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जैनेंद्रकुमार

jainendrakumar

विष्णु प्रभाकर

विष्णु प्रभाकर

जैनेंद्रकुमार

विष्णु प्रभाकर

और अधिकविष्णु प्रभाकर

    मुझे ठीक याद नहीं, परंतु वह सन् 1930 के आसपास की बात है। मैं पंजाब के एक पूर्वी नगर में रहता था। एक दिन बैठक में बैठा हुआ कोई उपन्यास पढ़ रहा था कि एक प्रौढ़ महिला ने बिना किसी संकोच के वहाँ प्रवेश किया। मुझे उनका रूप आज भी स्मरण है—लंबा क़द, धवल वस्त्र, गौर वर्ण और मुख पर मृदु मुस्कान—किसी उद्देश्य के लिए अपने अर्पण कर देने वाली भिक्षुणी की तरह वे मुझे लगी। उनके व्यक्तित्व में जो मधुर मातृत्व छिपा हुआ था उसने मेरे किशोर मानस को दुलारा। उनके हृदय में एक रसीद बुक थी और वे किसी महिला संस्था के लिए चंदा माँगने आई थीं। चंदा तो उन्हें मिला ही पर जब तक मेरे मामा अंदर से पैसे लावें तब तक मुझे उनका परिचय भी मिला। उन्होंने मुझसे पूछा—क्या पढ़ रहे हो?

    मैंने उस उपन्यास का नाम बता दिया। सुनकर वे बोली—'परख पढ़ा है?'

    'जी नही। किसने लिखा है?'

    'जैनेंद्र कुमार ने।'

    'अच्छी पुस्तक है?'

    'उस पर हिंदुस्तानी एकेडेमी से पुरस्कार मिला है।'

    मैंने सोचा जिसे पुरस्कार मिला है वह अवश्य महान् लेखक है। मैंने तुरंत उनसे कहा—'आप मुझे उस पुस्तक के मिलने का पता बता दीजिए। मैं ज़रूर पढ़ूँगा।'

    बाते आगे बढ़ीं। उन महिला ने बताया 'जैनेंद्र मेरा लड़का है।'

    यह कहते हुए उनका सारा अस्तित्व उल्लास से भर उठा। उनके नेत्रों से झरते हुए तरल पदार्थ ने मुझे श्रद्धा से भर दिया। मुझे याद है कि तब मेरे मन में एक विचार उठा था—'क्या मैं भी जैनेंद्र जैसा बन सकता हूँ?'

    जैनेंद्र से मेरा प्रथम परिचय इसी प्रकार हुआ था। जननी से जिसका परिचय मिले उसके भाग्य से ईर्ष्या होनी चाहिए। आत्मीयता तो उसमें होती ही है। उसके बाद उनकी पुस्तकों ने इस परिचय को और भी पुष्ट किया। एक बार दिल्ली में, कंपनी बाग़ की किसी सभा में दूर से उन्हें कंधे पर चादर डाले देखा—इकहरा बदन, मझोला क़द, प्रशस्त सलाट और प्रमुख नासिका, बातें करने पर जंतर में लय हो जाने को आतुर आँखें और तदनुसार कुछ-कुछ तनी हुए ग्रीवा देखता रहा पर पास जाकर उनमें बातें करने का साहस नही पा सका। कहाँ वह हिंदी के महान् लेखक, कहाँ हम क्षुद्र पाठक।

    पर भाग्य की बलिहारी—एक दिन मैं भी लिखने लगा और साहस इतना बढ़ा कि नीर-क्षीर-विवेकी 'हम' (मुंशी प्रेमचंद्र का हंस) तक जा पहुँचा। प्रेमचंद्र जी की मृत्यु के बाद मेरी कई रचनाएँ उसमें छपी और तभी जाना जैनेंद्र कुमार उसके संपादक हो गए है, लेख उनको भेजने होगे। यह सितंबर 1937 की बात है। एक कहानी दिल्ली के पते पर भेजी और फिर उत्सुक हृदय से उत्तर की प्रतीक्षा करने लगा। यद्यपि भाई साहब ने उस कहानी को अच्छी बताया था पर मेरे लेखक के लिए तो यह तभी अच्छी हो सकती थी जब 'परख' के पुरस्कार-विजेता-लेखक उसे अच्छी कहें। आख़िर उनके हाथ का लिखा 20 सितंबर 1937 का कार्ड मुझे मिला—

