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एक नेत्रहीन की दृष्टि : एक चित्र

ek netrahin ki drishti ha ek chitr

विष्णु प्रभाकर

विष्णु प्रभाकर

एक नेत्रहीन की दृष्टि : एक चित्र

विष्णु प्रभाकर

और अधिकविष्णु प्रभाकर

    खेतिया नेत्रहीन था।

    वह आज जीवित है या नहीं, यह बात कोई अर्थ नहीं रखती, क्योंकि उसका चित्र मेरे मन पर इस प्रकार अंकित हो गया है कि मिटाए नहीं मिट सकता। मैंने उसे पहली बार सन् 24 में देखा था और अंतिम बार 1963 में। काल की दृष्टि से ही मैं पहली और अंतिम बार कहता हूँ, नहीं तो मेरे लिए 1924 और 1963 में भेद करना मुश्किल है। मैंने उसे जिस रूप में 1924 में पाया था उसी रूप में 1963 में पाया। बेशक, अब वह बूढ़ा हो चला था, परंतु मैं उसका मूल्य काल के संदर्भ में नहीं आँकना चाहता।

    जब शिक्षा प्राप्त करने के लिए मैं अपने मामा के पास हिसार (पंजाब) गया तो वह उनके घर में काम करता था। अंतिम बार भी मैंने उसे उन्हीं के घर में उसी तरह काम करते देखा। यूँ वह मामा के सरकारी दफ़्तर में पंखा-कुली था। जब तक वहाँ बिजली नहीं पहुँची थी। कपड़े के झालरदार लंबे-लंबे पंखे छत में लटकाए जाते थे, और उनमें बंधी हुई लंबी डोरियाँ दीवार के सुराख़ में होकर बंद दरवाज़ों के बाहर लटकती रहती थीं। दरवाज़े इसलिए बंद कर दिए जाते थे कि गर्म हवा अंदर सके। पंखा-कुली उसी गर्म हवा में, हाथ से, या थक जाने पर पैर से, निरंतर डोरी को खींचते रहते थे।

    हिसार देश के उन भागों में से है, जहाँ तापमान सबसे उग्र रहता है। मध्याह्न का सूर्य सचमुच आग बरसाता है और उस आग का स्पर्श पाकर वायु प्राणों को झुलसानेवाली लू में रूपांतरित हो जाती है। इसी लू में स्वेद-स्नात वे पंखा कुली आभिजात्य वर्ग के लोगों का पसीना सुखाते थे। खेतिया नेत्रहीन था, फिर भी भरी दुपहरी में पंखा खींचते-खींचते उसके नेत्र मुंद ही जाते थे। तब पंखे की गति रुक जाती, कमरे की दबी हुई तप्त वायु उबल उठती और आभिजात्य वर्ग के लोग, शक्ति के अनुरूप भारी-सी गाली देकर, अंदर से पंखे की डोरी को ऐसे खींचते कि बाहर पंखा कुलियों के पैर या हाथ ज़ोर से झटका खाते, पंखे फिर तेज़-तेज़ चलने लगते। अंदर पसीना सूखता, बाहर पसीना तरल होता। पसीना कहीं नहीं जाता। एक स्थान पर सूखता है, दूसरे पर तरल होता है। एक को कष्ट पहुँचाकर ही दूसरा ऐश्वर्य भोगता है।

    यह बड़े बाबू के घर पर भी काम करता था। पानी भरता था, बर्तन माँजता था। कभी-कभी बुहारी तक लगा देता था। खेतिया, जो नेत्रहीन था, बड़े-बड़े मटके लेकर दूर कुएँ पर जाता। उन कुओं में पानी बहुत गहरा था, पचास गज, साठ गज, यहाँ तक कि सौ-सौ गज गहरा और हर कुएँ का पानी मीठा भी नहीं होता था। मीठे कुएँ बहुत कम थे, इसलिए दूर-दूर पर थे, वह हर रोज़ सुबह-शाम, आँधी हो या पानी, बिजली चमकती हो या तूफ़ान गरजता हो, हर अवस्था में खारी ही नहीं, मीठा पानी भी भरता था। कंधे पर बड़ा-सा मटका टिकाए, एक हाथ में उसे सँभाले, दूसरा हाथ एक लड़के के कंधे पर रखे वह तेज़-तेज़ झूमता हुआ चलता था। लड़का डगमगा जाता, लेकिन खेतिया ने कभी ठोकर नहीं खाई। लड़के की दृष्टि भटकती थी, खेतिया की दृष्टि अंतर्मुखी थी, मात्र लक्ष्यभेदी। वह ठीक स्थान से घड़े उठाता था, ठीक स्थान पर लाकर वापस रख देता था। आखोंवाले अक्सर घड़े फोड़ देते, लेकिन उसने शायद ही कभी कोई बड़ा फोड़ा हो।

