सोमेश्वर की पहाड़ियों में
someshvar ki pahaDiyon mein
(एक)
आप तो अब पूरे। —सचमुच पूरे महंत हुए जा रहे हैं। क्या आपकी आखेट-प्रियता समाप्त हो गई?
किसी ने पीछे से, मेरे कंधों पर हाथ रखकर, ऊपर लिखी बातें एक ही साँस में कह डालीं। उस दिन नरकटियागंज (चंपारन) में भूकंप-विध्वस्त श्रीजानकी-संस्कृत-विद्यालय के भवन की नींव देने का उत्सव था। अठारह वर्षों में विद्यालय की की हुई उत्तरोत्तर उन्नति को सामने रखकर हम लोगों ने उसे कालेज बनाने का विचार किया था। नींव देने के लिए ज़िले के कलेक्टर महोदय आ रहे थे। उस समय मंत्री की हैसियत से लिखी हुई अपनी रिपोर्ट की भाषा पर विचार करने में मैं तल्लीन था। ऊपर लिखी बात सुनकर मैंने अपनी अकचकाई हुई दृष्टि पीछे की ओर की। देखा, चंपारन के प्रसिद्ध मोटरबाज़ तालुक़ेदार मेरे आदरणीय मित्र राजकुमार बाबू शत्रुमर्दन शाह बी. ए. खड़े-खड़े मुस्कुरा रहे हैं।
डिस्ट्रिक्ट बोर्ड की चेयरमैनी से आपको छुट्टी भी है? मैंने छूटते ही कहा और मुस्कुराता हुआ उठकर खड़ा हो गया।
किंतु वे झेपने वाले कहाँ थे? तुरंत ही बोले—अच्छा तो आज ही, इसी उत्सव के बाद, देखें शिकार के लिए कौन नहीं चलता। क्या इसके लिए शपथ भी दे दूँ?
मैं तो बुरी तरह फँस गया! मुझे अत्यंत आवश्यक कार्य से अपनी दूर की एक ज़मींदारी पर जाना था। जान बचाने के लिए एक राह-सा ढूँढ़ता हुआ बोला—किंतु यह तो बताइए जनाब। मार्च के इन अंतिम दिनों में शिकार मिलेगा कहाँ? केवल व्यर्थ की परेशानी होगी। जाएँगे और बैरंग वापस आएँगे।
बस, रहने दीजिए आप अपने इन दार्शनिक विचारों को। मैं आपका यह पहलू बदलना समझ रहा हूँ। शेर नहीं तो भालू, हिरन, शशक और तीतर ही सही। इन अभागों के भी न मिलने पर पहाड़ियों की एक सुखद यात्रा तो हो ही जाएगी।
मैं समझ गया कि विवाद करना व्यर्थ है। हँसता हुआ बोला—
अच्छा, पहले आप अपने आज के कर्तव्य का पालन तो कर लीजिए कार्व्वकारिणी के अध्यक्ष महोदय! या आखेट के पोछे उत्सव भो स्थगित रहेगा?
(दो)
आख़िर तीन या चार बजे दिन में कारतूस और राइफ़ल बंदूक़ों से लैस होकर आँखेटकों की हमारी ज़र्बदस्त टोली मोटर पर लद गई। विचार हुआ, आज सोमेश्वर के उन्नत गिरिशृंग के नीचे मलचेंगवा या गोबरधना में रात बिताई जाए और कल प्रातःकाल से शिकार को खोज-ढूँढ़ हो।
चंपारन आर्थिक और बौद्धिक संपत्ति की दृष्टि से बहुत ही पिछड़ा हुआ ज़िला है। शिक्षा का बहुत कम प्रचार है। वाणिज्य-व्यापार का अभाव होने के कारण यहाँ के ग्रामीण नितांत दीन-हीन और दरिद्र हैं। किंतु प्रकृति देवी ने उसे सँवारने बनाने में ज़रा भी कोर-कसर नहीं की है। जैसे दुर्बल और क्षीण-काय पुत्र पर माता का बलिष्ठ और उन्नत पुत्रों से अधिक प्यार और ममता होती है, मानों उसी भाँति इस दीन-हीन ज़िले पर प्रकृति माता ने अपनी सौंदर्य-संपत्ति की वर्षा-सी कर दी है। घटना क्रमः से यद्यपि यह ज़िला भारत में विख्यात हो चुका है, परंतु अपने प्राकृतिक सौंदर्य के कारण नहीं, निलहे कोठीवाले साहबों के अत्याचार और लूट-खसोट के कारण। इसी अत्याचार ने भारत के वर्तमान दधीचि महात्मा गांधी का ध्यान इस ज़िले की ओर खींचा और इसी अत्याचार के कारण उस महान् तपस्वी को धूनी रमाकर इस ज़िले में तपस्या करनी पड़ी। किंतु प्राकृतिक सौंदर्य के कारण विख्यात होने और इस अत्याचार की वजह ख्याति लाभ करने में कितना महान् अंतर है?
