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मेरी जीवन-कथा के कुछ पृष्ठ

meri jivan katha ke kuch prishth

आचार्य श्री रामदेवजी

आचार्य श्री रामदेवजी

मेरी जीवन-कथा के कुछ पृष्ठ

आचार्य श्री रामदेवजी

और अधिकआचार्य श्री रामदेवजी

    शहीद लेखाराम

    सन् 1865 में मुझे मिडिल की परीक्षा देनी थी। आर्य समाज में उस समय तक दो दल मांस-पार्टी और बास-पार्टी के बन चुके थे। मैं भी इसी वर्ष मांस-पार्टी का एक उत्साही सदस्य बन गया। दो-तीन वर्षों तक इसी दल में रहा। मांस-पार्टी में शामिल भी मैं एक अजीब बात पर हुआ। पहले मैं मांस-भक्षण के विरोध में था। अपने इसी गंतव्य को लेकर मैं लाला हंसराजजी के भाई लाला मुल्कराजजी से भिड़ पड़ा। वे आयु में मुझसे बहुत बड़े थे। मांस-भक्षण के सबसे बड़े प्रचारक समझे जाते थे। नवयुवकों में अहं-भाग स्वभाव से बहुत होता है, ख़ासकर मुझमें तो इसकी मात्रा बहुत बड़ी-चढ़ी थी। बालक होते हुए भी मैंने यह संपण कर ली कि यदि मैं लाला मुल्कराजजी से विवाद‌ में हार गया, तो मांस खाना शुरू कर दूँगा। बहस हुई और मैं सचमुच हार गया। मैं अपने वचन पर पक्का रहा। लाला साहब ने उसी समय बाज़ार से मांस मँगवाया, और मैंने उसे खाया, परंतु अपने पुराने संस्कारों के कारण दो-तीन बार से अधिक मांस न खा सका, यद्यपि मांस-पार्टी का तरफ़दार मैं दो-तीन वर्षों तक रहा। मैं उन दिनों नौमुस्लिम की तरह जोशीला था। महात्मा पार्टी के बच्छो वाले समाज में जाना मैं गुनाह समझता था, मगर फिर भी मुझे वहाँ हर सप्ताह जाना होता था। मांस-पार्टी के नेता लाला हंसराजजी ने मेरे ज़िम्मे यह ड्यूटी लगा दी थी कि मैं उस समाज के साप्ताहिक अधिवेशन में सम्मिलित होने वाले सदस्यों और दर्शकों की गिनती करके उन्हें बतलाया करूँ।

    उन्हीं दिनों बच्छो वाले समाज के एक साप्ताहिक अधिवेशन में मैंने देखा कि एक हट्टा-कट्टा रौबदार पंजाबी जवान व्याख्यान देने के लिए समाज की वेदी पर आया। वह लुधियाना के कपड़े का बंद गलेवाला कोट पहने था, परंतु कोट के ऊपरवाले बटन खुले हुए थे। सिर पर पगड़ी थी। उसका शमला बहुत लंबा था। पहलवान प्रतीत होता था। देखने में वह व्यक्ति एक वेदी पर आते ही उसने व्याख्यान शुरू कर दिया। वह बड़ी ऊँची आवाज़ में और जल्दी-जल्दी बोलता था। अपने पास बैठे हुए एक महाशय से मैंने पूछा—यह कौन है? उसने आश्वर्य से उत्तर दिया—तुम्हें यह भी नहीं मालूम! यह आर्यसमाज के सुप्रसिद्ध विद्वान प्रचारक पंडित लेखरामजी हैं। मैं व्याख्यान सुनने लगा। सुनने क्या लगा, व्याख्यान ने स्वयं मुझे अपनी तरफ़ आकृष्ट कर लिया। पंडिडतजी एक घंटे तक बोले। उनका भाषण सचमुच ज्ञान का भंडार था। अपने व्याख्यान में उन्होंने इतने अधिक वेद-मंत्रों, फ़ारसी-अरबी के वाक्यों तथा यूरोपियन विद्वानों के प्रमाण और उद्धरण दिए कि मैं आश्चर्य-चकित रह गया। मेरे दिल में आया, यदि व्यावमाता बनना हो, तो इसे आदर्श बनाना चाहिए। मैंने सचमुच उन्हें अपना आदर्श बनाया। उस दिन के बाद से मैं जो कुछ पढ़ता, उसे जज़्ब करने की कोशिश करता। पुस्तकों पर निशान लगाने की आदत भी मैंने उसी दिन से डाली। दस-बारह वर्षों के बाद पढ़े हुए उद्धरणों को मैं अपने रजिस्टर में लिखने लगा। आज मेरे पास इस तरह के रजिस्टर बहुत अधिक संख्या में हैं, और मैं उन्हें अपनी अमूल्य सम्पत्ति समझता हूँ। पंडितजी का व्याख्यान सुनकर मुझ पर यह प्रभाव पड़ा था कि वे संस्कृत, फ़ारसी, अँग्रेज़ी और अरबी के प्रकांड विद्वान हैं, परंतु पीछे से यह जानकर मेरे आश्चर्य की सीमा न रही कि वे संस्कृत बहुत थोड़ी जानते हैं और अँग्रेज़ी तो बिलकुल ही नहीं जानते! हाँ, अरबी और फ़ारसी के अभिज्ञ वे अवश्य थे।

