शेख़ुल हिंद मौलाना हुसैन अहमद मदनी एक इतिहासपुरुष थे−तारीख़ी इंसान थे, हदीस−इस्लामी धर्मशास्त्र के विश्वविख्यात विद्वान् थे, देश को सबसे महान् मुस्लिम शिक्षा-संस्था दारुल उलूम देवबंद के प्रिंसिपल थे, वे जीते जी शहीद थे, प्राचार्य-संत थे, संक्षेप में, एक महान व्यक्तित्व−एक ऊँची शख़्सियत थे, पर उनकी ज़िंदगी के इंसानी पहलू इतने मुलायम और मनोरम थे कि उनके पास बैठकर लगता था कि मैं चटाई पर नहीं, उनकी गोद में बैठा हूँ। ओह, कितने मीठे, कितने प्यारे, कितने भले और कितने भोले इंसान थे वे!
यह कौन है? ताँगा जा रहा है और उसमें बैठे हैं एक बुज़ुर्ग। ताँगा दुकान के सामने से गुज़रता है और दुकानदार अपनी गद्दी पर खड़ा होकर उन्हें सलाम करता है। यूँ ही ताँगा चलता रहता है, लोग उठकर सलाम करते रहते हैं। जवाब में सबको बड़प्पन से ऐंठता गर्दन का झटका नहीं, प्यार-मोहब्बत भरा सलाम मिलता रहता है। यह कौन है, जिसके सामने झुककर इतने लोग सुख पाते हैं, जैसे उन्होंने अभी-अभी कोई सत्कर्म किया हो? यही हैं मौलाना मदनी−हरेक के लिए अपने।
यही कहूँ, यहीं थे मौलाना मदनी, जो अब नहीं हैं, वे अपनी जगह एक इंसान थे और इंसानों से यह दुनिया भरी है, पर यह एक ऐतिहासिक सचाई है कि उनकी जगह आज ख़ाली है और सदा-सदा तक ख़ाली ही रहेगी−उसे भरने वाला कोई नहीं है।
1630 का आंदोलन पूरी तेज़ी पर आने लग रहा था और जगह-जगह विदेशी कपड़ों की दुकानों पर पिकेटिंग शुरू हो रही थी। स्वर्गीय भाई आनंद प्रकाश बेचैन थे कि देवबंद में भी विदेशी कपड़े पर पिकेटिंग शुरू हो, पर हम लोगों से शराब का पिकेटिंग ही नहीं संभल रहा था और कभी-कभी पूरे दिन भाई मामचंद जैन को अकेले वहाँ खड़े रहना पड़ता था। भूखे-प्यासे उनका मुँह सूख जाता और पैर भारी हो जाते, पर अपनी अखंड निष्ठा के बल वे खड़े रहते, क्योंकि उन्हें बहलाने के लिए कोई दूसरा स्वयं सेवक ही न मिल पाता! फिर शराब की तो एक दुकान थी, पर कपड़े का तो पूरा का पूरा बाज़ार था।
उसके लिए 80 स्वयंसेवकों की आवश्यकता थी। इन्हें जुटाने का ज़िम्मा मैंने लिया और देहातों में जलसों की झड़ी बाँध दी। कुछ ही दिनों में 80 स्वयं सेवक इकट्ठे हो गए।
सत्याग्रह आश्रम में रखकर हमने उन्हें ट्रेंड किया कि वे किस तरह दुकान के सामने खड़े रहें, किस तरह ग्राहक से बातें करें और जब वह न माने, तो किस तरह दुकान के सामने लेट जाएँ। यह भी कि लाठी चार्ज हो, तो किस तरह उसे झेलें और गिरफ़्तारी हो, तब किस तरह जाएँ!
तय हुआ कि पहले दिन स्वयंसेवक पेट्रोलिंग करें−दुकान पर खड़े न होकर बाज़ार में घूमते और विदेशी वस्त्र-विरोधी नारे लगाते रहें, दूसरे दिन से बाक़ायदा पिकेटिंग शुरू हो। मैंने एक जलूस के साथ स्वयंसेवकों को बाज़ार में घुमाया और उन्हें टोलियों में बाँटकर चला आया। ऐसे नारे लगे कि वातावरण जोश से भर गया और बजाजों के दिल हिल गए, पर शाम को नक़्शा एकदम बदला हुआ था।
“पंडितजी! मैं मुसलमान बजाज की दुकान पर पिकेटिंग नहीं करूँगा।”
“क्यों, क्या बात है?”
“हममें मरने की ताक़त नहीं है।”
धीरे-धीरे बात खुली। एक छोटे से क़द के मुसलमान बजाज थे। नाम तो ख़ुदा मालूम क्या था उनका, पर सब उन्हें चिड़िया बजाज कहा करते थे। दिन में जो भी स्वयं सेवक उनकी दुकान के सामने से गुज़रा, उन्होंने उसे भैया-बेटा कहकर दुकान में बुलाया और एक तेज़-चमचमाता छुरा दिखाया “भैया, कल जो भी वालंटियर किसी मुसलमान बजाज की दुकान पर खड़ा होगा, उसके पेट में यह छुरा भोंक दिया जाएगा। अँग्रेज़ कलक्टर ने कह दिया है कि हम न किसी को गिरफ़्तार करेंगे, न मुक़दमा चलाएगे। तुम्हें भला आदमी समझकर मैंने यह बात बता दी है। कोई और कहीं खड़ा हो, तुम मुसलमान की दुकान पर अपनी ड्यूटी मत लगाना।”
राम ने श्याम से कहा, इसने उससे। सब स्वयंसेवकों में यह बात फैल गई। गाँवों के सीधे-सादे अनपढ़ नवयुवक डर गए और यही डर रात में हमारे सामने आया−“पंडितजी, मैं मुसलमान बजाज की दुकान पर पिकेटिंग नहीं करूँगा।”
80 आदमियों ने दिनभर बाज़ारों में दहाड़-दहाड़कर ऐलान किया है कि कल से पिकेटिंग होगा और किसी तरह का कपड़ा नहीं बिकने दिया जाएगा, पर इस स्थिति में पिकेटिंग कैसे हो? बड़ी गहरी गाँठ है, पर यह खुले कैसे?
रात में 10 बजे मैं मौलाना मदनी के घर पहुँचा। वे कुछ लोगों के साथ बैठे बातें कर रहे थे। मैने अपनी बात कही। वे गंभीर हो गए। मौलवी ज़ौर गुल भी वहाँ बैठे थे। बोले−“मुसलमानों की दुकानों पर पिकेटिंग मत करो। मैं आज ही दिल्ली से आया हूँ, वहाँ भी यही हो रहा है।”
मौलाना ने मेरी तरफ़ देखा, तो मैंने कहा−“मैं तो ऐसा कर नहीं सकता, पर आप इसे मुनासिब समझते हों, तो मैं कल यह ऐलान करा दूँगा कि पिकेटिंग के इंचार्ज मौलाना मदनी बनाए गए हैं। इसके बाद भी काम मैं करता रहूँगा, पर नाम और हुक्म आपका रहेगा।”
इसके लिए कोई तैयार नहीं हुआ और गाँठ ज्यों की त्यों रही। ऊब कर मैंने कहा−”तो फिर राह कहाँ है हज़रत?”
मौलाना बोले−“आप ही बताइए राह, मैं तो आपका वालंटियर हूँ।”
जाने मुझे क्या हुआ कि मेरे फूटे मुँह से निकला−“मुश्किल तो यही है कि आप खुले आम झूठ बोलते हैं!”
कहने को कह तो गया, पर बोझ इतना पड़ा कि आँखें उठाए न उठीं। तभी मौ० जौरगुल के सरहद्दी पंजे ने मेरा गला दबाया और नरसिंहे जैसी आवाज़ में कहा−“ओः शाला, हम तुम्हें ठीक करेगा!”