    प्रिय महोदय,

    कहानी मिली। उसे काशी छपने भेज रहा हूँ। अपनी कहानी में भावना की मुलायमियत थोड़ी कम भी हो जाने दें और उसकी जगह Purpose का काठिन्य था जाए तो मुझे कहानी और भी रुचे। लिखते रहिए।

    विनीत-जैनेंद्रकुमार

    पत्र का और कुछ भी असर क्यों हुआ हो, उनमें उस दुविधा को निश्चय ही दूर कर दिया जो मुझे उनसे मिलने में हो रही थी। मैं दिल्ली पहुँचा। शायद वह अक्टूबर 1937 के पहले या दूसरे सप्ताह का कोई दिन था, मैं अपने बढ़े भाई के साथ दरियागंज में उनके निवासम्यान पर पहुँचा। कई क्षण हम ज़ीने के नीचे खड़े रहे। संयोगवश तभी श्रीमती जैनेंद्र कहीं से रही थी। उनसे पूछा—'जैनेंद्रजी यहीं रहते है।'

    वे बोली—'ऊपर है, चलिए।'

    पर हम आगे कैसे चलें? आख़िर उन्होने स्वयं आगे बढ़ते हुए कहा—'आप झिझकते क्या है? निःसंकोच चले आइए।'

    शायद इस चुनौती ने हमें बल दिया। ऊपर के कमरे से कई व्यक्तियों के बोलने का स्वर रहा था। और जैसे ही हमने अंदर प्रवेश किया वैसे ही सबकी दृष्टियाँ हमारी ओर उठी। मैंने देखा वह छोटा-सा कमरा जिसके एक कोने में एक मेज़-कुर्सी पड़ी है, चटाई पर बैठे हुए व्यक्तियों से भरा हुआ है और बीच में टहल रहा है एक इकहरे बदन और मझल क़द का व्यक्ति, जिसने केवल बनियान और जाँघिया पहना है और कंधे पर डाला है तौलिया। मैं शक्ल से जैनेंद्र को पहचानता था, इसलिए यह समझने में कोई कठिनता नहीं हुई कि घूमने वाले व्यक्ति से ही मिलना है। मैंने प्रणाम किया और उन्होंने बैठने का संकेत। साथ ही उनकी दृष्टि ने पूछा—'कहाँ से आना हुआ?'

    परिचय मेरे भाई ने दिया। नाम सुनते ही जैनेंद्र बोल उठे You write remarkably well. (तुम विशेष रूप से सुंदर लिखते हो)

    इस वाक्य ने मुझे कितना बल दिया, यह निश्चय ही में आज शब्दों में ठीक-ठीक बता सकूँगा। मैं उनके कमरे की अकिंचनता को बिल्कुल ही भूल गया और यह भी भूल गया कि यहीं बैठकर इस व्यक्ति ने अपने साहित्य का निर्माण किया है। एक नए लेखक से इस प्रकार का व्यवहार उन दिनों (आज तो और भी अधिक) निस्संदेह अकल्पनीय-सा लगा। उनसे मेरा यह पहला प्रत्यक्ष परिचय था। पहले परिचय की बहुत कहावतें प्रचलित है। दो ध्रुवों के अंतर के समान अंतर वाली 'प्रथमग्रासे मक्षिकापातः' और Love at first sight (चक्षुराग) जैसी उक्तियाँ किसी कवि की कपोल कल्पना नहीं है। वे किसी मेरे जैसे के प्रत्यक्ष अनुभव का परिणाम है। उस दिन मेरा अनुभव दूसरी उक्ति के आसपास था। उनका व्यक्तित्व प्रभावशाली नहीं कहा जा सकता परंतु उन्नत ललाट की छाया में, श्येन नासिका के आसपास अंदर को दवे से जो दो नयन हैं और जो कही दूर झाँकते जान पड़ते है, आपको पकड़ लेने की उनमें पूरी शक्ति है।