    मैं चकित था कि एक भाषा का बिल्कुल ज्ञान न होते हुए भी ये उसके इतने अधिक प्रमाण वे किस तरह सुनाते हैं। मज़ा तो यह है कि उन प्रमाणों में एक भी अशुद्ध नहीं होता। यह रहस्य भी एक दिन खुल गया। एक दिन में रविवार के अतिरिक्त किसी और दिन बच्छो वाले आर्यसमाज के मंदिर में गया। वहाँ एक टोली जमा थी। कौतूहलवश में भी उसी में शामिल हो गया। वहाँ देखा कि पंडित लेखरामजी दो ग्रेजुएटों को घेरकर बैठे हैं। एक ग्रेजुएट को वे बड़ी ज़ोर से डाँट बता रहे थे, बी. ए. पास करके भी तुमने अँग्रेज़ी नहीं सीखी! मैक्समूलर के एक उद्धरण का तुमने अशुद्ध अनुवाद किया है। बह ग्रेजुएट बिल्कुल सटपटाया हुआ था, तथापि उसे मालूम था कि पंडितजी अँग्रेज़ी बिल्कुल नहीं जानते। साहस करके उसने कहा—यह आपको कैसे मालूम?” पंडितजी ने दूसरे ग्रेजुएट से कहा—बताओ भाई, इसने क्या ग़लती की है। दोनों नए-नए ग्रेजुएट एक-दूसरे से पिल पड़े। थोड़ी देर के मुवाहिसे के बाद, पहले ग्रेजुएट ने स्वीकार किया कि उसका अनुवाद अशुद्ध था। पीछे से मुझे मालूम हुआ कि पंडितजी सदैव ऐसा ही करते हैं। संस्कृत के उद्धरणों के लिए संस्कृतज्ञों को और अँग्रेज़ी के उद्धरणों कि लिए अँग्रेज़ी दों लोगों को एक दूसरें से सिखाकर वे इन दोनों भाषाओं के प्रमाण जमा करते हैं। मुझ पर पंडितजी के इस सत्य-प्रेम और स्वपक्ष-पुष्टि की निष्ठा ने बहुत गहरा प्रभाव डाला। मैंने सोचा, जो व्यक्ति एक भाषा बिल्कुल न जानते हुए भी इतने अध्यवसाय से उसके प्रमाण अभा कर सकता है, उसके मार्ग में कोई कठिनाई अंकुरित नहीं हो सकती।

     

    दो

    पं. लेखरामजी जहाँ एक ओर असाधारण विद्वान् थे, वहाँ दूसरी ओर वे एक वीर शहीद की भाँति निर्भीक और साहसी भी थे। मेरे एक मित्र ब्रह्म समाज के नेता ने उनका नाम 'आर्य समाज का अली' रखा था।