हाँ, तो इस ज़िले में प्रकृति देवी का सुंदर आकर्षक रूप पग-पग पर दृष्टिगोचर होता है। पुण्यतोया गंडकी हिमालय की गोद से उतरकर तीर की तरह छूटती है और संसार-विल्यात नेपाल के विशालकाय पहाड़ों को तोड़ती-काटती पहले-पहल इसी ज़िले में, सोमेश्वर की पहाड़ियों की छाती विदीर्ण कर, पदार्पण करती है। गंभीर श्यामल जल-राशि की वह अनुपम छटा! देखने से आँखें थकती नहीं, हृदय कभी भर नहीं पाता। जेठ की लू से जब सारी देह झुलसी रही हो, आप सोमेश्वर को शरण में चले जाएँ। पखनहवा या परेवा- दह में से कहीं भी किसी प्रांत में जाने पर आपको सारी दुनिया बदलती-सी जान पड़ेगी। उस जेठ में भी पहाड़ों से टर-टप चूती हुई पानी को बूँदें आपके कुतूहल का सामान होंगी। सूर्य को उत्तप्त रश्मियाँ न जाने किस अंतरिक्ष के कक्ष में लोन तो जान पड़ने लगेंगे। साखू ओर शीशम के चेंदवे के नीवे से बहते हुए झरनों के पानी को छूते हो आपके शरीर से कँपकँपी छूटने लगेगी और जेठ की भरी दोपहरी में भी वहाँ घंटा भर बैठने के बाद आप लेहाफ़ ओढ़ने की आवश्यकता महसूस करने लगेंगे। नेपाल के प्रतिद्ध गेंडे भी कभी-कभी सोमेश्वर की पहाड़ियों में आ जाते हैं। शेरों और भालुओं की तो वहाँ गिनती ही नहीं है।
मैं तो उस समय एकदम सन्नाटे में आ गया जब खाने-पीने के बाद गप्पें लड़ाते समय राजकुमार श्री शत्रुदेव शाह ही ने कहा—
महंत जी! इस बार आखेट का विवार छोड़ दिया जाए। क्यों न मोटर से हम लोग एक साहसपूर्ण यात्रा ही कर लें?
साहसपूर्ण यात्रा?
हाँ, साहसपूर्ण यात्रा ही! 'गर्दी' से 'हरनाटार' आज तक कोई भी व्यक्ति मोटर से जा नहीं सका है। क़सम खाने के लिए वहाँ से वहाँ तक बैलगाड़ी की एक पतली-सी लीक है। कल हम लोग वहीं की दुःसाहसिक यात्रा करके एक नया रिकॉर्ड स्थापित करें। यों अगर रास्ते में चलते-चलाते कोई जानवर मिल गया तो शिकार भो कर लेंगे।
स्टेट के मैनेजर साहब ने आपत्ति की। वे बोले—गर्दा से हरनाटार! यह साहसिक यात्रा नहीं, जान-बूझकर आग में कूदना है। ईश्वर न करे, किसी अतल तलवतों खड्ड में गिरकर मोटर चूर-चूर हो जाए और...।
कोलतार-पुतो सड़क पर मोटर भगा लेने से साहस की पूर्ण यात्रा ही कैसे होगी! यहाँ तो नया रिकार्ड स्थापित करना है। मैंने बात काटकर बीच में ही कहा। पर मेरे इन व्यंगय-वाणों से रुकने वाला ही कौन था? देर तक वाद-विवाद होने के बाद कल प्रातःकाल ही यह साहसिक यात्रा करने की बात तय हो गई।
(तीन)
सोमेश्वर की छाती पर तीर की गति से दौड़ता हुआ मोटर जा रहा था और उसमें बैठा-बैठा मैं प्रातः समीकरण का मज़ा ले रहा था। भाँट पुष्प की गंध से यह दुर्भेद्य गहन फानन कोसों तक बसा हुआा था। लाखों मन इत्र छिड़कने पर भी सुगंध की वह आह्लादप्रद लपट आ नहीं सकती थी। पक्षियों की सुरीली तानें भी थी और मोटर के पहियों के नीचे पड़ने वाले शुष्क तरुपत्रों की चरचराहट की सुमधुर ध्वनि भी। कभी-कभी अनगढ़ पत्थरों पर उछलते हुए मोटर के घचकोलों से ध्यान भंग सा हो जाता था। दस बजते-बजते हम लोग गर्दी पहुँचे। यहाँ तक की