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क़लम-घसीट

kalam ghasit

उपेंद्रनाथ अश्क

अन्य

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उपेंद्रनाथ अश्क

क़लम-घसीट

उपेंद्रनाथ अश्क

और अधिकउपेंद्रनाथ अश्क

    ‘क़लम-घसीट’ का मतलब साफ़ है...ऐसा लेखक जो सर्र-सर्र क़लम घसीटता चला जाए। लेकिन क्या हम ऐसे लेखक को, जिसकी प्रतिभा अपरंपार है और जो अपनी 'आमद' को देखकर कह उठता है...’बादल से बँधे आते हैं मज़मूँ मेरे आगे’ (लेख पर लेख, कहानी पर कहानी या कविता पर कविता लिखता जाता है, क़लम-घसीट कहेंगे! न! यदि वह अच्छा नहीं लिखता तो हम उपेक्षा से उसे ‘लिक्खाड़’ कहेंगे, और यदि वह ज़्यादा लिखने के साथ-साथ अच्छा भी लिखता है तो हम उसे ‘उर्वर कल्पना का स्वामी प्रतिभाशाली लेखक’ की संज्ञा देंगे। फिर यह क़लम-घसीट नाम का जीव कौन है? ज़ाहिर है कि जो क़लम, घसीटता है, वह क़लम-घसीट है, लेकिन यदि यह कहें—क़लम-घसीट वह है, जो इच्छा या अनिच्छा से क़लम घसीटने को मजबूर है तो शायद इस शब्द के ठीक अर्थ को हम व्यक्त करेंगे। क़लम-घसीट को अँग्रेज़ी में ‘हेक राइटर’ (Hack writer) कहते हैं। शब्दकोष में Hack शब्द के कई अर्थ है:—

    क्रिया रूप में—काटना, पुर्ज़ पुर्ज़ करना, परखचे उड़ाना।

    संज्ञा रूप में—लद्दू जानवर, भाड़े का टट्टू और पारिश्रमिक लेकर दूसरों के लिए अपनी रुचि के विपरीत काम करने वाला।

    और देखा जाए तो यह अँग्रेज़ी शब्द क़लम-घसीट नाम के जीव की सभी ख़ूबियों-ख़ामियों को अपने में सभी लेता है। क़लम-घसीट का क़लम, जो भी सामने पड़े—वह कहानी हो, अनुवाद हो, विज्ञापन हो, भाषण हो, किसी नेता की स्तुति में गाई हुई प्रशस्ति हो या किसी धनी-मानी के सुपुत्र का सेहरा—एक जैसे निर्मम हाथ से उसके पुर्ज़े उड़ा देता है, यानी घसीट डालता है। लेकिन यह सब वह रुचि से करता हो, ऐसी बात नहीं। रुचि को नहीं, उसकी त्वरा में पारिश्रमिक को दख़ल है। कितनी तेज़ी से उसका क़लम सामने पड़े काम की धज्जियाँ उड़ाता है, यह बात उस काम से मिलने वाले पारिश्रमिक पर निर्भर रहती है। शायद उसके घर में एक बीमार या लड़ाकी या चिड़चिड़ी बीवी और किलबिलाते या स्कूल जाते कई बच्चे हैं या अगर वह शादीशुदा नहीं है तो छोटे भाइयों की पढ़ाई का बोझ या अपनी बहनों के ब्याह की समस्या उसके सामने मुँह बाए खड़ी है, या फिर उसकी बूढ़ी माँ या वृद्ध पिता बीमार है और मँहगे डाक्टर और दवाइयाँ उसे निरंतर क़लम घसीटने पर विवश किए हुए हैं। जो भी सामने आए, इच्छा अच्छा को छोड़, वह उस काम को ले लेता है और घर घसीटता है। काम के बोझ से दब जाता है पर उफ़ नहीं करता। परिस्थितियों के कोई निरंतर उसकी पीठ पर पड़ते हैं और वह थके मन और शिथिल तन से क़लम बढ़ाए जाता है। वह लद्दू जानवर नहीं तो क्या है?

