चिंतामणि कौ अंग
chi.ntaama.na.i kau a.ng
टेढ़ी पगड़ी बाँध झरोखा झाँकते।
ताता तुरग पिलाण चहूँटे डाकते॥
लारे चढ़ती फौज नगारा बाजते।
वाजिंद, वे नर गये विलाप सिंह ज्यूँ गाजते॥
दो-दो दीपक जोय सु मंदिर पोढ़ते।
नारी सेतीं नेह पलक नहीं छोड़ते॥
तेल फुलेल लगाय क काया चाम की।
हरि हाँ, वाजिद, मर्द गर्द मिल गये दुहाई राम की॥
सिर पचरंगी पाग क जामां जरकसी।
हाथों ढाल कमाण कमर में तरकसी।
जो घर चंगा नारि दिखावे आरसी।
हरि हाँ, वाजिद, वे नर चले मसांण पढ़ंता फारसी॥
घड़ी-घड़ी घड़ियल पुकार्या कहत है।
आव गई सब बीत अल्पसी रहत है॥
सोवे कहाँ अचेत जग जप पीव रे।
हरि हाँ, वाजिद, जलणा आज कि काल बटाऊ जीव रे॥
सिर पर लंबा केस चले गज चालसी।
हाथ गह्यां समसेर ढलकती ढाल सी॥
एता यह अभिमान कहाँ ठहराहिंगे।
हरि हाँ, वाजिंद, ज्यूँ तीतर कूँ बाज झपट ले जाहिंगे॥
पातशाह के सेझ पथरण पाट का।
हीरां जड्या जडावक पाया खाट का॥
हुरमां खड़ी हजूरि करति है बंदगी।
हरि हाँ, बिना भज्या भगवान पड़ेगा गंदगी॥
कारीगर कर्तार क हूंदर हद किया।
दस दरवाज़ा राख शहर पैदा किया॥
नखसिख महल बनायक दीपक जोड़िया।
हरि हाँ, भीतर भरी भँगार क ऊपर रंग दिया॥
मेटै पुन्न की रेख क दौड़े पाप नें।
साला न्यौत जिमाय धका दे बाप नें॥
करै नारि की भीड़ गालि दे बहन कूँ।
हरि हाँ, वाजिद, सो नर का जाय ठौर नहीं रहन कूँ॥
- पुस्तक : संत-सुधा-सार (पृष्ठ 560)
- संपादक : वियोगी हरि
- रचनाकार : वाजिद
- प्रकाशन : सस्ता साहित्य मंडल, प्रकाशन
- संस्करण : 558
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