Font by Mehr Nastaliq Web

बक़ौल

baqaul

सैयद शफ़ीउद्दीन

और अधिकसैयद शफ़ीउद्दीन

    एक (मित्र) समीक्षक :

    मानना पड़ेगा कि, 'डैश' आज के प्रयोगवादी कवियों से दो क़दम आगे हैं— 

    अ  जो लिखा है, अजीबो-ग़रीब टेकनीक को अपनाकर। [जिसे देखकर लाज़िमी है बड़ों-बड़ों के मुँह का खुला रह जाना और कुछ क्षणों के लिए दिमाग़ में इस तरह के ख़यालात का मँडरा जाना, कि आसमान ऊपर है या ज़मीन; अथवा सूरज डूब गया और दिन नहीं निकला??]

    व  विचित्रता की धुरी पर आधारित और नयेपन की इस्त्री-तले प्रेस किए होने के बावज़ूद उनकी कविताओं में छायावादी ख़ुशबू का मिश्रण होता है—यानी बहुत कुछ के अलावा उनमें 'कुछ' ऐसा भी है, जो बहुत नाज़ुक, बहुत प्रिय, बहुत मधुर होता है, जो अन्यत्र नहीं मिलता   सिर खपाने पर भी!

    उदाहरण देखिए ['कोपलें' का]—
    अभी फूटी
    कोई बात नहीं
    प्रभाव स्थानापन्न है
    —सुहानापन ही
    किंतु भ्रम है—अमर है भ्रम
    रेत के कण भी चमकते हैं।
    किंतु रेत
    (इतिहास के पन्ने देखिए!)
    सहारा 'होना' है,
    जो नहीं होता
    अस्तु,
    टिके कब तक
    खिले का खिला रहना   

    है कहीं ऐसा अनबूझ आइडिया, है कहीं ऐसी नज़ाकत, कोमलता, प्रवाह?!

    चचा 'ग़ुरबत', चाय वाले :

    कोई एक—चचा, बड़ा ऐंठू खाँ बना फिरता है!

    कोई दूसरा— “मत कहिए साहब, दिमाग़ की तो कोई थाह ही नहीं मिलती! शायरी को दुम क्या हिलाने लगा, समझता है, कि दुनिया बेवकूफ़ है, और सारी अक़्ल का पिटारा बेटा के पट्टों में छिपा है।   

    चचा 'ग़ुरबत'—कोई बात नहीं यारो, 'अपना' ही है!

    भाभी :

    तुम्हारे जैसा ग़ैर-ज़िम्मेदार आदमी तो मैंने आज तक नहीं देखा! यह दिन भर ऊल-जलूल लिखते और फाड़ते रहने के आख़िर क्या मानी? शादी हो जाती, तो अभी चार बच्चों के बाप होते, मगर इतनी भी अक़्ल नहीं, कि आदमी को अपने पैरों पर खड़े होने की कोशिश करनी चाहिए। 'भइया' का कोट पहन लिया, 'भइया' का पतलून डाल लिया, चवन्नी का सौदा लाए, तो अधन्ना काटकर सिग्रेट पी लिया      लानत है! 

    ज़िला सीतापुर, ज़िला कलकत्ता और मुल्क रूस की तीन पाठिकाएँ :

    नंबर एक—

    आदरणीय श्रीमान् 'डैश' जी, 
    सादर प्रणाम। आपकी कविताएँ अकसर पत्र-पत्रिकाओं में पढ़ने को मिलती हैं। अच्छा लिख रहे हैं। मेरी शुभ कामनाएँ।

    भवदीया
    फूलवती ‘फूल’   ”

    [पत्र की दूसरी बग़ल—
    कविताएँ तुम्हें पसंद आईं, धन्यवाद। पर यह 'आदरणीय' और 'श्रीमान्' के क्या मानी, प्रिये?
    —‘डैश’  ”]
    नंबर दो—
    महोदय,
    आपकी कविता-कला की मैं क़ायल हूँ। बहुत ही प्रशंसनीय ढंग है बातों को कहने का। और क्या लिख रहे हैं? 
    आपकी, [पत्र अँग्रेज़ी में था]
    'प्रेरणा' 

    [ हाशिये में— 
    तुम्हारी चिट्ठी की ख़ुशबू को सूँघता हूँ, मुहब्बत में तड़पता हूँ और अनदेखी पलकों की तसवीर खींच रहा हूँ। ]

    नंबर तीन—

    प्रिय बंधु,
    कविता-संग्रह मिला, पढ़ा निराशा हुई।—कुछ समझ न सकी।
    आपकी,
    विमला हॉव

    [ लिफ़ाफ़े पर—
    'मूक जो हो, तो
    व्यथा का कारण 
    दूरियाँ अकसर 
    समझ नहीं पाती।

    —'डैश'—' ]

    एक सम्पादक :

    'जी नहीं, हमारे यहाँ पारिश्रमिक की व्यवस्था नहीं!'

    झब्बू मास्टर, 'अलबत टेलरिंग शॉप' :
    सीना—27 इंच
    कमर—24 
    गर्दन—9 3/4
    ..
    … ..
    तैयार देने की तिथि—15 
    [दिया गया 19 को!]

    मुहल्ले की भंगिन :

    'देखो बाबू, हम नीच क़ौम हुए तो क्या,इज़्ज़त हमें भी पियारी है। अबकी से आँखें मटकायीं, तो ठीक नहीं खायेगा!’
    [इस डर से, कि रसोई में तरकारी काटती हुई भाभी न सुन लें,हाथ जोड़कर माफ़ी माँग लेना!]