    वह लेखक है। देव ने उसे अपने विचारों को व्यक्त करने की पूर्व शक्ति प्रदान की है। उसने कभी महान कहानीकार, नाटककार या कवि बनने के सपने देखे हैं। लेकिन तो उसे उन सपनों की याद भी नहीं रही। शुरू-शुरू में उसने सदा चाहा था कि वही काम वह हाथ में ले जो उसकी रुचि के अनुसार हो। उसने कोशिश की थी कि वह कहानियाँ लिख कर अपने कुटुंब का पेट पालेगा, लेकिन शीघ्र ही उसे मालूम गया कि साहित्य-सृजन से इतना धन अर्जित करना कि उसके बीवी-बच्चे पल सकें, भाई शिक्षा पा सकें, बहनों का ब्याह हो सके या माँ-बाप की बीमारी और मँहगी दवाइयों के बीच की खाई पट जाए, एकदम असंभव है और उसने पहले उत्कृष्ट विदेशी कहानियों के अनुवाद करने शुरू किए थे। बड़ी रुचि से वह यह काम करता और दस पाँच रुपए जो भी साप्ताहिक या मासिक पत्रिकाओं से मिल जाते थे, ले लेता, लेकिन महीने में वह इतना भी कमा पाता कि उसे ‘कमाना’ कहा जाए। फिर सहसा एक जासूसी उपन्यास छापने वाले अनपढ़ पर धनी प्रकाशक ने उससे कहा कि वह इतनी मुश्किल से कहानी लिखता (यानी अनुवाद करता है और उसे केवल पाँच दस रुपए मिलते हैं, यदि वह उसके लिए एक छोटा सा उपन्यास लिख दे तो वह उसे साठ-सत्तर, और उपन्यास बड़ा हो तो सौ रुपए तक दे सकता है।

    क़लम-घसीट को जासूसी उपन्यास लिखना तब निहायत घटिया काम लगता था। उसने टालने के लिए कहा, “मुझे जासूसी उपन्यास लिखना नहीं आता।”

    “इसमें कौन मुश्किल है?” प्रकाशक बोले। “गुदड़ी बाज़ार में जाकर पुरानी किताबों से कुछ अँग्रेज़ी जासूसी उपन्यास चुन लीजिए। जो अच्छा हो उसका उलथा कर डालिए। ज़रा नाम-बाम बदल कर उसे हिंदुस्तानी बना दीजिए। बस! कापी हमको पसंद गई तो पचास साठ रुपए हम आपको दे देगें।”

    ‘कापी।’...क़लम-घसीट ने उपेक्षा से प्रकाशक की ओर देखा। उसका ख़ून अभी गर्म था और साहित्यकार बनने के सपने भी अभी छिन्न-भिन्न हुए थे।...”ऐसी कापी तैयार करना मेरे बस का नहीं।” उसने उपेक्षा से कहा, “अच्छी कहानी या उपन्यास चाहिए, तो हम लिख दें।”

    लेकिन परिस्थितियों के कोड़ों की मार ने उसे गुदड़ी बाज़ार जाने, जासूसी उपन्यास ख़रीदने, उनका उलथा करने और उसको उन नितांत पढ़ प्रकाशक महोदय की सेवा में ले जाकर उसके बदले में सौ नहीं, साठ नहीं, पचास नहीं, केवल तीस रुपए पाने पर मजबूर कर दिया। उसके सुनहरे सपनों की रेशमी चादर में यह पहला पैबंद था। लेकिन यह तो तब की बात है जब ‘आतिश जवान था’। अब तो चादर में रेशम का कहीं पता ही नहीं, बस पैबंद ही पैबंद नज़र हैं।