    उन्होंने मुझे भी पकड़ा। मेरा भय कम हुआ और मेरी तबियत में जो अलगाव था उसे रखने का निमंत्रण लेकर में लौटा। लेकिन इससे पहले मैं कुछ करने का साहस बटोर सकूँ उन्होंने और भी गही आत्मीयता से उस निमंत्रण को दोहराया। एक महीना बाद, नवंबर 1937 के अंतिम सप्ताह की बात है। शरत्कालीन रात्रि के गहरे सन्नाटे और घने कुहरे से आच्छादित अपने छोटे से नगर की एक सुनसान गली में, मैं टिमटिमाती हुई लालटेन के सामने बैठा लिख रहा था। तब अनायास एक शब्द उस सन्नाटे को आलोडित करता हुआ उठा—'विष्णुजी कहाँ रहते हैं?' मैं कुछ चौका, फिर भी वह पहली पुकार मैंने अनसुनी कर दी। परंतु दूसरे ही क्षण वह स्वर फिर उठा, फिर उठा। तब मुझे भी उठना पड़ा। अंधकार में से झाँककर मैंने पूछा—कौन साहब?

    सन्नाटे में वही स्वर गूँजा—'जैनेन्द्र।'

    लिखने में मुझे और पढ़ने में आप को देर लगेगी पर मेरे शरीर में ऊपर से नीचे तक सिहरन दौड़ने में देर नही लगी 'जैनेंद्र! इस समय? यहाँ...।' सोच रहा था और गिरता पड़ता दौड़ा जा रहा था। किवाड़ खोलकर किसी तरह कहा—'नमस्ते। आप इस समय...?'

    जवाब दिया—'हाँ, इधर आना हुआ, सोचा तुमसे मिलता चलूँ, कहानी पर से तुम्हारी गली का नाम पढ़ा था।'

    'बड़ी कृपा की आपने।'

    'अरे कृपा क्या है'—उन्होंने कुछ हँसकर कहा। फिर ऊपर चढ़ते-चढ़ते पूछा—'बड़ा सन्नाटा है?'

    'जी छोटे शहरों में रात जल्दी जाती है और फिर यहाँ तो बिजली भी नही है।'

    वे वहीं मेरे पास फ़र्श पर बैठ गए। चारो तरफ़ मेरा सामान बिखरा पड़ा था। पूछा—'क्या लिख रहे हो?

    मैं तब 'आश्रिता' कहानी लिख रहा था। उसी की चर्चा शुरू हो जाती, पर मैंने बात को घुमा दिया। कुछ और चर्चा चल पड़ी। वे बातें करते जाते थे और साथ ही मेरी प्रत्येक वस्तु का निरीक्षण भी। उन्होने मेरे पैन को, जो खुला रह गया था, बंद करके रख दिया। फिर सामने दीवार पर लगे हुए स्वामी दयानंद तथा महात्मा गांधी के चित्रों को देखा और बोले—'सफलता तब है जब लेखनी की शक्ति वाणी में जाए। मेरी लिखी हुई बात का जितना आदर है उतना ही बोली हुई बात का हो, मैं यही चाहता हूँ।'

    शब्द मेरे है पर भाव उनका है। स्पष्ट ही उनका लक्ष्य वे दोनों महापुरुष थे। बाज जो उनमें प्रवचन देने की या प्रश्नोत्तर-पद्धति को प्रोत्साहन देने की प्रवृत्ति है उसके मूल में यही महत्वाकांक्षा की भावना है।

    लौटते समय जब में कुछ दूर तक उनके साथ गया तो उन्होंने मुझमे झूठा 'क्या तुम इधर मेरी पुस्तकों की बिक्री का प्रबंध करवा सकते हो?

    मरुभूमि में कोई पानी की माँग करे ऐसी यह बात थी। इस बात से मुझे कुछ धक्का भी लगा। क्या लेखक का अपना लिखा बेचना भी पड़ता है? पर यह विषयांतर है उस क्षण तो उनकी आत्मीयता ने मुझे जीत लिया था। इस पराजय में मुझे सुख मिला। इसके बाद रहा-सहा व्यवधान भी जाता रहा और मन में एक निजीपन का आविर्भाव हुआ। उन्होंने पहले पत्र में मुझे 'प्रिय महोदय' कहकर संबोधित किया था पर इस घटना के छः-सात दिन बाद 'आश्रिता' कहानी पाकर उन्होंने लिखा—

    भाई विष्णुजी,

    'आश्रिता' कहानी अभी मिली। अभी देख भी ली। बहुत अच्छी मालूम हुई। मुझे ईर्ष्या होती है। इतनी सूक्ष्मता हिंदी में तो देखने को नहीं मिलती। क्या मैं बधाई दूँ!