    शंकाएँ और समाधान :

    ‘[सच तो यह कि शंका का समाधान हो ही नहीं सकता, क्योंकि जिसे एक समाधान समझे, वह ओर के लिए कोई समस्या हो—और मेरी शंकाएँ चूँकि व्यक्तिगत नहीं!]
    'प्यार?'
    '— सीढ़ियाँ। यह बात और, कि कहीं कुतुब मीनार से चक्कर हों, तो कहीं काशी के घाटों-सा पाताल में धँसाव और कहीं 'आई० आई० ए० सी तड़क-भड़क, कि—
    भर्र...
    'क्या हुआ?'
     'जहाज उड़ गया, धूल उड़ रही है!'
    'वादे?'
    ‘—रुइया बादल।'
    'एक आम ट्रेजेडी?'
    '—1  9, यानी बहुत दूर तक सफलता रही, पर एक ऐसी कगार है, जो नहीं छुल पाती, नहीं छुल पाती—अस्थायी है बाढ़ का पानी '

    'आस्था क्या है? क्यों है?'
    '—बचपन'

    'क्यों, कि कुछ जानना शेष रहता है। ['मेक-अप का सेन्स समझना ज़रूरी है।' ]
    'नवीनता?'
    '—दुनिया इतनी पुरानी है [घिसी हुई!], कि कुछ भी नवीन नहीं। 
    'किंतु जो कहते हैं?'
     'उन्हें धोखा दिया जाता है।'

    क्लब 'रेडरोज़' में ऐडमीशन की अनुभूति :
    'नेम प्लीज़?'
    'डैश!'
    'डैश?'
    'जी हाँ डैश!'
    'फ़ुलस्टाप नहीं?'
    'नहीं। आप प्रजेंट में चल रही हैं, या फ्यूचर में?!'
    धीमी-सी खिलखिलाहट।
    दिल है, कि भसम, भसम, भसम
    'काम?' 
    'काव्य-रचना।'
    'यह कौन-सा डिपार्ट है?'
    'झखने का।'
    'बी सीरियस प्लीज़! किस डिपार्ट में काम करते हैं?'
    'काव्य-रचना डिपार्ट नहीं।'
    'फ़र्म है?'
    'जी नहीं।'
    'दूकान है?'
    'जी नहीं।'
    'तब क्या है!' सिनेमा-गेटकीपर का ट्रांसलेशन?!’
    'नहीं। वर्स-राइटिंग!'
    'ओ...ह! तो यूँ कहिए...वर्स-राइटिंग! पोएट हैं!' ख़ूब, बहुत ख़ूब!'
    'क्या मतलब?'
    'मतलब, कि शक्ल भी है!'
    'शुक्रिया।'
    वही धीमी-धीमी-सी खिलखिलाहट।
    कान हैं, कि बज रहे हैं—झाँय, झाँय, झाँय
    'ऐडरेस?'
    '50, रहनुमा बिल्डिंग, लालगंज।'
    क्या हसीन उँगलियाँ हैं, क्या हसीन अक्षर—50—रहनुमा—बिल्डिंग 
    'बिलकुल पास ही है, ये क्या, ये क्या बिलकुल      ।   किसी रोज़   '
    अरे!
    लेकिन मुसकराहट कुछ और उभर आती है   ।
             X                                X                             X 

     रात इतनी सुनसान और अँधेरी क्यों है    और ये तारे, ये आँखें...

    रेस्टुरेण्ट की दो कुर्सियाँ :
    दो प्याली चाय, और दो केक-पीस।
    और बहुत सारी फुसफुसाहटें  ।

    सिनेमा हाउस :
    थर्ड शो।
    '    सरो, कभी तुमने सोचा है, कि हमारी ज़िंदगी   '

    कंपनी बाग़ :
    दूधिया चाँदनी। बेले और रातरानी की भीनी-भीनी ख़ुशबू, और अशोक की पत्तियों की ख़ामोशी, और दूब पर जमी हुई शबनम की बूँदें, और ठंड

    कम्बख़्त हमदर्द :

    'भई, सोचना चाहिए, हमने भी काट-पीटकर दिया था     कुछ नहीं, तो कम-से-कम 5) ही लौटा दो   ’
    ‘?
    कठिन हो
    तोड़ती हो, पर न जाने क्यों—शिला

    प्रिय तुम।‘

    प्लाईमाउथ की पिछली सीट
    'सरो!'
    'हूँ।' 
    'क्या यह ठीक है?'
    'क्या?'
    'जो मैंने सुना है।' 
    'क्या?'
    'कि वह डैश...'
    'बस-बस भटनागर बाबू'   ह-ह-ह, ख़ूब   ! वह डैश   हि-हि-हि    फुलस्टाप, कामा, सिल्ली    !  ह-ह-ह...
    और होटल 'डि-बर्लिन' का कमरा नंबर 270—
    'ह-ह-ह   भटनागर बाबू   ह-ह-ह...’
    और काग़ज़ी सरसराहट—
    'ख़ूब! भटनागर बाबू... हि-हि-हि...'
    और शीशे की टुनक—
    'हि-हि-हि   ह ह ह   '
    ‘हो-हो-हो  '

    (चटाख!) :

    एक चिट—
    'Explain Mr. Poet 
    What is O?
    Z-E-R-O?
    Z-E-R-O?'

    यों ही ( ज़ख़्म की गहराई? ) :

    पिनकी हकीमजी—'म्याँ, कुछ उँखड़े-उँखड़े दिख रिये हो, सब ख़ैर सल्ला तो है न?'

    'बस दुआ है, ज़रा मौसम को तब्दीली की वजह से   ’
    स्रोत :
    • पुस्तक : आधुनिक हिंदी हास्य-व्यंग्य (पृष्ठ 234)
    • संपादक : केशवचंद्र वर्मा
    • रचनाकार : सैयद शफ़ीउद्दीन
    • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ
    • संस्करण : 1961
    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

    ‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY