मतै बयजो मोह की धारा रे हंसा
matai bayjo moh kii dhaara re ha.nsa
मतै बयजो मोह की धारा रे हंसा।
झूठा है संसारा रे हंसा॥
झूठी गेह देह धन धरणी झूठो सकल पसारा।
झूठी, अरधंगी न तोहैं भरमायो नहीं उतरन दे पारा रे हंसा॥
काम क्रोध कछ मछ बसत है लोभ मगर खावे हाड़ा।
अहंकार की लहर जो आवे मद का उड़त फुवारा रे हंसा॥
दुरमति दोय त भव जल गंदलो कपट भंवर फेरा फेरा।
आसा तरसणा की कांजी बहत है पीवो सोई बीमारा रे हंसा॥
खोजी खेयटिया ये नाव चढ़ै रे सादु ये सब से है न्यारा।
कहे गुरु 'सिंगा' सुणो भई सादु डूब्या मृढ़ गँवारा रे हंसा॥
- पुस्तक : निमाड़ के संतकवि सिंगाजी (पृष्ठ 34)
- संपादक : रमेशचंद्र गंगराड़े
- रचनाकार : संत सिंगाजी
- प्रकाशन : हिंदी साहित्य भंडार, लखनऊ
- संस्करण : 1966
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