मौलाना की आँखों में गर्मी आई कि शोरगुल हटे। मैंने सकुचाकर मौलाना की तरफ़ देखा, तो वे हाथ जोड़े हुए थे। एक सपाके में मेरे हाथ उनके पैरों से जा लगे। बोले−“जौरगुल साहब की बात के लिए आप मुझे माफ करें और इसे सच मानें कि मैं आपका वालंटियर हूँ।”
उठते-उठते मैंने जौरगुल से बदला-सा लेते हुए हज़रत से कहा “देखिए, जो मैं कहूँगा, वह आपको करना पड़ेगा; क्योंकि आप वालंटियर हैं।”
बोले−“बेशक, लेकिन वालंटियर का बदन देखकर वज़न रखिएगा।”
हम सभी हँस पड़े। मैं चला आया। मेरी सफलता अब मेरी कल्पना की मुट्ठी में थी। दूसरे दिन अपने 80 वालंटियरों के साथ मैंने एक जलूस निकाला और कड़क कर ख़ुद ऐलान किया−“कुछ बजाज भाइयों ने हमारे वालंटियरों को छुरे दिखाए हैं और क़त्ल करने की धमकियाँ दी हैं। इसलिए कांग्रेस ने पिकेटिंग पर अपनी पूरी ताक़त लगाने का फ़ैसला किया है। अब कल या परसों से पिकेटिंग होगा और उसमें शेखुल हिंद मौलाना हुसैन अहमद साहब मदनी और उनके साथ दूसरे चुने हुए लोग भी हिस्सा लेंगे। मैं अपने छुरेबाज़ दोस्तों से दरख़ास्त करता हूँ कि वे अपने छुरों की धारें तेज़ रखें और तैयार रहें!”
ऐलान की गर्वीली गरज में नारों की गहरी गूँज से मिलकर शहीद कवि ओम प्रकाश की कविता तड़क उठी−“देखना है ज़ोर कितना बाज़ु-ए-क़ातिल में है।” लोगों के रोंगटे खड़े हो गए और शहर भर में एक सनसनी-सी फैल गई। हमारे स्वयंसेवकों की छातियाँ चौड़ी हो गईं, जनता की सहानुभूति हमारे साथ आ गई, बजाजों का बल हिल गया और चिड़िया साहब पर चारों ओर से ताने बरसने लगे। यह हमारी आंदोलनात्मक सफलता थी, पर असल में यह मेरा आंदोलन नहीं दाव था और उसकी बैठ तब पूरी हुई, जब दो-अढाई घंटे बाद ही ख़ान बहादुर शेख ज़ियाउलहक़ साहब, चेयरमैन म्यूनिसिपलबोर्ड बौखलाए हुए से मेरे मकान पर आए और बोले−“आप हमें इस क़स्बे में रहने देंगे या नहीं?”
मैंने बनकर जबाब दिया−“क़स्बे के राजा तो आप हैं। मैं तो एक ग़रीब आदमी हूँ। फिर आप ऐसी बात क्यों कहते हैं?”
तन्नाकर बोले−“शेख़ुल हिंद को आप बाज़ार में खड़ा करेंगे, तो हमारी इज़्ज़त तीन कौड़ी की रह जाएगी।”
मैंने और भी बनकर कहा−“तो पिकेटिंग के लिए आप अपना नाम दे दीजिए, मैं हज़रत का नाम काट दूँगा।”
अंत में निश्चय हुआ कि मैं तीन दिन तक पिकेटिंग प्रारंभ न करूँ और वे बजाजों को कांग्रेस की बात स्वेच्छा से मान लेने को तैयार करें। रात में उन्होंने मुसलमान बजाजों की मीटिंग की। शेख़ुल हिंद के बाज़ार में आकर खड़े होने की कल्पना से वे घबराए हुए तो थे ही ख़ान बहादुर की बात झट मान गए और दूसरे दिन 12 बजे तक ही हमारे स्वयं सेवकों ने उनके विदेशी कपड़ों की गठरियाँ बाँधकर, उनपर कांग्रेस की मुहर लगा दी। तब हम हिंदू बजाजों की ओर झुके और शाम तक वे भी मान गए।
अब हम फिर एक जुलूस थे। कलके जुलूस में जोश था, आज के जुलूस में ख़ुशी लहरा रही थी। कल दसियों नारे थे, आज एक ही नारा था−शेख़ुल हिंद मौलाना हुसैन अहमद साहब मदनी ज़िंदाबाद! जुलूस उनके घर पहुँचा, तो वे बाहर आ गए। स्वयंसेवकों ने उन्हें मालाएँ पहनाई और मैंने उनके पैर छुए, तो बोले−“मैंने क्या किया है?” मैंने कहा−“तो फिर किसने किया है?” और हम सब हँस पड़े।
जितने बड़े वे थे और जितना छोटा मैं था, उतने किन्हीं दूसरे बड़े छोटों के बीच यह घटना हुई होती, तो संबंध निश्चय ही खट्टे हो जाते, पर वे तो इसके बाद और भी मीठे हो गए थे। सचाई यह है कि वे बाहर से भीतर तक इतने मीठे थे, मीठे-मीठे थे कि उन्हें मीठा होने के लिए किसी प्रयत्न की आवश्यकता न थी।
हाँ, वे मीठे-मुलायम थे, पर इतने सख़्त कि पहाड़ शर्माएँ। तभी तो वे अपने राजनीतिक जीवन में शहीद की ज़िंदगी जी सके, पर मैं उसकी बात नहीं कहता मैं तो उनकी रोज़ाना ज़िंदगी की बात कह रहा हूँ। एक दिन उनसे बातें कर रहा था। झुककर, धीरे से कान में कुछ कहने की ज़रूरत पड़ी, तो मेरी दोनों कोहनियाँ उनके तकिये पर टिक गई। यही कोई दो-तीन मिनट में इस तरह रहा; पर हटा, तो कोहनियाँ सुन्न। यह उस तकिये की करामात थी। मोटे चमड़े से मढ़ा वह तकिया कि पत्थर भी मात। उँगली से दबाओ या अँगूठे से, कहीं साँस नहीं−पत्थर में साँस कहाँ?
बेवक़ूफ़ी देखिए मेरी। कहा−“हज़रत, आप इस पर किस तरह सिर रखते हैं? मैं कल एक मुलायम तकिया लाऊँगा आपके लिए?”
ज़रा गंभीर हो गए। तब बोले−“आप तकलीफ़ न करें। यहाँ यही ठीक है।”
मैं पीछे पड़ा रहा, तो धीरे से बोले−“ज़िंदगी ऐसी है कि जाने कब फ़िरंगी बुला ले। फिर वह अपने घर तो रखता नहीं, जेल में रखता है। वहाँ तकिया मिले न मिले, सिर ऊँचा रखने को इट तो मिल ही जाती है।” और धीरे से उठकर अपना बिस्तर दिखाया। गद्दा चादर के ऊपर एक मोटा-खुरदरा काला कंबल बिछा था। बोले−“इसपर सोता हूँ, क्योंकि यह जेल में भी मिलता है।”
सुनकर मेरा ख़ून जम गया। 1932 की जेलयात्रा में 2-3 दिन मैं भी कंबल पर सोया था और सिर के नीचे ईंट रखी थी। कितनी मुश्किल से कटे थे वे दिन, पर कितनी गहरी फ़क़ीरी है इस आदमी की कि शरीर से घर में रह कर भी मन से यह हमेशा जेल में ही रहता है। वाहरे देश के फ़क़ीर!
उनका घर मेहमानों की धर्मशाला थी। उनके दस्तरख़ान पर मैंने एक साथ 35 आदमियों तक को चाय पीते देखा है। ऐसा दिन तो उनकी ज़िंदगी में शायद आया ही नहीं, जब उनके घर कोई मेहमान न हो। शुरू में मैं उनके घर चाय नहीं पीता था और माथे पर चंदन की बिंदी लगाया करता था। उनके संबंधी क़ारी साहब इसे छूतछात की बात समझते थे और मुझे चिढ़ाया करते थे−“पंडितजी, चाय पीजिए।” एक दिन उन्होंने मौलाना साहब के सामने ही टंकोर दिया−“अरे पंडितजी, पीजिउ भी?”
मौलाना ने कड़ी आँखों से उनकी तरफ़ देखा, तो मैंने कहा−“हज़रत, ये मेरा चंदन देखकर समझते हैं कि मैं इनकी चाय पी लूँगा, तो मेरा जनेऊ टूट जाएगा, पर मेरा जनेऊ इतना मज़बूत है कि मैं इन्हें चूरन की गोली बनालूँ, तब भी न हिले। असल बात यह है कि मैं गोश्त नहीं खाता और यहाँ गोश्त पकता है।”
कुछ नहीं बोले, पर दूसरे दिन मैं गया, तो मेरी चाय गिलास में आई। मालूम हुआ कि मेरे लिए 2-3 बर्तन अलग मँगाए गए हैं और ख़ास हिदायतें हुई हैं। कितना ध्यान रखते थे वे दूसरों का, पर अपना ध्यान?