    अपने विवाह के बाद एक दिन मैं लाला मुंशीराम जी के निवास-स्थान पर बैठा था। उन दिनों वे लालाजी कहलाते थे। उसी समय पं. लेखरामजी उनसे मिलने के लिए उनके मकान पर आए। लाला मुंशीरामजी उन दिनों आर्य-प्रतिनिधि सभा पंजाब के प्रधान थे और पं. लेखरामजी सभा के एक वैतनिक उपदेश के आज आर्यसमाज के अनेक अधिकारी आर्यसमाज के वास्तविक आजन्म सेवकों को, जो असल में आर्यसमाज के प्राण हैं, केवल इसलिए सभा का वेतन भोगी सेवक समझते हैं, क्योंकि अपना संपूर्ण समय आर्यसमाज की सेवा में व्यय कर देने के कारण उनके लिए सभा से आजीविका-मात्र वृत्ति लेना आवश्यक होता है; परंतु उन दिनों यह बात न थी। प्रतिनिधि सभा तब उपदेशों को मान करना जानती थी। यहाँ तक कि सभा के अधिकारी प्रभावशाली प्रचार कों से चुपचाप डाँट खाने में भी अपनी मानहानि नहीं समझते थे। जब पं. लेखरामजी मकान पर आए, तथ प्रधानजी उठे और पंडितजी के बैठ जाने के बाद ही बैठे। नमस्कार आदि के बाद प्रधानजी ने कहा—सभा के कार्यालय से सूचना दी गई थी कि इस सप्ताह आप नगर में प्रचार के लिए जावेंगे, परंतु अब आपका प्रोग्राम बदल दिया है। आप अब जाइएगा।...
    पंडिडतजी ने पूछा—यह किसलिए?

    प्रधानजी ने उत्तर दिया—मुझे विश्वस्त सुत्र से विदित हुआ है कि...मुसलमान आपके प्राया खेने का कुचक रच रहे हैं। यदि आपको अपने जीवन की चिंता नहीं, तो मुझे तो उसकी परवाह करनी ही चाहिए न!

    न मालूम क्यों, पंडितजी को क्रोध आ गया। असाधारण जोश में आकर बोले 'लालाजी! आप जैसे डरपोक यदि संस्था में बहुत अधिक बढ़ गए, तो आर्यसमाज का बेड़ा अवश्य डूब जाएगा। मैं मरने से नहीं करता। अब तो मैं अवश्य ही वहीं जाऊँगा।

    प्रधानजी तब भी मुस्कुरा रहे थे। इस बार उन्होंने नियंत्रण से काम लेना चाहा। उन्होंने कहा—मैं सभा के प्रधान की हैसियत से आपका जाना आवश्यक समझता हूँ, इसलिए मैंने आपका प्रोग्राम बदल दिया है। मेरी आपसे प्रार्थना है कि अब आप बताए हुए प्रोग्राम का ही अनुसरण करें।

    अब की बार पंडितजी ने ज़रा नम्र आवाज़ में जवाब दिया, परंतु उनकी ज़िद उसी तरह क़ायम थी। उन्होंने कहा—मुझे मालूम है कि आपको मुझसे मोह है, उस मोह में कायरतापूर्ण वकालत मिलाकर आप मुझे न जाने के लिए बाधित करना चाहते हैं, परंतु मैं यह स्पष्ट शब्दों में कह देता हूँ कि अब तो ज़रूर वहीं जाऊँगा। यदि आप वहाँ मुझे सभा की तरफ़ से नहीं भेजेंगे, तो मैं अवैतनिक अवकाश लेकर अपने किराए से वहाँ जाऊँगा।

