मेरे दोस्त के आँगन में इस साल बैंगन फल आए हैं। पिछले कई सालों से सपाट पड़े आँगन में जब बैंगन का फल उठा तो ऐसी ख़ुशी हुई जैसे बाँझ को ढलती उम्र में बच्चा हो गया हो। सारे परिवार की चेतना पर इन दिनों बैंगन सवार है। बच्चों को कहीं दूर पर बकरी भी दिख जाती है तो वे समझते हैं कि वह हमारे बैंगन के पौधों को खाने के बारे में गंभीरता से विचार कर रही है। वे चिल्लाने लगते हैं। पिछले कुछ दिनों से परिवार में बैंगन की ही बात होती है। जब भी जाता हूँ परिवार की स्त्रियाँ कहती है- खाना खा लीजिए। घर के बैंगन बने हैं। जब वे ‘भरे-भरे’ का अनुप्रास साधती हैं तब उन्हें काव्य-रचना का आनंद आ जाता है। मेरा मित्र भी बैठक से चिल्लाता है- ‘अरे भाई, बैंगन बने हैं कि नहीं?’ मुझे लगता है, आगे ये मुझसे ‘चाय पी लीजिए’ के बदले कहेंगी- ‘एक बैंगन खा लीजिए। घर के हैं।’ और तश्तरी में बैंगन काटकर सामने रख देंगी। तब मैं क्या करूँगा? शायद खा जाऊँ, क्योंकि बैंगन चाहे जैसा लगे, भावना स्वादिष्ट होगी और मैं भावना में लपेट कर बैंगन की फाँक निगल जाऊँगा।
ये बैंगन घर के हैं और घर की चीज़ का गर्व- विशेष होता है। अगर वह चीज घर में ही बनाई गई हो, तो निर्माण का गर्व उसमें और जुड़ जाता है। मैंने देखा है, इस घर के बैंगन का गर्व स्त्रियों को ज़्यादा है। घर और आँगन में जो-जो है वह स्त्री के गर्व के क्षेत्र में आता है। इधर बोलचाल में पत्नी को ‘मकान’ कहा जाता है। उस दिन मेरा दोस्त दूसरे दोस्त को सपत्नी भोजन के लिए निमंत्रित कर रहा था। उसने पूछा- ‘हाँ’ यह तो बताइए आपका ‘मकान’ गोश्त खाता है या नहीं? पत्नी अगर ‘मकान’ कही जाती है तो पति को ‘चौराहा’ कहलाना चाहिए। दोनों की पत्नियाँ जब मिलें तो एक का ‘मकान’ दूसरे के ‘मकान’ से पूछ सकता है- ‘बहन, तुम्हारा ‘चौराहा’ शराब पीता है या नहीं?’
लोग पान से लेकर बीवी तक घर की रखते हैं। इसमें बड़ा गर्व है और बड़ी सुविधा है। जी चाहा तब पान लगाकर खा लिया और जी हुआ तब पत्नीं से लड़कर जीवन के कुछ क्षण सार्थक कर लिए। कुछ लोग मूर्ख भी घर के रखते हैं। और मेरे एक परिचित तो जुआरी भी घर के रखते हैं। दीपावली पर अपने बेटों के साथ बैठकर जुआ खेल लेते हैं। कहते हैं- “भगवान की दया से अपने चार बेटे हैं, सो घर में ही जुआ खेल लेते हैं।”