मौलाना महमूदुल-हसन साहब भी उन दिनों मक्का में थे और मौलाना मदनी भी। दोनों भारत में एक ज़बरदस्त क्रांति करने की धुन में लगे हुए थे, पर तब तक मौलाना-मदनी अँग्रेज़ों की आँख का काँटा न बने थे। मक्के का शासक शरीफ़ हुसैन कमज़ोर तो था ही। अँग्रेज़ों की कठपुतली भी था। वह मौलाना महमूदुल-हसन साहब को गिरफ़्तार करके अँग्रेज़ों को सौंप देने के लिए तैयार हो गया, पर इसकी ख़बर मौलाना के साथियों को मिल गई और उन्होंने उन्हें एक गुप्त स्थान में छिपा दिया। यह उन दिनों की बात है, जब पहला विश्वयुद्ध अपनी पूरी गर्मी पर था और अँग्रेज़ घबराए हुए थे।
पता पाने के लिए मौलाना मदनी गिरफ़्तार कर लिए गए और उन पर तरह-तरह के अत्याचार किए गए, पर न उनकी ज़बान खुली, न उनके चेहरे की सरलता पर कोई बल पड़ा। तब बड़े मौलाना के दो और साथी पकड़ लिए गए और उनका पता न बताने पर गोली मार देने का हुक्म दिया गया। वे दोनों गोली खाने को तैयार थे, पता बताने को नहीं, पर बड़े मौलाना ने इसे नहीं माना और वे बाहर आ गए−गिरफ़्तार हो गए। उनके गिरफ़्तार होते ही मौलाना मदनी जेल से छोड़ दिए गए; क्योंकि उनके ख़िलाफ़ फ़ाइल में तब कुछ था ही नहीं।
बड़े मौलाना और उनके दोनों साथियों को जद्दा भेज दिया गया। ओह रे, मौलाना मदनी! उन्होंने अपने साथियों से कहा कि यदि बड़े मौलाना को हिंदुस्तान भेजा जा रहा है, तो मैं जेल से बाहर रहने को तैयार हूँ; क्योंकि वहाँ उनकी सेवा करने वाले बहुत है, लेकिन उन्हें कहीं और रखा जा रहा हो, तो फिर मैं भी उनके साथ ही रहूँगा, ताकि उनकी उचित सेवा होती रहे!
जब यह ख़बर मिली कि उन्हें हिंदुस्तान नहीं ले जाया जा रहा है, तो उनकी गुरु भक्ति अपने गुरु के चरणों में पहुँचने के लिए बेचैन हो उठी और उन्होंने अपने कुछ साथियों से, जिनकी पहुँच सरकार तक थी, यह प्रचार कराया कि मौलाना मदनी का मक्के में रहना ख़तरनाक है ये ज़रूर यहाँ कुछ न कुछ गड़बड़ करेंगे, इसलिए इन्हें भी मौलाना महमूदुल हसन साहब के पास ही भेज दिया जाए। यह सूझ-समझ सफल हुई और मौलाना मदनी भी जद्दा भेज दिए गए। बाद में सब लोगों को माल्टा ले जाया गया, जहाँ वे बरसों नज़रबंद रहे और अपने गुरु की सेवा करते रहे।
वे शिमला-सम्मेलन में गाँधीजी के बुलावे पर क्रिप्स से मिलने गए−सुलह-समझौते की बातें हो रही थीं वहाँ। स्टेशन पर किसी पत्रकार ने बिना उन्हें बताए उनका फ़ोटो खींच लिया और वह ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ में छपा। मैंने उसे काटकर एक लिफ़ाफ़े में रख लिया और उनके पास पहुँचा−“हज़रत, आपका एक फ़ोटो खिंचवाना है, जब आप कहें मैं फ़ोटोग्राफ़र को बुलालूँ।”
वे टालते रहें, तैयार न हुए, तो मैंने लिफ़ाफ़ा खोलकर उनका फ़ोटोप्रिंट उन्हें दिखाया−“मत खिंचवाइए आप; मेरे पास तो है आपका फ़ोटो!” उसे देखकर मुस्कुराए। तब गंभीर होकर बोले−“इसे फाड़ दीजिए। आदमी की सूरत ना-पाएदार है, उसे क्या रखना?”
बहुत लोगों के तक़ाज़े पर उन्होंने एक किताब लिखी, जिसमें उनके गुरू मौलाना महमूदुल हसन साहब स्वर्गीय के राजनीतिक कारनामों का इतिहास है। इन कारनामों में मौलाना मदनी का पूरा हाथ रहा है, पर उस किताब में आपने अपनी चर्चा न आने देने की पूरी कोशिश की। उस दिन स्टेशन पर मिले, तो मैंने इसकी शिकायत की। बोले−“मैं अपनी क्या बात कहता?” और ज़रा रुककर बोले−‘मुझे तो आप जानते ही हैं।” मैंने उनकी तरफ़ देखा और देखता ही रह गया। किसी बालक ने भी इतनी सरलता से शायद ही कभी बात की हो। उन जैसी आत्मनिस्पृहता बस मैंने प्रेमचंदजी में ही देखी थी; और किसी में नहीं। इस आत्म-निस्पृहता ने ही उन्हें नेतागिरी के रोग से बचाए रखा। सचाई यह है कि वे राजनीतिज्ञ नहीं, संत थे−हाँ युगदर्शी संत। वे जब तब, जिस किसी का विश्वास कर लेते थे, यह आधी सचाई है। पूरी सचाई तो यह है कि धोखे और कपट को भाषा में कुछ सोच ही न सकते थे; उनका मानस जीवन की तामसिक दिशा से परिचित ही न था।
सांप्रदायिक दंगों का युग था और उनकी पृष्ठभूमि थी मस्जिदों के सामने बाजा। मुसलमान आग्रही थे कि मस्जिदों के सामने बाजा न बजे, क्योंकि इससे हमारे धर्म का अपमान होता है।
एक दिन मैंने पूछा−“आपकी इस बारे में क्या राय है?”
बोले−“मैं तो मौलवी हूँ, धर्म की बातों पर ही राय दे सकता हूँ।”
मैंने कहाँ−“हाँ, धर्म की दृष्टि से ही राय दीजिए।”
बोले−“पर यह धर्म की बात कहाँ हैं, यह तो जहालत (मूर्खता) है।”
मुझे मालूम है कि जिन्ना ने उन्हें ख़रीदने की कोशिश की थी और एक साहब ने देवबंद के कई चक्कर काटे थे, पर वे उधर मुँह तो क्या करते, उन्होंने कभी पैर भी नहीं किया। उनके बोल थे−“जिन्ना अँग्रेज़ है और मैं पैदाइशी तौर पर अँग्रेज़ का दुश्मन हूँ।”
उनसे कहा गया था−“आप एक बार उनसे मिले तो सही, वे अपने ही आदमी हैं और मुसलमानों की बहबूदी चाहते हैं।” और उन्होंने जवाब दिया था−“मैं काले और गोरे दोनों तरह के अँग्रेज़ों से नफ़रत करता हूँ। जिन्ना काला अँग्रेज़ है और अँग्रेज़ सिर्फ़ अपनी ही बहबूदी चाहता है, किसी दूसरे की नहीं।
जिन्ना साहब इससे बहुत झल्लाए थे और मुस्लिम-लीगी हलके आगबबूला हो उठे थे। आसाम से लौटते समय एक स्टेशन पर मौलाना की पगड़ी उतार ली गई थी, उन्हें गालियाँ दी गई थीं और भी बहुत कुछ हुआ था। इस घटना के तुरंत बाद मैं उनसे मिलने गया और उन्हें देखकर मेरा दिल भर आया। यहाँ तक कि हाथ न मिलाकर मैं उन्हें लिपट गया।
कुछ नहीं बोले। मेरे लिए चाय मँगाई। तब कहा−“यह तो सेवा का मेवा है।” मैं फिर भी गंभीर रहा, तो कहा−“गुंडा आदमी जब ख़रीद नहीं सकता, तो लूटना चाहता है।” फिर बोले−“पागल कुत्ते भौंकते हैं या काटते हैं।” मैंने देखा था, उस दिन भी वे सदा की तरह शांत और संतुलित थे। मान में इठलाना और अपमान में घबराना उनका स्वभाव न था।
जिन्ना के वास्तविक प्रतिद्वंदी मौलाना मदनी ही थे और उनका नाम सुनते दो जिन्ना अपनी पराजय महसूस करते थे, क्योंकि यह मौलाना ही थे, जिनके कारण देश का मौलवीवर्ग पूरा का पूरा जिन्ना विरोधी था और दिग्विजयी जिन्ना के सामने जिसने कभी भी अपना झंडा न झुकाया था!
