khush hote hain ki ve kitne hoshiyar hain, jabki sab kaise murakh hain. murkhata ko prashray, baDhava aur samman tak milta hai, kyonki moorkh adami kisi ke liye na to khatra banta hai, na hi unse pratiyogita mein rah pata hai. so duniya murkhon se prasann hai. wo to hoshiyaron, samajhdaron aur buddhimanon se bhay khati hai. chiDhti bhi hai. pareshan bhi rahti hai. wo buddhiman ko bardasht nahin kar pati. khilaf ho jati hai. virodh karti hai. kitaben pratibandhit karti hai. kitaben, akhbar jala Dalti hain. painting nasht kar Dalti hai. desh nikala kar deti hai. fatve jari karti hai. galiyan deti hai. pradarshan karti hai. duniya buddhimanon ke khilaf hi rahti rahi hai. jisas se lagakar osho tak duniya ki isi samuhik murkhata ke shikar hue hain.
to sare penchon se ghumkar chintan ka nichoD yahi nikal raha hai ki is duniya mein amtaur par, aur is desh mein visheshtaur par moorkh bane rahne mein hi bhalai hai. ye tathy sabhi buddhiman jante hain. isi karan jab yahan kisi moorkh ko dekho to use moorkh hi mat maan baithna. ho sakta hai ki wo itna hoshiyar ho ki duniya mein moorkh bana pesh aa raha ho. jab murkhata ek apratim mooly ban jaye to moorkh banne mein hi hoshiyari hai.
murkhata bahut chintan nahin mangti. thoDa sa kar lo, yahi bahut hai. na bhi karo to chalta hai. to phir main kyon kar raha hoon? yon hi murkhtavash to karne nahin baith gaya? nahin sahab. hamse bakayada kaha gaya hai ki karke dijiye. isiliye kar rahe hain. sanpadak ne to yahan tak kaha ki ye kaam aapse behtar koi nahin kar sakta aur murkhata ki baat chalte hi sabse pahle aapka hi khayal aaya tha. shayad aisa unhonne meri photo dekhkar kaha ho. kuch aisi murkhtapurn kashish hai mere chehre mein ki aap kisi bhi kon se photo kheench len, cheez chhupti nahin. moorkh lagne, na lagne ke beech ka ek sandehaspad kshan hamesha ke liye thahar gaya hai chehre par so lagta to hoon. par aap jaan len ki aisa hoon nahin. photo to hamesha dhokha dete hain. kuch jo hain, balki khase hain vajr type hain, ve photo mein aise nazar nahin aate. kai baar to khase hoshiyar nazar aate hain. kuch moorkh to samajhdarivash kuch is dhaj mein photo khinchvate hain ki hoshiyari ka bhram khaDa ho jaye. thuDDi par haath rakhkar mundi si ankhen rakhe. chintan mein magn, bagal mein chaar kitaben dhar ke ya kitabon ki rack ke bagal mein khaDe hokar, ya chehre par aadhi roshni, aadhi chhaya Dalkar yadi photo khinchta ho to adami bina kisi aur karan ke hi buddhiman nazar aane lagta hai.
chintan mein pahla pench yahi aata hai ki moorkh kise kahen? paribhasha kya hai? murkhata napne ka koi yantr nahin. iski napti ka fita bhi uplabdh nahin. bus andaz se pata karna hota hai. murkhata ho samne to andaz sa hone lagta hai. phir thoDi der baat karo to wo prakat bhi ho jati hai.
parantu kai baar baton se bhi kuch pata nahin chal pata. kathin hota hai, kyonki kai moorkh bhi rati ratai buddhimattapurn baten karte hain. sahity tatha chintan mein to hum nity hi is duniya se guzra karte hain ki bhasha ki aaD se murkhata bol rahi hai ya vidvatta? ise samajhna avashyak hai ki moorkh itna bhi moorkh nahin hota hai ki sidhe sidhe pakaD mein aa jaye. moorkh hamesha moorkh hi nahin hota. wo vidvan tak ho sakta hai.
moorkh type ke bhi vidvan hote hi hain ya kahen ki vidvan type ke moorkh. par aise moorkh tab zyada khatarnak moorkh sabit hote hain aur unse bachkar nikalne mein hi hoshiyari kahati hai. aise moorkh vidvan ya vidvat moorkh kisi unchi kursi par biraje bhi mil sakte hain. ab ye mat puchiyega ki moorkh hote hue bhi wo unchi kursi par kaise pahuncha.
