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महात्मा भगवानदीन

mahatma bhagvandin

विष्णु प्रभाकर

विष्णु प्रभाकर

महात्मा भगवानदीन

विष्णु प्रभाकर

और अधिकविष्णु प्रभाकर

    6 नवंबर को तार आया कि 4 नवंबर 1962 को दिन के दो बजे महात्मा भगवानदीन चले गए।

    आयु 80 वर्ष की थी, इसलिए जाने का बहुत अफ़सोस नहीं हो सकता और यूँ भी मृत्यु शोक का कारण नहीं है, मुक्ति ही वह देती है। नाश के बाद ही नया अंकुर फूटता है। फिर उनका जीवन तो एक ऐसी जीती-जागती प्राणमय पुस्तक की तरह था जो निरंतर हर किसी को जीवंत प्रेरणा से भरती रही है। फिर भी सोचता हूँ—दो दिन बीत गए, कहीं कोई चर्चा नहीं, समाचार तक नहीं। सुनता हूँ अंतिम श्वास तक वह शांत थे। शांत भाव से बातें करते रहे और चले गए। उनकी दृष्टि से तो दो दिन की यह शांति भी शुभ ही है। लेकिन जो उनके चारों ओर हैं, विचारणीय उनके लिए है। वह तो रवि बाबू की इस कविता को सार्थक कर गए, मरण रे तुहु मम ताप घुचाओ। हे मृत्यु मेरे ताप शांत करो।

    देखने में वह सदा शांत रहे। जो ताप था, वह अग्नि बनकर उनके अंतर को तपाता रहा और उनका वह तपा हुआ जीवन व्यवहार, वाणी और अक्षर तीनों के माध्यम से समान रूप से व्यक्त हुआ। वह संघर्षों और प्रयोगों की रोमांचकारी कहानी बन गया। वह एक ऐसे ज्वालामुखी के समान थे, जो सदा शांत और सौम्य दिखाई देता है। पर जिस क्षण भभकता है तो ध्वंस-लीला का पार नहीं। लेकिन वह ध्वंस-लीला ऐसी, जैसे वसुधा को उर्वरा बनाने के लिए अग्निदाह। इसीलिए ज्वालामुखी के मुख पर स्नेहिल आभा चमकती थी। इसलिए उनकी वाणी में दृढ़ता, शैली में ओज और भाषा में विद्रोह था। परंपरा में कहीं यह समाते ही नहीं थे। उनका अंतर मौलिक और उग्र विचारधारा से निरंतर सागर की तरह उफनता रहा। सागर जो गंभीरता का उदाहरण है, लेकिन जिसकी लहरें चंचल शक्ति की प्रतीक हैं।

    दमे से जर्जर, क्षीणता की ओर झुकता हुआ, श्यामल गौर शरीर, दृढ़ता की पूरक दाड़ी-विभूषित ठोड़ी और सुदूर गहन में झाँकती आत्मीयता से लबालब आँखें। एक डीलीडाली जाकेट, ढीलाडाला घुटन्ना, चप्पल और कंधों पर पड़ी पतली-सी चादर। (शीतकाल हो तो कंबल)। यही उनकी पार्थिव रूप-संपदा थी। सही मानों में वह संन्यासी थे। संसार में रहते थे, लेकिन वह उन्हें छूता नहीं था। वस्त्र पहनते थे, पर वह शरीर की शोभा नहीं थे; बंधन भी नहीं थे। सेवा-संयम के वह व्रती थे। निर्मम स्पष्टता उनका सहज स्वभाव था। जितनी मौलिकता से सोचते उतनी ही स्पष्टता से अपने को व्यक्त भी कर देते, इतनी कि बालक के लिए भी सहज बोधगम्य। उनकी भाषा में साहित्यिक माधुर्य रहता, लेकिन वह मन को पकड़ती, उद्वेलित करती और सोचने को विवश करती। उसके पीछे अनुभूति का अक्षय भंडार था। जंगल-पहाड़, आश्रम-निकेतन, तीर्थ-नगर कहाँ-कहाँ नहीं घूमे। जेल में भी कम नहीं रहना पड़ा। असह्योग के अति-प्रारंभिक काल से ही वह पहली पंक्ति में थे। 26 वर्ष की भरी जवानी में घरबार छोड़कर वह आज़ादी की लड़ाई में कूद पड़े और 80 वर्ष की भरी आयु तक युद्ध ही करते रहे। कोई आडंबर नहीं, आकांक्षा भी नहीं। साहित्य, समाज और देश सभी को इतना कुछ दिया कि उसका मूल्यांकन करना कठिन है। कविता, कहानी, निबंध सभी कुछ लिखा। उनकी डायरी, उनके पत्र, आत्ममंथन और आत्मीयता के कारण साहित्य की निधि हैं। उनके समूचे साहित्य में अनुभूति का तेज है, कल्पना का चमत्कार नहीं। आध्यात्मिक तत्त्वज्ञान और बालसाहित्य दोनों ओर उनकी सहज गति थी। बाल-साहित्य के वह विशेषज्ञ थे। बच्चों के प्रति उनका स्नेह, उनकी जिज्ञासा और उनका ज्ञान कौतूहल से भर देता था। मेरी छोटी-सी बच्ची को एक दिन उन्होंने उठाकर इस तरह उल्टा-पुल्टा और उछाला कि सहसा मन के किसी कोने में आशंका पैदा हो आई। लेकिन उनका दृढ़ विश्वास था कि जीवन प्रारंभ से ही ऐसे परिचालित किया जाना चाहिए कि वह साहस की मूर्ति बने। किस प्रकार उन्होंने ज़िद्दी-से-ज़िद्दी और दुष्ट-से-दुष्ट बालक को स्नेह, सौम्यता और कर्मठता की मूर्ति बना दिया, उसकी कहानियाँ आज भी अचरज से भर देती हैं। वह मानते थे कि बालक तो ज़िद्दी है और दुष्ट। दोष हमारी दृष्टि का है। व्यवहार का है।