उनका व्यक्तित्व एक अमर शेर का व्यक्तित्व था और उनकी विशिष्टता अनजाने आदमी को भी प्रभावित और प्रकाशित करती थी, पर उनके व्यक्तित्व की सबसे बड़ी चीज़ थी, उनकी आवाज़। एक अजीब मिठास था उसमें, जैसे कंदरा से स्वर्ग के किसी देवता की आवाज़ आ रही हो। पंडित जवाहरलाल नेहरू की आवाज़ भी हमारे देश की एक मास्टर पीस आवाज़ है। वह एक कवि और कलाकार की आवाज़ है, पर मौलाना की आवाज़ में निर्झर और सागर का अद्भुत संगम था; स्त्रीत्व का माधुर्य और पौरुष का गांभीर्य एक साथ उसमें जा मिले थे।
वे महान थे पर अपनी महानता का उन्हें आभास तक न था। वे अपने लिए कभी कुछ न चाहते थे। उनकी ज़िंदगी के दो चाँद-सूरज थे−ईश्वर और भारत! उनका जीवन इन्हें ही समर्पित था। वे समर्पित जीवन के उत्तम उदाहरण थे। 15 अगस्त 1647 को उन्होंने कहा था−“मेरा काम पूरा हो गया। ख़ुदा अब इज़्ज़त के साथ जब चाहे अपने क़दमों में बुला ले।”
6/11/1957 को राष्ट्रपति डाक्टर राजेंद्र प्रसाद दारुल उलूम में पधारे और मौलाना के प्रति अपना मान प्रकट किया। उनके साथ मौलाना को बैठे देखकर सोचा था—यह इतिहास-पुरुष के प्रति राष्ट्र-पुरुष की भाव-वंदना है और 5 दिसंबर 1958 को मौलाना इस संसार से चले गए; जैसे भगवान ने उनकी प्रार्थना सुन ली—“ख़ुदा जब चाहे इज़्ज़त के साथ अपने क़दमों बुला ले।”
उनकी प्यारी याद में मेरे लाख-लाख सलाम!
shekhul hind maulana husain ahmad madni ek itihas purush the−tarikhi insan the, hadis−islami dharmshastr ke wishwwikhyat widwan the, desh ko sabse mahan muslim shiksha sanstha darul ulum dewband ke prinsipal the, we jite ji shahid the, prachary sant the, sankshep mein, ek mahan wyaktitw−ek unchi shakhsiyat the, par unki zindagi ke insani pahlu itne mulayam aur manoram the ki unke pas baithkar lagta tha ki main chatai par nahin, unki god mein baitha hoon oh, kitne mithe, kitne pyare, kitne bhale aur kitne bhole insan the we!
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satyagrah ashram mein rakhkar hamne unhen trenD kiya ki we kis tarah dukan ke samne khaDe rahen, kis tarah gerahak se baten karen aur jab wo na mane, to kis tarah dukan ke samne let jayen ye bhi ki lathi charge ho, to kis tarah use jhelen aur giraftari ho, tab kis tarah jayen!
tay hua ki pahle din swyansewak petroling karen−dukan par khaDe na hokar bazar mein ghumte aur wideshi wastra wirodhi nare lagate rahen, dusre din se baqayda piketing shuru ho mainne ek jalus ke sath swyansewkon ko bazar mein ghumaya aur unhen toliyon mein bantakar chala aaya aise nare lage ki watawarn josh se bhar gaya aur bajajon ke dil hil gaye, par sham ko naqsha ekdam badla hua tha
“panDitji! main musalman bajaj ki dukan par piketing nahin karunga
kyon, kya baat hai?
hammen marne ki taqat nahin hai
dhire dhire baat khuli ek chhote se qad ke musalman bajaj the nam to khuda malum kya tha unka, par sab unhen chiDiya bajaj kaha karte the din mein jo bhi swayan sewak unki dukan ke samne se guzra, unhonne use bhaiya beta kahkar dukan mein bulaya aur ek tez chamachmata chhura dikhaya bhaiya, kal jo bhi walantiyar kisi musalman bajaj ki dukan par khaDa hoga, uske pet mein ye chhura bhonk diya jayega angrez kalaktar ne kah diya hai ki hum na kisi ko giraftar karenge, na muqadma chalayege tumhein bhala adami samajhkar mainne ye baat bata di hai koi aur kahin khaDa ho, tum musalman ki dukan par apni duty mat lagana
ram ne shyam se kaha, isne usse sab swyansewkon mein ye baat phail gai ganwon ke sidhe sade anpaDh nawyuwak Dar gaye aur yahi Dar raat mein hamare samne aya−panDitji, main musalman bajaj ki dukan par piketing nahin karunga
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raat mein 10 baje main maulana madni ke ghar pahuncha we kuch logon ke sath baithe baten kar rahe the maine apni baat kahi we gambhir ho gaye maulawi zaur gul bhi wahan baithe the bole−musalmanon ki dukanon par piketing mat karo main aaj hi dilli se aaya hoon, wahan bhi yahi ho raha hai ”
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iske liye koi taiyar nahin hua aur ganth jyon ki tyon rahi ub kar mainne kaha−to phir rah kahan hai hazrat?
maulana bole−ap hi bataiye rah, main to aapka walantiyar hoon
jane mujhe kya hua ki mere phute munh se nikla−mushkil to yahi hai ki aap khule aam jhooth bolte hain!
kahne ko kah to gaya, par bojh itna paDa ki ankhen uthaye na uthin tabhi mau० jaurgul ke sarhaddi panje ne mera gala dabaya aur narsinhe jaisi awaz mein kaha−oः shala, hum tumhein theek karega!
maulana ki ankhon mein garmi i ki shorgul hate mainne sakuchakar maulana ki taraf dekha, to we hath joDe hue the ek sapake mein mere hath unke pairon se ja lage bole−“jaurgul sahab ki baat ke liye aap mujhe maph karen aur ise sach manen ki main aapka walantiyar hoon
uthte uthte mainne jaurgul se badla sa lete hue hazrat se kaha dekhiye, jo main kahunga, wo aapko karna paDega; kyonki aap walantiyar hain
bole−beshak, lekin walantiyar ka badan dekhkar wazan rakhiyega
hum sabhi hans paDe main chala aaya meri saphalta ab meri kalpana ki mutthi mein thi dusre din apne 80 walantiyron ke sath mainne ek jalus nikala aur kaDak kar khu ailan kiya−kuchh bajaj bhaiyon ne hamare walantiyron ko chhure dikhaye hain aur qatl karne ki dhamkiyan di hain isliye kangres ne piketing par apni puri taqat lagane ka faisla kiya hai ab kal ya parson se piketing hoga aur usmen shekhul hind maulana husain ahmad sahab madni aur unke sath dusre chune hue log bhi hissa lenge main apne chhurebaz doston se darkhast karta hoon ki we apne chhuron ki dharen tez rakhen aur taiyar rahen!
ailan ki garwili garaj mein naron ki gahri goonj se milkar shahid kawi om parkash ki kawita taDak uthi−dekhana hai zor kitna bazu e qatil mein hai logon ke rongte khaDe ho gaye aur shahr bhar mein ek sansani si phail gai hamare swyansewkon ki chhatiyan chauDi ho gain, janta ki sahanubhuti hamare sath aa gai, bajajon ka bal hil gaya aur chiDiya sahab par charon or se tane barasne lage ye hamari andolnatmak saphalta thi, par asal mein ye mera andolan nahin daw tha aur uski baith tab puri hui, jab do aDhai ghante baad hi khan bahadur shekh ziyaulhaq sahab, cheyarmain myunisipalborD baukhlaye hue se mere makan par aaye aur bole−ap hamein is qasbe mein rahne denge ya nahin?
mainne bankar jabab diya−qasbe ke raja to aap hain main to ek gharib adami hoon phir aap aisi baat kyon kahte hain?