    लगभग साढ़े तीन महीने के अल्पकाल में ही 'प्रिय महोदय' से में 'भाई विष्णुजी' बन गया। इस आत्मीयता ने मेरे साहित्य को नया कुछ दिया इसका मूल्यांकन सहज नही है। जिस काल में मेरी हत्या हो सकती थी उसी काल में मुझे इतना स्नेह मिला। इस गौरव का श्रेय अकेले मेरा नहीं है जैनेंद्र जैसे मित्रों का भी है।

    पर जैनेंद्र जो ऊपर से इतने सरल दिखाई देते है, क्या वे सचमुच संपूर्ण रूप से सरल है। फिर एक घटना याद रही है। मई 1937 में मेरा विवाह हुआ था। भाई यशपाल के साथ वे भी बारात में गए। हरिद्वार जाना था। मार्ग में रुड़की के पास नहर के किनारे रुकने की व्यवस्था थी। जाने कैसे उस पार पत्थर फेंकने की प्रतियोगिता शुरू हो गई और मुझे यह देखकर बड़ा अचरज हुआ कि जैनेंद्र जी अनायास ही सबसे आगे निकल जाते है। यह अचरज मुझे ही हुआ हो सो बात नहीं। अक्सर जब लोग सुनते है कि जैनेंद्र माने हुए खिलाड़ी है या सिद्धहस्त तैराक है, बहुत अच्छी साइकल चला लेते है तो उन्हें भी सहसा विश्वास नहीं होता। उसका कारण है उनका व्यक्तित्व और उनकी वेशभूषा। वे सादगी से रहते हैं। अकर्मण्य सादगी नहीं, उसका स्थान तो कहीं गंदगी के आस-पास है और महत्त्वाकांक्षी गंदा नहीं रह सकता। लेकिन हमने सादगी के कुछ अर्थ मान लिए हैं, इसीलिए उन्हें देखकर अक्सर लोगों को धोखा हो जाता है। एक बार एक बंधु ने 'किसी का शाल ओढ़ रखा था। उसे देखकर वे बोले—'आपको यह शाल सजता है ख़रीद लो न।' दूसरी बार एक मित्र उनके पास इसलिए आए कि उनके साथ चंदे के लिए चले। उन्होने पूछा—'कितने चंदे की बात है।' बात बहुत बड़ी नहीं थी। वे बोले—'आप मुझसे दस-बीस की क्या बात 'करते है। हज़ार दस हज़ार की करिए। तब मैं आपके साथ चल सकता हूँ।' एक बार फिर किसी संबंध में उन्होंने कहा था—क्या बताऊँ सेकेंड क्लास में ट्रैवेल करने की आदत पड़ गई है। इधर उन्हें वायुयान प्रिय है। तो यह सब अस्वाभाविक नही है। ये घटनाएँ, उनकी दिखाई देनेवाली रहन-सहन की सादगी के पीछे जो गहरी महात्वाकांक्षा छिपी हुई है, उसे उभारती है।

    साहित्य की चर्चा करते हुए उन्होंने मुझसे कहा था कि मैं सेक्स और अर्थ इन दोनों को साहित्य की मूल प्रेरणा मानता हूँ। पौधे के दो भागों की तरह सेक्स जड़ की भाँति धरती के नीचे फैलती है और अर्थ पत्र-पुष्प के समान धरती के ऊपर फैलता है। उनके जीवन में जो जटिलता है उसका कारण इन शब्दों में उपस्थित है। जैनेंद्र यों अहिंसा में विश्वास करते हैं। अहिंसा और महत्त्वाकांक्षा का मेल कैसा। अनहोनी-सी बात लगती है पर जो साध सकता है उस साधक के लिए अनहोनी कुछ नहीं है। जैनेंद्र इस दृष्टि से साधक है। वे युद्ध में सदा निडर और तूफ़ान में सदा शांत रहने का प्रयत्न करते है। उन पर हमला होता है तो वे कभी उग्र रूप धारण नहीं करते। अंदर से उबलकर भी वे शांत रहना चाहते हैं पर वे बदला लेते हों सो बात नहीं। वे बदला लेते हैं, ऐसा लेते है कि हमलावर तिलमिला उठता है उसी तरह जिस तरह वे तिलमिलाए थे। तिलमिलाते तो बदला कैसे लेते? दिल्ली की सुप्रसिद्ध साहित्यिक संस्था शनिवार समाज में उन पर एक लेख पढ़ा गया था। अनजाने ही वह कुछ असंतुलित हो गया था। उनके व्यक्तित्व पर काफ़ी करारी चोटें थी। उन्होंने उसका उत्तर दिया यद्यपि देना नहीं चाहिए था। उस उत्तर की एक बात मुझे याद है। उन्होंने कहा था कि इस लेख में मैंने अपने चेहरे को तो देखा ही पर साथ ही आलोचक को भी देखा।

    आलोचक पर यह हथौड़े की चोट थी। आलोचक यदि अपने लेख में रह जाता है तो उसका अध्ययन विषयगत (Objective) होकर आत्मगत (Subjective) हो जाता है। उसे यह अधिकार नही है।

    जैनेंद्र को उत्तर देना आता है। और उसमें जो अर्थ गर्भित रहते है वे सुननेवाले वे दिल को पकड़ लेते है, यह उनकी प्रतिभा का प्रसाद है और इसी प्रसाद के कारण उनके साहित्य में प्राण है। अगस्त 1950 की बात है। रेडियो स्टेशन पर उनकी नियुक्ति की चर्चा चल पड़ी थी। लोग तरह-तरह की बातें करते थे। मैंने भी उनसे पूछा—सुना है, आपनी नियुक्ति रेडियो स्टेशन पर हो रही है।'

    वे बोले—ऐसा तो हो ही नहीं सकता।'

    'क्यो?'

    'क्योंकि हम रेडियो में जाएँगे नहीं, रेडियो पर हमें कोई बुलाएगा नहीं।'

    इस प्रसरता की एक और घटना याद रही है। सुना है कि एक बार कुछ मदिरा-प्रेमी बंधुओ ने उन्हें घेर लिया। बोले 'या तो मदिरा पीने का दोष बताओ नहीं तो तुम्हें भी पीनी पड़ेगी।'

    परिस्थिति गंभीर भी थी, रोचक भी, लेकिन जैनेंद्र हार स्वीकार कर लें तो उसे रखें कहाँ। इसलिए वे बोले—'भाई, शराब पीना बुरा है।'

    'क्यों?'

    'क्योंकि

    इसका नशा उतरता नही?

    पर यह प्रखरता तो असिधारा व्रत के समान है। असंतुलन का अर्थ स्पष्ट मृत्यु है और कोई सौभाग्यशाली मृत्यु से बच भी जाए परंतु ग़लतफ़हमी का शिकार तो वह होगा ही। दिल्ली में उन्होंने हिंदी-परिषद् का आयोजन किया था। एक बंधु, जो हृदय रोग से पीड़ित थे, अचानक अस्वस्थ हो गए। मुझमें अधिक वे उनके आदमी थे। मैं तब अकेला ही रोगी के पास था। मैंने जैनेंद्रजी को संदेशा भेजा। उनका घर दूर नही था पर वे नहीं आए। सौभाग्य से वे बंधु इस योग्य हो गए कि उन्हें घर छोड़ आया जा करता था। वैसे ये बंधु स्वयं बढ़े साहसी थे पर मैं जैनेंद्रजी के आने से बड़ा क्षुब्ध था। उन बंधु को घर पहुँचाकर मैं उनके पास पहुँचा और आने का कारण पूछा। उन्होंने कहा—'मैं आता भी तो क्या करता? करने वाला तो भगवान् था। फिर तुम थे।'