    मुझे स्मरण है, उन दिनों पंडितजी सभा से केवल 50 मासिक वेतन पाते थे। प्रधानजी भला उनकी इस निर्भीक घोषणा का क्या जबाब देते? उन्होंने केवल इतना ही कहा—आप जहाँ चाहे जा सकते हैं, अब मैं आपको किसी बात के लिए बाधित नहीं करूँगा। सचमुच हमारी सभा का यह सौभाग्य है कि आप जैसे वीर पुरुष की सेवा उसे प्राप्त है।

    तीन

    एक दिन लाहौर की सनातन धर्म-सभा में किसी सनातनी पंडित का व्याख्यान था। मैं भी वह व्याख्यान सुनने गया था। यह व्याख्यान मैंने बड़े ध्यान से सुना था, उसका सार मुझे याद हो गया।

    भाषण सुनने के बाद घर की तरफ़ लौटते हुए राह में अचानक पंडित लेखरामजी से मुलाक़ात हो गई। वे मेरा नाम जानते थे। उन्होंने मुझसे पूछा—कहाँ से आ रहे हो? मैंने कहा सनातनधर्म-सभा के भवन से। उन्होंने पूछा—वहाँ क्या करने गए थे? मैंने उत्तर दिया व्याख्यान सुनने। पंडितजी ने पूछा व्याख्यान में क्या-क्या बातें सुनीं? मैंने उस भाषण का सारांश पंडितजी को सुना दिया। पंडितजी ने मेरी पीठ पर हाथ रखकर मुझे शाबासी दी और कहा—शाबास, प्रत्येक चीज़ को इसी तरह ध्यान से सुना करो। मैंने पूछा—क्या इस व्याख्यान की बातें ठीक हैं? पंडितजी ने एकदम उत्तर नहीं दिया, और कहा—मेरे यहाँ आना, मैं तुम्हें इन सभी बातों का विस्तृत उत्तर दूँगा। पंडित लेखरामजी सचमुच अपने विश्वासों कि इतने ही पक्के थे। उन्हें कभी यह आशंका तक न होती थी कि मेरे विचारों में कोई अशुद्धि या भ्रांति भी हो सकती है। अपने विपक्षियों की बातें तो वे बड़ी सभ्यता और शांति से सुनते थे, परंतु उनके दिल में यही होता था कि यह व्यक्ति गुमराह और अशुद्ध विचारों का है।

     

    डॉक्टर चिरंजीव भरद्वाज

    सन् 1918 में लाहौर में 'सिरमुनी' समाज के नाम से एक नया आर्यसमाज खुलने की मज़ेदार चर्चा पढ़े-लिखे लोगों में ओरों पर थी। लोगों में मशहूर था कि बच्छोवाली समाज (महात्मा-पार्टी की समाज के बहुत से नौजवान सदस्य इस सिरमुनी समाज की ओर खिंचे चले जा रहे हैं। ठीक संख्या पता लगाने पर मालूम हुआ कि जवान इस समाज के मेंबर बन चुके हैं। मैं भी जवान था और अभी ताज़ा-ताज़ा ही कलचर्ड-दल से महात्मा-इसमें सम्मिलित हुआ था। अपने एक मिल से मैंने पूछा कि भाई, यह सिरमुनी समाज किस चीज़ का है? मेरे मित्र किसी चीज़ का वर्णन करने में सिद्धक्षक थे। उन्होंने कहा डॉक्टर भारद्वाज नाम के एक उत्साही नौजवान हैं। अपनी अध्यक्षता में बहुत से अन्य नवयुवकों को साथ लेकर उन्होंने इस नई संस्था की स्थापना की है। इस संस्था का वास्तविक नाम सिरमुनी समाज नहीं, आर्यधर्म-सभा है। इस सभा का उद्देश्य आर्यसमाजियों में ऋषि दयानंद के व्यावहारिक जीवन-संबंधी सिद्धांतों को असली तौर से शुरू करना है। आजकल तो अधिकांश आर्यसमाजी सिर्फ़ कहने भर को ही आर्य हैं, समाज के प्रधान तक बन जाते हैं और श्राद्ध के दिन ब्राह्मणों को भोजन भी अवश्य कराते हैं। माघी के दिन चावल का संकल्प किसी ब्राह्मण के नाम पर न सही, अनाथालय के नाम पर ही सही किया जाता है। किसी ने कड़ा केश आदि धारण कर रखे हैं, तो कोई संध्या भी कर लेता है और साथ ही अपजी का पाठ भी। समाज भी होता है और गुरुद्वारा भी। लोगों को यही भय होता है कि न-जाने मरने के बाद कौन सी बात सच निकले। संध्या के साथ विष्णु सहस्रनाम का भी पाठ कर लेने में दक्ष ही क्या है? यही न कि थोड़ा समय अधिक लग जाएगा, परलोक के लिए इतना ही सही। भारद्वाज बड़े उत्साही हैं। उन्हें यह बरदास्त नहीं, इसी कारण उन्होंने यह सभा खोली है। इस सभा का उद्देश्य है पर्दा, जन्म-मूलक आत-पात और परंपरागत रूड़ियों को तोड़ना। सभा का सदस्य बनने के लिए व्यक्ति को एक बार सिर के बालों का मुंडन करना होता है। इसी कारण लोगों ने इस सभा का नाम 'सिरमुनी समाज' रख छोड़ा है।

    इस वर्णन से में इस सभा की ओर आकृष्ट हुआ। अपने उत्साह के कारण इस सभा ने लाहौर में एक विचिल सनसनी पैदा कर दी। शुरू-शुरु में जब किसी नए सदस्य का प्रवेश-संस्कार किया जाता था, तब लोग बड़ी संख्या में कौतूहलवश उसे देखने जाते थे। लाला हंसराजजी तथा पं. आर्यमुनिजी इन दर्शकों में थे। डॉक्टर साहब ने स्वयं अपने घर से बिल्कुल पर्दा हटा दिया था। इस बात से लोगों में असंतोष भी था। भारद्वाज की तारीफ़ करनेवाले लोग भी थे। कहा जाता था कि भारद्वाजजी को 'महात्मा-दल से बड़ी आशा थी, परंतु पं. लेखरामजी की अमर शहादत के परिणाम स्वरूप जब थोड़ी देर के लिए दोनों पार्टियाँ मिल गई, तब वे अपने सिद्धांतों कि संबंध में समाज की ओर से निराश हो गए, और उन्होंने यह आर्यधर्म-सभा क़ायम की। मेरे दिल में इस सभा के सदस्यों से मिलने और परिचय बढ़ाने की इच्छा उत्पन्न हुई। दिल्ली के डॉक्टर सुखदेवजी मेरे मित्र थे। वे भी इस सभा के सदस्य थे। उन्हीं के द्वारा मुझे सभा के अन्य सदस्यों से परिचय प्राप्त करने का अवसर मिला। वे लोग थे—डॉ. चिरंजीव भारद्वाज, जो इस सभा के संस्थापक और प्राण थे डॉ. लब्भूराम, जो पीछे से स्थिर रूप से विलायत चले गए; पं. चरणदास, जिनका अब देहांत हो गया है; पं. लक्षवीर सिंह, जिनका एक ही फेफड़ा काम करता था। फिर भी शास्त्रार्थ करने को सदा तैयार रहते थे। इनके बारे में मशहूर था कि ये कुरान शरीफ़ को सदा अपनी काँख में रखते हैं। डॉ. धर्मवीर, जो बरसों तक विलायत रहकर अब लाहौर में प्रैक्टिस कर रहे हैं। इन सब शक्तिशाली और दृढ़-निश्चयी नवयुवकों से परिचय प्राप्त करके मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई। ख़ासकर डा. भारद्वाज के व्यक्तित्व ने तो मुझे बहुत प्रभावित किया। अपने अनुयायियों पर उनका प्रभाव एक गौरव की वस्तु थी। दृढ़-निश्चय, आत्म-विश्वास, निर्भयता, अपने सिद्धांतों का ज्ञान और युक्ति की प्रौढ़त—ये सब बातें थीं, जिनसे वह अपने नवयुवकों के नेतृत्व को अधिकार-पूर्वक क़ायम रख सकते थे। यद्यपि बहुत से लोग मुझे तब तक कॉलेज पार्टी का भेदिया ही समझते थे, फिर भी भारद्वाज और डॉ. धर्मवीर ने बहुत शीघ्र मुझे अंतरंगता से अपना लिया।