    वर्षों पहले पंजाब में उनसे भेंट हुई थी, लेकिन उससे भी बहुत पहले संभवतः 30-32 की बात है। एक दिन हिसार में अपने घर बैठा या कि देखता हूँ, धवल वस्त्रधारिणी एक सुंदर सौम्य नारी ने वहाँ प्रवेश किया। वह कमरा उनके व्यक्तित्व से जैसे दीप्त हो उठा। चर्च में जैसे नन होती हैं वैसे ही वह मुझे लग रही थी। आँखों से स्नेह भरा पड़ता था। किसी जैन शिक्षा संस्था के लिए चंदा माँगने आई थी। जब तक मेरे मामा चंदा लाएँ वह मेरी ओर मुड़ीं, बोलीं—क्या पढ़ रहे हो?

    हाथ में कोई उपन्यास था। देखकर बोलीं, परख पड़ा है? मैंने उत्तर दिया, जी नहीं। किसने लिखा है?

    वह बोलीं, जैनेंद्रकुमार ने। उस पर पुरस्कार मिला है। वह मेरा लड़का है।

    सुनकर मेरा किशोर मन अभिभूत हो आया। कुछ देर बाद जाने किस प्रसंग में उन्होंने फिर पूछा, महात्मा भगवानदीन का नाम सुना है!

    मैंने तुरंत कहा, हाँ हाँ, वे नागपुर झंडा सत्याग्रह के नेता थे ना!

    वह मुस्कुराई। बोलीं, हाँ, वह मेरे भाई है।

    तब ऐसा लगा, जैसे घर में स्वयं महादेवी अवतरित हो गई हैं। राष्ट्रीय आंदोलन में बचपन से ही रुचि थी। एक-एक व्यक्ति, एक-एक घटना सब जैसे मेरे मन पर अंकित हो गई थीं। नागपुर-सत्याग्रह से भी इतिहास के विद्यार्थी की तरह, ख़ूब परिचित था। पढ़ने का चाव भी था। जिस नारी का संबंध साहित्य और राष्ट्र दोनों के निर्माताओें से हो, वह महादेवी नहीं तो और कौन है? उनके रूप को देखकर मेरे मन में जो श्रद्धा थी वह सहस्र-गुणा हो उठी। इसीलिए जब मैंने महात्मा भगवानदीन को पहली बार देखा तो वह मुझे पूर्व-परिचित ही जान पड़े। प्रारंभ में बहुत आत्मीयता और स्नेह से बोलते थे। उनकी व्यग्रता और दृढ़ता धीरे-धीरे प्रकट होती थी। लेकिन वह व्यग्रता समाज-सुधारक की व्यग्रता नहीं, एक अनुभवी शुभचिंतक की व्यग्रता होती थी। अंतर में जो मौलिक चिंतन की अग्नि दहकती थी, उसी का आवेग उन्हें व्यग्र कर देता था। हिसार में जैन पब्लिक लायब्रेरी की खुली छत पर, संध्या के झोलबोले में मैंने उनको घंटों बहस करते देखा है। एक नवयुवक वकील थे, सुधार की झोंक थी, पर जैन रंग कुछ गहरा था। वह जाने क्या-क्या कहते चले जाते, लेकिन महात्माजी की प्रखर तर्क-शक्ति और तेजस्विता के सामने वह कभी नहीं ठहर सके, क्योंकि उनके चिंतन का लक्ष्य संपूर्ण मानव था, विभाजित नहीं। उस तर्कयुद्ध के समय सभी श्रद्धालु जैन अचरज और अविश्वास से उन्हें देखते ही रह जाते। मन में उठता—क्या सचमुच यह जैन है?