यात्रा सुखद, मनोहर और नितांत रुचिकर रही। वन के दृश्य भी रमणीक थे। सोमेश्वर की दोन में गर्दी अंतिम गाँव है। इसके बाद यहाँ से हरनाटार तक बस्ती न गाँव, आदम न आदमज़ाद! गाँव में पूछने पर मालूम हुआ कि इस राह से मोटर हरनाटार नहीं जा सकता। इस रास्ते से तो बैलगाड़ी भी मुश्किल से जाती है। कुछ भले आदमी मना भी करने लगे। पर उनकी स्पीच समाप्त होने के पहले हो मोटर की स्टेरिंग ज़रा हिली और मचलता-सा मोटर आगे निकल गया।
चढ़ते-चढ़ते मोटर कभी उत्तुंग शैल-शिखर पर जा चढ़ता और कभी उतरते-उतरते अतल तल में घुसता हुआ-सा जान पड़ता। हम लोग दम साधे चुपचाप मोटर पर बैठे हुए थे। कुमार साहब की ड्राइविंग में न जाने कितनी बार मोटर पर बैठ चुका हूँ। किंतु आज का उनका हस्तकौशल देखकर तो में दंग रह गया। पतली-सँकरी राह से जाते-जाते मोटर पल-पल में खड्ड में गिरने और गगन-चुंबी पेड़ों से टकरा जाने में बाल-बाल बच जाता। हम लोगों के अरे! कहने के पहले ही वह आकस्मिक संकट-काल पलक झपकते समाप्त हो जाता। एक जगह एक अत्यंत भयावह खड्ड से अपनी अभूतपूर्व चालक-क्षमता के द्वारा मोटर को बनाते देखकर मैंने कहा—
आज हम लोगों की जान उस सर्वव्यापी ईश्वर के अतिरिक्त आपके भी हाथ में है।
कुमार साहब ने मुस्कुराकर कहा—तो कुछ पलों के लिए उस अखिलेश के नाम के साथ-साथ मेरा भी नाम जपते रहिए।
अर्रर्रर्र! यह क्या? मोटर की गति एकाएक रुक गई। दोनों ओर के कटे पहाड़ों के बीच से इतनी पतली लँगोटी-सी राह थी कि उसमें से मोटर का निकलना असंभवप्राय था। आगे के दोनों मडगार्ड पिचक गए और दोनों ओर की दूर तक की वार्निश उड़ गई। पीछे भी मोटर लोट नहीं सकता था, आगे का जाना तो असंभव था ही। सिर से पैर तक मोटर को अपनी गोद में दबोच लेने वाली उस संकीर्ण राह में मोटर से हम लोगों का उतरना भी कठिन था। फावड़ा न कुदाल, पहाड़ के पत्थर तोड़े जाएँ तो क्यों कर?
ईश्वर को दया समझिए या हम लोगों का सौभाग्य! इस यात्रा में, जितने भी थे, सभी अट्ठाइस से पैंतीस वर्ष के भीतर की उम्र के ही थे। विशाल कलेवर और स्थूलकाय होते हुए भी मैनेजर साहब की फुर्ती और साहस देखने की चीज़ थी। एक-दूसरे की, पीठ और हाथ का सहारा ले लेकर सर्प की गति से हम लोग मोटर के बाहर हुए। मोटर में एक हथोड़ा और टायर ठीक करने वाला लोहे का एक डंडा-मात्र था। उन्हें ही लेकर हम लोग पिल पड़े और डंडे-हथौड़े मार-मार कर पत्थर तोड़ने लगे।
क़रीब पैंतालिस मिनट के अथक परिश्रम के बाद मोटर के किसी तरह हिल सकने-मात्र के लिए राह तोड़ी जा सकी। हाथों में फफोले पड़ गए थे। सारी देह से पसीने की बूँदें टपकाते हुए हम लोगों ने राजकुमार साहब के ऊपर एक कातर दृष्टि डाली। वे मुस्कुराकर बोले—
संभव है, मोटर निकल जाए। आगे की ओर दौड़कर हम लोग वृक्षों के बग़ल में छिप गए। फिर भी मन ही मन ईश्वर ते अनेक प्रार्थनाएँ तो कर ही रहे थे।
जब मोटर आगे निकल गया तब जी में की आया। मोटर पर बैठने हुए मैंने धीरे से कहा—
यह एक-मात्र विपत्ति थी या विपत्तियों का अभी प्रारंभ ही है?