    (दो)

    मेडिकल कॉलेज की अंतिम परीक्षा का भारद्वाज फेल हो गए थे, परंतु उन्होंने भारत में बैठे-बैठे ही एम. डी. का ख़िताब मँगवा लिया। इसके बाद ने बड़ोदा चले गए, और मेरी-उनकी मुलाक़ातें बंद हो गई। बहुत दिनों बाद लाहौर ही में उनकी धर्मपत्नी श्रीमती सुमंगली देवी तथा उनकी बहन कुमारी केलरी देवी से मेरा परिचय हुआ।

    डॉक्टर साहब हिप्नोटिज़्म भी जानते थे। केसरी उचित माध्यम थी। उसी पर वे अपने परीक्षण किया करते थे। जिस दिन मैं डॉ़. साहब के यहाँ पहुँचा, उनके पास लाहौर ही के एक महाशय भी आए हुए थे। आज हिप्नोटिज़्म का तमाशा देखिए। मैंने इससे पूर्व केवल एक बार ही इस विद्या का चमत्कार देखा था, अस्तु डॉक्टर साहब ने केसरी पर प्रभाव किया, और मेरे साथ जो दूसरे महाशय बैठे थे, उनकी तरफ़ देखकर कहा—इन महाशय के घर जाओ और वहाँ के समाचार लाओ।

    हम लोग केसरी की तरफ़ बड़े कौतुहल से देख रहे थे। वह थोड़ी देर तो चुप रही। इसके बाद उसने कहा—इनके घर में सिर्फ़ एक कमरा है, उसके सामने बरामदा है, दालान बहुत तंग है। इस दालान में एक युवती और बुड़िया बैठी है। ये दोनों परस्पर गाली-गलौज कर रही हैं।

    वे महाशय चौंककर खड़े हो गए। उन्होंने कहा—ओहो, मेरी माँ और मेरी स्त्री लड़ रही होंगी। वह कहकर वे पर चले गए। केसरी की बात सचमुच सही थी। डॉक्टर साहब हिप्नोटिज़्म से चिकित्सा भी किया करते थे।

    अमेरिका की मुफ़्त में प्राप्त की हुई एम. डी. उपाधि को अपने नाम के साथ लगाते हुए डॉक्टर साहब को लज्जा प्रतीत होती थी। डॉ. धर्मवीर भी मेडिकल कॉलेज की परीक्षा में फेल हो गए थे और उन्होंने अमेरिका ही से एम डी. मँगवा ली थी। अतः दोनों मिल अपने को लज्जित अनुभव करते थे। एक दिन जालंधर मुझे पत्र मिला कि दोनों मित्र चिकित्सा की उच्च-शिक्षा प्राप्त करने के लिए विलायत चले गए हैं।

    (तीन)

    महात्मा मुंशीरामजी की कन्या अमृतकला का विवाह जन्म-मूलक जात-पाँत तोड़कर डॉ. सुखदेवजी से हुआ। देवी अमृतकला से मेरा घनिष्ठ संबंध था। उसे मैं अपनी छोटी बहन समझा करता था। महात्माजी तो मेरे धर्म-पिता वे ही, अतः संबंध और भी घनिष्ठ हो गया था।

    डॉ. सुखदेवजी भी मेरे पुराने मित्र थे, और वह विवाद कराने में भी मेरा बड़ा हाथ था, अतः इस नवीन परिवार से मेरा घनिष्ठ संबंध होना स्वाभाविक ही था।