    जिस प्रकार साहित्य लेखन की कला है, अच्छा साहित्यिक रुचि के अनुसार अच्छी कहानियाँ, नाटक या कविताएँ पढ़ता है, सुंदर उपयुक्त सूक्तियों के उद्धरण कापी में नोट कर रखता है, छोटी सी लायब्रेरी बनाता है और अध्यवसाय से अपनी कला में सिद्धि प्राप्त करता है, इसी तरह क़लम घिसने की भी एक कला है, जिसमें निरंतर श्रम, अध्यवसाय और अनुभव से क़लम-घसीट ने पूर्वसिद्धि प्राप्त कर ली है। भानमती के पिटारे सरीखी उसकी छोटी सी लायब्रेरी है। इसमें गुदड़ी बाज़ार से ख़रीदे हुए जासूसी और प्रेम संबंधी उपन्यास है, पत्र-पत्रिकाओं में छपे विभिन्न विज्ञापनों की फ़ाइलें है, अलग-अलग लिफ़ाफ़ों में अलग-अलग तरह के लेखों के तराशे बंद हैं—एक में स्वास्थ्य पर तो दूसरे में स्पोर्टस पर; तीसरे में सेक्स पर तो चौथे में फ़ैशन पर; पाँचवें में महान नेताओं के वक्तव्य हैं तो झूठे में संसार के प्रसिद्ध लोगों की जीवनियाँ! फिर एक फ़ाइल में नेताओं, मैनेजिंग डायरेक्टरों और बड़े पदाधिकारियों को दिए जाने वाले मान-पत्र, अभिनंदन-पत्र और अभिनंदन-पत्र तो दूसरी में दूल्हों के सेहरे और दुल्हनों को दिए जाने वाले आशीर्वाद! इन्हीं सब के बल पर छोटे से छोटे नोटिस पर क़लम-घसीट मनचाही चीज़ तैयार करने की प्रतिभा रखता है।

    किसी बड़े लाला के लड़के की शादी है। उनकी इच्छा है कि जब बारात उनके समधी के यहाँ जाए, दूल्हा सेहरा बाँधे तो उसके मित्र दो सेहरे पढ़ें, जिनमें दूल्हा के हुस्न की तारीफ़ के साथ उसके पिता के धन-धान्य, उदार दिली और हँसमुखता का भी उल्लेख हो। लेकिन दुर्भाग्य यह कि उनके अपने या उनके सुपुत्र के मित्रों में कोई भी कवि नहीं। कविता करना तो दूर रहा कविता को समझने का सलीका भी उनमें से किसी को नहीं। उनके सुपुत्र के मित्रों में एक सिनेमा के गानों को अपने भोंडे स्वर में बड़े मज़े से गा लेते हैं। दूसरे फ़िल्मों के नायक-नायिकाओं के गुप्त-तम जीवन के संबंध में मित्रों की ज्ञानवृद्धि कर सकते हैं। एक तीसरे हैं जो नित्य नई तर्ज़ के फ़ैशन के बारे में मित्रों को जानकारी दिया करते हैं और एक चौथ प्रेम-कहानियाँ सुनाने में दक्ष है। लेकिन कवि उनमें से कोई नहीं। लाला जी के अपने मित्रों में दो साइच मिठाइयों की विभिन्न क़िस्मों का उल्लेख बड़े विशेषज्ञ की भाषा में कर सकते हैं। एक तीसरे चाट के पंडित हैं और चौथे भाग घोटने में अपना सानी नहीं रखते। लेकिन कविता किस चिड़िया का नाम है, यह उनमें से कोई नहीं जानता। और लाला जी हैं कि पुत्र की शादी के अवसर पर सेहरे पढ़वाने पर तुले हैं...बात यह हुई कि वे एक बार अपने एक बैरिस्टर मित्र के लड़के की शादी पर गए थे। उनके सुपुत्र को जब सेहरा बँधा तो दूल्हा के एक मित्र ने बड़ा सुंदर से हरापढ़ा। लड़के की जो तारीफ़ की सो की, पर उन बैरिस्टर महोदय की भी बड़ी तारीफ़ की। बड़े चौड़े सुनहरी फ़्रेम में जड़ा, सुंदर सुनहरी अक्षरों में छुपा हुआ सेहरा जन दूल्हा के मित्र ने पढ़ा (एक-एक प्रति सब उपस्थित सज्जनों को बाँटी गई थी) तो लाला जी की बैरिस्टर मित्र के चहरे पर जमीं उसके खिलते हुए रंगों को देखती रहीं और तभी उन्होंने तय किया कि जब उनके साहबज़ादे की शादी होगी तो वे दो सेहरे पढ़वाएँगे। अपने मित्रों से उन्होंने कहा कि चाहे जैसे हो, जितना ख़र्च हो, सेहरे लिखवाए जाएँ, सुनहरी रंग में छपवाए और सुनहरी फ़ोर्मों में मढ़वाए जाएँ।