aapke murkhtapurn parashn ka uttar yahi hai ki ek to murkhata ki vajah se hi use yahan bithaya jata hai. phir kai ki murkhata kursi par baithne par hi prakat hoti hai. baithne se pahle theek thaak lagte the. balki the hi. kursi ki apni murkhtayen hoti hain. us par moorkh bhi baith jate hain.
phir kursi ke liye chalaki ki avashyakta hoti hai, hoshiyari ki nahin aur moorkh hone ka matlab ye qatii nahin ki moorkh adami chalak nahin ho sakta. wo chalak qim ka moorkh ho sakta hai, so chalaki se kursi hathiya le aur murkhata ke karan kursi par saphal bhi ho jaye. ye baat avashy hai ki murkhata bahut samay tak chhipkar nahin rah pati.
wo prakat hone ke liye kasmasati rahti hai. wo mauqa taDti rahti hai. adami laakh vidvatta, lekhan, baDappan, pad, kavitt, bayanon bhashnon aadi se Dhankne ki koshish kar le, murkhata kahin na kahin se jhankne hi lagti hai. yadi aap moorkh na hon ya andhe hi na hon to jhankti murkhata ko pakaD sakte hain.
ab chintan mein dusra pench ye hai ki antat kitni murkhata ho ki ek adami theek thaak sa moorkh kaha ja sake? ya ye bhi ki kitni hoshiyari ke rahte aap murkhata par dhyaan na denge? yaad rahe ki duniya ke bazar mein murkhata bhi mooly ki tarah hai rajaniti se chalkar kavi sammelan tak isi mooly par adharit sistam hai.
kai mamlon mein murkhata hoshiyari se bhi baDa mooly mana jata hai, kyonki hoshiyari ki ek sima hoti hai, jabki murkhata simahin ho sakti hai. aap jitna samajh rahe the, samne vala usse baDa nikal sakta hai. use khu pata nahin hota ki usmen murkhata ki kitni kshamata bhari paDi hai.
murkhata kuch to janmajat hoti hai, par bahut si arjit ki jati hai. chhote moorkh baad mein baDe vale hote dekhe gaye hain. jaise hamare kuch lekhak mitr shuru se the, par baad mein kisi sangh ya vaad se juDkar mano murkhata ko hi samarpit ho gaye aur lekhan mein bhale hi rah gaye hon, par murkhata mein aisi unchaiyon ko hua ki log hamesha bhaybhit rahe ki vahan se hum par hi na kood paDen.
tisra pench ye ki kya murkhata aisi hi bekar ki cheez hai aur hoshiyari bahut baDi baat? murkhata ko chhupana chahiye ya hoshiyari ko? hamare pita ji hamein Dantte the to yahi kahte the ki hamare samne zyada hoshiyari dikhai to theek kar denge. unse hi hamne jana tha ki hoshiyari bhi ek lanat ho sakti hai aur hoshiyari pradarshit karna bhi kai jagah murkhata ki baat ho sakti hai. aage ke jivan mein bhi mainne hi sikha ki is desh mein murkhata ke pradarshan par to koi bura nahin manata, balki apne jaisa pakar praya log khush hi hote hain.
hoshiyar bhi murkhata dekhkar khush hote hain ki ve kitne hoshiyar hain, jabki sab kaise murakh hain. murkhata ko prashray, baDhava aur samman tak milta hai, kyonki moorkh adami kisi ke liye na to khatra banta hai, na hi unse pratiyogita mein rah pata hai. so duniya murkhon se prasann hai. wo to hoshiyaron, samajhdaron aur buddhimanon se bhay khati hai. chiDhti bhi hai. pareshan bhi rahti hai. wo buddhiman ko bardasht nahin kar pati. khilaf ho jati hai. virodh karti hai. kitaben pratibandhit karti hai. kitaben, akhbar jala Dalti hain. painting nasht kar Dalti hai. desh nikala kar deti hai. fatve jari karti hai. galiyan deti hai. pradarshan karti hai. duniya buddhimanon ke khilaf hi rahti rahi hai. jisas se lagakar osho tak duniya ki isi samuhik murkhata ke shikar hue hain.
to sare penchon se ghumkar chintan ka nichoD yahi nikal raha hai ki is duniya mein amtaur par, aur is desh mein visheshtaur par moorkh bane rahne mein hi bhalai hai. ye tathy sabhi buddhiman jante hain. isi karan jab yahan kisi moorkh ko dekho to use moorkh hi mat maan baithna. ho sakta hai ki wo itna hoshiyar ho ki duniya mein moorkh bana pesh aa raha ho. jab murkhata ek apratim mooly ban jaye to moorkh banne mein hi hoshiyari hai.
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।