    माना उनका तर्क ग़लत नहीं था पर दुनिया तो इस तर्क के सहारे नहीं चलती। आदर्श की ऊँचाई के पीछे छिपकर छुट्टी नहीं पाई जा सकती। इसीलिए सब गडबडझाला है। इसीलिए व्यवहार आदर्श में अंतर है। अंतर ही अंतर है पर गया इसके निए उन्हें दोष देना होगा। मनुष्य को दोष देने का नही, दोष स्वीकार करने का अधिकार है। स्वयं जैनेंद्र यही मानते है। उन्हें भी इसी दृष्टि से आँकना उचित है। असाध्य आदर्श को साधना तपस्या है, तपस्या में पतन की गुंजाइश अधिक रहती है, पर इसी कारण जो तपस्या से डरकर बैठा रह जाए उस अभागे से तो गिरने वाला लाख बार बढ़ा है।

    जैनेंद्र आलसी कहे जाते है। असल में बात यह है कि मस्तिष्क की असाधारणता उनके हाथ-पैर नहीं चलने देती। शरीर में मस्तिष्क की अधिनायकता है। मुझे याद है, शीत ऋतु में किसी दिन वे, मेरे बड़े भाई और मैं तीनों सबेरे लगभग 9-10 बजे बैठे तो संध्या को 6 बजे तक बातें ही करते रहे और यही क्यों उस दिन हिंदू कॉलेज की एक सभा में तो उन्होंने अपनी कर्मण्यता का सुंदर परिचय दिया। वे सभापति थे। हाल खचाखच भरा हुआ था। वे भाषण देने खड़े हुए। माँग हुई 'कहानी सुनाइए।' जवाब मिला 'अच्छी बात है।'

    और जब तक मैं कुछ सोचूँ उन्होंने बोलना भी शुरू कर दिया। उसे बातचीत कहना ठीक होगा। उनका और उनकी पत्नी का कोई झगड़ा था, देर से आने और भोजन करने का घर-घर होनेवाला झगड़ा; पर जिस ढंग से उन्होंने उसका वर्णन किया उससे वह विद्यार्थियों से भरा हुआ हाल हँसी से बराबर आंदोलित होता रहा।

    ऐसे व्यक्ति को और कुछ भी कहा जा सकता है पर आलसी नहीं कहा जा सकता। लेकिन आलसी वे हों पर अव्यावहारिक अवश्य हैं और एक सीमा तक असहिष्णु भी। असहिष्णु इस अर्थ में कि उन्हें विरोधी से काम लेना नहीं आता। उस पर योजनाएँ बना लेते हैं बड़ी-बड़ी। उनकी सभा परिषद् इसी अव्यावहारिकता की शिला पर खंड-खंड हो गई कि वे दूसरे के दृष्टि-बिंदु को स्वीकार नहीं करेंगे और सबसे अपनी शर्तों पर काम करवाना चाहेंगे। पर यह कहना कि वे अविश्वासी हैं उनके प्रति अन्याय करना है पर साथ ही यह भी सच है कि अव्यावहारिक आदमी में सब दोष समा जाते है। उनको टिकने का स्थान भी मिल जाता है।

    जैनेंद्र जो नहीं हैं वह बनना चाहते है; पर उसके लिए जो शक्ति चाहिए वह उनके पास नहीं है। शक्ति से अधिक प्रकृति का अभाव है इसलिए गड़बड़ है। जैनेंद्र के जीवन में यही उलझन है, यही संघर्ष है। पर व्यक्ति जैनेंद्र की जो असफलता दिखाई देती है आलोचक लोग लेखक जैनेंद्र की वही सफलता बताते हैं। इनके साहित्य में असाध्य को साधने की पुकार है प्रयत्न भी है; पर किसी दिन वे सुलझ सके तो उनका साहित्य युग-युग का संदेश बनने की क्षमता प्राप्त कर सकता है।