    डॉ. सुखदेवजी की लड़की का नामकरण-संस्कार था। मुझे तो उसमें माना ही था। डॉक्टर साहब ने डॉ. भारद्वाज की धर्मपत्नी श्रीमती सुमंगली देवी को भी निमंत्रित किया। वह आई। संस्कार में वह और हम मिले। निश्चित रूप से हम दोनों की बातचीत का एक ही विषय हो सकता था। चिरंजीव भारद्वाज मेरे घनिष्ठ मित्र थे और वे तो उनका उत्तम भाग ही थीं। फिर किसी और बात की चर्चा का अवसर ही कहाँ हो सकता था। भाग्य से थे भी दोनों ही बोलने वाले। हम दोनों उनकी प्रशंसा करने लगे। ख़ूब देर तक यह प्रकरण बता। विदा होते समय देवी सुमंगली ने कहा—पत्र लिखते रहा कीजिए। उस समय से पूर्व मेरा किसी महिला से पत्र-व्यवहार न था। इसी झेंप के कारण मैंने कहा—पत्र-व्यवहार का प्रारंभ आप ही की ओर से होना चाहिए।

    इसके तीसरे दिन ही उनकी चिट्ठी मेरे पास आई, और उसी दिन मैंने उसका जवाब दे दिया। फिर तो यह पत्र-व्यवहार का सिलसिला जारी ही रहा। कई मास बाद सुमंगली देवीजी का मुझे एक पत्र मिला। उसमें बहुत संक्षेप में लिखा था कि 'एकदम लुधियाना चले आइए। मैं बड़ी चिंता में पड़ा। इसका क्या जबाब दूँ। भारद्वाजजी विलायत हैं। इस देश का वायुमंडल इस संबंध में बहुत ही संदेहपूर्ण और विषाक्त है। यहाँ तो लोग वैसे ही लाँछन लगाने से बाण नहीं आते, फिर एक देवी के घर आने-जाने का मतलब तो लोग सीधा सबूत समझेंगे। यह प्राचीन भारत तो है नहीं कि द्रौपदी अपने को कृष्ण का मित्र कह सके, या कौशल्या अपने को जनक की सखी उद्‌घोषित कर सके। दूसरी तरफ़ सुमंगली देवी मेरे मित्र की पत्नी ही वहीं, मेरी बहन थी, अतः इसे मैं अपना आवश्यक कर्तव्य मिला था कि बुलाने आने पर उसकी सहायता करूँ।

    इस कारण मैं कुछ किंकर्तव्यविमूढ़-सा बन गया। बहुत देर तक यह निर्धारित ही न कर सका कि इस अवस्था मुझे क्या करना चाहिए। अंत में मैंने सोचा, मेरा धर्म मुझे आज्ञा देता है कि इस अवस्था में मैं वहाँ अवश्य जाऊँ। मुझे ख़याल आया, क्या हिंदुओं की धर्म-बहनें नहीं होतीं? कौन पति से पति हिंदू भी मित्र की पत्नी की सहायता करना पाप समझेगा। बस, मुझमें साहस की भावना जागृत हो गई। मैंने निश्चय कर लिया कि मैं कायर नहीं बनूँगा। लोकाचार की उपेक्षा करके मैं अपना कर्तव्य पालन करूँगा।

    दूसरे दिन मैं लुधियाना आ पहुँचा। वहाँ एक और कठोर परीक्षा मेरी प्रतीक्षा में थी। बहन सुमंगली ने सुझसे कहा—अपनी अंतरात्मा की आवाज़ तथा अपने पतिदेव की इच्छा पूर्ण अनुमति से मैं यहाँ की बहुत से सामाजिक कार्यों में हिस्सा लेती हैं। यहाँ की कन्या-पाठशाला में मैं पढ़ाती है, स्त्री-समाज में मैं भाषण देती हूँ। मेरे पति विलायत से प्रायः अपने सभी पत्रों में उपदेश दिया करते हैं—'मेरे उद्देश्यों को कभी न भूलना, स्त्रियों से पर्दे की बुराई को दूर करना और उन्हें जैविक सिद्धांतों का संदेश सुनाते रहना। प्रिय, मेरी आत्मा को तुमसे बड़ी-बड़ी आशाएँ हैं। परंतु दूसरी तरफ़ मेरे पिता मेरी इन कृतियों में अपना अपमान समझते हैं। वे कहते हैं कि सुमंगली मेरी नाक काट रही है। पहले मुझे वे तरह-तरह से समझाया ही करते थे, परंतु अब तो उन्होंने मेरे इन कार्यों को जिस किसी तरह बंद कर देने का निश्चय ही कर लिया है। वे कहते हैं कि कम-से-कम जब तक मेरे पास हो, तब तक मेरी इच्छा के अनुसार ही चलो। भले घर की लड़कियाँ घर में ही रहती हैं, ऐसे काम नहीं करतीं। मुझसे अब ये बातें नहीं सही जातीं। मैं बहुत दुविधा में हूँ, पति की बात मानूँ या पिता की। आप मुझे आदेश दीजिए कि इस अवस्था में क्या करें?