    जन्म से वह जैन ही थे। जैन-साहित्य का अध्ययन उनका गहन था। लेकिन फिर भी उन्हें कभी भी विभाजित रेखाओं में नहीं देखा जा सकता। वह वस्तुतः सत्य के खोजी, वर्द्धनशील व्यक्ति थे। तभी तो हस्तिनापुर के जैन आश्रम से नागपुर से परिचालित राष्ट्रीय आंदोलन में पहुँच गए। फिर उससे भी मुक्ति पाकर अखंड मानवता के उपासक बन गए। अनेकांत की उपासना ने उन्हें अद्वैत की दृष्टि दी थी। ख़ूब याद है, हिसार में शायद आर्यसमाज की ही एक सार्वजनिक सभा थी। वह भी आमंत्रित थे। वह आए और निष्पंद-शांत-भाव से बैठे रहे। बोलना आरंभ किया तो भी पहले पाँच मिनट बड़ी शांति से बोलते रहे, लेकिन फिर सहसा हुँकार उठे, अब मैं यहाँ से बदलता हूँ।

    और वह सचमुच बदल गए। सौम्य ज्वालामुखी जैसे भभक उठा। तीव्र स्वर में कहा, आप लोग अपने को आर्य संस्कृति का उपासक मानते हैं, क्या आप नहीं जानते कि प्राचीन आर्य-नगरों में धर्मशालाएँ नहीं होती थीं। अतिथि घरों में ठहरते थे। आज मानते हैं कि अतिथि पर विश्वास नहीं किया जा सकता। घर में बहू बेटियाँ हैं। हैं तो क्या हुआ? अरे क्या वह बहू बेटियों को भगा ले जाएँगे और भगा ले जाने दो एकाध को। इस डर से आप अपना आतिथ्य धर्म क्यों छोड़ते हैं? सदा थोड़े ही भगाते रहेंगे। अविश्वास करके धर्म छोड़ने से विश्वास करके ठगा जाना कहीं अच्छा है।

    शब्द ठीक यही नहीं थे, पर अर्थ रत्ती-रत्ती यही था। सभा में जैसे सन्नाटा छा गया। सुई गिरे तो उसका स्वर चौंका दे। नेत्र विस्फारित जैन-अर्जन सभी अविश्वास से उनकी ओर देखने लगे। पर वह तूफ़ानी गति से बोलते चले गए, बोलते ही चले गए। समाधान भी उन्होंने किया, लेकिन ख़ूब याद है कि कई दिन तक यह बात उस छोटे-से नगर में चर्चा बनकर गूँजती रही। जैसे तालाब में किसी ने पत्थर दे मारा हो।

    यह एक उदाहरण मात्र है। उनका समूचा साहित्य इसी तरह उद्वेलित करता है। नई दृष्टि भी देता है। वह दृष्टि क्रांति की है, सुधार की नहीं। जवानो और जवानो, राह यह है किसी भी अविश्वासी-आलसी को अदम्य साहस और अटूट निश्चय से भर सकने के लिए यथेष्ट हैं। उनके साहित्य में उलझन नहीं है, क्योंकि उनके अंतर में भी उलझन नहीं थी। आक्रोश है, आक्रोश है; तो आग्रह होगा हो, लेकिन वह विघटनात्मक नहीं है। संगठन उसका लक्ष्य है। जैसे बह बहुत कुछ करना चाहते हैं। इस इच्छा के पीछे तीव्र शक्ति है। यह ठीक है कि वह शक्ति अक्सर अनघड़ होती है। कभी-कभी उनके विचार इस हद तक अदभुत दिखाई देते हैं कि अचरज होता है, परंतु यह इसी कारण है कि वह कहीं सहारा और प्रमाण नहीं ढूँढ़ते, स्वयं अपना मार्ग बनाते हैं। अहिंसा को उन्होंने स्वीकार किया था, पर वही क्या उनका एकमात्र साध्य थी? हो ही नहीं सकती थी। साध्य तो एक नए समाज, एक नए मानव का निर्माण था। सो शस्त्र वहाँ वर्जित थे।