    बहुत सवेरे अँधेरे मुँह वह आता था। एक फटी हुई धोती, वैसी ही एक क़मीज़, सिर पर लिपटा हुआ एक छोटा-सा साफ़ा, एक हाथ में लकड़ी और दूसरा हाथ सदा किसी लड़के के कंधे पर रखे, मुँह ऊपर को उठाए मानो वह सदा ईश्वर की ओर देखता रहता हो, तेज़-तेज़ चलता हुआ द्वार पर आकर दस्तक देता और मैं आँखें मलता हुआ उठ बैठता। द्वार खोलता, उसे देखता और सीज उठता। लेकिन वह 'नमस्ते' कहकर सीधा घड़े उठाने चला जाता। मैं सोचता रह जाता, इसके आँखें नहीं हैं, फिर भी यह कैसे देखता है। यह कभी दीवार टटोलता, कभी हवा में हाथ फैलाकर मार्ग सूँघता। मैं उसे देखता रहता, देखता रहता उसकी चाल को और जब वह पंखा खींचता तो उसकी निरंतर घूमती हुई गर्दन को। उसके चेहरे पर की एक अजीब-सी चमक को। उसके शरीर में जैसे कहीं-न-कहीं स्प्रिंग था, जो हमेशा उसे चंचल किए रहता। जब मैं बहुत छोटा था, मैंने एक दिन उससे पूछा, खेतिया, तुम कैसे देखते हो?

    सुनकर वह हँस आया। मुख पर करुणा का भाव, जो प्रायः सिमटा रहता था, पूरे विस्तार में फैल गया। बोला, देख सकता तो फिर यहीं क्यों आता? घर में ज़मीन है।

    लेकिन तुम अँधेरे में चले आते हो, कुएँ से पानी खींचते हो, इतने बड़े-बड़े मटके कंधे पर रखकर भीड़ में से निकल जाते हो, ये सब बिना देखे कैसे हो जाता है!

    उसके मुख पर की करुणा और गहरी हो आई। उसने आँखों को और भी आकाश की गहराइयों की ओर उठाया। कहा, मैं नहीं देखता, भगवान देखता है। वही सब-कुछ करता है। वही पानी खींचता है, वही मटके उठाता है और वही मेरे आगे-आगे चलता है।

    तुम भगवान को देख लेते हो?

    भगवान को देखने के लिए आँखें नहीं, मन चाहिए।

    मैं अबूझ-अवाक्, सोच में पड़ गया कि भगवान जब उस पर इतने कृपालु हैं तो उन्होंने उसे आँखें क्यों नहीं थीं? खेतिया ने जैसे मेरे मन की बात भाँप ली हो। कहा, भगवान की माया को हम जान लें तो फिर भगवान रहे कहाँ?

    और वह बान बटने में दत्तचित्त हो गया। वह बान भी बटता था, खाट भी बुन लेता था। ये सब काम वह करता रहता और मैं उसे देख-देखकर हैरान होता रहता। मैं जानता हूँ कि आज चालीस वर्ष बाद भी मेरी उस हैरानगी में कोई अंतर नहीं पड़ सका है।

    उसे क्रोध भी आता था। उसके साथ आनेवाले लड़के यदि काम ठीक नहीं करते तो वह उनको डाँटता, मारने को पीछे दौड़ता। उसका आँख-मिचीनी का वह खेल देखकर में ख़ूब हँसता। वह उनका ठेकेदार था। उनके चाल-चलन का दायित्व उस पर था, इसलिए जब-जब वे डगमगाते तो वह ज़ोर-ज़ोर से चिल्ला-चिल्ला कर उन्हें दंड देने का दायित्व ओढ़ लेता। स्वयं वह अत्यंत ईमानदार और कर्मठ था।

