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आचार्य शिवपूजन सहाय

acharya shivpujan sahay

विष्णु प्रभाकर

विष्णु प्रभाकर

आचार्य शिवपूजन सहाय

विष्णु प्रभाकर

और अधिकविष्णु प्रभाकर

    आचार्य शिवपूजन सहाय का स्मरण आते ही, जो व्यक्तित्व आँखों में उभरता है, वह एक ऐसे व्यक्ति का रूप है, जो अकिंचनता में से ही शक्ति ग्रहण करता है। उसके चारों ओर एक सुमधुर व्यक्तित्व की सुगंध महकती रहती है। उसके सौम्य चरित्र की निर्मल किरणें आस-पास के जीवन को केवल प्रज्वलित करती हैं, बल्कि उसे प्राणों से भी भरती है। संक्षिप्त शरीर, प्रदीप्त मुखमंडल, बाहरी निरीहता के पीछे से झाँकती हुई तलस्पर्शी दृष्टि—आचार्य शिवपूजन सहाय अपने आसपास वालों के लिए परिवार के उस बुज़ुर्ग की तरह से थे, जो कृतित्व और अजस्त्र स्नेह के भीतर से अनुशासन की बागडोर संभालता है।

    उनके निधन के साथ भारतीयता का एक युग जैसे समाप्त हो गया। अहम् को पीछे रखकर जो कृति हुए, ऐसे व्यक्ति एक-एक करके चले जा रहे हैं। अभी-अभी जो दिवंगत हुए हैं, वह श्रद्धेय सियारामशरण गुप्त उसी परंपरा की एक महत्त्वपूर्ण कड़ी थे। गुप्तजी मूलतः कवि थे, लेकिन आचार्य मूलतः भाषा तत्त्वविद् थे। अपनी शैली के लिए हिंदी साहित्य में सदा अमर रहेंगे। सत्तर वर्ष के जीवन में जहाँ उन्होंने अपने अस्तित्व के लिए सतत संघर्ष किया वहाँ भाषा परिष्कार के लिए अनथक परिश्रम भी किया और अंत तक कृति बने रहे। कितने पत्रों का उन्होंने संपादन किया, कितनी पुस्तकों के परिशोधन में उनका हाथ रहा, यह सहज ही बता देना संभव नहीं है। उनकी दृष्टि जहाँ स्नेह से लबालब भरी रहती थी, वहाँ वह अंतरतम को भेदने की अपूर्व क्षमता भी रखती थी। भाषा की शुद्धता और नए-नए प्रयोगों के प्रति वह अत्यंत सजग रहते थे। याद आता है कि जब मैंने हिंदुस्तानी में लिखने का दुस्साहस किया तो उनकी चोट से नहीं बच सका था। उर्दू शब्दों के अनुपयुक्त प्रयोग को लेकर उन्होंने मेरी एक कहानी की बड़ी कड़ी आलोचना की थी। मैं उसे कभी स्वीकार नहीं कर सका। सदा उनसे मतभेद बना रहा। परंतु उनकी निष्ठा पर आरोप कर सकूँ, ऐसी कल्पना मेरे मस्तिष्क में भी नहीं आई। यों उनसे प्रशंसा भी कम नहीं पाई है। अपनी कुछ कहानियों पर उनकी राय को मैंने मन ही मन सचमुच श्रेष्ठता का प्रमाणपत्र माना है।

    वह विनम्रता की प्रतिमूति थे, इतने कि शंका होती थी कि यह निरीह व्यक्ति आख़िर किस शक्ति के बल पर प्राणवान है। उन दिनों की बात है, जब वह राजेंद्र कॉलेज, छपरा में प्राध्यापक थे और बीच में एक साल की छुट्टी लेकर 'हिमालय' नामक मासिक पुस्तक का संपादन कर रहे थे। मैंने अपनी एक कहानी छपने के लिए भेजी थी। जैसा कि बहुधा होता है, संपादकों को निर्णय लेने में देर हो गई और मैंने इस बात की शिकायत उनको लिख भेजी। उत्तर आया कि कहानी लौटा दी गई है। यह भी लिखा था कि स्थानाभाव के कारण ही ऐसा करना पड़ा है, नहीं तो आपकी रचनाओं की श्रेष्ठता के बारे में दो मत नहीं हो सकते।

    दुर्भाग्य से यह पत्र कहीं खो गया है। याद नहीं पड़ता कि इतना शिष्ट और सौम्य शिष्टाचार कहीं और देखा हो। लेकिन कहानी यहीं समाप्त नहीं हो जाती क्योंकि मेरी कहानी वास्तव में लौटाई नहीं गई थी। मैंने उन्हें फिर लिखा और अपने स्वभाव को जानते हुए समझता हूँ कि कुछ क्रोध में ही लिखा होगा। उसके उत्तर में जो पत्र मुझे मिला वह आचार्य शिवपूजन सहाय ही लिख सकते थे। उन्होंने लिखा था :

    मान्यवर,

    सादर वंदे।

    आपका कृपा पत्र मिला था। मैं खेद एवं लज्जा के वश उत्तर दे सका। आज पटना के ऑफ़िस से सूचना आई है कि आपकी एक 'बेबसी' शीर्षक कहानी फ़ाइल में है। मैंने उसे यहाँ माँगा है। उसे पाते ही मैं आपको तुरंत पत्र लिखूँगा। आशा है आपकी यही कहानी है जिसके बारे में आपको मैं सूचित कर चुका था कि लौटा दी गई है। ऑफ़िस से पूछने पर मुझे ऐसा ही पता लगा था। ख़ैर, आपसे करबद्ध क्षमा प्रार्थना करता हूँ। भूलचूक माफ़ कीजिए। मुझे बहुत पीड़ा हो रही थी कि मुझसे आपकी रचना भूल गई। अब उसे आपके आदेशानुसार ही काम में लाऊँगा। 11वीं अंक छप चुका और 12वां छपने लगा। मैं कोशिश करूँगा कि इसमें आपकी चीज़ चली जाए। नहीं तो प्रथमांक में ज़रूर। किंतु आपकी आज्ञा की प्रतीक्षा करूँगा।