घर की चीज़ आपत्ति से भी परे होती है। आदमी स्वर्ग से इसलिए निकाला गया कि उसने दूसरे के बगीचे का सेब खा लिया था। माना कि वह बग़ीचा ईश्वर का था, पर फिर भी पराया था। अगर वह सेब उसके अपने बग़ीचे का होता, तो वह एतराज़ करने वाले से कह देता- “हाँ-हाँ खाया तो अपने बगीचे का ही खाया। तुम्हारा क्या खा लिया?” विश्वामित्र का ‘वैसा’ मामला अगर घर की औरत से होता, तो तपस्या भंग न होती। वे कह देते- ‘हाँ जी, हुआ। अगर वह हमारी औरत है। तुम पूछने वाले कौन होते हो?” अगर कोई अपनी स्त्री को पीट रहा हो और पड़ोसी उसे रोके, तो वह कैसे विश्वास से कह देता है- “वह हमारी औरत है। हम चाहें उसे पीटें, चाहे मार डालें। तुम्हें बीच में बोलने का क्या हक है।” ठीक कहता है वह। जब वह कद्दू काटता है तब कोई एतराज़ नहीं करता, तो औरत को पीटने पर क्यों एतराज़ करते हैं? जैसा कद्दू वैसी औरत। दोनों उसके घर के हैं। घर की चीज़ में यही निश्चिंतता है। उसमें मज़ा भी विशेष है। ये बैंगन चाहे बाज़ार के बैंगन से घटिया हों, पर लगते अच्छे स्वादिष्ट हैं। घर के हैं न! मैंने लोगों को भयंकर कर्कशा को भी प्यार करते देखा है, क्योंकि वह घर की औरत है।
वैसे मुझे यह आशा नहीं थी कि यह मेरा दोस्त कभी आँगन में बैंगन का पौधा लगाएगा। कई सालों से आँगन सूना था। मगर मैं सोचता था कि चाहे देर से खिले, पर इस आँगन में गुलाब, चंपा और चमेली के फूल ही खिलेंगे। बैंगन और भिंडी जैसे भोंड़े पौधे को वह आँगन में जमने नहीं देगा। पर इस साल जो नहीं होना था, वही हो गया। बैंगन लग गया और यह रुचि से खाया भी जाने लगा। मेरे विश्वास को यह दोस्त कैसे धोखा दे गया? उसने शायद घबराकर बैंगन लगा लिया। बहुत लोगों के साथ ऐसा हो जाता है। गुलाब लगाने के इंतज़ार में साल गुज़रते रहते हैं और फिर घबरा कर आँगन में बैंगन या भिंडी लगा लेते हैं। मेरे परिचित ने इसी तरह अभी एक शादी की है- गुलाब के इंतज़ार से ऊबकर बैंगन लगा लिया है।
लेकिन इस मित्र की सौंदर्य-चेतना पर मुझे भरोसा था। न जाने कैसे उसके पेट से सौंदर्य-चेतना प्रकट हो गई। आगे हो सकता है, वह बेकरी को स्थापत्य कला का श्रेष्ठा नमूना मानने लगे और तंदूरी रोटी की भट्ठी में उसे अजंता के गुफ़ा-चित्र नज़र आएँ।
इसे मैं बर्दाश्त कर लेता। बर्दाश्त तब नहीं हुआ, जब परिवार की एक तरुणी ने भी कहा- ‘अच्छा तो है। बैंगन खाए भी जा सकते हैं’। मैंने सोचा, हो गया सर्वनाश। सौंदर्य, कोमलता और भावना का दिवाला पिट गया। सुंदरी गुलाब से ज़्यादा बैंगन को पसंद करने लगी। मैंने कहा- ‘देवी, तू क्या उसी फूल को सुंदर मानती है, जिसमें से आगे चलकर आधा किलो सब्जी निकल आए। तेरी जाति कदंब के नीचे खड़ी होने वाली है, परंतु शायद हाथ में बाँस लेकर कटहल के नीचे खड़ी होगी। पुष्प लता और कद्दू की लता में क्या तू कोई फ़र्क़ समझती? तू क्या् वंशी से चूल्हा फूँकेगी? और क्या वीणा के भीतर नमक-मिर्च रखेगी?