(चार)
द्रुतगति में मोटर आगे की ओर बढ़ रहा था और हम लोग बैठे आपस में चुहलबाज़ियाँ कर रहे थे। राह एक पतले-सँकरे सोने के बीच से होकर गई थी। फ़लींग, दो फ़लींग, मील, दो, मील! जगदीश! कब तक इस सोने का अंत होगा? मोड़ और घूमाव का क्या पूछना! एक-एक मील में डेढ़-डेढ़, दो-दो, सौ से कम न पढ़ते होंगे। सोने में बालू की बड़ी मोटी तह थी। उस चाँदी की तरह चमकने वाली अपनी प्रतिद्वंद्विनी सैकत-राशि को पीछे की ओर फेंकता और अपने पीछे धूल का एक तूमार-सा बाँवता वह आठ सिलिंडरवाला विशालकाय मोटर तीन या चार मील जाते-जाते यों हाँफने लगा, जैसे किसी कसदार पहलवान ने दो-चार मिनट ज़ोर करने के बाद ही अधकचरे लौंडे हाँफने लगते हैं।
अभी हम लोग बैठे-बैठे दम भी न मार पाए ये कि एक घुमाव के पास पहुँचकर मोटर के चारों पहिए बालू की तह में घुस गए। भाग्य की अंतिम परीक्षा की तरह एक बार मोटर ने प्रबल वेग से ज़ोर मारा, फ़ुटपाथ तक बालू में घुस गया। भगवान्, यह कैसी विपत्ति! मोटर से उतरकर हम लोगों ने उसकी चारों ओर प्रदक्षिणा की। निकालने की कोई भी स्कीम मन में जमती न थी। अंत में पहियों के नीचे से बालू हटाकर उसमें शिला-खंड घुसेड़ने की बात सोची गई। हम बालू हटाने में प्रवृत्त हुए।
उस उत्तप्त बालुका ने युद्ध छेड़ना—पहियों के नीचे से हटाना कुछ आसान न था। पत्थर तोड़ने से हाथों में फफोले तो थे ही। उस अग्नि-मय सैकत-राशि पर हाथ रखते ही, मानो फफोले जल-से उठे। कोसों तक पानी का पता नहीं। तालू में जीभ सहकर चट-चट करने लगी।
शिकार भूल गया। साहसपूर्ण यात्रा की बात भूल गई। राइफ़ल भूल गया। केवल जीवन-रक्षा के लिए जगप्रियंता से प्रार्थना करने की बात-मात्र याद रह गई।
राम-राम करके किसी तरह यह भी स्कीम पूरी की गई। यारों ने समझा, बला टली! किंतु विपत्ति तो मानो एक बार की पछाड़ खाने से ताल ठोंककर आई थी। मोटर ज़रा आगे को ओर बढ़ा ज़रूर, किंतु फिर नो पूर्ववत् अचल-अटल-सा होकर रुक गया।
अभी हम लोग खड़े-खड़े एक-दूसरे का मुँह ही देख रहे थे कि जंगल में न जाने कहाँ से आग भी भड़क उठी! क्या मृत्यु से खेलना इसे ही कहते हैं? क्या इसी भाँति मौत अपने आलिंगन-पाश में प्राणियों को बाँध लेती है? जलता हुआ बालू! जलता हुआ जंगल। जलता हुआ आकाश!
मृत्यु से खेलना ही है तो छूटकर क्यों नहीं खेल लिया जाए? उस सूखे सोते के पास ही एक पुराना तालू का पेड़ गिरा हुआ था। उसकी डालें जगह-जगह से टूट गई थीं। हम लोगों ने उसी में से दो डालें लेकर मीटर के पीछे से उसके नीचे उन्हें घुसेड़ दिया! कुमार साहब ड्राइव करने के लिए आगे बैठे। हम लोगों ने बैठकर डालों के नीचे कन्वा लगाकर एक बार प्राणपण से ऊपर की ओर उठाया। आग बढ़ती हुई आ रही थी। जूते के भीतर भी बालू घुस-घुस कर तलवों में जलन पैदा कर रही थी। कंधे से डाल को तानते ही आँखों के आगे सरसों फूल गई! कंधे का ख़ून जमकर काला दाग़ पड़ गया। किंतु विजय तो मिल ही गई। मोटर हिला और आगे की ओर चल पड़ा।
होश न था कि किसी ओर आँखें उठाता। मोटर उड़ा जा रहा था बौर हम लोग मुँह खोल-खोलकर साँस लेते जाते थे।
रतवल पहुँचकर पवित्र जलवाहिनी गंडकी में गोते लगाने पर होश ठिकाने आए! बाडू इंद्रासन राव जी के अतिथि-सत्कार में जब इस पिंड में पुनः प्राण-संचार हुआ तब मैंने हँसकर कहा—
कुमार साहब, यह साहसनपूर्ण यात्रा नहीं, दुःसाहस पूर्ण यात्रा थी।
कुमार साहब बोले—पर प्राण तो बच ही गए।1
- पुस्तक : सचित्र मासिक पत्रिका भाग-41, खंड 1 (पृष्ठ 534)
- संपादक : देवीदत्त शुक्ल, उमेशचंद्रदेव
- रचनाकार : महंत धनराज पुरी
- प्रकाशन : इंडियन प्रेस
- संस्करण : 1940
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