    —शिव

    कार्यालय की भूल को सहज भाव से अपने ऊपर ओढ़कर इतनी निरीह विनम्रता से खेद प्रकट करनेवाले को आज 'गांधीवादी गिलगिली विनम्रता' का शिकार ही कहा जाएगा। परंतु मुझे तो इस पत्र के प्रत्येक शब्द के पीछे उनकी सौम्य, सरल और अकिंचन मूर्ति ही उभरती दिखाई दी। वह इतनी विशाल थी कि उसके उत्तुंग शिखर के सामने मैं क्षुद्रातिक्षुद्र बौना होकर रह गया। मुझे उनके पास रहने का सौभाग्य कभी नहीं मिला। दूर से ही एक बुज़ुर्ग के रूप में उन्हें देखता रहा। लेकिन यह पत्र पाकर तो जैसे मैं लाज से गढ़ ही गया। कहाँ मेरा तामसिक अहम् और कहाँ यह सात्विक विनम्रता।

    लेकिन इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि उनके भीतर उष्णता थी ही नहीं। वह जितने स्नेहिल थे, उतने सजग भी थे। और जो सजग है उसमें निराकरण और निषेध की शक्ति निश्चय ही होती है। अभी उस दिन एक मित्र बता रहे थे कि अयोग्य की स्पर्धा से वह अत्यंत बेचैन हो उठते थे। ऐसे व्यक्तियों की कभी कमी नहीं रही जो अपने भीतर शून्य होने पर भी सब-कुछ का दावा पेश करते हैं और फिर साहित्य के बाज़ार में अपना सिक्का चलाना भी चाहते हैं। ऐसे ही एक व्यक्ति को लेकर मेरे मित्र ने उन्हें अत्यंत क्षुब्ध होते देखा। ऊपर के पत्र का जैसे नितांत विपरीत रूप हो। मित्र के वर्णन पर से मैं उस मूर्तिमान क्षुब्धता की कल्पना कर सकता हूँ। हमारे प्राचीन साहित्य में शिव एक अद्भुत देवता के रूप में कल्पित किए गए हैं। वह देवा-धिदेव हैं, शिवशंकर है, स्मशानवासी, अत्यंत अकिंचन और निरीह हैं। भोले इतने कि सहज ही कोई उनको ठग सकता है। लेकिन रुद्र भी वही हैं। उनके मस्तक का तीसरा नेत्र जब खुल जाता है, तो सब-कुछ भस्म होकर ही रहता है। वह मरघटवासी, औघड़दानी तांडव नृत्य करना भी जानता है। विश्व की रक्षा के लिए ही यह महानाश का रास रचाता है, जैसे उसके प्रेम और कल्याण की कोई सीमा नहीं है, वैसे ही उसकी विनाशक शक्ति की कोई थाह नहीं है। निर्माण के लिए विनाश अनिवार्य है।

    आचार्य शिवपूजन सहाय उसी देवाधिदेव महादेव भोले बाबा शिवशंकर का प्रतीक हैं। अभी दो-तीन वर्ष पूर्व जब पटना में उनके दर्शन किए थे, तो वह बिहार राष्ट्रभाषा परिषद के भवन के एक बरामदे में एक बहुत बड़ी मेज़ के सामने ढेरों पुस्तकों और पत्रिकाओं के पीछे धँसे हुए बैठे थे। हमें देखकर दृष्टि उठाई और फिर उस अपार ज्ञान भंडार के नीचे से ऐसे उठे मानो कह रहे हों, आप मुझे खोज रहे हैं न; मैं यहाँ हूँ, इस कुर्सी के भीतर।

    लेकिन कुछ क्षण ही बाद उनका अस्तित्व जैसे उस सारे बरामदे में ही नहीं, बल्कि उस सारे भवन के ऊपर छा गया हो। आज भी आँखों में उनका वह रूप उभर उभर उठता है। उनके पत्र स्मृति-पटल पर अंकित हो जाते हैं। आज के मुखर युग में जहाँ स्पष्टवादिता धृष्टता और तिरस्कार की सीमा तक पहुँच गई है, जहाँ अहम् ही आत्मगौरव का आधार है, उनके लिए सचमुच ही कोई स्थान नहीं रह गया था। उन्होंने सतत संघर्ष किया। अपने लिए स्वयं स्थान बनाया, सम्मान भी यथेष्ट पाया, यद्यपि उस सम्मान के करनेवाले स्वयं ही अधिक सम्मानित हुए। लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं कि उन्होंने अपनी शूक्ष्म मतभेद दृष्टि और सजगता से जहाँ साहित्य के निर्माण और संपादन में ख्याति अजित की, वहाँ अपने सहज सौम्य स्वभाव के कारण असंख्य मित्र और भक्त भी पाए। उन्होंने अनेकानेक व्यक्तियों का निर्माण किया, उन्होंने संघर्षरत युग की चेतना मूर्त की, वह सचमुच साहित्य में जो कुछ भी सत्य, शिव और सुंदर है इसका इतिहास हैं।

    यह उस युग के प्रतीक थे जो अब बीत गया है लेकिन एक ऐसे नए युग की नींव डाल गया है जो तनिक-सी सजगता से भारत के गौरव को तेज प्रदान कर सकता है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : कुछ शब्द : कुछ रेखाएं (पृष्ठ 113)
    • रचनाकार : विष्णु प्रभाकर
    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

    ‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।

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