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सबके दद्दा

sabke dadda

विष्णु प्रभाकर

विष्णु प्रभाकर

सबके दद्दा

विष्णु प्रभाकर

और अधिकविष्णु प्रभाकर

    उस दिन चिरगाँव से भाई चारुशीला शरण गुप्त ने लिखा था—प्रथम पूज्य भैया के बिना और अब पूज्य दद्दा के बिना जीवन में वह उल्लास कहाँ रह गया है? इन दोनों अँग्रज़ों का पचास वर्षों से ऊपर का निरंतर का संग-साथ अब स्वप्न की-सी बात रह गई है। रिक्तता-ही-रिक्तता अब जीवन में समा गई है। हरीच्छा।

    रिक्तता पीड़ा पैदा करती है। लेकिन इसीलिए प्रिय पात्र को पहचानने का अवसर देती है। आकाश में कई तेजपुंज नक्षत्र प्रति-भासित होते रहते हैं। लेकिन जिस क्षण कोई एक अस्त हो जाता है, तभी हमको उसके होने का पता लगता है। यह रिक्तता हमारे लिए इस बात की अनुभूति है कि दद्दा क्या थे।

    सम्भवतः, सन् 20-21 की बात होगी। आयु थी आठ-नौ वर्ष की। गाँव की पाठशाला की तीसरी कक्षा में 'हिंदी प्रवेशिका' पढ़ता था। उसमें तत्कालीन सभी प्रसिद्ध लेखकों और कवियों की रचनाएँ थीं। लेकिन मैथिलीशरणजी की दो कविताओं—'अहा, ग्राम्य जीवन भी क्या है' और 'किसान' ने हम देहाती बालकों का मन सहज ही मोह लिया था। तब यह कल्पना भी नहीं कर सका था कि एक दिन इन कविताओं के लेखक से अपरिमित स्नेह पा सकूँगा।

    समय बीतता गया और दूरी बढ़ती गई। 'भारत भारती' और 'साकेत' के कवि के यश की गूँज ही मुझ तक पहुँचती थी। 'जयद्रथ वध' की सुभद्रा तथा 'यशोधरा' के कारण आंतरिक परिचय सघन हो रहा था। तभी सहसा हिंदी साहित्य सम्मेलन के काशी अधिवेशन के अवसर पर उनको साक्षात देखा। वह दूसरे दिन आए थे। सहसा गए, गए की ध्वनि उठी और उत्सुकता से हम सभी एक ओर लपक चले। मैंने कोशिश की, पर पहचान पाया कि वह आने-वाला कौन है। यशपाल भाई ने कहा, मैथिलिशरणजी भी गए।

    उचककर देखा, कौन से हैं गुप्तजी। यह मारवाड़ियों जैसी लाल पगड़ीवाले, अंगरखा धोती पहने, गले में दुपट्ठा डाले और हाथ में छड़ी लिए। यह तो निरे मारवाड़ी लालाजी लगते हैं। यह यशोधरा और साकेत के कवि नहीं हो सकते।... कि सहसा यशपालजी बोले, देखते हो, दाढ़ी-मूँछ साफ़ हैं।

    तो?

    अरे, यह दाढ़ी-मूँछ रखते थे, अब साफ़ करा दी हैं।

    तब जिसे देखो, वही दाढ़ी-मूँछ की चर्चा करता था। मानो वह कोई बहुत ही महत्त्वपूर्ण घटना हो। प्रथम दृष्टि में वह मेरी कल्पना के कवि से बहुत दूर रहे। लेकिन जैसे ही प्रथम मिलन का आवेग दूर हुआ तो मेरी शंकाएँ जैसे घुलने लगीं। पाया कि यह व्यक्ति रूप-रंग और पोशाक में इतना भारतीय है कि यही 'भारत भारती', 'साकेत,' और 'यशोधरा' लिख सकता है। इसके नेत्रों में, मस्तिष्क की रेखाओं के बीच और चेहरे की गठन पर साधना की ज्योति अंकित है। विश्वास हो गया कि बचपन में किसान पर जो कविता पड़ी थी, उसके प्रणेता यही हैं।