tannakar bole−shekhul hind ko aap bazar mein khaDa karenge, to hamari izzat teen kauDi ki rah jayegi
mainne aur bhi bankar kaha−to piketing ke liye aap apna nam de dijiye, main hazrat ka nam kat dunga
ant mein nishchay hua ki main teen din tak piketing prarambh na karun aur we bajajon ko kangres ki baat swechchha se man lene ko taiyar karen raat mein unhonne musalman bajajon ki miting ki shekhul hind ke bazar mein aakar khaDe hone ki kalpana se we ghabraye hue to the hi khan bahadur ki baat jhat man gaye aur dusre din 12 baje tak hi hamare swayan sewkon ne unke wideshi kapDon ki gathriyan bandhakar, unpar kangres ki muhr laga di tab hum hindu bajajon ki or jhuke aur sham tak we bhi man gaye
ab hum phir ek julus the kalke julus mein josh tha, aaj ke julus mein khushi lahra rahi thi kal dasiyon nare the, aaj ek hi nara tha−shekhul hind maulana husain ahmad sahab madni zindabad! julus unke ghar pahuncha, to we bahar aa gaye swyansewkon ne unhen malayen pahnai aur mainne unke pair chhue, to bole−“mainne kya kiya hai? mainne kaha−to phir kisne kiya hai? aur hum sab hans paDe
jitne baDe we the aur jitna chhota main tha, utne kinhin dusre baDe chhoton ke beech ye ghatna hui hoti, to sambandh nishchay hi khatte ho jate, par we to iske baad aur bhi mithe ho gaye the sachai ye hai ki we bahar se bhitar tak itne mithe the, mithe mithe the ki unhen mitha hone ke liye kisi prayatn ki awashyakta na thi
han, we mithe mulayam the, par itne sakht ki pahaD sharmayen tabhi to we apne rajanaitik jiwan mein shahid ki zindagi ji sake, par main uski baat nahin kahta main to unki rozana zindagi ki baat kah raha hoon ek din unse baten kar raha tha jhukkar, dhire se kan mein kuch kahne ki zarurat paDi, to meri donon kohaniyan unke takiye par tik gai yahi koi do teen minat mein is tarah raha; par hata, to kohaniyan sunn ye us takiye ki karamat thi mote chamDe se maDha wo takiya ki patthar bhi mat ungli se dabao ya anguthe se, kahin sans nahin−patthar mein sans kahan?
bewaqufi dekhiye meri kaha−hazrat, aap is par kis tarah sir rakhte hain? main kal ek mulayam takiya launga aapke liye?
zara gambhir ho gaye tab bole−ap taklif na karen yahan yahi theek hai
main pichhe paDa raha, to dhire se bole−zindgi aisi hai ki jane kab firangi bula le phir wo apne ghar to rakhta nahin, jel mein rakhta hai wahan takiya mile na mile, sir uncha rakhne ko it to mil hi jati hai aur dhire se uthkar apna bistar dikhaya gadda chadar ke upar ek mota khurdara kala kambal bichha tha bole−ispar sota hoon, kyonki ye jel mein bhi milta hai
sunkar mera khoon jam gaya 1932 ki jelyatra mein 2 3 din main bhi kambal par soya tha aur sir ke niche rint rakhi thi kitni mushkil se kate the we din, par kitni gahri faqiri hai is adami ki ki sharir se ghar mein rah kar bhi man se ye hamesha jel mein hi rahta hai wahre desh ke fak़i!
unka ghar mehmanon ki dharmshala thi unke dastarkhan par mainne ek sath 35 adamiyon tak ko chay pite dekha hai aisa din to unki zindagi mein shayad aaya hi nahin, jab unke ghar koi mehman na ho shuru mein main unke ghar chay nahin pita tha aur mathe par chandan ki bindi lagaya karta tha unke sambandhi qari sahab ise chhutchhat ki baat samajhte the aur mujhe chiDhaya karte the−“panDitji, chay pijiye ”ek din unhonne maulana sahab ke samne hi tankor diya−are panDitji, pijiu bhee?
maulana ne kaDi ankhon se unki taraf dekha, to mainne kaha−hazrat, ye mera chandan dekhkar samajhte hain ki main inki chay pi lunga, to mera janeu toot jayega, par mera janeu itna mazbut hai ki main inhen churan ki goli banalun, tab bhi na hile asal baat ye hai ki main gosht nahin khata aur yahan gosht pakta hai
kuch nahin bole, par dusre din main gaya, to meri chay gilas mein i malum hua ki mere liye 2 3 bartan alag mangaye gaye hain aur khas hidayten hui hain kitna dhyan rakhte the we dusron ka, par apna dhyan?
maulana mahmudul hasan sahab bhi un dinon makka mein the aur maulana madni bhi donon bharat mein ek zabardast kranti karne ki dhun mein lage hue the, par tab tak maulana madni angrezon ki ankh ka kanta na bane the makke ka shasak sharif husain kamzor to tha hi angrezon ki kathputli bhi tha wo maulana mahmudul hasan sahab ko giraftar karke angrezon ko saump dene ke liye taiyar ho gaya, par iski khabar maulana ke sathiyon ko mil gai aur unhonne unhen ek gupt sthan mein chhipa diya ye un dinon ki baat hai, jab pahla wishwayuddh apni puri garmi par tha aur angrez ghabraye hue the
pata pane ke liye maulana madni giraftar kar liye gaye aur un par tarah tarah ke attyachar kiye gaye, par na unki zaban khuli, na unke chehre ki saralta par koi bal paDa tab baDe maulana ke do aur sathi pakaD liye gaye aur unka pata na batane par goli mar dene ka hukm diya gaya we donon goli khane ko taiyar the, pata batane ko nahin, par baDe maulana ne ise nahin mana aur we bahar aa gaye−giraftar ho gaye unke giraftar hote hi maulana madni jel se chhoD diye gaye; kyonki unke khilaf file mein tab kuch tha hi nahin
baDe maulana aur unke donon sathiyon ko jadda bhej diya gaya oh re, maulana madni! unhonne apne sathiyon se kaha ki yadi baDe maulana ko hindustan bheja ja raha hai, to main jel se bahar rahne ko taiyar hoon; kyonki wahan unki sewa karne wale bahut hai, lekin unhen kahin aur rakha ja raha ho, to phir main bhi unke sath hi rahunga, taki unki uchit sewa hoti rahe!
jab ye khabar mili ki unhen hindustan nahin le jaya ja raha hai, to unki guru bhakti apne guru ke charnon mein pahunchne ke liye bechain ho uthi aur unhonne apne kuch sathiyon se, jinki pahunch sarkar tak thi, ye parchar karaya ki maulana madni ka makke mein rahna khatarnak hai ye zarur yahan kuch na kuch gaDbaD karenge, isliye inhen bhi maulana mahmudul hasan sahab ke pas hi bhej diya jaye ye soojh samajh saphal hui aur maulana madni bhi jadda bhej diye gaye baad mein sab logon ko malta le jaya gaya, jahan we barson nazarband rahe aur apne guru ki sewa karte rahe
we shimla sammelan mein gandhiji ke bulawe par krips se milne gaye−sulah samjhaute ki baten ho rahi theen wahan station par kisi patrakar ne bina unhen bataye unka photo kheench liya aur wo hindustan taims mein chhapa mainne use katkar ek lifafe mein rakh liya aur unke pas pahuncha−hazrat, aapka ek photo khinchwana hai, jab aap kahen main photographer ko bulalun
we talte rahen, taiyar na hue, to mainne lifafa kholkar unka fotoprint unhen dikhaya−mat khinchwaiye aap; mere pas to hai aapka photo! use dekhkar muskuraye tab gambhir hokar bole−ise phaD dijiye adami ki surat napayedar hai, use kya rakhna?
