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विरह कौ अंग

wirah kau ang

वाजिद

वाजिद

विरह कौ अंग

वाजिद

और अधिकवाजिद

     

    कहियो जाय सलाम हमारी राम कूँ।
    नैण रहे झड़ लाय तुम्हारे नाम कूँ॥
    कमल गया कुमलाय कल्याँ भी जायसी।
    हरि हाँ वाजिद, इस बाड़ी में बहुरि न भँवरा आयसी॥

    चटक चांदणी रात बिछाया ढोलिया।
    भर भादव की रैण पपीहा बोलिया॥
    कोयल सबद सुणाय रामरस लेत है।
    हरि हाँ वाजिद, दाज्यो ऊपर लूण पपीहा देत है॥

    रैण सवाई बार पपीहा रटत है।
    ज्यूँ-ज्यूँ सुरिणे कान करेजा कटत है॥
    खानपान वाजिंद सहात न जीव रे।
    हरि हाँ, फूल भये सम सूल बिना वा पीव रे॥

    इक तो कारी रैण ऐन मनो सांपनी।
    दूजी चमकै बीजु डरावैं पापनी॥
    हरि, हाँ हूँ बलिजाऊँ मिलावो पीव कूँ।
    हरि हाँ, बिना नाथ के मिलै चैन नहिं जीव कूँ॥

    मोर करत अति सोर चमक रही बीजरी।
    जाको पीव बिदेस ताहि कहाँ तीज री॥
    बदन मलिन मन सोच खान नहिं खाति है।
    हरि हाँ, वाजिद, अति उनमन तन छीणर हति इह भांति है॥

    पंछी एक संदेह कहो उस पीव सूँ।
    बिरहनि है बेहाल जायेगी जीव सूँ॥
    सींचनहार सुदूर, सूक भई लाकरी।
    हरि हाँ, वाजिद, घर ही में वन कियो वियोगनि बापरी।

    बालम बस्यो विदेस भयावह भौन है।
    सोवै पाँव पसार जु ऐसी कौन है॥
    अति ही कठिन यह रैण बीतती जीव कूँ।
    हरि हाँ, वाजिद, कोई चतुर सुजान कहै जाय पीव कूँ।

    पीव बस्या परदेस कि जोगन मैं भई।
    उनमनि मुद्रा धार फकीरी मैं लई॥
    ढूँढ्या सब संसार क अलख जगाइया।
    हरि हाँ, वाजिद, वह सूरत वह पीव नहिं पाइया॥

    पत्री हू हम पास न आई रावरी।
    दृगन बहै बहु नीर कहैं सब बावरी॥
    कौन जिये में जिये हानि है नेह में।
    हरि हाँ, निसदिन, तलफै प्राण रहै क्यूँ देह में॥

    जब तें कीनो गौन भौन नहिं भावही।
    भई छमासी रैण नींद नहिं आवही॥
    मीत, तुम्हारी चीत रहत है जीव कूँ।
    हरि हाँ, वाजिद, वो दिन कैसो होइ मिलौं हरि पीव कूँ॥

    काजल तिलक तमोल तुमारो नाम है।
    चोवा चंदन अगर इसी का काम है॥
    हार हमेल सिंगार न सोहैं राखड़ी।
    हरि हाँ, वाजिद, जब जिव लागै पीव और क्यूँ आखड़ी॥

    कहिये सुणिये राम और नहिं चित्त रे।
    हरि चरणन को ध्यान सु धरिये नित्त रे॥
    जीव बिलंब्या पीव दुहाई राम की।
    हरि हाँ, सुख संपति वाजिद कहो किस काम की॥

    तुमहि बिलोकत नैण भई हूँ बावरी।
    झोरी डंड भभूत पगन दोऊ पाँवरी॥
    कर जोगण को भेष सकल जग डोलिहूँ।
    वाजिद, ऐसो मेरो नेम राम मुख बोलिहूँ॥

    स्रोत :
    • पुस्तक : संत-सुधा-सार (पृष्ठ 554)
    • संपादक : वियोगी हरि
    • रचनाकार : वाजिद
    • प्रकाशन : सस्ता साहित्य मंडल, प्रकाशन
    • संस्करण : 1953

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