    वह प्रथम मिलन प्रणाम तक ही सीमित रहा। दूर से देखकर ही तृप्ति पा सका। पास देखने का अवसर मिला जनवरी 1941 में। लेखक के नाते थोड़ी बहुत स्वीकृति पा चुका था। उसी अधिकार से साहित्यिक तीर्थ-यात्री के रूप में घूमता-घामता एक दिन चिरगाँव भी जा पहुँचा। रात के दो बजे स्टेशन पर उतरा था। सूर्योदय तक वहीं रुका रहा। फिर सकुचाता, सिमटता उनके घर की ओर चल पड़ा। मन में संकोच था, लेकिन जाना तो था ही। इसलिए ग्रामीण राजपथ से होकर उनके विशाल भवन के द्वार पर पहुँच गया। कहीं भी तो कोई रोकटोक नहीं। सब और मुक्त स्वागत। द्वार पार करके बड़े से चौक में जाकर पाया कि दाहिनी ओर एक चबूतरे पर आग सेंकते देहाती जैसे कुछ लोग बैठे हैं। तब तक दिल्ली में श्री सियारामशरण गुप्त से परिचय हो चुका था। उन्हीं का नाम लेकर पूछा। तुरंत उनकी पुकार हुई और मुझे बैठने के लिए कहा गया। स्नेहसिक्त वह वाणी जो भारतीय गाँवों की विशेषता है, आज भी कानों में गूँजती है। उस मंडली में मैंने दद्दा को तुरंत पहचान लिया, यद्यपि तब बनारसवाली वेषभूषा थी और वह वातावरण। घुटनों तक की धोती, ऊपर रूई की एक मिरजई, लेकिन नेत्रों का तेज उनके घर में भी उनको छिपा सका।

    सियारामशरणजी आए और उसके बाद आतिथ्य, आत्मीयता, का जो क्रम चला उसने मुझे आतंक की सीमा तक विभोर कर दिया। मैथिलीशरणजी की शिशु सुलभ चपलता, स्नेहिल आत्मीयता और वैष्णव जनोचित विनम्रता को देखकर ऐसा लगा, जैसे मानवता वहाँ सचमुच ही साकार हो उठी है। साहित्यिकों के बारे में शायद धारणा है कि वे कहीं कहीं असाधारण होते हैं। परंतु प्रथम दृष्टि में दद्दा के पास कहीं भी असाधारणता नहीं दिखाई देती थी। लेकिन एक स्नेही परिजन की आकुलता के साथ-साथ कुशल व्यापारी की बौद्धिक सजगता और सरल विनम्रता के साथ-साथ घर के बड़े के गौरव की रक्षा, क्या यही अपने-आप में असाधारणता नहीं है? वह परम धार्मिक थे परंतु वह धार्मिकता उनके चारों ओर दायरे और रेखाएँ खींचने में कभी समर्थ नहीं हो सकी। वह इतने निश्छल थे कि मुक्त कंठ से हँसते उन्हें देर नहीं लगती थी। उनकी दृष्टि में अपरिचय से अभय था। उनकी हँसी में आत्मीयता का आलोक था। कुछ ऐसा संतुलन था उनके जीवन में कि यह सहज ही किसी चरम सीमा पर नहीं पहुँचते थे। ऊष्णता और शीतलता दोनों ही उनके जीवन में इस प्रकार ओतप्रोत थीं जैसे विद्युत में घनात्मक और ऋणात्मक तार। यह आस्थाजनक संयम तो उनके विषाद में ज्वार आने देता था, हर्ष में। सियारामशरण की मृत्यु के बाद देखा तो देखता रह गया। विषाद की छाया तक उनके व्यवहार में नहीं थी। शोक को जैसे उन्होंने अपने अंतर में नीलकंठ के समान सहेज कर रख लिया था। उर्दू के एक प्रसिद्ध लेखक संवेदना प्रकट करने आए तो उन्होंने नपे-तुले दो-चार शब्दों में जवाब देकर उस बात को वहीं समाप्त कर दिया। मानों कहा हो, पचास वर्ष के उस साथी के विछोह की वेदना को तुम्हें कैसे समझा पाऊँगा, उसे मूक ही रहने दो। उनका पारिवारिक जीवन ऐसे जाने कितने अवसादों-विषादों का समूह था। उसी ने तो उनकी दृष्टि को निश्छल हँसी की दीप्ति दी थी। यह साधना से अजित संयम ही क्या असाधारणता नहीं है! क्या तिलक कंठीधारी रामभक्त राष्ट्रकवि का अस्तित्व ही अपने आप में एक असाधारणता नहीं है?