    और इसी तरह दिन बीतते गए। उसकी आयु बढ़ती गई, लेकिन मैंने जैसे सन् 1924 में उसे पहली बार देखा था, उन बीतते दिनों में उसे वैसा ही देखा। उसमें कहीं परिवर्तन नहीं आया था।

    लेकिन फिर भी परिवर्तन तो आता ही है। एक दिन अतीत की आवाज़ें मात्र प्रतिध्वनियाँ बनकर रह जाती हैं। एक दिन उस शहर में भी बिजली गई और निमिष मात्र में पंखा-कुलियों का व्यापार चौपट हो गया। आभिजात्य वर्ग के लोग प्रसन्न थे कि अब उन्हें बार-बार झुँझलाना नहीं पड़ेगा। पसीना भी नहीं आएगा, पंखा-कुलियों की टाँग में बँधी रस्सी भी नहीं खींचनी होगी। लेकिन पंखा-कुलियों के चेहरे उतर गए कि अब उन्हें नए रोज़गार की तलाश में भटकना पड़ेगा। अक्सर वे छोटे-छोटे लड़के होते थे, 14-15 वर्ष से लेकर 17-18 वर्ष तक के। उन्हें दूसरा काम ढूँढ़ने में कोई विशेष कठिनाई नहीं हुई। शीत ऋतु में यूँ ही वे कुछ और काम करते ही थे। खेतिया वर्ष में छः महीने पंखा खींचता था। शेष महीनों में देवी के अपने छोटे-से मंदिर में पूजा करवाता था। वह देवी का पुजारी था और भगत के रूप में प्रसिद्ध था। लेकिन यह पूजा छड़ी के दिनों के अतिरिक्त कोई महत्व नहीं रखती थी और छड़ी का उत्सव वर्ष में केवल दो बार ही होता था।

    बड़े बाबू ने सभी लोगों को और-और कामों पर लगा दिया, लेकिन यह था कि तो चपरासी का काम कर सकता, चौकीदारी का। छोटे बच्चे को भी विश्वास के साथ उसके हाथों में नहीं सौंपा जा सकता था। बड़े बाबू ने उससे कहा, मैं तुम्हारे लिए और तो क्या कर सकता हूँ, सदा की तरह घर पर काम करते रहो, जो उचित होगा वह तुम्हें मिलेगा।

    खेतिया घर पर काम करने का शायद एक पैसा भी नहीं लेता या। उन दिनों कोई भी नहीं लेता था। चपरासी, कुली, मज़दूर, सब अपने-अपने अफ़सरों और बाबुओं के घर काम करते थे। यदि उन्हें कुछ मिलता भी था तो वह नाममात्र को ही था। अब बड़े बाबू उसे पूरी पगार देने लगे।

    फिर उन्हें भी पेंशन मिल गई। खेतिया तब भी उनके घर आता रहा। 21-22 वर्ष तक उन्होंने पेंशन भोगी। इतने दिनों तक यह भी उनका पानी भरता रहा, खाट बुनता रहा। 1963 की गर्मियों में अंतिम बार मैंने उसे उन्हीं के घर देखा था। तब बड़े बाबू नहीं रहे थे और वह बुरी तरह रो रहा था। उसकी अँधेरी दुनिया का वह पचास वर्ष का साथी (साया कहने को मन नहीं करता) जुदा हो गया था। लगभग आधी सदी तक वे चुपचाप अनजाने संग-संग सरकते रहे थे।...

    मैं बहुत पहले पंजाब से चला आया था और छः-सात वर्ष में कभी-कदास चला जाता था। हर बार खेतिया वैसे ही उल्लास से मुझसे मिलता। मेरी आवाज़ सुनकर उसके चेहरे पर एक ताज़गी-सी दौड़ आती। मैं देखता, वही कपड़े, वही चाल, आकाश की गहराइयों में झाँकती हुई वे ही आँखें, वही भूमती हुई गर्दन। मुँह पर फैली हुई वही निस्सीम करुणा, कहीं भी ज़रा भी तो अंतर नहीं।

    दीवार टटोलता या हवा में हाथ फैलाकर रास्ता सूँघता और गदगद होकर पूछता, अच्छे हो बाबू विसनु, क्या करते हो? मैं कहता, अच्छा हूँ। किताबें लिखता हूँ। वह अचरज से बोलता, अच्छा !