bahut logon ke taqaze par unhonne ek kitab likhi, jismen unke guru maulana mahmudul hasan sahab saurgiyah ke rajanaitik karnamon ka itihas hai in karnamon mein maulana madni ka pura hath raha hai, par us kitab mein aapne apni charcha na aane dene ki puri koshish ki us din station par mile, to mainne iski shikayat ki bole−“main apni kya baat kahta? aur zara rukkar bole−mujhe to aap jante hi hain ” mainne unki taraf dekha aur dekhta hi rah gaya kisi balak ne bhi itni saralta se shayad hi kabhi baat ki ho un jaisi atmnisprihta bus mainne premchandji mein hi dekhi thee; aur kisi mein nahin is atmnisprihta ne hi unhen netagiri ke rog se bachaye rakha sachai ye hai ki we rajnitigya nahin, sant the−han yugdarshi sant we jab tab, jis kisi ka wishwas kar lete the, ye aadhi sachai hai puri sachai to ye hai ki dhokhe aur kapat ko bhasha mein kuch soch hi na sakte the; unka manas jiwan ki tamasik disha se parichit hi na tha
samprdayik dangon ka yug tha aur unki prishthabhumi thi masjidon ke samne baja musalman agrahi the ki masjidon ke samne baja na baje, kyonki isse hamare dharm ka apman hota hai ek din mainne puchha−apaki is bare mein kya ray hai?
bole−main to maulawi hoon, dharm ki baton par hi ray de sakta hoon
mainne kahan−han, dharm ki drishti se hi ray dijiye
bole−par ye dharm ki baat kahan hain, ye to jahalat (murkhata) hai
mujhe malum hai ki jinna ne unhen kharidne ki koshish ki thi aur ek sahab ne dewband ke kai chakkar kate the, par we udhar munh to kya karte, unhonne kabhi pair bhi nahin kiya unke bol the−jinna angrez hai aur main paidaishi taur par angrez ka dushman hoon
unse kaha gaya tha−ap ek bar unse mile to sahi, we apne hi adami hain aur musalmanon ki bahbudi chahte hain aur unhonne jawab diya tha−main kale aur gore donon tarah ke angrezon se nafar karta hoon jinna kala angrez hai aur angrez sirf apni hi bahbudi chahta hai, kisi dusre ki nahin
jinna sahab isse bahut jhallaye the aur muslim ligi halke agabbula ho uthe the asam se lautte samay ek station par maulana ki pagDi utar li gai thi, unhen galiyan di gai theen aur bhi bahut kuch hua tha is ghatna ke turant baad main unse milne gaya aur unhen dekhkar mera dil bhar aaya yahan tak ki hath na milakar main unhen lipat gaya
kuch nahin bole mere liye chay mangai tab kaha−yah to sewa ka mewa hai main phir bhi gambhir raha, to kaha−“gunDa adami jab kharid nahin sakta, to lutna chahta hai ” phir bole−pagal kutte bhaunkte hain ya katte hain mainne dekha tha, us din bhi we sada ki tarah shant aur santulit the man mein ithlana aur apman mein ghabrana unka swbhaw na tha
jinna ke wastawik prtidwandi maulana madni hi the aur unka nam sunte do jinna apni parajay mahsus karte the, kyonki ye maulana hi the, jinke karan desh ka maulwiwarg pura ka pura jinna wirodhi tha aur digwijyi jinna ke samne jisne kabhi bhi apna jhanDa na jhukaya tha!
unka wyaktitw ek amar sher ka wyaktitw tha aur unki wishishtata anjane adami ko bhi prabhawit aur prakashit karti thi, par unke wyaktitw ki sabse baDi cheez thi, unki awaz ek ajib mithas tha usmen, jaise kandra se swarg ke kisi dewta ki awaz aa rahi ho panDit jawaharlal nehru ki awaz bhi hamare desh ki ek master pees awaz hai wo ek kawi aur kalakar ki awaz hai, par maulana ki awaz mein nirjhar aur sagar ka adbhut sangam tha; streetw ka madhurya aur paurush ka gambhirya ek sath usmen ja mile the
we mahan the par apni mahanta ka unhen abhas tak na tha we apne liye kabhi kuch na chahte the unki zindagi ke do chand suraj the−ishwar aur bharat! unka jiwan inhen hi samarpit tha we samarpit jiwan ke uttam udaharn the 15 august 1647 ko unhonne kaha tha−mera kaam pura ho gaya khuda ab izzat ke sath jab chahe apne qadmon mein bula le
6/11/1957 ko rashtrapti Daktar rajendr parsad darul ulum mein padhare aur maulana ke prati apna man prakat kiya unke sath maulana ko baithe dekhkar socha tha—yah itihas purush ke prati rashtra purush ki bhaw wandna hai aur 5 december 1958 ko maulana is sansar se chale gaye; jaise bhagwan ne unki pararthna sun li—khuda jab chahe izzat ke sath apne qadmon bula le ”
unki pyari yaad mein mere lakh lakh salam!
shekhul hind maulana husain ahmad madni ek itihas purush the−tarikhi insan the, hadis−islami dharmshastr ke wishwwikhyat widwan the, desh ko sabse mahan muslim shiksha sanstha darul ulum dewband ke prinsipal the, we jite ji shahid the, prachary sant the, sankshep mein, ek mahan wyaktitw−ek unchi shakhsiyat the, par unki zindagi ke insani pahlu itne mulayam aur manoram the ki unke pas baithkar lagta tha ki main chatai par nahin, unki god mein baitha hoon oh, kitne mithe, kitne pyare, kitne bhale aur kitne bhole insan the we!
ye kaun hai? tanga ja raha hai aur usmen baithe hain ek buzurg tanga dukan ke samne se guzarta hai aur dukanadar apni gaddi par khaDa hokar unhen salam karta hai yoon hi tanga chalta rahta hai, log uthkar salam karte rahte hain jawab mein sabko baDappan se ainthta gardan ka jhatka nahin, pyar mohabbat bhara salam milta rahta hai ye kaun hai, jiske samne jhukkar itne log sukh pate hain, jaise unhonne abhi abhi koi satkarm kiya ho? yahi hain maulana madni−harek ke liye apne
yahi kahun, yahin the maulana madni, jo ab nahin hain, we apni jagah ek insan the aur insanon se ye duniya bhari hai, par ye ek aitihasik sachai hai ki unki jagah aaj khali hai aur sada sada tak khali hi rahegi−use bharnewala koi nahin hai
1630 ka andolan puri tezi par aane lag raha tha aur jagah jagah wideshi kapDon ki dukanon par piketing shuru ho rahi thi saurgiyah bhai anand parkash bechain the ki dewband mein bhi wideshi kapDe par piketing shuru ho, par hum logon se sharab ka piketing hi nahin sambhal raha tha aur kabhi kabhi pure din bhai mamchand jain ko akele wahan khaDe rahna paDta tha bhukhe pyase unka munh sookh jata aur pair bhari ho jate, par apni akhanD nishtha ke bal we khaDe rahte, kyonki unhen bahlane ke liye koi dusra swayan sewak hi na mil pata! phir sharab ki to ek dukan thi, par kapDe ka to pura ka pura bazar tha
uske liye 80 swyansewkon ko awashyakta thi inhen jutane ka zimma mainne liya aur dehaton mein jalson ki jhaDi bandh di kuch hi dinon mein 80 swayan sewak ikatthe ho gaye
satyagrah ashram mein rakhkar hamne unhen trenD kiya ki we kis tarah dukan ke samne khaDe rahen, kis tarah gerahak se baten karen aur jab wo na mane, to kis tarah dukan ke samne let jayen ye bhi ki lathi charge ho, to kis tarah use jhelen aur giraftari ho, tab kis tarah jayen!
tay hua ki pahle din swyansewak petroling karen−dukan par khaDe na hokar bazar mein ghumte aur wideshi wastra wirodhi nare lagate rahen, dusre din se baqayda piketing shuru ho mainne ek jalus ke sath swyansewkon ko bazar mein ghumaya aur unhen toliyon mein bantakar chala aaya aise nare lage ki watawarn josh se bhar gaya aur bajajon ke dil hil gaye, par sham ko naqsha ekdam badla hua tha
“panDitji! main musalman bajaj ki dukan par piketing nahin karunga
kyon, kya baat hai?
hammen marne ki taqat nahin hai
dhire dhire baat khuli ek chhote se qad ke musalman bajaj the nam to khuda malum kya tha unka, par sab unhen chiDiya bajaj kaha karte the din mein jo bhi swayan sewak unki dukan ke samne se guzra, unhonne use bhaiya beta kahkar dukan mein bulaya aur ek tez chamachmata chhura dikhaya bhaiya, kal jo bhi walantiyar kisi musalman bajaj ki dukan par khaDa hoga, uske pet mein ye chhura bhonk diya jayega angrez kalaktar ne kah diya hai ki hum na kisi ko giraftar karenge, na muqadma chalayege tumhein bhala adami samajhkar mainne ye baat bata di hai koi aur kahin khaDa ho, tum musalman ki dukan par apni duty mat lagana
ram ne shyam se kaha, isne usse sab swyansewkon mein ye baat phail gai ganwon ke sidhe sade anpaDh nawyuwak Dar gaye aur yahi Dar raat mein hamare samne aya−panDitji, main musalman bajaj ki dukan par piketing nahin karunga
80 adamiyon ne dinbhar bazaron mein dahaD dahaDkar ailan kiya hai ki kal se piketing hoga aur kisi tarah ka kapDa nahin bikne diya jayega, par is sthiti mein piketing kaise ho? baDi gahri ganth hai, par ye khule kaise?