    इन्हीं असाधारण गुप्तजी को मैंने अपने कमरे में लिखते देखा, ताश खेलते देखा। गप्पें मारते देखा, चाय पीते-पिलाते देखा और वहीं सोते देखा। गाँव की पाठशाला-सा वह कमरा, जिसकी छत टेढ़ी-मेढ़ी बल्लियों पर खपरैल से छाई थी, बाहर तुलसी चौरा और फूल गाछ थे। वर्षों बाद रूस जाकर ताल्स्ताय और गोर्की के भवनों को भी देखा। उनमें वहीं अंतर था जो रूस और भारत में हो सकता है। भारत जो तपोवनों का भारत है। जाने किस दिन उनका यह कमरा तीर्थ बनेगा। उनकी एक-एक वस्तु को, विशेषकर उन स्लेटों को जिन पर अनेक काव्यों ने जन्म लिया, दर्शक अपूर्व श्रद्धा से देखेंगे। स्लेटों का प्रयोग क्या उनके अचेतन की उस स्थिति को प्रकट नहीं करता था, जो उनके असमय में स्कूल छोड़ने के कारण पैदा हो गई थी? यूँ यह शुभ ही था। स्कूल से मुक्ति मिलती तो शायद हिंदी को वैष्णव विनम्रता वाला राष्ट्रकवि मिलता।

    बहुत वर्षों बाद एक दिन फिर सपरिवार उसी तीर्थ में जा निकला। सौभाग्य से दोनों कवि-बंधु वहाँ उपस्थित थे। यद्यपि दोनों बड़े भाई स्वर्गवासी हो चुके थे, फिर भी जो शेष परिजन थे, वे सभी तुरंत वहाँ इकट्ठे हो गए लेकिन लग रहा था जैसे कहीं कुछ खोया हुआ है। आतिथ्य, आत्मीयता सभी कुछ था पर वह सघन ऊष्मा, जो पहली बार वहाँ देखी थी, वह जैसे तिरोहित हो चुकी थी। हाँ, तिरोहित नहीं हुई थी राष्ट्रकवि की स्नेहपगी विनम्रता। उनके चेहरे पर का तेज और भी गौरवमंडित हो चुका था। जितना गौरव बढ़ता था, आत्मीयता उतनी ही सघन होती थी।

    जो अभाव मैंने अभी अनुभव किया था वह शायद इसी कारण था कि उनका वह बड़ा परिवार अब खंडों में विभाजित हो चुका था। यह सहज स्वाभाविक था। लेकिन जो साकेत के रचयिता हैं, उनके आँगन में सीमाएँ बने यह कुछ मेरे पुरातन पंथी मन ने स्वीकार नहीं किया।

    मैंने उनकी विनम्रता की चर्चा की है। आज के युग में इसी विनम्रता के कारण उनके आलोचक कुछ कम नहीं हैं। उनका मान-सम्मान भी नई पीढ़ी के मन में उतना नहीं था। बहुत पहले श्री अरविंद ने इस पीढ़ी के लिए लिखा था, कि वह अपनी पुरानी पीढ़ी के प्रति हिटलर से भी अधिक निर्दय होगी। राष्ट्रकवि के प्रति यह निर्दयता काफ़ी मुखर रही है। लेकिन स्वयं वह उससे रंचमात्र भी प्रभावित नहीं हुए। अपने को सदा पीछे आनेवालों का जय-जयकार ही मानते रहे। यही नहीं, सात्विक गर्व से भर कर उन्होंने यह भी कहा, मैं अतीत ही नहीं, भविष्यत् भी हूँ आज तुम्हारा।

    याद आता है एक बार मैंने उनसे कहा था, लोग आपकी भाषा की बड़ी आलोचना करते हैं। उसमें बड़ा अटपटापन रहता है।