    ऐसे व्यक्ति के लिए आलोचक होना अनिवार्य है और यह उम्र आलोचक थे। मज़ाक में भी वह उग्रता छिपती थी। हिसार में एक दिन तत्कालीन धुरीहीनता पर चर्चा चल रही थी। वह चुपचाप अख़बार पढ़ते रहे, सुनते रहे। फिर एकाएक हँसकर कहा, समाज में जितना सत्य था वह सब तो अकेला गाँधी पी गया। अब तो जो बचा है वह झूठ ही रह सकता है।

    आक्षेप करनेवाले गांधीवादी थे, तिलमिला कर रह गए। लेकिन जैसा कि कहा जा चुका है, वह मात्र शब्दों में विश्वास नहीं करते थे। प्रत्येक शब्द के पीछे प्रयोग की शक्ति थी। कितने ही क्रांतिकारी विवाह उन्होंने कराए, आश्रम खोले, आंदोलनों का संचालन किया। बिना किसी साधन के निकल पड़ते थे। यह सब उनके अति साहसिक और अति उद्वेलित चिंतन का परिणाम था। शिक्षा, साहित्य, समाज, परिवार; हर कहीं मौलिक चिंतन की यह अग्नि प्रखर है। सजग इतने कि अध्ययन का कोई क्षेत्र अछूता नहीं छोड़ा। आकाशवाणी की वार्ताए, वाद-विवाद, नाटक; सुनते ही नहीं थे, गहराई से उन पर विचार भी करते थे। कितनी ही बार उनकी प्रशंसा और प्रखर आलोचना मैंने पाई है। जाने से कुछ पूर्व उन्होंने वार्ता की एक प्रतिलिपि माँगी थी। उनकी वह इच्छा अब याद बनकर ही रहेगी।

    स्वभाव से वह स्नेहिल थे, पर अनुरक्ति ने उन्हें नहीं पकड़ा था। आश्रम बनाकर छोड़ते उन्हें संकोच नहीं होता था। साहित्य भी उनका बिखरा पड़ा है, कोई लेखा-जोखा नहीं। जाने कितना नष्ट हो गया। अर्थ भी कभी उनको अपना नहीं बना पाया। क्षमता कम नहीं थी, पर आए तो आए वह उसके पीछे जाएँगे। जो निस्पृह है वही आत्म गौरव को पहचानता है। दुनिया की दुनियादारी उनके लिए नहीं थी, इसलिए यह कहीं भी सहज भाव से समा जाते थे। व्यक्ति को ख़ूब पहचानते थे, इसीलिए क्षमा करना भी जानते थे। उनके ऊपरी अनगढ़ और प्रखर व्यक्तित्व के नीचे स्नेह का निर्मल झरना निरंतर कलकल करता रहता था। जो असहमत थे वे भी उनके प्रति एक निष्ठामय आदर और सम्मान का भाव अनुभव करते थे। सदा ऐसा महसूस करते कि जैसे वह एक विराट व्यक्तित्व के सामने हों। यह सचमुच एक संस्था थे। ऐसी संस्था, जो नए-नए आयामों को अपने में समापन करने के लिए पिछले प्रत्येक क्षण से मुक्ति पाने की शक्ति रखती है। यह अब नहीं रहे, पर उनके साहित्य की खोज जब पूर्ण होगी, अनुभूतियों के क्षण जब सार्वजनिक बनेंगे तो मानव-जीवन की विचित्रता मुखर हो उठेगी। विराटता और भी अदभुत हो जाएगी और उनकी निष्ठा का स्पंदन हमें अपने को पाने की अपूर्व क्षमता से भर देगा।

    स्रोत :
    • पुस्तक : कुछ शब्द : कुछ रेखाएं (पृष्ठ 77)
    • रचनाकार : विष्णु प्रभाकर

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