तभी मुझे याद आया कि अपने आँगन में तो कुछ भी नहीं है, दूसरे पर क्या हँसू? एक बार मैंने गेंदे का पौधा लगाया था। यह बड़ा गरीब सर्वहारा फूल होता है, कहीं भी जड़ें जमा लेता है। मैंने कहा- ‘हुज़ूर अगर आप जम जाएँ और खिल उठें तो मैं गुलाब लगाने की सोचूँ।’ मगर वह गेंदा भी मुरझाकर सूख गया। उसका डंठल बहुत दिनों तक ज़मीन में गड़ा हुआ मुझे चिढ़ाता रहा कि गेंदा तो आँगन में निभ नहीं सका, गुलाब रोपने की महत्वाकांक्षा रखते हो। और मैं उसे जवाब देता- ‘अभागे, मुझे ऐसा गेंदा नहीं चाहिए जो गुलाब का नाम लेने से ही मुरझा जाए’। गुलाब को उखाड़कर वहाँ जम जाने की जिसमें ताकत हो, ऐसा गेंदा मैं अपने आँगन में लगने दूँगा। मेरे घर के सामने के बंगले में घनी मेहँदी की दीवार-सी उठी है। इसकी टहनी कहीं भी जड़ जमा लेती है। इसे ढोर भी नहीं खाते। यह सिर्फ़ सुंदरियों की हथेली की शोभा बढ़ाती है और इसीलिए इसे पशु तक के लिए बेकार पौधे की रूमानी प्रतिष्ठा लोक-गीतों से लेकर नई कविता तक में है। नेल-पॉलिश के कारख़ानों ने मेहँदी की इज़्ज़त अलबत्तास कुछ कम कर दी है। तो मैंने मेहँदी की कुछ कलमें आँगन में गाड़ दीं। दो-तीन दिन बाद आवारा ढोरों ने उन्हें रौंद डाला। मैं दुखी था। तभी अख़बार में पढ़ा कि किसी ‘हाइड्रो-इलेक्ट्रिक प्लांट’ का पैसा इंजीनियर और ठेकेदार खा गए और उसमें ऐसी घटिया सामग्री लगाई कि प्लांट फूट गया और करोड़ों बर्बाद हो गए। जो हाल मेरे मेहँदी की प्लांट का हुआ, वही सरकार के उस बिजली के ‘प्लांट’ का हुआ- दोनों को उजाड़ ढोरों ने रौंद डाला। मैंने इस एक ही अनुभव से सीख लिया कि प्लांट रोपना हो तो उसकी रखवाली का इंतिज़ाम पहले करना। भारत सरकार से पूछता हूँ कि मेरी सरकार आप कब सीखेंगी? मैं तो अब प्लांट लगाऊँगा, तो पहले रखवाली के लिए कुत्ते पालूँगा। सरकार की मुश्किल यह है कि उसके कुत्ते वफ़ादार नहीं हैं। उनमें कुछ आवारा ढोरों पर लपकने के बदले, उनके आस-पास दुम हिलाने लगते हैं।
फिर भी भारत सरकार के प्लांट तो जम ही रहे हैं और आगे जम जाएँगे। उसके आँगन की ज़मीन अच्छी है और प्लांट सींचने को पैंतालिस करोड़ लोग तैयार है। वे प्लांट भी उन्हीं के हैं। सरकार तो सिर्फ़ मालिन है।
मेरे आँगन का अभी कुछ निश्चित नहीं है। बग़ल के मकान के अहाते से गुलाब की एक टहनी, जिसपर बड़ा-सा फूल खिलता है, हवा के झोंके से दीवार पर से गर्दन निकालकर इधर झाँकती है। मैं देखता रहता हूँ। कहता हूँ तू ताक चाहे झाँक। मैं इस आँगन में अब पौधा नहीं रोपूँगा। यह अभागा है। इसमें बरसाती घास के सिवा कुछ नहीं उगेगा। सभी आँगन फूल खिलने लायक नहीं होते। ‘फूलों का क्या ठिकाना’। वे गँवारों के आँगन में भी खिल जाते हैं। एक आदमी को जानता हूँ, जिसे फूल सूँघने की तमीज़ नहीं है। पर उसके बग़ीचे में तरह-तरह के फूल खिले हैं। फूल भी कभी बड़ी बेशर्मी लाद लेते हैं और अच्छे खाद पर बिक जाते हैं।
मेरा एक मित्र कहता है कि ‘तुम्हारे आँगन में कोमल फूल नहीं लग सकते। फूलों के पौधे चाहे किसी घटिया तुकबंद के आँगन में जम जाए; पर तुम्हारे आँगन में नहीं जम सकते। वे कोमल होते हैं, तुम्हारे व्यंग्य की लपट से जल जाएँगे। तुम तो अपने आँगन में बबूल, भटकटैया और धतूरा लगाओ। ये तुम्हारे बावजूद पनप जाएँगे। फिर देखना कौन किसे चुभता है- तुम बबूल को या बबूल तुम्हें? कौन किसे बेहोश करता है- धतूरा तुम्हें या तुम धतूरे को?
- पुस्तक : हिंदी समय
- रचनाकार : हरिशंकर परसाई
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