raat mein 10 baje main maulana madni ke ghar pahuncha we kuch logon ke sath baithe baten kar rahe the maine apni baat kahi we gambhir ho gaye maulawi zaur gul bhi wahan baithe the bole−musalmanon ki dukanon par piketing mat karo main aaj hi dilli se aaya hoon, wahan bhi yahi ho raha hai ”
maulana ne meri taraf dekha, to mainne kaha−main to aisa kar nahin sakta, par aap ise munasib samajhte hon, to main kal ye ailan kara dunga ki piketing ke inchaarj maulana madni banaye gaye hain iske baad bhi kaam main karta rahunga, par nam aur hukm aapka rahega
iske liye koi taiyar nahin hua aur ganth jyon ki tyon rahi ub kar mainne kaha−to phir rah kahan hai hazrat?
maulana bole−ap hi bataiye rah, main to aapka walantiyar hoon
jane mujhe kya hua ki mere phute munh se nikla−mushkil to yahi hai ki aap khule aam jhooth bolte hain!
kahne ko kah to gaya, par bojh itna paDa ki ankhen uthaye na uthin tabhi mau० jaurgul ke sarhaddi panje ne mera gala dabaya aur narsinhe jaisi awaz mein kaha−oः shala, hum tumhein theek karega!
maulana ki ankhon mein garmi i ki shorgul hate mainne sakuchakar maulana ki taraf dekha, to we hath joDe hue the ek sapake mein mere hath unke pairon se ja lage bole−“jaurgul sahab ki baat ke liye aap mujhe maph karen aur ise sach manen ki main aapka walantiyar hoon
uthte uthte mainne jaurgul se badla sa lete hue hazrat se kaha dekhiye, jo main kahunga, wo aapko karna paDega; kyonki aap walantiyar hain
bole−beshak, lekin walantiyar ka badan dekhkar wazan rakhiyega
hum sabhi hans paDe main chala aaya meri saphalta ab meri kalpana ki mutthi mein thi dusre din apne 80 walantiyron ke sath mainne ek jalus nikala aur kaDak kar khu ailan kiya−kuchh bajaj bhaiyon ne hamare walantiyron ko chhure dikhaye hain aur qatl karne ki dhamkiyan di hain isliye kangres ne piketing par apni puri taqat lagane ka faisla kiya hai ab kal ya parson se piketing hoga aur usmen shekhul hind maulana husain ahmad sahab madni aur unke sath dusre chune hue log bhi hissa lenge main apne chhurebaz doston se darkhast karta hoon ki we apne chhuron ki dharen tez rakhen aur taiyar rahen!
ailan ki garwili garaj mein naron ki gahri goonj se milkar shahid kawi om parkash ki kawita taDak uthi−dekhana hai zor kitna bazu e qatil mein hai logon ke rongte khaDe ho gaye aur shahr bhar mein ek sansani si phail gai hamare swyansewkon ki chhatiyan chauDi ho gain, janta ki sahanubhuti hamare sath aa gai, bajajon ka bal hil gaya aur chiDiya sahab par charon or se tane barasne lage ye hamari andolnatmak saphalta thi, par asal mein ye mera andolan nahin daw tha aur uski baith tab puri hui, jab do aDhai ghante baad hi khan bahadur shekh ziyaulhaq sahab, cheyarmain myunisipalborD baukhlaye hue se mere makan par aaye aur bole−ap hamein is qasbe mein rahne denge ya nahin?
mainne bankar jabab diya−qasbe ke raja to aap hain main to ek gharib adami hoon phir aap aisi baat kyon kahte hain?
tannakar bole−shekhul hind ko aap bazar mein khaDa karenge, to hamari izzat teen kauDi ki rah jayegi
mainne aur bhi bankar kaha−to piketing ke liye aap apna nam de dijiye, main hazrat ka nam kat dunga
ant mein nishchay hua ki main teen din tak piketing prarambh na karun aur we bajajon ko kangres ki baat swechchha se man lene ko taiyar karen raat mein unhonne musalman bajajon ki miting ki shekhul hind ke bazar mein aakar khaDe hone ki kalpana se we ghabraye hue to the hi khan bahadur ki baat jhat man gaye aur dusre din 12 baje tak hi hamare swayan sewkon ne unke wideshi kapDon ki gathriyan bandhakar, unpar kangres ki muhr laga di tab hum hindu bajajon ki or jhuke aur sham tak we bhi man gaye
ab hum phir ek julus the kalke julus mein josh tha, aaj ke julus mein khushi lahra rahi thi kal dasiyon nare the, aaj ek hi nara tha−shekhul hind maulana husain ahmad sahab madni zindabad! julus unke ghar pahuncha, to we bahar aa gaye swyansewkon ne unhen malayen pahnai aur mainne unke pair chhue, to bole−“mainne kya kiya hai? mainne kaha−to phir kisne kiya hai? aur hum sab hans paDe
jitne baDe we the aur jitna chhota main tha, utne kinhin dusre baDe chhoton ke beech ye ghatna hui hoti, to sambandh nishchay hi khatte ho jate, par we to iske baad aur bhi mithe ho gaye the sachai ye hai ki we bahar se bhitar tak itne mithe the, mithe mithe the ki unhen mitha hone ke liye kisi prayatn ki awashyakta na thi
han, we mithe mulayam the, par itne sakht ki pahaD sharmayen tabhi to we apne rajanaitik jiwan mein shahid ki zindagi ji sake, par main uski baat nahin kahta main to unki rozana zindagi ki baat kah raha hoon ek din unse baten kar raha tha jhukkar, dhire se kan mein kuch kahne ki zarurat paDi, to meri donon kohaniyan unke takiye par tik gai yahi koi do teen minat mein is tarah raha; par hata, to kohaniyan sunn ye us takiye ki karamat thi mote chamDe se maDha wo takiya ki patthar bhi mat ungli se dabao ya anguthe se, kahin sans nahin−patthar mein sans kahan?
bewaqufi dekhiye meri kaha−hazrat, aap is par kis tarah sir rakhte hain? main kal ek mulayam takiya launga aapke liye?
zara gambhir ho gaye tab bole−ap taklif na karen yahan yahi theek hai
main pichhe paDa raha, to dhire se bole−zindgi aisi hai ki jane kab firangi bula le phir wo apne ghar to rakhta nahin, jel mein rakhta hai wahan takiya mile na mile, sir uncha rakhne ko it to mil hi jati hai aur dhire se uthkar apna bistar dikhaya gadda chadar ke upar ek mota khurdara kala kambal bichha tha bole−ispar sota hoon, kyonki ye jel mein bhi milta hai
sunkar mera khoon jam gaya 1932 ki jelyatra mein 2 3 din main bhi kambal par soya tha aur sir ke niche rint rakhi thi kitni mushkil se kate the we din, par kitni gahri faqiri hai is adami ki ki sharir se ghar mein rah kar bhi man se ye hamesha jel mein hi rahta hai wahre desh ke fak़i!
unka ghar mehmanon ki dharmshala thi unke dastarkhan par mainne ek sath 35 adamiyon tak ko chay pite dekha hai aisa din to unki zindagi mein shayad aaya hi nahin, jab unke ghar koi mehman na ho shuru mein main unke ghar chay nahin pita tha aur mathe par chandan ki bindi lagaya karta tha unke sambandhi qari sahab ise chhutchhat ki baat samajhte the aur mujhe chiDhaya karte the−“panDitji, chay pijiye ”ek din unhonne maulana sahab ke samne hi tankor diya−are panDitji, pijiu bhee?