    यह किसी पुस्तक के पन्ने पलट रहे थे। पास ही श्री सियारामशरण गुप्त तथा डॉ. मोतीचंद्र बैठे थे। उन्होंने सहज भाव से सियारामशरणजी की ओर देखकर कहा हाँ, यह बात तो हमें भी लगी है। इधर हम भाषा पर अधिक ध्यान नहीं देते।

    देखता रह गया। कोई कटुता नहीं, कोई गर्व-जन्य उपेक्षा नहीं। जिस सहज भाव से उन्होंने उत्तर दिया, वह उन्हीं के अनुरूप था। जो स्वयं सहज ही रहता है वही तो सब-कुछ को सहज भाव से ग्रहण करता है। गुप्तजी की यह सहजता ही उनके बड़प्पन की सीमा थी।

    उनकी व्यापार बुद्धि भी बड़ी तीक्ष्ण थी। इसलिए उनके आलोचक कहते थे कि उनकी विनम्रता एक व्यापारी की विनम्रता है। मैं व्यापारी नहीं हूँ, इसकी कसौटी नहीं बन सकता। लेकिन व्यवहार में सजग होना असभ्यता है, अशिष्टता। असभ्यता और अशिष्टता है, तो दंभ में है। और वह दंभ राष्ट्रकवि से दूर ही दूर था। उनकी विनम्रता में शिशु का भोलापन, नारी का स्नेह और भक्त की तरलता इस सीमा तक थी कि वह धिधियाते-से जान पड़ते थे। लेकिन वह मात्र छल था। वह अत्यंत स्वाभिमानी थे। दूसरे को प्रतिष्ठा देते थे और देने के लिए झुक जाते थे। लेकिन सामनेवाले के अभिमान के सामने नहीं झुकते थे। मैंने उनके रौद्र को देखा है, मान को भी देखा है। एकबार आकाशवाणी के अधिकारियों के किसी व्यवहार से उन्होंने अपने को अपमानित अनुभव किया। तब बार-बार प्रार्थना करने पर भी वह वहाँ नहीं गए। अंततः जब गए भी तो उनके मुख की रेखाओं में अंतर का ज्वालामुखी जैसे भभक-भभक उठता था। परंतु उनका यह अभिमान अपने व्यक्ति के लिए नहीं था, बल्कि उसके लिए था, जिसके वह प्रतिनिधि थे।

    इसी प्रकार जहाँ उन्हें चुनौती मिलती थी, वहाँ वह उतने ही ऊपर उठ जाते थे। याद आता है कि एक सभा में उर्दू के एक प्रसिद्ध कवि के साथ उनका भी सम्मान हुआ था। उपस्थित व्यक्तियों में उर्दू दा अधिक थे। उन कवि की कविताओं ने वह समां बाँधा कि श्रोता फड़क-फड़क उठे। मेरे पास हिंदी के एक लेखक बैठे थे। बोले, गुप्तजी इनका क्या मुक़ाबला करेंगे? कहाँ यौवन का उद्दाम तेज, कहाँ ढलते सूर्य की पस्ती।

    लेकिन जब ढलते सूर्य ने बोलना शुरू किया तो लगा जैसे यह पश्चिम से पूर्व की ओर मुड़ गया है। देर तक वह सभा-स्थल 'वाह-वाह' और 'क्या कहने' की ध्वनि से गुंजायमान होता रहा।

    निर्वेद में रौद्र रस देखने के और भी अवसर मुझे मिले हैं। एक बार उनके दिल्ली स्थित निवास स्थान पर मेरे एक मित्र ने उनके एक प्रिय बंधु की किसी प्रसंग में आलोचना की। कई क्षण तो वह सुनते रहे, लेकिन जब वह मित्र कुछ उत्तेजित हो उठे तो गुप्तजी के मुख पर जो स्नेहिल विनम्रता थी वह सहसा तिरोहित हो गई और काठिन्य उभर आया। बोले, तुम अविश्वास क्यों करते हो? जो वह कहते हैं उसे सहज भाव से मान क्यों नहीं लेते? उन्होंने जान-बूझकर उपेक्षा की है, इसका जबनतक तुम्हारे पास प्रमाण नहीं है, तब तक तुम्हें यह स्वीकार कर ही लेना चाहिए। नहीं करते तो ग़लती पर हो।

