[महात्मा गाँधी के सच्चे अनुयायी, 'सर्वोदय' के प्रचारक आचार्य विनोबा का नाम उनके भू-दान यज्ञ के संबंध से समग्र भारत में विख्यात हो रहा है। उनकी दार्शनिकता, सरलता और हृदय की कोमलता के कारण उनको अत्यधिक लोक-प्रियता प्राप्त हुई है। महात्मा गाँधी के प्रति उनकी जैसी अगाध निष्ठा और श्रद्धा थी वैसी हो महात्मा गाँधी की भी उन पर प्रीति थी। यहाँ विनोबा के संबंध में स्वयं महात्मा गाँधी द्वारा लिखित संक्षिप्त परिचयात्मक लेख तथा भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के वीर सेनानी बाल गंगाधर तिलक के विषय में आचार्य विनोबा द्वारा लिखित एक संस्मरण उद्धृत किया जा रहा है।]
श्री विनोबा भावे कौन है? मैंने उन्हें ही इस सत्याग्रह के लिए क्यों चुना? और किसी को क्यों नहीं? मेरे हिंदुस्तान लौटने पर सन् 1916 में उन्होंने कॉलिज छोड़ा था। वे संस्कृत के पंडित हैं। उन्होंने आश्रम में शुरू से ही प्रवेश किया था। आश्रम के सब से पहले सदस्यों में से वे एक है। अपने संस्कृत के अध्ययन को आगे बढ़ाने के लिए वे एक वर्ष की छुट्टी लेकर चले गए। एक वर्ष के बाद ठीक उसी घड़ी, जब कि उन्होंने एक वर्ष पहले आश्रम छोड़ा था, चुपचाप आश्रम में फिर आ पहुँचे। मैं तो भूल भी गया था कि उन्हें उस दिन आश्रम में वापस पहुँचना था। वे आश्रम में सब प्रकार की सेवा-प्रवृत्तियों, रसोई से लगाकर पाख़ाना-सफ़ाई तक—में हिस्सा ले चुके है। उनकी स्मरण शक्ति आश्चर्यजनक है। वे स्वभाव से ही अध्ययनशील हैं। पर अपने समय का ज़्यादा-से-ज़्यादा हिस्सा वे कातने में ही लगाते है, और उसमें ऐसे निष्णात हो गए है कि बहुत ही कम लोग उनकी तुलना में रखे जा सकते हैं। उनका विश्वास है कि व्यापक कताई को मारे कार्यक्रम का केंद्र बनाने से ही गाँवों की ग़रीबी दूर हो सकती है। स्वभाव से ही शिक्षक होने के कारण उन्होंने श्रीमती आशादेवी को दस्तकारी के द्वारा बुनियादी तालीम की योजना का विकास करने में बहुत योग दिया है। श्री विनोबा ने कताई को बुनियादी दस्तकारी मान कर एक पुस्तक भी लिखी है। यह बिलकुल मौलिक चीज़ है। उन्होंने हँसी उड़ानेवाली को भी यह सिद्ध करके दिखा दिया है कि कताई एक ऐसी अच्छी दंतकारी है कि जिसका उपयोग बुनियादी तालीम में बख़ूबी किया जा सकता है। तकली कातने में तो उन्होंने क्रांति ही ला दी है; और उसके अंदर छिपी हुई तमाम शक्तियों को खोज निकाला है। हिंदुस्तान में हाथ कताई में इतनी संपूर्णता किसी ने प्राप्त नही की, जितनी कि उन्होंने की है।
उनके हृदय में छुआछूत की गंध तक नहीं है। सांप्रदायिक एकता में उनका उतना ही विश्वास है जितना कि मेरा इस्लाम धर्म की ख़ूबियों को समझने के लिए उन्होंने एक बर्ष तक कुरान शरीफ़ का मूल अरबी में अध्ययन किया। इसके लिए उन्होंने अरबी भी सीखी। अपने पड़ोसी मुसलमान भाइयों से अपना सजीव संपर्क बनाए रखने के लिए उन्होने इसे आवश्यक समझा।
उनके पास उनके शिष्यों और कार्यकर्त्ताओं का एक ऐसा दल है, जो उनके इशारे पर हर तरह का बलिदान करने को तैयार है। एक युवक ने अपना जीवन कोढ़ियों की सेवा में लगा दिया है। उसे इस काम के लिए तैयार करने का श्रेय श्री विनोबा को ही है। औषधियों का कुछ भी ज्ञान न होने पर भी अपने कार्य में अटल श्रद्धा होने के कारण उसने कुष्ठ रोग की चिकित्सा को पूरी तरह समझ लिया है। उसने उनकी सेवा के लिए कई चिकित्सा-घर खुलवा दिए है। उसके परिश्रम से सैकड़ों कोढ़ी अच्छे हो गए है। हाल ही में उसने कुष्ठ रोगियों के इलाज के संबंध में एक पुस्तिका मराठी मे लिखी है।
विनोबा कई वर्षों तक वर्धा के महिला-आश्रम के संचालक भी रहे हैं। दरिखनारायण की सेवा का प्रेम उन्हें वर्धा के पास के एक गाँव में खींच ले गया। अब तो वे वर्धा से पाँच मील दूर पौनार नामक गाँव में जा बसे है और वहाँ से उन्होंने अपने तैयार किए हुए शिष्यों के द्वारा गाँववालों के साथ संपर्क स्थापित कर लिया है। वे मानते है कि हिंदुस्तान के लिए राजनैतिक स्वतंत्रता आवश्यक है। वे इतिहास के निष्पक्ष विद्वान् हैं। उन का विश्वास है कि गाँववालों को रचनात्मक कार्यक्रम के बग़ैर सच्ची आज़ादी नही मिल सकती। और रचनात्मक कार्यक्रम का केंद्र है खादी। उनका विश्वास है कि चरखा अहिंसा का बहुत ही उपयुक्त वाह्य चिह्न है। उनके जीवन का तो वह एक अंग ही बन गया है। उन्होंने पिछली सत्याग्रह की लड़ाइयों में सक्रिय भाग लिया था। वे राजनीति के मंच पर कभी लोगों के सामने आए ही नही। कई साथियों की तरह उनका यह विश्वास है कि सविनय अवज्ञा भंग के अनुसंधान में शांत रचनात्मक काम कही ज़्यादा प्रभावकारी होता है, इसकी अपेक्षा कि जहाँ आगे ही राजनैतिक भाषणों का अखंड प्रवाह चल रहा है वहाँ जाकर और भाषण दिए जाएँ। उनका पूर्ण विश्वास है कि चखें में हार्दिक श्रद्धा रखे बिना और रचनात्मक कार्य में सक्रिय भाग लिए बग़ैर हिंसक प्रतिकार संभव नहीं।
श्रीविनोबा युद्ध-मात्र के विरोधी है। परंतु वे अपनी अंतरात्मा की तरह दूसरों की अंतरात्मा का भी उतना ही आदर करते हैं जो युद्धमात्र के विरोधी तो नही है, परंतु जिनकी अंतरात्मा युद्ध में शरीफ़ होने की अनुमति नहीं देती।
- पुस्तक : संस्मरण और आत्मकथाएँ (पृष्ठ 56)
- रचनाकार : महात्मा गाँधी
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.