maulana ne kaDi ankhon se unki taraf dekha, to mainne kaha−hazrat, ye mera chandan dekhkar samajhte hain ki main inki chay pi lunga, to mera janeu toot jayega, par mera janeu itna mazbut hai ki main inhen churan ki goli banalun, tab bhi na hile asal baat ye hai ki main gosht nahin khata aur yahan gosht pakta hai
kuch nahin bole, par dusre din main gaya, to meri chay gilas mein i malum hua ki mere liye 2 3 bartan alag mangaye gaye hain aur khas hidayten hui hain kitna dhyan rakhte the we dusron ka, par apna dhyan?
maulana mahmudul hasan sahab bhi un dinon makka mein the aur maulana madni bhi donon bharat mein ek zabardast kranti karne ki dhun mein lage hue the, par tab tak maulana madni angrezon ki ankh ka kanta na bane the makke ka shasak sharif husain kamzor to tha hi angrezon ki kathputli bhi tha wo maulana mahmudul hasan sahab ko giraftar karke angrezon ko saump dene ke liye taiyar ho gaya, par iski khabar maulana ke sathiyon ko mil gai aur unhonne unhen ek gupt sthan mein chhipa diya ye un dinon ki baat hai, jab pahla wishwayuddh apni puri garmi par tha aur angrez ghabraye hue the
pata pane ke liye maulana madni giraftar kar liye gaye aur un par tarah tarah ke attyachar kiye gaye, par na unki zaban khuli, na unke chehre ki saralta par koi bal paDa tab baDe maulana ke do aur sathi pakaD liye gaye aur unka pata na batane par goli mar dene ka hukm diya gaya we donon goli khane ko taiyar the, pata batane ko nahin, par baDe maulana ne ise nahin mana aur we bahar aa gaye−giraftar ho gaye unke giraftar hote hi maulana madni jel se chhoD diye gaye; kyonki unke khilaf file mein tab kuch tha hi nahin
baDe maulana aur unke donon sathiyon ko jadda bhej diya gaya oh re, maulana madni! unhonne apne sathiyon se kaha ki yadi baDe maulana ko hindustan bheja ja raha hai, to main jel se bahar rahne ko taiyar hoon; kyonki wahan unki sewa karne wale bahut hai, lekin unhen kahin aur rakha ja raha ho, to phir main bhi unke sath hi rahunga, taki unki uchit sewa hoti rahe!
jab ye khabar mili ki unhen hindustan nahin le jaya ja raha hai, to unki guru bhakti apne guru ke charnon mein pahunchne ke liye bechain ho uthi aur unhonne apne kuch sathiyon se, jinki pahunch sarkar tak thi, ye parchar karaya ki maulana madni ka makke mein rahna khatarnak hai ye zarur yahan kuch na kuch gaDbaD karenge, isliye inhen bhi maulana mahmudul hasan sahab ke pas hi bhej diya jaye ye soojh samajh saphal hui aur maulana madni bhi jadda bhej diye gaye baad mein sab logon ko malta le jaya gaya, jahan we barson nazarband rahe aur apne guru ki sewa karte rahe
we shimla sammelan mein gandhiji ke bulawe par krips se milne gaye−sulah samjhaute ki baten ho rahi theen wahan station par kisi patrakar ne bina unhen bataye unka photo kheench liya aur wo hindustan taims mein chhapa mainne use katkar ek lifafe mein rakh liya aur unke pas pahuncha−hazrat, aapka ek photo khinchwana hai, jab aap kahen main photographer ko bulalun
we talte rahen, taiyar na hue, to mainne lifafa kholkar unka fotoprint unhen dikhaya−mat khinchwaiye aap; mere pas to hai aapka photo! use dekhkar muskuraye tab gambhir hokar bole−ise phaD dijiye adami ki surat napayedar hai, use kya rakhna?
bahut logon ke taqaze par unhonne ek kitab likhi, jismen unke guru maulana mahmudul hasan sahab saurgiyah ke rajanaitik karnamon ka itihas hai in karnamon mein maulana madni ka pura hath raha hai, par us kitab mein aapne apni charcha na aane dene ki puri koshish ki us din station par mile, to mainne iski shikayat ki bole−“main apni kya baat kahta? aur zara rukkar bole−mujhe to aap jante hi hain ” mainne unki taraf dekha aur dekhta hi rah gaya kisi balak ne bhi itni saralta se shayad hi kabhi baat ki ho un jaisi atmnisprihta bus mainne premchandji mein hi dekhi thee; aur kisi mein nahin is atmnisprihta ne hi unhen netagiri ke rog se bachaye rakha sachai ye hai ki we rajnitigya nahin, sant the−han yugdarshi sant we jab tab, jis kisi ka wishwas kar lete the, ye aadhi sachai hai puri sachai to ye hai ki dhokhe aur kapat ko bhasha mein kuch soch hi na sakte the; unka manas jiwan ki tamasik disha se parichit hi na tha
samprdayik dangon ka yug tha aur unki prishthabhumi thi masjidon ke samne baja musalman agrahi the ki masjidon ke samne baja na baje, kyonki isse hamare dharm ka apman hota hai ek din mainne puchha−apaki is bare mein kya ray hai?
bole−main to maulawi hoon, dharm ki baton par hi ray de sakta hoon
mainne kahan−han, dharm ki drishti se hi ray dijiye
bole−par ye dharm ki baat kahan hain, ye to jahalat (murkhata) hai
mujhe malum hai ki jinna ne unhen kharidne ki koshish ki thi aur ek sahab ne dewband ke kai chakkar kate the, par we udhar munh to kya karte, unhonne kabhi pair bhi nahin kiya unke bol the−jinna angrez hai aur main paidaishi taur par angrez ka dushman hoon
unse kaha gaya tha−ap ek bar unse mile to sahi, we apne hi adami hain aur musalmanon ki bahbudi chahte hain aur unhonne jawab diya tha−main kale aur gore donon tarah ke angrezon se nafar karta hoon jinna kala angrez hai aur angrez sirf apni hi bahbudi chahta hai, kisi dusre ki nahin
jinna sahab isse bahut jhallaye the aur muslim ligi halke agabbula ho uthe the asam se lautte samay ek station par maulana ki pagDi utar li gai thi, unhen galiyan di gai theen aur bhi bahut kuch hua tha is ghatna ke turant baad main unse milne gaya aur unhen dekhkar mera dil bhar aaya yahan tak ki hath na milakar main unhen lipat gaya
kuch nahin bole mere liye chay mangai tab kaha−yah to sewa ka mewa hai main phir bhi gambhir raha, to kaha−“gunDa adami jab kharid nahin sakta, to lutna chahta hai ” phir bole−pagal kutte bhaunkte hain ya katte hain mainne dekha tha, us din bhi we sada ki tarah shant aur santulit the man mein ithlana aur apman mein ghabrana unka swbhaw na tha
jinna ke wastawik prtidwandi maulana madni hi the aur unka nam sunte do jinna apni parajay mahsus karte the, kyonki ye maulana hi the, jinke karan desh ka maulwiwarg pura ka pura jinna wirodhi tha aur digwijyi jinna ke samne jisne kabhi bhi apna jhanDa na jhukaya tha!
unka wyaktitw ek amar sher ka wyaktitw tha aur unki wishishtata anjane adami ko bhi prabhawit aur prakashit karti thi, par unke wyaktitw ki sabse baDi cheez thi, unki awaz ek ajib mithas tha usmen, jaise kandra se swarg ke kisi dewta ki awaz aa rahi ho panDit jawaharlal nehru ki awaz bhi hamare desh ki ek master pees awaz hai wo ek kawi aur kalakar ki awaz hai, par maulana ki awaz mein nirjhar aur sagar ka adbhut sangam tha; streetw ka madhurya aur paurush ka gambhirya ek sath usmen ja mile the
we mahan the par apni mahanta ka unhen abhas tak na tha we apne liye kabhi kuch na chahte the unki zindagi ke do chand suraj the−ishwar aur bharat! unka jiwan inhen hi samarpit tha we samarpit jiwan ke uttam udaharn the 15 august 1647 ko unhonne kaha tha−mera kaam pura ho gaya khuda ab izzat ke sath jab chahe apne qadmon mein bula le
6/11/1957 ko rashtrapti Daktar rajendr parsad darul ulum mein padhare aur maulana ke prati apna man prakat kiya unke sath maulana ko baithe dekhkar socha tha—yah itihas purush ke prati rashtra purush ki bhaw wandna hai aur 5 december 1958 ko maulana is sansar se chale gaye; jaise bhagwan ne unki pararthna sun li—khuda jab chahe izzat ke sath apne qadmon bula le ”
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।