    मैं फिर चिंता में पड़, देवी सुमंगली के प्रश्न का क्या उत्तर दूँ। यदि पिता की बात मामने को कहता हूँ, तो वह अपनी आत्मा पर अत्याचार करना है। यदि पति की बात पर दृढ़ रहने की बात कहता हूँ, तो उसके परिणामों को भी मुझे ही सहन करना होगा। हे ईश्वर! अपनी बहन को मैं क्या राय दूँ?

    अंत में मेरी साहस की स्वाभाविक भावना पुनः विजयी हुई। सुमंगजी को मैंने ही राय दी कि वह अपने पति की आज्ञा का ही अनुसरण करे। उसका यह निश्चय जानकर उसके पिता ने कहा—तो फिर अब तुम मेरे यहाँ नहीं रह सकती। उसके पिता को कभी यह स्वप्न में भी आशा न थी कि मेरी पुत्री कभी मेरी इतनी बड़ी धमकी का सामना कर सकती है, और फिर कोई अन्य व्यक्ति चाहे, बह सुमंगली का धर्म-भाई ही क्यों न हो, उसे अपने घर से जाने का साहस कर सकता है, परंतु उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा, जब मैंने उनसे कहा—तो फिर वह अपने भाई के घर चली जाएगी।

    यह बात उन दिनों की है, जब किसी घर से पर्दा हटाने को भी भारी पाप समझा जाता था, और यह बात लोगों को असंभव कल्पना प्रतीत होती थी कि कभी पर्दा भी इट जाएगा। बहन सुमंगली तो पहले ही तैयार थी। अब उसके पिता घबराए। जो बात कभी उनकी कल्पना भी न आई थी वह प्रत्यक्ष दिखाई दे गई। यह घबरा गए। उन्होंने झटसे कहा सुमंगली मेरे ही पास चाहे जिस तरह रहे।

    अब उसकी बारी थी। उसने मुझे समझा दिया कि पिताजी से यह कह दो कि यदि कभी मेरी बहन को आप इस तरह से तंग करेंगे, तो मैं अवश्य ही उसे अपने यहाँ से जाऊँगा। मैंने यही बात उनसे कह दी, और मैं फिर जालंधर लौट गया।

    इस घटना से हमारे संबंध और भी अधिक दृढ़ हो गए। देवी सुमंगली ने यह घटना अपने पति को भी लिख दी थी। कुछ ही सप्ताहों के बाद डॉक्टर भारद्वाज का एक लंबा-चौड़ा प्रेम-पत्र मेरे पास आया। इसमें उन्होंने लिखा था पुरानी स्मृतियों के नामपर मेरी पत्नी की खोज-ख़बर लेते रहिए, उसके हृदय में आपके लिए विशेष अनुभूति है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : विशाल-भारत वर्ष-3, भाग-4 (पृष्ठ 213)
    • संपादक : बनारसीदास चतुर्वेदी, रामानंद चट्टोपध्याय
    • रचनाकार : आचार्य श्री रामदेवजी
    • प्रकाशन : विशाल-भारत कार्यालय
    • संस्करण : 1930
    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

    ‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।

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