    शब्द कुछ और हो सकते हैं, भाव यही था। और उस भाव में उग्रता थी। था यह सहज विश्वास कि उनके बंधु ग़लती नहीं कर सकते। उनकी उस मूर्ति को देखता रह गया। संतोष भी हुआ कि उनकी विनम्रता सौजन्य की एक सीमा है, आत्मगौरव को नकारने वाली नहीं। नेहरूजी के सामने उनकी इस विनय की पराकाष्ठा को मैंने इसी रूप में लिया है। प्रियजनों को लिखे पत्रों में भी वही वैष्णव विनम्रता मुखर है :

    प्रियवर,

    पत्र मिला। हां, गत मास काशी से लौटते वक़्त मैं गड़बड़ा गया या, परंतु बच गया हूँ। अभी संसार का लेखा-जोखा पूरा नहीं हुआ है। आपकी कृपापूर्ण शुभकामनाओं के लिए हृदय से आभारी हूँ। 10-12 अगस्त तक दिल्ली पहुँचना चाहता हूँ। तब आपको वहाँ आने का कष्ट और करना होगा।

    वह राज्यसभा में आए। किसी दल में नहीं थे, परंतु स्वेच्छा से कांग्रेस दल का साथ देते थे। उसकी गतिविधि में रस लेते थे, इतना कि सदस्य इन्हें कांग्रेस दल का ग़ैर-सरकारी व्हिप मानने लगे थे, परंतु फिर भी उचित आलोचना करने से वह चुकते नहीं थे। बजट पर उनके पद्यमय भाषण इसका प्रमाण हैं। स्पष्टवादी तो इतने थे कि 1641 में जब कलेक्टर ने उन्हें अग्रज सहित बंदीगृह का अतिथि बनाया, तब उसके कुछ पूछने पर उन्होंने कहा था, आपका दिमाग़ ख़राब हो गया है। आपसे क्या बातें करें।

    एक और घटना की याद आती है। किसी सभा में अचानक उग्रजी से भेंट हो गई। लपककर उनसे मिले। कुशल समाचार पूछा और बोले, कभी ग़रीबख़ाने पर जूठन गिराने के लिए आइए न! फिर चलते-चलते कहा, महाराजजी, आपने अपनी प्रतिभा का बड़ा दुरुपयोग किया है।

    उग्रजी देखते ही रह गए। यद्यपि इस स्पष्टता के पीछे, स्नेह ही था, फिर भी इसके दंश में कचोट तो थी ही। लेकिन इतना होने पर भी मैंने सदा अनुभव किया कि वह मिलते समय एक क्षण के लिए भी अपने को हावी नहीं होने देते थे। मिलनेवाले को ही महत्व देने का पूरा प्रयत्न करते। प्रेम का आग्रह और अनुरोध उनके जीवन का अंग बन गया था। पहली बार जब उनसे मिला तब मैं हिसार के सरकारी पशु-पालन फ़ार्म पर काम करता था। उन दिनों एक विशेष प्रकार की मिट्टी से बननेवाले मकानों का प्रयोग चल रहा था। उन्होंने मुझसे उसके बारे में बहुत कुछ पूछा और साहित्य भेजने के लिए भी कहा। इसी तरह पिछले कई वर्षों से जब मैं शरतचंद्र की जीवनी के संबंध में काम कर रहा था तो मिलते ही उन का पहला प्रश्न होता था, महाराजजी, अब कब रही है वह जीविनी। आपने विष्णुजी, अद्भुत काम किया है। बंगाली भी क्या याद करेंगे।

    गुप्तजी जहाँ मजलिस में बैठकर मुखर रहते थे, वहाँ सभा चतुर होकर भी वह उनसे उतने ही भयभीत रहते थे। स्वभाव से वह संकोची और प्रवास भीरु थे। दिल्ली में उन्होंने सभाओं से बचने की पूरी कोशिश की। तत्कालीन साहित्यिक संस्था 'शनिवार समाज' की ओर से प्रथम संसद के साहित्यिक सदस्यों का सार्वजनिक स्वागत किया गया था। उसमें भी शामिल होने से उन्होंने इनकार कर दिया था। बहुत आग्रह पर ही आने को राज़ी हुए थे। बोले, अरे हम तो कहीं नहीं जाते।