    सो ढूँढ़ते ढाँढ़ते लाला जी के मित्र क़लम-घसीट के यहाँ आए। घोर व्यस्तता का बहाना कर (कि यह भी उसकी कला का अंग है) घसीट ने मजबूरी ज़ाहिर की कि वह एक अभिनंदन पत्र लिखने जा रहा है, जो कल ही उसे दे देना है। पर लाला जी के मुसाहब यों ख़ाली हाथ लौटने वाले थे। सख़्त चेहरे कैसे नर्म पड़ जाते हैं, यह सब भली-भाँति जानते थे। उन्होंने अनुनय-विनय की और कहा कि ज़्यादा समय होता तो वे कहीं और जाते, लेकिन बारात तीन दिन में चढ़ने वाली है और लाला जी सेहरे ज़रूर चाहते हैं और ऐसे मुश्किल वक़्त में कोई दूसरा उनके आड़े नहीं सकता और उन्होंने बीस रुपए पेशगी क़लम-घसीट के सामने रख दिए और बाक़ी तीस रुपए दोनों से सेहरे मिलते ही देने का वचन दिया। तब प्रकट बड़ी अच्छापूर्वक (लेकिन दिल में बड़े ख़ुश होते हुए) क़लम-घसीट ने रुपए जेब में डाल लिए। कहा कि वह लाला जी की बड़ी इज्ज़त करता है, उनका आदेश वह कैसे टाल सकता है; वह रात भर जगेगा और भगवान ने चाहा तो सुबह उनको दोनों सेहरे दे देगा।

    “ज़रा लाला जी की तारीफ़ करना भूलिएगा।” लाला जी के मित्र कहते हैं।

    “निशा-ख़ातिर रहिए! लाला जी क्या, उनके दूर नज़दीक के रिश्तेदारों और मित्र-पड़ोसियों तक की तारीफ़ सेहरे में कर दूँगा।” क़लम-घसीट उन्हें विश्वास दिलाता।

    उनके जाने के बाद क़लम-घसीट सेहरों के फ़ाइल निकालता है।

    चूँकि सेहरे दो लिखने हैं, इसलिए एक लंबे छंद का चुनता है, दूसरा छोटे छंद का और थोड़े बहुत परिवर्तन के बाद उन्हें अच्छे काग़ज़ पर सुंदर अक्षरों में लिख कर तैयार कर देता है।

    परिवर्तनों की ज़रूरत नामों के कारण पड़ती है, क्योंकि सेहरे में दूल्हा, उसके पिता और पितामह का नाम दिया जाए तो सोने में सुगंधि की सी बात हो जाती है।

    लाला जी का नाम भगवान दास है और लड़के का रोशनलाल। क़लम-घसीट रूट लिखता है:

    हुए भगवान के जब दास के तुम दास रोशन,

    तो सेहरे पर निलावर क्यों हों फूलों भरे दामन।

    पितामह का नाम है रूपलाल। क़लम-घसीट उस नाम को भी फ़िट करना नहीं भूलता।

    मुबारक रूप के इस बाग़ में खिल कर बहार आई।

    लिए फूलों की परियाँ साथ में दीवानावार आई॥

    गुलों में यह सुनहरी तार कैसे जगमगाते हैं।

    खिला है रूप का बाज़ार तारे रश्क खाते है।

    और शेष बंद वैसे के वैसे उठाकर क़लम-घसीट उसमें रख देता है। दूसरे सेहरे को वह कुछ यों लिखता है।

    सेहरा तेरा गौहर है

    सेहरा तेरा अख़्तर है

    रुख़ तेरा मेरे रोशन

    इक माहे मुनव्वर है।

    क्या हुस्न का पैकर है?

    और यों समय से दोनों सेहरे तैयार कर क़लम-घसीट वादे के अनुसार दे देता है। बाक़ी तीस रुपए चूँकि उसे तत्काल मिल जाते हैं, इसलिए ग्राहक को आगे के लिए पक्का करने के ख़याल से वह उन पर इतनी मेहरबानी करता है कि दूल्हे के मित्रों को बुलाकर उनमें से दो बाँके छरहरों के नाम उन दोनों सेहरों के अंतिम पदों में फ़िट कर देता है। सिर्फ़ यह, बल्कि सेहरे पढ़ने की रिहर्सल भी उन्हें अच्छी तरह करा देता है।

    इस काम से निबट कर वह फिर पुराने काम में हाथ लगाता है। शहर में एक बड़ी कंपनी के मैनेजिंग डायरेक्टर रहे हैं। उनके अधीन चीनी की कितनी ही मिलें हैं। शहर के व्यापारियों की सिंडीकेट की ओर से उन्हें अभिनंदन पत्र दिया जा रहा है। उसे लिखने का काम क़लम-घसीट के सिर पड़ा है। दस रुपए पारिश्रमिक मिलने की है। सिंडीकेट से उसे यदा-कदा काम मिलता ही रहता है, इसलिए पेशगी नहीं माँग सका, लेकिन यदि आगे काम लेना है तो इस अभिनंदन पत्र को समय पर देना है। सो वह विदाई-पत्रों, मानपत्रों और अभिनंदन-पत्र की फ़ाइल निकालता है और तीन चार को मिलाजुला कर एक अभिनंदन-पत्र तैयार कर देता है।

    “मान्यवर,

    “हम शहरियों और व्यापारियों के लिए यह कितने सौभाग्य का दिन है कि जैसे कर्म और योग्य जनसेवी का स्वागत करने का शुभ अवसर हमें प्राप्त हुआ है। हमारे नगर की परंपरा ही त्याग और पर सेवा की है। उसी उज्ज्वल परंपरा के आप स्वयं एक स्तंभ हैं। आपको अपने बीच पाकर हम अपने आप को सम्मानित और गौरवांवित अनुभव कर रहे हैं, क्योंकि आपका मन हमें सच्ची जन-सेवा के भावों से भर रहा है। यह आपके महान गुणों का ही प्रभाव है कि हम सब आपको विश्वास, दृढ़ता, त्याग और श्रम के रूप में मूर्तिमान देख रहे हैं। आपके इन्हीं गुणों ने आपको व्यक्ति से संस्था बना दिया है।”

    और इसी शैली में क़लम घसीट लिखता चला जाता है और मानव के जितने भी गुण वह सोच सकता है वे सच उन मैंनेजिंग डायरेक्टर महोदय में दिखा देता है।