    यह 'अच्छा' शब्द मानो मुझे उलाहना देता हो, हमें भी तो पढ़वाओ भाई। क्या लिखते हो? लेकिन में जैसे इस प्रश्न को टाल जाता और पूछ लेता, तुम कैसे हो? काम ठीक चल रहा है न?

    वह उत्तर देता, सब भगवान की कृपा है। और मुझे करने को है क्या, वही जो हमेशा करता हूँ। वही पानी भरना। यही मंदिर। पर अब ज़माना कहाँ-से-कहाँ पहुँच गया है। लोग कहते हैं, देश आज़ाद हो गया है, पर बाबू विसनु, मैं तो यहीं हूँ। हाँ, तुम्हें देखकर अलबत्ता तबीयत ख़ुश हो जाती है।

    व्यतीत की ध्वनियाँ उभरते-उभरते पृष्ठभूमि में वो जातीं, क्योंकि मैं अब सन 1924 वाला बालक नहीं रह गया था। देखने का अर्थ समझने लगा था। केवल आँखों को ही यह अधिकार नहीं मिला है। स्पर्श की भी दृष्टि होती है, वाणी की भी दृष्टि होती है, आकाश की भी दृष्टि होती है, नहीं तो तुलसीदासजी 'गिरा अनपन नयन विनु वाणी' कैसे लिखते। खेतिया के पास वही दृष्टि थी। हर नेत्रहीन के पास वही दृष्टि होती है। सचमुच देखने का काम आँखें नहीं करतीं। देखता मस्तिष्क है, जो मात्र कुछ समाजगत परंपराओं और कुछ व्यक्तिगत भावनाओं का मूर्त रूप है। रेडियो पर जब हम नाटक या संगीत सुनते हैं तो अपने इन भौतिक चक्षुओं से किसी को देख पाते हैं? लेकिन फिर भी नाटक का हर पात्र, हर गायक-गायिका सभी मस्तिष्क पर मूर्त हो जाते हैं। हम उनका चित्र देखते हैं। खेतिया के पास भी यही पारदर्शी दृष्टि थी।

    बचपन में उसे देखकर जो करुणा मेरे मन में जागती थी, उसके स्थान पर अब धीरे-धीरे आदर और श्रद्धा का झीना-झीना भाव जागता रहा था। एक-दो बार सहसा मन में उठा कि मैं उसे कुछ दूँ, लेकिन आदर और श्रद्धा के इसी झीने-झीने आवरण ने हर बार मेरा हाथ पकड़ लिया। मुझे लगने लगा जैसे मैं उसका अपमान करने जा रहा है। आँखें ही तो मनुष्य नहीं हैं, मनुष्य तो देहातीत है। हों उसके पास नेत्र, पर दृष्टि तो है। उसी दृष्टि ने उसे अब तक अविजित रखा है। वह उतना ही सूक्ष्म है जितना कि मैं हूँ। मेरी करुणा क्या उसके इसी विजय-गर्व को खंडित नहीं कर देगी?

    और मैं उसे कभी कुछ नहीं दे पाया, लेकिन इसके लिए मुझे कभी दुख भी नहीं हुआ, क्योंकि मैं जानता हूँ कि यह आज भी उसी तरह भूम-भूम कर चल सकता है, उसी तरह आकाश की गहराइयों में झाँक सकता है, बड़े-बड़े मटके उठाकर भीड़ में से निकल सकता है। खाट तक बुन सकता है। वह श्रमिक है और श्रम का अपमान करने से बड़ा और कोई अपराध नहीं हो सकता।

    स्रोत :
    • पुस्तक : कुछ शब्द : कुछ रेखाएं (पृष्ठ 55)
    • रचनाकार : विष्णु प्रभाकर
    • प्रकाशन : सत्साहित्य प्रकाशन

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