    मैंने उत्तर दिया, दद्दा यह सब हिंदी के लिए किया है। आप आए तो...।

    उन्होंने तुरंत कहा, मैं आऊँगा।

    और आए ही नहीं, कविता-पाठ भी किया। इतने उत्साह और उल्लास से किया कि उस गर्मी में परेशान जनता खिल-खिल उठी। बाद में अनेक संस्थाओं ने उनको अपने यहाँ बुलाना चाहा। कुछ व्यक्ति मुझे भी सिफ़ारिश के लिए ले गए। वह उसी अहिंसक विनम्रता से बोले, आप हमारे स्वभाव को जानते ही हैं। पर आप कहेंगे तो चले जाएँगे।

    मैंने कहा, दद्दा, हम आग्रह नहीं करते।

    इस बात से वह बहुत प्रसन्न हुए। उनकी इस सभा-भीरुता के लिए उनको दोष नहीं दिया जा सकता। ऐसे-ऐसे नवोदित साहित्यकार उनके पास आते थे जो उन्हें अपनी पूरी पुस्तक सुनाने के लिए अपनी सेवाए अर्पित करने में संकोच नहीं करते थे। लेकिन यूँ मित्रों और प्रियजनों से मिलने में उन्हें आनंद ही आता था। उनकी व्यस्तता को देखकर में उनके पास जाने में झिझकता था। लेकिन उनका प्रेम भरा आग्रह बराबर बना रहता था। एक बार जाने पर कहते थे, आपको फिर भी आना होगा।

    नहीं जानता कि यह उनकी मुझ पर विशेष कृपा थी या अपने स्नेहिल स्वभाव के कारण ही ऐसा कहते थे। बारह वर्ष दिल्ली में रहकर जब वह फिर चिरगाँव लौटे तो उनका यह आग्रह और भी अधिक हो उठा। उन्होंने बार-बार कहा, मैं तो यही आशा रखता हूँ कि कभी आप यहाँ दर्शन देंगे।

    आकांक्षा यह है कि आप दो-चार दिन यहाँ आकर मेरे साथ रहें।

    देखूँ, यह कब पूरी होती है।

    आपकी अस्वस्थता से चिंता हुई। जलवायु परिवर्तन के लिए क्यों नहीं आप यहाँ जाएँ? आपका भार (स्ट्रेन) भी कुछ-न-कुछ कम हो जाएगा। वहाँ तो मिलनेवालों की भी भीड़ रहती है। यहाँ में भरसक भीड़-भाड़ से आपको बचाऊँगा। मेरी इच्छा है, आप आएँ। ऋतु भी अनुकूल है।

    लेकिन मैं यह सौभाग्य पाने से वंचित ही रह गया। और वह आग्रह करते-करते चले गए। अंतिम बार जब वह दिल्ली आए तो अस्वस्थता के कारण मैं फ़ोन पर ही बात कर सका। उनका अंतिम वाक्य यही था, बस भैया, अब तो पैर जवाब दे रहे हैं। चलने की बारी है।”

    सचमुच ही कुछ दिन बाद वह चले गए। एक और विशेषता उनमें मैंने अनुभव की थी। वह केवल यही नहीं चाहते थे कि लोग उनसे मिलें बल्कि उनका आग्रह रहता था कि आसपास जो साहित्यिक हैं उनसे भी मिला जाए। जब वह नॉर्थ एवेन्यू में रहते थे तो बराबर यही कहते थे, यहाँ आए हो तो बनारसीदासजी से भी मिलकर जाना।

    उनकी यह सजगता केवल व्यावहारिक ही नहीं थी। इसके पीछे एक संस्कृति थी। प्राचीन संस्कारों से उपजी संस्कृति, जिसमें चंचलता नहीं थी, जड़ता भी नहीं थी। वह इतनी उदार थी कि उनकी वर्ण-व्यवस्था में मुंशी अजमेरीजी जैसे मुसलमान सहज ही समा सकते थे। इसी संस्कृति ने उन्हें विनम्रता दी थी। और दंभी तथा दुराग्रही होने से बचाया था।