    ‘क़लम-घसीट आख़िर लेखक है, कभी कथा-लेखक और कवि भी रहा है। वह ज़रूर भावुक, अनुभूति-प्रवण और हस्सास होगा’,—उसका कोई मित्र कभी-कभी सोचता है, ‘फिर क्या इस सत्र काम से, जिसे उर्दू के एक हस्सास कवि ने ‘ख़िश्त कोबी’ याने ईंट पत्थर तोड़ने का नाम दिया है, उसका जी नहीं ऊबता? क्या इस झूठी प्रशंसा, चापलूसी और चटुकारिता की बातें लिखते हुए, बिन देखे लोगों की प्रशस्तियाँ गाते हुए वह अपने आप पर झुँझला नहीं उठता और उसका वह मित्र लेखक की भाव-प्रवणता का उल्लेख कर उसके विचार जानना चाहता है।

    क़लम घसीट के विचार एक से नहीं रहे। कभी जब उसके सपनों का रेशमी पट यों तार-तार हुआ था और उसकी आशा के क़िले की दीवार मज़बूती से खड़ी थी, वह समाज की सड़ी-गली व्यवस्था को बदल देने के सपने देखता था। “इस व्यवस्था को हम बदलेंगें।” वह घोषण करता था, “हम कवियों और लेखकों के कंधों पर बड़ी भारी ज़िम्मेदारी है, क्योंकि हम जनता की सेना के टैंक हैं। हम एक तरफ़ विचारों के गोले बरसा कर इस क्रूर व्यवस्था को क़ायम रखने वाले शत्रुओं की पंक्ति में अफ़रा-तफ़री पैदा कर देंगे और दूसरी तरफ़ अपनी आलोचनाओं के भारी पहियों के नीचे अव्वाम को गुमराह करने वालों को पीसकर जनता के विजय पथ को प्रशस्त बनाएँगे।”

    पर धीरे-धीरे उसके विचारों की तुंदी मिटती गई। उसने अपने आपको तसल्ली दी कि परिस्थितियों की कठिनाई के कारण उसे शत्रुओं से समझौता करना पड़ रहा है। उन्हीं के हथियारों से वह उनको परास्त कर देगा। इन परिस्थितियों पर अधिकार पाकर अपनी इच्छा के अनुसार लिखेगा और दुनिया को नए सिरे से बनाने-सँवारने के अपने चिर उद्देश्य को पूरा करेगा।

    लेकिन इस बात को भी बरसों बीत गए हैं। अब तो कभी वह इन बातों के बारे में सोचता भी नहीं। नया काम जुटाने और हाथ के काम को निपटाने की चिंता में दिन रात ग़र्क़ रहता है। यदि कोई मित्र उसकी पर मुद्दतों से पड़ी उस राख को कुरेदना भी चाहता है तो वह सदा हँसकर या मज़ाक़ करके या बात के रुख़ को पलटकर उसके प्रयास को सफल कर देता है, क्योंकि उसे यक़ीन हो गया है कि राख के नीचे दबे उसकी के अँगारे में, जो शायद बुझते-बुझते अब चिंगारी भर रह गया है, इतनी शक्ति भी नहीं रही कि वह दमक कर ज्वाला बन उठे। उसे तो यह भी डर है कि वह राख कुरेदने बैठेगा तो शायद उसके हाथ चिंगारी भी आएगी। सो व्यंग्य भरी मुस्कान के साथ वह एकाध ऐसी सूक्ति से मित्रों की जिज्ञासा शांत कर देता है कि:—

    ‘लद्दू जानवर सोचेगा, तो भार कैसे ढोएगा’?

    या...

    ‘मज़दूर का काम मेहनत करना है, फ़लसफ़ा बघारना नहीं।

    या...

    ‘विचार और फ़लसफ़ा भरे-पेट, बेकार, कंधों के बोझ से आज़ाद और भाग्यवान लोगों की ऐयाशी है। हमारे कंधों के बोझ ने दिमाग़ को सोचने की ऐयाशी के योग्य नहीं रखा। और परम तितिक्षाबादी की तरह वह बड़ी से बड़ी राजनीतिक या सामाजिक घटना पर व्यंग्य से मुस्कराकर हाथ के काम को निबटाने में लग जाता है।

    लेकिन किसी कवि ने कहा है—

    ज़िंदगी आगही

    और है बार है

    जब तलक रस हो

    जब तलक बस हो...