    जैनेंद्रजी ने किसी विश्वविद्यालय में शिक्षा नही पाई। जो कुछ उनके पास है वह स्वयं उपार्जित है। इसका कारण उनकी प्रतिभा है और प्रतिभा अंतर की शक्ति है। शेक्सपियर, डिकेंस, गोल्डस्मिथ, वालजैक और टैगोर इत्यादि ऐसे ही प्रतिभासम्पन्न लेखक थे पर जैनेंद्र की साहित्यिक प्रतिभा में दार्शनिक की सी एक अजीब उलझन है, कभी-कभी वह इतनी जटिल हो उठती है कि पाठक उसे भेद नहीं पाता 'कही पार नही, कही किनारा नही। आँख के ठहरने का कोई सहारा नही। लेकिन यह जटिलता केवल जैनेंद्र की क़लम में हो यह बात वे स्वीकार नहीं करते। यह तो इसी दुनिया की गड़बड़ है—'सब गड़बड़ ही गड़बड़ है। सृष्टि ग़लत। समाज ग़लत। जीवन ही हमारा ग़लत। सारा चक्कर यह ऊँटपटाँग।' पाठक की आँखें इसे कभी नहीं देखती। उसके जीवन में इतना संघर्ष कहाँ है जो वह साहित्यिक जैनेंद्र को पा सके। जो जीवन में है वही साहित्य में है। तभी जनता को पहचानकर भी जैनेंद्र जनता से दूर है। इसलिए पाठक उनमें उतनी श्रद्धा नही रखता जितना उनके नाम का आदर करता है।

    उलझन का एक और कारण है। उनके चित्रों में रंग गहरे नहीं होते। बहुत से तो छाया-चित्र बनकर रह जाते है। फिर विचारों का बाहुल्य (मस्तिष्क के अधिनायकत्व के कारण) उनकी कहानियों को बोझिल बना देता है। उनकी चासनी का रस सूखता जा रहा है। भाषा भी एक बड़ा कारण है। उसके पीछे जो अहम् है उसे चीरकर कोई विरला ही भीतर पैठता है। जो पैठता है वह शांति पाता है। दूसरे लोग अशांति मोल लेकर उन्हें कोसते है।

    लेकिन बुद्ध भी हो जैनेंद्र, जैनेंद्र है। शब्द, वाक्य, भाव, भाषा और शैली सब पर जैनेंद्र की छाप ह। उनके भीतर शक्ति का स्रोत है पर तथाकथित अकर्मण्यता (तथाकथित इसलिए कि मन में वे महत्त्वाकांक्षी है) के कारण उन्होंने अनुपात से बहुत कम लिखा है। उनकी दृष्टि पैनी और बुद्धि नया सृजन करनेवाली है। संग्रह और अनुवाद उनके स्वभाव के अनुरूप नहीं है। अनुवाद तो उनकी अपनी रचना के जैसा हो जाता है।

    अध्ययन की शक्ति भी उनमें उतनी नहीं है। ये निर्विवाद रूप से एक मौलिक कलाकार है और उन्होंने साहित्य में एक मौलिक शैली का निर्माण किया है।

    जैनेंद्रजी के प्रशंसक और निंदक दोनों यनेष्ट है। इधर उनके आलोचको की संख्या बढ़ती जा रही है। उनका आक्षेप है कि आज की कोई भी समम्या उन्हें आकर्षित नहीं कर सकी। बँगाल का अकाल, विश्व महायुद्ध, सांप्रदायिक हत्याकांड, कोई भी उन्हें विचलित नहीं कर सका। नई पीढ़ी की शिकायत है वे प्रगतिशील नहीं है। पुरानी की शिकायत है उन्होंने सेक्स के विकृत रूप का प्रचार किया है। यह सभी की शिकायत है कि वे समाप्त हो रहे है। कभी-कभी स्वयं भी वह कहते है—'हमें लगता हम समाप्त हो रहे है।'

    परंतु यह सत्य नही है। प्रतिभाशाली बाद कभी समाप्त नही होता, मृत्यु के भी नहीं। जीवन में तो वह किसी भी क्षण चमक सकता है। शत केवल अकमण्यता पर चोट करने की है। कलाकार यदि युग की अपेक्षा करता है तो वह युग का निर्माण भी करता है। जैनेंद्र के विचारों में वह आग है जिस पर राख पड़ती जा रही है, पर वह झाड़ी भी तो जा सकती है। जैनेंद्र का उदय धूमकेतु की तरह हुआ था और आज भी पर देर से सही-धूमकेतु फिर भी तो उदय हो सकता है।

    और घूमकेतु क्यों। नभ का झिलमिलाता हुआ एकांकी तारा क्या पथिक को राह नहीं दिखा सकता।

    स्रोत :
    • पुस्तक : ज्ञानोदय वर्ष 3 (पृष्ठ 513)
    • रचनाकार : विष्णु प्रभाकर
    • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ
    • संस्करण : 1952
    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

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