    उनकी प्रथम कविता 1905 में प्रकाशित हुई थी। उसके बाद लगभग 60 वर्ष तक उन्होंने हिंदी साहित्य को सँवारा संजोया ही नहीं, उसका निर्माण भी किया। तुतलाती हुई खड़ी बोली, जिसको उन्होंने स्वर दिया था, उनके जीवन काल में ही पूर्ण यौवना हो चुकी थी। भारत-भारती की रचना करके उन्होंने राष्ट्र में जो प्राण फूँके, ऐसे उदाहरण इतिहास में विरल ही मिलते हैं। राजनीतिज्ञ आते हैं और चले जाते हैं। जिनके लिए ऐसा लगता है कि वह अनिवार्य हैं उन्हीं को एक दिन हम बिल्कुल भूल जाते हैं। लेकिन साहित्यकार कालजयी है। यह शरीर नहीं, स्वयं चैतन्य है। मैथिलीशरण उसी चैतन्य का मूर्त रूप थे, जो सदा जड़ता को चुनौती देता रहता है और मूल्यों को जड़ नहीं होने देता। इसीलिए साहित्यकार को सब कालों में और सब स्थानों पर समान प्रतिष्ठा और मान्यता सुलभ है।

    भारत-भारती के कवि ने ही रामकथा को नया रूप देकर 'साकेत' का निर्माण किया। काव्य की उपेक्षिता उमिला साकेत में सजीव हो उठी है। उनकी यशोधरा और काबा कर्बला ने अखंड मानवता के पौधे को साहित्य के अमृत से सींचा। विष्णुप्रिया के रूप में उन्होंने एक बार फिर मूक नारी की वेदना को स्वर दिया। उन्होंने द्वापर, नहुष और जय-भारत की रचना करके प्राचीन संस्कृति की कथाओं को नए अर्थ दिए। इन अर्थों के संदर्भ में उनका उद्देश्य अंततः मानव की प्राण-प्रतिष्ठा करना ही था। दिवोदास और पृथ्वीपुत्र उनके चिर विकासशील मानवतावादी दृष्टिकोण का प्रमाण हैं। वह मात्र राष्ट्रीय नहीं थे, भारतीय थे और उनकी भारतीयता मानवता का ही प्रतीक थी।

    तभी समर्थ भाव है कि तारता हुआ तरे।

    वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे॥

    वह उन कवियों में थे जो भक्त भी होते हैं या कहा जा सकता है कि वह ऐसे भक्त थे, जो कवि भी थे। इसलिए उनमें आत्म-समर्पण भी है और निर्माण का अहम् भी।

    वह मात्र साहित्यकार ही नहीं थे। मशीन से उन्हें उतना ही प्रेम था जितना साहित्य से। मैंने उन्हें मशीन में डूबे हुए देखा है। यूँ साहित्य के साधकों में शासक से लेकर मज़दूर तक हैं पर मशीन, व्यापार और साहित्य में एक समान रस लेनेवाले कम ही हैं। गाँव के उनके उस विशाल भवन में, जहाँ साहित्य का भंडार था, वहाँ इंजन भी कम नहीं थे।

    और परम वैष्णव होकर भी शृंगार-रस से उन्हें घृणा नहीं थी। वेलिगडन हॉस्पिटल में रोग-शैया पर से मैंने उनके मुख से शृंगार के पद सुने हैं। उस समय उनके नेत्रों में संकोच नहीं था। था एक ऐसा उद्वेग और उल्लास जो उद्दाम जीवन का ही साक्षी हो सकता है। उनके जीवन की यही विविधता पूर्ण मानव की साक्षी थी। राष्ट्रकवि होने से पहले वह कवि थे। कवि से भी पहले वह मानव थे। ऐसे स्नेही मानव जो सबके दद्दा बन गए थे। स्नेह और आत्मीयता, गौरव और गुरुता, एक ऐसा सम्मिश्रण था उनके भीतर कि वह उन्हें सबका बनाता था, सबको समझने की दृष्टि देता था। जो सबको समझता है वही तो बड़ा है। सब के दद्दा ऐसे ही बड़े थे।

    स्रोत :
    • पुस्तक : कुछ शब्द : कुछ रेखाएं (पृष्ठ 149)
    • रचनाकार : विष्णु प्रभाकर
    • प्रकाशन : सत्साहित्य प्रकाशन

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