    चूँकि कवि शायद शाकाहारी है, इसलिए उसने परामर्श दिया है, कि विरसता को दूर करने के लिए—

    बाग़ में शौक़ से

    संगतरे तोड़ के

    उनका रस पीजिए

    ऐश यों कीजिए

    क़लम-घसीट भी निरामिष है, क्योंकि सामिष खाना वह जुटा नहीं सकता। पर उसे इतने संगतरे मयस्सर नहीं कि वह उनका रस पीकर ऐश करे। वह एक संगतरा तभी चूस सकता है जब अपने बीवी बच्चों के लिए छह-सात लाए। कभी जब पैसे फ़ालतू जाते हैं तो वह उन्हें कोई धार्मिक या हास्य रस की फ़िल्म दिखलाता है। उससे बीवी-बच्चों का मनोविनोद हो तो हो, उसका इतना मनोरंजन नहीं होता कि वह यह इतना भार आसानी से ढो सके। लेकिन रस तह लेता है और मज़े की बात यह है कि अपने कमर तोड़ देने वाले काम से लेता है। वह उससे स्वयं ही रस नहीं पाता, मित्रों को भी देता है।

    रे. चि.—13

    जब उसके पास समय होता है और काम की जल्दी नहीं होती तो वह मनोविनोद के लिए सेहरों या बधाइयों या आशीर्वादों या अभिनंदन-पत्रों के विशेष रूपांतर तैयार करता है और यों उनसे अपना और मित्रों का मनोरंजन करता है। यही जो लाला भगवान दास के सुपुत्र का सेहरा उसने लिखा है उसका विशेष रूपांतर कुछ यों है :

    सेहरा तेरा छप्पर है,

    सेहरा तेरा टट्टर है,

    रुख़ तेरा कहूँ गर सच,

    टूटा हुआ छित्तर है।

    बाराती तेरे रौशन,

    भालू या बघेले हैं।

    औं तू...मैं तेरे कुरबाँ,

    अच्छा भला बंदर है॥

    और उस अभिनंदन पत्र का भी दूसरा वर्शन उसके पास है:

    “धूर्तीवर,

    हम शहरियों और व्यापारियों के लिए यह कितने दुर्भाग्य का दिन है कि जैसे कामचोर, अयोग्य, जन-घातक का दिन स्वागत करने का संकट हमारे सम्मुख पड़ा है। हमारी सिंडीकेट की परंपरा घोर स्वार्थ और बद-दयानती की परंपरा रही है। इसी उज्ज्वल परंपरा के एक देदीप्यमान स्तंभ हैं...”

    और इसी शैली में उसने यह जिसमें मैनेजिंग डायरेक्टर और उसका अभिनंदन पत्र लिख रखा है, स्वागत करने वाले व्यापारियों का ऐसा ख़ाका खींचा है और वे राज़ की बातें कही है कि क़लम-घसीट और उसके मित्र इसे पढ़ कर घंटों ठहाके लगाते हैं।

    जब एक चीज़ से तबियत भर जाती है तो वह झट ही ऐसी कोई दूसरी चीज़ तैयार कर देता है। इन कृतियों में दरअसल समाज की ऐसी आलोचना है कि यदि ये छप जाएँ तो समाज और उसके स्तंभ में अपनी सूरत देखकर स्तंभित रह जाएँ और पहली बार उन्हें मालूम हो कि लद्दू जानवर जब दिमाग़ भी रखता है तो क्या-क्या सोचता है।

    25 फ़रवरी 55

    स्रोत :
    • पुस्तक : रेखाएँ और चित्र (पृष्ठ 193)
    • रचनाकार : उपेन्द्रनाथ अश्क
    • प्रकाशन : नीलाभ प्रकाशन गृह
    • संस्करण : 1955

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